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रविवार, 18 अगस्त 2019

"लघुकथा कलश" के "रचना-प्रक्रिया महाविशेषांक" का विमोचन

श्री योगराज प्रभाकर Yograj Prabhakar की फेसबुक वॉल से 


"लघुकथा कलश" के "रचना-प्रक्रिया महाविशेषांक" का विमोचन आज दिनांक 18 अगस्त 2019 को ओमप्रकाश ग्रेवाल विद्या संस्थान, कुरुक्षेत्र (हरियाणा) के तत्त्वावधान में सर्वश्री रामकुमार आत्रेय, डॉ० अशोक भाटिया, डॉ० राधेश्याम भारतीय, डॉ० अमृतलाल मदान, बलराज सिंह मेहरोत डॉ० ओमप्रकाश करुणेश, रवि प्रभाकर व डॉ० ऊषा लाल के कर कमलों से संपन्न हुआ. इस कार्यक्रम में अन्य लोगों के साथ-साथ उदीयमान लघुकथाकार सतविंद्र राणा, पंकज शर्मा, कुणाल शर्मा, सुश्री अंजलि गुप्ता व मधु गोयल भी शामिल थे.






गुरुवार, 15 अगस्त 2019

लघुकथा: ना-लायक

देश के स्वतंत्रता दिवस पर, उसे स्कूल के बाहर से ही झंडा लहराता हुआ दिखाई दे रहा था, परन्तु उसका हृदय झंडे से भी तेज़ लहरा रहा था, मानो मिट्टी की सुगंध लिये हवा झंडे को छूते हुए उसकी कार के अंदर तक पहुँच रही थी। उसकी पत्नी के कल ही कहे के शब्द उसके कानों में गूंज रहे थे जब वह चिल्लाते हुए घर में घुसी थी,
"सुनते हो, गुप्ता जी की बेटी दौड़ में अव्वल आई है और एक हमारी सीतू है, पास हो जाती है यही उसका एहसान है। आठवीं में है और बैठी ऐसे रहती है जैसे 50 साल की बुढ़िया हो। अब ऐसी मंदबुद्धि और नालायक बेटी से उम्मीद रखूँ भी तो क्या?"
वह सिर पकड़ कर बैठ गया था। चाहता तो वह भी था कि उसकी बेटी हर क्षेत्र में आगे बढे और अपनी बेटी के विकास के लिए जब वह घर पर होती तो उसने अच्छा संगीत और देश-प्रेम के गीत बजाना भी प्रारम्भ किया था, लेकिन उसकी पत्नी ही यह कहकर रोक देती कि, "पढाई तो करती ही नहीं, फिर इसमें क्या करेगी, यह सबसे अलग ही है?"
बारिश के कारण स्कूल के बाहर कीचड़ जमा हो गयी थी, जिसमें देश के छोटे-छोटे झंडे गिरे पड़े थे । अगले ही क्षण उसकी आँखों से आंसू निकल आये, जब उसने देखा कि बाकी सारे बच्चे तो पानी से बचते हुए निकल रहे थे, लेकिन उसकी नालायक बेटी अकेली उस कीचड़ में गंदे होने की परवाह किये बिना अपने हाथ डाल कर झंडे बाहर निकाल रही थी।
और उसके मुंह से निकल गया, "सच में सबसे अलग..."

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी, 

अशोक शर्मा भारती की हिन्दी लघुकथा “पन्द्रह अगस्त” का नेपाली अनुवाद अनुवादकर्ताः एकदेव अधिकारी

स्वतन्त्रता
“साहुजी, सुखिया पन्ध्र दिनदेखि ओछ्यानमा थला परेको छ ।” कामदारहरूले जमिन्दारसँग भने ।
जमिन्दार रिसले चुर भएर कुर्लिन थाल्यो, “सुखिया त बिरामी छ ... त्यसको छाउरो त बिरामी छैन होला नि ... जाओ ... त्यो छाउरोलाई ल्याएर उसको बाउको सट्टा खेतको काममा जोतिदेओ ।”
सुखियाको छोरो हरियालाई कामदारहरूले जमिन्दारको आदेश सुनाए । रिसले नाकको पोरा फुलाएर कामदारहरूलाई हेर्दै हरिया चिच्यायो, “के रे ?” उसको आँखा सल्केका गोल झैँ राता थिए ।
“तेरो बाउको सट्टामा ...।” कामदारहरूले भने ।
“किन ...?” हरियाका आँखाबाट मानौँ आगोको ज्वाला निस्कँदै थियो ।
“किनकि तेरो बाउ जमिन्दारको घरको कमारो हो...।” कामदारहरूले उसलाई खाउँला झैँ गरेर हेर्न थाले ।
“जाओ..., गएर तिमीहरूको जमिन्दारसँग भनिदेऊ कि उसको कमारो सुखिया हो... हरिया होइन... अनि कहिल्यै हुँदैन पनि ।” हरिया हातको लाठी उचाल्दै गर्जियो । उसका पाखुराका मांशपेशी सलबलाउन थाले ।
गाँउलेहरु एकत्रित भइसकेका थिए।

लघुकथा का हिन्दी पाठ

पन्द्रह अगस्त

“सुखिया पन्द्रह दिनों से बिस्तर पर पड़ा हुआ है मालिकI” कारिंदों ने ज़मींदार से कहाI
ज़मींदार गुस्से से उबलने लगा, “सुखिया बीमार है... उसका लौंडा तो नहीं... जाओ... पकड़ लाओ ससुरे को और जोत दो उसके बाप की जगह खेत मेंI” 
सुखिया के लड़के हरिया को जब कारिंदों ने ज़मींदार का आदेश सुनाया तो वह दहाड़ उठा, 
“क्यों...? खून उसकी आँखों में उतर आयाI 
“तुम्हारे बाप की जगह...I” कारिंदों ने कहाI
“किसलिए...?” हरिया की आँखें अंगारे बरसाने लगींI
“इसलिए कि तुम्हारा बाप ज़मींदार के यहाँ बंधुआ है...I” कारिंदों ने उसे खा जाने वाली निगाहों से देखाI
“जाओ.., जाकर कह देना तुम्हारे ज़मींदार से, उसका बंधुआ सुखिया है... हरिया नहीं... और न कभी होगाI” हरिया लाठी सँभालते हुए गरजने लगाI उसके बाज़ू फड़कने लगेI
गाँव इकठ्ठा हो चुका थाI

सोमवार, 12 अगस्त 2019

लघुकथा समाचार : बुनावट व घनीभूत कसाव की वजह से नई पीढ़ी में लोकप्रिय हो रही लघुकथा

सिटी रिपाेर्टर | पटना सिटी | दैनिक भास्कर 

कथाकार व उपन्यासकार डाॅ. संतोष दीक्षित का मानना है कि लघुकथा एक ऐसी विधा है, जो अत्यधिक संतुलन और सजगता की मांग करती है। एक अच्छी लघुकथा लिखना आसान काम नहीं है। सबसे बड़ी समस्या विषय के चयन की होती है। वे रविवार को बिहार हितैषी पुस्तकालय सभागार में अखिल भारतीय प्रगतिशील लघुकथा मंच व स्वरांजलि की ओर से आयोजित वार्षिक पत्रिका संरचना के 11वंे अंक के लोकार्पण के दौरान संबोधित कर रहे थे। 

पत्रिका के अंक का लोकार्पण दूरदर्शन पटना के कार्यक्रम प्रमुख डाॅ. राजकुमार नाहर, डाॅ. संतोष दीक्षित, लघुकथा मंच के अध्यक्ष डाॅ. सतीश राज पुष्करण, डाॅ. भोला पासवान, डाॅ. अनीता राकेश, डाॅ. ध्रुव कुमार ने किया। डाॅ. ध्रुव कुमार ने कहा कि लघुकथा बुनावट व घनीभूत कसाव की वजह से नई पीढ़ी में लोकप्रिय हो रही है। संचालन संयोजक अनिल रश्मि व धन्यवाद ज्ञापन आलोक चोपड़ा ने किया। संरचना में प्रकाशित एक दर्जन से अधिक लघुकथाओं का पाठ भी हुआ। मौके पर विभा रानी श्रीवास्तव, वीरेंद्र भारद्वाज, पुष्पा जमुआर, प्रभात धवन, विवेक कुमार, संजय कुमार, ज्योति मिश्र, रानी कुमारी आदि ने विचार रखे। पुस्तक में बिहार से जुड़े दर्जनों लघु कथाकारों की रचनाएं प्रकाशित हुई हैं। 

Source:
https://www.bhaskar.com/bihar/patna/news/short-story-becoming-popular-in-new-generation-due-to-texture-and-condensation-tightness-094005-5227095.html

शुक्रवार, 2 अगस्त 2019

ब्लॉगर ऑफ द ईयर 2019 सम्मान - "लघुकथा दुनिया" को



लघुकथा प्रेमियों को बहुत-बहुत बधाई।

इस वर्ष 2019 का ब्लॉगर ऑफ द ईयर सम्मान - लघुकथाओं को समर्पित ब्लॉग "लघुकथा दुनिया" को मिला है।



गुरुवार, 25 जुलाई 2019

अविराम साहित्यिकी के पांच अंकों के लिए रचनाएं.....

श्री उमेश मदहोशी Umesh Mahadoshi की फेसबुक वॉल से 

अविराम साहित्यिकी के आगामी पांच (अक्टूबर _ दिसंबर 2019 व 2020 के सभी चार) अंकों के लिए सामग्री का चयन अपरिहार्य कारणों से नवंबर 2019 से पूर्व किया जाना है। यद्यपि अंकों का प्रकाशन निर्धारित समय पर ही होगा। अत: सभी सहयोगी मित्रो एवम् पत्रिका के सदस्यों से अनुरोध है कि अपनी रचनाएं (कविता, क्षणिका, हाइकु, लघुकथा, कहानी, आलेख आदि) ईमेल (aviramsahityaki@gmail.com) के माध्यम से (मेल बॉक्स में पेस्ट करके या वर्ड की फाइल में) यथाशीघ्र भेजकर सहयोग करें। हार्ड कॉपी या स्कैन प्रति के रूप में रचनाओं का उपयोग न कर पाने के लिए क्षमा प्रार्थी है। 15अक्टूबर 2019 के बाद अन्य योजनाओं (2021 में लघुकथा स्वर्ण जयंती वर्ष मनाने के परिप्रेक्ष्य में) के दृष्टिगत सामान्य सामग्री स्वीकार करना संभव नहीं होगा।

अविराम साहित्यिकी पूर्णत: अव्यवसायिक लघु पत्रिका है। किसी रचनाकार को किसी भी रूप में पारिश्रमिक देना संभव नहीं है। इसके लिए क्षमा करें।

कृपया सहयोग करें। लघुकथा के विभिन्न महत्वपूर्ण पक्षों को रेखांकित करती लघुकथाएं कुछ योजनाओं में संदर्भित भी की जा सकती हैं।

शनिवार, 13 जुलाई 2019

लघुकथा 'दंगे की जड़' पर रजनीश दीक्षित जी की समीक्षा

रजनीश दीक्षित जी की समीक्षा
लघुकथा - दंगे की जड़
लेखक: चंद्रेश_छतलानी_जी
शब्द_संख्या - 236

मैंने बचपन में एक बड़ी ताई जी के बारे में सुना था कि उनको अक्सर लोगों से झगड़ने की आदत थी। लोगों से किस बात पर झगड़ा करना है, उनके लिए कारण ढूंढना कोई बड़ी बात नहीं थी। एक बार की बात है कि कुछ लड़के गली में गुल्ली-डंडा खेल रहे थे। अचानक एक लड़के ने गुल्ली को बहुत दूर तक पहुंचा दिया। बस ताई जी ने लड़कों को आड़े हांथों ले लिया। बोलीं, "खेलना बंद करो"। जब लड़कों ने कारण पूछा तो बोलीं, "अगर मेरी बेटी आज ससुराल से घर आ रही होती तो उसको चोट लग सकती थी।" बेचारे लड़के अपना सिर खुजलाते अपने घरों की ओर चले गए। लड़कों को पता था कि यदि बहस में पड़े तो दंगे जैसे हालात हो सकते हैं।
...आज हमारे देश में ऐसी ताइयों की कमी थोड़े ही है। इस स्वभाव के लोगों को राजनीति में स्वर्णिम अवसर भी प्राप्त हो रहे हैं। आखिर इसी की तो कमाई खा रहे हैं लोग। सुना है अंग्रेजों ने हमारा देश 1947 में छोड़ दिया था लेकिन अफसोस तो इस बात का है कि जाते-जाते वे हमें "फूट डालो और राज करो" का मंत्र सिखा कर गए। इसका अनुसरण करने में फ़ायदे ही फायदे जो हैं। इसके लिए नेताओं को कुछ खास करना भी नहीं है। पांच साल सत्ता का सुख भोगिये और चुनाव से पहले धर्म-जाति के नाम पर शिगूफे छोड़िए, बहुत संभावना है कि अगली सरकार आपकी ही बने। हाँ, यह उनकी दक्षता पर निर्भर करता है कि किसने कितनी बेशर्मी से इस मंत्र का प्रयोग किया। 'जीता वही सिकंदर' वाली बात तो सही है लेकिन जो हार गए वह भी कोई दूध के धुले नहीं हैं। उन्होंने भी आजकल बगुला भगत वाला चोला पहना हुआ है।
मैंने एक पंडित जी के बारे में सुना है कि वे बड़े ही धार्मिक और पाक साफ व्यक्ति हैं। वह केवल बुधवार को ही मांस-मछली खाते हैं, बाकी सब दिन प्याज भी नहीं। लेकिन बुधवार को भी इस बात का पूरा ध्यान रखते हैं कि जब मांस-मछली का सेवन करते हैं तो जनेऊ को उतार देते हैं और बाद में अच्छी तरह से हाथ धोने के बाद ही जनेऊ पहनते हैं। इन्हें संभवतः अपने धर्म की अच्छाईयों के बारे में न भी पता हो लेकिन दूसरे धर्मों में क्या बुराइयां हैं, इन्हें सब पता है। यह हाल केवल या किसी एक धर्म के तथाकथित ठेकेदारों के नहीं हैं। कमोवेश यही हाल सब जगह है। इस तरह के पाखंडियों का क्या कहिये? आश्चर्य की बात तो यह है कि ऐसे पाखंडी लोगों के बड़े-बड़े आश्रम हैं, मठ हैं, इज्जत है, पैसा है और भक्तों की बड़ी भीड़ भी है। अब ऐसे ही चरित्र वालों को जगह मिल गयी है राजनीति में। वर्तमान समय में राजनीति में धर्म है या धर्म में राजनीति, यह पता लगाना बहुत ही मुश्किल है क्योंकि इनका गठजोड़ रसगुल्ले और चाशनी जैसा हो गया है। खैर...
यह बात किसी के भी गले नहीं उतरेगी कि आखिर रावण के पुतले को आग लगाने वाला सिर्फ आतंकवादी इसलिए करार दिया गया क्योंकि वह किसी और धर्म का है। सुना है कि आतंकी का कोई धर्म नहीं होता तो फिर बुराई खत्म करने वाले का धर्म कैसे निश्चित हो गया। और वैसे भी जब रावण बुराई का प्रतीक है तो फिर उसका धर्म कैसे निश्चित हो गया? और इस तर्ज पर यह जरूरी क्यों है कि आप उसे किसी धर्म का माने? और जो बुरा व्यक्ति जब आपके धर्म का है ही नहीं तो फिर उसे किस धर्म के व्यक्ति ने मारा? इस प्रश्न का औचित्य ही क्या रह जाता है? लेकिन नहीं, साहब। ये तो ठहरे राजनेता। इन्हें तो मसले बनाने ही बनाने हैं। कैसे भी हो, इनके मतलब सिद्ध होने चाहिए।
वैसे भी आजकल रावण दहन के प्रतीकात्मक प्रदर्शनों का कोई महत्व नहीं रह गया है उल्टे अनजाने ही सही वायु प्रदूषण का कारण बनता है सो अलग। क्योंकि जिनके करकमलों द्वारा इस कार्य को अंजाम दिया जाता है, उनके अंदर कई गुना बड़ा रावण (अपवादों को छोड़कर) दबा पड़ा है। रावण का चरित्र तो कम से कम ऐसा था कि उसने सीता को हरण करने के बाद भी कभी भी जबरन कोई गलत आचरण नहीं किया और वह इस आस में था कि एकदिन वह उसे स्वीकार करेंगी लेकिन क्या आजकल के धर्म या राजनीति के ठेकेदारों से ऐसी कोई उम्मीद की जा सकती है? शायद नहीं।
....तो फिर क्या आपत्ति है? और यह जानने की भी आवश्यकता क्या है कि रावण को किसने जलाया? क्या यह काफी नहीं है कि रावण जला दिया गया? यह जरूर काफी होगा उस सामान्य जनमानस के लिए जिसे बुराईयों से असल में नफरत है। लेकिन ये ठहरे नेता। इन्हें तो मजा ही तबतक नहीं आता जबतक समाज में जाति-धर्म के नाम पर तड़का न लगे। आदमी की खुशबू आयी नहीं कि सियार रोने लगे जंगल में, टपकने लगी लार। माना कि पुलिस ने उस तथाकथित आतंकवादी को पकड़ भी लिया है तो यह तो पुलिसकर्मियों की जिम्मेदारी है कि वे अपनी तरफ से तफ्तीश करें और जो कानूनन ठीक हो, उसके हिसाब से सजा मिले। लेकिन....फिर वही। यही तो राजनीति का चारा है। इतिहास गवाह है कि कितने ही अनावश्यक दंगे इन राजनैतिक दलों ने अपने लाभ के लिए कराए हैं। लेकिन...इनका अपना जमीर इनका खुद ही साथ नहीं देता है। ये तो अपने खुद के कर्मो से अंदर ही अंदर इतने भयभीत हैं कि इनकी इतनी भी हिम्मत नहीं है कि ये किसी पाक-साफ आदमी से नजर मिलाकर बात भी कर सकें। आखिर साधारण और सरल आदमी को मंदबुद्धि भी इसीलिए कहा जाता है क्योंकि उसके अंदर छल और प्रपंच नहीं होता। लेकिन बुराई को पहचानना किसी स्कूल में नहीं सिखाया जाता। उसके लिए हमारा समाज ही बहुत है। तभी तो उस मंदबुद्धि के बालक ने बुराई के प्रतीक रावण के पुतले को जला डाला था। जब वह मंदबुद्धि ही था तो संभव है कि उसे अपने धर्म का भी न पता हो लेकिन अच्छाई और बुराई का ज्ञान किसी भी धर्म के व्यक्ति को हो ही जाता है। इसके लिए किसी खास बुद्धिमत्ता की आवश्यकता नहीं है। उसने रावण को जला डाला और छोड़ दिया अनुत्तरित प्रश्न, इस स्वीकरोक्ति के साथ कि "हाँ, मैंने ही जलाया है रावण को। क्या मैं, राम नहीं बन सकता?"
यह ऐसा यक्ष प्रश्न है कि अगर इसका उत्तर खोज लिया है तो "दंगे की जड़ों" का अपने आप ही सर्वनाश हो जाये।
मैं चंद्रेश छतलानी जी को पुनः एक अच्छी लघुकथा के लिए बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ।
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लघुकथा: दंगे की जड़ / डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

आखिर उस आतंकवादी को पकड़ ही लिया गया, जिसने दूसरे धर्म का होकर भी रावण दहन के दिन रावण को आग लगा दी थी। उस कृत्य के कुछ ही घंटो बाद पूरे शहर में दंगे भड़क उठे थे।

आतंकवादी के पकड़ा जाने का पता चलते ही पुलिस स्टेशन में कुछ राजनीतिक दलों के नेता अपने दल-बल सहित आ गये, एक कह रहा था कि उस आतंकवादी को हमारे हवाले करो, हम उसे जनता को सौंप कर सज़ा देंगे तो दूसरा उसे न्यायालय द्वारा कड़ी सजा देने पक्षधर था, वहीँ तीसरा उस आतंकवादी से बात करने को उत्सुक था।

शहर के दंगे ख़त्म होने की स्थिति में थे, लेकिन राजनीतिक दलों के यह रुख देखकर पुलिस ने फिर से दंगे फैलने के डर से न्यायालय द्वारा उस आतंकवादी को दूसरे शहर में भेजने का आदेश करवा दिया और उसके मुंह पर कपड़ा बाँध, छिपा कर बाहर निकालने का प्रयत्न कर ही रहे थे कि एक राजनीतिक दल के लोगों ने उन्हें पकड़ लिया।

उनका नेता भागता हुआ आया, और उस आतंकवादी से चिल्ला कर पूछा, "क्यों बे! रावण तूने ही जलाया था?" कहते हुए उसने उसके मुंह से कपड़ा हटा दिया।

कपड़ा हटते ही उसने देखा, लगभग बारह-तेरह वर्ष का एक लड़का उसके समक्ष था, जो चेहरे से ही मंदबुद्धि लग रहा था। वह लड़का आँखें और मुंह टेड़े कर अपने चेहरे के सामने हाथ की अंगुलियाँ घुमाते हुए हकलाते हुए बोला,
"हाँ...! मैनें जलाया है... रावन को, क्यों...क्या मैं... राम नहीं बन सकता?"
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