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गुरुवार, 13 जून 2019

लघुकथा : आत्ममुग्ध | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


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एक सेमिनार में विद्यार्थियों के समक्ष एक विशेषज्ञ ने कांच के तीन गिलास लिए। एक गिलास में मोमबत्ती जलाई, दूसरे में थोड़ी शराब डाल कर उसमें पानी और बर्फ के दो टुकड़े डाल दिए और तीसरे में मिट्टी में लगाया हुआ एक छोटा सा पौधा रख दिया।

फिर सभी की तरफ हाथ से इशारा कर पूछा, "आप सभी बताइए, इनमें से सबसे अच्छा क्या है?"

अधिकतर ने एक स्वर में कहा, "पौधा..."

"क्यों?"

"क्योंकि प्रकृति सबसे अच्छी है" विद्यार्थियों में से किसी ने उत्तर दिया

उसने फिर पूछा, "और इनमें से सबसे बुरी चीज क्या है?"

अधिकतर ने फिर एक साथ कहा, "शराब"

"क्यों?">

"क्योंकि नशा करती है" कुछ विद्यार्थी खड़े हो गए।

"और सबसे अधिक समर्पित?">

"मोमबत्ती.." इस बार स्वर अपेक्षाकृत उच्च था।

वह दो क्षण चुप रहा, फिर कहा, "सबसे अधिक समर्पित है शराब..."

सुनते ही सभा में निस्तब्धता छा गई, उसने आगे कहा, "क्योंकि यह किसी के आनंद के लिए स्वयं को पूरी तरह नष्ट करने हेतु तैयार है।"

फिर दो क्षण चुप रहकर उसने कहा "और सबसे अधिक अच्छी है मोमबत्ती, क्योंकि उसकी रौशनी हमें सभी रंग दिखाने की क्षमता रखती है। पूर्ण समर्पित इसलिए नहीं, क्योंकि इसके नष्ट होने में समाप्ति के बाद अच्छा कहलवाने की आकांक्षा छिपी है।"

सभा में विद्यार्थी अगली बात कहने से पूर्व ही समझ कर स्तब्ध हो रहे थे, और आखिर प्रोफेसर ने कह ही दिया, "इन तीनों में से सबसे बुरी चीज है यह पौधा... सभी ने इसकी प्रशंसा की... जबकि यह अधूरा है, पानी नहीं मिलेगा तो सूख जाएगा। "

"लेकिन इसमें बुरा क्या है?" एक विद्यार्थी ने प्रश्न किया

"अधूरेपन को भूलकर, केवल प्रशंसा सुनकर स्वयं को पूर्ण समझना।" प्रोफेसर ने पौधे की झूमती पत्तियों को देखकर कहा।

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

बुधवार, 12 जून 2019

श्री योगराज प्रभाकर की सात लघुकथाएं और मेरी अभिव्यक्ति | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

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मित्रों और साथियों,

लघुकथा विधा में वरिष्ठ लघुकथाकार श्री योगराज प्रभाकर का एक महत्वपूर्ण स्थान है। आपने कई वर्षों तक लघुकथा की साधना करने के पश्चात स्वयं को इस स्थान पर खड़ा किया है। आज आपकी सात लघुकथाएं जो संगीत के सात शुद्ध स्वरों (सप्तक) की तरह ही लघुकथा के हर सुर का निर्माण करती हैं आपके समक्ष प्रस्तुत हैं। लघुकथा के स्वरों और ताल के अनुशासन को स्वयं में समेटे हुए इन रचनाओं को जितनी ही बार पढ़ा जाये, उनसे कुछ-न-कुछ नया सीखने को ही मिलेगा। हर लघुकथा पर मैंने अपनी अभिव्यक्ति भी दी है, जो केवल प्रतिक्रिया मात्र है।
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प्रथम रचना "अपनी अपनी भूख" संगीत का पहला स्वर - षडज, एक मयूर की भाँती गाता हुआ, हमारे मूलाधार चक्र में समाहित होता, एक ऐसा स्वर है, जिसकी frequency सबसे नीची होती है। गंभीरता इस स्वर से झलकती है। ऐसी ही रचना है यह, जो अंत में माँ से अपने भूखे बच्चे की भूख मिटाने के लिये कहलवाती है। //"मेरे बच्चों के सिर पर भी अपने बेटे का हाथ फिरवा दो बीबी जी I"// यह वाक्य भूख की उतनी गहराई तक उतरने में सक्षम हैं, जितना षडज (स) संगीत की गहराई में। भूख भी तो षडज की तरह ही मानव जीवन का "अचल स्वर" है। आइये पढ़ते हैं।

१- अपनी अपनी भूख (लघुकथा)

पिछले कई दिनों से घर में एक अजीब सी हलचल थीI कभी नन्हे दीपू को डॉक्टर के पास ले जाया जाता तो कभी डॉक्टर उसे देखने घर आ जाताI दीपू स्कूल भी नहीं जा रहा थाI घर के सभी सदस्यों के चेहरों से ख़ुशी अचानक गायब हो गई थीI घर की नौकरानी इस सब को चुपचाप देखती रहतीI कई बार उसने पूछना भी चाहा किन्तु दबंग स्वाभाव मालकिन से बात करने की हिम्मत ही नहीं हुईI आज जब फिर दीपू को डॉक्टर के पास ले वापिस घर लाया गया तो मालकिन की आँखों में आँसू थेI रसोई घर के सामने से गुज़र रही मालकिन से नौकरानी ने हिम्मत जुटा कर पूछ ही लिया:
"बीबी जी! क्या हुआ है छोटे बाबू को ?"
"देखती नहीं कितने दिनों से तबीयत ठीक नहीं है उसकी?" मालकिन ने बेहद रूखे स्वर में कहा I
"मगर हुआ क्या है उसको जो ठीक होने का नाम ही नहीं ले रहा?"
"बहुत भयंकर रोग है!" एक गहरी सांस लेते हुए मालिकन ने कहा I
"हाय राम! कैसा भयंकर रोग बीबी जी?" नौकरानी पूछे बिना रह न सकी I
मालकिन ने अपने कमरे की तरफ मुड़ते हुए एक गहरी साँस लेते हुए उत्तर दिया:
"उसको भूख नहीं लगती रीI"
मालकिन के जाते ही अपनी फटी हुई धोती से हाथ पोंछती हुई नौकरानी बुदबुदाई:
"मेरे बच्चों के सिर पर भी अपने बेटे का हाथ फिरवा दो बीबी जी I"
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द्वितीय रचना "सदियों के फासले" - संगीत के दूसरे स्वर "ऋषभ" की तरह। रे स्वर स से ज्यादा तीव्र है, चल स्वर है, इसका कोमल स्वरुप भी है और शुद्ध स्वरुप भी। सर की यह रचना भी दो स्वरुप लिए हुए है। जहाँ एक तरफ देश की तरक्की देख क़र नायक का मन खिल उठा, वहीँ दूसरी तरफ गाँव में प्रवेश करते ही जीर्ण शीर्ण सी इमारत को देखकर वह सन्न रह गया। शहर और गाँव के विकास के अंतर को दर्शाती यह रचना तीव्र चोट कर ही जाती है। आइये पढ़ते हैं।

२- "सदियों के फासले" (लघुकथा)

तक़रीबन २० साल विदेश में रहने के बाद आज वह अपने गाँव जा रहा था। देश की तरक्की देख क़र उसका मन खिल उठा था I जहाँ कभी कुछ भी नहीं हुआ करता था वहीँ भव्य इमारतें, सड़क पर दौड़ती तरह तरह की देसी विदेशी गाड़ियाँ, बिजली की रौशनी से चमचमाते बड़े बड़े मॉल और खूबसूरत सड़कें देख देखकर हैरान भी था और बेहद खुश भी। उसने विदेश में जो भारत के विकास और इक्कीसवीं सदी में प्रवेश की बातें पढ़ीं थीं, वह सब उसके सामने थीं। गाडी अब शहर छोड़ चुकी थी, और इसके साथ ही आसपास की तस्वीर भी बदलने लगी थी I अब टूटे-फूटे धूल भरे रास्तों ने पक्की सड़कों की जगह ले ली थी I गाड़ी धूल उडाती हुई उसके गाँव पहुँच गई, गाँव में प्रवेश करते ही जब उसकी नज़र एक जीर्ण शीर्ण सी इमारत पर पडी तो वह सन्न रह गया। यह वही पाठशाला थी जिसमे वह पढ़ा करता था I बिना छत के बरामदे में ज़मीन पर बैठकर पढ़ रहे बच्चे विकास की एक अलग ही तस्वीर पेश कर रहे थे। उसको इस तरह हैरान परेशान देखकर एक बुज़ुर्ग ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा:
"बेटा ! इक्कीसवीं सदी शहरों से बाहर नहीं निकलती।"
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आपकी तृतीय रचना "एक और पड़ाव" भी संगीत के तीसरे स्वर "गंधार" को ही तो दर्शा रही है। "ऋषभ" से थोड़ी अधिक frequency लिये गंधार हमारे "मणिपुर" चक्र को जागृत करता है। स्व-उर्जा को थोड़ा और ऊँचा ले लेता है, और आत्मशक्ति प्रदान करता है, स्वयं को जानने की शक्ति देता है। इसी तरह इस रचना में स्वयं को प्रकृति के करीब पा कर नायक ने जाना कि कर्मयोगी परिवार से दूर जाने का नाम नहीं है, बल्कि स्वयं को और अपने परिवार को जानने का भी नाम है। आइये पढ़ते हैं।

३- एक और पड़ाव

बहुत बरसों के बाद वह स्वयं को को बहुत ही हल्का हल्का महसूस कर रहा था. न तो उसे सुबह जल्दी उठने की चिंता थी, न जिम जाने की हड़बड़ी और न ही अभ्यास सत्र में जाने की फिकर. लगभग ढाई दशक तक अपने खेल के बेताज बादशाह रहे रॉबिन ने जब खेल से सन्यास की घोषणा की थी तो पूरे मीडिया ने उसकी प्रशंसा में कसीदे पढ़े थे. समूचे खेल जगत से शुभकामनायों के संदेश आए थे. कोई उस पर किताब लिखने की बात कर रहा था तो कोई वृत-चित्र बनाने की. उसकी उपलब्धियों पर गोष्ठियाँ की जा रही थीं. किन्तु वह इन सबसे दूर एक शांत पहाड़ी इलाक़े में अपनी पत्नी के साथ छुट्टियाँ मनाने आया हुया था. इस शांत वातावरण में वह भी पक्षियों की भाँति चहचहा रहा था. हर समय खेल, टीम, जीत के दबाव और सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाला रॉबिन प्राकृतिक नज़रों में खो सा गया था.

"देखो नंदा, ये पहाड़ और झरने कितने सुंदर लग रहे हैं."
"अरे ! आप कब से प्रकृति प्रेमी हो गये?"
"शुरू से ही हूँ जानूँ."
"मगर कभी बताया तो नही अपने इस बारे में."
"ज़िंदगी की आपा धापी नें कभी समय ही नही दिया."
जवाब में नंदा केवल मुस्कुरा भर दी, फिर रॉबिन के चेहरे पर गंभीरता पसरती देख उसने उसने कहा :
"क्या सोच रहे हो?"
"सोच रहा हूँ, क्यों न हम भी महानगर छोड़ कर यहीं आकर बस जाएँ?" नंदा का हाथ मजबूती से थामते हुए कहा.
"मगर हम करेंगे क्या यहाँ?" नंदा के चेहरे पर आश्चर्य के भाव उभर आये थे.
"थोड़ी सी ज़मीन ख़रीदेंगे और उस पर फूलों की खेती करेंगे."
"आपको जो चीफ सेलेक्टर की जॉब ऑफर हुई है, उसका क्या होगा?"
"मैं उनको साफ़ मना कर दूँगा?"
"ऐसा सुनहरी मौका हाथ से जाने देंगे? मगर क्यों ?"
नंदा का चेहरा अपने दोनो हाथों में भरते हुए रॉबिन ने जवाब दिया:
"आज पहली बार गौर किया नंदा क़ि तुम कितनी खूबसूरत हो."
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संगीत का चौथा स्वर है "मध्यम", इस स्वर की विशेषता यह है कि, किसी भी गायन की शुरुआत इस स्वर से करना बहुत कठिन है। इसे ढंग से साधने के बाद ही इसकी मधुरता का अहसास होता है। मध्यम स्वर का कोमल स्वरूप नहीं है, केवल तीव्र और शुद्ध स्वरुप है। और यही तो चौथी रचना "अपने अपने सावन" में दर्शाया गया है। कच्चे घर में परिवार सहित बारिश का सामना करता हुआ गायक, सावन के मस्ती भरे गीत नहीं गा पाया। मध्यम स्वर "अनाहत चक्र" से सम्बन्धित है, जिससे सृजनशीलता बढती है और अविवेक समाप्त होता है। इस रचना में भी यही तो है, सृजनशील नायक का विवेक अपने परिवार के कष्टों से दूर नहीं जा पाया। आइये पढ़ते हैं।

४- अपने अपने सावन
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बारिश थी कि रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। कच्ची छत से पानी की धाराएं निरंतर बह रहीं थीं। टपकते पानी के लिए घर में जगह जगह रखे छोटे बड़े बर्तन भी बार बार भर जाते। उसके बीवी बच्चे एक कोने में दुबके बैठे थे। परेशानी के इसी आलम में कवि सुधाकर टपकती हुई छत के लिए बाजार से प्लास्टिक की तरपाल खरीदने चल पड़ा। चौक पर पहुँचते ही पीछे से किसी ने आवाज़ दी:
"सुधाकर जी, ज़रा रुकिए।" आवाज़ देने वाला उसका एक परिचित लेखक मित्र था।
"जी भाई साहिब, कहिए।"
"अरे भाई कहाँ रहते हैं आजकल? परसों सावन कवि सम्मलेन है। मैं चाहता हूँ कि आप बरसात पर कोई ऐसा फड़कता हुआ गीत पेश करें ताकि लोगबाग मस्ती में झूम उठें।"
सावन और बरसात का नाम सुनते ही घर टपकती हुई छत उसकी आँखों के सामने आ खड़ी हुई, टपकते हुए पानी को संभालने में असमर्थ बर्तन उसे मुँह चिढ़ाने लगे।
"क्या सोच रहे हैं? अरे देश के बड़े बड़े कवियों की मौजूदगी में कवितापाठ करना तो बड़े गर्व की बात है।"
"वो सब तो ठीक है, लेकिन मुझसे झूठ नहीं बोला जाएगा।"
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भारतीय संगीत में पांचवे स्वर का नाम "पंचम" ही रखा गया है, प्रथम स्वर की तरह इसका भी न तो कोमल स्वरूप है और न ही तीव्र स्वरुप - केवल शुद्ध स्वरुप है। अर्थात यह भी अचल स्वर है। इसका प्राणी है - कोयल और चक्र है "विशुद्ध" चक्र - गले में स्थित। कोयल मीठा बोलती है और आदरणीय सर की इस रचना में प्रोड्यूसर अपने स्क्रिप्ट राइटर को मीठा बोलने ही की शिक्षा दे रहा है, लेकिन उसके बोलने का तरीका कडुवा है। विशुद्ध चक्र का जब जागरण होता है, तब गला खराब हो सकता है, लेकिन अंत में मीठा बोलने की क्षमता आ जाती है। यही बात अंत में स्क्रिप्ट राइटर को भी समझ में भी आ जाती है। इसके अलावा "पंचम" अचल स्वर है, प्रोड्यूसर भी यही कह रहा है, कि कहीं भटकने की ज़रूरत नहीं, जो कहा जाये वही करो। अचल रहो। आइये पढ़ते हैं।


५- जमूरे

स्क्रिप्ट के पन्ने पलटते हुए अचानक प्रोड्यूसर के माथे पर त्योरियाँ पड़ गईं, पास बैठे युवा स्क्रिप्ट राइटर की ओर मुड़ते हुए वह भड़का:
"ये तुम्हारी अक्ल को हो क्या गया है?"
"क्या हुआ सर जी, कोई गलती हो गई क्या?" स्क्रिप्ट राइटर ने आश्चर्य से पूछाI
"अरे इनको शराब पीते हुए क्यों दिखा दिया?"
"सर जो आदमी ऐसी पार्टी में जाएगा वो शराब तो पिएगा ही न?"
"अरे नहीं नहीं, बदलो इस सीन कोI"
"मगर ये तो स्क्रिप्ट की डिमांड हैI"
"गोली मारो स्क्रिप्ट कोI यह सीन फिल्म में नहीं होना चाहिएI"
"लेकिन सर नशे में चूर होकर ही तो इसका असली चेहरा उजागर होगाI"
"जो मैं कहता हूँ वो सुनोI ये पार्टी में आएगा, मगर दारू नहीं सिर्फ पानी पिएगा क्योंकि इसे धार्मिक आदमी दिखाना हैI"
"लेकिन ड्रग्स का धंधा करने वाला आदमी और शराब से परहेज़? ये क्या बात हुई?"
"तुम अभी इस लाइन में नए हो, इसको कहते हैं कहानी में ट्विस्टI"
"अगर ये धार्मिक आदमी है तो फिर उस रेप सीन का क्या होगा?"
"अरे यार तुम ज़रुर कम्पनी का दिवाला पिटवाओगेI खुद भी मरोगे और मुझे भी मरवाओगेI ऐसा कोई सीन फिल्म में नहीं होना चाहिएI"
"तो फिर क्या करें?"
"करना क्या है? कुछ अच्छा सोचोI स्क्रिप्ट राइटर तुम हो या मैं? प्रोड्यूसर ने उसे डांटते हुए कहाI
स्क्रिप्ट राइटर कुछ समझने का प्रयास ही कर रहा था कि प्रोड्यूसर स्क्रिप्ट का एक पन्ना उसके सामने पटकते हुए चिल्लाया:
"और ये क्या है? इसको अपने देश के खिलाफ ज़हर उगलते हुए क्यों दिखाया है?"
"कहानी आगे बढ़ाने लिए यह निहायत ज़रूरी है सर, यही तो पूरी कहानी का सार हैI" उसने समझाने का प्रयास कियाI
"सार वार गया तेल लेने! थोडा समझ से काम लो, यहाँ देश की बजाय इसे पुलिस और प्रशासन के ज़ुल्मों के खिलाफ बोलता हुआ दिखाओ ताकि पब्लिक की सिम्पथी मिलेI" प्रोड्यूसर ने थोड़े नर्म लहजे में उसे समझाते हुए कहाI
"नहीं सर! इस तरह तो इस आदमी की इमेज ही बदल जाएगीI एक माफ़िया डॉन जो विदेश में बैठकर हमारे देश की बर्बादी चाहता है, जो बम धमाके करवा कर सैकड़ों लोगों की जान ले चुका है, उसके लिए पब्लिक सिम्पथी पैदा करना तो सरासर पाप हैI" स्क्रिप्ट राइटर के सब्र का बाँध टूट चुका थाI
उसे यूँ भड़कता देख, अनुभवी और उम्रदराज़ अभिनता जो सारी बातें बहुत गौर से सुन रहा था, उठकर पास आया और उसके कंधे पर हाथ रखते हुए धीमे से बोला:
"राइटर साहिब! हमारी लाइन में एक चीज़ पाप और पुण्य से भी बड़ी होती हैI"
"वो क्या?"
"वो है फाइनेंसI फिल्म बनाने के लिए पुण्य नहीं, पैसा चाहिए होता है पैसा! कुछ समझे?"
"समझने की कोशिश कर रहा हूँ सरI" ठंडी सांस लेते हुए उसने जवाब दियाI
सच्चाई सामने आते ही स्क्रिप्ट राइटर की मुट्ठियाँ बहुत जोर से भिंचने लगीं और वहाँ मौजूद हर आदमी अब उसको माफ़िया डॉन का हमशक्ल दिखाई दे रहा है
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योगराज प्रभाकर जी सर द्वारा सृजित छठी रचना है "कसक", आदरणीय सुधीजनों, "धैवत" संगीत का छठा स्वर है, जिसका प्राणी घोड़ा है और चक्र है "त्रिनेत्र"। अश्व के पास गति और शक्ति दोनों होती है, यह रचना भी एक ऐसे अश्व के बारे में बता रही है जो गाँव से शहर पलायन कर गया और कमाना शुरू कर दिया। "त्रिनेत्र चक्र" मानसिक विचारों को दूर तक भेज सकता है और सोचने-समझने की बाह्य और आंतरिक शक्ति प्रदान करता है और इस रचना के अंत में यही है, एक समझ विकसित होती है, //बेटियों को याद करते हुए एक ठण्डी आह भरते हुए वह बोली : "हमसे तो वो ही अच्छा है जी।"//। आइये पढ़ते हैं।


६- कसक
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"ये मिठाई कहाँ से आई जी?" अपने खेत के किनारे चारपाई पर चुपचाप लेटे शून्य को निहारते हुए पति से पूछाI
"अरी, वो गुलाबो का लड़का दे गया था दोपहर को।" उसने चारपाई से उठते हुए उत्तर दियाI
"कौन? वही जो शहर में सब्ज़ी का ठेला लगाता है?"
"हाँ वही! बता रहा था कि अब उसने दुकान खोल ली है, उसकी ख़ुशी में मिठाई बाँट रहा थाI" पति ने मिठाई का डिब्बा उसकी तरफ सरकाते हुए कहाI
"चलो अच्छा हुआI" पत्नी ने चेहरे पर कृत्रिम सी मुस्कुराहट आईI
"वो बता रहा था कि उसने बेटे को भी टैम्पो डलवा दिया है, और बेटी को भी कॉलेज में भर्ती करवा दिया है।"
"अच्छा?"
"हाँ! काफी तरक्की कर गया ये लौंडा शहर जाकरI"
बेमौसम बरसात से उजड़े हुए खेत को निहार, पहाड़ जैसे क़र्ज़ और घर में बैठी दो दो कुँवारी बेटियों को याद करते हुए एक ठण्डी आह भरते हुए वह बोली :
"हमसे तो वो ही अच्छा है जी।"
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सातवीं रचना "केक्टस का फूल", और संगीत का सातवाँ स्वर है - निषाद, सबसे तीव्र फ्रीक्वेंसी वाला स्वर, इसके कोमल और शुद्ध स्वरुप हैं, बिलकुल उसी तरह, जिस तरह केक्टस के फूल होते हैं, कांटेदार शुद्ध स्वरुप में और सौन्दर्य में कोमल स्वरूप में। रचना की नायिका भी ऐसी ही हैं, चेहरे-मोहरे से कोमल स्वरुप में है और अंत में अपने सद्चरित्र का प्रमाण देते हुए, जब रिवॉल्वर की धमकी देती है तो शुद्ध स्वरुप में (कांटेदार) हो जाती है। आइये पढ़ते हैं।

७- केक्टस का फूल

पीली साड़ी वाली वह नवयुवती सभी के आकर्षण का केंद्र बनी हुई थी, पार्टी में सभी की निगाहें उसी पर थींI उसकी माँ अपने ज़माने की सफल और खूबसूरत अभिनेत्री थी, किन्तु वह अपनी माँ से भी सुन्दर थी, I और अब वह भी फ़िल्मी दुनिया में प्रवेश करने की कोशिश कर रही थीI उसके एक युवा गीतकार मित्र एक विख्यात प्रोड्यूसर से उसका परिचय करवाते हुए कहा:
"इनसे मिलिए सर, ये नीला हैंI ये विदेश में थीं, वहीँ से अभिनय सीख कर आई हैंI"
"हेलो!" नीला को सर से पाँव तक उसकी सुन्दरता निहारते हुए उसने कहाI
"सर! ये मशहूर अभिनेत्री सखी जी की बेटी हैंI"
"ओहो! तभी मैं कहूँ कि इसकी शक्ल जानी पहचानी सी क्यों लग रही हैI" सखी का नाम सुनते ही उनके चेहरे पर अजीब सी चमक आ गई थीI
"आपको तो नए लोग मसीहा कहते हैं, इन्हें भी चाँस दीजिये न सर?" गीतकार ने प्रार्थना भरे स्वर में कहाI
"हाँ हाँ क्यों नहींI भाई हम तो इनकी मम्मी के फैन हुआ करते थे किसी ज़माने में, इनको चांस नहीं देंगे तो और किसे देंगेI" चेहरे पर कुटिल मुस्कान लाते हुए उसने कहाI "मेरे बंगले पर तो उनका आना जाना लगा ही रहता थाI" दाईं आँख दबाते हुए उसने कहाI
"ठीक है सर, आप लोग बात कीजिए मैं ज़रा दूसरे दोस्तों से मिलकर अभी हाज़िर होता हूँI" यह कहकर वह दूसरी तरफ बढ़ गयाI
"तो मिस नीला! ऐसा करो कल रात मेरे बंगले पर आ जाओ, वहीँ बैठ कर आराम से बातें करेंगेI इसी बहाने और मेरी नई फिल्म की कहानी सुन लेनाI" प्रोड्यूसर अब नीला के बिल्कुल पास आकर बैठ गयाI
"काम की बातें अगर आपके दफ्तर में की जाएँ तो बेहतर नहीं होगा सर?" प्रोड्यूसर से दूर सरकते हुए नीला ने कहाI
नीला का रूखा सा उत्तर सुनकर प्रोड्यूसर अपनी झेंप छुपाते हुए ढिठाई भरे स्वर में बोला:
"हाँ तो मिस नीला! बताइए क्या पियोगी? स्कॉच, रम या शेम्पेन?"
"जी शुक्रिया! मुझे इन चीज़ों का कोई शौक़ नहींI"
"कमाल है, विदेश से रहकर भी इन चीज़ों से दूर हो? तुम्हारी देसी मम्मी तो अपने बैग में हर वक़्त विदेशी शराब रखा करती थीI"
"जी, मुझे मालूम हैI लेकिन क्या आपको मालूम है कि मैं अपने पर्स में क्या रखती हूँ?" सोफे से उठते हुए नीला ने पुछाI
"क्या?"
बाहर जाने वाले दरवाज़े की तरफ बढ़ते हुए नीला ने उत्तर दिया:
"भरी हुई रिवाल्वरI"
शराब का बड़ा सा गिलास हाथ में पकडे हतप्रभ प्रोड्यूसर नीला को जाते हुए देख रहा थाI एक ही साँस में पूरी शराब गले में उड़ेलकर वह बुदबुदाया:
"ये हरगिज़ फ़िल्म लाइन के लायक़ नहीं है, बेअक्ल सालीI"

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मित्रों, ये थीं रचनाएँ। आप सभी जानते ही हैं कि वीणा एक ऐसा वाद्य है, जो माँ सरस्वती का प्रिय है, जिसे स्वयं भगवान शिव ने पार्वती के देवी स्वरूप को समर्पित किया था। इसके तारों को झंकृत करने पर पुरातन कालीन से लेकर आधुनिक काल तक के संगीत बजाये जा सकते हैं। वीणा की सरंचना के आधार पर कुछ और वाद्य यंत्र भी निर्मित किये गये। 

मेरे अनुसार श्री योगराज प्रभाकर सर द्वारा सृजित लघुकथाएं वीणा की झंकार की तरह ही हैं, जो हम सभी के मन-मस्तिष्क को अपने तारों के कम्पन के द्वारा झंकृत कर जाती हैं। उन्हीं तरंगों को मैनें अपने शब्दों में कहने का प्रयास किया है। हालाँकि सच तो यह है कि लघुकथा के "वीणावरदंडमंडितकरा" - योगराज प्रभाकर जी सर की किसी भी रचना के लिये कहना मेरे सामर्थ्य से बाहर है।

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी



मंगलवार, 11 जून 2019

लघुकथा: मंगलसूत्र | डॉ. संतोष श्रीवास्तव | समीक्षा: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

आज फेसबुक पर वरिष्ठ लघुकथाकार डॉ. बलराम अग्रवाल जी ने स्त्री के सशक्त रूप की एक अद्भुत लघुकथा साझा की। डॉ. संतोष श्रीवास्तव जी द्वारा सृजित यह लघुकथा एक स्त्री के चार रूप दिखाने में सक्षम है। पहला रूप वह स्त्री अपने शराबी पति से रोज़ मार खाती एक अबला का, दूसरा रूप अपने बच्चों का पालन-पोषण कर रही माँ अन्नपूर्णा सरीखी, तीसरा रूप जो इसमें बताया गया वह यह है कि वह किसी की दया पर ज़िंदा नहीं रहना चाहती और चौथा रूप जिस पर इस लघुकथा का शीर्षक टिका' है वह है - अंदर ही अंदर स्वयं को जलाती हुई एक स्त्री अब स्वतंत्रता की हवा में सांस ले पा रही है।

शराबी पति-मारपीट-खुद घर चलाना आदि पुराने विषय हैं लेकिन एक अर्थहीन पति की पत्नी की बजाय वह विधवा स्वयं को पहले से ठीक महसूस कर रही है, यहाँ लेखिका ने लघुकथा में जो शब्द कहे हैं कि "भोत चुभता था ताई मंगलसूत्र!", यह पढ़ते ही ना केवल दिल से आह बल्कि लेखिका के लेखन कौशल से वाह भी बरबस निकल जाता है।

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

अद्भुत पंच पंक्ति लिए यह लघुकथा श्रेष्ठ हिन्दी लघुकथाओं में से एक है। आइए पढ़ते हैं:

रविवार, 9 जून 2019

लघुकथा दुनिया ब्लॉग iBlogger की Best Hindi Literature Blogs सूची में शामिल

आदरणीय मित्रों,

यह अत्यंत हर्ष का विषय है कि लघुकथा दुनिया ब्लॉग को iBlogger द्वारा Best Hindi Literature Blogs सूची में शामिल किया गया है। आप सभी लघुकथा प्रेमियों के सहयोग से ही यह संभव हो पाया। लघुकथाओं पर आधारित यह प्रथम ब्लॉग है जिसे इस सूची में स्थान मिला।

iBlogger



Source:
https://www.iblogger.prachidigital.in/top-indian-blogs/literature-blogs/

लघुकथा-कलश तृतीय महाविशेषांक पर मेरे विचार

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फेसबुक समूह साहित्य संवेद पर आयोजित परिचर्चा

लघुकथा-कलश तृतीय महाविशेषांक पर विभा रानी श्रीवास्तव जी की समीक्षा से प्रारम्भ करना चाहूँगा, आपके शब्दों मे, "लघुकथा-कलश के तीसरे महाविशेषांक का अध्ययन करने में मुझे लगभग तीन माह से अधिक का समय लगा।" मेरे अनुसार भी इतना धैर्य और इच्छा शक्ति होनी चाहिए, तब जाकर समीक्षा में सत्य का तड़का और तथ्यों के मसाले का सही अनुपात आ सकता है। साहित्यिक परिचर्चा समीक्षा से थोड़ा सा फर्क रखती है। ईमानदार समीक्षा के लिए पुस्तक का पूरा अध्ययन चाहिए लेकिन किसी परिचर्चा में भाग लेने के लिए पूरा अध्ययन उचित ज्ञान सहित चाहिए। पता नहीं सामने वाला कौनसी किताब का कौनसा पृष्ठ पढ़ कर आया हो और कौनसी बात पूछ ले? तब परिचर्चा में भाग लेने व्यक्ति अतिरिक्त सजग हो कुछ अधिक अध्ययन कर लेता है। हालांकि परिचर्चा करने से समीक्षा का महत्व समाप्त नहीं हो जाता। इस परिचर्चा से पूर्व भी Virender Veer Mehta वीरेन्द्र वीर मेहता भाई जी ने "लघुकथा कलश" पर समीक्षा लेखन का आयोजन किया था, जिसमें बहुत अच्छी समीक्षाएं भी आईं। मैंने वे सारी समीक्षाएं पढ़ीं भी थीं और उनमें ईमानदारी का तत्व ढूँढने का प्रयास भी किया। मुझे लगता है कि मैं असफल नहीं हुआ - समीक्षाएं भी असफल नहीं हुईं। ईमानदार समीक्षा के बाद उन पर स्वस्थ परिचर्चा मेरे अनुसार एक कदम आगे बढ़ना है। अतः सबसे पहले मैं समूह के प्रशासकों को बधाई देना चाहूँगा कि एक महत्वपूर्ण परिचर्चा का आयोजन आपने किया। न केवल किया बल्कि एक विशिष्ट प्रारूप भी तय किया जो कि आप सभी की चिंतनशीलता और गंभीरता का परिचायक है। ऐसे प्रारूप परिचर्चा की दिशा तय करते हैं। मैं भी अपने अनुसार इन प्रश्नों के उत्तर देने का प्रयास कर रहा हूँ।

प्रस्तुत लघुकथा संग्रह की बेहतरी हेतु आप क्या सुझाव देना चाहेंगे?
एक उदाहरण से प्रारम्भ करूंगा हमारे प्राचीन वेदों में निहित ज्ञान काफी समृद्ध है। ऋग्वेद के बाद यजुर्वेद, जिसके बाद शुक्ल और कृष्ण यजुर्वेद लिखे/कहे गए – फिर सामवेद और अथर्ववेद की रचना हुई। इनमें से कौनसा वेद बेहतर है और कौनसा वेद बेहतर हो सकता है वह बताना हर युग में असंभव ही रहा। लघुकथा कलश केवल एक पत्रिका ही नहीं बल्कि लघुकथा के एक ग्रंथ समान है। हर अंक समृद्ध ज्ञान से भरपूर और अगला अंक नए ज्ञान के साथ। एक विद्यार्थी अपनी कोर्स की पुस्तकों में भाषा-वर्तनी की कुछ छोटी-मोटी गलतियां निकाल सकता है लेकिन उससे पुस्तक का मूल भाव – उसमें निहित ज्ञान बेहतर नहीं हो सकता। ऐसे ही एक विद्यार्थी रूप में मैं स्वयं को इसकी बेहतरी के लिए बताने योग्य नहीं समझता।

हालांकि एक बात और भी है, वेदों के चार भागों में से चौथा और अंतिम भाग उपनिषद है, जिन्हें वेदान्त कहा गया और जो वेद के मूल रहस्यों को बताते हैं। इस ग्रंथ “लघुकथा कलश” के लिए उपनिषद लेखन कर हर विशेषांक का एक सार (मूल दर्शन) किसी छोटी पुस्तक (मोनोग्राफ) के रूप में लिखा जाये तो वह लघुकथा विधा के विकास में भी सहायक हो सकता है।

लघुकथाओं में निहित उद्देश्य समाज के लिए किस तरह लाभदायक हैं?
वेदों की ही बात करें तो यजुर्वेद के तैत्तिरीय उपनिषद में शिक्षावल्ली के एक मंत्र का अनुवाद है, “सत्य बोलो, धर्म के अनुसार आचरण करो, अध्ययन से प्रमाद मत करो”। इस वाक्य को लघुकथा से जोड़ें तो लघुकथा आज के समय के सत्य – समय/परिस्थिति/स्थान पर आधारित धर्म को दर्शाते हुए अध्ययन हेतु ऐसी सामग्री प्रदान करे जो प्रमाद से बची रहे – ना तो साहित्यकार प्रमाद करे और ना ही पाठक। साहित्य का अर्थ समाज के हित से ही जुड़ा हुआ है, तब लघुकथाएं इससे अछूती कैसे रह सकती हैं? हालांकि लघुकथाओं का शिल्प कैसा भी हो उसे वह विषय उठाने चाहिए जो सामयिक हों अथवा जिनका भविष्य में कुछ परिणाम हो। ऐसी लघुकथाएं जो काल-कालवित हो चुके विषयों पर आधारित हों, मेरे अनुसार अर्थहीन हैं। लघुकथा कलश के इसी अंक में विशिष्ट लघुकथाकार महेंद्र कुमार जी की रचना पढ़िये “ज़िंदा कब्रें”। कोई भी संजीदा पाठक पढ़ कर कह उठेगा वाह। तथाकथित इतिहास को लेकर प्रगतिशील विचारधारा को रोकने जैसे सामयिक विषय पर बेहतरीन रचना है यह। लेकिन इस तरह की रचनाओं को आम पाठक वर्ग में स्थान पाना मुश्किल हो जाता है क्योंकि पाठकों में चिंतन करने की अनिच्छा है, वे या तो भावुक करती रचनाएँ चाहते हैं अथवा मनोरन्जन हेतु समय काटने के लिए पढ़ते हैं। लघुकथा का मूल उद्देश्य (समाज का हित) शून्य तो नहीं लेकिन फिर भी पाठकों की कमी के कारण पूरी तरह पूर्ण नहीं हो पा रहा। केवल समाचारपत्रों से बाहर आकर पाठकों को भी अच्छी पुस्तकें, चाहे वे ऑनलाइन ही क्यों न हों, पढ़नी चाहिए, तब जाकर ये समाज के लिए कुछ लाभदायक हो सकेंगी। रीडिंग हैबिट कुछ वर्षों से कम हुई है।

क्या लघुकथाओं का वर्तमान स्वरूप संतोषजनक है?
कहीं पढ़ा था,
संतोष का एक अलग ही पढ़ा पाठ गया,
मुस्कुराता हुआ बच्चा एक रोटी चार लोगों में बाँट गया।
वह बच्चा तो संतुष्ट था कि उसने चार लोगों की भूख मिटाई लेकिन उन चारों की भूख की संतुष्टि? यही साहित्य का हाल है। हालांकि मैं अपनी बात कहूँ तो मैंने आज तक एक भी लघुकथा ऐसी नहीं कही, जिससे मैं स्वयं पूरी तरह संतुष्ट हो पाया, लेकिन सच्चाई यह है कि सबसे पहले लेखकीय संतुष्टि ज़रूरी है। लघुकथाकार जिस उद्देश्य को लेकर लिख रहे हैं वह उद्देश्य उनकी नज़रों में पूर्ण होना आवश्यक है। लेखक और पाठक के बीच सम्प्रेषण की दूरी ना रहे। बाकी मान कर चलिये चार के चार लोग आपसे कभी भी संतुष्ट नहीं होंगे। हर-एक की भूख अलग-अलग है।

लघुकथा का इतिहास लगभग 100 साल पुराना है क्या आप वर्तमान स्वरूप उससे भिन्न पाते हैं?
मुझे फिर महेंद्र कुमार जी की रचना याद आई। इतिहास की तुलना में हमारा वर्तमान प्रगतिशील रहे यही उत्तम है। एक उद्धरण है – “अपनी आँखेँ अपने भविष्य में रखिए, अपने पैर वर्तमान में लेकिन अपने हाथों में अपना अतीत संभाल कर रखिए।“ अतीत से जो कुछ सीखना चाहिए वो अपने हाथों अर्थात कर्मों में होना चाहिए और यही अतीत में जो हम हारें हैं उससे जीत प्राप्त करना है। इतिहास और प्रगतिशीलता की बात करें तो गांधी जी की भी याद आती है – पतंजलि के अष्टांग योग के आठ अंगों में से पहला अंग है यम जिसके पाँच प्रकार हैं और इसका पहला प्रकार है –अहिंसा। अष्टांग योग का आठवाँ और अंतिम अंग है समाधि अर्थात ईश्वर प्राप्ति। अर्थात मूल विचार यह है कि अहिंसा से प्रारम्भ कर हमें यह योग ईश्वर प्राप्ति तक ले जाता है। यही बात भगवान बुद्ध ने भी अपनाई लेकिन गांधी जी ने अहिंसा को अंग्रेजों को भगाने की रणनीति बनाया। यह एक प्रयोग था – उस समय के इतिहास से काफी भिन्न। भगवान कृष्ण ने भी अतीत की कई अवधारणाओं को बदला उदाहरणस्वरूप इन्द्र की बजाय गोवर्धन की पूजा आदि। “लघुकथा कलश” के इसी अंक में भी डॉ. पुरुषोत्तम दुबे जी का आलेख “लघुकथा कितनी पारंपरिक कितनी आधुनिक” को पढ़ें, तो वे बताते हैं कि “आधुनिक लघुकथाएं भाषा, शिल्प, विषय-वस्तु आदि की दृष्टि से पारंपरिक लघुकथाओं से भिन्न हो सकती हैं लेकिन समाज में व्याप्त भदेस या कहें प्रदूषण के निराकरण का उद्देश्य तो दोनों ही का एक है।“ इसी विशेषांक में ही डॉ. रामकुमार जी घोटड़ ने भी अपने आलेख ‘द्वितीय हिन्दी लघुकथा-काल’ द्वारा 1921-1950 के मध्य की लघुकथाओं पर बात की है। आज की रचनाओं से डॉ. रामकुमार जी घोटड़ द्वारा बताई रचनाओं की तुलना करें तो डॉ. पुरुषोत्तम दुबे जी की बात की सत्यता स्वतः प्रमाणित हो जाती है।
एक अन्य बात जो मुझे प्रतीत हो रही है वह इस प्रश्न में निहित है। 100 वर्ष कहना क्या उचित है? पौराणिक कथाओं पंचतंत्र, बेताल बत्तीसी आदि में निहित छोटी-छोटी रचनाओं का उनके रचनाकाल के संदर्भ में विश्लेषण करें तो हो सकता है यह वर्ष बदला जाये। मैं गलत भी हो सकता हूँ लेकिन फिलहाल संतुष्ट नहीं हूँ।

लघुकथा को मानक के अनुसार ही होना चाहिए या आवश्यकतानुसार?
मेरा मानना है कि यदि मानक निर्धारित हैं तो मानकों में फिट होना ही चाहिए। नए प्रयोग भी ज़रूरी हैं जो नए मानकों का निर्धारण करते हैं। पूर्व के प्रश्न में मैंने बेताल बत्तीसी का उदाहरण दिया था, उन बत्तीस की बत्तीस रचनाओं का अंत एक प्रश्न छोड़ जाता, जैसे हम आज की बहुत सारी लघुकथाओं में भी पाते हैं। उस प्रश्न का उत्तर रचना में नहीं होता लेकिन राजा विक्रमादित्य उस प्रश्न का उत्तर देते। यह राजा के मुंह से कहलाया गया अर्थात श्रोता (पाठक) ने उत्तर बताया – रचना ने नहीं। ढूँढने पर बेताल बत्तीसी में ऐसे और भी ताल हमें मिल जाएँगे जो किसी मानक पर आधारित हैं। हालांकि बिना शोध किये कहना गलत ही होगा लेकिन फिर भी मुझे यह भी लगता है कि किसी श्रोता (पाठक) द्वारा उत्तर बताया जाना सर्वप्रथम यहीं से प्रारम्भ हुआ होगा। ऐसे प्रयोग ही मानकों का निर्धारण खुद ही कर लेते हैं।

प्रस्तुत संग्रह में आपको किस लघुकथा/आलेख/साक्षात्कार ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया और क्यों?
एक से बढ़कर एक लघुकथाएं, आलेख, साक्षात्कार, समीक्षाएं होने पर ऐसे प्रश्न पर कुछ कहना मुश्किल हो जाता है फिर भी मैं अपनी पसंद की बात कह सकता हूँ। महेंद्र कुमार जी की लघुकथा का जिक्र मैं दो बार कर ही चुका हूँ। इसके साथ मुझे ही नहीं लगभग सभी पाठकों को संपादकीय बहुत अच्छा और ज्ञानवर्धक प्रतीत हुआ है। मेरे अनुसार निशांतर जी का आलेख “लघुकथा: रचना-विधान और आलोचना के प्रतिमान” भी ऐसा है कि आने वाले समय में इस आलेख का महत्व बहुत अधिक होगा। रवि प्रभाकर जी की समीक्षा के विस्तार और अशोक भाटिया जी की समीक्षा की गूढ़ता हमेशा की तरह बहुत प्रभावित किया। बाकी लघुकथाओं पर कहना इस तरह का है जैसे समुद्र में निहित प्राकृतिक संपदा के बारे में बात करना। इतनी अधिक मात्रा में और विभिन्न प्रकार कि गुणवत्ता आधारित है कि हर एक रचना पर बहुत कुछ कहा जा सकता है। यहाँ भाई Rajnish Dixit जी को मैं साधुवाद दूँगा कि उन्होने लघुकथा कलश के विशेषांकों की एक-एक रचना पर बात करने की पहल की जो अपने आप में अनूठा और विशिष्ट कार्य है।

किसी लघुकथा को बेहतर बनाये जाने हेतु आप क्या सुझाव देना चाहेंगे?
कुछ लघुकथाओं में शीर्षक पर कार्य किया जा सकता है। हालांकि ज्ञानवर्धक आलेखों से समृद्ध लघुकथा कलश के तीनों अंकों को अच्छी तरह पढ़ें तो मेरा मानना है कि बेहतरी स्वतः ही ज्ञात हो सकती है।

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

शनिवार, 8 जून 2019

आलेख: लघुकथा समीक्षा भाग-1 | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

हमारे देश में बहुत सारे शिक्षण संस्थान हैं। उनमें से कई संस्थान विशिष्ट भी हैं जैसे केंद्रीय विद्यालय, आईआईटी, एनआईटी, आईआईएम, आईआईआईटी, आदि। इन संस्थानों के अतिरिक्त कई संस्थाएं भी हैं जो अति विशिष्ट की श्रेणी में आती हैं उनके नामों का उल्लेख करें तो आई-ट्रिपल-ई, सीएसआई, आईएमएस, आदि। हालांकि अभी मुझे जो बात कहनी है उसके मद्देनजर श्रेणियाँ अभी खत्म नहीं हुई। इनके आगे कई सरकारी संस्थान हैं यथा डीएसटी, आईसीएसएसआर, आईसीएआर, एआईसीटीआई आदि-आदि। इन सभी पर नियंत्रण के लिए भी यूजीसी है, बोर्ड्स हैं और सबसे ऊपर मानव संसाधन विकास मंत्रालय है। यह वर्गीकरण मैंने अनुक्रम में नहीं किया है लेकिन फिर भी एक बात जो सबसे ज़रूरी है कि इतनी विशाल सरंचना और बुद्धिजीवियों से भरपूर हजारों समितियों के बावजूद भी हमारे देश के विश्वविद्यालय दुनिया के प्रथम 200 में भी स्थान नहीं रखते। (Source: https://www.timeshighereducation.com/student/best-universities/best-universities-world)। यह हमारी शिक्षा नीति की विफलता है या फिर हमारी अपनी, यह जानना भी ज़रूरी है। मैंने कितने ही आचार्यों को देखा है कि पीएचडी शोध ग्रंथ का मूल्यांकन करते समय केवल उसकी अनुक्रमणिका को ही पढ़ कर विवरण बना लेते हैं। यह दुख का विषय है कि ईमानदारी की कमी है, जिससे हम वैश्विक स्तर पर पिछड़ रहे हैं। साथ ही यह भी दुख का विषय है कि बहुत सारी साहित्यिक समीक्षाएं भी अनुक्रमणिका को देख कर लिख लेने का सामर्थ्य भी कितने ही साहित्य के आचार्यों में है। एक पत्रिका की समीक्षा लिखने से पूर्व उस पत्रिका को पूरा पढ़ना फिर समझना और आत्मसात करना आवश्यक है लेकिन कई बार समीक्षाएं पढ़ कर ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ भी ईमानदारी की कमी है - लिखना जो ज़रूरी है। "लघुकथा कलश" नामक एक पत्रिका की समीक्षा करते समय ‘विभा रानी श्रीवास्तव’ जी के शब्दों मे, "लघुकथा-कलश के तीसरे महाविशेषांक का अध्ययन करने में मुझे लगभग तीन माह से अधिक का समय लगा।" मेरे अनुसार भी इतना धैर्य, संयम और इच्छा शक्ति होनी चाहिए, तब जाकर समीक्षा में सत्य का तड़का और तथ्यों के मसाले का सही अनुपात आ सकता है। एक लघुकथा लिखने में कई जितने समय की आवश्यकता होती है उसे पढ़ कर समीक्षा करने के लिए कितने अध्ययन की आवश्यकता होगी? मेरे अनुसार यह एक विचारणीय प्रश्न है। हाँ! हम हमारी पाठकीय प्रतिक्रिया तो तुरंत दे सकते हैं।

क्रमशः

शुक्रवार, 7 जून 2019

परिंदों को मिलेगी मंज़िल यक़ीनन | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

समीक्षा: परिंदे पत्रिका "लघुकथा विशेषांक"


पत्रिका : परिंदे (लघुकथा केन्द्रित अंक) फरवरी-मार्च'19
अतिथि सम्पादक : कृष्ण मनु
संपादक : डॉ. शिवदान सिंह भदौरिया
79-ए, दिलशाद गार्डन, नियर पोस्ट ऑफिस,
दिल्ली- 110095,
पृष्ठ संख्या: 114
मल्य- 40/-

वैसे तो हर विधा को समय के साथ संवर्धन की आवश्यकता होती है, लेकिन लघुकथा एक ऐसी क्षमतावान विधा बन कर उभर सकती है जो स्वयं ही समाज की आवश्यकता बन जाये, इसलिए इसका विकास एक अतिरिक्त एकाग्रता मांगता है। हालांकि इस हेतु न केवल नए प्रयोग करना बल्कि इसकी बुनियादी पवित्रता का सरंक्षण भी ज़रूरी है। विधा के विकास के साथ-साथ बढ़ रहे गुटों की संख्या, आपसी खींचतान में साहित्य से इतर मर्यादा तोड़ते वार्तालाप आदि लघुकथा विधा के संवर्धन हेतु चल रहे यज्ञ की अग्नि में पानी डालने के समान हैं

कुछ ऐसी ही चिंता वरिष्ठ लघुकथाकार कृष्ण मनु जी व्यक्त करते हैं अपने आलेख "तभी नई सदी में दस्तक देगी लघुकथा" में जो उन्होने बतौर अतिथि संपादक लिखा है परिंदे पत्रिका के "लघुकथा विशेषांक" में। अपने ग्यारहवें वर्ष में प्रवेश करती हुई परिंदे पत्रिका ने साहित्य की सड़कों पर लगातार बढ़ रहे लघुकथाओं के छायादार वृक्षों द्वारा अन्याय-विसंगति आदि की तपाती हुई धूप में भी प्रज्ज्वलित चाँदनी का एहसास करा पाने की क्षमता को समझ कर इस विशेषांक का संकल्प लिया होगा और उसे मूर्त रूप भी दे दिया और यही संदेश मैंने पत्रिका के आवरण पृष्ठ से भी पाया है।

अपने आलेख में कृष्ण मनु जी ने कुछ बातें और भी ऐसी कही हैं, उदाहरणस्वरूप, "विषय का चयन न केवल सावधानी पूर्वक होना चाहिए बल्कि जो भी विषय चुना हो चाहे वह पुराना ही क्यों न हो उस पर ईमानदारी से प्रस्तुतीकरण में नयापन हो - कथ्य में ताज़गी हो।", "लघुकथा के मूल लाक्षणिक गुणों को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए।", आदि।

यहाँ मैं एक श्लोक उद्धृत करना चाहूँगा,
“स्वभावो नोपदेशेन शक्यते कर्तुमन्यथा।
सुतप्तमपि पानीयं पुनर्गच्छति शीतताम्॥
अर्थात किसी व्यक्ति को आप चाहे कितनी ही सलाह दे दो किन्तु उसका मूल स्वभाव नहीं बदलता ठीक उसी तरह जैसे ठन्डे पानी को उबालने पर तो वह गर्म हो जाता है लेकिन बाद में वह पुनः ठंडा हो जाता है।“

यही बात लघुकथा पर भी लागू होती है और इस पत्रिका के अतिथि संपादक के लेख के अनुसार भी लघुकथा के मूल गुणों को सदैव लघुकथा में होना चाहिए अर्थात प्रयोग तो हों लेकिन मूलभूत गुणों से छेड़खानी ना की जाये, पानी को उबालेंगे तो वह गरम होकर ठंडा होने की प्रकृति तो रखता ही है लेकिन यदि पानी में नमक मिला देंगे तो वह खारा ही होगा जिसे पुनः प्रकृति प्रदत्त पानी बनाने के लिए मशीनों का सहारा लेना होगा हालांकि उसके बाद भी प्राकृतिक बात तो नहीं रहती। शब्दों के मूल में जाने की कोशिश करें तो अपनी यह बात श्री मनु ने कहीं-कहीं लेखन की विफलता को देखते हुए ही कही है, जिसे लघुकथाकारों को संग्यान में लेना चाहिए।

1970 से 2015 के मध्य अपने लघुकथा लेखन को प्रारम्भ करने वाले 63 लघुकथाकारों की प्रथम लघुकथा और एक अन्य अद्यतन लघुकथा (2018 की) से सुसज्जित परिंदे पत्रिका के इस अंक में प्रमुख संपादक डॉ. शिवदान सिंह भदौरिया जी स्वच्छता पर अपने संपादकीय में न केवल देश में स्वच्छता की आवश्यकता पर बल दिया है बल्कि जागरूक करते हुए कुछ समाधान भी सुझाए हैं। हालांकि उन्होने लघुकथा पर बात नहीं की है लेकिन फिर भी स्वच्छता पर ही जो कुछ उन्होने लिखा है, उस पर लघुकथा सृजन हेतु विषय प्राप्त हो सकते हैं।

पत्रिका के प्रारम्भ में अनिल तिवारी जी द्वारा लिए गए दो साक्षात्कार हैं - पहला श्री बलराम का और दूसरा श्री राम अवतार बैरवा का। दोनों ही साक्षात्कार पठन योग्य हैं और चिंतन-मनन योग्य भी।

सभी लघुकथाओं से पूर्व लघुकथाकार का परिचय दिया गया है, जिसमें एक प्रश्न मुझे बहुत महत्वपूर्ण प्रतीत हुआ - "लघुकथा आपकी प्रिय विधा क्यों है?" यह प्रश्न लघुकथा पर शोध कर रहे शोधार्थियों के लिए निःसन्देह उपयोगी है और यह प्रश्न पत्रिका के इस अंक का महत्व भी बढ़ा रहा है।

इस पत्रिका में दो तरह की लघुकथाएं देने का उद्देश्य मेरे अनुसार यह जानना है कि लघुकथा विधा में एक ही साहित्यकार के लेखन में कितना परिवर्तन आया है? केवल नवोदित ही नहीं बल्कि वरिष्ठ लघुकथाकारों में से भी कुछ लेखक जो चार-पाँच पंक्तियों में लघुकथा कहते थे, समय के साथ वे न केवल शब्दों की संख्या बढ़ा कर भी कथाओं की लाघवता का अनुरक्षण कर पाये बल्कि अपने कहे को और भी स्पष्ट कर पाने में समर्थ हुए हालांकि इसके विपरीत कुछ रचनाकार ऐसे भी हैं जो लघुकथा के अनुसार अधिक शब्दों में लिखते हुए कम (अर्थाव लाघव) की तरफ उन्मुख हुए। कुल मिलाकर यह स्पष्ट है कि सामान्यतः परिपक्वता बढ़ी है और बढ़नी चाहिए भी।

एक और विशिष्ट बात जो मुझे प्रथम और अद्यतन लघुकथाओं को पढ़ते हुए प्रतीत हुई, वह यह कि समय के साथ लघुकथाकारों ने शीर्षक पर भी सोचना प्रारम्भ कर दिया है जो कि लघुकथा लेखन में हो रहे परिष्करण का परिचायक है।

पत्रिका की छ्पाई गुणवत्तापूर्ण है, लघुकथाओं में भाषाई त्रुटियाँ भी कम हैं जो कि सफल और गंभीर सम्पादन की निशानी है। कुल मिलाकर यह एक संग्रहणीय अंक है और मैं आश्वस्त हूँ कि साहित्य, संस्कृति एवं विचार के इस द्वेमासिक के परिंदों को मिलेगी मंज़िल यक़ीनन, ये फैले हुए उनके पर बोलते हैं

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी