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मंगलवार, 23 मई 2023

क्षितिज वैश्विक लघुकथा प्रतियोगिता 2023

*क्षितिज वैश्विक लघुकथा प्रतियोगिता2023*


क्षितिज  संस्था, इंदौर द्वारा दिनांक 29 अक्टूबर 2023 को इंदौर में  अखिल भारतीय लघुकथा सम्मेलन2023 आयोजित किया जा रहा है । इस अवसर पर विश्व लघुकथा प्रतियोगिता भी आयोजित की जा रही है। लघुकथा प्रतियोगिता में प्रथम सात विजेता लघुकथाकारों  को 

1डॉ सतीश दुबे स्मृति लघुकथा सम्मान ।

2डॉ श्याम सुंदर व्यास स्मृति लघुकथा सम्मान।

3 सुरेश शर्मा स्मृति लघुकथा सम्मान ।

4 विक्रम सोनी स्मृति लघुकथा सम्मान ।

5 पारस दासोत स्मृति लघुकथा सम्मान। 

6 निरंजन जमीदार स्मृति लघुकथा  सम्मान।

7 चंद्रशेखर दुबे स्मृति लघुकथा सम्मान । 

प्रदान किए जाएंगे।


 यह पुरस्कार/ सम्मान 29 अक्टूबर 2023 को इंदौर में होने वाले आयोजन में प्रदान किए जाएंगे । 


लघुकथा प्रतियोगिता में सम्मिलित होने हेतु सामान्य नियमावली:-

1 - सिर्फ एक लघुकथा जो विधा के मापदंडों के अनुकूल हो, भेजी जाना है।

2 -  लघुकथा का स्वरूप बना रहना चाहिए ।लघुकथा की शब्द सीमा नहीं रखी गई है।

3 - प्रतियोगिता में लघुकथा की भाषा , व्याकरण, वर्तनी, शिल्प ,नवीन विषयों को अतिरिक्त 3  अंक प्रदान किए जाएंगे।

4 - लघुकथा मौलिक ,  अप्रकाशित और अप्रसारित हो । ऐसा एक घोषणा पत्र साथ में संलग्न किया जाए।

5- लघुकथा प्रिंट मीडिया , इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, समाज माध्यम, व्हाट्सएप , इत्यादि पर प्रकाशित पाए जाने की  स्थिति में  निरस्त कर प्रतियोगिता से बाहर कर दी जायेगी।

6 - लघुकथा के विषय मानवतावादी , प्रेरक, समाज के लिए मार्गदर्शक हों । धर्म ,जाति, संप्रदाय आदि पर कटाक्ष अथवा व्यंग्य करने वाली लघुकथाओं को प्रतियोगिता में सम्मिलित नहीं किया जाएगा।

7- प्रयोग के बहाने से लघुकथा के मूल शिल्प से छेड़छाड़ वाली लघुकथाएं प्रतियोगिता में शामिल नहीं हो सकेंगी।

8 लघुकथा केवल मुख्य ईमेल बॉडी में पेस्ट करें अथवा वर्ड फाईल में अटैच करें। पीडीएफ, हाथ से लिखकर इमेज के रुप में या अन्य किसी स्वरुप में भेजी गई लघुकथाएं मान्य नहीं की जाएंगी।

9 - निम्न ईमेल पते के अलावा किसी भी अन्य माध्यम से भेजी गई लघुकथाएं मान्य नहीं होंगी। 

10 लघुकथा प्रतियोगिता के परिणाम संस्था अध्यक्ष द्वारा घोषित किए जाएंगे।

 11-प्रतियोगिता के निर्णय निर्णायकों के होंगे जो  सर्वमान्य होंगे। उन पर किसी भी प्रकार का विवाद मान्य नहीं होगा।  किसी भी प्रकार के न्यायिक हस्तक्षेप की स्थिति  में न्याय क्षेत्र इंदौर रहेगा।

12-क्षितिज संस्था के सदस्य इस प्रतियोगिता में हिस्सा नहीं ले सकेंगे। उनके संदर्भ में एक अलग योजना हैं जो उन्हें व्यक्तिगत रूप से सूचित की जा रही है।

13-पुरस्कृत एवं चयनित लघुकथाओं का प्रकाशन क्षितिज पत्रिका के वार्षिक अंक में किया जाएगा, जिसका लोकार्पण 29 अक्टूबर 2023 को होगा।


14 *प्रविष्टि हेतु दिनांक 30/06/2023 तक लघुकथा निम्न पते पर भेजें।* 


kshitijlaghukatha@gmail.com


भवदीय

अंतरा करवड़े

संयोजक

सोमवार, 22 मई 2023

समीक्षा : हाल-ए-वक्त | कमल कपूर

समय की नब्ज़ को पहचानती कृति…हाल-ए-वक्त


   डॉ चंद्रेश कुमार जी को मैं सुविज्ञ लघुकथा-पुरोधाओं  की क़तार में आगे-आगे खड़ा पाती हूँ सदा। मेरा यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि सही मायने में लघुकथा कैसे लिखी जाती है… यह चंद्रेश जी से सीखा जा सकता है। बानगी के तौर पर उनका नव लघुकथा-संग्रह ‘ हाल-ए-वक़्त ‘ सामने है ।सौम्य एवं शीर्षकानुकूल नयनाभिराम आवरण-पृष्ठ से सुसज्जित पुस्तक के मात्र 90 पृष्ठों पर क़रीने से टंकी एक कम 80 लघुकथाएँ…समय की नब्ज़ को कसकर थामे हुए हैं । समाज के विविध क्षेत्रों से कथानक उठाकर सुलेख ने , सलीक़े से ये कथाएँ बुनी हैं…कुछ इस तरह कि हर कथा का अंदाज़ निराला है और मिज़ाज जुदा और पंच मारक भी तथा प्रहारक भी ।



 सर्वप्रथम सुलेखक ने 'लेखकीय वक्तव्य' के अंतर्गत समय की महत्ता पर प्रकाश डाला है। रहीम जी के एक अनमोल दोहे का दृष्टांत देते हुए  समझाया है कि  समय लाभ सम लाभ नाहिं, समय चूक नाहिं चूक।

कृति के शीर्षक से संग्रह में कोई कथा नहीं है। वस्तुतः संग्रह की प्रत्येक कथा ‘ हाल-ए-वक़्त ‘  ही तो कह रही है…सरल, सहज एवं सरस भाषा-शैली में। दरअसल प्रस्तुत कृति एक समाज-यात्रा है, जो ‘देशबंदी' से शुभारंभित होकर ‘कोई तो मरा है‘ पर समाप्त होती है। बीच में 77 मोड़ हैं, जो बहुत-बहुत कुछ समझाते और सिखाते हैं । इनमें व्यवस्था के प्रति चिंता भी है और चिंतन भी। किसान द्वारा क्षुब्ध होकर की गई खेतीबंदी कैसे देशबंदी का रूप ले लेती है…स्वयं पढ़ें । ’कोई तो मरा है‘ माँसाहारी-वर्ग पर वार करती है तो ‘ माँ के सौदागर ‘  गौहत्या के वास्तविक कारणों की अजब किंतु सच्ची कहानी बयां करती है।’ मार्गदर्शक ‘ स्वार्थी नेताओं की अवसरवादिता पर कटाक्ष करती है और ‘ मेरी याद ‘ … अति मार्मिक… अपनी गुमशुदगी की खबर खोजते हताश-निराश वृद्ध की व्यथा कथा सुनाती सी। ‘बच्चा नहीं‘ कथा अनकही में बहुत कुछ कह जाती है सिर्फ़ इतना कहकर,” उसका बच्चा किन्नर हुआ है…।”



   ‘ सोयी हुई सृष्टि ‘ सुलेखक के यथार्थ में कल्पना रस घोलने का सुंदर प्रयास है…इसे पढ़कर चंद्रेश जी की कलम को नमन करने को जी चाहता है । ईलाज, धर्म-प्रदूषण, गरीब सोच,एक बिखरता टुकड़ा , कटती हुई हवा ,अन्नदाता एवं इतिहास गवाह है भी अति सराहनीय सुपठनीय कथाएँ हैं किन्तु ‘अस्वीकृत मृत्यु‘ को मैं कृति की सर्वश्रेष्ठ लघुकथा कहूँगी , जो बलात्कार को तीनों लोकों का जघन्यता गुनाह ठहराती है..; इतना कि इसके गुनाहगार को नर्क भी स्वीकार नहीं करता और कीड़े-मकौड़े तक भी उसके पास नहीं फटकते । इस लघुकथा के तो पोस्टर बनने चाहिए और पाठ्यक्रम में भी इसे शामिल करना चाहिए ।


   कुल मिलाकर ‘हाल-ए-वक्त ‘ एक सुंदर-संग्रहणीय संग्रह है, जो शोधार्थियों के लिए भी अति उपयोगी सिद्ध होगा ।

अंततः  सुलेखक को मन-प्राण से बधाई तथा उनके उज्ज्वल भविष्य के लिये अतिशय मंगल कामनाएँ ।इति!


- कमल कपूर 

अध्यक्ष: नारी अभिव्यक्ति मंच ‘ पहचान ‘

2144/9

फ़रीदाबाद 121006

हरियाणा

रविवार, 21 मई 2023

इस दुनिया में तीसरी दुनिया | किन्नर विमर्श की लघुकथाओं का संकलन

श्वेतवर्णा प्रकाशन, नयी दिल्ली से प्रकाशित-

"इस दुनिया में तीसरी दुनिया"

संपादक- डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर', सुरेश सौरभ 

(किन्नर विमर्श की लघुकथाओं का संकलन)

संपादकीय से-

डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

प्रस्तुत लघुकथा-संकलन "इस दुनिया में तीसरी दुनिया" हमारे अपने समाज की ही एक उपेक्षित गाथा है। सदियों के दंश झेल कर यह गाथा चिल्ला-चिल्ला कर कह रही है कि मेरा दोष क्या? और हम जब दोष और दोषी की खोज में निकलते हैं तो हमें अपने मध्य के लोग ही मिलते हैं। किन्नर विमर्श पर केन्द्रित इस लघुकथा-संकलन के माध्यम से हमारा प्रयास समस्याओं को इंगित करना और उनके प्रभावी निराकरण पर रहा है। समय में परिवर्तन आया तो पुरानी मान्यताएँ धराशायी होने लगीं। जिन विषयों को उपेक्षित समझा जाता था या जिन विषयों पर चर्चा करने से लोग मुँह चुराते थे, अब उन विषयों पर मुखर संवाद होने लगा है। यही कारण है कि "इस दुनिया में तीसरी दुनिया" के माध्यम से किन्नर विमर्श कर पाना सहज हो सका। क्या आप सोच सकते हैं कि जिस घर में आप पैदा हुए हैं, उस घर से आप को धक्का मार कर निकाल दिया जाये, उस घर की सम्पत्ति में आपकी हिस्सेदारी न हो। जिस समाज में आप पले-बढ़े हैं, वह समाज आपको अनेक तीखे संबोधनों के साथ आपका तिरस्कार करे। आप अपने माँ-बाप और परिवार से मिलने की मिन्नतें करें और आपको सिर्फ़ दुत्कार ही मिले। प्रतिभा और अनेक योग्यताओं के बावजूद अकारण आपको धरती पर बोझ बता कर किसी अन्य दुनिया में फेंक दिया जाये, जहाँ सिर्फ़ दंश और दंश ही हो, तो कैसे जी पायेंगे आप? बस कुछ पलों के लिए सोच कर देखिए। नर-नारी के साथ किन्नर भी इसी दुनिया का हिस्सा हैं। उनकी दुनिया हमारी दुनिया से पृथक नहीं।


सुरेश सौरभ

सुखद यह है कि कुछ किन्नर अपनी पहचान बनाये रखते हुए, कार्यपालिका, विधायिका में अपनी उपस्थिति मज़बूती से दर्ज़ करा रहे हैं। रूढ़िवादी कुप्रथाएँ कम हो रहीं हैं। जन्म से ही उन्हें त्यागने एवं भेदभाव करने के मामले कम हो रहे हैं। सच्चाई यह भी है कि समाज का नज़रिया भी उनके प्रति बदल रहा है। साहित्य में वे विमर्श का हिस्सा बन चुके हैं, उनका विमर्श उन तक पहुँचाना, उनमें परिवर्तन लाने का सुफल करना, यह सिर्फ़ हमारी ही ज़िम्मेदारी नहीं, उनके लिए संघर्ष करने वाले कुछ संघटनों की भी ज़िम्मेदारी है। नया सवेरा उन्हें बाँहें पसारे बुला रहा है, अपने आलिंगन में अकोरना चाह रहा है, जहाँ प्रेम के, घनीभूत घन उन पर घनघोर घरघरा कर बरसने को अधीर हैं। 


■ सम्मिलित सम्मानित लघुकथाकार-

अंजू खरबंदा

अंजू निगम

अनिता रश्मि

अभय कुमार भारती

डॉ. इन्दु गुप्ता

ऋता शेखर ‘मधु’

कल्पना भट्ट

डॉ. कुसुम जोशी

गरिमा सक्सेना

गीता शुक्ला ‘गीत’

गुलज़ार हुसैन

गोविन्द शर्मा

डॉ. क्षमा सिसोदिया

डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी

चित्रगुप्त

डॉ. जया आनंद

जिज्ञासा सिंह

ज्योति जैन

ज्योति शंकर पण्डा ‘हयात’

दुर्गा वनवासी

निशा भास्कर

डॉ. नीना छिब्बर

नीना मंदिलवार

पम्मी सिंह ‘तृप्ति’

पवन मित्तल

प्रियंका श्रीवास्तव ‘शुभ्र’

प्रेरणा गुप्ता

डॉ. पुष्प कुमार राय

डॉ. पूनम आनंद 

भगवती प्रसाद द्विवेदी 

भारती नरेश पाराशर

डॉ. भावना तिवारी

मंजुला एम. दूसी

डॉ. मंजु गुप्ता

मंजू सक्सेना

मधु जैन

माधवी चौधरी

मिन्नी मिश्रा

मीरा जैन

मुकेश कुमार मृदुल

यशोधरा भटनागर

योगराज प्रभाकर

डॉ. रंजना शर्मा

डॉ. रंजना जायसवाल

डॉ. रघुनन्दन प्रसाद दीक्षित ‘प्रखर’

रतन चंद ‘रत्नेश’

रमेश चंद्र शर्मा

रश्मि अग्रवाल

राजेन्द्र पुरोहित

राजेन्द्र वर्मा

डॉ. राम गरीब पाण्डेय ‘विकल’

राम मूरत ‘राही’

राहुल शिवाय

रेखा शाह आरबी

डॉ. लता अग्रवाल ‘तुलजा’

डॉ. लवलेश दत्त

वंदनागोपाल शर्मा ‘शैली’

डॉ. वर्षा चौबे

विजयानंद विजय

विभा रानी श्रीवास्तव

विनोद सागर

विरेंदर ‘वीर’ मेहता

शांता अशोक गीते

शुचि ‘भवि’

डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’

शोभना श्याम

संतोष श्रीवास्तव

सन्तोष सुपेकर

सत्या शर्मा ‘कीर्ति’

सरोज बाला सोनी

सारिका भूषण

सावित्री शर्मा ‘सवि’

सीमा वर्मा

सुधा आदेश

सुधा दुबे

सुनीता मिश्रा

सुरेश सौरभ

हरभगवान चावला

शनिवार, 28 जनवरी 2023

लघुकथा वीडियो: जानवरीयत | लेखन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी । वाचन: geetaconnectingwithin


 


लघुकथा: जानवरीयत |  डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

वृद्धाश्रम के दरवाज़े से बाहर निकलते ही उसे किसी कमी का अहसास हुआ, उसने दोनों हाथों से अपने चेहरे को टटोला और फिर पीछे पलट कर खोजी आँखों से वृद्धाश्रम के अंदर पड़ताल करने लगा। उसकी यह दशा देख उसकी पत्नी ने माथे पर लकीरें डालते हुए पूछा, "क्या हुआ?"

उसने बुदबुदाते हुए उत्तर दिया, "अंदर कुछ भूल गया..."

 पत्नी ने उसे समझाते हुए कहा, "अब उन्हें भूल ही जाओ, उनकी देखभाल भी यहीं बेहतर होगी। हमने फीस देकर अपना फ़र्ज़ तो अदा कर ही दिया है, चलो..." कहते हुए उसकी पत्नी ने उसका हाथ पकड़ कर उसे कार की तरफ खींचा।

 उसने जबरन हाथ छुड़ाया और ठन्डे लेकिन द्रुत स्वर में बोला, "अरे! मोबाइल फोन अंदर भूल गया हूँ।"

 "ओह!" पत्नी के चेहरे के भाव बदल गए और उसने चिंतातुर होते हुए कहा, "जल्दी से लेकर आ जाओ, कहीं इधर-उधर हो गया तो? मैं घंटी करती हूँ, उससे जल्दी मिल जायेगा।"

वह दौड़ता हुआ अंदर चला गया। अंदर जाते ही वह चौंका, उसके पिता, जिन्हें आज ही वृद्धाश्रम में दाखिल करवाया था, बाहर बगीचे में उनके ही घर के पालतू कुत्ते के साथ खेल रहे थे। पिता ने उसे पल भर देखा और फिर कुत्ते की गर्दन को अपने हाथों से सहलाते हुए बोले, "बहुत प्यार करता है मुझे, कार के पीछे भागता हुआ आ गया... जानवर है ना!"

 डबडबाई आँखों से अपने पिता को भरपूर देखने का प्रयास करते हुए उसने थरथराते हुए स्वर में उत्तर दिया, “जी पापा, जिसे जिनसे प्यार होता है... वे उनके पास भागते हुए पहुँच ही जाते हैं...”

 और उसी समय उसकी पत्नी द्वारा की हुई घंटी के स्वर से मोबाइल फोन बज उठा। वो बात और थी कि आवाज़ उसकी पेंट की जेब से ही आ रही थी।

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शुक्रवार, 27 जनवरी 2023

लघुकथा अनुवाद | हिंदी से मैथिली | अनुवादकर्ता: डॉ. मिन्नी मिश्रा | लघुकथा: लहराता खिलौना

डॉ. मिन्नी मिश्रा एक सशक्त लघुकथाकारा हैं. न केवल लघुकथा लेखन बल्कि समीक्षा व अनुवाद पर भी उनकी अच्छी पकड है. वे एक ब्लॉग मिन्नी की कलम से का भी संचालन करती हैं. पटना निवासी श्रीमती मिश्रा को कई श्रेष्ठ पुरस्कार व सम्मान भी प्राप्त हैं. उन्होंने मेरी एक हिंदी लघुकथा 'लहराता खिलौना' का मैथिली भाषा में अनुवाद किया है, यह निम्न है:


 लहराइत खेलौना (अनुवाद: मिन्नी मिश्रा / मैथिली)

देश के संविधान दिवसक उत्सव समाप्त केलाक बाद एकटा नेता अपन घरक अंदर पैर रखने हे छलाह कि हुनकर सात- आठ वर्षक बच्चा हुनका पर खेलौना वाला बंदुक तानि देलक, आ कहलक , "डैडी, हमरा किछु पूछबाक अछि।"

नेता अपन चिर परिचित अंदाज में मुस्की मारैत कहलथि ,"पूछ बेटा।"

"इ रिपब्लिक- डे कि होइत छैक?" बेटा प्रश्न दगलक।

सुनैत देरी संविधान दिवसक उत्सव में किछु अभद्र लोग दुआरे लगेल गेल नारा के दर्द नेता के ठोरक मुस्की के भेद देलक ,नेता गंहीर सांस भरैत कहलथि,
"हमरा पब्लिक के लऽग में बेर- बेर जेबाक चाही , इ हमरा याद दियेबाक दिन होइत अछि रि- पब्लिक-डे..."

"ओके डैडी ,ओहिमें झंडा केऽ कोन काज पड़ैत छैक?" बेटा बंदूक तनने रहल।

नेता जवाब देलथि ,"जेना अहाँ इ बंदूक उठा कऽ रखने छी,ओहिना हमरा सभके इ झंडा उठा कऽ राखय पड़ैत अछि ।"

"डैडी, हमरो झंडा खरिदि कऽ दियऽ... नहि तऽ हम अहाँके गोली सं मारि देब।" बेटा के स्वर पहिने के अपेक्षा अधिक तिखगर छलैन्ह।

नेता चौंकलथि आ बेटा के बिगरैत कहलन्हि,"इ के सिखबैत अछि अहांके?" हमर बेटा के हाथ में बंदूक नीक नहि लगैत अछि।आ' ओतय ठाढ़ ड्राइवर के किछु आनय के इशारा करैत,ओ बेटा के हाथ सं बंदूक छिनैत आगु बजलाह,
"आब अहाँ गन सं नहि खेलाएब।झंडा मंगवेलौहें ओकरे सं खेलाउ।"एतबा बजैत बिना पाछां तकैत नेता सधल चालि सं अंदर चलि गेलाह।

अनुवादक- डॉ. मिन्नी मिश्रा, पटना
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मूल लघुकथा

लहराता खिलौना / डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

देश के संविधान दिवस का उत्सव समाप्त कर एक नेता ने अपने घर के अंदर कदम रखा ही था कि उसके सात-आठ वर्षीय बेटे ने खिलौने वाली बन्दूक उस पर तान दी और कहा "डैडी, मुझे कुछ पूछना है।"

नेता अपने चिर-परिचित अंदाज़ में मुस्कुराते हुए बोला, "पूछो बेटे।"

"ये रिपब्लिक-डे क्या होता है?" बेटे ने प्रश्न दागा।

सुनते ही संविधान दिवस के उत्सव में कुछ अवांछित लोगों द्वारा लगाये गए नारों के दर्द ने नेता के होंठों की मुस्कराहट को भेद दिया और नेता ने गहरी सांस भरते हुए कहा,
"हमें पब्लिक के पास बार-बार जाना चाहिये, यह हमें याद दिलाने का दिन होता है रि-पब्लिक डे..."

"ओके डैडी और उसमें झंडे का क्या काम होता है?" बेटे ने बन्दूक तानी हुई ही थी।

नेता ने उत्तर दिया, "जैसे आपने यह गन उठा रखी है, वैसे ही हमें झंडा उठाना पड़ता है।"

"डैडी, मुझे भी झंडा खरीद कर दो... नहीं तो मैं आपको गोली से मार दूंगा" बेटे का स्वर पहले की अपेक्षा अधिक तीक्ष्ण था।

नेता चौंका और बेटे को डाँटते हुए कहा, "ये कौन सिखाता है आपको? बन्दूक अच्छी नहीं लगती मेरे बेटे के हाथ में।" 
और उसने वहीँ खड़े ड्राईवर को कुछ लाने का इशारा कर अपने बेटे के हाथ से बन्दूक छीनते हुए आगे कहा,
“अब आप गन से नहीं खेलोगे, झंडा मंगवाया है, उससे खेलो।”

कहते हुए नेता बिना पीछे देखे सधे हुए क़दमों से अंदर चला गया।
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शनिवार, 21 जनवरी 2023

श्रीमती मिथिलेश दीक्षित द्वारा मधुदीप जी को भेजे गए प्रश्न व मधुदीप जी के उत्तर

 

प्रश्न : हिन्दी की प्रथम लघुकथा, उद्भव कब से, प्रथम लघुकथाकार

उत्तर : हिन्दी की प्रथम लघुकथा किसे माना जाये ---इस  विषय में मतभेद हैं | श्री कमल किशोर गोयनकाजी तथा अन्य कुछ विद्वान 1901 में छत्तीशगढ़ मित्र मासिक में प्रकाशित श्री माधव राय सप्रे की रचना ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ को हिन्दी की प्रथम लघुकथा मानते हैं | दूसरी तरफ इसी रचना को हिन्दी की पहली कहानी के रूप में भी स्वीकार किया जाता है | यहीं पर मतभेद और भ्रम उभरता है कि एक ही रचना को दो विधाओं की रचना कैसे स्वीकार किया जा सकता है ? वैसे भी मेरे विचार में यह रचना लघुकथा की सीमा का अतिक्रमण तो करती ही है | इस मुद्दे पर स्पष्ट निष्कर्ष तो लघुकथा के स्वतन्त्र अध्येता एवं विचारक ही दे सकते हैं | इस विषय में दूसरा पक्ष उन विचारकों का है जो श्री भारतेन्दुजी की 1876 में प्रकाशित पुस्तक ‘परिहासिनी’ में प्रकाशित रचना ‘अंगहीन धनी’ को हिन्दी की प्रथम लघुकथा स्वीकार करते हैं | कुछ विचारक इस पुस्तक को हास-परिहास की पुस्तक मानते हुए इसमें संकलित रचना को लघुकथा मानने से परहेज करते हैं | कुछ तो इसमें संकलित रचनाओं को भारतेन्दुजी की मौलिक रचना होने पर भी प्रश्नचिन्ह लगाते हैं | परन्तु मेरे विचार में ‘अंगहीन धनी’ उस समय के धनीवर्ग पर चोट करते हुए एक श्रेष्ठ लघुकथा है जिसे हास-परिहास की रचना कहकर खारिज नहीं किया जा सकता | इस लघुकथा  में परिलक्षित परिहास का पुट वास्तव में तीखा व्यंग्य है जो इस रचना को उच्च कोटि की लघुकथा के  रूप में स्थापित करता है | इस तरह मैं हिन्दी लघुकथा का उद्भव 1876 से मानता हूँ और ‘अंगहीन धनी’ को हिन्दी की पहली लघुकथा स्वीकार करता हूँ | मैंने अपनी सम्पादित पुस्तक ‘हिन्दी की कालजयी लघुकथाएँ (पडाव और पड़ताल, खण्ड-27) में इस तथ्य को रेखांकित भी किया है | एक बात और साफ़ कर दूँ कि ये सभी मान्यताएँ नवीन शोधों के बाद खण्डित भी हो सकती हैं और हमें नित नए हो रहे गम्भीर शोधकार्यों के साथ अपनी धारणा बदलने में कोई आपत्ति भी नहीं होनी चाहिए |

 

प्रश्न : लघुकथा की विकासयात्रा के परिप्रेक्ष्य में इसके वर्तमान स्वरूप पर प्रकाश डालें |

उत्तर : लघुकथा का जो वर्तमान स्वरूप है वह पिछली सदी के आठवें दशक से शुरू होता है | हालाँकि 1876 से 1970 के मध्य भी बहुत से लेखकों ने लघुकथाएँ या लाघुकथानुमा  रचनाएँ लिखी हैं लेकिन 1970 के बाद से लघुकथा में एक आन्दोलन का सूत्रपात होता है | मैं लघुकथा को तीन कालखण्डों में विभक्त करके देखता हूँ | 1876 से 1970 तक ‘नींव’, 1971 से 2000 तक ‘निर्माण’ तथा 2001 से अद्यतन ‘ नई सदी की धमक’ | स्वीकार करने को तो ‘हितोपदेश’ और ‘पंचतन्त्र’ की रचनाओं को भी लघुकथा का उद्गम माना जा सकता है लेकिन वह वास्तविक न होकर सिर्फ मानने के लिए ही होगा | हाँ, इतना अवश्य है कि उन्हें या उस तरह की दूसरी कई रचनाओं को लघुकथा के बीज रूप में स्वीकार किये जाने से परहेज नहीं होना चाहिए | 1876 से 1970 तक की लघुकथाओं पर बहुत कुछ कहानी का प्रभाव था क्योंकि इनमें से अधिकतर कहानीकारों द्वारा ही लिखी गई थीं लेकिन 1970 के बाद लघुकथा का जो आन्दोलन शुरू हुआ उसमें लघुकथा को कहानी से अलग करने की छटपटाहट साफ़ दिखाई देती है | इस काल में कहानीकारों से कतई इतर लघुकथाकार उभरकर सामने आते हैं जो इस विधा को हिन्दी गद्य साहित्य की स्वतन्त्र विधा स्वीकार करवाने के लिए कृत-संकल्प थे | उस दशक में ‘सारिका’ के जो लघुकथा विशेषांक निकले उनमें अधिकतर व्यंग्य प्रधान लघुकथाएँ/रचनाएँ थीं जिनसे यह भ्रम विकसित हुआ कि व्यंग्य लघुकथा का अनिवार्य अंग है और जिस रचना मं  व्यंग्य न हो उसे लघु कहानी कहा जाए | लेकिन बहुत जल्दी ही लघुकथा ने स्वयं को इस भ्रम से मुक्त करा लिया | अब जो लघुकथाएँ सामने आ रही हैं उनमें जीवन की विडम्बनाओं के साथ ही मानवीय सम्वेदनाओं को पूरी शिद्दत और तीव्रता से पाठक के समक्ष प्रस्तुत किया जा रहा  है | 1970 के दशक में लघुकथा के ‘लघु’ पक्ष पर अधिक जोर दिया जाता था लेकिन अब नई सदी के आते-आते इसके ‘कथा’ पक्ष पर भी बराबर जोर दिया जाने लगा है ताकि लघुकथा रचना के रूप में पठनीय भी हो सके | 2001 के बाद 2012 तक लघुकथा के विकास की गति बहुत धीमी रही | पुराने लघुकथाकारों का विधा से मोहभंग हो रहा था | उनमें से काफी मित्र उपन्यास और कहानी की तरफ जा रहे थे और नई पीढ़ी सामने नहीं आ पा रही थी | पुराने लघुकथाकारों को लगने लगा था कि सिर्फ लघुकथा के सहारे साहित्याकार नहीं बना जा सकता | एक भेंट में आदरणीय कमल किशोर गोयनकाजी ने भी हमें सलाह दी थी कि हम लघुकथाकारों को साहित्य की दूसरी विधाओं में भी लेखन करना चाहिए | लेकिन मेरी धारणा इससे कुछ अलग है | मेरा मानना है कि एक लेखक को पूरी गम्भीरता से और बिना विचलित हुए लघुकथा को अपना सर्वोत्तम देना चाहिए ताकि इस विधा का पूर्ण विकास हो | विधा के विकास में ही लेखक का विकास निहित है | इस समय पूरे देश में लघुकथा की लहर है और आनेवाला समय लघुकथा का समय होगा, ऐसा मेरा मानना है |

प्रश्न : आपकी दृष्टि में हिन्दी के कथात्मक साहित्य में लघुकथा का क्या स्थान है ?

उत्तर : उपन्यास, कहानी, नाटक तथा लघुकथा कथात्मक साहित्य के प्रमुख रूप हैं | जहाँ उपन्यास और कहानी मूल रूप में पश्चिम से भारत में आए हैं वहीं लघुकथा भारत से पश्चिम की तरफ गई है | लघुकथा शोधकर्ता इरा सरमा वलेरिया ने केम्ब्रिज से स्वीकृत अपने शोध में इस सत्य को प्रतिपादित किया है | यह सत्य है कि विश्वविद्यालयों तथा अकादमियों में लघुकथा को उपन्यास या कहानी के समकक्ष स्थान नहीं मिला है | विश्वविद्यालयों में लघुकथा पर शोधकार्य हो तो रहे हैं लेकिन उपन्यास, कविता या कहानी के मुकाबले उनकी संख्या बहुत ही कम है | उन्हें शिकायत रहती थी कि लघुकथा विधा में इतनी सामग्री ही उपलब्ध नहीं है जिस पर शोधकार्य करवाए जा सकें | लेकिन अब ‘पड़ाव और पड़ताल’ लघुकथा-शृंखला के 27 खण्ड आ जाने के बाद उनका यह कहना अनुचित लगने लगा है | इससे पहले भारतीय लघुकथा कोश, हिन्दी लघुकथा कोश, अनेक निजी एवं सम्पादित लघुकथा-संग्रह/संकलन आ चुके हैं | हर साल लघुकथा की 50 पुस्तकें तो आ ही रही हैं | इसी वर्ष विश्व हिन्दी लघुकथाकार कोश का प्रकाशन भी हो चुका है | केन्द्रीय हिन्दी अकादमी और राज्य की हिन्दी अकादमियों से यह अनुरोध किया जाना चाहिए कि वे पुरस्कार के लिए पुस्तकों का चयन करते समय लघुकथा की पुस्तकों पर भी ध्यान दें | कुछ राज्यों की हिन्दी अकादमियों ने इस विषय में पहल भी की है | मैं आशा करता हूँ कि आनेवाले पाँच वर्षों में हिन्दी लघुकथा की कोई पुस्तक साहित्य अकादमी पुरस्कार से अवश्य ही सम्मानित होगी | इस समय तो हमें स्वीकार करना ही होगा कि कहानी या उपन्यास के समक्ष लघुकथा पूरी मजबूती से नहीं टिक पा रही है लेकिन जिस तरह से पाठकों का रुझान लघुकथा की तरफ बढ़ा है और जिस तरह एक सशक्त आन्दोलन इस विधा में चल रहा है उसे देखते हुए लघुकथा हिन्दी की अन्य कथात्मक विधाओं के समक्ष एक दमदार चुनौती प्रस्तुत करने जा रही है | पिछले तीन नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेलों में इसकी अनुगूंज सभी ने सुनी है | इसके लिए सभी लघुकथाकारों को पूरी तल्लीनता से लेखन करना होगा |

 

प्रश्न : लघुकथा के स्वरूप, स्तर और विकास में सोशल मीडिया की क्या भूमिका है ?

उत्तर : मैंने पहले कहा था कि 2001 से 2012 तक लघुकथा में विकास की गति बहुत धीमी रही | इसके कुछ कारण भी मैंने बताये थे | 2012 के बाद फेसबुक तथा सोशल मीडिया का उदय होता है और लघुकथा के विकास और स्वरूप पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा है | लघुकथा में इसके साथ ही फिर से एक आन्दोलन शुरू हो गया है और सोशल मीडिया पर धड़ल्ले से लघुकथाएँ लिखी जा रही हैं | आजकल फेस बुक साहित्य का दौर है | छोटे आकार की रचना को फेस बुक पर सरलता से पोस्ट किया जा सकता है | इसलिए कविता, क्षणिका व हाइकू के साथ-साथ लघुकथाएँ भी बहुतायत से फेस बुक पर पोस्ट की जा रही हैं | अब तो फेस बुक पर पोस्ट की गई लघुकथाओं के संकलन प्रकाशित करने/करवाने का प्रचलन भी जोर पकड़ता जा रहा है |

     फेस बुक पर लघुकथाओं को पोस्ट किया जाना इस विधा के प्रचार-प्रसार के लिए एक शुभ लक्षण भी हो सकता है | आज सोशल मीडिया का युग है और इसके माध्यम से आप अपने विचार तथा रचनाएँ द्रुत गति से अन्य लोगों/पाठकों तक पहुँचा सकते हैं | नि:सन्देह किसी भी विधा के प्रसार के लिए सोशल मीडिया एक सशक्त माध्यम हो सकता है मगर इसके अपने खतरे भी कम नहीं हैं |

     पिछले कुछ दिनों/महीनों से फेस बुक पर लघुकथा-समूहों की बाढ़-सी आ गई है | कम-से-कम आठ-दस समूह तो मेरी नजर से भी गुजरे हैं | मजे की बात यह है की जो नवोदित लेखक इस विधा के प्रारम्भिक दौर से गुजरते हुए इस विधा को समझने का प्रयास कर रहे हैं वे इन समूहों के ‘एडमिन’ बने बैठे हैं | ऐसे में सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है की उन समूहों में किस तरह की या किस स्तर की लघुकथाएँ पोस्ट हो रही हैं | उस पर तुर्रा यह की उनमें से अधिकतर समूह लघुकथाओं की प्रतियोगिताएँ आयोजित कर रहे हैं तथा श्रेष्ठ लघुकथाओं के प्रमाण-पत्र भी बाँट रहे हैं |

    फेस बुक पर व्यक्तिगत या लघुकथा-समूहों पर पोस्ट की जा रही लघुकथाओं तथा उससे इस विधा के हो रहे अहित के मुद्दे पर बात करना चाहता हूँ | यदि आप फेस बुक से जुड़े हैं तो अवश्य ही आप वहाँ पर लघुकथा-समूहों की गतिविधियों से तथा वहाँ पर पोस्ट की जा रही लघुकथाओं तथा उनकी गुणवत्ता से भी रूबरू होते होंगे |  बुरा मत मानना, कितनी ही कमजोर तथा अधकचरी रचनाएँ वहाँ पर प्रस्तुत की जा रही हैं, यह किसीसे छिपा हुआ नहीं है | उन रचनाओं को एक-दूसरे की प्रशंसा और भ्रमित करनेवाली टिप्पणियाँ भी मिलती हैं | इस झूठी प्रशंसा से नवोदित लेखक दिग्भ्रमित होता है और मेरा यह मानना है कि इससे उसका विकास रुक जाता है | एक रचनाकार जो भी रचता है उसकी दृष्टि में वह श्रेष्ठ ही होता है | अगर उसकी दृष्टि में वह पूर्ण और श्रेष्ठ न हो तो वह  उसे कागज पर उतारेगा ही नहीं | लेखक अपनी रचना की सही-सही परख कभी नहीं कर सकता क्योंकि वह उसकी अपनी रचना होती है | यह बात नवोदितों पर ही नहीं पुराने रचनाकारों पर भी लागू होती है | रचना के गुण-दोषों की परख तो कोई दूसरा निष्पक्ष व्यक्ति ही कर सकता है और यह दूसरा होता है पाठक, अन्य वरिष्ठ लेखक, समीक्षक या सम्पादक | पहले जब लेखन होता था  तो उसके सृजन तथा प्रकाशन के मध्य सम्पादक होता था जोकि रचना के गुण-दोष के आधार पर उसका प्रकाशन स्वीकार या अस्वीकार करता था | इस तरह रचना की पड़ताल हो जाती थी तथा कमजोर रचना बाहर हो जाती थी | मगर फेस बुक पर ऐसा नहीं हो पाता | यहाँ पर यह सुविधा उपलब्ध है की जो कुछ भी आप लिखें उसे वहाँ पर पोस्ट कर दें | ऐसे रचनाकारों का एक समूह बन जाता है जो एक-दूसरे की रचनाओं की जी-खोलकर प्रशंसा भी कर देते हैं | अब तो स्थिति इतनी विकट और विकृत हो गई है कि यदि कोई वरिष्ठ रचनाकार उन्हें सही बात समझाना चाहता है तो नवोदित  एकदम आक्रामक मुद्रा में आ जाते हैं | हर महीने शीर्षक देकर लघुकथाएँ लिखने/लिखवाने का प्रचलन भी जोर पकड़ता जा रहा है जिससे फेक्ट्री मैड लघुकथाओं की बाढ़ आ गई है और उस बाढ़ में रचनात्मकता कहीं खोती जा रही है |

     सोशल मीडिया एक दुधारी तलवार है जिसके सही प्रयोग से तो लघुकथा का विकास संभव है लेकिन इसके गलत प्रयोग से विधा का बहुत अधिक अहित भी हो सकता है | हमें इस बात को ध्यान में रखना होगा कि हम सोशल मीडिया की शक्ति का पूरा उपयोग विधा के विकास में करें | यदि सोशल मीडिया के माध्यम से हम खुद को या अपनी लघुकथाओं को चमकाने या उन्हें ही सही ठहराने का प्रयास करेंगे तो इसके बहुत ही गलत दूरगामी परिणाम होंगे |

 

प्रश्न : लघुकथा की वर्तमान स्थिति से आप कहाँ तक संतुष्ट हैं ?

उत्तर : सन्तुष्ट हो जाना यानी विराम लग जाना और असन्तुष्ट रहना यानी गतिवान रहना | इसलिए लघुकथा की वर्तमान स्थिति से सन्तुष्ट होकर बैठ जाने का तो प्रश्न ही नहीं है | निरन्तर प्रयास हो रहे हैं, और भी तेजी से प्रयास किये जाने की आवश्यकता है | मेरा सभी साथियों से यही कहना है कि वे अपनी पूरी क्षमता से विधा के विकास के लिए काम करें | विधा के विकास में ही हम सभी लघुकथाकारों का विकास समाहित है | कुछ तथाकथित लेखकों के माध्यम से यह प्रश्न उछाला जाता है की लघुकथा का भविष्य क्या है ! कुछ अजीब-सा प्रश्न नहीं है यह ? साहित्य की किसी भी विधा का भविष्य उस विधा के लेखकों के सामर्थ्य पर निर्भर करता है | लेखन दमदार होगा तो पाठक उसे कैसे नकारेगा ? जिन्हें अपने लेखन पर भरोसा नहीं होता या जो फिर साहित्य में अपना स्थान बनाने की बहुत जल्दी में होते हैं वे ही ऐसी बेतुकी बातें करते हैं | साहित्य जब काव्य से उपन्यास की तरफ और उपन्यास से कहानी की तरफ मुड़ा तब भी शायद  ऐसे ही प्रश्न उठे होंगे मगर उपन्यास या कहानी अपने समय में साहित्य के केन्द्र में रहे हैं, इस बात को कतई नहीं नकारा जा सकता | साहित्य की वही विधा केन्द्र में रहेगी जिसमें जन-मानस की भावनाओं की अभिव्यक्ति होते हुए दमदार लेखन होगा | सिर्फ गाल बजाने से कुछ नहीं होगा |

     आनेवाला समय, खासतौर पर 2020 के बाद के दस वर्ष लघुकथा के होंगे | आवश्यकता हम लघुकथाकारों द्वारा अपने पर विश्वास रखते हुए निरन्तर और दमदार लेखन करने की है | हमें जन-भावनाओं और जन-आकंक्षाओं पर अपनी पकड़ मजबूत रखते हुए सामायिक समस्याओं को अपने लेखन का आधार बनाना है | कोई भी लेखन अपने समय से कटकर जिन्दा नहीं रह सकता | इस बात पर अब विवाद करना बेमानी है कि लघुकथा में क्या और कितना-कुछ कहा जा सकता है | लेखक में दम होना चाहिए, हर स्थिति और समस्या को इस विधा में उकेरा जा सकता है और बहुत ही प्रभावी ढंग से उकेरा जा सकता है | पिछले दिनों लघुकथा में जो लेखन हुआ है उससे यह बात साबित भी हो चुकी है |

     साफ शब्दों में कहूँ तो मैं लघुकथा की वर्तमान स्थिति से पूर्णतया संतुष्ट तो नहीं हूँ लेकिन मुझे इतना विशवास है कि निकट भविष्य में ही लघुकथा अपना प्राप्य  प्राप्त कर लेगी |

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