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रविवार, 15 सितंबर 2019

लघुकथा: रमधनिया | मुकेश कुमार ऋषि वर्मा

लघुकथा: रमधनिया

रमधनिया ने ठान लिया था कि वो अपने शराबी - जुआरी पति को आज सबक सिखा कर ही मानेगी | बेचारी रमधनिया मध्यप्रदेश से चलकर आगरा मजदूरी करने आई थी | सुबह से शाम तक खेतों में आलू बीनती तब जाकर प्रतिदिन सौ - सवा सौ रुपये कमा पाती | साथ में दो बेटियाँ भी थी, इसलिए खाने-पीने का खर्च भी ज्यादा था | पति काम तो करता था पर सारी कमाई जुआ - शराब में उढा देता और ऊपर से रमधनिया के कमाये पैसों पर भी हक जमाता |

देररात टुन्न होकर रमधनिया का पति आया तो दोनों में झगड़ा हो गया | झगड़ा इतना बढ़ गया कि झगड़े की खबर ठेकेदार को पता चल गई | उसने तुरन्त सौ नं.  पर सूचना दी, कुछ ही समय बाद सौ नं. की गाड़ी आ गई | पुलिस आने से झगड़ा खत्म हो गया और पुलिस ने दोनों का राजीनामा करा दिया परन्तु राजीनामा के बदले दो हजार रुपए रमधनिया को गंवाने पड़े | वैसे दो हजार बचाने के लिए रमधनिया ने उन पुलिस महाशयों के खूब हाथ-पैर जोडे, लेकिन उन निर्दईयों को तनिक भी तरस नहीं आया | सच भी है वर्दी पहनकर कोई देवता नहीं बन जाता |

रमधनिया अपने तिरपाल के बने झोपड़े में पड़ी-पड़ी सोच रही थी, काश वो अपने शराबी पति से न लड़ती और हजार - पांच सौ उसे दे देती तो कम से कम कुछ पैसे तो बच ही जाते... |

- मुकेश कुमार ऋषि वर्मा
ग्राम रिहावली, डाक तारौली,
फतेहाबाद, आगरा, 283111

लघुकथा: अनुपयोगी | कपिल शास्त्री

अनुपयोगी


जनवरी की एक सुबह। फिजा में ठंडक घुली हुई है। मुँह धोकर पोंछ लिया है। आईने में नहीं देखा है। अब वैसा ही तो होगा। रात भर में क्या कुछ बदल जायेगा! चाय पी ली है। मोटरसाइकिल पोर्च में रखे-रखे गंदी हो गयी है। उसके दोनों मिररर्स पर धूल जमी हुई है। इंडीकेटर्स हैं, हाथ हैं तो इनको साफ करने की जरूरत नहीं लगती। साफ करने का मन भी नहीं है। ऐसे ही स्टार्ट करके चौराहे तक आ गया हूँ। गुनगुनी धूप अच्छी लग रही है। कुछ देर यहीं खड़े रहने का मन है। सिटी बस का यह आखरी स्टॉप है। इसलिए ड्रायवर बस वापस मोड़ते हुए  ऐसे खुश है जैसे धरती की एक परिक्रमा पूरी कर ली है।

मजदूर काम पर जाने से पहले टपरे में पोहे-जलेबी खा रहे हैं। रूम शेयर करके रहने वाली कॉलेज की कुछ लड़कियाँ भी टपरे पर चाय पी रही हैं। बच्चे यूनिफार्म में पैदल स्कूल जा रहे हैं। कुछ स्कूल बस का इंतजार कर रहे हैं। एक कुत्ता तीन टांगों पर चल रहा है। चौथी टांग टेढ़ी जो है।

पंद्रह-सोलह साल की लड़की और उसके छोटे भाई को स्‍कूल बस तक छोड़ने उसके पिताजी आये हुए हैं। जब तक बस नहीं आ जाती वो नहीं जाएंगे। मैं लड़की के बाप की उम्र का हूँ मगर बाप नहीं हूँ। लड़की मेरी बेटी से भी कम उम्र की है मगर बेटी नहीं है। लड़की सुंदर है। मेरी नीयत में खोट नहीं है। बस इस वक्‍त अपनी उम्र के बारे में कुछ सोचना नहीं चाहता। बस आ गयी। पहले भाई लपककर चढ़ गया। लड़की ठिठकी। उसने एक पल को मेरी मोटरसाइकिल के मिरर में खुद को देखा और फिर बस में चढ़ गई। मेरा अनुपयोगी मिरर एक क्षण को उपयोगी हो गया।

धूल थी तो क्या हुआ! उम्र ऐसी है कि एक आईना तो चाहिए।

वाकया बस इतना सा ही है। लेकिन श्रीमती जी निष्कर्ष पर पहुँच चुकी हैं-"अब समझ में आया वहाँ खड़े रहने का मन क्यों करता है।"
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परिचय
नाम-कपिल शास्त्री
शिक्षा-मॉडल हायर सेकेंडरी स्कूल,टी.टी.नगर.से वर्ष 1982 में ग्यारवीं पास, बी.एस.सी.(मोतीलाल विज्ञानं महाविद्यालय)1986,एम्.एस.सी.(एप्लाइड जियोलॉजी)(यूनिवर्सिटी टीचिंग डिपार्टमेंट)बरकतउल्ला विश्वविद्यालय ,वर्ष 1989.
लेखन विधा-लघुकथा (2015 से लेखन आरम्भ)
प्रकाशित कृतियाँ-वनिका पब्लिकेशन द्वारा प्रकाशित लघुकथा संकलन "बूँद बूँद सागर"(संपादन डॉ.जीतेन्द्र "जीतू" व डॉ.नीरज सुधांशु)में चार लघुकथाएँ "इन्द्रधनुष","ठेला","रक्षा बंद","कवर"प्रकाशित।वनिका पब्लिकेशन द्वारा ही प्रकाशित द्वितीय लघुकथा संकलन "अपने अपने क्षितिज"में चार लघुकथाएँ "हार-जीत,सेफ्टी वाल्व" "ढोंग" "चार रुपये की ख़ुशी" प्रकाशित।राष्ट्रीय पत्रिका "सत्य की मशाल"और "अविराम सहित्यकी"में लघुकथा प्रकाशित।"लघुकथा के परिंदे" "गागर में सागर" "लघुकथा साहित्य" जैसे प्रतिष्ठित फेसबुक लघुकथा ग्रुप्स में नियमित रूप से प्रकाशन।"स्टोरी मिरर.कॉम" होप्स मेगेज़ीन" "प्रतिलिपि.कॉम"में अनेक रचनाएँ प्रकाशित।पहला लघुकथा संग्रह "ज़िन्दगी की छलांग"जून 2017 में वनिका पब्लिकेशन,बिजनोर द्वारा प्रकाशित।शब्द प्रवाह सामाजिक,सांस्कृतिक मंच उज्जैन द्वारा "ज़िन्दगी की छलांग"को लघुकथा विधा में प्रथम पुरस्कार।इंदौर की 'क्षितिज' साहित्यिक संस्था द्वारा वर्ष 2018 में नवोदित लेखक सम्मान।

सम्प्रति-वर्ष 1990 से 2004 तक प्रतिष्ठित फार्मा कंपनी "वोखहार्ड"में कार्यरत।2004 से वर्तमान तक मेडिकल होलसेल का व्यापार
पता-निरुपम रीजेंसी,S-3,231A/2A साकेत नगर.भोपाल.
संपर्क-9406543770.
email kshastri121@gmail.com

शनिवार, 14 सितंबर 2019

हिंदी दिवस पर मेरी एक लघुकथा

गर्व-हीन भावना / डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी 


टैक्सी में बैठते ही उसके दिल की धड़कन और भी तेज़ हो गयी, वह मन ही मन सोचने लगा,

"साहब को क्या सूझी जो अंग्रेज मेहमान को लाने के लिये मुझे भेज दिया, मैं उससे बात कैसे करूं पाऊंगा? माँ-बाप ने भी जाने क्या सोचकर मुझे हिंदी स्कूल में पढाया, आज अंग्रेजी जानता होता तो पता नहीं क्या होता? इस हिंदी ने तो मेरा जीवन ही..."
अचानक वाहन-चालक ने बहुत तेज़ी से ब्रेक लगाये, उसका शरीर और विचार दोनों हिल गए, उसने आँखें तरेरते हुए चालक से पूछा, "क्यों बे? क्या हुआ?"
"सर, वन बुल वाज़ क्रॉसिंग द रोड (श्रीमान, एक बैल रास्ता पार कर रहा था।)"
चालक का उत्तर सुनते ही वह चौंका, उसने कुछ कहने के लिये मुंह खोला और फिर कुछ सोच कर अगले ही क्षण होंठ चबाते हुए उसने आँखें घुमा लीं।
उसके विचारों में अब अंग्रेजी के अध्यापक आ गये, जो अपने हाथ से ग्लोब को घुमाते हुए कहते थे, "इंग्लिश सीख लो, हिंदी में कुछ नहीं रखा। नहीं सीखी तो जिंदगी भर एक बाबू ही रह जाओगे।"
उसे यह बात आज समझ में आई, टैक्सी तब तक हवाई अड्डे पहुँच चुकी थी। विदेशी मेहमान उसका वहीँ इन्तजार कर रहा था।
गोरे चेहरे को देखकर उसकी चाल तेज़ हो गयी, अपनी कमीज़ को सही कर, लगभग दौड़ता हुआ वह विदेशी मेहमान के पास गया और हाथ आगे बढ़ाता हुआ बोला, "हेल्लो सर..."
उस विदेशी मेहमान ने भी उसका हाथ थामा और दो क्षणों पश्चात् हाथ छोड़कर दोनों हाथ जोड़े और कहा,
"नमस्कार, मैं आपके... देश की मिट्टी... से बहुत प्यार करता हूँ... और आपकी मीठी भाषा हिंदी... का विद्यार्थी हूँ..."
सुनते ही उसे मेहमान के कपड़ों पर लगे विदेशी इत्र की सुगंध जानी-पहचानी सी लगने लगी

अनहद कृति (ISSN: 2349-2791) में मेरी लघुकथा : भूख

लघुकथा : भूख |  डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

"उफ़..." रोटी के थाली में गिरते ही, थाली रोटी के बोझ से बेचैन हो उठी। रोज़ तो दिन में दो बार ही उसे रोटी का बोझ सहना होता था, लेकिन आज उसके मालिक नया मकान बनने की ख़ुशी में भिखारियों को भोजन करवा रहे थे, इसलिए अपनी अन्य साथियों के साथ उसे भी यह बोझ बार-बार ढोना पड़ रहा था।

थाली में रोटी रख कर जैसे ही मकान-मालिक आगे बढ़ा, तो देखा कि भिखारी के साथ एक कुत्ता बैठा है, और भिखारी रोटी का एक टुकड़ा तोड़ कर उस कुत्ते की तरफ़ बढ़ा रहा है, मकान-मालिक ने लात मारकर कुत्ते को भगा दिया।

और पता नहीं क्यों भिखारी भी विचलित होकर भरी हुई थाली वहीं छोड़ कर चला गया। 

यह देख थाली की बेचैनी कुछ कम हुई, उसने हँसते हुए कहा, "कुत्ता इंसानों की पंक्ति में और इंसान कुत्ते के पीछे!" 

रोटी ने उसकी बात सुनी और गंभीर स्वर में उत्तर दिया, "जब पेट खाली होता है तो इंसान और जानवर एक समान होता है। भूख को रोटी बांटने वाला और सहेजने वाला नहीं जानता, रोटी मांगने वाला जानता है।"

सुनते ही थाली को वहीं खड़े मकान-मालिक के चेहरे का प्रतिबिम्ब अपने बाहरी किनारों में दिखाई देने लगा।

Source:
https://www.anhadkriti.com/chandresh-kumar-chhatlani-short-bhookh

लघुकथा वीडियो: बदलाव | लेखक: संतोष सुपेकर | वाचन : भूषण जैन


शुक्रवार, 13 सितंबर 2019

लघुकथा समाचार: महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय, रोहतक के हरियाणा अध्ययन केन्द्र लघुकथा लेखन तथा कविता लेखन प्रतियोगिताओं का आयोजन

Bhaskar News Network Sep 12, 2019


महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय के हरियाणा अध्ययन केन्द्र लघुकथा लेखन तथा कविता लेखन प्रतियोगिताओं का आयोजन करेगा। बदलता हरियाणा-बढ़ता हरियाणा, हमारा प्यारा हरियाणा, जल ही जीवन है व सोशल मीडिया के युग में जीवन विषय पर आयोजित की जाने वाले इस प्रतियोगिता में हरियाणा के सभी राज्य विश्वविद्यालयों तथा संबद्ध महाविद्यालयों के विद्यार्थी भाग ले सकते हैं। हरियाणा अध्ययन केन्द्र की निदेशिका प्रो. अंजना गर्ग ने बताया इन प्रतियोगिताओं में भाग लेने वाले विद्यार्थी 31 अक्टूबर तक अपनी लघुकथा या कविता भारतीय डाक या ईमेल के माध्यम से हरियाणा अध्ययन केन्द्र में भेज सकते हैं। 


Source:
https://www.bhaskar.com/haryana/rohtak/news/haryana-news-articles-asked-for-short-story-writing-and-poetry-writing-by-31-october-084504-5467193.html

डा. अंजु लता सिंह की दो लघुकथाएं


लघुकथा: जीने का तरीका

आज सुबह उठते ही अपने बैडरूम के दरवाजे पर  पिंक फूलों का बुके और चाकलेट ट्री करीने से रखा हुआ देखकर कुछ पल के लिये तो स्टेच्यू  सी बन गई थी मैं .अगले पल ही बखूबी समझ गई कि यह हो ना हो नई बहू का ही प्लान होगा.तभी देखा  बेटा महेश और  बहू श्रुति किचन की ओर से बेड टी की ट्रे लेकर चले आ रहे हैं.

सुखद आश्चर्य से मैं इतना ही कह पाई - "अरे!इतनी सुबह  सुबह उठ गए तुम  दोनों..थैंक्यू .. थैंक्यू. चलो अब जाकर सो जाओ। मुझे तो आदत है सुबह ठीक साढ़े छ: बजे  निकलकर ही पहुंच पाती हूं स्कूल. फरीदाबाद जाने में पूरे फोर्टी मिनिट्स तो लगते  ही हैं बेटा"
पतिदेव से मुखातिब होकर मैं बोली - "चलो जी!आप तो बोरिंग  हो. शादी की पच्चीसवीं सालगिरह पर भी मुझसे ही डिनर बनवाया था.आपसे गिफ्ट  मिलना तो सपना ही होता है.आज शाम को मधुबन चलेंगे.बच्चों को लेकर जरूर..सुना"
कहते हुए मैं आश्वस्त होना चाहती थी.

"देखेंगे..अब तुम जाने की तैयारी करो नहीं तो लग जाएगा  रजिस्टर में तुम्हारा ग्रीन मार्क.."
समीर का वही घिसा पिटा जवाब सुनकर मुस्कुराते हुए मैं अपने काम में लग गई .

स्कूल में तो सारा दिन व्यस्तता में ही बीत गया था. बेहद थकावट महसूस कर रही थी. कितनी विशेज मिलीं आज. श्रुति के आने से घर में बेटी की कमी पूरी हो गई थी. जहां पहले दरवाजे पर लटका ताला मुंह चिढ़ाता था वहीं अब द्वार पर पानी का गिलास  लेकर बिटिया (बहू) रोज स्वागत करती है.चलो आज दो बंडल चैक करने हैं बारहवीं प्री बोर्ड के..रोटी तो बनानी नहीं आज..सोचते हुए कार में बैठकर मुझे नींद सी आ गई .घर के गेट पर पहुंचकर जैसे ही कार से उतरी सारे बंगले पर फूलों और बैलून्स की सजावट देखकर असमंजस में पड़ गई  थी मैं. कुछ समझ नहीं पा रही थी. सोचा नीचे किराएदार की छोटी बच्ची का बर्थ डे वगैरा कोई फंक्शन होगा. तभी बालकनी से झांकते हुए बेटा बहू मेरे सिर पर गुलाबों और मोंगरों की पंखुड़ियों की बरसात करते हुए चिल्लाए - "हैप्पी हैप्पी हैप्पी एनीवर्सरी. मम्मा! वैलकम. वैलकम."

चित्ताकर्षक रंगोली पर कदम रखवाते हुए श्रुति ने मेरा हाथ पकड़कर मुझे कमरे में प्रविष्ट  कराया जहां मह मह महकता हुआ हमारा कमरा किसी फिल्मी कक्ष सा प्यारा सा लग रहा था। कमरे में बिखरे हुए बेतरतीब सामान  अब करीने से सजा दिये गए थे.हम दोनों की शादी की एकमात्र ब्लैक एंड व्हाइट फोटो रंगीन विशालकाय फ्रेम में जड़ी हुई सामने की दीवार पर मनमोहक लग रही थी.
"अरे बच्चों!ऑफिस से लौटकर पापा गुस्सा करेंगे ..कितना खर्चा  कर दिया ?क्यों परेशान  हुए ?"
"डरो मत मम्मा! कुछ नहीं कहेंगे पापा" श्रुति मुझे बांहों में भरकर बोली.
मुझे लगा जैसे सारी कायनात बहू के स्नेहालिंगन का रूप लेकर मेरे जीवन को धन्य कर गई है.
"अच्छा मैं जरा सबको फोन तो कर लूं ? बड़े सारे मैसेज आए हुए हैं मेरे फोन पर. स्कूल में तो एलाउड ही नहीं होता फोन करना."
फोन मेरे हाथ से झटककर श्रुति शरारत से बोली- "नो मम्मा! नो. फोन  कहीं नहीं करना. अभी सब आ रहे हैं आपसे मिलने."
"क्या? सच!" मैं खुशी से फूली नहीं समा रही थी.
रात होते होते परिवार के सभी नियर्स और डियर्स घर पर जमा हो गए थे. धूमधाम से विवाह की तीसवीं वर्षगांठ मनाकर बच्चों ने  हमारे ह्रदय में एक स्नेहपथ तो बना ही लिया था. परिवार  में सभी खुलकर वाह वाही कर रहे थे बच्चों की. जीवन की बिजी दिनचर्या और आपाधापी  में हम हमेशा वक्त की कमी का रोना रोते रहते थे या फिर  कंजूसी ही समझिये.
सबको विदा करके मैं लेटकर सोच रही थी- "स्नेह की डोर बांधकर  बेटी सी बहू ने हमें जीने का तरीका सिखा दिया है."
पड़ोसी के रेडियो पर छाया गीत के मीठे मद्धिम स्वर कानों को सुरीले लग रहे थे-
"यही है वो सांझ और सवेरा.
जिसके लिये तड़पे हम सारा जीवन भर."
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लघुकथा: नजर

आज फिर बड़ी बहू की याद बरबस ही आने लगी थी मुझे .जब भी जरा सज धजकर कहीं निकल जाती और सजीली लाल,काली ड्रेस पहन लेती थी बस मरी नजर उसके पीछे ही पड़ जाती.
मैं भाग-भागकर कान के पीछे डिठोना लगाती तो कभी मुट्ठी में नमक भींचकर सात बार फेरती और कभी सरसों के तेल से भरी रूई की बाती जलाकर टप-टप ढेर टोपे(बूंदें) टपकाकर शीनू (शान्वी) की नजर उतारती.

साक्षात् लक्ष्मी के कदम पड़े थे मेरे आंगन में.

दुनिया भर से कैसे बचाती भला उसे. अब तो परदेसी होकर नजर भी आती है,तो स्काइप पर.झलक ही मिलती है समझो बस.सातवें साल में जाकर बाबा बजरंगबली की मन्नतों के बाद सुपौत्र अभि (अभिनंदन) जन्मा. उसकी शरारतों से अनभिज्ञ सी मैं, ये और छोटा बेटा, बहू साल में कुछेक रोज के लिये उनके पास  जाकर अपना लाड़-दुलार और स्नेह लुढ़काकर  कर्म की इतिश्री मान लेते हैं,पर नजर का क्या?

परदेसी परिवेश में तो उसे हल्की फुल्की बीमारी मानकर जतन से सुनियोजित  व्यापारिक बर्ताव  किया जाता है. नजर चढ़ने और उतरने को महज अंधविश्वास  का पर्याय मानकर ठुकरा देते हैं.
बात-बात पर मम्मा से नजर उतरवाने वाली शीनू अब सयानी चिकित्सक बन गई थी.

स्वप्न से बाहर उनींदी आंखों को मसला तो महसूस हुआ कि अभी दिन नहीं निकला है. गहरा गई रात में अचानक छोटे बेटे के उठने और रसोई में कुछ खटर-पटर करने पर मेरी नींद खुल गई थी. वैसे भी रात के एक बजे तो घर ही पहुंचे थे. परी से कम नहीं लग रही थी पार्टी  में मेरी छुटकी लाड़ली बहू पायल आज. उनकी शादी  की पहली वर्षगांठ जो थी आज.

ऊंघते हुए पूछ ही लिया - "बेटा! क्या हुआ?"
- "बस यूं ही ..काॅटन कहां है माॅम?" बेटा महीन स्वर में बोला.
- "भगवान  जी के मंदिर में."
- फिर नींद खुली तो देखा-सोती हुई पायल पर तेल डूबी बाती घुमाती हुई एक परछाई हौले-हौले बढ़ते कदमों से रसोई की ओर मुड़ी.
- जलती बाती से चट-चट की तेज आती आवाजें छुटकी बहू को काली नजर लगने का भान करा रही थीं.

मैं भी आश्वस्त होकर अपने बैडरूम में वापस लौटआई थी.यही सोचकर कि चलो, बालक चाहे कहीं भी रहें कम से कम बुरी नजर के शिकार होने से तो बचे रहेंगे.
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डा. अंजु लता सिंह 
सी-211/212
पर्यावरण काम्प्लेक्स
समीपस्थ-गार्डन ऑफ फाइव सैंसेज
सैदुलाजाब
नई दिल्ली-30
दूरभाष -9868176767