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मंगलवार, 21 जनवरी 2020

लेख: लघुकथा लेखन के लिए – माइक्रोस्कोपिक दृष्टि की आवश्यकता | योगराज प्रभाकर


लघुकथा शब्द का निर्माण लघु और कथा से मिलकर हुआ है। अर्थात लघुकथा गद्य की एक ऐसी विधा है जो आकार में लघु है और उसमे कथा तत्व विद्यमान है। अर्थात लघुता ही इसकी मुख्य पहचान है। जिस प्रकार उपन्यास खुली आंखों से देखी गयी घटनाओं का, परिस्थितियों का संग्रह होता है, उसी प्रकार कहानी दूरबीनी दृष्टि से देखी गयी किसी घटना या कई घटनाओं का वर्णन होती है।

इसके विपरीत लघुकथा के लिए माइक्रोस्कोपिक दृष्टि की आवश्यकता पड़ती है। इस क्रम में किसी घटना या किसी परिस्थिति के एक विशेष और महीन से विलक्षण पल को शिल्प तथा कथ्य के लेंसों से कई गुना बड़ा कर एक उभार दिया जाता है। किसी बहुत बड़े घटनाक्रम में से किसी विशेष क्षण को चुनकर उसे हाइलाइट करने का नाम ही लघुकथा है। इसे और आसानी से समझने के लिए शादी के एल्बम का उदाहरण लेना समीचीन होगा।

शादी के एल्बम में उपन्यास की तरह ही कई अध्याय होते है, तिलक का, मेहंदी का, हल्दी का, शगुन, बरात का, फेरे-विदाई एवं रिसेप्शन आदि का। ये सभी अध्याय स्वयं में अलग-अलग कहानियों की तरह स्वतंत्र इकाइयां होते हैं। लेकिन इसी एल्बम के किसी अध्याय में कई लघुकथाएं विद्यमान हो सकती हैं। कई क्षण ऐसे हो सकते हैं जो लघुकथा की मूल भावना के अनुसार होते हैं।

उदहारण के तौर पर खाना खाते हुए किसी व्यक्ति का हास्यास्पद चेहरा, किसी धीर-गंभीर समझे जाने वाले व्यक्ति के ठुमके, किसी नन्हें बच्चे की सुन्दर पोशाक, किसी की निश्छल हंसी, शराब के नशे से मस्त किसी का चेहरा, किसी की उदास भाव-भंगिमा या विदाई के समय दूल्हा पक्ष के किसी व्यक्ति के आंसू। यही वे क्षण हैं जो लघुकथा हैं। लघुकथा उड़ती हुई तितली के परों के रंग देख-गिन लेने की कला का नाम है। स्थूल में सूक्ष्म ढूंढ लेने की कला ही लघुकथा है। भीड़ के शोर-शराबे में भी किसी नन्हें बच्चे की खनखनाती हुई हंसी को साफ साफ सुन लेना लघुकथा है। भूसे के ढेर में से सुई ढूंढ लेने की कला का नाम लघुकथा है।

लघुकथा विसंगतियों की कोख से उत्पन्न होती है। हर घटना या हर समाचार लघुकथा का रूप धारण नहीं कर सकता। किसी विशेष परिस्थिति या घटना को जब लेखक अपनी रचनाशीलता और कल्पना का पुट देकर कलमबंद करता है तब एक लघुकथा का खाका तैयार होता है। लघुकथा एक बेहद नाजुक सी विधा है। एक भी अतिरिक्त वाक्य या शब्द इसकी सुंदरता पर कुठाराघात कर सकता है। उसी तरह ही किसी एक किन्तु अत्यंत महत्वपूर्ण शब्द की कमी इसे विकलांग भी बना सकती है। अत: लघुकथा में केवल वही कहा जाता है, जितने की आवश्यक होती है।

दरअसल लघुकथा किसी बहुत बड़े परिदृश्य में से एक विशेष क्षण को चुरा लेने का नाम है। लघुकथा को अक्सर एक आसान विधा मान लेने की गलती कर ली जाती है, जबकि वास्तविकता बिलकुल इसके विपरीत है। लघुकथा लिखना गद्य साहित्य की किसी भी विधा में लिखने से थोड़ा मुश्किल ही होता है, क्योंकि रचनाकार के पास बहुत ज्यादा शब्द खर्च करने की स्वतंत्रता बिलकुल नहीं होती। शब्द कम होते हैं, लेकिन बात भी पूरी कहनी होती है। और सन्देश भी शीशे की तरह साफ देना होता है। इसलिए एक लघुकथाकार को बेहद सावधान और सजग रहना पड़ता है।

लघुकथाकार अपने आस-पास घटित चीजों को एक माइक्रोस्कोपिक दृष्टि से देखता है और ऐसी चीज उभार कर सामने ले आता है जिसे नंगी आंखों से देखना असंभव होता है। दुर्भाग्य से आजकल लघुकथा के नाम पर समाचार, बतकही, किस्सागोई यहां तक कि चुटकुले भी परोसे जा रहे हैं।


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लघुकथा लेखन के लिए – माइक्रोस्कोपिक दृष्टि की आवश्यकता

सोमवार, 20 जनवरी 2020

श्रेष्ठ लघुकथाओं में से एक - 2

सम्माननीय मित्रों,
सादर नमस्कार।

"श्रेष्ठ लघुकथाओं में से एक" नामक श्रृंखला के क्रम को आगे बढ़ाते हुए वरिष्ठ लघुकथाकारा सुश्री विभा रश्मि जी की लघुकथा वर्चस्व पर चर्चा करते हैं। हालाँकि मुख्य पोस्ट पर मेरे विचार ही हैं, सभी वरिष्ठजन और मित्र कमेंट में अपने विचार को प्रकट करने हेतु पूर्ण स्वतंत्र हैं।  पहले इस रचना को पढ़ते हैं:


वर्चस्व / विभा रश्मि

पुरुष स्वर—संसार को मैं चलाने वाला…। 
गर्वीली मुस्कान!
हुम्म… लापरवाही का स्त्री स्वर उभरा। 
पुरुष­­—मंगल पर फ़तह की तैयारी, अब आगे-आगे देखती चलो ।
स्वर दर्प से लबरेज़ था।
हो…गा। मुझे क्या?  स्वर में लापरवाही।
मैं श्रेष्ठ हूँ। तुम तो सदियों से मेरे इशारों पर नाचती एक बाँदी…।
स्वर में सामंती शासकों जैसी तर्ज़ सुनाई दी।
परछाई फिर बोली—मेरे बस्स, दो हाथ एक मन, एक मुस्कान…एक कोख।
मेरी शक्ति…तुम्हारी धरा पर चौखट तक।
भारी स्वर के साथ  पुरुषत्व फैल गया, बस्स…इस पर इतना गुमान।
मेरे अविष्कारों-खोजों का तो तुम्हें गुमान ही नहीं…।
वो बोलता रहा तब तक, जब तक थक ना गया।
और स्त्री चिरमयी मुस्कान के साथ नन्ही पुरुष आकृति को स्तनपान करा जीवनदान देती रही।

-0-
इस लघुकथा पर मैं अपने अनुसार कुछ बातें कहना चाहूंगा।  कोई भी सुधिजन अपनी राय कमेंट में दे सकते हैं।


लघुकथा का उद्देश्य: मेरे अनुसार नारी के मूलभूत गुणों को बढ़ावा देना ही सही मायनों में नारी सशक्तिकरण है। स्त्री के प्रकृति प्रदत्त मूलभूत गुणों में से जनन, पालन और ममता को यहाँ दर्शाया गया है। उचित नारी शक्ति और प्रकृति ने स्त्री को पुरुष से कहीं काम नहीं बनाया, इसे भी उचित तरीके से दर्शाना, इस लघुकथा का उद्देश्य है। 

विसंगति: लैंगिक असमानता एक ऐसा दंश  है, जिसे हटा दिया जाए तो हमारे देश का काफी बेहतर विकास हो सकता है। हालाँकि यह समझते-बूझते भी कि पुरुष अपनी शारीरिक क्षमता का मूल, अपनी जीवन-शक्ति, माँ का दूध, स्वयं उत्पन्न नहीं कर सकता,  अपनी सामजिक, वैज्ञानिक, शारीरिक और मानसिक श्रेष्ठता साबित करने का असफल प्रयास कर रहा है। अपने अंत तक पहुँचते-पहुँचते यह रचना समझा देती है कि जनन की क्षमता के साथ पालन की क्षमता स्त्री में ही है। इसके अतिरिक्त अंत में 'चिरमयी मुस्कान' शब्दों का जो प्रयोग किया है वह स्त्री के अंतर्मन में स्थायी रूप से रहती हुई शांति का प्रतीक है, जो ममतामयी मुस्कराहट बनी है। 

लाघवता: 119 शब्दों की इस रचना में मुझे कहीं शब्दों को घटाने की ज़रूरत नहीं दिखाई दी। इसके अतिरिक्त यह रचना इतनी स्पष्ट है कि इसके कथानक के बारे में कुछ अधिक समझाने की ज़रूरत ही महसूस नहीं हो रही। 
  
कथानक: लघुकथा में पुरुष और स्त्री दोनों अपनी बात रख रहे हैं। पुरुष स्वर और भाव जहाँ दर्प और गर्व से लबरेज हैं, वहीँ स्त्री लापरवाह है और चिरमयी मुस्कान लिए नन्ही पुरुष आकृति को स्तनपान करा जीवनदान दे रही है। लघुकथा का यह कथानक ना सिर्फ आज के समाज का यथार्थ है वरन हमारा दायित्व क्या हो, यह भी सोचने के लिए मजबूर करता है। 

शिल्प: मेरे अनुसार उत्तम शिल्प से सजी यह लघुकथा, संवाद शैली के साथ अपनी बात कहने में पूरी तरह सक्षम है। //'संसार को मैं चलाने वाला' पुरुष स्वर// से  प्रारम्भ हो रचना के अंत में शिशु बन अपने जीवन को सुदृढ़ बनाने के लिए मुस्कुराती स्त्री की गोद में दुग्धपान कर रहा है। लघुकथा को अंत तक लाकर पाठकों को प्रभावित कर देना अच्छे शिल्प की निशानी है। 

शैली: संवादों से अपनी बात कहती यह लघुकथा, अंत में एक पंक्ति के विवरण से अपने उद्देश्य की पूर्ती कर रही है। मिश्रित शैली की इस रचना में विवरण और संवाद दोनों को चुस्त रखा गया है।

भाषा एवं संप्रेषण: रचना की भाषा आज के समाज की आम भाषा है जिससे लघुकथा आसानी से समझ में आती है। सम्प्रेषण भी कथानक को चुस्त-दुरुस्त रख रहा है। शब्दावली सटीक है, संवादों के शब्द पात्रों के अनुसार अनुकूल हैं और कम से कम शब्दों का प्रयोग कर स्पष्ट बात कही गयी है। प्रयुक्त  भाषा ने रचना की स्वाभाविकता को बनाये रखा है। यही स्वाभाविकता ही इस रचना की भाषायी गुण भी है। 


शीर्षक: 'वर्चस्व' शीर्षक इस रचना के कथानक के मर्म 'लैंगिक असमानता' को तो नहीं दर्शा रहा, लेकिन पुरुष का अपने वर्चस्व का मिथक विचार और स्त्री का अपने स्त्रीत्व गुणों पर वर्चस्व को तो कह ही रहा है। 

पात्र और चरित्र-चित्रण: लघुकथा में दो पात्र हैं - पुरुष और स्त्री। किसी पात्र का नामकरण नहीं है। पात्रों का सामान्यीकरण किया गया है। मेरा मानना है कि केवल नामकरण नहीं है, इसलिए पात्रों को अस्वीकार करना ठीक भी नहीं। यहाँ स्त्री स्वयं ही पात्र है, जो दुनिया की लगभग सभी (अपवादों को छोड़कर) स्त्रियों का प्रतिनिधित्व कर रहे है। 

कालखंड: यह लघुकथा एक ही कालखंड में सृजित की गयी है। रचना एक से अधिक कालखंडों में बँटी हुई नहीं है।

संदेश / सामाजिक महत्व: लघुकथा का मूल उद्देश्य,  उचित नारी सशक्तिकरण, अर्थात नारी के प्रकृति प्रदत्त जो गुण हैं,  पुरुष उनकी बराबरी नहीं कर सकता, यह दर्शाना है। पुरुष अपने गुणों के साथ है और स्त्री अपने गुणों के साथ। दोनों को बराबरी का सन्देश देती यह रचना अपने उद्देश्य में सफल है। 

अनकहा : इस लघुकथा का अंत //और स्त्री चिरमयी मुस्कान के साथ नन्ही पुरुष आकृति को स्तनपान करा जीवनदान देती रही।// एक ही पंक्ति में बिना अधिक कहे बहुत कुछ समझा रहा है। लघुकथा का उद्देश्य, सन्देश एवं सार्थकता भी इस पंक्ति में निहित हैं।

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी 

पठन योग्य:

रविवार, 19 जनवरी 2020

लेख | लघुकथा : रचना और शिल्प | मधुदीप



लघुकथा कथा परिवार का ही महत्वपूर्ण हिस्सा है जैसे कि उपन्यास, कहानी या नाटक । परिवार में जिस तरह हर व्यक्ति के गुण धर्म अलग-अलग होते हैं उसी तरह लघुकथा के भी गुण धर्म अन्य विधाओं से अलग हैं । लघु में विराट को प्रस्तुत करना ही लघुकथाकार का कौशल है । हमारे समक्ष पूरी सृष्टि है, इस सृष्टि में पृथ्वी है, पृथ्वी पर मनुष्य, मनुष्य का पूरा जीवन और उस जीवन का एक पल । यह विस्तृत से अणु की ओर यात्रा है और उस अणु का सही, सटीक वर्णण करना ही लघुकथा का अभीष्ट है । वही लघुकथाकार सफल माना जाता है जो उस पल को सही तरीके से पकड़कर उसकी पूरी संवेदना के साथ उसे पाठक तक प्रेषित कर सके । सृष्टि का अपना विशद महत्त्व है लेकिन हम अणु के महत्त्व को भी कम करके नहीं आँक सकते । मानव के पूरे जीवन में कितने ही महत्वपूर्ण पल होते हैं जो कि उपन्यास या कहानी लिखते समय लेखक की दृष्टि से ओझल रह जाते हैं क्योंकि उस समय लेखक की दृष्टि समग्र जीवन पर होती है मगर एक लघुकथाकार की दृष्टि में वे ही पल महत्वपूर्ण होते हैं जो एक कहानीकार या उपन्यासकार से उपेक्षित रह जाते हैं । उन पलों की कथा ही लघुकथा होती है और यही गुण-धर्म इस विधा को विशिष्ट भी बनाता है और अन्य विधाओं से अलग भी करता है । 
मैं आपके सामने एक बहुत पुरानी बात दोहरा रहा हूँ । लघुकथा एक शब्द है, इसे एकसाथ लिखना ही चाहिए मगर इसके दो भाग हैं, लघु तथा कथा और लघुकथा लिखते समय हमें इन दोनों बातों को ध्यान में रखना चाहिए । शुरू में तथा कुछ आग्रही अभी भी इसके पहले भाग लघु को लेकर बहुत आग्रही हैं । वे भूल जाते हैं कि इसमें कथा भी जुड़ा हुआ है और यदि लघुकथा में कथा नहीं होगी तो इसके लघु का क्या अर्थ रह जाएगा ! साहित्य में कथारस की अनिवार्यता से हम कतई इनकार नहीं कर सकते । इसलिए मेरा अनुरोध है कि आप विधा को बहुत अधिक लघु की सीमा में न बाँधें । उसे कथ्य की अनिवार्यता के अनुसार थोडा फैलाव लेने की आजादी अवश्य दें । कुछ आग्रही 250 शब्दों की सीमा पार करते ही उसे लघुकथा से बाहर कर देते हैं लेकिन मेरा मानना है कि यदि विषय और कथ्य की मांग है तो शब्द सीमा को 500-600 शब्दों तक यानी डेढ़-पौने दो पृष्ठ तक जाने दें लेकिन साथ ही मेरा कहना है कि लघुकथाकार अतिरिक्त विस्तार के मोह से बचें । भाई सतीशराज पुष्करणा और अन्य वरिष्ठों की बहुत-सी ऐसी श्रेष्ठ लघुकथाएँ हैं जो मेरी इस शब्द सीमा को छूती हैं । हाँ, कहानी के सार-संक्षेप को लघुकथा कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता ।
लघुकथा का मूल स्वर---- अब मैं आपके समक्ष इस विषय में अपने विचार रखना चाहता हूँ । मेरे विचार से पूरा साहित्य तीन बिन्दुओं पर टिका हुआ है । यथार्थ, संवेदना और विडम्बना यानी विसंगति । जीवन के यथार्थ का कलात्मक चित्रण ही साहित्य है । यथार्थ के कलात्मक चित्रण का मूल आधार है संवेदना और विडम्बना । संवेदना लघुकथा के साथ ही पूरे साहित्य का मूल आधार है लेकिन विडम्बना लघुकथा का मूल स्वर है । हालाँकि व्यंग्य पर भी विडम्बना या विसंगति का प्रभाव देखने को मिलता है लेकिन उसमें अतिश्योक्ति का भी प्रभाव होता है जिससे कि लघुकथा में बचना होता है । विडम्बना लघुकथा की तीव्रता को बहुत तीखा बना देती है । कहानी या उपन्यास में विडम्बना उतनी तीव्रता या तीखेपन से नहीं आ पाती क्योंकि उनके विवरण उसमें बाधक बन जाते हैं और विडम्बना का तीखापन खो जाता है । लघुकथा का फोर्मेट यानी आकार लघु होता है इसलिए इसमें जीवन की किसी भी विडम्बना को पूरी शिद्दत और तीखेपन के साथ प्रस्तुत किया जा सकता है । इसलिए यह लघुकथा की मूल प्रवृत्ति के के रूप में सामने आता है । इसका यह अर्थ कदापि न लगाया जाए कि संवेदना का लघुकथा में महत्वपूर्ण स्थान नहीं है । मैं पहले ही साफ़ कर चुका हूँ कि संवेदना पूर्ण साहित्य का मूल आधार है । हाँ, जीवन के यथार्थ पलों का विडम्बनात्मक चित्रण प्रस्तुत करके मानव सम्वेदना को अधिक गहराई से प्रस्तुत किया जा सकता है । यही साहित्य का प्राप्य है और लघुकथा का मूल स्वर भी ।
मेरे कुछ लघुकथाकार साथी लघुकथा में कालदोष को लेकर बहुत चिन्तित रहते हैं । ऊपर मैंने भी कहा है कि लघुकथा पल का कलात्मक चित्रण होती है मगर वह पल कितना बड़ा हो सकता है इसमें आकर हम उलझ जाते हैं । बात कुछ पलों, घंटों की ही होती है मगर उसे सही तरीके से प्रस्तुत करने के लिए हमें कई बार फ्लैश बेक में उस घटना को भी प्रस्तुत करना होता है जिससे ये पल सम्बन्धित होते हैं । कई बार कोई बड़ी बात कहने के लिए हमें घटना का फलक कुछ बड़ा लेना होता है और उसे देखकर हम भ्रमित हो जाते हैं कि यह लघुकथा कालदोष का शिकार हो गई । मेरी अपनी एक लघुकथा ‘समय का पहिया घूम रहा है’, अशोक भाटिया की लघुकथा ‘नमस्ते की वापिसी’ तथा भाई श्याम सुन्दर अग्रवाल की लघुकथा ‘सन्तू’ को लेकर काफी पाठक और नवोदित लघुकथाकार भ्रमित हो चुके हैं लेकिन ये सभी बेहतरीन लघुकथाएँ हैं, सब इस बात को स्वीकार करते हैं । यदि हमें लघुकथा के माध्यम से किसी बड़े फलक की कोई महत्वपूर्ण बात कहनी है तो हमें इस विषय में थोडा लचीला रुख अपनाना होगा । फ्लैश बेक या अन्य तरीकों से और लघुकथाकार अपने कौशल से इसे बाखूबी साध सकता है । इसके कुछ उदाहरण हमें वरिष्ठों की बहुत-सी श्रेष्ठ लघुकथाओं में देखने को मिल सकता है । इस विषय में जितनी शंकाएँ हैं, उन्हें कुछ समय के लिए अलग रखकर हम लघुकथा में कुछ बड़ी बात कहें और अपने कौशल से उस रचना में कालदोष का निवारण करें । कहीं हमारी लघुकथा घर-परिवार के विषयों में ही उलझकर या सिमटकर न रह जाए । हमें आज के समय को पकड़ना है, आज की बड़ी-बड़ी समस्याओं को पूरी शिद्दत से लघुकथा में प्रस्तुत करना है तभी लघुकथा इस सदी की विधा बन सकेगी । कोई भी विधा तभी जीवित रहती है जब वह अतीत को याद करते हुए आज की मूलभूत समस्याओं से जुड़े । सिर्फ घर-परिवार, सास-बहु, बाप-बेटे के अच्छे-बुरे व्यवहार या दो विपरीत पक्षों का चित्रण करके लघुकथा बहुत आगे तक नहीं जा सकेगी । आज जीवन में बहुत तरह के उलझाव हैं और लघुकथा को उन्हें स्वर देना है ताकि वह आमजन के दिल में प्रवेश कर सके । हमें विधा को विस्तार देने के लिए आज के समय को अपनी लघुकथाओं का विषय बनाना ही होगा । कहानी यदि साहित्य की मूल धारा में रही है तो उसका यही कारण है कि उसने अपने समय की बहुत बारीकी से पहचान की है और उसे व्यक्त किया है । इस सदी की मूल विधा बनने के लिए लघुकथा को भी यही करना होगा ।
मेरी बात कुछ अधिक लम्बी होती जा रही है, इसलिए कुछ मुद्दों को मैं बहुत संक्षेप में आपके सामने रखूँगा । लघुकथा की भाषा जनभाषा के नजदीक होनी चाहिए अर्थात लघुकथा में जयशंकर प्रसाद की बजाय मुंशी प्रेमचन्द की भाषा अधिक स्वीकार्य होगी क्योंकि उसे हमारा आज का पाठक बेहतर तरीके से समझ सकता है । यह तो सर्वमान्य है कि हम जिसके लिए लिख रहे हैं उसे वह समझ तो आनी ही चाहिए । आज का समय विश्वविद्यालयों के शोध छात्रों या प्रोफेसरों के लिए लिखने का नहीं है ।
घटना और रचना के अन्तर को आप सब समझते हैं । मुझे यह कहने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए कि घटना रचना नहीं होती । घटना का विवरण प्रस्तुत करना पत्रकारिता होती है, साहित्य लेखन नहीं होता । इस बारे में कहने को बहुत समय चाहिए, इसलिए संकेत को समझें और नवोदित लघुकथाकार इस पर विशेष ध्यान दें ।
लघुकथा में पंच लाइन के बारे में बहुत संक्षेप में । सिर्फ पंच लाइन को ही लघुकथा का मूल समझने के भ्रम में न उलझें और न ही उसे समीक्षा का मूल आधार बनाएँ । लघुकथा को उसकी सम्पूर्णता में देखें, उसके लेखन में क्रमिक विकास का ध्यान रखें और कभी एक झटके से लघुकथा का अन्त न करें । यदि स्वाभाविक रूप से लघुकथा के अन्त में किसी विडम्बना के कारण कोई पंच आता है तो ही ठीक होगा अन्यथा वह लघुकथा में थोपा हुआ लगेगा । यह बात मैं जोर देकर इसलिए कह रहा हूँ कि मेरे बहुत से नवोदित साथी इस पंच लाइन शब्द की अवधारणा से भ्रमित हो रहे है जबकि 2012 से पहले ऐसा बिलकुल नहीं था ।
एक बात और, आजकल फेस बुक पर जो लघुकथाएँ आ रही हैं उनमें कथ्य तो पुराने हैं ही, उनके प्रस्तुतिकरण में भी कोई नवीनता नहीं है । हमें नए विषय तो तलाशने ही होंगे, साथ ही लघुकथा लिखते समय शिल्प, शैली और भाषा की तरफ भी धयान देना होगा । लघुकथा के शिल्प और शैली में नए प्रयोग विधा को आगे ले जाने में सहायक होंगे । हमारे वरिष्ठ साथियों को तो लघुकथा में बेहिचक कुछ नए प्रयोग करने ही चाहियें ताकि विधा में ठहराव के खतरे से बचा जा सके । नए लेखकों में भी नई ऊर्जा है, वे भी मेरी इस बात पर गौर करें । लघुकथा में बिम्बों का बहुत महत्वपूर्ण स्थान होता है, इसकी तरफ विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए ।
अन्त में एक आग्रह, लघुकथा को बहुत अधिक बन्धनों में न जकड़ें और कुछ समय तक इसका स्वाभाविक विकास होने दें । समय और स्वतन्त्र समीक्षक ही इसके सही स्वरूप की पहचान पहचान निर्धारित करेंगे ।
मेरा लघुकथाकारों से इतना ही आग्रह है --- लघुकथा में पल विशेष को मजबूती से पकड़िये, उसे आज से जोड़कर रखिये । लघुकथा साहित्य की मुख्य विधा के रूप में पाठक के सामने आ रही है, इसमें कतई कोई सन्देह नहीं होना चाहिए ।**

सम्पर्क : 138/16 त्रिनगर, दिल्ली-110 035 
मोबाइल : 93124 00709

मंगलवार, 7 जनवरी 2020

लघुकथा वीडियो: 2019 में आई लघुकथा सम्बंधित पुस्तकें/पत्रिकाएं । मृणाल आशुतोष

मृणाल आशुतोष जी ने 2019 में आयी लघुकथा पुस्तक/पत्रिकाओं को संग्रह कर वीडियो रूप दिया है। इस सोच को अमली जामा पहनाया है मित्र शोभित गुप्ता जी ने।