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बुधवार, 2 अक्तूबर 2019

समाज्ञा में आज गांधी जयंती पर मेरी एक लघुकथा




सत्याग्रह नहीं सत्यादेश / डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी 

सौलह-सत्रह वर्ष की एक लड़की दौड़ती हुई उस बाग़ में गांधी जी की प्रतिमा के पीछे जा छिपी। कुछ क्षणों तक हाँफने के बाद उसने गांधीजी प्रतिमा की तरफ देखा, लाठी के सहारे खड़े गांधीजी मुस्कुरा रहे थे। अपनी चुन्नी को सीधे करते हुए उसने उसी से अपने चेहरे को ढका और मन ही मन बुदबुदाई, "गांधीजी, पूरे देश को बचाया... आज मुझे भी बचा लो।"

उसका बुदबुदाना था कि गांधीजी की प्रतिमा में जैसे प्राण आ गए और वह प्रतिमा बोली, 
"क्या हुआ बेटी?"

आवाज़ सुनते ही वह घबरा गयी, उसने चारों तरफ नजरें दौड़ाई और देखा कि उस प्रतिमा के होंठ हिल रहे थे, वह आश्चर्यचकित हो उठी, उसी स्थिति में उसने कहा, "कुछ दरिन्दे मेरी इज्ज़त..."

वह आगे नहीं कह पाई, फिर प्रतिमा ने पूछा "कहाँ रहती हो?
"यहीं पास में।" 

"कौन-कौन है घर में?"
"पिताजी, भाई, माँ और मैं।"

"घर से बाहर कितना निकलती हो?"
"बहुत कम, आज महीनों बाद अकेली निकली थी और ये..."

"घर में क्या करती हो?"
"खाना बनाना, सफाई करना, पानी भरना..."

"कुछ खेलती हो?"
"घर के कामों से समय ही नहीं मिलता।"

"क्या तुम से और तुम्हारे भाई से अलग-अलग व्यवहार होता है?"
"वो तो लड़का है इसलिए..."

"कभी मार पड़ती है?"
"बहुत बार, जनम होने से पहले से... मुझे मारना चाहा था... लेकिन बच गयी।" 

"कभी विरोध किया?"
"नहीं..."

"अहिंसात्मक विरोध करो बेटी, कितनी पढ़ी हो?” प्रतिमा के होंठ मुस्कुरा रहे थे।
"आठवीं तक, फिर घरवालों ने नहीं भेजा... अब घर पर ही थोड़ा-बहुत..." 

यह सुनते ही गांधीजी की प्रतिमा के होंठ भींच गए और उसने अपनी लाठी लड़की की तरफ बढ़ा कर कहा,
“इसे लो... पहले पढ़ो... तुम्हें गांधी की नहीं लाठी की ज़रूरत है।"
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विजय 'विभोर' की एक लघुकथा : पसंद अपनी अपनी

पसंद अपनी अपनी / 
विजय 'विभोर'

"अरे मैं अभी अख़बार पढ़ रहा हूँ, तुम्हारी कोई बात नहीं सुन सकता।" अख़बार में फिल्मी कौना पढ़ रहे पतिदेव ने कहा, तो पत्नी रसोई का काम छोड़कर वहीं कमरे में आ गयी।
"क्या इम्पोर्टेन्ट है देखूँ तो सही, जो मेरी बात भी नहीं सुन सकते।"
"मेरी फेवरेट हीरोइन का इंटरव्यू है उसकी आकर्षक फोटो सहित।" पति ने अख़बार में ही नज़रें गड़ाए हुए उत्सुकता पूर्वक कहा।
"मैं भी देखूँ तो सही...." कहते हुए पत्नी ने अख़बार में सेंध मारी। "....अरे वाह, आज तो मेरे भी फेवरेट हीरो का सिक्स पैक्स वाला फोटो छपा है।"
जैसे ही पति के कानों में पत्नी के ये शब्द घुसे पति के दाएँ हाथ में कंपन हुई पत्नी के बाएं गाल पर आवाज़ आयी और अंधेरा-सा छा गया।

मंगलवार, 1 अक्तूबर 2019

पूनम झा की लघुकथा - कमली



कमली / पूनम झा 

"आईये, आईये डाक्टर साहब ।" ठाकुर जी ये कहते हुए उन्हें शयनकक्ष में ले गए जहाँ उनकी पत्नी सुनयना बिस्तर पर लेटी हुई थीं । 
सुनयना रात से ही बुखार से तप रही थी । कमजोरी से खड़ी भी नहीं हो पा रही थी इसीलिए डाक्टर साहब को घर पर ही बुलाया गया है ।
बिस्तर के बगल में कुर्सी पर बैठकर डाक्टर साहब सुनयना की जांच करने लगे । 

"आपको ठंड भी लगती है ?"

"हाँ डाक्टर साहब बहुत ठंड लगती है ।"

तभी डोर बेल बजी । शांता ( कामवाली ) जो वहीं खड़ी थी, घंटी की आवाज सुनकर दरवाजे की तरफ जाने लगी तो सुनयना ने कहा कि "अरे वो कमली आयी होगी । पीछे वाला गेट खोल देना । आंगन की नाली की सफाई करेगी ।"

शांता चली गयी, लेकिन तभी शांता की आवाज आयी "अरे रेsss...........तुम इधर अंदर क्यों जा रही हो ss...........?"

"वो डाक्टर आयल है न ?"

"हाँ  तो ?"

"कोई बीमार हो गईल का ?"

"हाँ ! मेमसाब बीमार हैं ।"

"ओहो ......"

"तुम पीछे चलो । मैं पीछे का गेट खोलती हूँ । नाली साफ करना है ।" शांता उसे अंदर आगे बढने से रोकते हुए बोली ।

"जाई ही ऊ तनी डाक्टर से कुछ कहे के हई । ऊ हमर भतीजा हई न ।"

सुनयना के कानों में सारी बातें साफ-साफ सुनाई दे रही थी ।
उसे याद है जब भी कमली को कुछ देती है तो ऊपर से उसके हाथ पर ऐसे रखती है जिससे स्पर्श नहीं हो या नीचे रख देती है जो उसे वह स्वयं उठा ले ।

इधर डाक्टर साहब उसका नब्ज देख रहे थे कि बुखार है या नहीं ।

सुनयना ने ठाकुर जी को इशारा किया कि कमली को अंदर बुला लें ।

कमली कमरे में आते ही "मेमसाब का होई गवा ?" और डाक्टर की तरफ देखते ही "बबुआ ! बढ़िया दवाई दे द हमार मेमसाब जल्दी से ठीक हो जाई ।"

"हाँ बूआ ! जरूर । बहुत जल्दी ठीक हो जाएंगी  ।"  मुस्कुराते हुए डाक्टर साहब ने कहा ।

"हम तोहार गाड़ी से पहिचान गईली , जे बाबुआ हिंया आयल हई । केतना दिन हो गईली तूं घरे काहे नहीं अयली ?" डाक्टर ( भतीजा ) से मीठी मीठी शिकायत करती हुई कमली बोली ।

सुनयना शांता से "शांता जाओ सबके लिए चाय बनाकर ले आओ " और कमली की तरफ देखते हुए "बैठ जा कमली तू भी चाय पी ले ।"

--
पूनम झा 
कोटा राजस्थान 
मोबाइल वाट्सएप  9414875654
Email: poonamjha14869@gmail.com 

रविवार, 29 सितंबर 2019

शेख़ शहज़ाद उस्मानी की चंद्रमा और चंद्रयान-2 पर आधारित चार लघुकथाएं

ह़मले और जुमले (लघुकथा)/शेख़ शहज़ाद उस्मानी

चन्द्रमा के एक विशेष क्षेत्र में आकस्मिक सभा जैसा कुछ गोपनीय आयोजन हो रहा था। चंद्रवासियों की किसी सांकेतिक भाषा में लूनर स्ट्राइक या स्ट्रेटजीज़ जैसा विमर्श चल रहा था।

"हम उनको क़ामयाब नहीं होने देंगे! जिनको हमारी बदौलत मुहब्बत के अलंकार मिले, ले-देकर जिनकी रातें हमारे चाँद ने  रौशन कीं चांदनी से, वे ही हमारी ज़मीन पर ही सेंधमारी कर रहे हैं !" चंद्रवासी एलियन नंबर एक ने सभा में अपनी बात रखी।

"वे अब हम में मुहब्बत नहीं, नफ़रत भर रहे हैं.. नफ़रत! क्यों भाई गृहप्रवेश दक्षिण दिशा से करना चाहिए या किसी और से? .. क्या कहता है पृथ्वीवासियों का वास्तुशास्त्र? ... ख़ुद तो अपने धर्मों, धर्मग्रंथों और संस्कृति-संस्कारों को भूलकर अपनी तथाकथित विज्ञान से भरे हुए हैं और अब हम पर थोपने की कोशिश कर रहे हैं!" दूसरे एलियन ने अपना व्यंग्यपूर्ण रोष ज़ाहिर किया।

तभी वरिष्ठ एलियन ने वहाँ की सतह पर ऊपर-नीचे झूलते हुए कहा, "हमारी आध्यात्मिक ताक़त के आगे उनकी वैज्ञानिक ताक़त नहीं चलेगी भाई!  हमने उन मानवों की तरह न तो सर्वशक्तिमान ईश्वर की कोई अवज्ञा की है और न ही उसका उपहास कर उसे कोई चुनौती दी है!"

"इसी वज़ह से तो जन्नत सा सुख भोग रहे हैं! उस पालनहार माफ़िक़ हम भी अदृश्य हैं! न भूख-प्यास की झंझट और न तथाकथित ऑक्सीजन और जल की!" तीसरे एलियन ने चंद्रमा के बदलते गुरुत्व में हल्के-हल्के गोतों का लुत्फ़ उठाते हुए कहा।

"अहंकारी पृथ्वीवासियों के ढेरों यंत्र हमारे संरक्षक ज़ोन में चक्कर पर चक्कर लगा रहे हैं! प्यार-मुहब्बत, दया-करुणा और स्वच्छता की बातें करने वाले हमारे यहां घृणा तुल्य प्रदूषण फैला रहे हैं। उनकी हमारी ज़मीन पर नीयत ख़राब है!" एक और एलियन बोला।

"ये लोग अपनी मेहनत, खोज और आविष्कारों की दलीलें देकर हमारी ज़मीन पर अतिक्रमण करेंगे और फ़िर मालिकाना हक़ के मसलों पर यहाँ भी आपस में लड़ेंगे!"

"सही कहते हो भाई! पता नहीं क्या होगा? अपना हाल पृथ्वी के जम्मू-कश्मीर जैसा होगा, सीरिया-फिलिस्तीन-इज़राइल जैसा या हिरोशिमा-नागासाकी जैसा!" दो एलियन विमर्श में एक-दूसरे से मुख़ातिब हुए।

 वरिष्ठ एलियन ने कहा,  "वे कितनी भी कोशिशें कर लें हमारा पालनहार  हमारे साथ है, ब्रह्मांड के साथी ग्रह-उपग्रह और सौर-मण्डल सब हमारे साथ हैं! बस, सब्र से सब देखते जाओ! उनकी तथाकथित लाँचिंग-वाँचिंग, नेविगेशन और यान-वान सब धरे के धरे रह जायेंगे!"

" ... तो सर, आपका संकेत धरती पर भेजे जाने वाले एस्ट्रोयेड-स्ट्राइक मिशन की ओर है! .. कब तक बचेंगे पृथ्वी वाले। उनको नहीं मालूम कि उनसे भी  बुद्धिमान व शक्तिशाली और भी हैं ब्रह्मांड में! पृथ्वी के साथ मानवों का भी  वजूद जल्द ही समाप्त होगा!" एक अन्य वरिष्ठ एलियन ने भरोसा दिलाया।

" ... लेकिन सर... मैं कुछ और ही चाह रहा हूँ!" एक युवा एलियन उन सब के चारों ओर चक्कर लगाता हुआ बोला, "पृथ्वीवासियों ने हमारे चंद्रमा को बहुत मान दिया है उनके धर्मों और साहित्य-विधाओं में! हमें भी उनकी मुसीबतों को समझ कर उनकी जिज्ञासाओं का आदर करना चाहिए। नफ़रत से काम नहीं चलेगा! .. आने दीजिए उनको हमारी ज़मीन पर! उनकी मंगलकामनाएं पूरी होने दीजिए। यहाँ से मंगल तक जाने दीजिए।"


"सही बात है! यही वक़्त का तक़ाज़ा भी है कि जितने भी सौर-मण्डल, ग्रह-उपग्रह हैं उन सबके रहवासियों के बीच सामंजस्य, प्रेम, दया-करुणा व गुरुत्व आदि ईश्वर की मर्ज़ी मुताबिक़ बना रहे, तो ही बेहतर होगा!" उसके दूसरे युवा साथी ने कहा।

'तथास्तु! ..आमीन!" कुछ ऐसा उन्होंने आपस में सांकेतिक भाषा में कहा और सभा विसर्जित हो गई।

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मेरा सूर्ययान/शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"मम्मी-पापा, दादा-दादी और नाना-नानी सब मुझे अपना चाँद कहते हैं!... और स्कूल में टीचर कहतीं हैं कि एक दिन सूरज की तरह चमकोगे!" नूर का बाल-मन स्वयं के द्वारा दीवार पर चॉक से बनाये गए अपने सूरज की ओर देखकर सोच रहा था। सूरज के गोले के चारों ओर आठ किरणें खींच कर वह रुक गया और  चाँद  और चंद्रयान-2 के समाचारों पर मम्मी-पापा और टीचर जी  से सुनी हुई  बातें सोचने लगा।

"विज्ञान वाली मैडम कह रहीं थीं कि चन्द्रमा पर पानी और जीवन की तलाश की जा रही है! ... सूरज की रौशनी से ही चाँद रात को चमकता दिखता है!" वह फ़िर जानकारियों के जाल में उलझ गया, "चंद्रमा पर गड्ढे हैं! फ़िर मुझे चन्दा क्यों कहते हैं सब के सब? ... मेरा सूरज कौन है? ... लोग सूर्ययान क्यों नहीं भेजते आसमान में?"

उसने चॉक उठाई और स्टूल पर चढ़कर सूर्य के निचले हिस्से में हवाई जहाज़ का आकार बनाने लगा और फ़िर मम्मी को बुलाकर उनसे बोला, "ये है मेरा सूर्ययान! सूरज से सारी रौशनी हमें भेजेगा! ... अंधेरा कभी नहीं रहेगा! ... मैं सूरज सा चमक जाऊंगा न!"

माँ अपने नन्हें जिज्ञासु बेटे के सवालिया व जोशीले चेहरे को देखकर बोली, "हाँ बेटू! तुम अच्छे इंसान बनोगे; अच्छी पढ़ाई-लिखाई करोगे, तो ख़ुदा तुम पर नूर ही नूर बरसायेगा न! सूर्ययान मतलब ज्ञान-विज्ञान!"
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लघुकथा-युग्म ( दो दृश्य : दो लघुकथाएं) / शेख़ शहज़ाद उस्मानी
पहला दृश्य  : संज्ञान

वह नन्हा बच्चा चॉक से दीवार पर सूरज का रेखाचित्र बना कर स्टूल पर बैठा उसे निहार कर सोच रहा था, "मैं नहीं बदलवाऊंगा अपना नाम। 'सूरज' ही बढ़िया है। सबको रौशनी देता है; टीचर बता रही थीं कि चाँद को भी!"

फ़िर उसने दूसरी तरफ़ चंदा मामा बनाने की सोची; लेकिन अख़बार में छपी चंद्रयान की तस्वीर याद आ गई। ठीक तभी उसे मम्मी-पापा की बातें याद आ गईं।

"नहीं! मैं अपना नाम 'विक्रम' या 'प्रज्ञान' नहीं रखवाऊंगा। वे तो मशीनों के नाम हैं! 'सूरज' ही बढ़िया है! नहीं बदलवाऊंगा! टीचर अपनी फ़्रैंड को बता रहीं थीं कि ये दोनों भटक गये या अटक गए कहीं!"

फ़िर उसने स्टूल पर खड़े होकर सूरज के बगल में भारत का नक्शा बनाने की कोशिश की; जैसा भी बन पाया, उसके ऊपर छोटा सा तिरंगा झंडा उसने बना दिया।

"टीचर कह रहीं थीं कि हमारा देश दुनिया में चमक रहा है! ... सूरज ही चमका रहा होगा न इसे! मेरा नाम कितना अच्छा है! सूरज हूँ मैं!" अपने बनाये दोनों रेखाचित्रों को देखता मुस्कराता हुआ वह स्टूल पर बैठ गया।
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दूसरा दृश्य : सार्थक नाम

"सुनो जी, अब मैंने अपना इरादा बदल लिया है। सूरज का नाम बदलवाने अब उसके स्कूल नहीं जायेंगे!"

"क्यों? इतने दिनों से तो पीछे पड़ीं थीं अपने बेटे का नाम नये ज़माने के नये ट्रेंडी नाम 'विक्रम' या 'प्रज्ञान' रखवाने वास्ते!"

"सुना तो है न तुमने भी चंद्रयान के हिस्सों के बारे में  कि दोनों भटक गए चाँद पर उतरने से पहले ही! 'लैंडर' और 'रोवर' दोनों को पता नहीं कौन से  'रोबर्स' कहीं हाँक ले गये या फ़िर भटक गए या अटक गए कहीं!"

"तुम औरतों को तो बस ऐसी ही बातें सूझती हैं! चंद्रयान मिशन अपनी जगह है! अपनी संतान के लिए अपना मिशन अपनी जगह! सूरज अपने नाम को सार्थक क्यों नहीं कर सकता?"
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शेख़ शहज़ाद उस्मानी
(शिक्षक, रेडियो अनाउंसर, लेखक)
पुत्र: श्री शेख़ रहमतुल्लाह उस्मानी
संतुष्टि अपार्टमेंट्स,
विंग - बी-2 (टॉप फ़्लोर पेंटहाउस)
ग्वालियर बाइपास ए.बी. रोड,
शिवपुरी (मध्यप्रदेश)
473551
भारत
[ लैंडमार्क्स:  1- हैपिडेज़ स्कूल, 2- गणेशा ब्लेश्ड पब्लिक स्कूल]
[वाट्सएप नंबर - 9406589589, 07987465975
ई-मेल पता: shahzad.usmani.writes@gmail.com

गुरुवार, 26 सितंबर 2019

ज्योत्सना सिंह की एक लघुकथा


उसकी रचना / ज्योत्सना सिंह 


सभा ने उसका स्वागत तालियों की गड़गड़ाहट से किया और फिर  पूरे सभागार में नीम सन्नाटा पसर गया सिर्फ़ उसे सुनने के लिए।
वह जब भी मंच पर होती तो श्रोता गण बड़ी बेताबी से उसकी बारी आने की प्रतीक्षा करते क्यूँ कि जब वह अपनी रचना लोगों के समक्ष रखती तब संपूर्ण उपस्थिति में भी सन्नाटा अपने पाँव जमा लेता।

उसकी रचना समाज के हर उस पहलू को बे-नक़ाब करती जो त्रासदी,व्यभिचार लालच और नफ़रत से भरी हुई होती।

और लोग उसे साँस रोक कर सुनते शायद वह श्रोता के अंदर छुपे उस इंसान को खरोंच देती जिसे सबने ख़ुद से भी बहुत दूर कर रखा है।
लोग उसे सुनते दाद देते तालियों फूलों से उसका सम्मान बढ़ाते हुए आगे बढ़ जाते और फिर समाज ही उसे एक और तड़पता मौक़ा दे देता ऐसी ही किसी नंगी सच्चाई रचने के लिए और हम बन जाते हैं ऐसे आहत भावों का हिस्सा कभी सहते हुए तो कभी करते हुए।

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गुरुवार, 19 सितंबर 2019

पूनम सिंह की दो लघुकथाएं

1)

सोन चिरैया / पूनम सिंह

"मास्टर जी आज से सोन चिरैया हमारे साथ ही पढ़ेगी" मीरा ने सोन चिरैया का हाथ पकड़े कक्षा में प्रवेश करते  ही मास्टर जी को कहा..। मास्टर जी ने आश्चर्य भरी नजरों से अपने चश्मे के भीतर से झाकते हुए  बोले..  "अरे.. ये यहाँ नहीं पढ़ सकती और तुम इसका हाथ  काहे  पकड़ी हो.. छोड़ो..।"  मास्टर जी ने थोड़ा झल्लाते हुए कहा ..। "यह तो भिखुआ की बेटी है ना इसका बाप तुम्हारे यहाँ मजूरी करता है।" "हाँ मास्टर जी वही है और आज से ये भी यही पढ़ेगी, वो इसलिए कि अगर भीखुआ के हाथ की मजदूरी का अन्न आप और मै खा सकते हैं, तो ये यहाँ पढ़ काहे नहीं सकती ??।"  मीरा ने अपनी बात पर जोर देते हुए कहा..।  मास्टर जी सोच में पड़ गए कि "आखिर इस मुसीबत से छुटकारा कैसे पाएँ ..। ..अगर हमने इस निम्न जाति की कन्या को स्थान दे दिया तो ऊपर में क्या जवाब देंगे ।"  तभी आगामी चुनाव के नेताओं का दल आ पहुँचा । मास्टर जी के पास बैठ  गुफ्तगू शुरू हो गई । उनके प्रस्थान के पश्चात दूसरा दल आया उसी तरह घंटों न जाने क्या  क्या बाते हुई !। ..बस इतना ही पता चला कि सोन चिरैया को स्कूल में दाखिला मिल गया ।

15 अगस्त का दिन था। स्कूल में सभी नेता अपने-अपने दल के साथ पहुँचे ।तभी उनमें से एक दल के नेता ने उठकर कहा.., "झँडा फहराने का समय हो गया है.. अब हम सबको स्टेज पर चलकर इस यादगार पल का हिस्सा बनना चाहिए ।" एक-एक करके सभी दल के मुख्य नेता ऊपर स्टेज पर पहुँचे । तभी उनमें से एक नेता ने सोन चिरैया को ऊपर स्टेज पर बुलाया और कहा.., "हमारे भावी देश के भविष्य सोन चिरैया झँडा फहराएगी .., " और बाकी दूसरे नेता की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा किए बिना ही उन्होंने उसे  झँडा फहराने का आदेश दे दिया। बाकी सब के सब आवाक होकर देखते ही रह गए।

मीरा ने भागकर सोन चिरैया का हाथ पकड़कर ऊपर हवा में लहराया और कहा "तुम्हारी जीत हुई सोन चिरैया ..।"
उधर नेताओं के बीच में काना फूसी शुरू हो गई । तभी मास्टर जी ने आकर एक नेता को बधाई देते हुए  कहा.. "बधाई हो नेता जी इस बार तो आपने चुनाव में जीत की मोहर लगा दी ।"
तभी दूसरे दल के कुछ नेता एक दूसरों को यही कहते हुए पाए गए कि.. " हमने तो पहले ही कहा था समझदारी से काम लीजिए,  हर बार पैसे से ही बात नहीं बनती..। देखिए इस बार भी फिर से उसी चरवाहा छाप ने चुनाव जीतने का ठप्पा लगा लिया। ऊपर से महिला आयोग से भी सजग रहने की आवश्यकता थी आपने देखा नहीं उस सोन चिरैया को ...?।"  "तो अब क्या करें.. कोई उपाय बताओ ..!" "अब क्या बताना..जब चिड़िया चुग गई खेत...!"


2)

मैं जुलाहा / पूनम सिंह

ठक... ठक... ठक.... ठक "अरे कौन है" इतनी सुबह सुबह झल्लाते हुए रामदास ने किवाड़ खोला । 
"मैं जुलाहा" अपने सामने एक मध्यम कद वाला व्यक्ति सफेद कुर्ता पायजामा पहने लंबी सफेद दाढ़ी, तथा एक कंधे पर एक बड़ा सा थैला और दूसरे हाथ मैं एक बड़ा सा चरखा लटकाए हुए शांत भाव ओढ़े खड़ा था।

"क्या बात है बाबा किस चीज की आवश्यकता है।"  सेठ रामदास ने पूछा "मैं जुलाहा हूं और अपने चरखे पर लोगों के पसंद के मुताबिक कपड़े बुनता हूं, आप भी बनवा लीजिए।" रामदास प्रत्युत्तर में कुछ कहने ही वाला था कि तभी रामदास की पत्नी शोभा वहां आ गई उसने बीच में ही टोकते हुए विनम्रता से पूछा "क्या चाहिए बाबा?" "बिटिया मैं जुलाहा हूं और लोगो के पसंद मुताबिक कपड़े बुनता हूं। आप भी बनवा लीजिए।" शोभा ने थोड़ा अचंभित शांत मुद्रा में पूछा,  "पर बाबा हम आपसे कपड़े क्यों बनवाएंगे?! ऐसी क्या खासियत है आपकी बुनाई में?!" जुलाहा बोला "मेरे बनाए हुए कपड़ों की सूत और रंगत की दूर दूर तक चर्चा है। एक बार अपने सेवा का मौका दीजिए, आपको निराश नहीं करूंगा।" जुलाहे ने विनम्रता से निवेदन किया शोभा मन ही मन में सोचने लगी आजकल के आधुनिक तकनीकी युग मे जब सुंदर अच्छे रंगत वाले परिधान कम दाम में मिल जाते हैं फिर भ..ला..।! जुलाहा शोभा के मन की बात समझ गया और उसने तुरंत ही कहा..! "चिंता ना करो बिटिया मैं बहुत सुंदर वस्त्र बनाउँगा कोई मोल भी ना लूंगा,. यह हमारा पुश्तैनी काम है और इस कला को सहेज कर रखना चाहता हूं। इसलिए घर घर घूमकर वस्त्र बनाता हूं। ज्यादा वक्त भी ना लगेगा अल्प समय में ही पूरा कर लूंगा।" शोभा कुछ बोल पाती की रामदास पीछे से बोला "अच्छा ठीक है शोभा.. बाबा के लिए दलान पर रहने की व्यवस्था करवा दो।" जुलाहे के मन को तसल्ली मिली शोभा ने तुरंत ही कुछ कारीगरों को बुलवाकर दलान पर एक छोटी सी छावनी बनवा दी और जुलाहे को विनय पूर्वक कार्य जल्दी समाप्त करने के लिए भी कह दिया। जुलाहा भी बहुत खुशी खुशी अदब से बोला "हाँ हाँ बिटिया तुम तनिक भी चिंता ना करो मैं जल्दी निपटा लूंगा।" 
जुलाहा अपने काम मे लग गया शोभा कुछ अंतराल में आकर बाबा से कुछ खाने पीने का भी आग्रह कर जाती। पर जुलाहा विनम्रता से मुस्कुराते हुए कहता "मेरे पास खाने का पूरा प्रबंध है बिटिया जब जरूरत होगी मैं स्वयं कह दूंगा।" जुलाहा शोभा के सरल आत्मीय व्यवहार को देखकर बड़ी प्रसन्नता होती और मन ही मन उसे ढेरों आशीर्वाद से नवाजता। शोभा का ४साल का बालक था जो दलान पर खेलने आता और  और जुलाहे के पास आकर पॉकेट से चॉकलेट निकाल अपने नन्हे हाथ आगे बढ़ा तोतली आवाज में पूछता "बाबा ताओगे..।" उसकी तोतली आवाज सुनकर जुलाहे का मन पुलकित हो उठता और उसकी ठोड़ी को पकड़ ठिठोली करते हुए कहता "नहीं राम लला आप खाओ हमे अभी भूख नहीं।, इतना पूछ कर राम लला खेलने में मस्त हो जाता। 
इसी तरह दो-तीन दिन बीत गए एक सुबह रामलला जुलाहे के पास आकर पूछता "बाबा मेले तपले बन गए तया..?! " " हां राम लला बन गए।" "दिथाओ..!" बालक बोला "हां हांअभी लो दिखाते हैं।" जुलाहे ने अपने थैले में से एक बड़ा ही सुंदर छोटा सा अचकन निकालकर बालक के हाथ में थमा दिया "यह देखो तुम्हारे लिए हमने सात रंगों वाली अचकन तैयार की है।" बालक अचकन देखते ही खुशी से उछल पड़ा और जुलाहे के सामने अपने नन्हे हाथ आगे बढ़ाते हुए कहता है "बाबा यह लो तौपी ताओ..!"  "नहीं राम लला आप खाओ हमें इसकी आवश्यकता नहीं जुलाहे ने कहा!" नहीं माँ तहती है.. कोई भी चीज उदाली नई लेनी तहिये..!। बालक के मुख से ऐसी दैविक शब्दों को सुन जुलाहे का मन प्रफुल्लित हो गया और सहजता पूर्वक बालक के हाथ से मीठा ले लिया और कहा "ठीक है रामलला लाओ दे दो।" तभी वहां शोभा भी आ गई उसने शालीनता से पूछा "बाबा क्या बाकी के परिधान भी तैयार हो गए?!.. "हाँ बिटिया आपका भी तैयार हो गया है। जुलाहे ने थैले में से एक सुंदर लाल और सफेद रंगों वाली साड़ी शोभा को पकड़ा दी।... थी तो दो रंगों वाली ही पर उस पर की गई कलाकारी रंगो का भराव देख शोभा हतप्रभ रह गई मन ही मन सोचने लगे उसने ऐसी रंगो वाली अनगिनत साड़ियां पहनी होगी पर इतनी आकर्षक सुंदर कलाकारी वाली कभी नहीं,.. उसने मन ही मन जुलाहे को नमन किया और अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हुए कहने लगी:-  "बाबा मैंने अपने अभी तक के जीवन काल में ऐसी रंगो वाली साड़ी बहुत पहनी पर इतनी सुंदर आकर्षक कलाकारी, वह भी सिर्फ दो रंगो में बनी कभी नही..।" मैं इसे सहेज कर रखूँगी।" "अरे नहीं बिटिया!" जुलाहे ने तुरंत ही बीच में टोकते हुए कहा-: "यह मेरे हाथों से बनी सूत एवं रंग से बनी साड़ी है।  "तुम इसे हर रोज भी धारण करोगी तभी इसका सूत और रंग ज्यों का त्यों रहेगा। यह सुन शोभा को और आश्चर्य हुआ और वह निशब्द हो गई। शोभा ने विनम्र भाव से कहा.. मैं यह साड़ी बिना मोल नहीं लूंगी आप कुछ भी अपनी स्वेच्छा से इसका मोल ले लीजिए।" पहले तो जुलाहे ने मना किया पर शोभा के आग्रह करने पर उसने कहा-: "ठीक है अगर तुम्हारी इतनी इच्छा है तो तुम अपने मंदिर में जो फूल चढ़ाती हो उसी में से दो फूल लाकर दे देना।" ऐसी अनूठी इच्छा सुन शोभा कुछ बोल पाती कि जुलाहे ने कहा-: "इससे ज्यादा की कोई इच्छा नहीं है बिटिया बस वही दे दो...!" शोभा दौड़कर मंदिर गई माँ के चरणों से दो फूल उठा लाई और बाबा को दे दिया। 
बाबा क्या मेरे पति के परिधान भी तैयार हो गए?!.. "नहीं बिटिया बस वह भी एक-दो दिन में तैयार हो जाएगा तैयार होते ही मैं तुम्हें स्वयं खबर कर दूंगा।"  ,"ठीक है बाबा" इतना कह कर शोभा घर के भीतर चली गई।
  तीन-चार दिन बीत गए पर जुलाहे की ओर से कोई खबर ना आई फिर वह स्वयं ही कौतूहल वश जानकारी के लिए जुलाहे के पास गई और पूछा "बाबा क्या अभी तक बने नहीं?!"
“नहीं बिटिया” इस बार जुलाहे के शब्दों में थोड़ी निराशा थी उसने पास रखा एक कुर्ता उठाया और शोभा को दिखाते हुए कहने लगा “बिटिया मैंने अपनी पूरी लगन से कुर्ता बनाने का पूर्ण प्रयास किया किंतु बुनाई में अच्छी पकड़ नहीं आ रही..!  शोभा ने वह कुर्ता अपने हाथों में लेते हुए एक नजर डाली तो उसने पाया उसमें कुछ सुंदर रंगों का भराव था और आकर्षक भी उतना ही था, पर बुनाई उतनी अच्छी ना होने के कारण थोड़ा अटपटा लग रहा था।अच्छा, उसने जिज्ञासा भरे लहजे में पूछा “अब और कितना वक्त लगेगा बाबा पूर्णतया निखरने में.."। “बिटिया लगता नहीं यह और अब मुझसे बन पाएगा तुम इसे मेरा तोहफा समझ कबूल कर लो।"
शोभा समझ गई तोहफा कहकर बाबा इसका मोल नहीं लेना चाहते और उसने सहर्ष स्वीकार कर लिया।
"बिटिया अब मैं चलता हूं अभी मुझे आगे की यात्रा तय करनी है।".....

रामदास का नन्हा बालक - - अबोध मन सांसारिक मोह माया से अनभिज्ञ पूर्ण शुद्ध था। इसलिए जुलाहे ने उसे प्रकृति के सात रंगों वाले वस्त्र तैयार करके दिए।

शोभा - -  निश्छल, समर्पित आत्मीय भाव से अपने संसार के कर्म धर्म में लगी रहती थी। यही कारण था कि जुलाहे ने उसे शुद्ध पवित्र एवं प्रेम को परिभाषित करने वाली लाल और सफेद रंग का वस्त्र दिया।

रामदास - - प्रचुर धन का मालिक था। साथ ही धार्मिक एवं दानी भी था। किंतु धन संग्रह के मोह ने उसे आंशिक रूप से घेर रखा था। यही कारण था कि जुलाहे ने उसके लिए सुंदर रंगत वाला वस्त्र तैयार किया तो पर सांसारिक लिप्सा के कारण बुनाई उतनी सही ना हो पाई।

जुलाहा रूपी ईश्वर हमारे भीतर बैठा हमारे एक एक प्रक्रिया पर उसकी नजर है और वह हमारे कर्मों के अनुरूप हमारी आत्मा को वस्त्र पहना रहा है।
मुक्ति और भुक्ती दोनों इसी संसार में निहित है।

-
पूनम सिंह
एक कहानीकार, लघुकथाकार, कवित्रियी, समीक्षक हैं एवं साहित्य की सेवा में सतत संलग्न रहती हैं।
Email: ppoonam63kh@gmail.com

बुधवार, 18 सितंबर 2019

वेबदुनिया डॉट कॉम पर मेरी एक लघुकथा : मौकापरस्त मोहरे


मौकापरस्त मोहरे / डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


वह तो रोज की तरह ही नींद से जागा था, लेकिन देखा कि उसके द्वारा रात में बिछाए गए शतरंज के सारे मोहरे सवेरे उजाला होते ही अपने आप चल रहे हैं। उन सभी की चालें भी बदल गई थीं। घोड़ा तिरछा चल रहा था, हाथी और ऊंट आपस में स्थान बदल रहे थे, वजीर रेंग रहा था, बादशाह ने प्यादे का मुखौटा लगा लिया था और प्यादे अलग-अलग वर्गों में बिखर रहे थे।

वह चिल्लाया, 'तुम सब मेरे मोहरे हो, ये बिसात मैंने बिछाई है, तुम मेरे अनुसार ही चलोगे।' लेकिन सारे के सारों मोहरों ने उसकी आवाज को अनसुना कर दिया। उसने शतरंज को समेटने के लिए हाथ बढ़ाया तो छू भी नहीं पाया।

वह हैरान था और इतने में शतरंज हवा में उड़ने लगा और उसके सिर के ऊपर चला गया। उसने ऊपर देखा तो शतरंज के पीछे की तरफ लिखा था- 'चुनाव के परिणाम'।

Source:
https://hindi.webdunia.com/hindi-stories/short-story-118122000044_1.html

मंगलवार, 17 सितंबर 2019

लघुकथा: अंदाज | सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा

अंदाज

"मैं अगर तेरी जगह होती तो उसे थप्पड़ मारते देर न लगाती । "
"यार ! एकबारगी इच्छा तो मेरी भी हुई थी । "
"एक कहानी क्या छप गयी , खुद को कमलेश्वर मान बैठा है । "
"फिर तूने मारा क्यों नहीं , बद्द्त्मीजी की हद है  कि  सबके सामने इतनी बेशर्मी से उसने तेरे गालों को छू लिया। छी,कितनी  गन्दी सोच ।"
"बस रोक लिया खुद को कि भरी सभा में हंगामा न हो जाये । "
"तेरे पतिदेव भी तो थे वहां  । उनको भी तो गुस्सा ही आया होगा । "
"उस वक्त वो शायद वॉशरूम में गये थे । "
"वो वहां होते तो बात बढ़ जाती । "
"हाँ ! तब अस्मित  के जन्मदिन का सारा मजा स्वाहा हो जाता , इस घटना  की वजह से । " 
"पर यार मैंने जब उसे तेरा गाल सहलाते हुए देखा तो मुझे बुरा तो लगा ही शर्म भी  महसूस हुई । "
"अब जाने दे न यार ।  उसे ,बता तो दिया था कि ये बात गलत है और उन्होंने अपनी गलती मान भी ली  थी। " 
"पर ये क्या बात हुई , पहले गलत काम करो और बात न बने तो गलती मान लो ।'
"क्या कहूँ यार कभी - कभी फोन पर उसके साथ साहित्य से इतर बिंदास वार्तालाप भी  हो जाता था ।  हमने  अपनी - अपनी जिंदगी के कुछ अनसुलझे पन्ने आपस में शेयर भी किए थे । हो सकता है इसलिए गलतफहमी में पड़ गया हो  बेचारा  "
"अरे ये वो लोग हैं जो  मौका मिलते ही शुरू हो जाते हैं । "
"क्या कर सकते हैं यार । इसके लिए जान लेना या जान देना जरूरी है क्या ? मुझे विश्वास है अब कभी नहीं होगा ऐसा ।" 
"वो देख , सरप्राइज  आइटम ,अनुज जी आ रहे हैं । एक्सपर्ट हैं अपनी फील्ड के और ऊपर तक पहुंच में भी कमी  नहीं है । "
"वाऊ । अनुज जी और यहां । रूक जरा । "
 इससे पहले कि अकादमी  के सर्वे-सर्वा अनुज जी , किसी और से मुखातिब होते , वे तपाक से उनके सामने जा खड़ी हुई ,  
"अनुज जी ! मी , आयुषी !  नावल 'अल्पज्ञ ' की उपन्यासकार  , आपने इस उपन्यास को नोटिस में भी लिया है। स्वागत है एक पारखी का इस पार्टी में।"
अनुज जी ने मुस्कुरा कर अपना  हाथ आगे कर  दिया ।
इसके पहले कि अनुज जी कुछ कहते , उन्हीने उन हाथों को मजबूती से अपने हाथों की कटोरिओं में जकड़  लिया और तब तक जकड़े  रहीं जब तक अनुज जी ने आग्रह नहीं किया , " चलिए अब कार्क्रम की ओर चलें ।  बाकी बातें कभी घर आइये ,वहां आराम से बैठकर करेंगें । "
उन्होंने मुस्कुराकर सहमति की मुद्रा में  सिर हिलाया और उनके साथ मंच की ओर चल पड़ीं ।
तालियां , पूरे हाल मेंअपने - अपने अंदाज में  बज रहीं थीं  ।

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सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा
डी - श्याम पार्क एक्सटेंशन,  
साहिबाबाद -   ( उत्तर प्रदेश )
मो 9911127277

सोमवार, 16 सितंबर 2019

मिन्नी मिश्रा की चार लघुकथाएँ


1)


कीचड़ में कमल

साड़ी का खूँट पकड़कर मेरा बेटा मुझसे हठ करने लगा, “अम्मा कीचड़ में क्या खिलता है...बताओ न?”  

“अरे...हट, तंग मत कर। देख, कितने घने बादल हैं... जोर से बारिश आने वाली है, जल्दी-जल्दी बिचड़ा लगाकर घर जाना है मुझे। कल से घर में चूल्हा नहीं जला है। पता नहीं...इंद्र देव क्यों कुपित हो गये हैं? आज भी ओले बन कहर बरपायेंगे तो घर में खाना-पीना..रहना सब दूभर हो जाएगा! जलावन सूखी बची रहेगी या...फिर.. कल की तरह, सत्तू खाकर ही दिन काटना पड़ेगा और इधर... बिचड़ों के लिए अलग ही ध्यान टँगा रहेगा।”

“अम्मा...पहले मुझे बताओ...न?”

“तू भी..सच में...बड़ा जिद्दी है। बिना बताये कभी मानता कहाँ। कीचड़ में बिचड़ों का मुस्कुराना,  मुझे बहुत ही सुकून देता है। रे...तू क्या समझेगा...अभी इसी तरह अबोध जो है।”   
धान के बिचड़ों को कीचड़ सने हाथों से सहलाते हुए मैं बोली। 

“पर, अम्मा... किताबों में तो यही लिखा है कि कीचड़ में कमल खिलता है।”

“पढ़ा होगा तू !  जिस किताब की बात तू कर रहा है..न..वो भाषा मुझे नहीं सुहाती ! भूखे पेट...कीचड़ में कमल नहीं...मुझे,  धान की बालियाँ ही लुभाती है।”
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2)

रील बनाम रीयल


तालियों की गड़गड़ाहट के साथ हॉल की सारी बत्तियां एक साथ जल उठी।

“कमाल का रोमांस,  बिल्कुल अमिताभ और रेखा की जोड़ी ।”  एक साथ कई आवाजें दर्शक-दीर्घा से आयी ।


“अरे...चल रहा होगा दोनों में रोमांस । थियेटर-सिनेमा में काम करने वाले लोगों के लिए प्यार की परिभाषाएं कुछ अलग होती है ! जहाँ-जिससे मिले,  दोस्ती..प्यार में बदल गई । पति-पत्नी कहने भर के लिए होते हैं। यूज़ एंड थ्रो वाला हिसाब-किताब, हा..हा..हा... ।”   
फिर से कुछ तेज आवाजें ...मेरे कानों में गर्म सलाखों की तरह चुभने लगी।

लोग अपना टेंशन दूर करने रंगमंच का खूब रसास्वादन करते हैं।  पर, जैसे ही पटाक्षेप होता है.. इनकी रंग बदलते देर नहीं लगती। भिड़ जाते हैं, नायक-नायिका की बखिया उधेड़ने में।  जैसे खुद कितने दूध के धुले हों!

मैं, साथी कलाकार (रोहित) के साथ, खचाखच भीड़ से बचते हुए हॉल से बाहर निकल आयी । सीधे पार्किंग में लगी गाड़ी की तरफ आगे बढ ही रही थी,  कि रोहित ने मेरा हाथ पकड़ते हुए कहा ,  ”रुको.., मुझे अभी तुमसे कुछ जरूरी बातें करनी है ।”

“अभी नहीं रोहित ,  जल्दी घर पहुंचना है।”  अपना हाथ खींचते हुए मैं बोली।

“प्लीज, मेरे लिए दो मिनट रुक जाओ।”

“अच्छा...जल्दी से बताओ।“

“ मैं तुमसे शादी करना चाहता हूँ।”

“तुम्हारा दिमाग तो नहीं खराब हो गया है। रोहित, रील लाइफ और रीयल लाइफ में बहुत का अंतर होता है। पता है न..शादी में दोनों परिवारों को भी जुड़ना पड़ता है?”

“हाँ....सब पता है। मेरे परिवार में सिर्फ मैं हूँ और मेरी माँ। माँ से तुम पहले ही फंक्शन में मिल चुकी हो।”  रोहित एक ही सांस में सारी बातें कह गया ।

“ और,मेरे परिवार में?  मैंने तो तुम्हें...विधवा हूँ...सिर्फ  इतना ही बताया था? और कुछ भी नहीं!"

“अरे...मैडम जी ,  मुझे सब पता है । तुम्हारे ड्राईवर से तुम्हारे बारे में मैंने सब कुछ पता कर लिया है। तभी से तो मैं ,तुमसे बेहद प्यार करने लगा हूँ। तुम्हारी एक अपाहिज बेटी भी है? उसी के इलाज के लिए तुम ये सब कर रही हो।”  रोहित मुस्कुराते हुए बोला।

मैं ठगी सी रोहित को देखती रही। वो अपलक मुझे निहारता रहा।

"जाने से पहले एक बात तुम्हें बताना चाहता हूँ, मुझे अपनी संतान की इच्छा नहीं है। हां, तुम्हारी बेटी का पिता कहलाना मुझे अच्छा लगेगा। अब, आगे  निर्णय तुम्हारे हाथों में है।"

मैं चुपचाप...रोहित को जाते हुए देख रही थी । वह आज मुझे मर्द कम देवता अधिक नजर आ रहा था।
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3)

बाल सखा

“फिर तुम.. इतनी रात को ! देखो, शोर मत मचाओ, सभी सोये हैं..जग जायेंगे । तुम्हे पता है न..समय के साथ सभी को नाचना पड़ता है। 
बच्चे स्कूल जाते हैं, पति काम पर , और मैं...मूरख,  अकेली दिनभर इस कोठी का धान उस कोठी करती रहती हूँ । चाहे घर के पीछे अपना जीवन खपा दो, घर के कामों का कोई मोल नहीं देता !
खैर, छोड़ो इसे। बचपन में तुम्हारे साथ बिताये पल,  मुझे हमेशा सताते रहता है। पर,  मैं तुम्हारी तरह स्वच्छंद उड़ान नहीं भर सकती।
समय के साथ रिश्तों की अहमियत बदल जाती है । अब तो मैं बाल-बच्चेदार वाली हो गयी हूँ और तुम,  वही कुंवारे के कुंवारे!
तुम क्या जानो शादी के बाद क्या सब परिवर्तन होता है ! ओह ! फिर से शोर,  बस भी करो या..र ! पता है मुझे , बिना देखे तुम जाओगे नहीं ! ठीक है, खिड़की के पास आती हूँ,  देखकर तुरंत वापस लौट जाना।"

जैसे ही मैं खिड़की के पास पहुंची,  एकाएक बिजली की कौंध से ... उसका, वही नटखट चेहरा,  साफ़-साफ़ दिख गया । दिल के कोने में दबा प्यार फिर से हिलकोर मारने लगा।

मैं..झट दरवाजा खोल बाहर निकल आई। दरवाजे की चरमराहट से पति जगते ही चिल्लाये,  “ क्या हुआ?  कहाँ जा रही हो ?”   कहते-कहते वो भी मेरे पीछे दरवाजे के पास आ पहुँचे।

सामने टकटकी लगाये, उताहुल खड़ा... मेरा बाल सखा ‘तूफान' और अंदर,  सुरक्षा का ढाल लिए खड़े पति।  अकस्मात,  दहलीज से बाहर निकले मेरे पैर... कमरे में फिर से कैद हो गए।

मेरी नजरें तूफ़ान और टिकी रही। बाहर खड़ा तूफान एकदम शांत हो गया। शायद अब तक वो समझ चुका था कि औरत ख्वाबों में उड़ान भरने से ज्यादा अपने को महफ़ूज रखना अधिक पसंद करती है। 

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4)

गर्भपात

“चाचा ओ चाचा (घोंसला )... सो गये क्या ?” सभी बच्चे (अंडे) एकसाथ चिल्लाये ।

“हाँ..थोड़ी झपकी लग गई। घर का मुखिया हूँ..न..रात को ठीक से सो भी नहीं पाता।”

"सो तो है चाचा ,  आप सर्दी-गर्मी, आंधी-तूफ़ान सभी से हमें बचाते हैं। पर, चाचा बात ही कुछ ऐसी है बहुत घबराहट सी हो रही है।”

“क्या बात है? बताओ तो।”

कल हमने मकान मालिक को बोलते सुना था,  “अगले हफ्ते दीपावली है ...घर के कोने-कोने की सफाई होगी, और रंग-रोगन भी। 
चाचा, अब, हमलोगों का क्या होगा?  यहाँ हम ,सीढी-घर के रोशनदान में कितने बेफिक्र और महफूज रहते आये हैं । आज बहुत  भयभीत हैं दीपावली की सफाई में, हमारी भी सफाई....तय ही समझो।”

“अरे...शुभ-शुभ बोल। चिंता किस बात की मैं हूँ..न!”  
बच्चों को ढाढ़स बांधते हुए चाचा खखसकर बोले।

“धपर...धपर....की आवाज,  लगता है कोई सीढ़ी पर चढ़ रहा है । वो...सामने देखिये...आ गई महिला सफाईकर्मी । चाचा, वो किसी को नहीं बकसेगी । बहुत निर्दयी होकर झाड़ू चलाती है । सोचेगी भी नहीं कि इसमें किसी जोड़े का सपना सजा है ।“   सफाईकर्मी को देखते ही अंडों में हडकंप मच गया ।

”बच्चों, जब तुम्हें पता था, तो.. तुमने अपनी माँ को क्यों नहीं बताया? वो आज तिनका लाने नहीं जाती?”   मौत को सामने खड़ा देख घोंसला खुद को असहाय महसूस करने लगा।

“ हमें माँ की चिंता सताए जा रही है। चाचा, वो यहाँ पहुंचेगी और हमें ढूंढेगी,  हमारी लाश तक का जब कोई ठिकाना उसे नहीं मिलेगा... फिर क्या बीतेगी माँ पर!  बेचारी के सभी संजोये सपने... दीपावली के चकाचौंध में तिनके की तरह बिखर जायेंगे।”

सफाईकर्मी तेजी से हमलोगों के करीब आ पहुंची। उसके हाथ की झाड़ू पर नजर पड़ते ही,  बलि के बकड़े की तरह हमसभी थरथराने लगे और दिल धौकनी की तरह धड़कने लगी। 

वो फुसफुसाई, “बहुत तेज दर्द हुआ था मुझे... जब मेरे घरवालों ने भ्रूण-परीक्षण के बहाने मेरा गर्भपात करवाया था ।

बच्चों, मैं भी स्त्री हूँ... तुम्हारी माँ की पीड़ा अच्छी तरह समझ सकती हूँ।“ 
कहते हुए सफाईकर्मी ने अपनी दिशा बदल ली ।
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Smt. Minni Mishra,
Shivmatri apartment, flat no. 301,
Road number-3, Maheshnagar, Patna
Pin: 800024
Phone number: 8340290574

रविवार, 15 सितंबर 2019

लघुकथा: रमधनिया | मुकेश कुमार ऋषि वर्मा

लघुकथा: रमधनिया

रमधनिया ने ठान लिया था कि वो अपने शराबी - जुआरी पति को आज सबक सिखा कर ही मानेगी | बेचारी रमधनिया मध्यप्रदेश से चलकर आगरा मजदूरी करने आई थी | सुबह से शाम तक खेतों में आलू बीनती तब जाकर प्रतिदिन सौ - सवा सौ रुपये कमा पाती | साथ में दो बेटियाँ भी थी, इसलिए खाने-पीने का खर्च भी ज्यादा था | पति काम तो करता था पर सारी कमाई जुआ - शराब में उढा देता और ऊपर से रमधनिया के कमाये पैसों पर भी हक जमाता |

देररात टुन्न होकर रमधनिया का पति आया तो दोनों में झगड़ा हो गया | झगड़ा इतना बढ़ गया कि झगड़े की खबर ठेकेदार को पता चल गई | उसने तुरन्त सौ नं.  पर सूचना दी, कुछ ही समय बाद सौ नं. की गाड़ी आ गई | पुलिस आने से झगड़ा खत्म हो गया और पुलिस ने दोनों का राजीनामा करा दिया परन्तु राजीनामा के बदले दो हजार रुपए रमधनिया को गंवाने पड़े | वैसे दो हजार बचाने के लिए रमधनिया ने उन पुलिस महाशयों के खूब हाथ-पैर जोडे, लेकिन उन निर्दईयों को तनिक भी तरस नहीं आया | सच भी है वर्दी पहनकर कोई देवता नहीं बन जाता |

रमधनिया अपने तिरपाल के बने झोपड़े में पड़ी-पड़ी सोच रही थी, काश वो अपने शराबी पति से न लड़ती और हजार - पांच सौ उसे दे देती तो कम से कम कुछ पैसे तो बच ही जाते... |

- मुकेश कुमार ऋषि वर्मा
ग्राम रिहावली, डाक तारौली,
फतेहाबाद, आगरा, 283111

लघुकथा: अनुपयोगी | कपिल शास्त्री

अनुपयोगी


जनवरी की एक सुबह। फिजा में ठंडक घुली हुई है। मुँह धोकर पोंछ लिया है। आईने में नहीं देखा है। अब वैसा ही तो होगा। रात भर में क्या कुछ बदल जायेगा! चाय पी ली है। मोटरसाइकिल पोर्च में रखे-रखे गंदी हो गयी है। उसके दोनों मिररर्स पर धूल जमी हुई है। इंडीकेटर्स हैं, हाथ हैं तो इनको साफ करने की जरूरत नहीं लगती। साफ करने का मन भी नहीं है। ऐसे ही स्टार्ट करके चौराहे तक आ गया हूँ। गुनगुनी धूप अच्छी लग रही है। कुछ देर यहीं खड़े रहने का मन है। सिटी बस का यह आखरी स्टॉप है। इसलिए ड्रायवर बस वापस मोड़ते हुए  ऐसे खुश है जैसे धरती की एक परिक्रमा पूरी कर ली है।

मजदूर काम पर जाने से पहले टपरे में पोहे-जलेबी खा रहे हैं। रूम शेयर करके रहने वाली कॉलेज की कुछ लड़कियाँ भी टपरे पर चाय पी रही हैं। बच्चे यूनिफार्म में पैदल स्कूल जा रहे हैं। कुछ स्कूल बस का इंतजार कर रहे हैं। एक कुत्ता तीन टांगों पर चल रहा है। चौथी टांग टेढ़ी जो है।

पंद्रह-सोलह साल की लड़की और उसके छोटे भाई को स्‍कूल बस तक छोड़ने उसके पिताजी आये हुए हैं। जब तक बस नहीं आ जाती वो नहीं जाएंगे। मैं लड़की के बाप की उम्र का हूँ मगर बाप नहीं हूँ। लड़की मेरी बेटी से भी कम उम्र की है मगर बेटी नहीं है। लड़की सुंदर है। मेरी नीयत में खोट नहीं है। बस इस वक्‍त अपनी उम्र के बारे में कुछ सोचना नहीं चाहता। बस आ गयी। पहले भाई लपककर चढ़ गया। लड़की ठिठकी। उसने एक पल को मेरी मोटरसाइकिल के मिरर में खुद को देखा और फिर बस में चढ़ गई। मेरा अनुपयोगी मिरर एक क्षण को उपयोगी हो गया।

धूल थी तो क्या हुआ! उम्र ऐसी है कि एक आईना तो चाहिए।

वाकया बस इतना सा ही है। लेकिन श्रीमती जी निष्कर्ष पर पहुँच चुकी हैं-"अब समझ में आया वहाँ खड़े रहने का मन क्यों करता है।"
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परिचय
नाम-कपिल शास्त्री
शिक्षा-मॉडल हायर सेकेंडरी स्कूल,टी.टी.नगर.से वर्ष 1982 में ग्यारवीं पास, बी.एस.सी.(मोतीलाल विज्ञानं महाविद्यालय)1986,एम्.एस.सी.(एप्लाइड जियोलॉजी)(यूनिवर्सिटी टीचिंग डिपार्टमेंट)बरकतउल्ला विश्वविद्यालय ,वर्ष 1989.
लेखन विधा-लघुकथा (2015 से लेखन आरम्भ)
प्रकाशित कृतियाँ-वनिका पब्लिकेशन द्वारा प्रकाशित लघुकथा संकलन "बूँद बूँद सागर"(संपादन डॉ.जीतेन्द्र "जीतू" व डॉ.नीरज सुधांशु)में चार लघुकथाएँ "इन्द्रधनुष","ठेला","रक्षा बंद","कवर"प्रकाशित।वनिका पब्लिकेशन द्वारा ही प्रकाशित द्वितीय लघुकथा संकलन "अपने अपने क्षितिज"में चार लघुकथाएँ "हार-जीत,सेफ्टी वाल्व" "ढोंग" "चार रुपये की ख़ुशी" प्रकाशित।राष्ट्रीय पत्रिका "सत्य की मशाल"और "अविराम सहित्यकी"में लघुकथा प्रकाशित।"लघुकथा के परिंदे" "गागर में सागर" "लघुकथा साहित्य" जैसे प्रतिष्ठित फेसबुक लघुकथा ग्रुप्स में नियमित रूप से प्रकाशन।"स्टोरी मिरर.कॉम" होप्स मेगेज़ीन" "प्रतिलिपि.कॉम"में अनेक रचनाएँ प्रकाशित।पहला लघुकथा संग्रह "ज़िन्दगी की छलांग"जून 2017 में वनिका पब्लिकेशन,बिजनोर द्वारा प्रकाशित।शब्द प्रवाह सामाजिक,सांस्कृतिक मंच उज्जैन द्वारा "ज़िन्दगी की छलांग"को लघुकथा विधा में प्रथम पुरस्कार।इंदौर की 'क्षितिज' साहित्यिक संस्था द्वारा वर्ष 2018 में नवोदित लेखक सम्मान।

सम्प्रति-वर्ष 1990 से 2004 तक प्रतिष्ठित फार्मा कंपनी "वोखहार्ड"में कार्यरत।2004 से वर्तमान तक मेडिकल होलसेल का व्यापार
पता-निरुपम रीजेंसी,S-3,231A/2A साकेत नगर.भोपाल.
संपर्क-9406543770.
email kshastri121@gmail.com

शनिवार, 14 सितंबर 2019

हिंदी दिवस पर मेरी एक लघुकथा

गर्व-हीन भावना / डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी 


टैक्सी में बैठते ही उसके दिल की धड़कन और भी तेज़ हो गयी, वह मन ही मन सोचने लगा,

"साहब को क्या सूझी जो अंग्रेज मेहमान को लाने के लिये मुझे भेज दिया, मैं उससे बात कैसे करूं पाऊंगा? माँ-बाप ने भी जाने क्या सोचकर मुझे हिंदी स्कूल में पढाया, आज अंग्रेजी जानता होता तो पता नहीं क्या होता? इस हिंदी ने तो मेरा जीवन ही..."
अचानक वाहन-चालक ने बहुत तेज़ी से ब्रेक लगाये, उसका शरीर और विचार दोनों हिल गए, उसने आँखें तरेरते हुए चालक से पूछा, "क्यों बे? क्या हुआ?"
"सर, वन बुल वाज़ क्रॉसिंग द रोड (श्रीमान, एक बैल रास्ता पार कर रहा था।)"
चालक का उत्तर सुनते ही वह चौंका, उसने कुछ कहने के लिये मुंह खोला और फिर कुछ सोच कर अगले ही क्षण होंठ चबाते हुए उसने आँखें घुमा लीं।
उसके विचारों में अब अंग्रेजी के अध्यापक आ गये, जो अपने हाथ से ग्लोब को घुमाते हुए कहते थे, "इंग्लिश सीख लो, हिंदी में कुछ नहीं रखा। नहीं सीखी तो जिंदगी भर एक बाबू ही रह जाओगे।"
उसे यह बात आज समझ में आई, टैक्सी तब तक हवाई अड्डे पहुँच चुकी थी। विदेशी मेहमान उसका वहीँ इन्तजार कर रहा था।
गोरे चेहरे को देखकर उसकी चाल तेज़ हो गयी, अपनी कमीज़ को सही कर, लगभग दौड़ता हुआ वह विदेशी मेहमान के पास गया और हाथ आगे बढ़ाता हुआ बोला, "हेल्लो सर..."
उस विदेशी मेहमान ने भी उसका हाथ थामा और दो क्षणों पश्चात् हाथ छोड़कर दोनों हाथ जोड़े और कहा,
"नमस्कार, मैं आपके... देश की मिट्टी... से बहुत प्यार करता हूँ... और आपकी मीठी भाषा हिंदी... का विद्यार्थी हूँ..."
सुनते ही उसे मेहमान के कपड़ों पर लगे विदेशी इत्र की सुगंध जानी-पहचानी सी लगने लगी

अनहद कृति (ISSN: 2349-2791) में मेरी लघुकथा : भूख

लघुकथा : भूख |  डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

"उफ़..." रोटी के थाली में गिरते ही, थाली रोटी के बोझ से बेचैन हो उठी। रोज़ तो दिन में दो बार ही उसे रोटी का बोझ सहना होता था, लेकिन आज उसके मालिक नया मकान बनने की ख़ुशी में भिखारियों को भोजन करवा रहे थे, इसलिए अपनी अन्य साथियों के साथ उसे भी यह बोझ बार-बार ढोना पड़ रहा था।

थाली में रोटी रख कर जैसे ही मकान-मालिक आगे बढ़ा, तो देखा कि भिखारी के साथ एक कुत्ता बैठा है, और भिखारी रोटी का एक टुकड़ा तोड़ कर उस कुत्ते की तरफ़ बढ़ा रहा है, मकान-मालिक ने लात मारकर कुत्ते को भगा दिया।

और पता नहीं क्यों भिखारी भी विचलित होकर भरी हुई थाली वहीं छोड़ कर चला गया। 

यह देख थाली की बेचैनी कुछ कम हुई, उसने हँसते हुए कहा, "कुत्ता इंसानों की पंक्ति में और इंसान कुत्ते के पीछे!" 

रोटी ने उसकी बात सुनी और गंभीर स्वर में उत्तर दिया, "जब पेट खाली होता है तो इंसान और जानवर एक समान होता है। भूख को रोटी बांटने वाला और सहेजने वाला नहीं जानता, रोटी मांगने वाला जानता है।"

सुनते ही थाली को वहीं खड़े मकान-मालिक के चेहरे का प्रतिबिम्ब अपने बाहरी किनारों में दिखाई देने लगा।

Source:
https://www.anhadkriti.com/chandresh-kumar-chhatlani-short-bhookh

शुक्रवार, 13 सितंबर 2019

डा. अंजु लता सिंह की दो लघुकथाएं


लघुकथा: जीने का तरीका

आज सुबह उठते ही अपने बैडरूम के दरवाजे पर  पिंक फूलों का बुके और चाकलेट ट्री करीने से रखा हुआ देखकर कुछ पल के लिये तो स्टेच्यू  सी बन गई थी मैं .अगले पल ही बखूबी समझ गई कि यह हो ना हो नई बहू का ही प्लान होगा.तभी देखा  बेटा महेश और  बहू श्रुति किचन की ओर से बेड टी की ट्रे लेकर चले आ रहे हैं.

सुखद आश्चर्य से मैं इतना ही कह पाई - "अरे!इतनी सुबह  सुबह उठ गए तुम  दोनों..थैंक्यू .. थैंक्यू. चलो अब जाकर सो जाओ। मुझे तो आदत है सुबह ठीक साढ़े छ: बजे  निकलकर ही पहुंच पाती हूं स्कूल. फरीदाबाद जाने में पूरे फोर्टी मिनिट्स तो लगते  ही हैं बेटा"
पतिदेव से मुखातिब होकर मैं बोली - "चलो जी!आप तो बोरिंग  हो. शादी की पच्चीसवीं सालगिरह पर भी मुझसे ही डिनर बनवाया था.आपसे गिफ्ट  मिलना तो सपना ही होता है.आज शाम को मधुबन चलेंगे.बच्चों को लेकर जरूर..सुना"
कहते हुए मैं आश्वस्त होना चाहती थी.

"देखेंगे..अब तुम जाने की तैयारी करो नहीं तो लग जाएगा  रजिस्टर में तुम्हारा ग्रीन मार्क.."
समीर का वही घिसा पिटा जवाब सुनकर मुस्कुराते हुए मैं अपने काम में लग गई .

स्कूल में तो सारा दिन व्यस्तता में ही बीत गया था. बेहद थकावट महसूस कर रही थी. कितनी विशेज मिलीं आज. श्रुति के आने से घर में बेटी की कमी पूरी हो गई थी. जहां पहले दरवाजे पर लटका ताला मुंह चिढ़ाता था वहीं अब द्वार पर पानी का गिलास  लेकर बिटिया (बहू) रोज स्वागत करती है.चलो आज दो बंडल चैक करने हैं बारहवीं प्री बोर्ड के..रोटी तो बनानी नहीं आज..सोचते हुए कार में बैठकर मुझे नींद सी आ गई .घर के गेट पर पहुंचकर जैसे ही कार से उतरी सारे बंगले पर फूलों और बैलून्स की सजावट देखकर असमंजस में पड़ गई  थी मैं. कुछ समझ नहीं पा रही थी. सोचा नीचे किराएदार की छोटी बच्ची का बर्थ डे वगैरा कोई फंक्शन होगा. तभी बालकनी से झांकते हुए बेटा बहू मेरे सिर पर गुलाबों और मोंगरों की पंखुड़ियों की बरसात करते हुए चिल्लाए - "हैप्पी हैप्पी हैप्पी एनीवर्सरी. मम्मा! वैलकम. वैलकम."

चित्ताकर्षक रंगोली पर कदम रखवाते हुए श्रुति ने मेरा हाथ पकड़कर मुझे कमरे में प्रविष्ट  कराया जहां मह मह महकता हुआ हमारा कमरा किसी फिल्मी कक्ष सा प्यारा सा लग रहा था। कमरे में बिखरे हुए बेतरतीब सामान  अब करीने से सजा दिये गए थे.हम दोनों की शादी की एकमात्र ब्लैक एंड व्हाइट फोटो रंगीन विशालकाय फ्रेम में जड़ी हुई सामने की दीवार पर मनमोहक लग रही थी.
"अरे बच्चों!ऑफिस से लौटकर पापा गुस्सा करेंगे ..कितना खर्चा  कर दिया ?क्यों परेशान  हुए ?"
"डरो मत मम्मा! कुछ नहीं कहेंगे पापा" श्रुति मुझे बांहों में भरकर बोली.
मुझे लगा जैसे सारी कायनात बहू के स्नेहालिंगन का रूप लेकर मेरे जीवन को धन्य कर गई है.
"अच्छा मैं जरा सबको फोन तो कर लूं ? बड़े सारे मैसेज आए हुए हैं मेरे फोन पर. स्कूल में तो एलाउड ही नहीं होता फोन करना."
फोन मेरे हाथ से झटककर श्रुति शरारत से बोली- "नो मम्मा! नो. फोन  कहीं नहीं करना. अभी सब आ रहे हैं आपसे मिलने."
"क्या? सच!" मैं खुशी से फूली नहीं समा रही थी.
रात होते होते परिवार के सभी नियर्स और डियर्स घर पर जमा हो गए थे. धूमधाम से विवाह की तीसवीं वर्षगांठ मनाकर बच्चों ने  हमारे ह्रदय में एक स्नेहपथ तो बना ही लिया था. परिवार  में सभी खुलकर वाह वाही कर रहे थे बच्चों की. जीवन की बिजी दिनचर्या और आपाधापी  में हम हमेशा वक्त की कमी का रोना रोते रहते थे या फिर  कंजूसी ही समझिये.
सबको विदा करके मैं लेटकर सोच रही थी- "स्नेह की डोर बांधकर  बेटी सी बहू ने हमें जीने का तरीका सिखा दिया है."
पड़ोसी के रेडियो पर छाया गीत के मीठे मद्धिम स्वर कानों को सुरीले लग रहे थे-
"यही है वो सांझ और सवेरा.
जिसके लिये तड़पे हम सारा जीवन भर."
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लघुकथा: नजर

आज फिर बड़ी बहू की याद बरबस ही आने लगी थी मुझे .जब भी जरा सज धजकर कहीं निकल जाती और सजीली लाल,काली ड्रेस पहन लेती थी बस मरी नजर उसके पीछे ही पड़ जाती.
मैं भाग-भागकर कान के पीछे डिठोना लगाती तो कभी मुट्ठी में नमक भींचकर सात बार फेरती और कभी सरसों के तेल से भरी रूई की बाती जलाकर टप-टप ढेर टोपे(बूंदें) टपकाकर शीनू (शान्वी) की नजर उतारती.

साक्षात् लक्ष्मी के कदम पड़े थे मेरे आंगन में.

दुनिया भर से कैसे बचाती भला उसे. अब तो परदेसी होकर नजर भी आती है,तो स्काइप पर.झलक ही मिलती है समझो बस.सातवें साल में जाकर बाबा बजरंगबली की मन्नतों के बाद सुपौत्र अभि (अभिनंदन) जन्मा. उसकी शरारतों से अनभिज्ञ सी मैं, ये और छोटा बेटा, बहू साल में कुछेक रोज के लिये उनके पास  जाकर अपना लाड़-दुलार और स्नेह लुढ़काकर  कर्म की इतिश्री मान लेते हैं,पर नजर का क्या?

परदेसी परिवेश में तो उसे हल्की फुल्की बीमारी मानकर जतन से सुनियोजित  व्यापारिक बर्ताव  किया जाता है. नजर चढ़ने और उतरने को महज अंधविश्वास  का पर्याय मानकर ठुकरा देते हैं.
बात-बात पर मम्मा से नजर उतरवाने वाली शीनू अब सयानी चिकित्सक बन गई थी.

स्वप्न से बाहर उनींदी आंखों को मसला तो महसूस हुआ कि अभी दिन नहीं निकला है. गहरा गई रात में अचानक छोटे बेटे के उठने और रसोई में कुछ खटर-पटर करने पर मेरी नींद खुल गई थी. वैसे भी रात के एक बजे तो घर ही पहुंचे थे. परी से कम नहीं लग रही थी पार्टी  में मेरी छुटकी लाड़ली बहू पायल आज. उनकी शादी  की पहली वर्षगांठ जो थी आज.

ऊंघते हुए पूछ ही लिया - "बेटा! क्या हुआ?"
- "बस यूं ही ..काॅटन कहां है माॅम?" बेटा महीन स्वर में बोला.
- "भगवान  जी के मंदिर में."
- फिर नींद खुली तो देखा-सोती हुई पायल पर तेल डूबी बाती घुमाती हुई एक परछाई हौले-हौले बढ़ते कदमों से रसोई की ओर मुड़ी.
- जलती बाती से चट-चट की तेज आती आवाजें छुटकी बहू को काली नजर लगने का भान करा रही थीं.

मैं भी आश्वस्त होकर अपने बैडरूम में वापस लौटआई थी.यही सोचकर कि चलो, बालक चाहे कहीं भी रहें कम से कम बुरी नजर के शिकार होने से तो बचे रहेंगे.
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डा. अंजु लता सिंह 
सी-211/212
पर्यावरण काम्प्लेक्स
समीपस्थ-गार्डन ऑफ फाइव सैंसेज
सैदुलाजाब
नई दिल्ली-30
दूरभाष -9868176767

गुरुवार, 12 सितंबर 2019

मंटो की कुछ लघुकथाएँ


दावत-ए-अमल

आग लगी तो सारा मोहल्ला जल गया...सिर्फ़ एक दुकान बच गई जिसकी पेशानी पर ये बोर्ड आवेज़ां था... 
यहां इमारत साज़ी का जुमला सामान मिलता है।
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हलाल और झटका

मैंने उसकी शहरग पर छुरी रखी, हौले-हौले फेरी और उसको हलाल कर दिया.” 
यह तुमने क्या किया?” 
क्यों?” 
इसको हलाल क्यों किया?” 
"मज़ा आता है इस तरह." 
मज़ा आता है के बच्चे.....तुझे झटका करना चाहिए था....इस तरह. ” 
और हलाल करनेवाले की गर्दन का झटका हो गया.
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घाटे का सौदा

दो दोस्तों ने मिलकर दस-बीस लड़कियों में से एक चुनी और बयालीस रुपये देकर उसे ख़रीद लिया. रात गुज़ारकर एक दोस्त ने उस लड़की से पूछा : तुम्हारा नाम क्या है? ” 
लड़की ने अपना नाम बताया तो वह भिन्ना गया : हमसे तो कहा गया था कि तुम दूसरे मज़हब की हो....!” 
लड़की ने जवाब दिया : उसने झूठ बोला था!” 
यह सुनकर वह दौड़ा-दौड़ा अपने दोस्त के पास गया और कहने लगा : उस हरामज़ादे ने हमारे साथ धोखा किया है.....हमारे ही मज़हब की लड़की थमा दी......चलो, वापस कर आएँ.....!
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खबरदार

बलवाई मालिक मकान को बड़ी मुश्किलों से घसीटकर बाहर लाए. कपड़े झाड़कर वह उठ खड़ा हुआ और बलवाइयों से कहने लगा : तुम मुझे मार डालो, लेकिन ख़बरदार, जो मेरे रुपए-पैसे को हाथ लगाया.........!
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रियायत

"मेरी आँखों के सामने मेरी बेटी को न मारो…" 
"चलो, इसी की मान लोकपड़े उतारकर हाँक दो एक तरफ…"
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उलाहना

देखो यार। तुम ने ब्लैक मार्केट के दाम भी लिए और ऐसा रद्दी पेट्रोल दिया कि एक दुकान भी न जली।
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किस्मत

कुछ नहीं दोस्त......इतनी मेहनत करने पर सिर्फ़ एक बक्स हाथ लगा था पर इस में भी साला सुअर का गोश्त निकला।
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