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शुक्रवार, 19 नवंबर 2021

मेरी एक लघुकथा "मेरा घर छिद्रों में समा गया" focus24news में

 

मेरा घर छिद्रों में समा गया / डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी 

माँ भारती ने बड़ी मुश्किल से अंग्रेज किरायेदारों से अपना एक कमरे का मकान खाली करवाया था। अंग्रेजों ने घर के सारे माल-असबाब तोड़ डाले थे, गुंडागर्दी मचा कर खुद तो घर के सारे सामानों का उपभोग करते, लेकिन माँ भारती के बच्चों को सोने के लिए धरती पर चटाई भी नसीब नहीं होती। खैर, अब ऐसा प्रतीत हो रहा था कि सब ठीक हो जायेगा।
लेकिन…
पहले ही दिन उनका बड़ा बेटा भगवा वस्त्र पहन कर आया साथ में गीता, रामायण, वेद-पुराण शीर्षक की पुस्तकें तथा भगवान राम-कृष्ण की तस्वीरें लाया।
उसी दिन दूसरा बेटा पजामा-कुरता और टोपी पहन कर आया और पुस्तक कुरान, 786 का प्रतीक, मक्का-मदीना की तस्वीरें लाया।
तीसरा बेटा भी कुछ ही समय में पगड़ी बाँध कर आया और पुस्तकें गुरु ग्रन्थ साहिब, सुखमणि साहिब के साथ गुरु नानक, गुरु गोविन्द की तस्वीरें लाया।
और चौथा बेटा भी वक्त गंवाएं बिना लम्बे चोगे में आया साथ में पुस्तक बाइबल और प्रभु ईसा मसीह की तस्वीरें लाया।
चारों केवल खुदकी किताबों और तस्वीरों को घर के सबसे अच्छे स्थान पर रख कर अपने-अपने अनुसार घर बनाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने आपस में लड़ना भी शुरू कर दिया।
यह देख माँ भारती ने ममता के वशीभूत हो उस एक कमरे के मकान की चारों दीवारों में कुछ ऊंचाई पर एक-एक छेद करवा दिया। जहाँ उसके बेटों ने एक-दूसरे से पीठ कर अपने-अपने प्रार्थना स्थल टाँगे और उनमें अपने द्वारा लाई हुई तस्वीरें और किताबें रख दीं।
वो बात और है कि अब वे छेद काफी मोटे हो चुके हैं और उस घर में बदलते मौसम के अनुसार बाहर से कभी ठण्ड, कभी धूल-धुआं, कभी बारिश तो कभी गर्म हवा आनी शुरू हो चुकी है… 
और माँ भारती?... 
अब वह दरवाज़े पर टंगी नेमप्लेट में रहती है।


सोमवार, 4 अक्तूबर 2021

मेरी नजर में | लघुकथा संग्रह ‘फिर वही पहली रात’ | संग्रह लेखक: कीर्तिशेष श्री विजय ‘विभोर’ | समीक्षक: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

"साहित्य का कर्तव्य केवल ज्ञान देना नहीं है, परंतु एक नया वातावरण प्रदान करना भी है।" अपने इन शब्दों द्वारा डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन क्या कहना चाह रहे हैं यह तो स्पष्ट है, साथ ही इस वाक्य पर थोड़े से मनन के पश्चात् समझ में आता है कि यह पंक्ति एक भाव यह भी रखती है कि साहित्य का कार्य छोटी से बड़ी किसी भी समस्या के ताले की चाबी बनना हो न हो वर्तमान युग के अनुसार एक ऐसा वातावरण तैयार करना है ही, जो हमारे मन-मस्तिष्क के द्वार खटखटाने में सक्षम हो। चूँकि लघुकथा सीमित शब्दों में अपने पाठकों को दीर्घ सन्देश देने में भी सक्षम है, अतः ऐसे वातावरण का निर्माण करने में लघुकथा का दायित्व अन्य गद्य विधाओं से अधिक स्वतः ही हो जाता है।

उपरोक्त कथन को मूर्तिमंत करते लघुकथा के कर्म, चरित्र और मूल वस्तु से परिचय कराता, सुरुचिपूर्ण, सकारात्मक, सार्थक और प्रेरणास्पद लेखन का एक उदाहरण है श्री विजय ‘विभोर’ का लघुकथा संग्रह 'फिर वही पहली रात'। मानवीय चेतना के शुद्ध रूप के दर्शन करने को प्रोत्साहित करती श्री विभोर की लघुकथाएं स्पष्ट सन्देश प्रदान करने में समर्थ हैं। मौजूदा समय का मूलभूत अनिवार्य मंथन भी इन रचनाओं में सहज भावों के माध्यम से परिलक्षित होता है। उदाहरणस्वरूप पति-पत्नी के सम्बन्ध विच्छेद की बढ़ती घटनाओं कम करने का प्रयास करती लघुकथा ‘आदत’, मानवीय प्रेम का सन्देश देती 'कनागत, ‘मजबूरी’, आदि रचनाओं में चेतना जागरण, नैतिक मूल्य, मानवता, नारी-स्वातंत्र्य, सामाजिक दशा, कर्तव्य परायणता और मानवीय उदात्तता जैसे बहुआयामी और समसामयिक विषयों पर लेखक ने बड़ी प्रवीणता-कुशलता से सृजन किया है।

लेखन ऐसा होना चाहिए जो न सिर्फ काल की वर्तमानता को दर्शाये बल्कि आने वाली शताब्दी तक की चुनौतियों पर खरा उतरने वाला हो। आदमीयत की गायब होती परिपूर्णता को शब्दों से उभार सके तथा सच व झूठ के टुकड़ों में बंटे हुए मनुष्य को आत्मिक चेतना तक का अनुभव करवा सके। अष्टछाप के प्रसिद्ध कवि कुम्भनदास को एक बार अकबर ने फतेहपुर सीकरी आमंत्रित किया था, कुम्भनदास ने उस आमंत्रण को अस्वीकार करते हुए कहा कि "सन्तन को कहा सीकरी सों काम।" सच्चे साहित्यकार संत की तरह होते हैं। ज़्यादातर इतिहासकारों ने शासकों की अयोग्यता को भी जय-जयकार में बदला है लेकिन अधिकतर साहित्यकारों ने नहीं। इस संग्रह की ‘जीवन जीर्णोद्धार’, ‘अन्नदाता’, ‘फैसले’, ‘बदलाव’ जैसी रचनाएँ साहित्यकार के इस धर्म का पालन करती हैं। लेखन सम्बन्धी विसंगतियां उठाती इस संग्रह की 'कुल्हड़ में हुल्लड़' भी एक विचारणीय रचना है।

पुरातन साहित्य में दर्शाया गया है कि वाराणसी के निवासी शौच करने भी 'उस पार' जाते थे। गंगा में नहाते समय अपने कपडे घाट पर निचोड़ते थे, नदी में नहीं। पौराणिक युगीन साहित्य में यह भी कहा गया कि “नमामी गंगे तव पाद पंकजं सुरासुरैर्वदित दिव्यरूपम्। भुक्ति चमुक्ति च ददासि नित्यं भावनसारेण सदानराणाय् ।।“ ऐसे विचार पढ़ने पर यह सोच स्वतः ही जन्म लेती है कि साहित्यकारों के कहे पर यदि देश चलता तो शायद गंगा कभी प्रदूषित होती ही नहीं और विस्तृत सोचें तो केवल जल प्रदूषण ही नहीं, कितनी ही और विडंबनाओं से बचा जा सकता था। प्रस्तुत संग्रह में भी 'बस ख्याल रखना', 'मेला', ‘निजात’, ‘प्रश्न’ जैसी रचनाएं साहित्यकारों की स्थिति दर्शा रही हैं, जो एक महत्वपूर्ण विषय है।

लघुकथा के बारे में एक मत है कि यह तुरत-फुरत पढ़ सकने वाली विधा है। लेकिन जिसका सृजन विपुल समय लेता है, उसे अल्प समय में पढ़ने के बाद पाठकगण हृदयंगम कर अपना महती समय चिंतन में खर्च न करें तो मेरे अनुसार हो सकता है कि वह रचना प्रभावी शिल्प की हो, लेकिन उद्देश्य पूर्णता की दृष्टि से अप्रभावी ही है। ‘फिर वही पहली रात’ की रचनाएं इस दृष्टि से निराश नहीं करतीं, वरन कुछ रचनाएँ ऐसी भी हैं जो नव-विचार उत्पन्न करती हैं। अधिकतर लघुकथाओं के कथानक समसामयिक हैं, सहज ग्राह्य एवं ओजस्वी भाषा शैली है। शीर्षक से लेकर अंतिम पंक्ति तक में लेखक का अटूट परिश्रम झलकता है।

समग्रतः, प्रभावशाली मानवीय संवेदनाओं, उन्नत चिन्तन, आवश्यक सारभूत विषयों को आत्मसात करती जीवंत लघुकथाओं से परिपूर्ण विजय 'विभोर' जी की विवेकी, गूढ़ और प्रबुद्ध सोच का प्रतिफल यह संग्रह पठनीय-संग्रहणीय सिद्ध होगा। बहुत-बहुत बधाइयां व मंगल कामनाएं।

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

रविवार, 5 सितंबर 2021

लघुकथा: शक्तिहीन | लेखक: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी | राजस्थान पत्रिका

वह मीठे पानी की नदी थी। अपने रास्ते पर प्रवाहित होकर दूसरी नदियों की तरह ही वह भी समुद्र से जा मिलती थी। एक बार उस नदी की एक मछली भी पानी के साथ-साथ बहते हुए समुद्र में पहुँच गई। वहां जाकर वह परेशान हो गई, समुद्र की एक दूसरी मछली ने उसे देखा तो वह उसके पास गई और पूछा, “क्या बात है, परेशान सी क्यों लग रही हो?

नदी की मछली ने उत्तर दिया, “हाँ! मैं परेशान हूँ क्योंकि यह पानी कितना खारा है, मैं इसमें कैसे जियूंगी?”

समुद्र की मछली ने हँसते हुए कहा, “पानी का स्वाद तो ऐसा ही होता है।”

“नहीं-नहीं!” नदी की मछली ने बात काटते हुए उत्तर दिया, “पानी तो मीठा भी होता है।“

“पानी और मीठा! कहाँ पर?” समुद्र की मछली आश्चर्यचकित थी।

“वहाँ, उस तरफ। वहीं से मैं आई हूँ।“ कहते हुए नदी की मछली ने नदी की दिशा की ओर इशारा किया।

“अच्छा! चलो चल कर देखते हैं।“ समुद्र की मछली ने उत्सुकता से कहा।

“हाँ-हाँ चलो, मैं वहीं ज़िंदा रह पाऊंगी, लेकिन क्या तुम मुझे वहां तक ले चलोगी?“

“हाँ ज़रूर, लेकिन तुम क्यों नहीं तैर पा रही?”

नदी की मछली ने समुद्र की मछली को थामते हुए उत्तर दिया,

“क्योंकि नदी की धारा के साथ बहते-बहते मुझमें अब विपरीत धारा में तैरने की शक्ति नहीं बची।“


- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी 

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यह लघुकथा राजस्थान पत्रिका में भी प्रकाशित हुई है. (11 जुलाई 2021)




सोमवार, 30 अगस्त 2021

आज कृष्ण जन्माष्टमी पर एक लघुकथा 'मृत्युदंड' का नेपाली अनुवाद पहिलोपोस्ट पर | लेखक (हिन्दी): डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

 मृत्युदण्ड [लघुकथा सन्दर्भ : कृष्ण जन्माष्टमी]

हजारौं वर्षसम्म नरकको यातना भोगेपछिमात्रै भीष्म र द्रोणाचार्यलाई मुक्ति मिल्यो। छट्पटिँदै दुवै जना नरकको ढोकाबाट बाहिर निस्किनासाथ अगाडि देखे - उभिइरहेका कृष्ण। अचम्म मान्दै भीष्मले सोधे – कन्हैया, तपाईँ यहाँ?


मुसुक्क मुस्काउँदै कृष्णले दुवैलाई ढोगे र भने, 'पितामह- गुरुवर म तपाईँहरु दुवैका लागि आएको हुँ। तपाईँहरुको पापको सजाय पूरा भयो।'


कृष्णको यस्तो भनाईले द्रोणाचार्य विचलित स्वरमा बोले, 'यति धेरै वर्षदेखि हामीले पाप गरेको सुन्दै आयौं। तर यति धेरै अवधि यातना सहनु पर्नेगरी त्यस्तो के पाप गर्‍यौं कन्हैया? के आफ्नो राजाको रक्षा गर्नु पनि… '


'होइन गुरुवर।'


कृष्णले उनलाई बोल्दा बोल्दै रोके।


'केही अरु पापका अतिरिक्त तपाईँ दुवैले एउटा महापाप गर्नुभएको थियो।'


कृष्णले यसो भनिरहँदा भीष्म र द्रोणाचार्य दुवै आश्चर्य भावमा देखिए।


कृष्णले उनीहरुको भाव बुझेरै भने, 'जब त्यत्रो सभामा द्रोपदीको बस्त्र हरण भइरहेको थियो, तपाईँहरु दुवै अग्रज मौन रहनु भयो। उनको शीलको रक्षा गर्नुको साटो चुपो लागेर त्यो अपराध कर्मलाई स्वीकार्नु महापाप थियो।'


सुमधुर शैलीमा कृष्णले बताएपछि भीष्मले टाउको हल्लाउँदै उनका अभिव्यक्तिलाई सहर्ष स्वीकारे। तर, द्रोणाचार्यसँग अझै प्रश्न थियो। उनले सोधे – 'हामीलाई त हाम्रो पापको सजाय मिल्यो। तर हामी दुवैको तपाईँले झुक्याएर हत्या गराउनु भयो। तर तपाईँलाई चाहिँ त्यो अपराधमा ईश्वरले कुनै सजाय दिएनन्। यस्तो किन भयो?'


प्रश्न गम्भीर थियो। कृष्णको अनुहार एकाएक परिवर्तन भयो। त्यो परिवर्तनमा पीडा झल्किन्थ्यो। उनले लामो सास फेरे। आँखा बन्द गरे। उनीहरुको अनुहार हेर्न सकेनन्, अनि फर्किए। पीडा र बेदनासहित उनको बोली फुट्यो।


'तपाईँहरुले जस्तो अपराध गर्नु भएको थियो, अहिले धर्तीमा त्यस्तो अपराध धेरैले गरिरहेका छन्। तर, कुनै पनि बस्त्रहीन द्रोपदीलाई बस्त्र दिन जान म सक्दिनँ।'


कृष्ण द्रोणाचार्य र भीष्मतिर फर्किए। भने, 'गुरुवर-पितामह, के यो दण्ड पर्याप्त छैन? आज पनि तपाईँहरु जस्ता धेरै धर्तीमा जीवित हुनुहुन्छ तर त्यहाँ कृष्ण त मरिसकेको छ नि…'


Source:

https://pahilopost.com/content/20210830112241.html

हिन्दी में मूलकथा 

हज़ारों वर्षों की नारकीय यातनाएं भोगने के बाद भीष्म और द्रोणाचार्य को मुक्ति मिली। दोनों कराहते हुए नर्क के दरवाज़े से बाहर आये ही थे कि सामने कृष्ण को खड़ा देख चौंक उठे, भीष्म ने पूछा, "कन्हैया! पुत्र, तुम यहाँ?"

कृष्ण ने मुस्कुरा कर दोनों के पैर छुए और कहा, "पितामह-गुरुवर आप दोनों को लेने आया हूँ, आप दोनों के पाप का दंड पूर्ण हुआ।"

यह सुनकर द्रोणाचार्य ने विचलित स्वर में कहा, "इतने वर्षों से सुनते आ रहे हैं कि पाप किया, लेकिन ऐसा क्या पाप किया कन्हैया, जो इतनी यातनाओं को सहना पड़ा? क्या अपने राजा की रक्षा करना भी..."

"नहीं गुरुवर।" कृष्ण ने बात काटते हुए कहा, "कुछ अन्य पापों के अतिरिक्त आप दोनों ने एक महापाप किया था। जब भरी सभा में द्रोपदी का वस्त्रहरण हो रहा था, तब आप दोनों अग्रज चुप रहे। स्त्री के शील की रक्षा करने के बजाय चुप रह कर इस कृत्य को स्वीकारना ही महापाप हुआ।"

भीष्म ने सहमति में सिर हिला दिया, लेकिन द्रोणाचार्य ने एक प्रश्न और किया, "हमें तो हमारे पाप का दंड मिल गया, लेकिन हम दोनों की हत्या तुमने छल से करवाई और ईश्वर ने तुम्हें कोई दंड नहीं दिया, ऐसा क्यों?"

सुनते ही कृष्ण के चेहरे पर दर्द आ गया और उन्होंने गहरी सांस भरते हुए अपनी आँखें बंद कर उन दोनों की तरफ अपनी पीठ कर ली फिर भर्राये स्वर में कहा, "जो धर्म की हानि आपने की थी, अब वह धरती पर बहुत व्यक्ति कर रहे हैं, लेकिन किसी वस्त्रहीन द्रोपदी को... वस्त्र देने मैं नहीं जा सकता।"

कृष्ण फिर मुड़े और कहा, "गुरुवर-पितामह, क्या यह दंड पर्याप्त नहीं है कि आप दोनों आज भी बहुत सारे व्यक्तियों में जीवित हैं, लेकिन उनमें कृष्ण मर गया..."

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

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मंगलवार, 23 जून 2020

नया पकवान | चंद्रेश कुमार छतलानी


एक महान राजा के राज्य में एक भिखारीनुमा आदमी सड़क पर मरा पाया गया। बात राजा तक पहुंची तो उसने इस घटना को बहुत गम्भीर मानते हुए पूरी जांच कराए जाने का हुक्म दिया।

सबसे बड़े मंत्री की अध्यक्षता में एक समिति बनाई गई जिसने गहन जांच कर अपनी रिपोर्ट पेश की। राजा ने उस लंबी-चौड़ी रिपोर्ट को देखा और आंखें छोटी कर संजीदा स्वर में कहा, "एक लाइन में बताओ कि वह क्यों मरा?"

सबसे बड़े मंत्री ने अत्यंत विनम्र शब्दों में उत्तर दिया, "हुज़ूर, क्योंकि वह भूखा था।"

सुनते ही राजा की आंखें चौड़ी हो गईं और उसने आंखे तरेर कर मंत्री को देखते हुए कहा, "मतलब... मेरे... राज्य में... कोई... भू...खाथा।" यह कहते समय राजा हर शब्द के बाद एक क्षण रुक कर फिर दूसरा शब्द कह रहा था।

मंत्री तुरंत समझ गया और बिना समय गंवाए उसने उत्तर दिया, "जी हुज़ूर। वह 'भू... खाता'। इसलिए मर गया। यही सच है कि उसने भू ज़्यादा खा लिया था।"

रिपोर्ट में उस अनुसार बदलाव कर दिया गया और उस राज्य में 'भू' नामक एक नए पकवान का अविष्कार हो गया, जो काजू-बादाम और शुद्ध घी से बनाया जाता था।
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सोमवार, 11 मई 2020

लघुकथा वीडियो: भेद-अभाव | लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी



लघुकथा: भेद-अभाव 

 मोमबत्ती फड़फड़ाती हुई बुझ गयी।

 अँधेरे हॉल में निस्तब्धता फ़ैल गयी थी, फिर एक स्त्री स्वर गूंजा, "जानते हो मैं कौन हूँ?"

 वहां बीस-पच्चीस लोग थे, सभी एक-दूसरे को जानते या पहचानते थे। एक ने हँसते हुए कहा, "तुम हमारी मित्र हो - रोशनी। तुमने ही तो हम सभी को अपने जन्मदिन की दावत में बुलाया है और हमें ताली बजाने को मना कर अभी-अभी मोमबत्ती को फूंक मार कर बुझाया।"

 स्त्री स्वर फिर गूंजा, "विलियम, क्या तुम देख सकते हो कि  तुम गोरे हो और बाकी सब तुम्हारी तुलना में काले?"

 विलियम वहीँ था उसने कहा, "नहीं।"

 वही स्त्री स्वर फिर गूंजा, "शुक्ला, क्या तुम बता सकते हो कि यहाँ कितने शूद्र हैं?"

 वहीँ खड़े शुक्ला ने उत्तर दिया, "पहले देखा तो था लेकिन बिना प्रकाश के कैसे गिन पाऊंगा?"

 फिर उसी स्त्री ने कहा, "अहमद, तुम्हारे लिए माँसाहार रखा है, खा लो।"

 अहमद ने कहा, "अभी नहीं, अँधेरे में कहीं हमारे वाले की जगह दूसरा वाला मांस आ गया तो...?"

 अब स्वर फिर गूंजा, "एक खेल खेलते हैं। अँधेरे में दूसरे को सिर्फ छूकर यह बताना है कि तुम उससे बेहतर हो और क्यों?"

 उनमें से किसी ने कहा, "यह कैसे संभव है?"

 उसी समय हॉल का दरवाज़ा खुला। बाहर से आ रहे प्रकाश में अंदर खड़े व्यक्तियों ने देखा कि उनकी मित्र रोशनी, जिसका जन्मदिन था, वह आ रही है। सभी हक्के-बक्के रह गए। रोशनी ने अंदर आते हुए कहा, "सभी से माफ़ी चाहती हूँ, तैयारी में कुछ समय लग गया।"

 और बुझी हुई मोमबत्ती खुद-ब-खुद जलने लगी,  लेकिन वहां कोई खड़ा नहीं था। सिर्फ एक कागज़ मेज पर रखा हुआ था। एक व्यक्ति ने उस कागज़ को उठा कर पढ़ा, उसमें लिखा था, "मैनें तुम्हें प्रकाश में नहीं बनाया... जानते हो तुम कौन हो?"

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चित्रः साभार गूगल

शनिवार, 9 मई 2020

लघुकथा वीडियो: वैध बूचड़खाना | लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी



लघुकथा: वैध बूचड़खाना 

 सड़क पर एक लड़के को रोटी हाथ में लेकर आते देख अलग-अलग तरफ खड़ीं वे दोनों उसकी तरफ भागीं। दोनों ही समझ रही थीं कि भोजन उनके लिए आया है। कम उम्र का वह लड़का उन्हें भागते हुए आते देख घबरा गया और रोटी उन दोनों में से गाय की तरफ फैंक कर लौट गया। दूसरी तरफ से भागती आ रही भैंस तीव्र स्वर में रंभाई, “अकेले मत खाना इसमें मेरा भी हिस्सा है।”

गाय ने उत्तर दिया, “यह तेरे लिए नहीं है... सवेरे की पहली रोटी मुझे ही मिलती है।”

“लेकिन क्यूँ?” भैंस ने उसके पास पहुँच कर प्रश्न दागा।

“क्योंकि यह बात धर्म कहता है... मुझे ये लोग माँ की तरह मानते हैं।” गाय जुगाली करते हुए रंभाई।

“अच्छा! लेकिन माँ की तरह दूध तो मेरा भी पीते हैं, फिर तुम्हें अकेले ही को...” भैंस आश्चर्यचकित थी।

गाय ने बात काटते हुए दार्शनिक स्वर में प्रत्युत्तर दिया, “मेरा दूध न केवल बेहतर है, बल्कि और भी कई कारण हैं। यह बातें पुराने ग्रन्थों में लिखी हैं।”

“चलो छोडो इस प्रवचन को, कहीं और चलते हैं मुझे भूख लगी है...” भूख के कारण भैंस को गाय की बातें उसके सामने बजती हुई बीन के अलावा कुछ और प्रतीत नहीं हो रहीं थीं।

“हाँ! भूखे भजन न होय गोपाला। पेट तो मेरा भी नहीं भरा। ये लोग भी सड़कों पर घूमती कितनी गायों को भरपेट खिलाएंगे?” गाय ने भी सहमती भरी।

और वे दोनों वहां से साथ-साथ चलती हुईं गली के बाहर रखे कचरे के एक बड़े से डिब्बे के पास पहुंची, सफाई के अभाव में कुछ कचरा उस डिब्बे से बाहर भी गिरा हुआ था|

दोनों एक-दूसरे से कुछ कहे बिना वहां गिरी हुईं प्लास्टिक की थैलियों में मुंह मारने लगीं।

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चित्रः साभार गूगल



शुक्रवार, 8 मई 2020

लघुकथा वीडियो: धर्म–निरपेक्ष । लेखक: रामेश्वर काम्बोज हिंमाशु । स्वर: डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी




लघुकथा: धर्म–निरपेक्ष / रामेश्वर काम्बोज हिंमाशु

शहर में दंगा हो गया था। घर जलाए जा रहे थे। छोटे बच्चों को भाले की नोकों पर उछाला जा रहा था। वे दोनों चौराहे पर निकल आए। आज से पहले उन्होंने एक–दूसरे को देखा न था। उनकी आँखों में खून उतर आया। उनके धर्म अलग–अलग थे।

पहले ने दूसरे को माँ की गाली दी, दूसरे ने पहले को बहिन की गाली देकर धमकाया। दोनों ने अपने–अपने छुरे निकाल लिये। हड्डी को चिचोड़ता पास में खड़ा हुआ कुत्ता गुर्रा उठा। वे दोनों एक–दूसरे को जान से मारने की धमकी दे रहे थे। हड्डी छोड़कर कुत्ता उनकी ओर देखने लगा।

उन्होंने हाथ तौलकर एक–दूसरे पर छुरे का वार किया। दोनों छटपटाकर चौराहे के बीच में गिर पड़े। ज़मीन खून से भीग गई।

कुत्ते ने पास आकर दोनों को सूँघा। कान फड़फड़ाए। बारी–बारी से दोनों के ऊपर पेशाब किया और सूखी हड्डी चबाने में लग गया।

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गुरुवार, 7 मई 2020

लघुकथा वीडियो: मुर्दों के सम्प्रदाय । लेखन व वाचन: डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी




लघुकथा: मुर्दों के सम्प्रदाय


"पापा, हम इस दुकान से ही मटन क्यों लेते हैं? हमारे घर के पास वाली दुकान से क्यों नहीं?" बेटे ने कसाई की दुकान से बाहर निकलते ही अपने पिता से सवाल किया।


पिता ने बड़ी संजीदगी से उत्तर दिया, "क्योंकि हम हिन्दू हैं, हम झटके का माँस खाते हैं और घर के पास वाली दुकान हलाल की है, वहां का माँस मुसलमान खाते हैं।"


"लेकिन पापा, दोनों दुकानों में क्या अंतर है?" अब बेटे के स्वर में और भी अधिक जिज्ञासा थी।


"बकरे को काटने के तरीके का अंतर है..." पिता ने ऐसे बताया जैसे वह आगे कुछ बताना ही नहीं चाह रहा हो, परन्तु बेटा कुछ समझ गया, और उसने कहा,

"अच्छा! जैसे मरने के बाद हिन्दू को जलाते हैं और मुसलमान को जमीन में दफनाते हैं, वैसे ही ना!"


बेटे ने समझदारी वाली बात कही तो पिता ने मुस्कुरा कर उत्तर दिया, "हाँ बेटे, बिलकुल वैसे ही।"


"तो पापा, यह कैसे पता चलता है कि बकरा हिन्दू है या मुसलमान?"


यह प्रश्न सुन पिता चौंक गया, जगह-जगह पर दी जाने वाली अलगाव की शिक्षा को याद कर उसके चेहरे पर गंभीरता सी आ गयी और उसने कहा,

"बकरा गंवार सा जानवर होता है, इसलिए उसे हिन्दू कसाई अपने तरीके से काटता है और मुसलमान कसाई अपने तरीके से। सच तो यह है कि कटने के बाद जब बकरा मरता है उसके बाद ही हिन्दू या मुसलमान बनता है... जीते-जी नहीं।"

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मंगलवार, 5 मई 2020

लघुकथा वीडियो: बच्चा नहीं | लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी




लघुकथा: बच्चा नहीं | लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

 "बधाई हो, बच्चा हुआ है।"

हर बार की तरह जनाना हस्पताल की उस उपचारिका ने प्रसव के बाद इन्हीं शब्दों से बधाई दी।

 वार्ड के बाहर खड़ी वृद्ध महिला को बच्चे के जन्म की बधाई देकर वह फिर से अंदर जाने लगी ही थी कि, उस वृद्ध महिला ने कौतुहलवश पूछा, “लेकिन सिस्टर, लड़का है या लड़की?”

 “उससे क्या फर्क पड़ता है? जानवर तो नहीं हुआ। जच्चा ठीक है और आंगन में एक स्वस्थ बच्चे की किलकारी गूँजने वाली है, उसकी ख़ुशी तो है ना!“ और वह उस वृद्ध महिला का चेहरा देखे बिना ही दूसरी महिला का प्रसव करवाने चली गयी।

 दूसरी महिला ने भी एक शिशु को जन्म दिया, उपचारिका ने बच्चे का लिंग देखा और बाहर जाकर उस महिला के पति से कहा,

"जच्चा ठीक है, डिलीवरी भी नॉर्मल हो गयी, और.... उसके बच्च... किन्नर हुआ है।"

उसके स्वर की लड़खड़ाहट आसानी से पहचानी जा सकती थी।

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सोमवार, 4 मई 2020

लघुकथा वीडियो: भेद-अभाव | लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी




लघुकथा: भेद-अभाव  

मोमबत्ती फड़फड़ाती हुई बुझ गयी।

अँधेरे हॉल में निस्तब्धता फ़ैल गयी थी, फिर एक स्त्री स्वर गूंजा, "जानते हो मैं कौन हूँ?"

वहां बीस-पच्चीस लोग थे, सभी एक-दूसरे को जानते या पहचानते थे। एक ने हँसते हुए कहा, "तुम हमारी मित्र हो - रोशनी। तुमने ही तो हम सभी को अपने जन्मदिन की दावत में बुलाया है और हमें ताली बजाने को मना कर अभी-अभी मोमबत्ती को फूंक मार कर बुझाया।"

स्त्री स्वर फिर गूंजा, "विलियम, क्या तुम देख सकते हो कि  तुम गोरे हो और बाकी सब तुम्हारी तुलना में काले?"

विलियम वहीँ था उसने कहा, "नहीं।"

वही स्त्री स्वर फिर गूंजा, "शुक्ला, क्या तुम बता सकते हो कि यहाँ कितने शूद्र हैं?"

वहीँ खड़े शुक्ला ने उत्तर दिया, "पहले देखा तो था लेकिन बिना प्रकाश के कैसे गिन पाऊंगा?"

फिर उसी स्त्री ने कहा, "अहमद, तुम्हारे लिए माँसाहार रखा है, खा लो।"

अहमद ने कहा, "अभी नहीं, अँधेरे में कहीं हमारे वाले की जगह दूसरा वाला मांस आ गया तो...?"

अब स्वर फिर गूंजा, "एक खेल खेलते हैं। अँधेरे में दूसरे को सिर्फ छूकर यह बताना है कि तुम उससे बेहतर हो और क्यों?"

उनमें से किसी ने कहा, "यह कैसे संभव है?"

उसी समय हॉल का दरवाज़ा खुला। बाहर से आ रहे प्रकाश में अंदर खड़े व्यक्तियों ने देखा कि उनकी मित्र रोशनी, जिसका जन्मदिन था, वह आ रही है। सभी हक्के-बक्के रह गए। रोशनी ने अंदर आते हुए कहा, "सभी से माफ़ी चाहती हूँ, तैयारी में कुछ समय लग गया।"

और बुझी हुई मोमबत्ती खुद-ब-खुद जलने लगी,  लेकिन वहां कोई खड़ा नहीं था। सिर्फ एक कागज़ मेज पर रखा हुआ था। एक व्यक्ति ने उस कागज़ को उठा कर पढ़ा, उसमें लिखा था, "मैनें तुम्हें प्रकाश में नहीं बनाया... जानते हो तुम कौन हो?"
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चित्रः साभार गूगल

रविवार, 3 मई 2020

लघुकथा वीडियो: अपरिपक्व | लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी




लघुकथा: अपरिपक्व 


जिस छड़ी के सहारे चलकर वह चश्मा ढूँढने अपने बेटे के कमरे में आये थे, उसे पकड़ने तक की शक्ति उनमें नहीं बची थी। पलंग पर तकिये के नीचे रखी ज़हर की डिबिया को देखते ही वह अशक्त हो गये। कुछ क्षण उस डिबिया को हाथ में लिये यूं ही खड़े रहने के बाद उन्होंने अपनी सारी शक्ति एकत्रित की और चिल्लाकर अपने बेटे को आवाज़ दी,

"प्रबल...! यह क्या है..?"

बेटा लगभग दौड़ता हुआ अंदर पहुंचा, और अपने पिता के हाथ में उस डिबिया को देखकर किंकर्तव्यविमूढ होकर खड़ा हो गया। उन्होंने अपना प्रश्न दोहराया, "यह क्या है..?"

 "जी... यह... रौनक के लिये..." बेटे ने आँखें झुकाकर लड़खड़ाते स्वर में कहा।

 सुनते ही वह आश्चर्यचकित रह गये, लेकिन दृढ होकर पूछा, "क्या! मेरे पोते के लिये तूने यह सोच भी कैसे लिया?"

"पापा, पन्द्रह साल का होने वाला है वह, और मानसिक स्तर पांच साल का ही... कोई इलाज नहीं... उसे अर्थहीन जीवन से मुक्ति मिल जायेगी..." बेटे के स्वर में दर्द छलक रहा था।

उनकी आँखें लाल होने लगी, जैसे-तैसे उन्होंने अपने आँसू रोके, और कहा, "बूढ़े आदमी का मानसिक स्तर भी बच्चों जैसा हो जाता है, तो फिर इसमें से थोड़ा सा मैं भी...."

उन्होंने हाथ में पकड़ी ज़हर की डिबिया खोली ही थी कि उनके बेटे ने हल्का सा चीखते हुए कहा, "पापा...! बस।", और डिबिया छीन कर फैंक दी। वो लगभग गिरते हुए पलंग पर बैठ गये।

उन्होंने देखा कि ज़मीन पर बिखरा हुआ ज़हर बिलकुल पन्द्रह साल पहले की उस नीम-हकीम की दवाई की तरह था, जिससे केवल बेटे ही पैदा होते थे।

और उन्हें उस ज़हर में डूबता हुआ उनकी पुत्रवधु का शव और अपनी गोद में खेलता पोते का अर्धविकसित मस्तिष्क भी दिखाई देने लगा।

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चित्रः साभार गूगल

शनिवार, 2 मई 2020

लघुकथा वीडियो: खलील जिब्रान की तीन लघुकथाएं | वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी




6 जनवरी, 1883 को जन्मे खलील जिब्रान अंग्रेजी और अरबी के लेबनानी-अमेरिकी कलाकार, कवि तथा न्यूयॉर्क पेन लीग के लेखक थे। उन्हें अपने चिंतन के कारण समकालीन पादरियों और अधिकारी वर्ग का कोपभाजन होना पड़ा और जाति से बहिष्कृत करके देश निकाला तक दे दिया गया था।

satyagargah.scroll.in के एक वेबपेज उनके बारे में कुछ यों लिखा है कि:

खलील जिब्रान को पढ़ना कुछ ऐसा है जैसे अपनी ही आत्मा से दो चार होना. आप अपनी हर उलझन का हल उनकी सूक्तियों में ढूंढ़ सकते हैं. इस लिहाज से खलील जिब्रान को पढ़ना किसी अच्छे डॉक्टर से मिलने जैसा भी है. खलील का लेखन जीवन को समझने की एक मुकम्मल कुंजी है. उसे पढ़ पाने की एक ज्ञात लिपि.

 खलील इसीलिए हर देश और हर भाषा के इतने अपने हुए. हर इंसान को उनकी बात अपनी बात लगी. चाहे वह उनकी लघुकथाएं हों या सूक्तियां, प्रेम और दोस्ती सहित जिंदगी के तमाम अनुभवों की वे कम से कम शब्दों में कुछ इस तरह व्याख्या करते हैं कि वह बहुत सहजता से सबके दिलों में उतर जाए. प्रेम और दोस्ती पर तो उन्होंने इतना कुछ और कुछ इस तरह लिखा कि उसे जितना भी पढो वह कम ही जान पड़ता है. यह लिखना हर बार एक नई व्याख्या, सन्दर्भ और दर्शन के साथ हुआ. ‘प्यार के बिना जीवन उस वृक्ष की तरह है, जिस पर फल नहीं लगते’ या फिर ‘आपका दोस्त आपकी जरूरतों का जवाब है.’ जैसी उनकी न जाने कितनी पंक्तियां हैं जो कई पीढ़ियों के लिए बोध वाक्य बन गईं.

 10 जनवरी, 1931 को जिब्रान इस दुनिया से विदा हुए, वे इस दुनिया को अपनी लेखनी से इतना कुछ दे गये कि आनी वाली सह्स्त्राब्दियां भी याद रखेंगी।

 जिब्रान की तीन लघुकथाएं:

1)
मेजबान

'कभी हमारे घर को भी पवित्र करो।'
करूणा से भीगे स्वर में भेड़िये ने भोली-भाली भेड़ से कहा

 'मैं जरूर आती बशर्ते तुम्हारे घर का मतलब तुम्हारा पेट न होता।'
भेड़ ने नम्रतापूर्वक जवाब दिया।
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2)
वेश

 एक दिन समुद्र के किनारे सौन्दर्य की देवी की भेंट कुरूपता की देवी से हुई। एक ने दूसरी से कहा, ‘‘आओ, समुद्र में स्नान करें।’’

फिर उन्होंने अपने-अपने वस्त्र उतार लिए और समुद्र में तैरने लगीं।

कुछ समय बाद कुरूपता की देवी समुद्र से बाहर निकली, तो वह चुपके-से सौन्दर्य की देवी के वस्त्र पहनकर खिसक गई।

और जब सौन्दर्य की देवी समुद्र से बाहर निकली, तो उसने देखा कि उसके वस्त्र वहां न थे। नग्न रहना उसे पसन्द न था। अब उसके लिए कुरूपता की देवी के वस्त्र पहनने के सिवा और कोई चारा न था। लाचार हो उसने वही वस्त्र पहन लिये और अपना रास्ता लिया।

आज तक सभी स्त्री-पुरुष उन्हें पहचानने में धोखा खा जाते हैं।

किन्तु कुछ व्यक्ति ऐसे अवश्य हैं, जिन्होंने सौन्दर्य की देवी को देखा हुआ है और उसके वस्त्र बदले होने पर भी उसे पहचान लेते हैं। और यह भी विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि कुछ व्यक्ति ऐसे भी जरूर होंगे जिन्होंने कुरूपता की देवी को भी देखा होगा और उसके वस्त्र उसे उनकी दृष्टियों से छिपा न सकते होंगे।

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 3)
धोखा

 पहाड़ की चोटी पर अच्छाई और बुराई की भेंट हुई। अच्छाई ने कहा, ‘‘आज का दिन तुम्हारे लिए शुभ हो।’’

बुराई ने कोई उत्तर नहीं दिया।

अच्छाई ने फिर कहा, ‘‘क्या बात है, बहुत उखड़ी–उखड़ी लगती हो!’’

बुराई बोली, ‘‘ठीक समझा तुमने, पिछले कई दिनों से लोग मुझे तुम पर भूलते हैं, तुम्हारे नाम से पुकारते हैं और इस तरह का व्यवहार करते हैं जैसे मैं ‘मैं’नहीं ‘तुम’ हूँ। मुझे बुरा लगता है।’’

अच्छाई ने कहा, ‘‘मुझमें भी लोगों को तुम्हारा धोखा हुआ है। वे मुझे तुम्हारे नाम से पुकारने लगते हैं।’’

यह सुनकर बुराई लोगों की मूर्खता को कोसती हुई वहाँ से चली गई।

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 चित्रः साभार गूगल



शुक्रवार, 1 मई 2020

लघुकथा वीडियो: मुआवज़ा | लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी





लघुकथा: मुआवज़ा 

शाम ढले वह दलित महिला अपने पांच साल के बेटे को लेकर गाँव के ठाकुर के घर के दरवाज़े के बाहर खड़ी थी। चेहरे ही से लग रहा था कि वह बहुत क्षुब्ध है। नौकर के बुलाने पर ठाकुर बाहर आया और उसे घूर कर देखा।

 उस महिला ने तीक्ष्ण स्वर में कहा, "साब, मेरे इत्ते से बेटे को चोर कह कर माँ-बाप की गाली क्यों दी?"

 "तो चोर को चोर नहीं कहूं, यह कुत्ते का पि... मेरे बाग़ के अमरुद चोरी कर रहा था... " ठाकुर की आवाज़ से साफ़ प्रतीत हो रहा था कि वह नशे में था।

 "इत्ता सा बच्चा कुछ समझता है क्या?" महिला भी चुप रहने के मानस में नहीं थी।

 "तुम जैसे छोटी जात के लोग हमारे घर की दहलीज़ के अंदर भी नहीं आ सकते हैं, और इसकी यह मजाल कि हमारे बाग़ में घुस गया..." ठाकुर की आँखें तमतमा उठी।

 महिला ने भी ठाकुर को तीक्ष्ण नज़रों से देखा, और शब्द चबाते हुए, स्वयं की तरफ इशारा करते हुए कहा,

"जब जबरदस्ती इसकी इज्जत की दहलीज लांघी थी...तब?"

 ठाकुर चौंका, लेकिन उसने संयत होकर कहा, "उस बात का हमने तुझे मुआवज़ा अदा कर दिया है।"

 "यह भी तो उसी मुआवजे में ही मिला है..." महिला ने बच्चे की तरफ इशारा करते हुए भर्राये स्वर में कहा।

और ठाकुर की नज़रें उस बच्चे को ऊपर से नीचे तक तौलने लगीं।

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चित्रः साभार गूगल

बुधवार, 29 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: खरीदी हुई तलाश | लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


लघुकथा: खरीदी हुई तलाश | लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

उस रेड लाइट एरिया में रात का अंधेरा गहराने के साथ ही चहल-पहल बढती जा रही थी। जिन्हें अपने शौक पूरे करने के लिये रौशनी से बेहतर अंधेरे लगते हैं, वे सभी निर्भय होकर वहां आ रहे थे।

वहीँ एक मकान के बाहर एक अधेड़ उम्र की महिला पान चबाती हुई खोजी निगाहों से इधर-उधर देख रही थी कि सामने से आ रहे एक आदमी को देखकर वह चौंकी और उसके पास जाकर पूछा,

"क्या हुआ साब, आज यहाँ का रास्ता कैसे भूल गए? तीन दिन पहले ही तो तुम्हारा हक़ पहुंचा दिया था।"

सादे कपड़ों में घूम रहे उस पुलिस हवलदार को वह महिला अच्छी तरह पहचानती थी।

“कुछ काम है तुमसे।” पुलिसकर्मी ने थकी आवाज़ में कहा।

“परेशान दिखाई दे रहे हो साब, लेकिन तुम्हें देखकर हमारे ग्राहक भी परेशान हो जायेंगे, कहीं अलग चलकर बात करते है।”

वह उसे अपने मकान के पास ले गयी और दरवाज़ा आधा बंद कर इस तरह खड़ी हो गयी कि पुलिसकर्मी का चेहरा बंद दरवाजे की तरफ रहे।

पुलिसकर्मी ने फुसफुसाते हुए पूछा,
"आज-कल में कोई नयी लड़की... लाई गयी है क्या?"

"क्यों साब? कोई अपनी है या फिर..." उस महिला ने आँख मारते हुए कहा।

"चुप... तमीज़ से बात कर... मेरी बीवी की बहन है, दो दिनों से लापता है।" पुलिसकर्मी का लहजा थोड़ा सख्त था।

उस महिला ने अपनी काजल लगीं आँखें तरेर कर पुलिसकर्मी की तरफ देखा और व्यंग्य से मुस्कुराते हुए कहा,

"तुम्हारे जैसों के लालच की वजह से कितने ही भाई यहाँ आकर खाली हाथ लौट गए, उनकी बहनें किसी की बीवी नहीं बन पायीं और तुम यहीं आकर अपनी बीवी की बहन को खोज रहे हो!"

और वह सड़क पर पान की पीक थूक कर अपने मकान के अंदर चली गयी।

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चित्रः साभार गूगल

मंगलवार, 28 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: धर्म-प्रदूषण | लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी



लघुकथा: धर्म-प्रदूषण |  लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

उस विशेष विद्यालय के आखिरी घंटे में शिक्षक ने अपनी सफेद दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए, गिने-चुने विद्यार्थियों से कहा, "काफिरों को खत्म करना ही हमारा मक़सद है, इसके लिये अपनी ज़िन्दगी तक कुर्बान कर देनी पड़े तो पड़े, और कोई भी आदमी या औरत, चाहे वह हमारी ही कौम के ही क्यों न हों, अगर काफिरों का साथ दे रहे हैं तो उन्हें भी खत्म कर देना। ज़्यादा सोचना मत, वरना जन्नत के दरवाज़े तुम्हारे लिये बंद हो सकते हैं, यही हमारे मज़हब की किताबों में लिखा है।"

"लेकिन हमारी किताबों में तो क़ुरबानी पर ज़ोर दिया है, दूसरों का खून बहाने के लिये कहाँ लिखा है?" एक विद्यार्थी ने उत्सुक होकर पूछा।

"लिखा है... बहुत जगहों पर, सात सौ से ज़्यादा बार हर किताब पढ़ चुका हूँ, हर एक हर्फ़ को देख पाता हूँ।"

"लेकिन यह सब तो काफिरों की किताबों में भी है, खून बहाने का काम वक्त आने पर अपने खानदान और कौम की सलामती के लिए करना चाहिए। चाहे हमारी हो या उनकी, सब किताबें एक ही बात तो कहती हैं..."

"यह सब तूने कहाँ पढ़ लिया?"

वह विद्यार्थी सिर झुकाये चुपचाप खड़ा रहा, उसके चेहरे पर असंतुष्टि के भाव स्पष्ट थे।

"चल छोड़ सब बातें..." अब उस शिक्षक की आवाज़ में नरमी आ गयी, "तू एक काम कर, अपनी कौम को आगे बढ़ा, घर बसा और सुन, शादीयां काफिरों की बेटियों से ही करना..."

"लेकिन वो तो काफिर हैं, उनकी बेटियों से हम पाक लोग शादी कैसे कर सकते हैं?"

शिक्षक उसके इस सवाल पर चुप रहा, उसके दिमाग़ में यह विचार आ रहा था कि “है तो नहीं लेकिन फिर भी कल मज़हबी किताबों में यह लिखा हुआ बताना है कि, ‘उनके लिखे पर सवाल उठाने वाला नामर्द करार दे दिया जायेगा’।”

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चित्रः साभार गूगल

सोमवार, 27 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: इंसान जिन्दा है | लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


लघुकथा: इंसान जिन्दा है |  लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

वह अपनी आत्मा के साथ बाहर निकला था, आत्मा को इंसानों की दुनिया देखनी थी।

वे दोनों एक मंदिर में गये, वहां पुजारी ने पूछा, "तुम हिन्दू हो ना!" आत्मा हाथ जोड़ कर चल दी।

और एक मस्जिद में गये, वहां मौलवी ने पूछा, "तुम मुसलमान हो ना!" आत्मा ने मना कर दिया।

फिर एक गुरूद्वारे में गये, वहां पाठी ने पूछा, "तुम सिख तो नहीं लगते" आत्मा वहां से चल दी।

और एक चर्च में गये, वहां पादरी ने पूछा, "तुम इसाई हो क्या?" आत्मा चुपचाप रही।

 वे दोनों फिर घर की तरफ लौट गये। रास्ते में उसकी आत्मा ने कहा, "इंसान मर गया, सम्प्रदाय ज़िन्दा है।"

 उसने कहा, "नहीं! "इंसान जिंदा है। सभी जगह सम्प्रदाय नहीं होते।"

अपनी बात को साबित करने के लिए वह अपनी आत्मा को पहले एक हस्पताल में लेकर गया, जहाँ बहुत सारे 'रोगी' ठीक होने आये थे।

और फिर एक जेल में लेकर गया, जहाँ बहुत सारे 'कैदी' थे।

और मदिरालय लेकर गया, जहाँ सब के सब 'शराबी' थे।

और एक विद्यालय लेकर गया, जहाँ 'विद्यार्थी' पढने आये थे।

अब आत्मा ने कहा, "इंसान ज़िन्दा तो है, लेकिन कुछ और बनने के बाद।"

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चित्रः साभार गूगल

रविवार, 26 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: जानवरीयत | लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


लघुकथा: जानवरीयत |  लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

वृद्धाश्रम के दरवाज़े से बाहर निकलते ही उसे किसी कमी का अहसास हुआ, उसने दोनों हाथों से अपने चेहरे को टटोला और फिर पीछे पलट कर खोजी आँखों से वृद्धाश्रम के अंदर पड़ताल करने लगा। उसकी यह दशा देख उसकी पत्नी ने माथे पर लकीरें डालते हुए पूछा, "क्या हुआ?"

उसने बुदबुदाते हुए उत्तर दिया, "अंदर कुछ भूल गया..."

 पत्नी ने उसे समझाते हुए कहा, "अब उन्हें भूल ही जाओ, उनकी देखभाल भी यहीं बेहतर होगी। हमने फीस देकर अपना फ़र्ज़ तो अदा कर ही दिया है, चलो..." कहते हुए उसकी पत्नी ने उसका हाथ पकड़ कर उसे कार की तरफ खींचा।

 उसने जबरन हाथ छुड़ाया और ठन्डे लेकिन द्रुत स्वर में बोला, "अरे! मोबाइल फोन अंदर भूल गया हूँ।"

 "ओह!" पत्नी के चेहरे के भाव बदल गए और उसने चिंतातुर होते हुए कहा, "जल्दी से लेकर आ जाओ, कहीं इधर-उधर हो गया तो? मैं घंटी करती हूँ, उससे जल्दी मिल जायेगा।"

वह दौड़ता हुआ अंदर चला गया। अंदर जाते ही वह चौंका, उसके पिता, जिन्हें आज ही वृद्धाश्रम में दाखिल करवाया था, बाहर बगीचे में उनके ही घर के पालतू कुत्ते के साथ खेल रहे थे। पिता ने उसे पल भर देखा और फिर कुत्ते की गर्दन को अपने हाथों से सहलाते हुए बोले, "बहुत प्यार करता है मुझे, कार के पीछे भागता हुआ आ गया... जानवर है ना!"

 डबडबाई आँखों से अपने पिता को भरपूर देखने का प्रयास करते हुए उसने थरथराते हुए स्वर में उत्तर दिया, “जी पापा, जिसे जिनसे प्यार होता है... वे उनके पास भागते हुए पहुँच ही जाते हैं...”

 और उसी समय उसकी पत्नी द्वारा की हुई घंटी के स्वर से मोबाइल फोन बज उठा। वो बात और थी कि आवाज़ उसकी पेंट की जेब से ही आ रही थी।

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चित्रः साभार गूगल

शनिवार, 25 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: इतिहास गवाह है | लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी



लघुकथा: इतिहास गवाह है |  लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

“योर ऑनर, सच्चाई यह है कि महाराणा ने युद्ध जीता था... इसलिए युद्धभूमि का नाम अब महाराणा के नाम पर ही होना चाहिए”, न्यायालय के एक खचाखच भरे कक्ष में पहले वकील ने पुरजोर शब्दों में दलील दी।

“माफ़ी चाहता हूँ योर ऑनर, लेकिन मेरे विद्वान मित्र सच नहीं कह रहे। युद्ध शहंशाह ने जीता था, इतिहास गवाह है...” दूसरे वकील ने अंतिम तीन शब्दों पर ज़ोर देते हुए कहा।

पहले वकील ने मुस्कुराते हुए प्रत्युत्तर दिया, “अगर मेरे दोस्त का कहना सच है कि इतिहास गवाह है... तो योर ऑनर उन्हें यह आदेश फरमाएं, कि बुला लें इतिहास को गवाही के लिए...”

सुनते ही कोर्ट रूम में बैठे ज़्यादातर लोग हँसने लगे, यहाँ तक कि जज भी मुस्कुराने से बच नहीं सके।

पीछे बैठा एक व्यक्ति शरारत से चिल्लाया, “इतिहास हाज़िर होsss”

लेकिन जब तक कोई चिल्लाने वाले व्यक्ति की शक्ल भी देख पाता, कटघरे के नीचे से धुएँ का एक गुबार उठा और कटघरा धुएँ से भर गया।

वहीँ से एक गंभीर स्वर गूंजा, “मैं वर्तमान और भविष्य की कसम खा कर कहता हूँ कि मैं कभी झूठ नहीं बोलता, मेरे नाम से लोग झूठ बोलते हैं।”

कोर्ट रूम में बैठे सभी व्यक्ति हतप्रभ रह गए, कटघरे में धुंए के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। जज हडबडाये स्वर में बोला, “कौन है वहां?”

स्वर गूंजा, “इतिहास...”

दोनों वकीलों के हलक सूख गए। पहले वकील ने किसी तरह खुदको सम्भाल कर अपनी आँखे धुएँ में गाड़ने का असफल प्रयास करते हुए पूछा, “युद्ध... महाराणा... ने ही...” बाकी शब्द उसके कंठ में ही अटक गए।

स्वर गूंजा, “नहीं...”

यह सुनकर दूसरे वकील की जान में जैसे प्राण आ गये, वह बोला, “मतलब… शहंशाह ने जीता...”

स्वर फिर गूंजा, “नहीं...”

“तो फिर?” जज ने पूछा, हालाँकि उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह प्रश्न कर किससे रहा है।

“युद्ध जीता था - नफरत ने।” स्वर तीक्ष्ण था।

जज ने अब उत्सुकतापूर्ण स्वर में अगला प्रश्न पूछा, “लेकिन हम कैसे मान लें कि तुम इतिहास हो?”

और अगले ही क्षण धुएँ का गुबार छंट गया। कटघरा खाली था...

कहीं से वही स्वर आया, “मुझे पहचान नहीं सकते तो कटघरे में खड़ा कैसे कर सकते हो?”

कोर्ट रूम में फिर खामोशी छा गयी।

ख़ामोशी उसी स्वर ने तोड़ी,

“उस ज़मीन का नाम मोहब्बत रख देना – आपको आपके भविष्य की कसम...”

और इस बार स्वर भर्राया हुआ था।

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चित्र: साभार गूगल


शुक्रवार, 24 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: मेरा घर छिद्रों में समा गया । लेखन व वाचन: डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी



माँ भारती ने बड़ी मुश्किल से अंग्रेज किरायेदारों से अपना एक कमरे का मकान खाली करवाया था। अंग्रेजों ने घर के सारे माल-असबाब तोड़ डाले थे, गुंडागर्दी मचा कर खुद तो घर के सारे सामानों का उपभोग करते, लेकिन माँ भारती के बच्चों को सोने के लिए धरती पर चटाई भी नसीब नहीं होती। खैर, अब ऐसा प्रतीत हो रहा था कि सब ठीक हो जायेगा।

लेकिन…
पहले ही दिन उनका बड़ा बेटा भगवा वस्त्र पहन कर आया साथ में गीता, रामायण, वेद-पुराण शीर्षक की पुस्तकें तथा भगवान राम-कृष्ण की तस्वीरें लाया।

उसी दिन दूसरा बेटा पजामा-कुरता और टोपी पहन कर आया और पुस्तक कुरान, 786 का प्रतीक, मक्का-मदीना की तस्वीरें लाया।

तीसरा बेटा भी कुछ ही समय में पगड़ी बाँध कर आया और पुस्तकें गुरु ग्रन्थ साहिब, सुखमणि साहिब के साथ गुरु नानक, गुरु गोविन्द की तस्वीरें लाया।

और चौथा बेटा भी वक्त गंवाएं बिना लम्बे चोगे में आया साथ में पुस्तक बाइबल और प्रभु ईसा मसीह की तस्वीरें लाया।

चारों केवल खुदकी किताबों और तस्वीरों को घर के सबसे अच्छे स्थान पर रख कर अपने-अपने अनुसार घर बनाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने आपस में लड़ना भी शुरू कर दिया।
यह देख माँ भारती ने ममता के वशीभूत हो उस एक कमरे के मकान की चारों दीवारों में कुछ ऊंचाई पर एक-एक छेद करवा दिया। जहाँ उसके बेटों ने एक-दूसरे से पीठ कर अपने-अपने प्रार्थना स्थल टाँगे और उनमें अपने द्वारा लाई हुई तस्वीरें और किताबें रख दीं।


वो बात और है कि अब वे छेद काफी मोटे हो चुके हैं और उस घर में बदलते मौसम के अनुसार बाहर से कभी ठण्ड, कभी धूल-धुआं, कभी बारिश तो कभी गर्म हवा आनी शुरू हो चुकी है… और माँ भारती?... अब वह दरवाज़े पर टंगी नेमप्लेट में रहती है।
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चित्र: साभार गूगल