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शनिवार, 12 जुलाई 2025

डॉ. रजनीश दीक्षित की 12 जुलाई 2019 की फेसबुक पोस्ट से

 #मेरी_समझ'/37

#लघुकथा_कलश_द्वितीय_महाविशेषांक


.....'मेरी समझ' की अगली कड़ी में एक बार फिर से लेखक हैं आदरणीय #चंद्रेश छतलानी जी। आज उनकी लघुकथा "दंगे की जड़" पर 'अपनी समझ' रख रहा हूँ, कुछ इस तरह:


#लघुकथा - दंगे की जड़

#लेखक_चंद्रेश_छतलानी_जी

#शब्द_संख्या - 236


मैंने बचपन में एक बड़ी ताई जी के बारे में सुना था कि उनको अक्सर लोगों से झगड़ने की आदत थी। लोगों से किस बात पर झगड़ा करना है, उनके लिए कारण ढूंढना कोई बड़ी बात नहीं थी। एक बार की बात है कि कुछ लड़के गली में गुल्ली-डंडा खेल रहे थे। अचानक एक लड़के ने गुल्ली को बहुत दूर तक पहुंचा दिया। बस ताई जी ने लड़कों को आड़े हांथों ले लिया। बोलीं, "खेलना बंद करो"। जब लड़कों ने कारण पूछा तो बोलीं, "अगर मेरी बेटी आज ससुराल से घर आ रही होती तो उसको चोट लग सकती थी।" बेचारे लड़के अपना सिर खुजलाते अपने घरों की ओर चले गए। लड़कों को पता था कि यदि बहस में पड़े तो दंगे जैसे हालात हो सकते हैं।


...आज हमारे देश में ऐसी ताइयों की कमी थोड़े ही है। इस स्वभाव के लोगों को राजनीति में स्वर्णिम अवसर भी प्राप्त हो रहे हैं। आखिर इसी की तो कमाई खा रहे हैं लोग। सुना है अंग्रेजों ने हमारा देश 1947 में छोड़ दिया था लेकिन अफसोस तो इस बात का है कि जाते-जाते वे हमें "फूट डालो और राज करो" का मंत्र सिखा कर गए। इसका अनुसरण करने में फ़ायदे ही फायदे जो हैं। इसके लिए नेताओं को कुछ खास करना भी नहीं है। पांच साल सत्ता का सुख भोगिये और चुनाव से पहले धर्म-जाति के नाम पर शिगूफे छोड़िए, बहुत संभावना है कि अगली सरकार आपकी ही बने। हाँ, यह उनकी दक्षता पर निर्भर करता है कि किसने कितनी बेशर्मी से इस मंत्र का प्रयोग किया। 'जीता वही सिकंदर' वाली बात तो सही है लेकिन जो हार गए वह भी कोई दूध के धुले नहीं हैं। उन्होंने भी आजकल बगुला भगत वाला चोला पहना हुआ है। 


मैंने एक पंडित जी के बारे में सुना है कि वे बड़े ही धार्मिक और पाक साफ व्यक्ति हैं। वह केवल बुधवार को ही मांस-मछली खाते हैं, बाकी सब दिन प्याज भी नहीं। लेकिन बुधवार को भी इस बात का पूरा ध्यान रखते हैं कि जब मांस-मछली का सेवन करते हैं तो जनेऊ को उतार देते हैं और बाद में अच्छी तरह से हाथ धोने के बाद ही जनेऊ पहनते हैं। इन्हें संभवतः अपने धर्म की अच्छाईयों के बारे में न भी पता हो लेकिन दूसरे धर्मों में क्या बुराइयां हैं, इन्हें सब पता है। यह हाल केवल या किसी एक धर्म के तथाकथित ठेकेदारों के नहीं हैं। कमोवेश यही हाल सब जगह है। इस तरह के पाखंडियों का क्या कहिये? आश्चर्य की बात तो यह है कि ऐसे पाखंडी लोगों के बड़े-बड़े आश्रम हैं, मठ हैं, इज्जत है, पैसा है और भक्तों की बड़ी भीड़ भी है। अब ऐसे ही चरित्र वालों को जगह मिल गयी है राजनीति में। वर्तमान समय में राजनीति में धर्म है या धर्म में राजनीति, यह पता लगाना बहुत ही मुश्किल है क्योंकि इनका गठजोड़ रसगुल्ले और चाशनी जैसा हो गया है। खैर...


यह बात किसी के भी गले नहीं उतरेगी कि आखिर रावण के पुतले को आग लगाने वाला सिर्फ आतंकवादी इसलिए करार दिया गया क्योंकि वह किसी और धर्म का है। सुना है कि आतंकी का कोई धर्म नहीं होता तो फिर बुराई खत्म करने वाले का धर्म कैसे निश्चित हो गया। और वैसे भी जब रावण बुराई का प्रतीक है तो फिर उसका धर्म कैसे निश्चित हो गया? और इस तर्ज पर यह जरूरी क्यों है कि आप उसे किसी धर्म का माने? और जो बुरा व्यक्ति जब आपके धर्म का है ही नहीं तो फिर उसे किस धर्म के व्यक्ति ने मारा? इस प्रश्न का औचित्य ही क्या रह जाता है? लेकिन नहीं, साहब। ये तो ठहरे राजनेता। इन्हें तो मसले बनाने ही बनाने हैं। कैसे भी हो, इनके मतलब सिद्ध होने चाहिए।


वैसे भी आजकल रावण दहन के प्रतीकात्मक प्रदर्शनों का कोई महत्व नहीं रह गया है उल्टे अनजाने ही सही वायु प्रदूषण का कारण बनता है सो अलग। क्योंकि जिनके करकमलों द्वारा इस कार्य को अंजाम दिया जाता है, उनके अंदर कई गुना बड़ा रावण (अपवादों को छोड़कर) दबा पड़ा है। रावण का चरित्र तो कम से कम ऐसा था कि उसने सीता को हरण करने के बाद भी कभी भी जबरन कोई गलत आचरण नहीं किया और वह इस आस में था कि एकदिन वह उसे स्वीकार करेंगी लेकिन क्या आजकल के धर्म या राजनीति के ठेकेदारों से ऐसी कोई उम्मीद की जा सकती है? शायद नहीं।


....तो फिर क्या आपत्ति है? और यह जानने की भी आवश्यकता क्या है कि रावण को किसने जलाया? क्या यह काफी नहीं है कि रावण जला दिया गया? यह जरूर काफी होगा उस सामान्य जनमानस के लिए जिसे बुराईयों से असल में नफरत है। लेकिन ये ठहरे नेता। इन्हें तो मजा ही तबतक नहीं आता जबतक समाज में जाति-धर्म के नाम पर तड़का न लगे। आदमी की खुशबू आयी नहीं कि सियार रोने लगे जंगल में, टपकने लगी लार। माना कि पुलिस ने उस तथाकथित आतंकवादी को पकड़ भी लिया है तो यह तो पुलिसकर्मियों की जिम्मेदारी है कि वे अपनी तरफ से तफ्तीश करें और जो कानूनन ठीक हो, उसके हिसाब से सजा मिले। लेकिन....फिर वही। यही तो राजनीति का चारा है। इतिहास गवाह है कि कितने ही अनावश्यक दंगे इन राजनैतिक दलों ने अपने लाभ के लिए कराए हैं। लेकिन...इनका अपना जमीर इनका खुद ही साथ नहीं देता है। ये तो अपने खुद के कर्मो से अंदर ही अंदर इतने भयभीत हैं कि इनकी इतनी भी हिम्मत नहीं है कि ये किसी पाक-साफ आदमी से नजर मिलाकर बात भी कर सकें। आखिर साधारण और सरल आदमी को मंदबुद्धि भी इसीलिए कहा जाता है क्योंकि उसके अंदर छल और प्रपंच नहीं होता। लेकिन बुराई को पहचानना किसी स्कूल में नहीं सिखाया जाता। उसके लिए हमारा समाज ही बहुत है। तभी तो उस मंदबुद्धि के बालक ने बुराई के प्रतीक रावण के पुतले को जला डाला था। जब वह मंदबुद्धि ही था तो संभव है कि उसे अपने धर्म का भी न पता हो लेकिन अच्छाई और बुराई का ज्ञान किसी भी धर्म के व्यक्ति को हो ही जाता है। इसके लिए किसी खास बुद्धिमत्ता की आवश्यकता नहीं है। उसने रावण को जला डाला और छोड़ दिया अनुत्तरित प्रश्न, इस स्वीकरोक्ति के साथ कि "हाँ, मैंने ही जलाया है रावण को। क्या मैं, राम नहीं बन सकता?"


यह ऐसा यक्ष प्रश्न है कि अगर इसका उत्तर खोज लिया है तो "दंगे की जड़ों" का अपने आप ही सर्वनाश हो जाये।


मैं चंद्रेश छतलानी जी को पुनः एक अच्छी लघुकथा के लिए बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ।


(क्रमशः....)


#रजनीश_दीक्षित


(नोट:👉👉जैसा कि पिछले दिनों मैंने एक पोस्ट डाली थी, "लघुकथा_कलश_द्वितीय_महाविशेषांक" में प्रकाशित रचनाओं पर "मेरी समझ" पुनः शुरू कर दिया है और आज की कड़ी में इस रचना को लिया है। यह जानने के लिए कि आपकी कथा/कथायें मुझे कितनी समझ आईं, मेरी दीवार पर गाहे-बगाहे झांकते रहिये☺😊☺। 'मेरी समझ' में जो भी लिख रहा हूँ, यह वास्तव में मेरी समझ ही है, इसके इतर कुछ भी नहीं।)


"मेरी समझ" की अगली कड़ी में किसी अन्य लेखक/ लेखिका की रचना होगी। इंतजार कीजिए।☺☺

रविवार, 6 जुलाई 2025

डॉ. रजनीश दीक्षित की 6 जुलाई 2019 की फेसबुक पोस्ट

.....'मेरी समझ' की अगली कड़ी में आज के लेखक हैं आदरणीय चंद्रेश छतलानी जी। आज उनकी लघुकथा "अन्नदाता" पर अपनी समझ रख रहा हूँ, कुछ इस प्रकार:


#लेखक - चंद्रेश छतलानी जी

#लघुकथा - अन्नदाता 

#शब्द_संख्या - 400

मैंने बहुत पहले एक कविता लिखी थी, उसकी दो पंक्तियाँ :


बरसात में कुकुरमुत्ते जैसे उग आते हैं,

नेता भी चुनावों में वैसे ही बढ़ जाते हैं।

अगर कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो इन्हें नेता कहना 'नेता' शब्द का अपमान हैं क्योंकि इनके क्रिया-कलाप इस शब्द के पासंग भी नहीं हैं।

कई साल पहले एक फ़िल्म आयी थी जिसमें कहा गया था कि "बीहड़ में तो बागी होते हैं, डकैत तो अब संसद में बैठते हैं।" राजनेताओं ने अपनी इस छवि को बनाने में बड़ी मेहनत की है। जनता के पसीने की कमाई की जो बंदर-बाँट करते हैं, उसकी जितनी मजम्मत की जाए कम है।

..कहते हैं जंगल में आदमी कितना भी सावधानी से कदम रखे, शिकार की तलाश में बैठे जानवरों को खबर हो ही जाती है। दरअसल, प्रकृति ने उनके उदर पूर्ति के लिए ये हुनर दिया है कि वे अपने शिकार को उसकी गंध और तापमान से दूर से ही पहचान लें और घात लगाकर उन पर आक्रमण कर दें। बिल्कुल यही प्रक्रिया आजकल के राजनेता अपनाते हैं। हमारे देश की राजनैतिक पार्टियों ने हमेशा जनता को अपने हित साधने के लिए प्रयोग किया है। चाहे वह 1947 में देश के विभाजन की दुःखद घटना हो या उसके बाद से समय-समय पर होने वाले धर्म/मजहब या जाति आधारित दंगे हों। सबके पीछे नेताओं की सत्ता लोलुपता और अपने फायदे ही छुपे रहते हैं। नेताओं ने बड़ी ही चतुरता से देश को जाति-मजहब में बाँटने का काम किया है। आज हालात यह हैं कि मतदाता अपने कीमती मत का प्रयोग इन चालबाजों की बातों में आकर कर रहे हैं और इनकी कुटिल राजनीति का हिस्सा बन रहे हैं। इन नेताओं ने इसे अपना ऐसा ब्रम्हास्त्र बनाया हुआ है कि जब इसका असर होता है तो न तो जनता को अच्छी शिक्षा चाहिए, न स्वास्थ्य सेवाएं चाहिए और न ही और कोई विकास। 

सुप्रसिद्ध कवि और गीतकार नीरज जी की एक रचना की कुछ पंक्तियाँ हैं :ये

"भूखा सोने को तैयार है मेरा देश,

बस उसे परियों के सपने दिखाते रहिए।"

नीरज जी ने यह बात कई दशकों पहले लिखी थी लेकिन आजकल की हकीकत तो यह है कि आप सपने छोड़िए, बस एक मोबाइल, लैपटॉप या साइकिल दे दीजिए।। बस, मतदाता आपका गुलाम। नेताओं के इसी सफलता के अचूक सूत्र ने बहुत से नेताओं को उनकी पीढ़ियों से सत्तासीन किया हुआ है। इन नेताओं के हालात कुछ ही दशक में कहाँ से कहाँ पहुँच गए? इन्होंने बाँटने की राजनीति को इस तरह बोया और काटा कि उनके परिवार का हर सदस्य सत्ता सुख भोगता रहा और देश की जनता के पसीने की कमाई से खुद की झोपड़ी, महलों में बदल ली और आम आदमी का जीवन स्तर नीचे, और नीचे गिरता चला गया। 

...प्रस्तुत लघुकथा में लेखक ने आज की राजनीति को देश के अन्नदाताओं से जोड़कर लिखा है। आजकल खेती करना बहुत ही घाटे के सौदा हो गया है। तकनीक की उपलब्धता के बाबजूद आज भी किसान प्रकृति के रहमो-करम पर निर्भर है। प्रकृति को हमने अपनी सुख-सुविधाओं के लिए बदलने पर इतना मजबूर कर दिया कि अब उसके दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं। जंगल के जंगल साफ हो रहे हैं, सड़कों को चौड़ा करने के फलस्वरूप पेड़ों की कटाई लगातार जारी है, नदियों का पानी, कारखानों की गंदगी और रसायन के लगातार मिलने से प्रदूषित हो रहा है। तो ऐसे में किसान करे भी तो क्या करे? सब किसानों की यह क्षमता नहीं है कि वे अपने कुएं खोद लें और पम्प से पानी प्राप्त कर लें और जिनकी यह स्थिति है उन्हें भी पानी के लगातार कम हो रहे जलस्तर से इस सुविधा का लाभ आखिरकार कब तक मिल पायेगा? चलो मान भी लिया जाए कि समय से बारिश हो भी गई तो रही बची कसर पूरी कर देते हैं आवारा जानवर। किसानों की जिंदगी इन समस्याओं के कारण बहुत ही मुश्किल और दयनीय हो जाती है। आजकल खेती से जो पैदावार होती है उसमें किसान की लागत भी नहीं निकलती है। ऐसे में कई किसान समस्या के निदान हेतु या तो किसी बैंक के कर्जदार ही जाते हैं या किसी साहूकार के। दोनों ही हालात में वह कर्ज के चक्रव्यूह से निकलने में अपने आपको असहाय महसूस करता है और फिर उसे इस जहाँ से रुखसत होने का दुर्भाग्यपूर्ण कदम उठाना पड़ता है। 

किसी ने इस तरह के हालात पर कहा है -

के चेहरा बता रहा था कि मरा है भूख से,

सब लोग कह रहे थे कुछ खा के मर गया।😢

चुनावों का मौसम आ चुका था और आज उस किसान की फसल कटी है। वह फसल से हुई उपज और जिंदगी को तौलने की असफल कोशिश में था कि 'गिद्धों' का आना शुरू हो गया। इन्हें आम आदमी की मुश्किलों से कोई मतलब नहीं। आम आदमी की मुश्किलें इनकी बला से। शिकार देखा और अपने धर्म के रंग का तीर चला दिया, "काका, आपका मत मेरा मत। क्योंकि आपका धर्म मेरा धर्म और धर्म की रक्षा हेतु आपका कर्तव्य है कि आप मुझे ही अपना मत प्रदान करें।" .... अब होली चाहे त्योहार के नियत समय पर अपने रूप में कम मनाई जाए लेकिन चुनावों में रंगों का महत्व कुछ ज्यादा ही बढ़ जाता है। जैसे-जैसे चुनाव की तारीखें पास आती जा रही हैं, हर रंग वाला, धर्म की रक्षा हेतु खुद को सच्चा ठेकेदार बताते हुए आम आदमी से खुद को चुनने के लिए गुहार करता है। आम आदमी? उसके लिए तो इन रंगों के क्या मायने होंगे जब उसकी जिंदगी में सिर्फ रातें ही नहीं दिन भी स्याह हो चुके हैं। 

...लेकिन हमारे देश का किसान या कोई भी मेहनतकश आदमी इन चमचमाती गाडियों में आने वालों की चाशनी से पगी बातों में अपनापन देखता है और उसे लगता है कि यह सब तो अपने ही हैं। सभी उसके साथ हैं, शायद जिन्दगी का सफर इतना मुश्किल नहीं होगा। लेकिन हकीकत इन सबसे अलग होती है। उसे यह पता भी नहीं चल पाता कि इन रंगों ने अपना काम कब कर दिया? चारों तरफ अपने ही तरह और उन्हीं रंगों में रंगे लोगों का हित शायद सिद्ध हो चुका है। अब बस आखिरी निर्णय और वह अपने गन्तव्य की ओर प्रस्थान कर चुका है। एक ऐसे गन्तव्य की ओर जहाँ से लौटकर कोई नहीं आता, अन्नदाता भी नहीं।😢

**

मैं चंद्रेश छतलानी जी को पुनः एक अच्छी लघुकथा के लिए बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ।

#रजनीश_दीक्षित

शनिवार, 28 जून 2025

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My Selected Laghukathas





रविवार, 22 जून 2025

क्षण की पकड़ अथवा शब्द संख्या

कुशल लघुकथाकार नेतराम भारती जी द्वारा यह प्रश्न किया गया कि लघुकथा में क्षण की पकड़ महत्वपूर्ण है अथवा शब्द संख्या?

इसका उत्तर मेरे अनुसार,

एक लघुकथा के उदाहरण से बात करना चाहूंगा, भाई जी (चूंकि बात केवल क्षण और शब्द सीमा की है, इसलिए शीर्षक हटा रहा हूँ।)


आज उसके बेटे का जन्मदिन था। वह मुस्कुराती हुई आई, मोबाइल उठाकर कॉल किया।

सुनाई दिया , "यह नंबर अब सेवा में नहीं है।" 

बेटा दो साल पहले एक दुर्घटना में जा चुका था।

-0-


अब इस रचना को कोई यूं कह दे,


घड़ी में रात के बारह बजे। वह इस वक्त का इंतजार कर ही रही थी। आज उसके बेटे का जन्मदिन था। उसने मुस्कुराते हुए मोबाइल उठाकर कॉल किया और साथ में अपने पति को झिंझोड़ कर उठाया। सुनाई दिया , "यह नंबर अब सेवा में नहीं है।" 

उसे सहसा विश्वास नहीं हुआ। उसने मोबाइल स्पीकर पर किया और पति की तरफ देखा।

पति ने फोन पर नाम देखकर उसकी तरफ कातर दृष्टि से देखा।

पति के देखते ही सहसा उसे याद आया, 

बेटा दो साल पहले एक दुर्घटना में जा चुका था।

-0-

यदि मै अपनी बात कहूं, दूसरी रचना अधिक दृश्यात्मक है: पति-पत्नी, रात के 12 बजे का समय, स्पीकर ऑन करना, इमोशनल रिएक्शन। और पहली में, माँ के अकेलेपन, उसकी आशा और विडंबना को पाठक स्वयं महसूस करता है, बिना अतिरिक्त विवरण के।


मेरे अनुसार पहली वाली में भावनात्मक प्रभाव व्यक्तिगत है और दूसरी में दो लोगों में विभाजित। पति का पात्र, रात बारह बजे की बात आदि ना भी हों तो भी रचना में हम माँ का बेटे से प्रेम संप्रेषित कर पा रहे हैं और अधिक संक्षिप्तता के साथ। पति का जिक्र आते ही प्रबुद्ध पाठक रचना को कुछ हद तक वैसे समझ जाते हैं।

अतः ऐसी लघुकथा में तो दोनों बातों का सही मेल अच्छी रचना के लिए ज़रूरी होना चाहिए।

 लेकिन, साथ ही ऐसी रचनाएं भी हो सकती हैं, जिन्हें हम लम्बा खींच लें और फिर भी अपने संक्षिप्त रूप जितना ही प्रभावित कर सकें।

मुझे लगता है यह रचनाकार के कौशल पर अधिक निर्भर करता है। यहां पर यह भी ध्यान देना जरूरी है कि कई वरिष्ठ लघुकथाकार दोनों पर ही ध्यान नहीं देने को कहते हैं। उनके लिए क्षण की पकड़ या कोई पंच लाइन हो ना हो फर्क नहीं पड़ता तथा शब्द सीमा भी बढ़ाई जाए तो भी फर्क नहीं। हालांकि नैसर्गिक संक्षिप्तता और प्रभावशीलता के तो सभी समर्थक हैं ही।

क्षण की पकड़ आत्मा है लघुकथा की, शब्द सीमा उसका ढांचा। ढांचा महत्वपूर्ण है, पर आत्मा के बिना वह केवल खाली खोल है और आत्मा बिना ढांचे के अदृश्य।

साथ ही हमें यह तो याद रखना चाहिए ही कि, लघुकथा का मूल उद्देश्य एक क्षण, स्थिति या अनुभव को तीव्रता और प्रभाव के साथ प्रस्तुत करना होता है। जो पाठक को झकझोर दे, ना झकझोरे लेकिन सोचने को प्रेरित तो करे ही।

-0-

डॉ. चंद्रेश कुमार छ्तलानी 

सोमवार, 12 मई 2025

पुस्तक समीक्षा | सुकेश का मास्टर स्ट्रोक | सुरेश सौरभ


पुस्तक -मास्टर स्ट्रोक  (साझा लघुकथा संग्रह) 
संपादक- सुकेश साहनी
प्रकाशन- अयन प्रकाशन नई दिल्ली

समीक्षक-सुरेश सौरभ
पता- निर्मल नगर लखीमपुर खीरी उत्तर प्रदेश पिन-262701
मो-7860600355


हिंदी के शीर्ष लघुकथाकार सुकेश साहनी जी, संपादन कला एवं लेखन कला में वैश्विक स्तर पर पहचान बना चुके हैं, उनके संपादन में 2020 में प्रकाशित लघुकथा का साझा संग्रह "मास्टर स्ट्रोक" की लघुकथाओं से मैं गुजर रहा हूं, जिसकी लघुकथाएं रिश्ते नातों व सामाजिक बंधनों विभेदों की गहनता से पड़ताल करती हुई दिखाई पड़ती हैं। बलराम अग्रवाल की लघुकथा  'बिना नाल का घोड़ा' ऐसी लघुकथा है, जो यह दर्शाती है कि आज के भौतिकतावादी युग में इंसान बिल्कुल घोड़ा सरीखा बन चुका है, जो सब कुछ सहता हैं, बहुत कुछ सुनता है, सिर्फ इसलिए कि घर-परिवार और ऑफिस के बंधनों को निभाना उसकी नैसर्गिक विवशता है। प्रियंका गुप्ता की लघुकथा  'भेड़िये' घर में छिपे षड्यंत्रकारियों की ओर संकेत करती है। यह लघुकथा मानवेतर कथानक के माध्यम से अपना संदेश देने कुछ हद सफल रही है, मुझे लगता है कि कई बार बहुत गूढ़ प्रतीकों के माध्यम से संदेश प्रेषित करने वाली लघुकथाएं, आम पाठकों के सिर के ऊपर से गुजर जाती हैं, वह किसी फैंटैसी कविता सी प्रतीक होती हैं।

धार्मिक उन्माद किसी भी देश और समाज के लिए विनाशकारी होता है, मार्मिक लघुकथा "रंग-बेरंग" में बृजेश कानूनगो ने कपड़ों के प्रतीकों के माध्यम से यह संदेश दिया है कि जो समाज सांप्रदायिक झगड़ों में उलझा रहता है, वह कभी तरक्की नहीं कर सकता। किसी भी देश व समाज के लिये सांप्रदायिकता की आग अत्यंत विनाशकारी होती है।  
रूप देवगुण की लघुकथा 'दूसरा सच' में लघुकथाकार ने यह संदेश देने की कोशिश की है कि थोड़ी सी मदद करने वाले हाथ कभी-कभी घर के पीछे के रास्ते से आकर घर की इज्जत पर हाथ डालने की फितरत में लगे रहते हैं। संध्या तिवारी की लघुकथा 'राजा नंगा है' में यह दिखाया गया है कि पुरुष प्रधान समाज में आज भी स्त्रियां दोयम दर्जे पर हैं, वह अपने रिश्तों को बचाने के लिए, झूठी मर्यादाओं की चादर ओढ़े रहती हैं,  सिर्फ इसलिए कि रिश्तों की महीन डोर दरकने न पाये, टूटने न पाये। 
सुकेश साहनी की लघुकथा 'चिड़िया' नैराश्य जीवन की अंधेरी निशा में आशाओं का दीपदान करती उकृष्ट रचना है। थके, हारे, टूटे आत्महत्या का वरण करने वाले इंसान की सोई चिंतन चेतना को जाग्रत करती हुई, उसे आत्मबोध कराती, आत्मदर्शन कराती, संजीदा रचना है। 
मधुदीप की लघुकथा 'बंद दरवाजा' यह दर्शाती कि पाप करने वाले धर्म का सहारा लेकर हमारे सामने हमेशा पाक-साफ  बने रहते हैं।  महेश दर्पण की लघुकथा 'इस्तेमाल' में स्त्रियों के फ्लर्टपन को दिखाया गया है। योगराज प्रभाकर की लघुकथा 'जमूरे' में लेखक ने फिल्मी व्यवसायिक लेखन की उस सडांध का बरीकी से रेखांकन किया है, जो समाज और साहित्य के लिये घोर चिंतन-मंथन का विषय है।
लघुकथा 'रोटी का टुकड़ा' के कुछ वाक्यांश देखिए यथा-"एक बच्चे को पीटते हुए माँ कहती है, "मर जा, जमादार हो जा.. तू भी भंगी बन जा...तूने रोटी क्यों खाई?" बच्चे ने भोलेपन से कहा "माँ एक टुकड़ा उनके घर का खाकर क्या मैं भंगी हो गया। ......और जो काकू भंगी हमारे घर पर पिछले दस सालों से रोटी खा रहा है तो वह क्यों नहीं 'बामन' हो गया।" भूपिंदर सिंह की यह लघुकथा जातिवाद के दंश पर करारा प्रहार करती। धर्म पूछ कर मारने वाले भी आतंकी और जाति पूछकर मारने वाले भी आतंकी ऐसा प्रबुद्ध वर्ग कहता रहा है। भारत में अभी भी एक धड़ा सामंती सोच धारण किये हुये है, जो संविधान के कनूनों को दरकिनार कर कहीं दलितों को खेत में जिंदा जलाता हैं, कहीं दूल्हे को घोड़ी पर बैठने नहीं देता ,कहीं उसे जूते से पेशाब पिलाता है।  सुदर्शन रत्नाकर की "शुद्ध जात" भी इसी तरह की सामंती व्यवस्था को दर्शाती एक  प्रेरक लघुकथा है। संग्रह में ऐसी कई दलित विमर्श की उकृष्ट लघुकथाएं संकलित हैं। 
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'  जी पुस्तक की भूमिका में लिखते हैं यथा,-"किसी रचनाकार का रचनाकर्म या कोई विशिष्ट रचना पाठक को वशीभूत कर ले, उस रचना के समग्र प्रभाव की अनुगूँज रह-रहकर मानस में उत्ताल तरंगों की तरह उभरती रहें, रचना का अविच्छिन्न प्रवाह सहृदय पाठक को सोचने पर बाध्य कर दे। अनायास ही मुँह से आह! या वाह ! निकल पड़े। तभी समझो कि रचना अपने नाम से याद की जाएगी, यानी रचनाकार को 'रचना' के नाम से याद किया जाएगा। ऐसी रचना ही मास्टर स्ट्रोक हो सकती है। लघुकथा-जगत् में ऐसे लेखकों की एक विशिष्ट शृंखला है, जिनकी लघुकथाएँ पाठक को अभिभूत करके श्रेष्ठ कृति में अपना स्थान बना चुकी हैं। 'मास्टर स्ट्रोक' के दायरे में किसी रचना का आना प्रबुद्ध पाठक-वर्ग की स्वीकृति और श्लाघा का प्रतिफलन है। कुशल सम्पादक की तत्त्वान्वेषी दृष्टि उसी पाठकीय संवेदना को पकड़ती है।"
निश्चित रूप से काम्बोज जी का कथन उचित ही है,  कुछ रचनाएँ होती हैं जो देर तक और दूर तक सफर करके हमारे मानस पटल पर अंकित हो जाती हैं, संपादक सुकेश जी में वह अनूठी प्रतिभा है जो कंकर और हीरे की पारखी पहचान रखती है। 
चित्रा मुद्गल, छवि निगम, मार्टिन जॉन, चंद्रेश कुमार छतलानी,पवन शर्मा, कमल चोपड़ा,  अशोक भाटिया, विष्णु नागर, भगीरथ, मुकेश वर्मा, सतीश राठी, हरि मृदुल, रामकरन, रामकुमार घोटड़ सहित कुल 112 लघुकथाकारों की लघुकथाओं को संग्रह में शामिल किया गया है। संग्रह की लघुकथाएं  सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों को सहेजते हुए दिखाई पड़ती हैं। चयन भी इस तरह से  ने किया है कि कहीं भी पाठक को ऊब या उलझन महसूस नहीं होगी। पछोर-पछोर कर जैसे गृहणी सार-सार को सहेज कर थोथा उड़ा देती हैं, ऐसे ही संपादक ने सारगर्भित, दूरदर्शी, संवेदनशील, मार्मिक, पठनीय विचारणीय लघुकथाओं का चयन करके लघुकथा विधा को समृद्ध किया है। संपादक इस महनीय कार्य के लिये हार्दिक बधाई के पात्र हैं। 
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- सुरेश सौरभ

सोमवार, 5 मई 2025

आलेख: हिंदी लघुकथा-साहित्य में मधुदीप गुप्ता का योगदान | डॉ. चंद्रेश कुमार छ्तलानी


परिचय

हिंदी लघुकथा के समकालीन परिदृश्य में ऐसे अनेक रचनाकार हुए हैं जिन्होंने इस अल्परूप को गंभीरता, प्रासंगिकता और कलात्मक ऊँचाई प्रदान की है। उनमें मधुदीप गुप्ता का स्थान विशिष्ट है। न केवल उनकी सौंदर्यबोध से परिपूर्ण गद्य-रचनाएँ पठनीय हैं, बल्कि उन्होंने लघुकथा की सैद्धांतिक खोज और उसके साहित्यिक मानदंडों को भी ठोस आकार दिया।

1. लघुकथा की सजग चेतना

मधुदीप गुप्ता की कृतियाँ सामाजिक यथार्थ से गहरा मेल खाती हैं। उनके पात्र हाशिये पर जीते आम मानव, पितृ-स्नेह, पुत्रमोह, परिवारगत द्वंद्व, आर्थिक विषमताएँ—सभी को सौम्य एवं मार्मिक बनावट में जीते-जी लेते हैं। वे किसी विशेष घटना पर सीधे प्रहार नहीं करते, बल्कि साधारण दृश्यों के भीतर पनपी विषमताओं को प्रतीकों और सूक्ष्म संकेतों से उजागर करते हैं।

2. शैलीगत विशेषता

लघुकथाओं में प्रत्येक शब्द को उन्होंने ‘वज्र’ की तरह निखारा है—बिना अतिशयोक्ति के, पूर्णता में। उनकी अधिकतर लघुकथाएँ अंत में अचानक ‘शॉक एलिमेंट’ नहीं देतीं, बल्कि धीरे-धीरे पाठक के मन में एक अंतर्नाद उत्पन्न कर छोड़ती हैं। एक हल्की-सी व्यंग्यपूर्ण मुस्कान, जो चुपचाप सोचने पर भी मजबूर करती है।

3. संपादकीय एवं आलोचनात्मक योगदान

मधुदीप ने लघुकथा-संग्रहों एवं विशेषांकों का संपादन कर नए लेखकों को मंच दिया। उन्होंने विषयगत, विचारगत और शिल्पगत समीक्षा-लेख लिखकर लघुकथा को ‘साहित्यशास्त्र’ के दायरे में स्थापित किया। उनके लेख भारत के प्रमुख साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए, जिनमें विधा की परिभाषा, रूप, और लक्ष्य पर ठोस विमर्श मिलता है। पड़ाव और पड़ताल जैसी महत्वपूर्ण श्रंखला उनके बेहतरीन कार्यों में से एक है।

4. प्रतिनिधि लघुकथाएँ एवं संक्षिप्त परिचय

1. तुम इतना चुप क्यों हो दोस्त

विषय: कॉफी हाउस की पृष्ठभूमि में ‘मौन स्वीकृति’ पर तीखा व्यंग्य।

स्रोत: मूल संग्रह

2. सन्नाटों का प्रकाशपर्व

विषय: भीड़-एकाकीपन तथा मनोवैज्ञानिक दरारों का प्रतीकात्मक चित्रण।

स्रोत: मूल संग्रह

3. पुत्रमोह

विषय: वृद्ध पिता-पुत्र संबंधों में उपजी अन्ध आस्था और कोमल क्षण।

स्रोत: भारत दर्शन (https://bharatdarshan.co.nz/magazine/articles/1229/putra-moh-laghukatha.html)

4. हिस्से का दूध

विषय: पारिवारिक स्वार्थ एवं मानवता के टकराव की मार्मिक कथा।

स्रोत: भारत दर्शन (https://bharatdarshan.co.nz/hindi-sahitya/1688/hissey-ka-doodh-laghukatha)

5. नियति

विषय: जीवन-निराशा, संघर्षों और नियति की स्वीकार्यता का संवेदनशील अन्वेषण।

स्रोत: यूट्यूब वर्णन (https://www.youtube.com/watch?v=io03qfj78L0)

6. नमिता सिंह

विषय: एक नारी कितनी शक्तिशाली हो सकती है और उसे स्वाभिमानी भी रहना चाहिए, वह इस लघुकथा में बहुत अच्छी तरह दर्शाया गया है।

स्रोत: लघुकथा दुनिया (https://laghukathaduniya.blogspot.com/2019/12/blog-post_13.html)

5. निष्कर्ष

मधुदीप गुप्ता ने हिंदी लघुकथा को ‘हल्की-फुल्की’ पारंपरिक कल्पना से ऊपर उठाकर गंभीर साहित्यिक विमर्श का विषय बनाया। उनकी रचनाएँ यह प्रमाणित करती हैं कि लघुकथा कितने गहरे सामाजिक और वैश्विक प्रश्न उठा सकती है, मनुष्य की आंतरिक पीड़ा और बची-खुची आशाओं को उजागर कर सकती है, और शिल्पगत दृष्टि से पूर्ण परिपक्व हो सकती है।

उनके संपादकीय एवं आलोचनात्मक लेखन ने लघुकथा को नई और व्यापक दृष्टि दी, जिससे यह विधा आज पाठकों और शिक्षाविदों दोनों में समकक्ष सम्मानित हुई है।

संदर्भ

1. भारत दर्शन:

https://bharatdarshan.co.nz/hindi-sahitya/1688/hissey-ka-doodh-laghukatha

2. यूट्यूब: 

https://www.youtube.com/watch?v=io03qfj78L0

3. लघुकथा दुनिया: 

https://laghukathaduniya.blogspot.com/2019/12/blog-post_13.html


- डॉ. चंद्रेश कुमार छ्तलानी, उदयपुर - राजस्थान. 9928544749

सोमवार, 7 अप्रैल 2025

आलेख: लघुकथा का कविता में रूपांतरण (एक सृजनात्मक अन्वेषण) | डॉ. चंद्रेश कुमार छ्तलानी

"कविता वह दर्पण है, जिसमें लघुकथा की आत्मा को नए अंदाज़ में देखा जा सकता है।"

लघुकथा, साहित्य की वह सूक्ष्म कला है जो एक पल, एक संवाद, या एक अनुभव को इतनी सघनता से पिरोती है कि पाठक के मन में गूँजती रह जाती है। परंतु जब इसी लघुकथा को कविता के रूप में ढाला जाता है, तो यह एक नया जन्म लेती है-शब्दों का संगीत, भावों का नृत्य, और छंदों की लयबद्धता के साथ। यह रूपांतरण केवल शैली का परिवर्तन नहीं, बल्कि कथा के मर्म को हृदय तक पहुँचाने का एक काव्यमय तरीका है।

लघुकथा और कविता: साहित्यिक उड़ान के दो पंख

लघुकथा और कविता, दोनों ही मानवीय भावनाओं के सशक्त माध्यम हैं, पर उनकी अभिव्यक्ति का ढंग भिन्न है:

लघुकथा: लघुकथा को एक वृक्ष मानें तो जड़ें घटना में, तने कथा में, और फल संदेश व चिंतन में कह सकते हैं। 

कविता: कविता सागर की तरह है, जिसकी लहरें भावों की, गहराई अर्थ की, और मोती शब्दों के माने जा सकते हैं।

जब ये दोनों मिलते हैं, तो एक ऐसी सृजनात्मक ऊर्जा जन्म लेती है जो पाठक को सोचने, महसूस करने और रचनात्मकता के नए आयामों से रूबरू कराती है। गद्य से पद्य में रूपांतरण गद्य में निहित उन अनकहे भावों को दर्शा सकता है, जो कि गद्य में दर्शाना लगभग असंभव सा प्रतीत होता है।

पांच चरणों में लघुकथा का काव्यमय जन्म

1. भावों की खोज: कथा की आत्मा को पकड़ें

लघुकथा के मूल भाव एवं विषय, जैसे विसंगति, प्रेम, विषाद, सत्य, निराशा या आशा को पहचानें। ये भाव कविता की नींव होंगे।

2. शब्द:

कविता के लिए ऐसे शब्द चुनें जो भाव को दृश्य और संवेदना में बदल दें।

3. लय और संगीत:

छंद और तुकबंदी से कविता को स्मरणीय बनाएँ। मुक्त छंद या तालबद्ध रचना चुन सकते हैं।

4. संक्षिप्तता:

लघुकथा की सारगर्भिता बनाए रखते हुए, कविता को सघन और प्रभावशाली बनाएँ।

5. पुनर्लेखन:

रचना को जोर से पढ़ें, लय की त्रुटियाँ सुधारें, और भावों की संवेदनशीलता और संप्रेषणीयता बढ़ाएँ।

उदाहरण: यहाँ हम एक लघुकथा का उदाहरण लेकर चर्चा करते हैं,

लघुकथा: मैं जानवर

कई दिनों के बाद अपने पिता के कहने पर वह अपने पिता और माता के साथ नाश्ता करने खाने की मेज पर उनके साथ बैठा था। नाश्ता खत्म होने ही वाला था कि पिता ने उसकी तरफ देखा और आदेश भरे स्वर में कहा, 

"सुनो रोहन, आज मेरी गाड़ी तुम्हें चलानी है।", कहते हुए वह जग में भरे जूस को गिलास में डालने लगे। लेकिन पिता का गिलास पूरा भरता उससे पहले ही उसने अंडे का आखिरी टुकड़ा अपने मुंह में डाला और खड़ा होकर चबाता हुआ वॉशबेसिन की तरफ चल पड़ा।

उसकी माँ भी उसके पीछे-पीछे चली गयी और उसके पास जाकर उसका हाथ पकड़ कर बोली, "डैडी ने कुछ कहा था..."

"हूँ..." उसने अपने होठों को मिलाकर उन्हें खींचते हुए कहा।

"तो उनके लिए वक्त है कि नहीं तेरे पास?" माँ की आँखों में क्रोध उतर आया

और उसके जेहन में कुछ वर्षों पुराना स्वर गूँज उठा, 

"रोहन को समझाओ, मुझे दोस्तों के साथ पार्टी में जाना है और यह साथ खेलने की ज़िद कर रहा है, बेकार का टाइम वेस्ट..."

पुरानी बात याद आते ही उसके चेहरे पर सख्ती आ गयी और वॉशबेसिन का नल खोल कर उसने बहुत सारा पानी अपने चेहरे पर डाल दिया, कुछ पानी उसके कपड़ों पर भी गिर गया।

यह देखकर माँ का पारा सातवें आसमान पर पहुँच गया, वह चिल्ला कर बोली,"ये क्या जानवरों वाली हरकत है?"

उसने वहीँ लटके तौलिये से अपना मुंह पोंछा और माँ की तरफ लाल आँखों से देखते हुए बोला,

"बचपन से तुम्हारा नहीं जानवरों ही का दूध पिया है मम्मा फिर जानवर ही तो बनूँगा और क्या?"

-0-

कविता में रूपांतरण:

भावों की खोज:

कथा में अवहेलना, क्षोभ, कटाक्ष का भाव है। बचपन में की गई उपेक्षा और अब वही उपेक्षा को लौटाने की पीड़ा मुख्य भाव है।

शब्द:

संवादों को छोटे-छोटे, प्रभावी अंशों में ढाला जाए।

चित्रात्मक शब्दों का प्रयोग हो सकता है ("आँखों में उसकी आग समाई", "गुस्से में माँ चिल्लाई")।

लय और संगीत:

मुक्तछंद में आंतरिक प्रवाह के साथ। कथात्मकता बनी रहे, इसके लिए छोटे वाक्यों में भाव व्यक्त किए जा सकते हैं।

संक्षिप्तता:

मूल कथा की आत्मा को बरकरार रखते हुए, कम शब्दों में पूरी रचना कविता में कही जाए।

कविता : मैं जानवर

जूस पीते पिता ने कहा,

"आज गाड़ी तुम चलाना।"

अनसुना कर बेटा उठा,

उसे तो था अंडा चबाना।


माँ ने रोका हाथ पकड़कर,

"डैडी की बात सुनो कभी,

क्या उनके लिए वक्त नहीं है,

बस अपनी धुन में रहते सभी!"


बेटे की यादों में चित्र उभरे,

गूँज उठा सोच में एक पुराना स्वर,

"रोहन को समझाओ ज़रा,

है पार्टी ज़रूरी, रुकूं कैसे मैं घर!"


याद आई बातें, बदला था चेहरा,

नल से पानी उसने तेज़ बहाया,

कुछ गिरा कपड़ों पर उसके,

देख माँ का गुस्सा बढ़ आया।


"क्या यह जानवरों की हरकत?!"

गुस्से में थी माँ चिल्लाई,

बेटे ने तौलिया उठाकर देखा,

आँखों में उसकी आग समाई।


"बचपन से माँ, तुम्हारा नहीं, 

जानवरों का दूध है पिया,

तो जानवर ही बनूँगा ना,

और क्या - और क्या?"

-0-


निष्कर्ष:

लघुकथा का काव्य में रूपांतरण, दो विधाओं का मिलन है- एक ओर लघुकथा की मितभाषिता, दूसरी ओर कविता का संगीत। यह प्रक्रिया पाठक को न सिर्फ कथा के सार से जोड़ती है, बल्कि उसे शब्दों के नृत्य में भी डुबो देती है। जैसे एक ही फूल को अलग-अलग कोण से देखने पर नए रंग दिखते हैं, वैसे ही लघुकथा का काव्य रूप हमें जीवन के सत्यों को देखने की एक नई दृष्टि देता है।

यह रूपांतरण केवल शब्दों का खेल नहीं, बल्कि भावों का पुनर्जन्म है। जब लघुकथा कविता बनती है, तो वह पाठक के मन में अमिट छाप छोड़ सकती है, एक ऐसी छाप जो सोचने पर मजबूर करती है, और महसूस करने को प्रेरित।

-0-


चंद्रेश कुमार छ्तलानी 
9928544749
उदयपुर, राजस्थान

प्रेरणा: 
शेख शहज़ाद उस्मानी जी द्वारा लघुकथा का काव्य रूपांतरण।

मंगलवार, 4 मार्च 2025

लघुकथा का काव्यात्मक रूपांतरण । शेख शहज़ाद उस्मानी

 चन्द्रेश कुमार छतलानी (उदयपुर, राजस्थान) की लघुकथा के काव्यात्मक रूपांतरण का एक प्रयास -

शीर्षक : विधवा धरती

(अन्य शीर्षक सुझाव: कितने बार विधवा?)


रक्तरंजित सुनसान सड़कें थीं, 

तो दर्द से चीखते घर, बस। 

उजड़े शहर थे, तो बसते श्मशान, क़ब्रिस्तान, बस।

बलिवेदियॉं थीं, तो साम्प्रदायिक दंगों की निशानदेहियाॅं, बस।

याद था उसे वह मंजर,

रहा जब वह सात साल का।

स्वतंत्रता संग्राम में उसके पिताजी की शहादत का।

तीन वर्ष बाद ... था देश आज़ाद।

उसने समझा... भारत मॉं को पिताजी का सदा सुहागन का आशीर्वाद।

हालात शहर के देखकर आज उससे रहा नहीं गया। 

कर्फ्यू के बावजूद भी तीन साड़ियाँ  लेकर, बाहर वह निकल गया।

ढलती उम्र में भी किशोरों की तरह... जाने कैसे छुपते-छिपाते...  शहर के एक बड़े  चौराहे पर  पहुँच गया।

जाकर वहॉं उसने पहली साड़ी निकाली, केसरिया रंग वाली... 

और आग  उसमें उसने लगा दी।

फिर... दूसरी साड़ी उसने वहीं निकाली, 

हरे रंग वाली, आग उसमें भी उसने लगा दी।

और तीसरी सफ़ेद वाली साड़ी निकाल ...  उसमें खुद ही अपना मुँह उसने ज्यों ही छिपा लिया।

इक पुलिस दल वहॉं पहुॅंच गया। 

"कर क्या रहा यहॉं?

क्यों आगजनी कर रहा यहॉं?" 

चिल्लाकर इक सिपाही बोला वहॉं।

साड़ी में से चेहरा अपना, ज्यों निकाला उसने।  लाल-सुर्ख आँखों से उसकी... पानी लगा टपकने।

भर्राये स्वर में उसने कहा,"ये मेरी माँ की साड़ियाँ हैं, जो जल रही हैं। अब बस यही बची है, जो कुछ कह रही हो"

सफ़ेद साड़ी दिखा उसने कहा।

"पागल है? यहाँ पूरे शहर में आग लगी है

और तुम्हें माँ की साड़ी की पड़ी है!"

बोला पुलिसवाला, "कौन  है तुम्हारी  माँ ?"

कुर्ते के अन्दर से उसने जो तस्वीर निकाली, पहने साड़ी तिरंगे वाली...

थी वो भारत माँ!

सिर से अपने उसे लगा,

फफकने वह लगा,

"विधवा हो रही है फ़िर से मेरी मॉं,

बचा लो उसे मेरे पिता!"

याद आ गई उसे शहीद पिता की चिता।

(लघुकथा की शैली में रूपांतरण: 

शेख़ शहज़ाद उस्मानी

शिवपुरी (मध्यप्रदेश)

(01-03-2025)

__________________

 मूल रचना इस प्रकार है -


 विधवा धरती

साम्प्रदायिक दंगे पीछे छोड़ गए थे सुनसान रक्तरंजित सड़कें, दर्द से चीखते घर, उजाड़ शहर और बसते हुए श्मशान और कब्रिस्तान। उसे हमेशा से याद था कि उसकी सात वर्ष की आयु में  ही उसके पिताजी स्वतन्त्रता-संग्राम  में शहीद हो गए। उनकी शहादत के तीन वर्ष बाद देश स्वतंत्र हो गया। वह यही समझता था कि पिताजी भारत माँ को सदा सुहागन का आशीर्वाद देकर गए हैं।

शहर के हालात देखकर आज उससे रहा नहीं गया, वह कर्फ्यू के बावजूद भी तीन साड़ियाँ  लेकर बाहर निकल गया, और ढ़लती उम्र में भी किशोरों की तरह जाने कैसे छुपते- छिपाते शहर के एक बड़े चौराहे पर पहुँच गया। वहाँ जाकर उसने पहली साड़ी निकाली, वह केसरिया रंग की थी, उसने उसमें आग लगा दी।

फिर उसने दूसरी साड़ी निकाली, जो हरे रंग की थी,उसने उसमें भी आग लगा दी।

और तीसरी सफ़ेद रंग की साड़ी निकालकर उसमें खुद ही मुँह छिपा लिया।

तब तक पुलिसवाले  दौड़कर पहुँच गये थे। उनमें से एक चिल्लाकर बोला," क्या कर रहा  है? आगजनी कर रहा है?"

उसने चेहरा साड़ी  में से निकाला। उसकी लाल-सुर्ख आँखों से पानी टपक रहा था। भर्राये स्वर में उसने कहा," ये मेरी माँ की साड़ियाँ हैं, जो जल रही हैं। अब बस यही बची है।" उसने सफ़ेद साड़ी दिखाते हुए कहा।

" पागल है? यहाँ पूरे शहर में आग लगी है और तुम माँ की साड़ी को रो रहे हो! कौन  है तुम्हारी माँ?"

उसने कुर्ते के अन्दर से तिरंगे की साड़ी पहने भारत माँ की तस्वीर निकाली और उसे सिर से लगा फफकते हुए कहा,"माँ फिर विधवा हो रही है, उसे बचा लीजिये पिताजी!"

_ चन्द्रेश कुमार छ्तलानी

(उदयपुर, राजस्थान)

सोमवार, 6 जनवरी 2025

मासिक धर्म पर हिंदी साहित्य: एक विमर्श

 हिंदी साहित्य में महिलाओं के जीवन के विभिन्न पहलुओं को अभिव्यक्त करने की परंपरा रही है, लेकिन मासिक धर्म जैसे विषय पर साहित्यिक दृष्टिकोण अपेक्षाकृत कम दिखाई देता है। मासिक धर्म महिलाओं के जीवन का एक प्राकृतिक भाग है, जो लंबे समय से सामाजिक वर्जनाओं, मिथकों और चुप्पी के घेरे में रहा है। यह न केवल महिलाओं की शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ा है, बल्कि उनके सामाजिक और आर्थिक अधिकारों से भी गहराई से संबंधित है।

कुछ लेखिकाओं ने इस विषय पर साहसिक लेखन किए हैं। महादेवी वर्मा, मृदुला गर्ग, और इस्मत चुगताई जैसी लेखिकाओं ने महिलाओं की शारीरिक और मानसिक स्थिति पर आधारित कथाएँ और कविताएँ लिखी हैं। हाल के समय में रचनाकार इस विषय को खुलकर अपनी रचनाओं में स्थान दे रहे हैं, जो समाज में जागरूकता लाने का महत्वपूर्ण कार्य है।

इस विषय पर लेखन समाज में व्याप्त वर्जनाओं और मिथकों को तोड़ने में मदद करता है। साहित्यिक कृतियाँ पाठकों को यह समझने में सक्षम बनाती हैं कि मासिक धर्म कोई अपवित्रता नहीं, बल्कि एक जैविक प्रक्रिया है। इस विषय पर साहित्यिक चर्चा लड़कियों और महिलाओं को उनके स्वास्थ्य और स्वच्छता के प्रति जागरूक करती है। यह उन्हें आत्मविश्वास के साथ समाज में अपनी भूमिका निभाने की प्रेरणा देता है। इनके अलावा इससे जुड़े विषयों पर चर्चा महिलाओं की गरिमा और सामाजिक समानता को स्थापित करने में मदद करती है। यह महिलाओं के प्रति भेदभाव को समाप्त करने का माध्यम बन सकता है।

कई विधाओं में उत्तम रचनाएं देने वाले रचनाकार सुरेश सौरभ इस विषय पर अपना योगदान निम्न लघुकथा से दे रहे हैं:

जूस/ लघुकथा

       "क्या बात मैडम जी! आज लेट कर दिया?"-क्लर्क

        "जरा तबीयत न ठीक थी"-मैडम

        "अरे! क्या हुआ आपको ?"- क्लर्क

         ".......... "

       "ओह! अब आईं, क्या हुआ मैडम जी?-साहब

       "सर! तबीयत न ठीक थी, इसलिए आज लेट हो गई। "

       "क्या हुआ ? "-साहब

         मैडम खामोशी से अपनी सीट की ओर बढ़ गईं। 

         "रामू ऽऽ" मैडम ने चपरासी रामू को आवाज दी। 

          "जी जी ! मैम" रामू आ गया। 

        "जरा एक गिलास अनार का जूस ले आओ, कुछ तबीयत ठीक नहीं, वहीं से लाना जहाँ से लाते हो?"

     क्लर्क की डेस्कटॉप से आंखें हटीं, कीपैड पर नाचती उंगलियाँ ठहरीं।अब उसकी निगाह रामू पर थीं। रामू उन्हें देख मुस्कुराया, तब हल्की हंसी में क्लर्क बोला-"जाओ यार! ले आओ जल्दी! "

     " अभी जाता हूँ सर।"- मैम से पैसे लेकर रामू शरारती मुस्कान लिए आगे बढ़ गया। मैडम ने कनखियों से उसे देखा, फिर दुरदुराते हुए उनकी उंगलियाँ कीपैड पर तेज से, तेजतर हो गईं। डेस्कटॉप थरथराने लगा।

-सुरेश सौरभ

निर्मल नगर लखीमपुर खीरी उत्तर प्रदेश पिन कोड 26 2701 मोबाइल नंबर 7860600355


हिंदी साहित्य में मासिक धर्म पर इस तरह की लघुकथाएं समाज में एक नई दिशा देने का कार्य कर सकती हैं। ऐसा रचनाकर्म महिलाओं के साथ-साथ पुरुषों को भी इस मुद्दे के प्रति संवेदनशील बनाता है और समाज में व्याप्त भ्रांतियों को दूर करने का माध्यम बनता है। साहित्य के माध्यम से इस विषय पर चर्चा करना समय की आवश्यकता है, ताकि आने वाली पीढ़ी मासिक धर्म को एक प्राकृतिक और सामान्य प्रक्रिया के रूप में स्वीकार करे।

- चंद्रेश कुमार छ्तलानी