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शुक्रवार, 11 अक्टूबर 2024
वैश्विक सरोकार की लघुकथाएं । भाग 5 । युद्ध पर लघुकथा सर्जन
गुरुवार, 10 अक्टूबर 2024
वैश्विक सरोकार की लघुकथाएं । भाग 4 । स्वास्थ्य पर लघुकथा सर्जन
आदरणीय मित्रों,
वैश्विक सरोकार की लघुकथाओं के भाग 4 में स्वास्थ्य पर ध्यानाकर्षण का प्रयास किया है। स्वास्थ्य का वैश्विक मुद्दा वर्षों से तो क्या बल्कि जीवोत्पत्ति से ही एक गंभीर चुनौती बना हुआ है, जो विकसित और विकासशील दोनों ही प्रकार के देशों को प्रभावित कर रहा है। गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवा तक पहुँच, गैर-संचारी रोगों (एनसीडी) का बढ़ना और कोविड-19 जैसी संक्रामक बीमारियों के प्रसार ने दुनिया भर में स्वास्थ्य सेवा प्रणालियों की कमज़ोरी को उजागर किया है। कम आय वाले देशों में अपर्याप्त इन्फ्रास्ट्रक्चर, डॉक्टर्स व नर्सिंग स्टाफ की कमी और धन की कमी, आम आदमी की स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच में बाधक हैं। उदाहरण के लिए, नाइजीरिया और बांग्लादेश जैसे देश सीमित स्वास्थ्य सुविधाओं के कारण उच्च मातृ मृत्यु दर का सामना कर रहे हैं, जबकि भारत कुपोषण और बढ़ते मधुमेह के मामलों से जूझ रहा है। इस बीच, संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे उच्च आय वाले देश भी स्वास्थ्य सेवाओं में असमानताओं से जूझ रहे हैं, वहाँ वंचित समुदायों के लिए उत्तम चिकित्सा की कमी है। इस वैश्विक स्वास्थ्य संकट से निपटने के लिए परम्परागत असमानताओं और स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने के तरीके में बड़े बदलाव की तत्काल आवश्यकता है।
संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्य 3 को प्राप्त करने के लिए, जिसका उद्देश्य उत्तम स्वास्थ्य सुनिश्चित करना है, एक बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है। सरकारों को स्वास्थ्य कवरेज को प्राथमिकता देने की ज़रूरत है, यह सुनिश्चित करते हुए कि सभी को, हर तरह की सामाजिक-आर्थिक स्थिति वाले को, आवश्यक स्वास्थ्य सेवाएं प्राप्त हों। ग्रामीण और वंचित क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवा के इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश महत्वपूर्ण है। रोग निवारण कार्यक्रमों को अधिक सशक्त करना, स्वस्थ जीवन शैली को बढ़ावा देना और स्वास्थ्य के सामाजिक निर्धारकों, जैसे गरीबी, शिक्षा और स्वच्छता को संबोधित करना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। सीमित संसाधनों वाले देशों की सहायता करने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) जैसे वैश्विक स्वास्थ्य संगठनों से अंतर्राष्ट्रीय सहयोग और समर्थन महत्वपूर्ण है। उदाहरण के लिए, घाना और न्यूजीलैंड जैसे देशों में देखी गई COVID-19 महामारी के दौरान वैक्सीन वितरण की सफलता, स्वास्थ्य संकटों पर काबू पाने में वैश्विक साझेदारी के महत्व को उजागर करती है। सामूहिक प्रयासों के माध्यम से, हम 2030 तक SDG 3 लक्ष्य को प्राप्त करने वाली लचीली स्वास्थ्य सेवा प्रणाली का निर्माण कर सकते हैं।
मानवों के साथ-साथ अन्य जीवों का स्वास्थ्य भी महत्वपूर्ण है। मेडिकल ट्यूरिज्म पर भी कार्य किया जा सकता है।
किन देशों में किस तरह की बीमारियां अधिक हैं, उनका एक सामान्य चित्रण निम्नानुसार है:
1. भारत:
- तपेदिक (टीबी): भारत दुनिया में सबसे ज़्यादा टीबी रोगियों वाले देशों में से एक है।
- मधुमेह: देश में मधुमेह महामारी बढ़ रही है, खास तौर पर टाइप 2 के रोगी।
- हृदय रोग (सीवीडी): जीवनशैली में बदलाव के कारण उच्च रक्तचाप और हृदय रोग बढ़ रहे हैं।
- कुपोषण: आर्थिक विकास के बावजूद, कुपोषण एक प्रमुख सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या बनी हुई है, खासकर बच्चों में।
- जीर्ण श्वसन रोग: अस्थमा और जीर्ण प्रतिरोधी फुफ्फुसीय रोग (सीओपीडी) आम हैं, जो प्रदूषण के कारण और भी बढ़ गए हैं।
2. संयुक्त राज्य अमेरिका:
- हृदय रोग: मृत्यु का प्रमुख कारण, मोटापा, खराब आहार और व्यायाम की कमी से जुड़ा हुआ है।
- कैंसर: आम रूपों में स्तन, फेफड़े और प्रोस्टेट कैंसर शामिल हैं।
- मधुमेह: मोटापे और गतिहीन जीवनशैली के कारण टाइप 2 मधुमेह एक महत्वपूर्ण मुद्दा है।
- जीर्ण श्वसन रोग: सीओपीडी, वातस्फीति और जीर्ण ब्रोंकाइटिस आम हैं, जो अक्सर धूम्रपान से संबंधित होते हैं।
- ओपियोइड नशे की लत: यह एक महत्वपूर्ण सार्वजनिक स्वास्थ्य आपातकाल में बदल गया है।
3. नाइजीरिया:
- मलेरिया: बीमारी और मृत्यु का एक प्रमुख कारण, विशेष रूप से बच्चों में।
- एचआईवी/एड्स: नाइजीरिया में दुनिया की सबसे बड़ी एचआईवी महामारी है।
- डायरिया संबंधी रोग: खराब जल गुणवत्ता और स्वच्छता के कारण बाल मृत्यु दर का एक प्रमुख कारण।
- तपेदिक: टीबी की उच्च घटना, जिसे अक्सर एचआईवी/एड्स से जोड़ा जाता है।
- लासा बुखार: एक स्थानिक वायरल रक्तस्रावी बीमारी।
4. चीन:
- हृदय रोग: मृत्यु के प्रमुख कारण, धूम्रपान और वायु प्रदूषण से बढ़ जाते हैं।
- स्ट्रोक: बहुत अधिक प्रचलन, अक्सर उच्च रक्तचाप से जुड़ा होता है।
- फेफड़ों का कैंसर: अत्यधिक तम्बाकू के उपयोग और खराब वायु गुणवत्ता के कारण।
- मधुमेह: मोटापे की बढ़ती दरों के कारण बढ़ती चिंता।
- क्रोनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज (सीओपीडी): वायु प्रदूषण एक महत्वपूर्ण योगदान कारक है।
5. ब्राज़ील:
- ज़ीका वायरस: हाल के वर्षों में प्रकोप के लिए जाना जाता है, विशेष रूप से गर्भवती महिलाओं को प्रभावित करता है।
- डेंगू बुखार: मच्छर जनित संक्रमण के कारण बार-बार होने वाला मुद्दा।
- हृदय रोग: हृदय रोग और स्ट्रोक मृत्यु के प्रमुख कारणों में से हैं।
- जीर्ण श्वसन रोग: श्वसन संक्रमण और अस्थमा जैसी स्थितियाँ आम हैं।
- एचआईवी/एड्स: हालाँकि मामले बेहतर नियंत्रण में हैं, लेकिन यह बीमारी कुछ आबादी में चिंता का विषय बनी हुई है।
6. दक्षिण अफ़्रीका:
- एचआईवी/एड्स: दुनिया भर में सबसे ज़्यादा एचआईवी संक्रमण दरों में से एक।
- तपेदिक: एचआईवी महामारी से निकटता से जुड़ा हुआ है।
- मधुमेह: जीवनशैली में बदलाव के कारण बढ़ती घटनाएँ।
- हृदय रोग: आबादी की उम्र बढ़ने और जीवनशैली के अधिक गतिहीन होने के साथ बढ़ रहे हैं।
- श्वसन संक्रमण: निमोनिया और अन्य श्वसन रोग बीमारी के प्रमुख कारण हैं।
7. जापान:
- स्ट्रोक: मृत्यु का एक प्रमुख कारण, विशेष रूप से बुज़ुर्गों में।
- कैंसर: विशेष रूप से पेट, यकृत और फेफड़ों के कैंसर।
- अल्जाइमर रोग: जापान की बढ़ती उम्र की आबादी के लिए एक बढ़ती चिंता।
- मधुमेह: आहार और जीवनशैली में बदलाव के कारण टाइप 2 मधुमेह बढ़ रहा है।
- उच्च रक्तचाप: हृदय संबंधी समस्याओं और स्ट्रोक का एक प्रमुख कारण।
8. कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य (DRC):
- मलेरिया: बीमारी और मृत्यु का एक प्रमुख कारण, विशेष रूप से बच्चों में।
- इबोला: इस क्षेत्र में स्थानिक, हाल ही में कई प्रकोपों के साथ।
- एचआईवी/एड्स: एक महत्वपूर्ण सार्वजनिक स्वास्थ्य चुनौती।
- खसरा: कम टीकाकरण दरों के कारण बार-बार प्रकोप।
- हैजा: खराब जल और स्वच्छता बुनियादी ढांचे के कारण नियमित प्रकोप।
9. ऑस्ट्रेलिया:
- त्वचा कैंसर: उच्च यूवी (Ultra Voilet) जोखिम के कारण दुनिया में त्वचा कैंसर की सबसे अधिक दर।
- हृदय रोग: मृत्यु का एक प्रमुख कारण।
- मानसिक स्वास्थ्य विकार: अवसाद और चिंता तेजी से प्रचलित हो रहे हैं, विशेष रूप से युवा आबादी में।
- टाइप 2 मधुमेह: मोटापे और जीवनशैली कारकों से जुड़ी घटनाओं में वृद्धि।
- श्वसन रोग: अस्थमा विशेष रूप से आम है, आंशिक रूप से पर्यावरणीय कारकों के कारण।
10. रूस:
- हृदय रोग: धूम्रपान और शराब के सेवन की उच्च दर के कारण मृत्यु का प्रमुख कारण।
- शराब से संबंधित रोग: लीवर सिरोसिस और शराब से संबंधित अन्य स्वास्थ्य समस्याएँ व्यापक हैं।
- तपेदिक: एमडीआर-टीबी (मल्टी-ड्रग रेसिस्टेंट ट्यूबरकुलोसिस) एक महत्वपूर्ण चुनौती है।
- एचआईवी/एड्स: विशेष रूप से कुछ उच्च जोखिम वाली आबादी के बीच तेजी से बढ़ती महामारी।
- फेफड़ों का कैंसर: धूम्रपान की उच्च दर फेफड़ों के कैंसर के उच्च प्रसार में योगदान करती है।
11. यूनाइटेड किंगडम:
- हृदय रोग: आहार और जीवनशैली से जुड़ी मृत्यु का एक प्रमुख कारण।
- मनोभ्रंश (Dementia): बढ़ती उम्र के साथ अल्जाइमर और अन्य प्रकार के मनोभ्रंश बढ़ रहे हैं।
- कैंसर: स्तन, फेफड़े और कोलोरेक्टल कैंसर की उच्च दर।
- मधुमेह: टाइप 2 मधुमेह एक बढ़ती हुई समस्या है, जिसमें मोटापे की दर भी बढ़ रही है।
- मानसिक स्वास्थ्य विकार: चिंता, अवसाद और अन्य मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं की व्यापक रूप से रिपोर्ट की जाती है, खासकर महामारी के बाद।
WHO के विश्व स्वास्थ्य सांख्यिकी 2024 और स्वास्थ्य मीट्रिक और मूल्यांकन संस्थान (IHME) के सन्दर्भ के अनुसार नवीनतम स्वास्थ्य डेटा 2024 में हृदय संबंधी रोग मृत्यु का प्रमुख कारण बने हुए हैं, जो वैश्विक मृत्यु दर के 28% हैं, विशेष रूप से उच्च रक्तचाप और खराब आहार के कारण। हालाँकि, गलत आहार रोका जा सकता है। इन मुद्दों को संबोधित करने के लिए स्वास्थ्य प्रणालियों को सशक्त करना, विशेष रूप से निम्न और मध्यम आय वाले देशों में, महत्वपूर्ण है। RSV और इन्फ्लूएंजा सहित निचले श्वसन संक्रमण भी COVID-19 महामारी के दौरान गिरावट के बाद फिर से उभर रहे हैं, जिससे स्वास्थ्य प्रणालियों पर अतिरिक्त दबाव पड़ रहा है।
जलवायु परिवर्तन एक और बढ़ती चिंता है, जो चरम मौसम की घटनाओं, खाद्य असुरक्षा और वायु प्रदूषण के माध्यम से स्वास्थ्य जोखिमों को बढ़ा रहा है, जो वैश्विक मृत्युओं के 8% के लिए जिम्मेदार है। गरीबी स्वास्थ्य असमानताओं को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, कम आय वाले देशों में रोगाणुरोधी प्रतिरोध और हिंसा जैसे कारकों के कारण समय से पहले मृत्यु की दर बहुत अधिक है।
आदरणीयजनों,
इन सभी समस्याओं और एक सीमा तक हम समाधानों पर भी अपने विचार रख ही सकते हैं। सिगरेट, ड्रग्स आदि नशे की लत से दूर जाना। डॉक्टर्स का कम फीस लेकर सही इलाज कर देना, बहुत और मुद्दे हैं, जो आपके दिमाग में दस्तक देंगे।
हालांकि इस विषय पर बहुत लघुकथाएं आपने पढ़ी होंगी, रचनाकर्म भी किया होगा। मैं यहां एक ऐसी रचना बता रहा हूं, जो मुझे बहुत पसंद है। एक मरीज़ से कैसे बर्ताव किया जाए।
सकारात्मकता से ओतप्रोत आदरणीया ( Chitra Mudgal ) चित्रा मुद्गल दी की यह रचना मेरे लिए इसलिए भी बहुत विशिष्ट है क्योंकि, चिकित्सा जैसे गंभीर मुद्दे पर ऐसी कलम चलाना सभी के बस की तो बात नहीं।
आइए पढ़ते हैं,
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रिश्ता / चित्रा मुद्गल
लगभग बाईस दिनों तक ‘कॉमा’ में रहने के बाद जेब उसे होश आया था तो जिस जीवनदायिनी को उसने अपने करीब, बहुत निकट पाया था, वे थीं मारथा मम्मी। अस्पताल के अन्य मरीजों के लिए सिस्टर मारथा। वह पूना जा रहा था......खंडाला घाट की चढ़ाई पर अचानक वह दुर्घटाग्रस्त हो गया। जख्मी अवस्था में नौ घंटे तक पड़े रहने के बाद एक यात्री ने अपनी गाड़ी से उसे सुसान अस्पताल में दाखिल करवाया.....पूरे चार महीने बाद वह अस्पताल से डिस्चार्ज किया गया। चलते समय वह मारथा मम्मी से लिपटकर बच्चे की तरह रोया। उन्होंने उसके माथे पर ममत्व के सैकड़ों चुंबन टाँक दिए। ‘गॉड ब्लेस यू माय चाइल्ड....’ डॉ0 कोठारी से उसने कहा भी था, ‘‘डॉ0 साहब! आज अगर इस अस्पताल से मैं जिंदा लौट रहा हूँ तो आपकी दवाइयों और इंजेक्शनों के बल पर नहीं, मारथा मम्मी के प्यार के बल पर।’’
उस रोज वे उसे गेट तक छोड़ने आई थीं और जब तक उसकी गाड़ी अस्पताल के गेट से बाहर नहीं हो गई, वे अपलक खड़ी विदाई में हाथ हिलाती रही थीं....
वही मारथा मम्मी....आज जब अरसे बाद वह उनसे वार्ड में मिलने पहुँचा तो उन्हें देखकर खुशी से पगला उठा। वे एक मरीज के पलंग से सटी उसकी कलाई थामे धड़कनों का अंदाजा लगा रही थी। उन्होंने मरीज की कलाई हौले से बिस्तर पर टिकाई कि उसने उन्हें अचानक पीछे से बाजुओं में उठा लिया।
‘‘अरे,अरे, क्या करता है तुम....इडियट....छोड़ो मेरे को! ये अस्पताल है ना।’’
वह सकपका उठा। उन्हें फर्श पर खड़ा करते हुए उसने अचरज से मारथा मम्मी को देखा। ‘‘मैं आपका बेटा अशोक, मम्मी? पहचाना नहीं आपने मुझे....!’’
‘‘पेचाना, पेचाना....पन अभी मेरे को टाइम नई.....डियूटी पर ऐसा नई आने का मिलने कू। अब्बी जाओ तुम...देखता नई पेशेन्ट तकलीफ में हय....’’उन्होंने उसे तिक्त स्वर में झिड़का।
वह उनके अनपेक्षित व्यवहार से स्तब्ध हो उठा, तिलमिलाया–खिसियाया सा फौरन मुड़ने लगा कि तभी उसी मरीज की प्राणलेवा कराह सुनकर क्षणांश को ठिठक गया। मरीज के पपडि़याये होंठ पीड़ा से बिलबिलाते बुनबुदा रहे थे, ‘‘माँ....ओ....माँ....हा....आ....’’
‘‘माय चाइल्ड, आॅय अंम विद यू। हैव पेशन्स...हैव पेशन्स...’’ उसकी मारथा मम्मी अत्यन्त स्नेहिल स्वर में उस मरीज का सीना सहला रही थी....’’
वह मुड़ा और तेजी से वार्ड से बाहर हो गया।
-चित्रा मुद्गल
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प्रगति त्रिपाठी जी की एक लघुकथा भी प्रस्तुत है, जो आज के हालात बयां कर रही है।
इंस्टेंट / प्रगति त्रिपाठी
होश आते ही, अपने आपको अस्पताल की बेड पर लेटे हुए, हाथ में सलाइन की बोतल लगी हुई, पास में पापा और मम्मी को चिंतित देखकर मनोज घबड़ा गया।
"मुझे क्या हो गया था? मैं तो ठीक ही था। रोज की तरह जिम कर रहा था।" आशंकित मनु सवाल पर सवाल करता जा रहा था।
डाॅक्टर साहब ने कहा "घबड़ाने की कोई बात नहीं, अब आप खतरे से बाहर है। "
"लेकिन मुझे क्या हुआ था डाॅक्टर साहब? मैं तो बिलकुल फिट हूं। मुझे कोई बीमारी नहीं है।"
"आपको माइनर हार्ट अटैक आया था।"
"क्या??" इतना सुनते ही मनोज भौंचक्का रह गया।
"यह बाॅडी बनाने के लिए जो सप्लीमेंट आप ले रहे थे ये उसी का परिणाम है। सप्लीमेंट्स और प्रोटीन पाउडर का ज्यादा सेवन करने से ब्लड फ्लो प्रभावित होता है। जिसकी वजह से हार्ट स्ट्रोक और अटैक का खतरा काफी ज्यादा बढ़ जाता है।"
"लेकिन वो तो जिम ट्रेनर के कहने पर ही ले रहा था। उन्होंने कहा था ये दवाएं आजमाए हुए हैं, इसका कोई नुकसान नहीं है।"
"आजकल सबको इंस्टेंट सफलता चाहिए। आपको भी, आपके जिम ट्रेनर को भी।" चिंतित स्वर में डाॅक्टर ने कहा।
- प्रगति त्रिपाठी, बैंगलुरू
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सच है कि ,लघुकथा में जागरूकता की शक्ति है, वो बात और है कि, बहुत सारे कारणों से, फिलवक्त हम उसका प्रयोग कर तो रहे हैं, लेकिन पूरी तरह नहीं।
सादर
- चंद्रेश कुमार छ्तलानी
बुधवार, 9 अक्टूबर 2024
वैश्विक सरोकार की लघुकथाएं । भाग 3 । शिक्षा पर लघुकथा सर्जन
आदरणीय मित्रों,
वैश्विक मुद्दों की जानकारी में इस पोस्ट में एक ऐसे मुद्दे पर चर्चा का प्रयास है जो, दुनिया में नक्शे बदल देने में समर्थ है। जीतने भी देश विकसित हैं, उनके मूल में उचित शिक्षा है। हमारे देश में भी सदियों पहले, उस समय के अनुसार शिक्षा थी, तो हम उन्नत थे। सोने की चिड़िया भी कहलाए और विश्वगुरु भी। आज शिक्षा के प्रति जागरूकता की हालांकि, वैश्विक स्तर पर हर देश में, कहीं कम तो कहीं अधिक आवश्यकता है। इस पर चर्चा करते हैं।
वैश्विक स्तर पर, शिक्षा को महत्वपूर्ण चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, इनमें सभी तक शिक्षा की पहुँच, शिक्षा की गुणवत्ता और सभी को समान शिक्षा सहित अन्य मुद्दे शामिल हैं। सबसे महत्वपूर्ण मुद्दों में शैक्षिक इन्फ्रास्ट्रक्चर और संसाधनों के मामले में विकसित और विकासशील देशों के बीच बढ़ता अंतर भी शामिल है। जहां उच्च आय वाले देश प्रौद्योगिकी-संचालित (digitally/technological controlled) शिक्षा और व्यक्तिगत सीखने में निवेश करते हैं/पूरा ध्यान देते हैं, वहीँ कई कम आय वाले देश अपर्याप्त शिक्षक प्रशिक्षण, कम शिक्षक संख्या, भीड़भाड़ वाली कक्षाओं, (कथित) अच्छे शिक्षण के नाम पर डोनेशन, और बुनियादी शिक्षण सामग्री की कमियों से जूझ रहे हैं। यह फर्क देशों के मध्य शिक्षा के परिणामों में अंतर को बढ़ाता है, जिससे वंचित क्षेत्रों के छात्रों के लिए वैश्विक अर्थव्यवस्था में प्रतिस्पर्धा करना मुश्किल हो जाता है।
एक और बड़ी समस्या समावेशिता की कमी, महिला शिक्षा, विकलांग बच्चों की शिक्षा या जलवायु परिवर्तन के कारण विस्थापित व्यक्तियों / समूहों के लिए शिक्षा प्रदान करने में विफलता है। सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी 4) जैसी वैश्विक प्रतिबद्धताओं के बावजूद, लाखों बच्चे स्कूल से बाहर रहते हैं, विशेषकर गरीबी, युद्ध और भेदभाव से प्रभावित क्षेत्रों में। इसके अतिरिक्त, शिक्षा के पारंपरिक मॉडल अक्सर आधुनिक human resource की जरूरतों, जैसे डिजिटल साक्षरता और critical thinking, skill based system आदि की मांग के अनुकूल होने में धीमे होते हैं, जिससे कई छात्र भविष्य के रोजगार के अवसरों के लिए तैयार नहीं हो पा रहे हैं। जैसे AI का विरोध कर एक भय का वातावरण है कि परंपरागत रोजगार छीन जाएंगे। जबकि, होगा यह कि नए रोजगार भी उत्पन्न होंगे। उसके अनुसार human resource तैयार करना ज़रूरी है।
डिजिटल नैतिकता, उचित शोध, शोध में नकल, साहित्यिक चोरी, शोध का वैश्विक विकास में महत्व भी महत्वपूर्ण मुद्दे हैं।
इनके अतिरिक्त, परीक्षा प्रणाली पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है। विकसित देशों में कई बार अच्छे विद्यार्थियों की परीक्षा ना ली जाकर उन्हें एक समिति द्वारा उन विद्यार्थियों की क्षमतानुसार मार्क्स दे दिए जाते हैं। विकासशील देशों में भाई-भतीजावाद या यूं कहें कि ईमानदारी की कमी के कारण यह अभी तक संभव नहीं है।
एक विसंगति यह भी है कि, सरकारी कौंसिल्स के नियमों में भी कहीं ना कहीं विरोधाभास सा दिखाई देता है। जैसे, किसी दो वर्ष के कोर्स में, इंटेक 60, फीस अधिकतम 30,000/- प्रति वर्ष, आचार्यों की संख्या: प्रोफ़ेसर-1, एसोशिएट प्रोफेसर्स-2, अस्सिस्टेंट प्रोफेसर्स-4...आदि से पात्रता मिली हो तो, इसमें विद्यार्थियों की अधिकतम संख्या 60x2 वर्ष=120, तब अधिकतम वार्षिक फीस आएगी120x30,000= 36,00,000/- (छत्तीस लाख रुपये)। अब सरकारी ग्रेड से तुलना करें तो एक प्रोफ़ेसर की सैलरी कम से कम लगभग 1.5 लाख रुपये महीना (18 लाख रुपये सालाना), एसोशिएट प्रो. की लगभग 1 लाख रुपए महिना (दो की 24 लाख रुपये )। इन दोनों की वार्षिक सैलरी ही आय से अधिक है (लगभग 42 लाख रुपये)। अब अन्य कर्मचारियों की सैलरी, और दुसरे खर्चे। इन सभी को पूरा करने के लिए सरकारी फंड की व्यवस्था भी इतनी सही नहीं। प्राइवेट कॉलेज तब या तो घालमेल शुरू कर देते हैं या अधिक पाठ्यक्रम चला कर खर्चा निकालते हैं। गवर्नमेंट ग्रेड से तनख्वाह नहीं देते। दें भी तो कहाँ से? यहाँ शिक्षा की गुणवत्ता से सीधे-सीधे समझौता हो ही जाता है।
एक अन्य विषय है, अपनी भाषा में पढ़ाई। अपनी यह बात सालों पहले से मैं सेमिनार्स, कांफ्रेंस आदि में रखता रहा हूँ। कई बार देश के बड़े वक्ताओं के माध्यम से भी पहुंचाई है, mygov.in पर भी भेजा है कि हमारे डीएनए में अपनी भाषा में सीखने की क्षमता अधिक होती है वनिस्पत विदेशी भाषा के। हालाँकि अब अंग्रेज़ी भी हमारे डीएनए में बस गई है। लेकिन फिर भी यह सच है कि विकसित देशों में अन्य गुणों के साथ-साथ पढ़ाई उनकी अपनी भाषा में ही होती है। भला हो कस्तूरीरंगन कमिटी का जिनके विचार भी यही थे कि भारत में हिंदी व अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़ाई हो और उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा नीति में यह लागू कर दिया। हालाँकि, अब इसके क्रियान्वयन में समस्या आ रही है कि, पाठ्य सामग्री उपलब्ध नहीं हो पा रही। और भी कुछ समस्याएं हो सकती हैं। इस विषय पर भी रचनाकर्म किया जा सकता है।
भारत की राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 एक हद तक परिवर्तनकारी दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है, लेकिन इसके क्रियान्वयन में भी कई चुनौतियाँ हैं। मुख्य बाधाओं में से एक बड़े पैमाने पर इन्फ्रास्ट्रक्चर में सुधार की आवश्यकता है, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में, जहाँ स्कूलों में अक्सर उचित सुविधाओं और शिक्षण संसाधनों की कमी होती है। हमारी एनईपी में जिस तरह से डिजिटल शिक्षा की ओर बदलाव पर जोर दिया गया है, वह भी इंटरनेट और डिजिटल उपकरणों तक असमान पहुँच तथा केवल सैद्धांतिक रूप से सक्षम शिक्षकों की सीमाओं के कारण पूरी तरह लागू नहीं हो पा रहा है, और यह शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के बीच शैक्षिक असमानताओं को और बढ़ा रहा है। इसके अतिरिक्त, शिक्षकों को नए शैक्षणिक तरीकों को अपनाने और पारंपरिक रटने वाली शिक्षा प्रणाली से दूर जाने के लिए प्रशिक्षित करने के लिए समय, संसाधनों और शिक्षकों और छात्रों के बीच मानसिकता में बदलाव की आवश्यकता भी है।
ट्यूशन संस्कृति, कोचिंग सेंटर्स, शिक्षकों का आर्थिक शोषण, शिक्षण संस्थानों में फंड की कमी, आदि और भी बहुत से मुद्दे हैं, जिन पर ध्यान देने की ज़रूरत है।
कुल मिलाकर, सच यह है कि, जब शिक्षा उचित दिशा में होगी, सिर्फ तभी ही विकास की दिशा भी उचित होगी, उसके बिना कतई नहीं।
इस विषय पर रचनाकर्म हेतु मुद्दों की कोई कमी नहीं, केवल दृष्टिकोण विश्वव्यापी रखिए।
डॉ. अशोक भाटिया जी सर की एक रचना प्रस्तुत है, जो सरकारी स्कूल शिक्षा के सत्य हालात बयान कर रही है। ऐसी व्यवस्थाएं केवल भारत में नहीं हैं, बल्कि कई विकासशील देशों में हैं. इसे पढ़िए,
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लगा हुआ स्कूल / अशोक भाटिया
नए साल में स्कूल खुल गए थे। रामगढ़ गाँव का यह सरकारी स्कूल मिडिल से हाई स्कूल बन गया था। कुछ दिन पहले वहां एक नया अधिकारी बिना पूर्व सूचना दिए पहुँच गया। उस समय स्कूल में एक सेवादार के अलावा कोई जिम्मेवार व्यक्ति दिखाई नहीं दे रहा था। बच्चे खुले में कूद-फांद रहे थे। गाड़ी को देख वे अपनी-अपनी कक्षाओं में दुबक गए। कमरों में लाइट नहीं थी, गर्मी और अँधेरा था।
-क्या बात, किधर हैं सब लोग?’ युवा अधिकारी का पारा चढ़ गया। सेवादार उनके निर्देशानुसार हाजरी का रजिस्टर ले आया। उसमें सभी अध्यापकों की हाजरी लगी हुई थी। अधिकारी को दाल में काला ही काला नज़र आ रहा था। उसने दोषियों को देख लेने की सख्त भाव-मुद्रा बना ली। सेवादार बड़ा अनुभवी था। ऐसे हालात से वह कई बार निपट चुका था। उसने साहब को खुद ही बता दिया कि हेडमास्साब बैंक तक गए हैं। आने ही वाले होंगे।
अध्यापकों के बारे पूछने पर वह तफसील से बताने लगा। पहला नाम सबसे सीनियर टीचर रामफल का था।
-जी रामफड़ गाम मैं ड्राप आउट बाड़कां का पता करण गए हैं।
-और श्रीचंद?
-वो आज बाड़कां खात्तर सब्जी खरीदण ने जा रया सै। मिड डे मील बणेगा।
-और ये कृष्ण कुमार कहाँ जा रहा है?’ कड़क अधिकारी ने सेवादार से ही सारी जानकारी लेना ठीक समझा या उसकी यह मजबूरी थी- कहा नहीं जा सकता।
-जी किशन भी दूध-धी खरीदण जा रया सै।
-सुबह-सुबह क्यों नहीं चला गया?’ अधिकारी ने टांग पर दूसरी टांग रखते हुए पूछा।
-जी वा बच्यां की गिणती करके ले जाणी थी।’ सेवादार ने स्पष्टीकरण दिया, जैसे सारी जिम्मेदारी उसी की हो।
अधिकारी ने ठोड़ी पर हाथ फेरते हुए सोचा– सारे बाहर के काम इन टीचर्स को ही दे रखे हैं। अब बाकी के टीचर तो पक्का फरलो पर होने चाहिएं।
-वो संस्कृत वाले शास्त्री कहाँ हैं?
-जी वा नए बाड़काँ खात्तर यूनिफाम का रेट पता करण शहर नै जाण लाग रे। इहाँ गाम मैं तो मिलदी कोन्या।
अधिकारी सकपका गया, पर उसे चौकीदार की बातें सच लग रहीं थीं। अब तक जितना उसने सुन रखा था, उसमें उसे अध्यापक ही दोषी और काम न करने वाले लगते थे। लेकिन यहाँ तो उसे माजरा कुछ और ही लग रहा था। उसे अपना इरादा पूरा होता नहीं दिख रहा था। उसने इधर-उधर देखा,धीरे-धीरे पानी के दो घूँट भरे, फिर चौकीदार से कहा- ये गणित वाले भूषण की भी रामकहानी सुना दे फिर।’
-साब वो हर साल स्टेशनरी अर बैग खरीदया करे है। इब्बी आ ज्यागा।
इतने में कैंटीन वाला बुज़ुर्ग चाय ले आया था।
कक्षाओं में से बच्चे रह-रहकर बाहर झाँकते हुए उस अधिकारी को देख लेते, मानो वह चिड़ियाघर से भागा हुआ कोई जंतु हो। अधिकारी को बहुत मीठी चाय भी कड़वी लग रही थी। उसने दो घूँट भरकर अपना काम पूरा करने की कवायद फिर शुरू की।
-ये अनिल कुमार भी किसी काम गया है?
-जी, गाम की मर्दमशुमारी की उसकी ड्यूटी लग री सै।
-जनगणना तो खत्म हो चुकी है!’ अधिकारी की सवालिया निगाहें उसकी ओर उठीं।
-साब वो तो पिछले महीन्ने घर और गाए-भैंस गिणन की हुई थी। इबकै धर्म अर जात का पता करण गए हैं जी।
अब तक पी.टी.मास्टर को भी खबर मिल चुकी थी। वह आखरी कमरे से तेजी से निकला। आकर अधिकारी को करारी नमस्ते ठोकी और अपना परिचय दिया। वह स्कूल में तरह-तरह के काम करने से बड़ा परेशान था। अधिकारी ने चेहरे पर सख्ती और गर्दन में अकड़ को बढ़ाते हुए उससे पूछा –
-आप कहाँ थे? ये बच्चे हुडदंग कर रहे थे। इन्हें कौन कण्ट्रोल करेगा?
-सर, मैं नौवीं क्लास के बच्चों की आँखें और दांत चेक कर रहा था।
-ये काम तो डॉक्टर का है!
-सर, यहाँ कभी कोई डॉक्टर नहीं आता। पीर-बावर्ची-खर-भिश्ती सब हमें ही बनना पड़ता है।’ कहकर पी.टी. मास्टर अपनी भाषा पर मुग्ध हो गया।
तभी स्कूटर पर स्कूल के मुख्य अध्यापक अवतरित हुए। उन्होंने अधिकारी को बताया कि वे बैंक में बच्चों के खाते खुलवाने के कागज़ात जमा कराकर आये हैं। स्कूल का एकमात्र क्लर्क उस दिन छुट्टी पर था। अधिकारी और मुख्य अध्यापक- दोनों की आँखों में कुछ सवाल और विषय चमके, फिर दोनों की संक्षिप्त बातचीत के बाद उन सवालों की बत्तियां गुल हो गईं।
पी.टी.मास्टर बच्चों को आयरन की गोलियां बांटने नौवीं कक्षा की तरफ हो लिया। मुख्य अध्यापक ने अधिकारी को नाश्ते के लिए जैसे-कैसे मनाया और उसे अपने घर की तरफ लेकर चल दिया।
स्कूल फिर पहले की तरह चलने लगा, जो आज तक वैसा ही चल रहा है....
- अशोक भाटिया
-0-
गौर कीजिए इन पंक्तियों पर
//पीर-बावर्ची-खर-भिश्ती सब हमें ही बनना पड़ता है।//
//दोनों की आँखों में कुछ सवाल और विषय चमके, फिर दोनों की संक्षिप्त बातचीत के बाद उन सवालों की बत्तियां गुल हो गईं।//
सादर
- चंद्रेश कुमार छ्तलानी
मंगलवार, 8 अक्टूबर 2024
वैश्विक सरोकार की लघुकथाएं । भाग 2 । भूख पर लघुकथा सर्जन
आदरणीय मित्रों,
वैश्विक मुद्दों पर लघुकथा सर्जन में, हमें वैश्विक मुद्दों को तलाशना आवश्यक है। ईश्वर भूखा जगाता है लेकिन भूखा सुलाता नहीं, यह बात इस मायने में सही है कि, जो भूखा होगा उसे नींद ही नहीं आएगी। आज सबसे बड़े मुद्दों में एक भूख एक गंभीर वैश्विक मुद्दा है जो दुनिया भर में लाखों लोगों को प्रभावित करता है। साहित्यकारों का दायित्व है कि इस पर सर्जन किया जाए। किसी भी सर्जन से पहले विषय की जानकारी और सामयिक स्थिति को गहराई से जानना भी ज़रूरी है। अतः इस मुद्दे पर थोड़ी जानकारी प्रेषित कर, एक लघुकथा आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूं।
भूख के कुछ कारणों में गरीबी, जलवायु परिवर्तन और अपर्याप्त कृषि प्रणालियां शामिल हैं। भूख के मामलों में उप-सहारा अफ्रीका और एशिया के कुछ हिस्से विशेष रूप से असुरक्षित हैं, क्योंकि सूखे और बाढ़ जैसी घटनाएँ खाद्य उत्पादन को बाधित करती हैं। उदाहरण के लिए, सोमालिया ने भयंकर सूखे का सामना किया है, जिससे लाखों लोग विस्थापित हुए हैं और लोगों को जीवित रहने के लिए दूसरों पर निर्भर रहना पड़ा है। इसी तरह, दक्षिण सूडान में, वर्षों के गृहयुद्ध ने कृषि के बुनियादी ढांचे को नष्ट कर दिया है, जिससे भूख एक बड़ी और सतत समस्या बन गई है। कुल मिलाकर संपूर्ण विश्व को भूख की समस्या संबोधित करने के लिए एक साथ मिलकर कार्रवाई की आवश्यकता है।
दुनिया के कुछ अन्य हिस्सों में, भूख एक छिपी हुई समस्या भी है। वेनेजुएला में, आर्थिक अस्थिरता ने खाद्य कमी कर दी है, जिसमें कई परिवार बुनियादी आवश्यकताओं को वहन करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इस बीच, भारत में, समग्र आर्थिक विकास के बावजूद, बिहार और झारखंड जैसे कुछ क्षेत्रों में खाद्य असुरक्षा का उच्च स्तर का अनुभव होता है, विशेष रूप से वंचित समुदायों में। विकसित और विकासशील दोनों देशों में, खाद्य असुरक्षा शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में समान रूप से हो सकती है, यह दर्शाता है कि भूख किसी एक विशिष्ट क्षेत्र तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक वैश्विक चुनौती है जिसके लिए व्यापक समाधान की आवश्यकता है।
ग्लोबल हंगर इंडेक्स (GHI) वैश्विक, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर भूख को मापने और ट्रैक करने के लिए डिज़ाइन किया गया एक उपकरण है। इसकी गणना "कुपोषण, बाल दुर्बलता, बाल बौनापन और बाल मृत्यु दर" जैसे संकेतकों के आधार पर की जाती है। इन सभी पर रचनाकर्म किया जा सकता है। उच्च GHI स्कोर वाले देश कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जैसा कि चाड और मेडागास्कर जैसे देशों में देखा गया है, जहां लगातार गरीबी और पर्यावरणीय गिरावट खाद्य कमी को बढ़ा रही है।
संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों (SDG 2) का हिस्सा, "शून्य भूख" का लक्ष्य 2030 तक भूख की समस्या को खत्म करना है। यह लक्ष्य खाद्य सुरक्षा, पोषण में सुधार और टिकाऊ कृषि को बढ़ावा देने पर केंद्रित है। यह न केवल भोजन की मात्रा को संबोधित कर रहा है, बल्कि इसकी गुणवत्ता, पहुंच और दीर्घकालिक स्थिरता पर भी आधारित है। इस लक्ष्य के प्रयासों में कृषि उत्पादकता में निवेश बढ़ाना, खाद्य प्रणालियों में सुधार करना और यह सुनिश्चित करना शामिल है कि वंचित समुदायों को पौष्टिक भोजन मिले। यह स्वास्थ्य, शिक्षा और आर्थिक विकास से निकटता से जुड़ा हुआ है।
भूख पर आधारित आदरणीया कनक हरलालका जी की एक रचना यहां प्रेषित कर रहा हूं।
मौसम और भूख / कनक हरलालका
सुबह सुबह की कड़कड़ाती ठंड में रजाई से निकलने का मन तो नहीं था, पर कॉलबेल की आवाज सुनकर दरवाजा खोलने के लिए उठना ही पड़ा। सामने वही मजदूर खड़ा था जिसे उसने दो दिन के लिए अपने एक मित्र से कहकर बुलवा रखा था। आंगन के सामने वाले छज्जे की ऊपरी दीवार ठीक करवानी थी। नदी पार की ठंडी हवा सीधे आंगन में मार करती थी। बढ़ते जाड़े से बचने के सभी जतन जरूरी थे।
"अर्रे इतनी सुबह इतनी ठण्ड में काम पर आ भी गए ?"
"जी, आप काम बतला दें। कुछ पैसे मिल जाएं तो शाम जाकर चूल्हे में आग तो जले।"
"पर इतनी सुबह? इतने ठंडे मौसम में? जरा सूरज को गरम हो जाने दिया होता तो कम से कम हाथ पांव के जोड़ तो खुल जाते।"
"मालिक भूख का कोई मौसम नहीं होता है। पेट की आग गर्मी पंहुचा देती है।"
-कनक हरलालका
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- चंद्रेश कुमार छ्तलानी
रविवार, 29 सितंबर 2024
पुस्तक समीक्षा । घरों को ढोते लोग । समीक्षक-रमाकांत चौधरी
गहन भावपूर्ण कृति : घरों को ढोते लोग (पुस्तक समीक्षा)
समीक्षक-रमाकांत चौधरी
जहाँ एक ओर सब कुछ मोबाइल पर सर्च करने की आदत ने पुस्तकों की ओर से लोगों को उदासीन कर दिया है, वहीं जब कोई अच्छा साहित्य अनायास दिख जाए तो फिर उसे पढ़ने के लिए मन स्वतः ही तत्पर हो जाता है। ऐसी ही पुस्तक है "घरों को ढोते लोग"। इस पुस्तक के शीर्षक ने ही मुझे पढ़ने पर मजबूर कर दिया। यह पुस्तक 65 लघुकथाकारों द्वारा लिखी गई 71 लघु कथाओं का साझा लघुकथा संग्रह है, जिसमें किसानों, मजदूरों, कामगारों व कामवाली बाई जैसे उस वर्ग की जीवन शैली पर आधारित लघुकथाएं हैं, जो किसी न किसी तरीके से आर्थिक व सामाजिक रूप से असमानता के शिकार रहे हैं या फिर अपने जीवन को ईश्वर की नियति मानकर जी रहे हैं कि शायद उनका जन्म इसीलिए ही हुआ है। पुस्तक में यशोदा भटनागर की लघुकथा 'कम्मो' एक काम वाली बाई की जीवन शैली को दर्शाती है तो अरविंद सोनकर 'असर' की लघुकथा 'इन दिनों' समाज में फैली वैमनस्यता से रूबरू कराती है। वहीं प्रेरणा गुप्ता की लघुकथा 'यक्ष प्रश्न' में मजदूर का बच्चा पढ़ने–लिखने के महत्व को नहीं समझ रहा है जो कि शिक्षा व्यवस्था पर एक बड़ा प्रश्न चिन्ह है। मार्टिन जान की लिखी संग्रह की शीर्षक लघुकथा 'घरों को ढोते लोग' व्यक्ति को यह सच सोचने-विचारने पर विवश करती है कि हर कामगार व्यक्ति किसी न किसी तरीके से घर परिवार के पालन-पोषण के लिए संघर्षरत है। इस पुस्तक के संपादक सुरेश सौरभ की लघुकथा 'कैमरे' मनुष्य की तरक्की के साथ इस बात की ओर इशारा करती है कि मनुष्य ने तरक्की तो बहुत कर ली मगर उसमें मनुष्यता का पतन होता जा रहा है।
मनोरमा पंत, सुकेश साहनी, बलराम अग्रवाल, योगराज प्रभाकर, पवन जैन, रश्मि लहर, डॉ.चंद्रेश कुमार छतलानी, मीरा जैन, गुलज़ार हुसैन, डॉ. मिथिलेश दीक्षित विजयानंद विजय, आलोक चोपड़ा, हर भगवान चावला, आदि सभी लघुकथाकारों की लघुकथाएं हमें चिंतन चेतना के गहन धरातल पर ले जातीं है और उन विषयों पर सोचने के लिये मजबूर करती है, जिन विषयों पर हम सभी साधारणतया ध्यान ही नहीं देते हैं, लेकिन संपादक सुरेश सौरभ हमें उन विषयों, उन पहलुओं से सीधे जोड़ देते हैं, जिनको हम अक्सर अनदेखा कर देते हैं। चाहे वह रिक्शा वाले, ठेलिया वाले, फल वाले, सब्जी वाले हो अन्य कोई कामगार हों। अर्थात वे लोग जिनका स्थान समाज में बहुत ही निम्न स्तर का माना जाता है, उनके जीवन के प्रति जो लोग तनिक भी संवेदनशील हैं, तो यह पुस्तक वास्तव में उन्हें अवश्य पढ़नी चाहिए। अपने नाम के अनुरूप यह पुस्तक एक गहन भावपूर्ण कृति है, जो जीवन की सच्चाइयों का सामना करने के लिए सबको प्रेरित करती है। जीवन को अलग-अलग पहलुओं से देखने का मौका देती है। प्रत्येक लघुकथाकार की लघुकथा कहीं न कहीं पाठक को कुछ सोचने पर मजबूर करती है। इसलिए मैं उन सभी पाठकों को इस पुस्तक को पढ़ने की सिफारिश करता हूं, जो जीवन की गहराइयों को, सच्चाइयों को समझना चाहते हैं। संपादक सुरेश सौरभ इस लघुकथा के साझा संग्रह में नवीन प्रयोग धर्मी नज़र आते हैं। प्रसिद्ध कहानीकार सुधा जुगरान ने संग्रह की भूमिका लिखी है, जो बेहद मार्मिक और हार्दिक है।
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पुस्तक : घरों को ढोते लोग , संपादक : सुरेश सौरभ
प्रकाशक : समृद्ध पब्लिकेशन नई दिल्ली,
मूल्य : 245 रुपये
संस्करण-2024
समीक्षक-रमाकान्त चौधरी
गोला गोकर्णनाथ, लखीमपुर–खीरी, उत्तर प्रदेश।
मो-94158 81883
रविवार, 15 सितंबर 2024
लघुकथाओं में वैश्विक मुद्दों की आवश्यकता । भाग 1
नेतराम भारती जी के महती कार्य "लघुकथा: चिंतन और चुनौतियां" में एक प्रश्न
"लघुकथा के ऐसे कौन-से क्षेत्र हैं जिन्हें देखकर आपको लगता है कि अभी भी इनपर और काम करने की आवश्यकता है?"
का मेरा उत्तर कुछ इस प्रकार से शुरू हुआ था,
"विषय। सबसे पहले सामयिक विषयों पर ध्यान देना आवश्यक है। ग्लोबल वॉर्मिंग, पेयजल में हो रही कमी, सड़क सुरक्षा, वित्त या अर्थव्यवस्था सम्बंधित, साइबर सुरक्षा, गामीण विकास, ऑर्गेनिक खेती, सांस्कृतिक परिवर्तन आदि ऐसे विषय हैं, जिन पर लेखन न के बराबर हो रहा है।..."
आगे कुछ और भी था, बहरहाल, कुल मिलाकर मेरा यह विचार है कि लघुकथा में 'उचित सामयिक विषयों' का कुछ तो अभाव है ही।
अतः कुछ समकालीन वैश्विक चुनौतियाँ, जितनी मुझे समझ है, को आप सभी के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूं।
साथियों,
संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष 2015 में 2030 तक के लिए 17 लक्ष्य रखे हैं। ये सभी मानवता और धरती के समक्ष सबसे बड़ी वैश्विक चुनौतियां हैं और इन सभी पर रचनाकर्म करना साहित्यकारों का दायित्व है।
हमारी धरती की रक्षा करने और सभी के लिए समृद्धि व कल्याण सुनिश्चित करने के लिए ये 17 एसडीजी (सतत विकास लक्ष्य Sustainable Development Goals) एक सार्वभौमिक आह्वान है। आप इन पर कार्य कर सकते हैं, ये सभी ज्वलंत वैश्विक मुद्दे हैं।
पहला लक्ष्य है गरीबी उन्मूलन:
2030 तक हर जगह फैली गरीबी को समाप्त करना।
दूसरा है शून्य भूख:
कोई भूखा न रहे, खाद्य सुरक्षा मिले, उचित पोषण प्राप्त हो और आर्गेनिक कृषि हो।
3, बेहतर स्वास्थ्य:
सभी आयु के लोगों के लिए स्वस्थ जीवन सुनिश्चित हो।
4, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा:
समावेशी, समान गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिश्चित हो और सभी के लिए आजीवन सीखने के अवसर हों।
5, लैंगिक समानता:
हर स्थान पर लैंगिक समानता हो और सभी ओर महिला सशक्तिकरण हो।
6, स्वच्छ जल और स्वच्छता:
सभी के लिए स्वच्छ जल की उपलब्धता और जल का सही और सस्टेनेबल मैनेजमेंट सुनिश्चित हो।
7, सस्ती और टिकाऊ ऊर्जा:
सस्ती, विश्वसनीय, टिकाऊ और आधुनिक ऊर्जा तक सभी पहुँच सुनिश्चित हो।
8, रोजगार और आर्थिक विकास:
सभी के लिए सतत, समावेशी आर्थिक विकास, पूर्ण और उत्पादक रोजगार के साथ प्राप्त हो।
9, उद्योग, नवाचार और इंफ्रास्ट्रक्चर:
फ्लेक्सिबल इंफ्रास्ट्रक्चर हो, टिकाऊ औद्योगिकीकरण को बढ़ावा दें और नवाचार को बढ़ावा मिले।
10, असमानता में कमी:
सभी देशों के भीतर और उनके बीच असमानता ना हो, चाहे वह आर्थिक दृष्टि से हो, सामाजिक या अन्य कोई भी।
11, स्थायी व सुरक्षित शहर:
शहरों का निर्माण ऐसा हो जो समावेशी, सुरक्षित, लचीला और टिकाऊ हो। हमारे यहाँ स्मार्ट सिटी की अवधारणा है।
12, दायित्वपूर्ण उत्पादन और उपभोग:
उत्पादन के अनुसार उपभोग दायित्व पूर्ण हो और उपभोग के अनुसार उत्पादन।
13, जलवायु:
जलवायु परिवर्तन और उसके प्रभावों से निपटने के लिए तत्काल कार्यवाहियों की आवश्यकता है।
14, पानी के नीचे जीवन:
महासागरों, समुद्रों और समुद्री संसाधनों, जीवों का संरक्षण करते हुए उनका उपयोग करें।
15, भूमि पर जीवन:
धरती की पारिस्थितिकी प्रणालियों के सरंक्षण, पुनर्स्थापना को बढ़ावा मिले, वनों का उचित प्रबंधन हो, मरुस्थलीकरण से लड़ें और जैव विविधता की हानि को रोका जाए।
16, शांति, न्याय और सशक्त संस्थान:
शांतिपूर्ण और समावेशी समाजों को बढ़ावा मिले, सभी के लिए न्याय तक पहुँच हो और प्रभावी, जवाबदेह संस्थानों का निर्माण हो।
17, लक्ष्यों के लिए भागीदारी:
कार्यान्वयन के साधनों को मजबूत करना और सतत विकास के लिए वैश्विक भागीदारी को पुनर्जीवित करना।
मित्रों,
एसडीजी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि वे आज हमारी पूरी दुनिया को प्रभावित करने वाले कुछ सबसे महत्वपूर्ण मुद्दों को संबोधित कर रहे हैं।
इनके अतिरिक्त आप प्रदूषण, सड़क सुरक्षा, युद्ध, साइबर क्राइम, जैसे अन्य मुद्दों पर भी कार्य कर सकते हैं। लघुकथाकार होते हुए अपने साहित्यकार होने के दायित्व का निर्वहन ज़रूर करें।
सादर,
चंद्रेश कुमार छतलानी
शुक्रवार, 13 सितंबर 2024
पुस्तक समीक्षा । घरों को ढोते लोग । समीक्षक- देवेन्द्रराज सुथार
श्रमजीवी वर्ग की व्यथा-कथा लेकर आये सौरभ (पुस्तक समीक्षा)
साहित्य समाज का आईना होता है और कई बार यह आईना हमें वह चेहरे दिखाता है, जिन्हें हम अक्सर नज़रअंदाज़ कर देते हैं या जो हमारी चेतना में नहीं होते। सुरेश सौरभ द्वारा संपादित लघुकथा संग्रह 'घरों को ढोते लोग' समाज के उन तबकों पर केंद्रित है, जो हमारे दैनिक जीवन को सुचारू रूप से चलाते हैं, लेकिन जिन्हें हम अक्सर नज़रअंदाज़ कर देते हैं। यह संग्रह 65 लघुकथाकारों द्वारा लिखी गई 71 लघुकथाओं का बेहतरीन गुलदस्ता है, जिसमें प्रत्येक लघुकथाकार ने अपने अनूठे नज़रिए से मज़दूरों, किसानों, मेहनतकशों व कामवाली बाइयों के जीवन के विभिन्न पहलुओं को मार्मिक ढंग से उजागर किया है। इन लघुकथाओं में रोज़मर्रा के संघर्षों, आर्थिक चुनौतियों, सामाजिक असमानता और मानवीय संवेदनाओं को बहुत ही बारीकी से दर्शाया गया है।
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' की लघुकथा 'जहर' एक रिक्शाचालक के जीवन की विडम्बनाओं को दर्शाती है कि कैसे समाज का ढाँचा, किस प्रकार किसी व्यक्ति को कभी-कभी अपराध की ओर धकेल देता है। मुख्य पात्र 'सईद' अपने बीमार बच्चे के लिए दवा खरीदने की मजबूरी में अपने मालिक से भिड़ जाता है, जो उसकी मजबूरी का फायदा उठाना चाहता है। मार्टिन जॉन की लघुकथा 'घरों को ढोते लोग' (जिसे पुस्तक का शीर्षक बनाया गया है) एक छोटी बच्ची के मार्फ़त मजदूरों के जीवन की कठोर वास्तविकता को, सच्चाई को प्रस्तुत करती है। पुस्तक में शामिल लघुकथाएँ भारतीय समाज में व्याप्त आर्थिक असमानता और सामाजिक भेदभाव को स्पष्ट रूप से उजागर करने में सफल रही हैं।
डॉ. प्रदीप उपाध्याय की लघुकथा 'बस इतनी गारंटी' खेतिहर मजदूरों की समस्याओं को प्रकट करती है। शराफत अली खान की लघुकथा 'कमाई' समाज में व्याप्त असमानता और विडम्बनाओं को दर्शाती है तथा समाज में व्याप्त नैतिक मूल्यों के क्षरण की ओर भी इशारा करती है। नीरू मित्तल 'नीर' की लघुकथा 'एक माँ की मजबूरी' गरीब वर्ग की महिलाओं की स्थिति को उजागर करती है। यह लघुकथा बताती है कि गरीबी और अशिक्षा किस तरह युवा लड़कियों के भविष्य को प्रभावित कर सकती है। यह न केवल बाल विवाह जैसी सामाजिक बुराइयों की ओर इशारा करती है, बल्कि यह भी दिखाती है कि कैसे गरीबी महिलाओं को अपने बच्चों के भविष्य के बारे में कठोर निर्णय लेने के लिए मजबूर कर देती है।
पुस्तक में केवल निराशा और दुख की ही रचनाएं नहीं है, कई लघुकथाओं में गहरी मानवीय संवेदना और आशावाद की झलक भी दिखाई देती है। डॉ. अलका अग्रवाल की लघुकथा 'चरैवेति, चरैवेति' एक रिक्शाचालक की जीवंतता और जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण को दर्शाती है। संतोष सुपेकर की लघुकथा 'मजबूर और मजबूत' श्रमिक वर्ग की अदम्य इच्छाशक्ति को दर्शाती है। सेवा सदन प्रसाद की लघुकथा 'भूख', कोरोना महामारी के दौरान मजदूरों की दुर्दशा को चित्रित करती है। कैसे भूख और बेरोजगारी लोगों को जोखिम भरे निर्णय लेने पर मजबूर कर सकती है। आपदा के समय में समाज के सबसे कमजोर वर्ग को सबसे अधिक कष्ट झेलना पड़ता है, भूख लघुकथा से पता चलता है।
सुकेश साहनी, योगराज प्रभाकर, मनोरमा पंत, अविनाश अग्निहोत्री, बलराम अग्रवाल, डॉ.चंद्रेश कुमार छतलानी, नीना मंदिलवार, आलोक चोपड़ा, प्रो. रणजोध सिंह, डॉ.मिथिलेश दीक्षित, कल्पना भट्ट, अरविंद सोनकर, रश्मि लहर, गुलज़ार हुसैन, सुरेश सौरभ , रशीद गौरी, आदि लघुकथाकारों ने अपनी बेहतरीन लघुकथाओं से संग्रह को पठनीय और संग्रहणीय बनाया है। वरिष्ठ कथाकार सुधा जुगरान ने संग्रह में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका जोड़ कर संग्रह को साहित्यिक हलकों में विमर्श का हिस्सा बना दिया है।
संग्रह की भाषा सरल और प्रभावशाली है, जो इसे व्यापक पाठक वर्ग के लिए सुलभ बनाती है। लेखक जटिल सामाजिक-आर्थिक मुद्दों को सरल कथाओं के माध्यम से प्रस्तुत करने में सफल रहें हैं। लघुकथाएँ संग्रह के विषय से अनुकूल और सार्थक हैं। 'घरों को ढोते लोग' एक ऐसा लघुकथा संग्रह है, जो न केवल पठनीय है, बल्कि समाज के प्रति हमारी समझ को, संवेदना को गहरा और विस्तृत करने में भी सहायक सिद्ध होगा। संपादक ने इन लघुकथाओं को एक साथ संकलित करके महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। उन्होंने समाज के एक ऐसे वर्ग की आवाज़ को मुखर किया है, जो अक्सर साहित्य में उपेक्षित रह जाती है। यह संग्रह केवल एक पुस्तक नहीं है; यह एक वह आईना है, जो हमें हमारे समाज का एक ऐसा चेहरा दिखाता है जिसे हम अक्सर देखने से कतराते हैं। सच्चा विकास तब तक नहीं हो सकता, जब तक समाज का हर वर्ग सम्मान और समानता के साथ न जिये। लिहाजा यह एक ऐसी कृति है जो न केवल पढ़ी जानी चाहिए, बल्कि जिस पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। मंथन किया जाना चाहिए।
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पुस्तक-घरों को ढोते लोग (साझा लघुकथा संग्रह)
संपादक: सुरेश सौरभ (मो-7860600355)
मूल्य: ₹245 (पेपरबैक)
प्रकाशन: समृद्ध पब्लिकेशन शाहदरा, दिल्ली
प्रकाशन वर्ष-2024
समीक्षक-
देवेन्द्रराज सुथार
पता - गांधी चौक, आतमणावास, बागरा, जिला-जालोर, राजस्थान। 343025
मोबाइल नंबर- 8107177196