यह ब्लॉग खोजें

मंगलवार, 4 मार्च 2025

लघुकथा का काव्यात्मक रूपांतरण । शेख शहज़ाद उस्मानी

 चन्द्रेश कुमार छतलानी (उदयपुर, राजस्थान) की लघुकथा के काव्यात्मक रूपांतरण का एक प्रयास -

शीर्षक : विधवा धरती

(अन्य शीर्षक सुझाव: कितने बार विधवा?)


रक्तरंजित सुनसान सड़कें थीं, 

तो दर्द से चीखते घर, बस। 

उजड़े शहर थे, तो बसते श्मशान, क़ब्रिस्तान, बस।

बलिवेदियॉं थीं, तो साम्प्रदायिक दंगों की निशानदेहियाॅं, बस।

याद था उसे वह मंजर,

रहा जब वह सात साल का।

स्वतंत्रता संग्राम में उसके पिताजी की शहादत का।

तीन वर्ष बाद ... था देश आज़ाद।

उसने समझा... भारत मॉं को पिताजी का सदा सुहागन का आशीर्वाद।

हालात शहर के देखकर आज उससे रहा नहीं गया। 

कर्फ्यू के बावजूद भी तीन साड़ियाँ  लेकर, बाहर वह निकल गया।

ढलती उम्र में भी किशोरों की तरह... जाने कैसे छुपते-छिपाते...  शहर के एक बड़े  चौराहे पर  पहुँच गया।

जाकर वहॉं उसने पहली साड़ी निकाली, केसरिया रंग वाली... 

और आग  उसमें उसने लगा दी।

फिर... दूसरी साड़ी उसने वहीं निकाली, 

हरे रंग वाली, आग उसमें भी उसने लगा दी।

और तीसरी सफ़ेद वाली साड़ी निकाल ...  उसमें खुद ही अपना मुँह उसने ज्यों ही छिपा लिया।

इक पुलिस दल वहॉं पहुॅंच गया। 

"कर क्या रहा यहॉं?

क्यों आगजनी कर रहा यहॉं?" 

चिल्लाकर इक सिपाही बोला वहॉं।

साड़ी में से चेहरा अपना, ज्यों निकाला उसने।  लाल-सुर्ख आँखों से उसकी... पानी लगा टपकने।

भर्राये स्वर में उसने कहा,"ये मेरी माँ की साड़ियाँ हैं, जो जल रही हैं। अब बस यही बची है, जो कुछ कह रही हो"

सफ़ेद साड़ी दिखा उसने कहा।

"पागल है? यहाँ पूरे शहर में आग लगी है

और तुम्हें माँ की साड़ी की पड़ी है!"

बोला पुलिसवाला, "कौन  है तुम्हारी  माँ ?"

कुर्ते के अन्दर से उसने जो तस्वीर निकाली, पहने साड़ी तिरंगे वाली...

थी वो भारत माँ!

सिर से अपने उसे लगा,

फफकने वह लगा,

"विधवा हो रही है फ़िर से मेरी मॉं,

बचा लो उसे मेरे पिता!"

याद आ गई उसे शहीद पिता की चिता।

(लघुकथा की शैली में रूपांतरण: 

शेख़ शहज़ाद उस्मानी

शिवपुरी (मध्यप्रदेश)

(01-03-2025)

__________________

 मूल रचना इस प्रकार है -


 विधवा धरती

साम्प्रदायिक दंगे पीछे छोड़ गए थे सुनसान रक्तरंजित सड़कें, दर्द से चीखते घर, उजाड़ शहर और बसते हुए श्मशान और कब्रिस्तान। उसे हमेशा से याद था कि उसकी सात वर्ष की आयु में  ही उसके पिताजी स्वतन्त्रता-संग्राम  में शहीद हो गए। उनकी शहादत के तीन वर्ष बाद देश स्वतंत्र हो गया। वह यही समझता था कि पिताजी भारत माँ को सदा सुहागन का आशीर्वाद देकर गए हैं।

शहर के हालात देखकर आज उससे रहा नहीं गया, वह कर्फ्यू के बावजूद भी तीन साड़ियाँ  लेकर बाहर निकल गया, और ढ़लती उम्र में भी किशोरों की तरह जाने कैसे छुपते- छिपाते शहर के एक बड़े चौराहे पर पहुँच गया। वहाँ जाकर उसने पहली साड़ी निकाली, वह केसरिया रंग की थी, उसने उसमें आग लगा दी।

फिर उसने दूसरी साड़ी निकाली, जो हरे रंग की थी,उसने उसमें भी आग लगा दी।

और तीसरी सफ़ेद रंग की साड़ी निकालकर उसमें खुद ही मुँह छिपा लिया।

तब तक पुलिसवाले  दौड़कर पहुँच गये थे। उनमें से एक चिल्लाकर बोला," क्या कर रहा  है? आगजनी कर रहा है?"

उसने चेहरा साड़ी  में से निकाला। उसकी लाल-सुर्ख आँखों से पानी टपक रहा था। भर्राये स्वर में उसने कहा," ये मेरी माँ की साड़ियाँ हैं, जो जल रही हैं। अब बस यही बची है।" उसने सफ़ेद साड़ी दिखाते हुए कहा।

" पागल है? यहाँ पूरे शहर में आग लगी है और तुम माँ की साड़ी को रो रहे हो! कौन  है तुम्हारी माँ?"

उसने कुर्ते के अन्दर से तिरंगे की साड़ी पहने भारत माँ की तस्वीर निकाली और उसे सिर से लगा फफकते हुए कहा,"माँ फिर विधवा हो रही है, उसे बचा लीजिये पिताजी!"

_ चन्द्रेश कुमार छ्तलानी

(उदयपुर, राजस्थान)

सोमवार, 6 जनवरी 2025

मासिक धर्म पर हिंदी साहित्य: एक विमर्श

 हिंदी साहित्य में महिलाओं के जीवन के विभिन्न पहलुओं को अभिव्यक्त करने की परंपरा रही है, लेकिन मासिक धर्म जैसे विषय पर साहित्यिक दृष्टिकोण अपेक्षाकृत कम दिखाई देता है। मासिक धर्म महिलाओं के जीवन का एक प्राकृतिक भाग है, जो लंबे समय से सामाजिक वर्जनाओं, मिथकों और चुप्पी के घेरे में रहा है। यह न केवल महिलाओं की शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ा है, बल्कि उनके सामाजिक और आर्थिक अधिकारों से भी गहराई से संबंधित है।

कुछ लेखिकाओं ने इस विषय पर साहसिक लेखन किए हैं। महादेवी वर्मा, मृदुला गर्ग, और इस्मत चुगताई जैसी लेखिकाओं ने महिलाओं की शारीरिक और मानसिक स्थिति पर आधारित कथाएँ और कविताएँ लिखी हैं। हाल के समय में रचनाकार इस विषय को खुलकर अपनी रचनाओं में स्थान दे रहे हैं, जो समाज में जागरूकता लाने का महत्वपूर्ण कार्य है।

इस विषय पर लेखन समाज में व्याप्त वर्जनाओं और मिथकों को तोड़ने में मदद करता है। साहित्यिक कृतियाँ पाठकों को यह समझने में सक्षम बनाती हैं कि मासिक धर्म कोई अपवित्रता नहीं, बल्कि एक जैविक प्रक्रिया है। इस विषय पर साहित्यिक चर्चा लड़कियों और महिलाओं को उनके स्वास्थ्य और स्वच्छता के प्रति जागरूक करती है। यह उन्हें आत्मविश्वास के साथ समाज में अपनी भूमिका निभाने की प्रेरणा देता है। इनके अलावा इससे जुड़े विषयों पर चर्चा महिलाओं की गरिमा और सामाजिक समानता को स्थापित करने में मदद करती है। यह महिलाओं के प्रति भेदभाव को समाप्त करने का माध्यम बन सकता है।

कई विधाओं में उत्तम रचनाएं देने वाले रचनाकार सुरेश सौरभ इस विषय पर अपना योगदान निम्न लघुकथा से दे रहे हैं:

जूस/ लघुकथा

       "क्या बात मैडम जी! आज लेट कर दिया?"-क्लर्क

        "जरा तबीयत न ठीक थी"-मैडम

        "अरे! क्या हुआ आपको ?"- क्लर्क

         ".......... "

       "ओह! अब आईं, क्या हुआ मैडम जी?-साहब

       "सर! तबीयत न ठीक थी, इसलिए आज लेट हो गई। "

       "क्या हुआ ? "-साहब

         मैडम खामोशी से अपनी सीट की ओर बढ़ गईं। 

         "रामू ऽऽ" मैडम ने चपरासी रामू को आवाज दी। 

          "जी जी ! मैम" रामू आ गया। 

        "जरा एक गिलास अनार का जूस ले आओ, कुछ तबीयत ठीक नहीं, वहीं से लाना जहाँ से लाते हो?"

     क्लर्क की डेस्कटॉप से आंखें हटीं, कीपैड पर नाचती उंगलियाँ ठहरीं।अब उसकी निगाह रामू पर थीं। रामू उन्हें देख मुस्कुराया, तब हल्की हंसी में क्लर्क बोला-"जाओ यार! ले आओ जल्दी! "

     " अभी जाता हूँ सर।"- मैम से पैसे लेकर रामू शरारती मुस्कान लिए आगे बढ़ गया। मैडम ने कनखियों से उसे देखा, फिर दुरदुराते हुए उनकी उंगलियाँ कीपैड पर तेज से, तेजतर हो गईं। डेस्कटॉप थरथराने लगा।

-सुरेश सौरभ

निर्मल नगर लखीमपुर खीरी उत्तर प्रदेश पिन कोड 26 2701 मोबाइल नंबर 7860600355


हिंदी साहित्य में मासिक धर्म पर इस तरह की लघुकथाएं समाज में एक नई दिशा देने का कार्य कर सकती हैं। ऐसा रचनाकर्म महिलाओं के साथ-साथ पुरुषों को भी इस मुद्दे के प्रति संवेदनशील बनाता है और समाज में व्याप्त भ्रांतियों को दूर करने का माध्यम बनता है। साहित्य के माध्यम से इस विषय पर चर्चा करना समय की आवश्यकता है, ताकि आने वाली पीढ़ी मासिक धर्म को एक प्राकृतिक और सामान्य प्रक्रिया के रूप में स्वीकार करे।

- चंद्रेश कुमार छ्तलानी