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मंगलवार, 1 फ़रवरी 2022

वरिष्ठ लघुकथाकार योगराज प्रभाकर जी की लघुकथा और रचना की कल्पना भट्ट जी द्वारा समीक्षा

घड़ी की सुईयां / योगराज प्रभाकर


दादा और पोता, टीवी स्क्रीन पर आँखें गड़ाए बैठे थे जहाँ कश्मीर के मुद्दे पर गरमा गर्म  बहस चल रही थीI वक्ताओं का पूरा पैनल बहुत ही जोश में थाI हर कोई एक दूसरे से बढ़ चढ़ कर भारत के विरुद्ध विष वमन कर रहा थाI 
"हिन्दुस्तानी फ़ौज हमारे कश्मीरी भाईओं पर दिन रात जुल्म कर रही हैI" एक वक्ता ने लगभग चिल्लाते हुए कहाI 
"हिंदुस्तान की सरकार बेगुनाह कश्मीरियों का कत्ल कर रही हैI" दूसरे वक्ता ने ऊँचे स्वर में कहाI 
"दिन दिहाड़े हमारी माँ बहनों की इज्ज़त लूटी जा रही हैI" लम्बी दाढ़ी वाले वक्ता का स्वर उभराI 
"हमारी फ़ौज इंडिया की ईंट से ईंट बजा देंगेI" यह एक सेवानिवृत्त सेना अधिकारी का स्वर थाI  
"हम तन मन और धन से अपने जिहादी भाईओं की मदद करेंगेI" लम्बी दाढ़ी वाले मौलाना ने अपना बाजू हवा में लहराते हुए कहाI
"इंशाअल्लाह! बहुत जल्द कश्मीर में हमारा झंडा लहरा रहा होगाI" जलती आग में घी डालती हुई यह आवाज़ एक जिहादी नेता की थीI
"जिस कश्मीर को ये हिन्दुस्तानी अपना सिर कहते हैं, हम इस सिर को धड़ से अलग किये बगैर हम चैन से नहीं बैठेंगेI" दोनों बाहें उठाते हुए यह फतवा लम्बी दाढ़ी वाले मौलाना की तरफ से उछाला गयाI 
इसी बीच दादा और पोते ने एक दूसरे की तरफ देखाI जहाँ नौजवान पोते की मुट्ठियाँ तनी हुईं और माथे पर क्रोध की रेखाएं थीं वहीँ बूढ़े दादा जी के चहरे पर निराशा और ऊब के मिश्रित चिन्ह उभर आए थेI 
अचानक टीवी के सामने से उठते हुए दादा जी ने कहा: "मैं अब सोने जा रहा हूँ बेटाI" 
उन्हें यूँ अचानक उठते हुए देख पोते ने पूछा: "इस मुद्दे पर आपकी क्या राय है दादा जी?" 
दादा जी के चहरे पर एक फीकी सी मुस्कान फैलीI अपनी छड़ी से दीवार पर टंगे मानचित्र की तरफ इशारा करते हुए उन्होंने उत्तर दिया:  "बेअक्ल लोग हैं ये सबI 1971 में बांग्लादेश गंवा दिया था....लगता है अब बलोचिस्तान की  बार ...| 
पोते के चेहरे पर चढ़ी क्रोध की लाली सहसा पीलेपन में परिवर्तित होने लगी, किन्तु टीवी पर बहस अभी भी जारी थीI
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समीक्षा / कल्पना भट्ट (अप्रैल 2018)

‘घड़ी की सुइयां’ आज की ज्वलंत समस्या जिहाद को लेकर कही गयी एक समसामायिक और लोगों को जागृत करने वाली एक लघुकथा है| कश्मीर! भारत का स्वर्ग कहलाता है, पडोसी मुल्क की नज़र हमेशा से कश्मीर की सर ज़मीन पर गढ़ी हुई है, वक़्त बेवक्त सीमापार पर आक्रमण जारी रखता है, और जिहाद के नाम पर लोगों के बीच ज़हर उगलता है| चैन-ओ-अमन में रहना वाला कश्मीर अब डर के साए में रहता है|
 
मीडिया का काम है लोगों तक खबर पहुंचाना और निष्पक्ष चर्चा करवाना और लोगों को समय समय पर जागृत करना| इन दिनों मीडिया का विकास बहुतरी हुआ है, और देश-विदेश की खबरे घर बैठे ही मिल जाती हैं, जहाँ एक तरफ आज के मीडिया ने सरहदों को एक कर दिया है वहीँ दूसरी ओर अपने व्यापार और टी.आर.पी. को बढाने के लिए हर टी.वी. चैनलों में ख़बरों को लेकर होड़ चली है. किस समाचार को कौन कितनी जल्दी और किस रूप में प्रेषित करना है|’ दादा और पोता, टीवी स्क्रीन पर आँखें गड़ाए बैठे थे जहाँ कश्मीर के मुद्दे पर गरमा गर्म  बहस चल रही थीI वक्ताओं का पूरा पैनल बहुत ही जोश में थाI हर कोई एक दूसरे से बढ़ चढ़ कर भारत के विरुद्ध विष वमन कर रहा थाI’ दादा और पोता समाचार देख रहे थे, कश्मीर को लेकर बहस चल रही थी, लोगों से अपनी राय मांगी जा रही थी, वक्ता अपनी अपनी बात रख रहे थे.और भारत के खिलाफ ज़हर उगल रहे थे| अपने ही देश के लोगों के बीच बढ़ रही असुरक्षा की भावना जिहाद की एक वजह रही है, जीहाद का बीज बोने वाले लोग अपनी जड़ों को फैलाने के लिए हर वो सहारा लेना चाहते हैं जिससे वह देश के अमन-ओ-शांति को छिन् सकें| 
किसी भी समाचार को सुनने और देखने में भी फर्क होता है, किसी व्यक्ति के वक्तव्यों को सुन कर भी जोश आता है पर फिर भी व्यक्ति के बोलते वक़्त के हाव भाव दिखाई नहीं देते पर टी.वी. पर तो इंसान चूँकि दिखाई भी देता है, जोश और भी संवेदना जगाने में काफी प्रभावशाली होता है| 

योगराज प्रभाकर जी ने इस गम्भीर विषय को लेकर संवादों के माध्यम  इस समस्या का सजीव चित्रण प्रस्तुत किया है जो काफी प्रभावशाली रहा हैं : “हिन्दुस्तानी फ़ौज हमारे कश्मीरी भाईओं पर दिन रात जुल्म कर रही हैI" एक वक्ता ने लगभग चिल्लाते हुए कहाI "हिंदुस्तान की सरकार बेगुनाह कश्मीरियों का कत्ल कर रही हैI" दूसरे वक्ता ने ऊँचे स्वर में कहाI "दिन दिहाड़े हमारी माँ बहनों की इज्ज़त लूटी जा रही हैI" लम्बी दाढ़ी वाले वक्ता का स्वर उभराI "हमारी फ़ौज इंडिया की ईंट से ईंट बजा देंगेI" यह एक सेवानिवृत्त सेना अधिकारी का स्वर थाI  "हम तन मन और धन से अपने जिहादी भाईओं की मदद करेंगेI" लम्बी दाढ़ी वाले मौलाना ने अपना बाजू हवा में लहराते हुए कहाI "इंशाअल्लाह! बहुत जल्द कश्मीर में हमारा झंडा लहरा रहा होगाI" जलती आग में घी डालती हुई यह आवाज़ एक जिहादी नेता की थीI "जिस कश्मीर को ये हिन्दुस्तानी अपना सिर कहते हैं, हम इस सिर को धड़ से अलग किये बगैर हम चैन से नहीं बैठेंगेI" दोनों बाहें उठाते हुए यह फतवा लम्बी दाढ़ी वाले मौलाना की तरफ से उछाला गयाI’ कश्मीर पर हो रही चर्चा ने तूल पकड़ा है और लोग अपनी बेबाक टिप्पणी दे रहें हैं| 
लोगों की बेबाक टिप्पणियों से जीहाद के नाम से लोगों में फूट डलवाना और अपनी छोटी मानसिकता को बढ़ावा देना है| और इस तरह से मीडिया का ऐसी चर्चाओं को प्रसारित करना उसकी अपनी जिम्मेदारियों पर सवालिया निशान खड़ा करती है| चर्चा का मुख्य विषय एक भाई को दुसरे भाई से अलग करवाने से ज्यादा उनके बीच के फासले को और बढ़ाना है| 
सन १९४७ के में जब देश आज़ाद हुआ, भारत के तब के प्रधानमन्त्री पंडित जवाहरलाल नेहरु और मोहम्मद अली जिन्ना जी के बीच एक संधि हुई थी और भारत दो हिस्सों में विभाजित हो गया था, हिन्दुस्तान और पाकिस्तान| कश्मीर को लेकर तब से अब तक उसके स्वामित्व को लेकर बहस बादस्तूर आज भी जारी है| ऐसे ही १९७१  में कलकत्ता को दो हिस्सों में बाँटा गया, पूर्वी कोलकता जो बांग्लादेश कहलाया और पश्चिम कोलकत्ता भारत के हिस्से में आया, अंग्रेजो ने तीनसो साल भारत पर अपना शाशन चलाया और जाते जाते भी उनकी जो पालिसी रही, ‘डिवाइड एंड रूल’ की उसका एक बीज और बोकर ब्रिटिश हुकूमत ने अपनी मानसिकता से परिचय करवाया है| योगराज प्रभाकर जी की सोच और उनका किसी भी विषय पर गहन अध्यन यह आपकी साहित्यिक रूचि और आपकी बारीक नज़र से परिचय इस कथा के माध्यम से होता है, लघुकथा वस्तुतः  माइक्रोस्कोपिक दृष्टी से अंकुरित होती है, इस कथा के माध्यम से योगराज प्रभाकर जी ने विभाजन के दौरान लोगों के अंदर की कसक और दर्द को बाखूबी दर्शाया है| 

इसी बीच दादा और पोते ने एक दूसरे की तरफ देखाI जहाँ नौजवान पोते की मुट्ठियाँ तनी हुईं और माथे पर क्रोध की रेखाएं थीं वहीँ बूढ़े दादा जी के चहरे पर निराशा और ऊब के मिश्रित चिन्ह उभर आए थेI टी.वी. पर हो रही चर्चा की वजह से दादा और पोते ने एक दुसरे की ओर देखा, वे एक दुसरे की प्रतिक्रिया जानना चाह रहे थे| जवान खून इस चर्चा के चलते विचलित हुआ जब की बूढ़े दादाजी के चेहरे पर निराशा और ऊब के मिश्रित चिन्ह उभर आये, बूढ़े दादा ने विभाजित होने का दर्द सहा था, और इस चर्चा ने उनके घाव पर नमक छिड़क दिया था| योगराज प्रभाकर जी ने दादा और पोते के भाव प्रदर्शित करके विभाजन के दर्द को हरा कर दिया  पाठक को सोचने पर विवश कर दिया, सरहदों के विभाजन में गर दिलों की दूरियाँ भी बढ़ जाए तो आग में घी डालने का काम ही करेगा| युवा वर्ग के सामने जो परोसा जायेगा वही उसे सच लगेगा, और दुश्मन अपनी चाल पर कामयाबी हासिल होगा, ऐसे में गर बुजुर्गों का सही मार्गदर्शन मिल जाए तो उसे अपनी सोच पर सोचने का मौका मिल जाता है| यहाँ घर में बड़े-बुजुर्गों की अहमियत को दर्शाया गया है, आज को बीते हुए कल के अनुभव ही सही दिशा दिखाता है| चाहे वह विभाजन का दर्द हो या किसी अन्य का, घर के बड़े हमेंशा सही मार्गदर्शन देते हैं| 
दादा जी के चेहरे पर के भाव ने पोते को सोचने पर विवश किया:- अचानक टीवी के सामने से उठते हुए दादा जी ने कहा: "मैं अब सोने जा रहा हूँ बेटाI" उन्हें यूँ अचानक उठते हुए देख पोते ने पूछा: "इस मुद्दे पर आपकी क्या राय है दादा जी?" यहाँ दादा जी के मनोभाव को पढ़कर पोते पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव पडा, यहाँ एक दादा और पोते के आत्मीय रिश्ते को योगराज प्रभाकर जी ने बहुत ही सुंदर तरीके से पेश किया है| 
 
दादा जी के चहरे पर एक फीकी सी मुस्कान फैलीI अपनी छड़ी से दीवार पर टंगे मानचित्र की तरफ इशारा करते हुए उन्होंने उत्तर दिया:  "बेअक्ल लोग हैं ये सबI 1971 में बांग्लादेश गंवा दिया था....लगता है अब बलोचिस्तान की  बार ...| समय बदल गया है और आगे बढ़ गया पर फिर वही भूल दोहराने वाले लोगों पर इससे बेहतर वक्तव्य हो ही नहीं सकता | बड़े बुज़ुर्ग अपने बच्चों के कहे और अनकहे को पहचानते हैं और उनकी चिंता स्वाभाविक है, और उनका अपने दिल की बात को साझा करना युवा वर्ग के लिए वरदान साबित होता है तभी तो -जिस पोते का खून खौल रहा था अब:- पोते के चेहरे पर चढ़ी क्रोध की लाली सहसा पीलेपन में परिवर्तित होने लगी, किन्तु टीवी पर बहस अभी भी जारी थीI
पोते को एहसास हो गया था, की चर्चा गलत राह पर ले जा रही है, ज़हर फैलाने से सिर्फ मौत का तांडव होगा पर यह कोई हल नहीं है| 

‘समय की सुइयां’ लघुकथा के माध्यम से योगराज प्रभाकर जी ने एक बेहतरीन सन्देश दिया है | कथा जैसे जैसे बढती जा रही है, उत्सुकता बढती जा रही है यह जानने के लिए आगे क्या होगा? यह एक सधे हुए लेखक के गुण होते हैं जो पाठक को अपनी लेखनी से बाँध सके| शिल्प की दृष्टि से लघुकथा सधी हुई है और बीच में संवादों की वजह से कथा सजीव हो गयी है और पाठक के आगे चलचित्र की तरह चल रही है| भाषा सहज और सरल है जिसने लघुकथा को काफी प्रभावित बना दिया है| समय की सुइयां इस लघुकथा के लिए उत्तम शीर्षक साबित हुआ है| योगराज जी ने इस कथा के माध्यम से एक सशक्त सन्देश देने का प्रयत्न किया है जिसमे वे कामयाब हुए है बीच के संवाद और पात्रों के बीच जल्दी जल्दी बदलाव के चलते कहीं कहीं कथा उलझन पैदा कर रही है पर इसके बावजूद लघुकथा अपनी अमित छाप छोड़ने में सफल रही है| 
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 - कल्पना भट्ट

रविवार, 30 जनवरी 2022

लघुकथा: टाइम पास । डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी

 आज के पत्रिका समाचार पत्र में मेरी एक लघुकथा। आप सभी के सादर अवलोकनार्थ।



टाइम पास / डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

दो आदमी रेल में सफर कर रहे थे। दोनों अकेले थे और आमने-सामने बैठे थे।
उनमें से एक आदमी दूसरे से दार्शनिक अंदाज़ में बोला, "ये रेल की पटरियां भी क्या चीज़ हैं! साथ रहते हुए कभी मिलती नहीं।"
यह सुनते ही दूसरे आदमी के चेहरे पर दुःख आ गया और उसने दर्द भरे स्वर में उत्तर दिया, "कुछ उसी तरह जैसे दो भाई एक घर में रह कर भी हिलमिल कर नहीं रह सकते।"
पहले आदमी के चेहरे पर भी भाव बदल गए। उसने भी सहमति में सिर हिला कर प्रत्युत्तर दिया, "काश! दोनों मिल जाते तो ट्रेन जैसी ज़िन्दगी का बोझ अकेले-अकेले नहीं सहना पड़ता।"
दूसरे आदमी ने भी उसके स्वर में स्वर मिलाया और कहा, "सभी जगह यही हो रहा है। घर से लेकर समाज तक और समाज से लेकर दुनिया तक। हर काम लोग अपने-अपने स्वार्थ के लिए ही करते हैं।"
पहला आदमी मुस्कुरा कर बोला, "यही तो गलत हो रहा है भाई।"
और उनकी बात यूं ही अनवरत चलती रही, तब तक, जब तक कि उनका गंतव्य न आ गया। फिर वे दोनों अपने-अपने रास्ते चले गए, एक-दूसरे के नाम तक भूलते हुए।
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- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

लघुकथा वीडियो | लघुकथा: दानिशमंद | लेखिका - देवी नागरानी | स्वर - मनिन्दर कौर छाबड़ा

यूट्यूब के साहित्यप्रीत चैनल पर प्रकाशित

 

शुक्रवार, 28 जनवरी 2022

कीर्तिशेष मधुदीप जी पर आधारित कुछ चुनिन्दा पोस्ट्स (लघुकथा दुनिया ब्लॉग में)



लघुकथाकार परिचय: श्री मधुदीप गुप्ता और उनकी एक रचना पर मेरी प्रतिक्रिया | डॉ. चंद्रेश कुमार छ्तलानी

https://laghukathaduniya.blogspot.com/2019/06/blog-post_19.html


मधुदीप गुप्ता दादा को श्रद्धा सुमन | कल्पना भट्ट

https://laghukathaduniya.blogspot.com/2022/01/blog-post.html


लघुकथा: पत्नी मुस्करा रही है । लेखन: श्री मधुदीप गुप्ता | वाचन - रजनीश दीक्षित

https://laghukathaduniya.blogspot.com/2021/08/blog-post_16.html


अविरामवाणी । 'समकालीन लघुकथा स्वर्ण जयंती पुस्तक चर्चा' । मधुदीप जी के लघुकथा संग्रह 'मेरी चुनिंदा लघुकथाएँ' पर डॉ. उमेश महादोषी द्वारा चर्चा

https://laghukathaduniya.blogspot.com/2021/11/blog-post_81.html


लेख | लघुकथा : रचना और शिल्प | मधुदीप

https://laghukathaduniya.blogspot.com/2020/01/blog-post_19.html


पूर्ण ईबुक | 'मेरी चुनिंदा लघुकथाएं' | लेखक: मधुदीप

https://laghukathaduniya.blogspot.com/2019/12/blog-post_13.html


'मेरी चुनिंदा लघुकथाएं' का ब्रजभाषा में अनुवाद | लेखक: मधुदीप गुप्ता | अनुवादक: रजनीश दीक्षित

https://laghukathaduniya.blogspot.com/2019/12/blog-post_76.html


बुधवार, 26 जनवरी 2022

मधुदीप गुप्ता दादा को श्रद्धा सुमन | कल्पना भट्ट

बहुत दुःख का विषय है कि कुछ दिनों पूर्व लघुकथा के एक महत्वपूर्ण स्तम्भ श्री मधुदीप अपनी जीवन यात्रा समाप्त कर अनंत की ओर प्रस्थान कर गए। ईश्वर से प्रार्थना है कि उन्हें अपने श्री चरणों में स्थान दें। लघुकथाकारा कल्पना भट्ट जी ने उन्हें श्रद्धांजलिस्वरुप उनकी रचना को अपने शब्दों में व्यक्त किया है, रचना और यह अभिव्यक्ति आप सभी के समक्ष प्रस्तुत है



उजबक की कदमताल | मधुदीप

समय के चक्र को उल्टा नहीं घुमाया जा सकता। हाँ, बनवारीलाल आज पूरी शिद्दत के साथ यही महसूस कर रहा था। समय चालीस साल आगे बढ़ गया है मगर वह अभी भी वहीं खड़ा कदमताल कर रहा है। उसने भी कई बार समय के साथ आगे बढ़ने की बात सोची मगर परम्पराओं और दायित्वों में जकड़े पाँवों ने हमेशा ही मना कर दिया तो वह बेबस होकर रह गया। जब सब-कुछ बदल गया है तो उसके पाँव कदमताल छोड़कर आगे क्यों नहीं बढ़ जाते ? तीनों छोटे भाई अपनी-अपनी सुविधाओं के तहत शहरों में जा बसे हैं। उनके बच्चे अब सरकारी नौकरियों में अधिकारी हैं, कुछ तो विदेश तक पहुँच गए हैं मगर वह और उसका एकमात्र पुत्र आज तक गाँव के इस कच्चे घर की देहरी को नहीं लाँघ पाए। पिता का साया बचपन में ही चारों भाइयों के सिर से उठ गया तो वह उन तीनों के लिए पिता बन गया। जमीन तो थोड़ी ही थी, यह तो माँ की कर्मठता और उसकी जीतोड़ मेहनत थी कि वह सभी छोटों को हिल्ले से लगा सका। चार बेटों की कर्मठ माँ की इहलीला कल रात समाप्त हो गई थी और आज दोपहर वह अपने सपूतों के काँधों पर सवार होकर अपनी अन्तिम यात्रा पर जा चुकी थी। उतरती रात के पहले प्रहर में चारों भाइयों का भरा-पूरा परिवार अपने कच्चे घर की बैठक में जुड़ा हुआ था। “बड़े भाई, अब गाँव की जमीन-घर का बँटवारा हो जाये तो अच्छा है।” छोटे ने कहा तो बनवारीलाल उजबक की तरह उसकी तरफ देखने लगा। “हाँ, अब गाँव में हमारा आना कहाँ हो पायेगा ! माँ थी तो...” मँझले ने जानबूझकर अपनी बात अधूरी छोड़ दी तो उजबक की गर्दन उधर घूम गई। सन्नाटे में तीनों की झकझक तेज होती जा रही है। बनवारीलाल को लग रहा है कि समय का चक्र बहुत तेजी से घूम रहा है और वह वहीं खड़ा कदमताल कर रहा है। मगर यह क्या ! उसके पाँवों के तले जमीन तो है ही नहीं। ** -0-

इस रचना पर कल्पना भट्ट जी की अभिव्यक्ति

कथा साहित्य में यूँ तो परिवार पर आधारित अनेकों रचनाएँ पढने को मिल जाती हैं वह फिर चाहे उपन्यास हो, कहानी हो या लघुकथा ही क्यों न हो। पिता पात्र पर आधारित लघुकथाओं में से मधुदीप की लघुकथा , ‘उजबक की कदमताल’ ने इसके शीर्षक से ही मुझे अपनी तरफ खींचा। जब इस लघुकथा को पढ़ना शुरू किया तो एक परिवार का चित्र आँखों के सामने उभर कर आ रहा था, एक ऐसा परिवार जो किसी गाँव में रहता है। इस परिवार का मुखिया, ‘बनवारीलाल’ है, जो अपने को अपने ही स्थान पर पिछले चालीस वर्षों से कदमताल करता हुआ देख रहा है। इस लघुकथा की यह पंक्ति देखें:- ‘ समय चालीस साल आगे बढ़ गया है मगर वह अभी भी वहीँ खड़ा कदमताल कर रहा है।’ बनवारीलाल पात्र गाँव का सीधा-सादा सामान्यज्ञान वाला एक ऐसा व्यक्ति है जिसके लिए उसका परिवार सर्वोपरि है, वह अपनी जिम्मेदारियों के आगे खुदको झोंक देता हुआ प्रतीत होत है, ऐसा नहीं कि वह आगे नहीं बढ़ना चाहता या उसने कभी प्रयास नहीं किया हो, इस बात को सिद्ध करती हुई इन पंक्तियों को देखी जा सकती है, ‘ उसने भी कई बार समय के साथ आगे बढ़ने की बात सोची मगर परम्पराओं और दायित्वों में जकड़े पाँवों ने हमेशा ही मना कर दिया, तो वह बेबस होकर रह गया।’ समय बलवान होता है यह बात सच भी है और यथार्थ भी, समय के साथ चलना ही अकलमंदी होती है, और जो समयानुसार न चल सके उसको पिछड़ा हुआ ही माना जाता है, वह अपने को इस स्थिति से उबारना चाहे तो उबार सकता है क्योंकि समय हर इंसान को उठने के लिए मौक़ा देता है परन्तु जो व्यक्ति इस मौके का फायदा न उठा सके तो वह सच में ‘उजबक’ ही सिद्ध होता है। ‘उजबक’ का साहित्यिक अर्थ ‘अनाडी’ या ‘मुर्ख’ है। ‘बनवारीलाल’ यूँ तो चार भाइयों के परिवार में सबसे बड़ा है, परन्तु बचपन में ही पिता का साया उठ जाने के उपरान्त वह अपने तीन भाइयों के लिए पिता बन जाता है, लघुकथा की इन पंक्तियों को देखा जा सकता है,’ पिता का साया बचपन में ही चारों भाइयों के सिर से उठ गया तो वह उन तीनों के लिए पिता बन गया।’ पिता की मृत्यु के उपरान्त उनकी कर्मठ माँ की छत्रछाया में और उनके दिशानिर्देश के अनुसार बनवारीलाल खुद को ढाल लेता है। इस लघुकथा में माँ को एक कर्मठ महिला के रूप में चित्रांकित किया गया है, जो जीवन में संघर्ष को ही जीवन मान लेती है और अपने संग-संग अपने बड़े बेटे को भी उसी राह पर मोड़ देती है, बनवारीलाल अपनी माँ से अधिक प्रेम करता है, अधिक इसलिए की वह उनका आज्ञाकारी बेटा बनकर ही रह जाता है और अपने तीनों भाइयों का पिता, परन्तु वह इन दायित्वों को निभाने में इतना खो जाता है कि वह भूल जाता है कि उसका अपना भी एक इकलौता पुत्र है जिसका वह पिता है, अपने माता-पिता की संतानों की जिम्मेदारियों में वह अपने ही बेटे का पिता होने का फ़र्ज़ निभाने में चुक जाता है। यहाँ ये अतिशयोक्ति प्रतीत होती है, यहाँ बनवारीलाल का अपना परिवार भी है, जैसा की वर्णित है, ‘ मगर वह और उसका एकमात्र पुत्र आज तक गाँव के इस कच्चे घर की देहरी को नहीं लाँघ पाए’ यहाँ देहरी क्यों नहीं लाँघ पाए इस बात को स्पष्ट नहीं किया गया है, एक सामान्य व्यक्ति जब खुद कोई गलती करता है तो वह यह कभी नहीं चाहेगा कि इस गलती को उसका पुत्र या अगली पीढ़ी दोहराए, वह प्रयासरत्त रहता है कि ऐसी गलतियों को न दोहराया जाए, अगर इस बात को मान भी लिया जाए कि वह एक आज्ञाकारी बेटा था, उसकी माँ ने जैसा कहा वह वैसे ही करता चला गया, इसका अर्थ यहाँ उसने अपनी पत्नी और इकलौते बेटे को भी उसी जिम्मेदारियों की भट्टी में झोंक दिया और वह भी बिना अपनी पत्नी के विरोध के...इस बात से बनवारीलाल को मुर्ख कहा जा सकता है परन्तु क्या उसकी पत्नी(जो इस लघुकथा का एक अदृश्य पात्र है) उसके लिए... भी यही बात हो... यहाँ माँ के अनुसार घर चल रहा है, इसका अर्थ है नारी-प्रधान परिवार है.... फिर बनवारी लाल की पत्नी...? यहाँ बनवारीलाल पिता किस आधार पर बन गया यह स्पष्ट नहीं हो पा रहा है।

चालीस वर्षो के बाद जब वह पीछे मुड़कर देखता है तो देखता है कि : ‘जब सब-कुछ बदल गया है तो उसके पाँव कदमताल छोड़कर आगे क्यों नहीं बढ़ जाते हैं। तीनों छोटे भाई अपनी-अपनी सुविधाओं के तहत शहरों में जा बसे हैं। उनके बच्चे अब सरकारी नौकरियों में अधिकारी हैं, कुछ तो विदेश तक पहुँच गए हैं मगर...” इन पंक्तियों से प्रतीत होता है की तीनों भाई स्वार्थी निकले, और उन्होंने अपने बच्चों को भी उन्हींकी तरह बनाया। यहाँ ऐसा प्रतीत होता है कि ये लोग पलट कर अपने गाँव वाले घर में कभी नहीं आये, और न ही बच्चे ही आये... इतने लम्बे अंतराल तक एक दूसरे से न मिलें न ही संपर्क हो यह संभव तो हो सकता है, परन्तु क्या माँ और भाई भी कभी शहर नहीं आये? क्या कोई संपर्क इतने वर्षों में रहा ही नहीं? और अगर रहा तो क्या तीनों भाइयों के परिवार से भी किसीने अपनी चुप्पी नहीं तोड़ी और न ही किसी बच्चे ने अपनी दादी और पिताजी के बड़े भाई के परिवार वालों की सुध ही ली... ऐसे अनेकों सवाल इस लघुकथा से उठते हैं... ‘चार बेटों की कर्मठ माँ की इहलीला कल रात समाप्त हो गयी थी और आज दोपहर वह अपने सपूतों के कंधों पर सवार होकर अपनी अन्तिम यात्रा पर जा चुकी थी। उतरती रात के पहले पहर में चारों भाइयों का भरा-पूरा परिवार अपने कच्चे घर की बैठक में जुड़ा हुआ था।’ यहाँ फिर एक सम्भावना जताई जा रही है कि बनवारीलाल के बाकि के तीनों भाइयों का परिवार गाँव से उतनी ही दूरी पर थी कि वह सभी उतरती रात के पहले पहर में ही वहाँ आ गए थे। या तो बनवारीलाल ने पहले ही उन सब को बुलवा लिया था... तीनो भाई स्वार्थी के साथ-साथ लालची भी प्रतीत होते हैं’ ‘बड़े भाई, अब गाँव की जमीन-घर का बँटवारा हो जाए तो अच्छा है” अब इस पंक्ति को भी देखें: ‘ जमीन तो थोड़ी ही थी, यह तो माँ की कर्मठता और उसकी जीतोड़ मेहनत थी कि वह सभी छोटों को हिल्ले से लगा सका।’यहाँ इससे यह प्रतीत होता है कि ‘ज़मीन छोटी तो थी परन्तु पर्याप्त थी’ तभी तो मेहनत करने पर इतने लोगों की परवरिश और गुज़ारा हो पाया। यहाँ यह भी प्रतीत होता है कि माँ के साथ बनवारीलाल ने भी उतनी ही निष्ठां से मेहनत की कि उन दोनों के प्रयासों के चलते उसके तीनों भाइयों के परिवार भी बन गए और उनकी नौकरियां भी लग गयी। आगे देखिये: “हाँ, अब गाँव में हमारा आना कहाँ हो पायेगा। माँ थी तो....” मँझले ने जानबूझकर अपनी बात अधूरी छोड़ दी तो उजबक की गर्दन उधर घूम गई।इसका अर्थ यह होता है कि यह लोग माँ से मिलने यहाँ आते थे... फिर भी माँ और बनवारीलाल की स्थिति जस-की-तस रही! जब तीनों भाई आगे बढ़ रहे थे, बनवारीलाल उनको आगे बढ़ते हुए देखते हुए भी अपने और अपने परिवार के लिए कुछ न सोच पाया और न ही आगे बढ़ पाया, ऐसा कार्य तो सिर्फ और सिर्फ एक उजबक ही कर सकता है, यह किसी जिम्मेदार या समझदार इंसान तो कदापि नहीं करेगा। पिता की मृत्यु के बाद बड़े होने के नाते माँ की हाजरी में खुद को पिता समझ बैठना यह बनवारीलाल की प्रथम गलती थी, जिम्मेदारियों को वह बड़े भाई के नाते भी निभा सकता था। जो व्यक्ति एक बार गलती करने के बाद अपनी गलती को सुधार ले तो वह तो सामान्य है परन्तु जो गलतियों को दोहराता रहे और बार-बार नज़र अंदाज़ करके खुदका ही घर जला ले ये काम तो सिर्फ एक मुर्ख व्यक्ति ही करेगा और ऐसे व्यक्ति का अंत बिलकुल वैसा ही होता है जैसा कि इस लघुकथा के नायक’ ‘बनवारीलाल’ का हुआ, जब माँ का दाह दाह संस्कार करने के बाद जब : सन्नाटे में तीनों की झकझक तेज होती जा रही है। बनवारीलाल को लग रहा है कि समय का चक्र बहुत तेजी से घूम रहा है और वह वहीँ खड़ा कदमताल कर रहा है। मगर यह क्या! उसकें पांवों के तले जमीन तो है ही नहीं। इस अंत से ये सिद्ध होता है कि बनवारीलाल जिस तरह से शुरू से ही मूकदर्शक बना रहा आखिर तक उसने अपने आपको कहीं भी कभी भी बदलने का प्रयास नहीं किया। उसने अपने को उजबक ही सिद्ध किया है। इस लघुकथा के माध्यम से मधुदीप ने परिवार के बदलते परिवेश का चित्रण करने का सद्प्रयास किया है, हिन्दू परिवारों में जब परिवार को ही सर्वोपरि माना जाता रहा है, वहीँ समय के पहिये की तरह लोगों की सोच भी बदल गयी है, जहाँ पहले परिवार में त्याग और समर्पण की भावनाएं होती थीं आज के भौतिक युग में स्वार्थ और लालच ने हर परिवार में डेरा जमा लिया है, ऐसे में अगर समय रहते कोई न चेते और समय को न पहचान पाए और खुद को समयानुसार न बदल पाए तो दुनिया उसको बेवकूफ जान उसका गलत फायदा ही उठाएगी जैसा कि बनवारीलाल के तीनों भाइयो ने उसके साथ किया, और खुद बनवारीलाल ने भी खुद को बदलने का प्रयास नहीं किया और दुनियावालों का साथ दिया और उनके साथ-साथ स्वयं को ही उज्बग सिद्ध कर दिया। वह दूसरों को ख़ुश रखना चाहता था, पर कहते हैं न सब को ख़ुश कर पाना कभी भी संभव नहीं होता। इस लघुकथा के माध्यम से जहाँ ‘बनवारीलाल’ को एक आदर्श स्थापित करते हुए दर्शाया गया है, वहीँ इस पात्र का दूसरा पहलू यह भी है कि सब आदर्श धरे रह जाते हैं जब समय रहते न चेत सके कोई। ‘जो चमकता दिखाई देता है वह हर बार सोना नहीं होता’, इस कहावत को सिद्ध करती हुई ‘उजबक की कदमताल’ एक बेहतरीन लघुकथा है, यहाँ बनवारीलाल के पात्र के माध्यम से मधुदीप जैसे एक कुशल लघुकथाकार ने अपने कौशल का परिचय देते हुए स्वार्थी लोगों से सावधान, और समय को पहचान खुद के व्यव्हार को तय करने की हिदायत भी दी है। और साथ में यह भी सिद्ध करने का सद्प्रयास किया है कि पिता बन जाना एक बार आसान हो सकता है परन्तु पिता बनकर उनके दायित्वों को निभा पाना उतना ही मुश्किल है जितना बिना माली के किसी भी बाग़ को उर्वरित और देख-रेख रख पाना।

- कल्पना भट्ट



बुधवार, 29 दिसंबर 2021

फेसबुक समूह साहित्य संवेद व किस्सा कोताह द्वारा आयोजित लघुकथा प्रतियोगिता का परिणाम

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https://www.facebook.com/groups/437133820382776/posts/1086572615438890
साहित्य_संवेद_किस्सा_कोताह_लघुकथा_प्रतियोगिता(आयोजन तिथि: 26-27नवम्बर 2021) के परिणाम के साथ आप सबके समक्ष उपस्थित हूँ।
प्रतियोगिता के समीक्षक-निर्णायक थे वरिष्ठ लघुकथाकार द्वय श्री Pawan Sharma और श्री Ramesh Gautam। आप दोनों विज्ञजनों का हार्दिक आभार।
विजेताओं का चयन मुश्किल भरा रहा। बहुत अच्छा लगा कि प्राप्तांक में कहीं-कहीं टाई का भी मामला रहा। सबसे अच्छी बात कि हम सभी लघुकथाप्रेमियों को अच्छी रचनाएँ पढ़ने को मिलीं।
दोनों निर्णायकों के मत और आयोजन समिति के सहमति के पश्चात विजेताओं का चयन इस प्रकार है। आप सभी को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं। आप सभी अपना पूरा पता पिन कोड के साथ और मोबाइल नंबर मुझे मेसेंजर पर भेज दें ताकि आपको पुरस्कृत पुस्तक भेजी जा सके।
प्रथम पुरस्कार(हलाहल: भारती दाधीच ) और
द्वितीय पुरस्कार(केंचुल: Saurabh Vachaspati )
को भवभूति मिश्र रचित लघुकथा संग्रह 'बची-खुची सम्पत्ति'+ मधुदीप संपादित #पड़ाव_पड़ताल का कोई एक खण्ड+ संतोष सुपेकर Santosh Supekar सम्पादित 'उत्कंठा के चलते'

तृतीय पुरस्कार(विस्तृत आकार : Jyotsana Singh )
विजेता को भवभूति मिश्र रचित लघुकथा संग्रह 'बची-खुची सम्पत्ति'+मधुदीप संपादित #पड़ाव_पड़ताल का कोई एक खण्ड

प्रोत्साहन पुरस्कार(तवायफ सभा: Chandresh Kumar Chhatlani एवं वक्त: Sandhya Tiwari )
भवभूति मिश्र रचित लघुकथा संग्रह 'बची-खुची सम्पत्ति'

विदित है कि प्रथम तीन विजेता रचनाओं का प्रकाशन #किस्सा_कोताह पत्रिका में किया जाएगा और प्रथम पांच विजेताओ को डिजिटल सर्टिफिकेट प्रदान किये जायेंगे।

श्री पवन शर्मा द्वारा लघुकथा एवं प्रतियोगिता में आई रचनाओं पर समीक्षकीय टिप्पणी:
"साहित्य संवेद किस्सा कोताह’ लघुकथा प्रतियोगिता"
मार्ग प्रशस्त करती समकालीन हिंदी लघुकथा
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•पवन शर्मा

लघुकथा पूर्णतः बौद्धिक लेखन है, जिसमें हमारे आसपास फैली व्याप्त विसंगतियों को उजागर कर पाठकों के सामने लाने का प्रयास किया जाता है। अनेक अवधारणाओं के बावजूद समकालीन हिंदी लघुकथा हिंदी साहित्य के प्रति अपना मार्ग प्रशस्त करती है।
आज की लघुकथाओं ने बदलते दौर में भी अपनी अस्मिता और गरिमा को बचाए रखा है। आज की लघुकथाओं ने मानवीय मूल्यों को बचाए रखा है, जो पाठकों का लगातार पीछा करते रहते हैं। सटीक, यथार्थपरक, संवेदनशील विषयों पर लिखी गई लघुकथाएं पाठक के मन मस्तिष्क पर अंकित रहती हैं। ऐसी ही लघुकथाएं दीर्घकालिक रहती हैं।
"लघुकथा जो न रिपोर्टिंग, न वक्तव्य, न संस्मरण और न दृश्यग्राफ है, बल्कि गद्य साहित्य में कथा विधा की सशक्त लघु आकारीय विधा है, जो वर्तमान की जमीन पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में कथा तत्वों को अपने में समाहित करती है।"
-लघुकथा में मौलिकता का समावेश हो। संक्षिप्तता हो। जीवन के एक ही पक्ष का सफल उद्घाटन हो। तीव्र गति से अपने लक्ष्य की ओर बढ़े। अनुभूतियों का सफल चित्रण हो। जिज्ञासा एवं कौतूहल का समावेश हो। प्रभाव और संवेदना की अन्विती हो। भाषा एवं शैली सरल हो। शीर्षक विषय के अनुकूल और छोटे हों। हिन्दी की अन्य विधाओं की तुलना में लघुकथा का आकार लघु होने के कारण पाठकों के बहुत नजदीक है। अपनी विधागत गुणों के दृष्टि से भी लघुकथा स्थापित हुई है। नि:संदेह लघुकथा मानव मूल्यों को तलाशने और तराशने का कार्य करती है। कठिन विरोधों के बावजूद भी साहित्य को एक गति प्रदान की है। विगत कई वर्षों से अनेक लेखक लघुकथा लेखन की ओर अग्रसर हुए हैं और अपने गम्भीर लघुकथा लेखन से अपना एक स्थान बनाया है। जिसमें नवीन भाषा, कथ्य, शिल्प देखने को मिले हैं। अनकों पत्र पत्रिकाओं ने लघुकथा के विकास में अपना अहम् योगदान दिया है।
‘साहित्य संवेद किस्सा कोताह’ लघुकथा प्रतियोगिता के लिए मुझे 73 लघुकथाएं प्राप्त हुईं। अद्योपांत लघुकथाओं को पढ़ने के बाद मुझे लगा कि बहुत सी लघुकथाएं जल्दबाजी में लिखी गई हैं। कथानक, शिल्प अच्छे हैं, पर लघुकथाओं में जो प्रभाव मिलना चाहिए, वो नहीं मिल पाया। कारण एक ही समझ में आया कि लघुकथा को लिखने के बाद गंभीरतापूर्वक उसे पढ़ने और परिमार्जित करने की आवश्यकता नहीं हुई, जबकि लेखक अपनी लिखी रचना को जितनी बार स्वयं पढ़ेगा, उतनी बार उसमें परिमार्जन की गुंजाइश रहती है, रचना तपकर कुंदन की तरह निखरेगी। लेखन में ‘क्वांटिटी’ के स्थान पर ‘क्वालिटी’ पर ध्यान देने की आवश्यकता होनी चाहिए, फिर भी बहुत सी लघुकथाएं अच्छी और प्रभावशाली हैं, जो पाठक को सहज रूप में आकृष्ट करती हैं और मन मस्तिष्क पर अपनी छाप छोड़ जाती हैं| बहरहाल, लघुकथा प्रतियोगिता में अच्छी और बेहतरीन लघुकथाएं पढ़ने को मिली हैं| सभी सम्मानित लघुकथाकारों को हार्दिक
बधाई
और शुभकामनाएं|
लघुकथा प्रतियोगिता हेतु प्राप्त लघुकथाओं में से तेजवीर सिंह Tej Veer Singh
की लघुकथा ‘पराभव’ राजनीति को आगे बढ़ाने और किसी को गिराने की परंपरा सालों साल से चलती आ रही है। अपनी राजनीतिक परंपरा में अपनी शाख बचाने एवं विकल्प् खोजती संवाद शैली में लिखी गई लघुकथा अद्भुत है। संवादों के एक एक शब्द पठनीय है। गहरे भाव की इस लघुकथा का अंत सोचने पर मजबूर करता है।
डॉ.रंजना जायसवाल की लघुकथा ‘भेड़िया’ कम शब्दों में लिखी गई मनुष्य के अंदर के भेड़ियेपन को दर्शाती है। ऐसे कुछ भेडिय़े शहरी संस्कृति में पले बड़े क्यों न हों। आखिर भेडिय़ा गांवों में ही तो घुसते हैं। भेडिय़ा को केन्द्र में रखकर लिखी गई लघुकथा प्रभाव डालती है।
सौरभ वाचस्पति ने लघुकथा ‘कैंचुल’ में जिस विषय को चुना है, वो पुराना जरूर है पर उन्होंने अपनी लघुकथा में उस चहरे को प्रस्तुत किया है। जो दया बाबू के चेहरे रूप में समाज में देखने को मिलता है। ऐसे लोगों की कैंचुल उतारने में राधा जैसी गांव की महिलाएं सक्षम हैं और उसे उतार फैंकने में परहेज नहीं करतीं।
सीमा व्यास की लघुकथा ‘रुकना या ठहरना’ में जीवन की भाग दौड़ में जीवन निकला जा रहा है, को भली प्रकार से दर्शाया गया है। दो पल भी जीवन को ठहरने का समय नहीं है। कम शब्दों में लिखी गई लघुकथा में स्वयं को ही तय करना होगा कि रुकना है या ठहरना।
रजनीश दीक्षित Rajnish Dixit की लघुकथा ‘इंसाफ’ प्रतीकात्मक शैली में लिखी गई लघुकथा है, जो प्रतीको के सहारे ही आगे बढ़ती है। मानवता डरी हुई और सहमी हुई है। विषय अलग है। भाषा एवं संवाद अच्छे हैं ।
नेहा अग्रवाल नेह Neha Agarwal Neh ने अपनी लघुकथा ‘फड़फड़ाते हुऐ पन्ने ’ में मॉं-बेटी के बीच के प्रेम को बेहद अनूठे और बेहतर ढंग से दर्शाया है। लघुकथा प्रभावकारी है। लघुकथा का अंत प्रभावित करता है।
शेख शहजाद उस्मांनी Sheikh Shahzad Usmani की लघुकथा ‘बूस्टर डोज’ कम शब्दों की व्यापारिक स्पर्धा इंगित करती और आपदा में अवसर तलाशती एक अच्छी लघुकथा है। जो समसामयिक और विश्वव्यापी समस्या को उजागर करती है।
चन्द्रेश कुमार छतलानी की लघुकथा ‘तवायफ सभा’ दकियानूसी विचारों आडंबर लिए, रीति रिवाजों में जकड़ी तवायफ की लघुकथा है| जिसके माध्यम से वह तवायफ तवायफ सभा में अदृश्य हथकड़ियों की ओर इशारा करती बेहतर लघुकथा है।
ज्योत्स्ना सिंह की लघुकथा ‘विस्तृत आकार’ संवेदना के स्तर पर एक अच्छी लघुकथा है। जीवन जीने में मेहनत का अंत सुखद ही होता है इसका उदाहरण निरखु के रूप में लघुकथा में उपस्थित है।
स्त्री जीवन पर लिखी गई मधु जैन
की लघुकथा ‘आकार से निराकार’ एक अच्छी लघुकथा है। एक स्त्री अपनी परंपरा का निर्वाह किस तरह से करती है, ये बात लघुकथा में बेहतर ढंग से दर्शाया गया है | लघुकथा का शीर्षक अत्यंत प्रभावित करता है।
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श्री रमेश गौतम द्वारा लघुकथा एवं प्रतियोगिता में आई रचनाओं पर की समीक्षकीय टिप्पणी:

साहित्य संवेद किस्सा कोताह लघुकथा प्रतियोगिता के संयोजक द्वारा प्रेषित लघुकथाओं को पढ़कर प्रतियोगिता हेतु श्रेष्ठता क्रम में लघुकथाओं का चयन करना एक कठिन अनुभव रहा। किस लघुकथा को कम अंक दिए जाएं, इसका निर्णय कर पाना बहुत ही मुश्किल था क्योंकि सभी लोग लघुकथाकारों ने अपनी ओर से उत्कृष्ट रचनाएं भेजीं किंतु जहाँ प्रतियोगिता की बात हो तो प्रत्येक प्रतियोगिता में कुछ मानक निर्धारित किए जाते हैं और उन्हीं के आधार पर रचनाओं का चयन किया जाता है। इस बात को ध्यान में रखते हुए तथा लघुकथा के कथ्य एवं शिल्प को मानक मानकर उनका मूल्यांकन किया गया। इस आधार पर ही श्रेष्ठ लघुकथाएं चयनित की गई हैं जिनमें अंकों का अंतर बहुत कम है फिर भी कथ्य की नव्यता को मुख्य आधार मानकर लघुकथा की श्रेष्ठता सूची बनाई गई है। विजयी लघुकथाकारों को बधाई के साथ सभी लघुकथाकारों से यह भी कहना है कि लघुकथा के कथ्य में नवीनता होने के साथ-साथ शिल्प को ध्यान में रखना भी अनिवार्य है। कुछ भी लिख देने से लघुकथा नहीं बनती है, ना ही कहानी को छोटा करने से लघुकथा बनती है। लघुकथा एक स्वतंत्र, सशक्त एवं संपूर्ण विधा है।
इस प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त करने वाली लघुकथा 'हलाहल'(भारती दधीच) अपने कथ्य की नवीनता के आधार पर ध्यान आकृष्ट करती है क्योंकि ऐसे ऐसे विमर्श पर केंद्रित है जो हमें सजग करता है कि लैंगिक विकलांगता के साथ जन्म देने वालों बच्चों के प्रति हीनता बोध से मुक्ति होनी चाहिए ना कि इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बना कर उनका सामाजिक बहिष्कार किया जाना चाहिए। लघुकथा 'वक्त'(सन्ध्या तिवारी) करोना काल की भयावहता को मार्मिक ढंग से हमारे समक्ष प्रस्तुत करती है। इस लघुकथा ने करोना काल के इस कटु यथार्थ को उजागर किया है कि महामारी ने सारी मानवीय संवेदनाओं को मृतप्राय कर दिया। लघुकथा का कथ्य संवेदनहीनता पर प्रश्नचिह्न लगाता है।
ज्योत्स्ना सिंह की 'विस्तृत आकार' मानवीय संवेदनाओं को आंदोलित करता है।
कल्पना मिश्रा की लघुकथा 'मनौती' दो बेटों के बीच तिरस्कृत मां की पीड़ा को नए ढंग से व्यक्त करती है। 'न्योछावर' बच्चों की खुशी को सर्वोपरि मानकर स्वार्थ से परे होकर परिवार में माता-पिता की सोच को ऊंचाई देती है। चंद्रेश छतलानी की 'तवायफ सभा' वेश्याओं के उजले पक्ष को प्रस्तुत करने का प्रयास करती है साथ ही देश और समाज की चिंता को भी रेखांकित करती है।
सौरभ वाचस्पति की 'केंचुल' स्त्रियों के संबंध में समाज के वितरित सोच पर प्रहार करती है।
शर्मिला चौहान Sharmila Chouhan की 'लाइलाज मर्ज' वर्तमान अस्पतालों में व्यवसायिक मानसिकता इस सीमा तक पसर चुकी है कि रोगी के मर जाने के बाद भी उसे वेंटिलेटर पर डाले रखते हैं और अधिक से अधिक बिल बनाने की कुत्सित प्रवृत्ति की ओर संकेत करती है। पुष्पा जोशी की 'लाल साड़ी गोटे वाली' समय पर काम न आने पर अपराध बोध से ग्रसित मनोभावों को चित्रित करती है। Poonam Katriar की 'आदिम स्पृहा' आज के युवाओं की अकेले रहने की सोच, भटकाव एवं स्वछंद मनोवृत्ति को दर्शाते हुए उसका सकारात्मक समाधान प्रस्तुत करती है। इसी तरह अन्य लघुकथाएँ भी अपने कथ्य की नवीनता से इस बात के लिए आश्वस्त करती हैं कि लघुकथा के क्षेत्र में सक्रियता बढ़ी है जो कि भविष्य के लिए आशान्वित करती है। सभी लघुकथाकारों को बहुत-बहुत बधाई।
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सधन्यवाद

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मंगलवार, 28 दिसंबर 2021

समकालीन लघुकथा स्वर्ण जयन्ती सम्मान 2021

समकालीन लघुकथा स्वर्ण जयन्ती सम्मान 2021 का परिणाम अविराम साहित्यिकी की प्रधान सम्पादिका की अनुमति से सभी मित्रों के समक्ष रखा जा रहा है। इस योजना में 15 प्रतिभागियों को ‘स्वर्ण जयन्ती समकालीन लघुकथा प्रतियोगिता 2021’ के आधार पर नामांकित किया गया था। इन प्रतिभागियों से आमंत्रित सामग्री- लघुकथाएँ और समकालीन लघुकथा के विकास में उनके योगदान सम्बन्धी विवरण का मूल्यांकन समकालीन लघुकथा के दो वरिष्ठ विशेषज्ञों श्री भगीरथ परिहार एवं डॉ. बलराम अग्रवाल तथा अविराम साहित्यिकी के संपादक मण्डल के दो सदस्यों- डॉ. उमेश महादोषी एवं डॉ. सुरेश पाण्डेय सपन द्वारा किया गया। दोनों विशेषज्ञों को कुल 60 अंक (प्रत्येक को लघुकथाओं के लिए 22.5 अंक तथा अन्य योगदान के लिए 7.5 अंक) निर्धारित किए गये थे। तथा संपादकीय टीम को कुल 40 अंक (डॉ. उमेश महादोषी को लघुकथाओं के लिए 20 अंक तथा अन्य योगदान के लिए 10 अंक एवं डॉ. सुरेश पाण्डेय सपन को लघुकथाओं के लिए 10 अंक) निर्धारित किए गये थे। इस प्रकार कुल 100 अंको में से 75 अंक के आधार पर लघुकथाओं का और 25 अंको के आधार पर लघुकथा के विकास में योगदान (जिसमें लघुकथा संग्रहों का प्रकाशन, सम्पादकीय योगदान, लघुकथा विमर्श/समीक्षा-समालोचना यानी आलेख कार्य, प्राप्त सम्मान-पुरस्कार आदि, इण्टरनेट आदि विभिन्न माध्यमों से अन्य योगदान आदि कार्य शामिल थे) का मूल्यांकन किया गया। समग्र मूल्यांकन (लघुकथाओं एवं लघुकथा के विकास में योगदान) के समेकित अंकों (चारों मूल्यांकनकर्ताओं के कुल योग यानी 100 अंकों) के आधार पर प्राप्त अंक (कोष्ठक में उनका मेरिट अनुक्रम) इस प्रकार हैं-

1. डॉ. संध्या तिवारी- 84.3           (1)

2. सुश्री ज्योत्स्ना ‘कपिल’- 76.0    (4)

3. सुश्री सविता इन्द्र गुप्ता- 77.1   (3)

4. श्री विरेंदर ‘वीर’ मेहता- 73.9  (6)

5. डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी- 83.6 (2)

6. डॉ. कुमार सम्भव जोशी- 74.6  (5)

7. डा. उपमा शर्मा- 71.1          (9)

8. डॉ. शैल चन्द्रा- 61.0           (13)

9. श्री सदानंद कवीश्वर- 59.3   (14)

10. सुश्री अंकिता भार्गव (स्व.)- 55.3 (15)

11. सुश्री भारती कुमारी- 62.9 (12)

12. सुश्री मीनू खरे- 72.2          (7)

13. सुश्री दिव्या शर्मा- 72.2      (8)

14. डॉ. क्षमा सिसोदिया- 67.6  (10)

15. डॉ. संगीता गाँधी- 65.1       (11)

सभी प्रतिभागियों को व्यक्तिगत सूचना उनके ई मेल से दी जा रही है।


पाँचो विजेताओं के नाम इस प्रकार हैं- 

डॉ. संध्या तिवारी- प्रथम (सम्मान राशि रु. 8000/- एवं 3000/- कुल 11000/-), 

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी‘ द्वितीय (कुल सम्मान राशि रु. 5000/-), 

सुश्री सविता इन्द्र गुप्ता- तृतीय (कुल सम्मान राशि रु. 3000/-), 

सुश्री ज्योत्स्ना ‘कपिल’- चतुर्थ (कुल सम्मान राशि रु. 2500/-) एवं 

डॉ. कुमार सम्भव जोशी- पंचम (कुल सम्मान राशि रु. 2000/-)। 


सभी विजेताओं को हार्दिक बधाई।

अपरिहार्य कारणों से कोई सम्मान समारोह आयोजित करना संभव नहीं है, अतः सम्मान राशि एवं प्रमाण पत्र आगामी दो सप्ताह में पंजीकृत डाक से भेज दिये जायेंगे।

लघुकथाओं के मूल्यांकन में सभी नामांकितों के मध्य अच्छी प्रतियोगिता रही। अनेक अच्छी लघुकथाएँ सामने आयीं। सभी नामांकित/प्रतिभागी मित्रों को हार्दिक शुभकामनाएँ। सहयोग के लिए सभी प्रतिभागियों एवं आदरणीय श्री भगीरथ परिहार जी, डॉ. बलराम अग्रवाल जी एवं डॉ. सुरेश पाण्डेय ‘सपन’ का हार्दिक आभार! स्वर्ण जयन्ती समकालीन लघुकथा प्रतियोगिता 2021 के सभी प्रतिभागियों और मूल्यांकन में शामिल रहे सभी आदरणीय अग्रजों/मित्रों का एक बार पुनः आभार!

संयोजक : उमेश महादोषी 

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