यह ब्लॉग खोजें

बुधवार, 11 सितंबर 2019

पुस्तक समीक्षा | माटी कहे कुम्हार से: लघुकथा-संग्रह (डॉ. चंद्रा सायता) | दो समीक्षाएं


पुस्तक : माटी कहे कुम्हार से
लेखिका : डॉ. चंद्रा सायता 
प्रकाशक : अपना प्रकाशन
मूल्य : 200 रुपए
पेज : 104
समीक्षक : 
१. नंद किशोर बर्वे २. दीपक गिरकर



माटी कहे कुम्हार से : गहरी संवेदनाओं की लघुकथाएँ 

नंद किशोर बर्वे

जैसे जैसे समाज में विरोधभास बढ़ते जा रहे हैं, वैसे वैसे लघु कथा के लिये उर्वरा जमीन तैयार होती जा रही है । चूँकि एक लेखक – वो चाहे किसी भी विधा में लिख रहा हो, उसकी संवेदना औरों की तुलना में कहीं अधिक सक्रिय होती है । इसी सक्रियता को वह अपनी रचनाओं में उतारता है । इस कारण समाज में होने वाली घटनाएँ  अनेक रूपों में हमारे सामने आती हैं ।

एक सच्चा लेखक वही है जो अपने समय को अपनी कलम से शब्द बद्ध करके आने वाली पीढियाँ के लिये एक प्रामाणिक दस्तावेज़ के रूप में छोड़ कर जाये । यह काम वर्तमान समय  में लघुकथाएँ बहुत प्रभावी तरीके से कर रही हैं ।कारण कि वे पद्य के दोहों और शेरों के जितनी प्रभावशाली होती हैं । कम से कम शब्दों में अपनी भूमिका को श्रेष्ठ तरीके से निभा पाने के कारण ही लघुकथाएँ आज इतनी मात्रा में लिखी और पढ़ी जा रही हैं।   

 प्रसिद्ध लेखिका और अनुवादक डॉ . श्रीमती चन्द्र सायता की लघु कथाओं के  दूसरे संग्रह ‘माटी कहे कुम्हार से’ में संकलित बहत्तर लघु कथाओं में गहरी संवेदना , दरकते मूल्यों के प्रति चिंता और निहित स्वार्थों के कारण टूटते रिश्तों का रेखांकन   हुआ  है ।  अपनी लघुकथाओं के पात्रों के चयन से चंद्रा जी कभी कभी तो चमत्कार  सा कर देती हैं । उनके ये पात्र हमें अपने आस पास सहज ही दिख जाते हैं । बस उनके प्रति उनकी दृष्टि सम्पन्नता ही  कथा बन जाती है , जिसे आम आदमी देखकर भूल जाता है।

‘अंकुरण’, ‘अर्थी और अर्थ’ तथा ‘अकेलापन’ बाल मनोविज्ञान की अच्छी कथाएं हैं । ‘अंकुरण’ माँ के आभाव में पला बच्चा अपने पापा से भावनात्क रूप से बहुत ‘अटेच’ है , वह बिना पापा के किसी बात की कल्पना नहीं कर सकता । ‘अकेलापन’ में परिवारों में आजकल जो एक ही बच्चा हो रहा है , ऐसे में उस बालसखा विहीन बच्चे की मनोदशा अच्छे से रेखांकित हुई है।

‘अर्थी और अर्थ’ में बच्चा शव यात्रा में शवों पर उड़ाये पैसों से अपनी बीमार माँ के लिये दवाई खरीदता है । यह घटना समाज में चिंताजनक स्थिति तक बढ़ रही अमीरी और ग़रीबी की खाई को ऐसे बताती है कि पाठक बिना द्रवित नहीं रह सकता । ‘नामगुनिया’ चिकनगुनिया की ही तरह व्यक्ति को अपनी चपेट में लाइलाज तरीके से लेने वाले सोशल मिडिया के प्रति एडिक्शन की सुंदर बयानी है । हम में कई लोग हैं जो अपने रोजमर्रा के जीवन की छोटी छोटी घटनाओं को इस माध्यम पर ‘शेयर’ करने की गम्भीर बीमारी से जाने अनजाने ग्रसित होते जा रहे हैं ।

इसमें विरोधाभास यह है कि बाकी नशों की तरह यहाँ भी बीमार यह मानने को राज़ी नहीं है कि वह इस बीमारी की गिरफ्त में आ चुका है । ‘प्रतिष्ठा कवच’ और ‘अधिकार’ दोनों लघुकथाएँ युवा वर्ग की दो समस्याओं को दर्शाती हैं । ‘प्रतिष्ठा कवच’ में अपने भाई की गलत हरकतों को बचाती बहन है तो दूसरी ओर उसके नामदार पिता की प्रतिष्ठा का कवच भी है जो ऐसे लोगों को ख़ुद को कानून से ऊपर मानने का खुला लायसेंस देता है । इसमें वह बहन भी उस अपराध की कम दोषी नहीं कही जा सकती जो अपने भाई की गलत करतूतों के लिये उसे फटकारने के बजाय उसका बचाव करती है । ‘अधिकार’ में इन दिनों चल रहे अनैतिक लिव इन रिलेशन की विद्रूपताओं को बताती है ।

महीनों या बरसों साथ में रहने और बिना ज़िम्मेदारी के वैवाहिक सुखा भोगने के बाद कोई भी लड़की किसी भी दिन जाकर पुलिस में शिकायत दर्ज कर दे कि उसके साथ बलात्कार होता रहा है /था । और पुलिस लड़के को बिना प्राकृतिक न्याय की परवाह किये एक तरफा सजा सुना के उसे दोषी करार देती है । यहाँ किसी के भी प्रति ज्यादती की वकालात मैं नहीं कर रहा , लेकिन ‘लिव इन’ में दोनों पक्ष सामान रूप से और अपनी मर्जी से इन्वाल्व होते हैं , तो सजा एक पक्ष को ही क्यों हो ? 

‘सृजन सम्बन्ध’ एक विशिष्ट प्रकार की लघुकथा है , जो किसी भी प्रकार के रचना कर्म में लगे लोगों के बीच अपने सृजन से उत्पन्न रिश्तों को बहुत ढंग सुंदर से बुनती है । इसमें एक कवि के लिखे गीत को गायिका गाती है , जिसकी वजह से वह गीत बहुत लोकप्रिय हो जाता है , इससे अभिभूत हो कर वह कवि उस गायिका के घर जाकर उसका सम्मान करता है और दोनों धन्य हो जाते है। इस संग्रह में उनकी  कुछ मानवेत्तर लघुकथाएँ भी हैं । जो बेहतर बन पड़ी है । ‘ज़िन्दगी और समय’ में समय ज़िन्दगी के इस ‘उलाहने पर कि तुम निष्ठुर और कुटिल हो’ उसे समझाते हुए कहता है कि – 

“हे सखी मैं इतना पारदर्शी हूँ कि तुम अपने कर्म के अनुसार अपना ही प्रतिबिम्ब मुझमें देखने लगती हो । इसलिए जब तुम्हारा भाव कुटिल होता है , तब तुम्हार कर्म भी कुटिल हो जाता है । और कर्म कुटिल होते ही तुम्हारा दृष्टिकोण कुटिल बन जाता है । तुम्हें जब जब मैं जैसा जैसा दिखता हूँ , तुम होती हो । समझीं कुछ । ” इस प्रकार वे ज़िन्दगी और समय के माध्यम से एक बड़ा सन्देश में कामयाब होती हैं , कि समय तो अपनी गति से ही चलता है ये हम ही हैं जो समय को अच्छा या कि बुरा बताते रहते हैं । इसी प्रकार किताब की शीर्षक कथा ‘माटी कहे कुम्हार से…’ में माटी ख़ुद कुम्हार से यह कहती है कि वो बाकी बर्तनों के साथ ही उससे सकोरे भी बना कर बेचे ताकि प्यास से व्याकुल पंछियों को भी अपनी प्यास बुझाने को पानी मिल जाये ।  कुम्हार की इस समस्या पर  कि इससे बढ़ने वाली लागत का क्या होगा ? मिट्टी उसका तरीका बताते हुए कहती है कि इसकी लागत को मटके की कीमत में जोड़ कर सहज समाधान भी बताती है । ‘दुःख से उपजा सुख’ लघुकथा में बीमार बेटी के असामयिक निधन पर उसके प्रति चिंतिति उसकी माँ एक डीएम निश्चिन्त हो जाती है कि वह भी अब बेटी की चिंता के बिना आराम से मर सकेगी । इसमें दुःख में भी सुख देखने कि मानवीय मानसिकता का अच्छा चित्रण किया है ।  

यहाँ यह भी कहना समीचीन होगा कि कुछ लघुकथाएँ अपने कथ्य और गठन में और मेहनत की दरकार रखती हैं । जो चन्द्रा जी जैसी वरिष्ठ और दृष्टि सम्पन्न लेखिका के लिये कोई मुश्किल काम नहीं है । आशा ही नहीं विश्वास है कि भविष्य में समाज को उनसे और बेहतर लघुकथाएँ मिलती रहेंगी ।

Source:

https://www.thepurvai.com/book-review-by-nand-kishor-barwe/
-0-


सकारात्मकता का बोध कराती लघुकथाओं का संग्रह है ’माटी कहे कुम्हार से...’

दीपक गिरकर



हिन्दी एवं सिन्धी भाषा की सुप्रसिद्ध रचनाकार डॉ. चंद्रा सायता के लेखन का सफ़र बहुत लंबा है। माटी कहे कुम्हार से...  लेखिका का दूसरा लघुकथा संग्रह है। लेखिका का पहला लघुकथा संग्रह गिरहे भी काफ़ी चर्चित रहा था। लेखिका के तीन काव्य संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं। चंद्रा सायता की लघुकथाओं की पृष्ठभूमि और कथानक जीवन की मुख्यधारा से उपजते हैं और उनके पात्र समाज के हर वर्ग से उठ कर सामने आते हैं। इस पुस्तक में कुल 72 लघुकथाएँ संकलित है। इस संग्रह की अधिकांश लघुकथाएँ सशक्त है। लघुकथाओं की घटनाएँ और पात्र काल्पनिक नहीं, जीवंत लगते हैं। इस लघुकथा संग्रह की भूमिका बहुत ही सारगर्भित रूप से वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. मिथिलेश दीक्षित ने लिखी है।  

माटी कहे कुम्हार से सकारात्मकता का बीज रोपित करती इस संग्रह की प्रमुख लघुकथा है। लघुकथा भिखारी सेठ में लेखिका कहती है,  "दद्दा! थोड़ा सा तो रहम करो मुझ पर। आपके बेटे जैसा हूँ। जरूरत आ पड़ी है, वरना…  वो तो ठीक है। मैं बिजनेस में कोई समझौता नहीं करता। यही एक कमी है मुझमें। बूढ़ा भिखारी टस से मस नहीं हुआ।” बासमती रिश्ते लघुकथा भी सकारात्मकता का बोध कराती रचना है। इस लघुकथा में एक जगह यह वर्णन दृष्टव्य है - "आप समझ सकती हैं कि अपने जवान बच्चों के सामने हम अगर निकाह कर लें तो उनके दिलों पर तो नश्तर चल जाएँगे। कहते हुए अशफाक ने जमीला की ओर से मसले का हल जानना चाहा। जी, आप दुरूस्त फरमा रहे हैं। इस मसले पर तो मैं पहले से सोचे बैठी हूँ। वह क्या? अशफाक अचानक ख़ुशी छुपाते हुए बोला। जमीला ने मुस्कुराते हुए कहा - हम पहले बच्चों से मशविरा कर लें, क्या वे एक दूसरे को पसंद करते हैं। वे साथ-साथ रहना चाहते हैं। ” लेखिका ने स्वार्थी दुनिया के मुखौटे का चित्रण ग़रीब लघुकथा में सटीक ढंग से किया है। वीराने में बहार और काशी जैसी सशक्त लघुकथाएँ मानवीय संवेदनाओं को झंकृत कर के रख देती है। भाभियाँ लघुकथा भाभियों के दोहरे चेहरों को बेनक़ाब करती है। उद्यान सौंदर्यीकरण, सच्चाई छुपाती तस्वीर, अधिकार, ऊँची दूकान, नास्तिक जैसी लघुकथाएँ समाज में व्याप्त विसंगतियों को उजागर करती हैं। लेखिका ने अकेलापन, अर्थी और अर्थ, अंकुरण इत्यादि लघुकथाओं में बच्चों के मनोविज्ञान को बहुत ही स्वाभाविक रूप से उकेरा है। लेखिका ने कुछ लघुकथाएँ जैसे ज़िन्दगी और समय, अकेलापन, तलाक। तलाक। तलाक।, माटी कहे कुम्हार से, वक़्त बादशाह, असली दोषी, वर्चस्व की लड़ाई इत्यादि सांकेतिक, मानवेतर पात्रों के माध्यम से व्यक्त की हैं। सामाजिक विसंगतियाँ, पुरुष के अहं, सोशल मीडिया, बाल मनोविज्ञान, मातृत्व भाव, बाज़ारवादी दृष्टिकोण, दोहरे चरित्र, नारी सुरक्षा, नैतिक और चारित्रिक कमज़ोरी इन सब विषयों पर लेखिका ने अपनी क़लम चलाई है।

इस संग्रह की रचनाएँ समाज को सीख देती हैं और साथ में समाज में व्याप्त विसंगतियों को देखने की एक नयी दृष्टि देती हैं। चन्द्रा सायता के लेखन में गंभीरता, सूक्ष्मता और यथार्थपरकता दृष्टिगोचर होती है। लेखिका की रचनाएँ जीवन की सच्चाइयों से साक्षात्कार कराती है। चन्द्रा सायता की लघुकथाएँ पाठकों को सोचने को मजबूर करती हैं, ज़िम्मेदारी का अहसास करवाती हैं। रचनाओं की भाषा सहज, स्वाभाविक और सम्प्रेषणीय है। संवेदना और भावना के स्तर पर चंद्रा सायता जी की लघुकथाएँ हमको उद्वेलित करती हैं। 103 पृष्ठ का यह लघुकथा संग्रह आपको कई विषयों पर सोचने के लिए मजबूर कर देता है। डॉ. चंद्रा सायता का यह लघुकथा संग्रह सराहनीय और पठनीय है। आशा है प्रबुद्ध पाठकों में इस लघुकथा संग्रह का स्वागत होगा।

Source:

http://sahityakunj.net/entries/view/sakaratmakata-ka-bodh-karati-laghukathon-ka-sangrh-mati-kahe-kumhar-se

मंगलवार, 10 सितंबर 2019

पुस्तक समीक्षा | दिदिया-लघुकथा-संग्रह (डॉ पूरन सिंह) | समीक्षक-शब्द मसीहा

पुस्तक : दिदिया- लघुकथा-संग्रह
लेखक : डॉ पूरन सिंह
समीक्षक : शब्द मसीहा
प्रकाशक : के बी एस प्रकाशन , दिल्ली 
पेज : 112
मूल्य : 200.00 रुपये


डॉ पूरन सिंह जी आज साहित्य जगत में परिचय के मोहताज नहीं हैं। देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कहानियाँ, कवितायें और लघुकथाएँ प्रकाशित होती रहीं हैं। मैं पिछले कई वर्षों से उनका पाठक हूँ । अक्सर मुलाक़ात होती रहती है । जब मेरे पास समय नहीं रहता तब फोन पर ही संपर्क बना रहता है । वे मेरे अच्छे मित्र भी हैं और अच्छे इंसान भी । रिश्तों को बहुत ही दिल से निभाते हैं ।

दिदिया- लघुकथा-संग्रह में कुल इकसठ लघुकथाएँ हैं । इस संग्रह की सबसे उल्लेखनीय बात है कि यह लघुकथा –संग्रह उन्होने अपनी बहिन को समर्पित किया है । पुस्तक का आत्मकथन बहुत ही भावुक करने वाला है। मित्रों का भी आभार व्यक्त किया है और मित्रों की राय भी मांगी है ।

वर्तमान में लघुकथा बहुत प्रचलित विधा है। अनेक लोगों ने अपने अनुसार अपनी-अपनी परिभाषाएँ भी दी हैं । मेरा मानना है कि जो लघुकथा पाठक को चिकोटी काट दे, जिसे पढ़ने पर मुँह खुला का खुला रह जाये और पाठक अवाक रह जाय...सन्न रह जाये..... इस तरह मानवीय हृदय की संवेदना को झंकृत कर दे वह कामयाब लघुकथा है। वे उम्र में मुझसे बड़े हैं। बहुत जगह छपते भी हैं इसलिए मैं उनका अनुज हूँ । लेकिन मैं एक पाठक हूँ अतः अपनी प्रतिक्रिया बतौर एक पाठक के ही रखना पसंद करूँगा।

“मेकअप” :- एक ऐसी लघुकथा है जहाँ एक मॉडर्न महिला शोक में जाते समय भी सफ़ेद साड़ी, सफ़ेद सेंडिल का मैचप करके जाती है ...मेकअप करके जाती है। यह विद्रूपता लेखक को ही नहीं बल्कि आमजन के हृदय को क्रोध से भर देती है । लेखक इस भाव को और नई पैदा होती सामाजिक बुराई पर कड़ी चोट करने में सक्षम हैं।

“हार-जीत” : प्रेम में बलिदान का बहुत बड़ा महत्व होता है। जीवन में प्रेम एक-दूसरे के बलिदान पर ही टिका होता है। एक युवक अपनी प्रेमिका के लिए जानबूझकर परीक्षा में फेल हो जाता है ताकि वह अपनी साथी के साथ रह सके । यूं तो यह बात खटकती है कि कोई मूर्ख ही ऐसा कर सकता है। मगर मैं मानता हूँ कि समझदार लोग प्यार कम गणित ज्यादा लगाते हैं और अक्सर परेशान रहते हैं। घटना बहुत साधारण है लेकिन उसमें निहित प्रेम ही इस कहानी की जान है।

“बचा लो उसे” : एक बहिन का सर्वोच्च बलिदान । किसी भी स्त्री की आबरू उसके लिए सबसे अहम होती है। अगर एक बहिन अपने भाई के ईलाज के लिए अपने सर्वस्व को सौंप दे तब उस बहिन को हम कुलटा कहेंगे या देवी ? उस पर भी अगर दैहिक सौंदर्य का पिपासु उस स्त्री के साथ कुछ न करके उसके भाई का सारा ईलाज खर्च अदा करे तब उसे हम क्या कहेंगे? बिना देह को स्पर्श करने पर अगर स्त्री पैसा वापिस कर दे तब उस मर्यादा को क्या कहेंगे? ऐसे ही कई सवाल मन में इस लघुकथा ने उठा दिये हैं। जिसमें त्याग ही त्याग की उच्च भावना है तो दूसरी तरफ मानवीयता भी है उस व्यक्ति की जिसने देह भी हासिल नहीं की और पूरे ईलाज का बिल भी चुकाया। हालांकि आजकल ऐसा होना मुमकिन नहीं लगता किन्तु फिर भी जिस भावना में डॉ पूरन सिंह जी ने पाठक को गोते लगवाए हैं वह प्रशंसनीय है।

“पगड़ी” :- एक माँ के सम्मान की कथा है । एक माँ ने अपने बच्चे को पालपोसकर शादी लायक किया पिता के न रहने पर । जब रिश्ते का समय आया तब पगड़ी किस के सिर बंधे यह सवाल खड़ा हो गया । लड़के ने अपनी माँ को तरजीह दी और उसके सिर पर पगड़ी बांधने को कहा । रिश्ता नहीं हो सका । लड़की का बाप कहता है, “चलो भाइयो, मुझे ऐसे घर में शादी नहीं करनी है जहाँ लुगाई मालकिन हो।“ कैसी विडम्बना है कि आज का समाज औरत के उस रूप और परिश्रम को नहीं देखता जहाँ एक महिला न सिर्फ अपनी औलाद को पालती है बल्कि बाप के सारे फर्ज़ भी निभाती है । ये कथा नारीवादी सोच का बहुत सुंदर प्रयोग है । समाज में इस स्त्री-पुरुष की गैरबराबरी पर बहुत गहरी चोट करती है।

“परजीवी” :- एक लेखक महोदय अपनी पुस्तक “परजीवी” लेकर लेखक के पास पहुँचे । बातों-बातों में लेखक के काम धंधे के विषय में पूछा तब उन्होने कहा,”मेरी पत्नी काम करती है और वहीं मेरी कविताओं को छपवाती है।“

पुस्तक का शीर्षक सार्थक हो गया। यह विडम्बना है कि कवि महोदय स्वयं परजीवी के अर्थ को समझ नहीं पाये थे । स्त्री किस प्रकार उस पुरुष को पति मानती होगी जो इस तरह अपनी पत्नी पर बोझ हो और कविता जैसी बौद्धिक प्रक्रिया में संलग्न हो, क्या सचमुच ऐसा व्यक्ति कवि कहलाने लायक है ? वह तो परजीवी ही हो सकता है । शीर्षक को सार्थक करती हुई लघुकथा है।

सबसे बड़ी बात किसी भी कथाकार में जो होनी चाहिए वह है मानवीयता और मानवीय गुणों का विस्तार देने वाली सोच। डॉ पूरन सिंह जी अपनी दलित विमर्श की कथाओं के लिए जाने जाते हैं। उन्हें अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित भी किया गया है । हिन्दी अकादमी दिल्ली द्वारा उनकी कहानी “नरेसा की अम्मा उर्फ भजोरिया” का मंचन भी दिल्ली में हो चुका है । उनकी कई रचनाओं का अनेक प्रादेशिक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। इस सब को जानते हुए भी मैं कहना चाहूँगा कि कुछ रचनाएँ अभी और तीखी हो सकती थीं । रंदा कसाई की जरूरत है। मित्र हूँ, पाठक हूँ और शुभचिंतक होने के नाते यह मेरा दायित्व भी है कि जो मुझे खटका उसको संप्रेषित भी करूँ। यह एक साथी लेखक का और मित्र का धर्म है।

अंत में यही कहूँगा कि नारीमन को समझने का जो हृदय डॉ पूरन सिंह जी के पास है वह बहुत कम रचनाकारों में होता है। लघुकथाएँ कहीं भी जटिल नहीं हैं और अपना उद्देश्य बहुत ही सरलता से प्राप्त करते हुए पाठक के मन में सवाल पैदा करने और निराकारण देने में सक्षम हैं।

Source:
http://lalbiharilal.blogspot.com/2019/08/blog-post.html

शुक्रवार, 6 सितंबर 2019

लघुकथा को आज नजरअंदाज करना बेमानी है: डॉ बलराम अग्रवाल

श्री लालित्य ललित की फेसबुक पोस्ट से Lalitya Lalit is with Balram Agarwal at Kalidas Academy, Ujjain.September 5 at 6:15 PMUjjain

लघुकथा को आज नजरअंदाज करना बेमानी है: डॉ बलराम अग्रवाल

आज लघुकथा को अब गंभीरता से लिया जाने लगा है।बेहद छोटी मगर असरदार होती है इसकी मारक क्षमता कि कब तीर निकलता है और कब वह लक्ष्य पर पहुंच कर अपना निशाना लगा आता है।जी,हाँ इसका नाम लघुकथा है।

आज राष्ट्रीय पुस्तक न्यास,भारत द्वारा आयोजित उज्जैन पुस्तक मेले में लघुकथा पर एक यादगार गोष्ठी का आयोजन हुआ जिसमें उज्जैन-इंदौर के बेहतरीन मगर राष्ट्रीय स्तर के लघुकथाकारों ने शिरकत की।जिसमें संतोष सुपेकर,राजेन्द्र देवघरे, मीरा जैन,कोमल वाधवानी,आशा गंगा शिरदोनकर ने अपनी लघुकथाओं का पाठ किया।इस मौके पर डॉ बलराम अग्रवाल की पुस्तक "लघुकथा का प्रबल पक्ष" का लोकार्पण भी मंचस्थ अतिथियों द्वारा किया गया।
सत्र की अध्यक्षता दिल्ली से पधारे वरिष्ठ लेखक डॉ बलराम अग्रवाल ने की।सत्र का समन्वय राजेन्द्र नागर ने किया।

कार्यक्रम से पूर्व राष्ट्रीय पुस्तक न्यास,भारत के हिंदी संपादक डॉ ललित किशोर मंडोरा ने न्यास की गतिविधियों से आमन्त्रित लेखकों का परिचय करवाया व आमन्त्रित वक्ताओं को न्यास की ओर से पुस्तकें भेंट की।उन्होंने कहा कि हम अपने अतिथियों का स्वागत पुस्तकों से करते है।
इस मौके पर अध्यक्षता कर रहे लघुकथा के वरिष्ठ हस्ताक्षर डॉ बलराम अग्रवाल ने कहा:
निश्चित ही यह बड़े सौभाग्य की बात है कि अब बड़े प्रकाशन घरानों ने लघुकथा को गम्भीरता से लेना शुरू कर दिया है।बेशक वह राष्ट्रीय पुस्तक न्यास हो या साहित्य अकादेमी हो।ये वह विधा है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
उन्होंने आगे कहा कि "युवा रचनाकारों को न्यास ने कार्यक्रमों में शामिल कर एक बड़ा कार्य किया है।सही मायने में न्यास प्रकाशन और लेखकों के बीच में एक महत्वपूर्ण कड़ी की भूमिका निभा रहा है। लघुकथा सामान्य से कुछ अलग हट कर विधा नहीं है।ये एक गंभीर विधा है जिसे आज पर्याप्त समझा जा रहा है।व्यक्ति समाज से लेता है व समाज को ही लौटाता है।"
इस मौके पर उन्होंने साहिर लुधियानवी का जिक्र करते हुए बात को आगे बढ़ाया।उन्होंने कहा कि "साहित्य मनुष्य के लिए है।हम आजकल अपनी सराउंडिंग भूल गए।जिसे नहीं भूलना चाहिए।आस पास का चित्रण भी हमारी कथाओं में बरबस ही नजर आता है।आसपास का बोध हमारी रचनाओं का केंद्र बिंदु है।"
दृष्टि नाम से अशोक जैन की पत्रिका का जिक्र भी अपने वक्तव्य में किया और साथ ही डॉ बलराम अग्रवाल ने अपनी कुछ लघुकथाओं का पाठ भी किया।
कार्यक्रम के सूत्रधार राजेन्द्र नागर ने कहा कि लघुकथा की ताकत ही यही होती है कि अपने आकार में वह मारक होती है और यही लघुकथा की ताकत भी यही है।
नेत्रहीन लघुकथाकार कोमल वाधवानी ने अपनी सुंदर लघुकथाओं से कार्यक्रम की शुरुआत की।
राजेन्द्र देवघरे ने अपनी लघुकथा"सड़क पर चर्चा " सुनाते हुए उन्होंने कहा कि जीवन में विसंगतियों का होना बेहद लाजिमी है,तभी उनकी लघुकथा सड़क पर चर्चा को देखते ही रह गए कि बारिश के दिनों में आखिर सड़क गई तो कहां!
उनकी अगली रचना 'प्रतिबंध' ने भी श्रोताओं के ध्यान अपनी और आकर्षित किया।
आशा गंगा शिरदोनकर ने अपनी सामयिक रचनाओं को शिक्षा दिवस के संदर्भ में सुनाई।जिसमें नकाबपोश व अन्य रचनाओं ने श्रोताओं को प्रभावित किया।
लघुकथा की नई शैली को विकसित करने में आशा गंगा शिदोंकर ने नया आयाम प्रस्तुत किया है।जिसने आकाशवाणी के कार्यक्रम हवामहल की याद दिला दी।
संतोष सुपेकर ने ओढ़ी हुई बुराई लघुकथा सुना कर हरियाणवी शैली श्रोताओं के सम्मुख रखने का जबरदस्त प्रयास किया।
मीरा जैन ने अपनी कुछ लघुकथाओं का पाठ किया जिसमें समकालीन विषयों को आधार बनाया गया।
उल्लेखनीय साहित्यकारों में इसरार अहमद,दिलीप जैन,विजय सिंह गहलौत,डॉ पुष्पा चौरसिया,नरेंद्र शर्मा,गड़बड़ नागर,पिलकेन्द्र अरोड़ा ,डॉ देवेंद्र जोशी भी कार्यक्रम में नजर आएं।

गुरुवार, 5 सितंबर 2019

अनहद कृति में मेरी लघुकथा "भूख"

अनहद कृति ISSN: 2349-२७९१ के(अंक २६: सितम्बर ५, वर्ष २०१९ में मेरी लघुकथा "भूख" को स्थान मिला। संपादक द्वय, पुष्प राज चसवाल जी एवं डॉ प्रेम लता चसवाल 'प्रेम पुष्प' जी का हार्दिक आभार।

"भूख" / डॉ चंद्रेश कुमार छतलानी


"उफ़..." रोटी के थाली में गिरते ही, थाली रोटी के बोझ से बेचैन हो उठी। रोज़ तो दिन में दो बार ही उसे रोटी का बोझ सहना होता था, लेकिन आज उसके मालिक नया मकान बनने की ख़ुशी में भिखारियों को भोजन करवा रहे थे, इसलिए अपनी अन्य साथियों के साथ उसे भी यह बोझ बार-बार ढोना पड़ रहा था।

थाली में रोटी रख कर जैसे ही मकान-मालिक आगे बढ़ा, तो देखा कि भिखारी के साथ एक कुत्ता बैठा है, और भिखारी रोटी का एक टुकड़ा तोड़ कर उस कुत्ते की तरफ़ बढ़ा रहा है, मकान-मालिक ने लात मारकर कुत्ते को भगा दिया।

और पता नहीं क्यों भिखारी भी विचलित होकर भरी हुई थाली वहीं छोड़ कर चला गया। 

यह देख थाली की बेचैनी कुछ कम हुई, उसने हँसते हुए कहा, "कुत्ता इंसानों की पंक्ति में और इंसान कुत्ते के पीछे!" 
रोटी ने उसकी बात सुनी और गंभीर स्वर में उत्तर दिया, "जब पेट खाली होता है तो इंसान और जानवर एक समान होता है। भूख को रोटी बांटने वाला और सहेजने वाला नहीं जानता, रोटी मांगने वाला जानता है।"

सुनते ही थाली को वहीं खड़े मकान-मालिक के चेहरे का प्रतिबिम्ब अपने बाहरी किनारों में दिखाई देने लगा।


Source:

सोमवार, 2 सितंबर 2019

लघुकथा समाचार | लघुकथाओं में बड़ी बात | दैनिक ट्रिब्यून | 01 Sep 2019 | मनमोहन गुप्ता मोनी

मनमोहन गुप्ता मोनी


लघुकथा के क्षेत्र में डॉ. मधुकांत का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा बाबू बालमुकुंद गुप्त साहित्य सम्मान से सम्मानित मधुकांत सातवें दशक से लघुकथा लेखन में सक्रिय हैं। उनकी अनेक पुस्तकें सम्मानित व प्रकाशित हो चुकी हैं। केवल लघुकथा पर ही उनके एक दर्जन से अधिक संग्रह छप चुके हैं। उपन्यास लेखन से लेकर कहानी, नाटक, कविता, व्यंग्य आदि के साथ-साथ लघुकथा का सृजन उनका निरंतर जारी है। लघुकथा की बात हो और डॉक्टर मधुकांत का जिक्र न हो, ऐसा संभव नहीं। थोड़े शब्दों में अधिक बात कहना आसान काम नहीं है। एक लघुकथा लेखक ही इसे पूर्ण कर सकती है।
डॉ. मधुकांत की रचनाओं को पढ़ने पर ऐसा लगता है कि जिंदगी का शायद ही कोई पल या विसंगति, उनकी रचनाओं में अछूती नहीं रही। एक ही विषय पर उनकी अनेक लघुकथाएं पढ़ने को मिल सकती हैं लेकिन उनमें पुनरावृत्ति नहीं है। शैक्षिक जगत से जुड़े रहने के कारण रचनाओं में अध्यापन अनुभव भी स्पष्ट दिखाई देता है। ‘ब्लैक बोर्ड’ की तरह ही ‘मेरी शैक्षिक लघुकथाएं’ में भी शिक्षा की बात अधिक है। लघुकथा संग्रह ‘तूणीर’ की रचनाओं को पढ़कर ऐसा नहीं लगता कि यह कोरी कल्पना पर आधारित है। ऐसा आभास होता है कि डॉ. मधुकांत ने हर रचना को जिया है। ‘नाम की महिमा’ लघुकथा में उन्होंने बिल्कुल सटीक इशारा किया है। इसी प्रकार अतिथि देवो भव, अंगूठे, आईना, सगाई, जानी-अनजानी, अन्न देवता आदि लघुकथाएं जिंदगी के बहुत करीब दिखाई देती हैं।

पुस्तक : तूणीर (लघुकथा संग्रह) 
लेखक : डॉ. मधुकांत 
प्रकाशक ः अयन प्रकाशन, महरौली, नई दिल्ली 
पृष्ठ ः 121 
मूल्य ः रु. 240


Source:
https://www.dainiktribuneonline.com/2019/09/%E0%A4%B2%E0%A4%98%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A4%A5%E0%A4%BE%E0%A4%93%E0%A4%82-%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82-%E0%A4%AC%E0%A4%A1%E0%A4%BC%E0%A5%80-%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%A4/

रविवार, 1 सितंबर 2019

फेसबुक समूह "शब्दशः" द्वारा आयोजित प्रतियोगिता में मेरी विजेता लघुकथा





लघुकथा: अपरिपक्व / डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

जिस छड़ी के सहारे चलकर वो चश्मा ढूँढने अपने बेटे के कमरे में आये थे, उसे पकड़ने तक की शक्ति उनमें नहीं बची थी। पलंग पर तकिये के नीचे रखी ज़हर की डिबिया को देखते ही वह अशक्त हो गये। कुछ क्षण उस डिबिया को हाथ में लिये यूं ही खड़े रहने के बाद उन्होंने अपनी सारी शक्ति एकत्रित की और चिल्लाकर अपने बेटे को आवाज़ दी,
"प्रबल...! यह क्या है..?"
बेटा लगभग दौड़ता हुआ अंदर पहुंचा, और अपने पिता के हाथ में उस डिबिया को देखकर किंकर्तव्यविमूढ होकर खड़ा हो गया। उन्होंने अपना प्रश्न दोहराया, "यह क्या है..?"
"जी... यह... रौनक के लिये..." बेटे ने आँखें झुकाकर लड़खड़ाते स्वर में कहा।
सुनते ही वो आश्चर्यचकित रह गये, लेकिन दृढ होकर पूछा, "क्या! मेरे पोते के लिये तूने यह सोच भी कैसे लिया?"
"पापा, पन्द्रह साल का होने वाला है वह, और मानसिक स्तर पांच साल का ही... कोई इलाज नहीं... उसे अर्थहीन जीवन से मुक्ति मिल जायेगी..." बेटे के स्वर में दर्द छलक रहा था।
उनकी आँखें लाल होने लगी, जैसे-तैसे उन्होंने अपने आँसू रोके, और कहा, "बूढ़े आदमी का मानसिक स्तर भी बच्चों जैसा हो जाता है, तो फिर इसमें से थोड़ा सा मैं भी...."
उन्होंने हाथ में पकड़ी ज़हर की डिबिया खोली ही थी कि उनके बेटे ने हल्का सा चीखते हुए कहा, "पापा...! बस।", और डिबिया छीन कर फैंक दी। वो लगभग गिरते हुए पलंग पर बैठ गये।
उन्होंने देखा कि ज़मीन पर बिखरा हुआ ज़हर बिलकुल पन्द्रह साल पहले की उस नीम-हकीम की दवाई की तरह था, जिससे केवल बेटे ही पैदा होते थे।
और उन्हें उस ज़हर में डूबता हुआ उनकी पुत्रवधु का शव और अपनी गोद में खेलता पोते का अर्धविकसित मस्तिष्क भी दिखाई देने लगा।