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शुक्रवार, 3 जनवरी 2020

‘लघुकथा कलश’ के ‘राष्ट्रीय चेतना विशेषांक’ (जनवरी-जून 2020) हेतु घोषणा | योगराज प्रभाकर

आदरणीय साथियो, 
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‘लघुकथा कलश’ के ‘राष्ट्रीय चेतना विशेषांक’ (जनवरी-जून 2020) हेतु भारी संख्या में रचनाएँ प्राप्त हुईं। कतिपय कारणों से हमें 39 रचनाकारों की लगभग 100 लघुकथाएँ निरस्त करनी पड़ीं। इस अंक में कुल 152 रचनाकारों की 250 से ऊपर लघुकथाएँ शामिल की जा रही हैं, चयनित रचनाकारों की लगभग अंतिम सूची इस प्रकार है:
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(हिंदी लघुकथाकार: 139) 
अंकुश्री, अंजू खरबंदा, अंजू निगम, अनघा जोगलेकर, अनिल मकरिया, अनिल शूर ‘आज़ाद’, अनीता रश्मि, अमृतलाल मदान, अयाज़ खान, अर्चना रॉय, अशोक भाटिया, अशोक लव, आभा सिंह, आर.बी भंडारकर, आलोक चोपड़ा, आशीष जौहरी, आशीष दलाल, इंदु गुप्ता, कनक हरलालका, कमल कपूर, कमल चोपड़ा, कमलेश भारतीय, कल्पना भट्ट, कविता वर्मा, किशन लाल शर्मा, कुँवर प्रेमिल, कुसुम जोशी, कुसुम पारीक, कृष्ण चन्द्र महादेविया, गोकुल सोनी, गोविन्द शर्मा, चंद्रा सायता, चंद्रेश कुमार छतलानी, चित्त रंजन गोप, जया आर्य, जानकी वाही, ज्योत्स्ना सिंह, तारिक़ असलम तसनीम, त्रिलोक सिंह ठकुरेला, दिनेशनंदन तिवारी, दिव्या शर्मा, धर्मपाल साहिल, ध्रुव कुमार, नंदलाल भारती, नयना (आरती) कानिटकर, पंकज शर्मा, पदम गोधा, पम्मी सिंह ‘तृप्ति’, पवन शर्मा, पवित्रा अग्रवाल, पुरुषोत्तम दुबे, पूजा अग्निहोत्री, पूनम सिंह, प्रताप सिंह सोढ़ी, प्रदीप कुमार शर्मा, प्रदीप शशांक, प्रेरणा गुप्ता, बलराम अग्रवाल, बालकृष्ण गुप्ता ‘गुरुजी’, भगवती प्रसाद द्विवेदी, भगवान प्रखर वैद्य, भगीरथ, मधु जैन, मधुकांत, मधुदीप, मनन कुमार सिंह, मनीष कुमार पाटीदार, मनोज सेवलकर, मनोरमा जैन पाखी, महिमा श्रीवास्तव वर्मा, महेंद्र कुमार, महेश दर्पण, माधव नागदा, मार्टिन जॉन, मिन्नी मिश्रा, मीनू खरे, मुकेश शर्मा, मुरलीधर वैष्णव, मेघा राठी, मोहम्मद आरिफ़, योगराज प्रभाकर, योगेन्द्रनाथ शुक्ल, रजनीश दीक्षित, रतन चंद रत्नेश, रतन राठौड़, रवि प्रभाकर, रशीद गौरी, राजकमल सक्सेना, राजेन्द्र वामन काटदरे, राजेश शॉ, राधेश्याम भारतीय, राम करन, राम मूरत राही, रामकुमार घोटड़, रामनिवास मानव, रामेश्वर काम्बोज हिमांशु, रूप देवगुण, रूपल उपाध्याय, लज्जाराम राघव, लाजपत राय गर्ग, वंदना गुप्ता, वसुधा गाडगिळ, विजयानंद विजय, विनोद कुमार विक्की, विभा रानी श्रीवास्तव, वीरेंद्र भारद्वाज, शराफ़त अली खान, शिखा कौशिक ‘नूतन’, शील कौशिक, शेख़ शहज़ाद उस्मानी, श्यामसुंदर दीप्ति, श्रुत कीर्ति अग्रवाल, संगीता गांधी, संगीता गोविल, संतोष सुपेकर, संध्या तिवारी, सतीशराज पुष्करणा, सत्या शर्मा कीर्ति, सविता इंद्र गुप्ता, सारिका भूषण, सिमर सदोष, सिराज फ़ारूक़ी, सीमा वर्मा, सीमा सिंह, सुकेश साहनी, सुदर्शन रत्नाकर, सुधीर द्विवेदी, सुनीता मिश्रा, सुनील गज्जानी, सुरिन्दर कौर ‘नीलम’, सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा, सुरेश बाबू मिश्रा, सुरेश सौरभ, सैली बलजीत, सोमा सुर, स्नेह गोस्वामी, हरभगवान चावला, हेमंत उपाध्याय.
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(विशिष्ट रचनाकार 4) : मधुदीप: समीक्षक रवि प्रभाकर, तारिक़ असलम तसनीम: समीक्षक सतीशराज पुष्करणा, सुरिंदर कैले: समीक्षक अशोक भाटिया, मार्टिन जॉन: समीक्षक पुरुषोत्तम दुबे.
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(विशिष्ट भाषा: पंजाबी, कुल लघुकथाकार: 13) 
करमजीत नडाला, कुलविन्द्र कौशल, तृप्त भट्टी, निरंजन बोहा, परगट सिंह जंबर, प्रदीप कौड़ा, बलदेव सिंह खैहरा, रघबीर सिंह मेहमी, विवेक कोट ईसे खान, सतिपाल खुल्लर, सुरिंदर कैले (विशिष्ट रचनाकार), हरप्रीत राणा, हरभजन खेमकरनी. समीक्षक: खेमकरण सोमन.
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इसके इलावा बहुत से आलेख, लघुकथा संग्रहों की समीक्षा, विभिन्न लघुकथा आयोजनों की रिपोर्ट्स तथा ‘लघुकथा कलश’ के ‘रचना-प्रक्रिया विशेषांक’ पर प्राप्त कुछ चुनिंदा पाठकीय प्रतिक्रियाएँ भी इस अंक में शामिल की जा रही हैंi यह अंक सम्भवत: फरवरी-2020 में प्रकाशित होगा। 
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विनीत
योगराज प्रभाकर
संपादक: लघुकथा कलश

मंगलवार, 17 दिसंबर 2019

समीक्षा : लघुकथा कलश का चौथा अंक | महेंद्र कुमार

कई लोगों ने अपनी रचना प्रक्रिया में अपनी लघुकथा को प्राप्त हुए पुरस्कारों का भी वर्णन किया है जो पूर्णतः अनुचित है। इसी प्रकार कुछ लोग अपनी रचना प्रक्रिया में इस पर भी गर्व करते हुए पाए गए कि उन्होंने अपनी लघुकथा पर किसी से भी विचार-विमर्श नहीं किया है। मुझे नहीं लगता कि इसमें गर्व करने जैसी कोई भी चीज़ है।
महेंद्र कुमार (इस समीक्षा से)

लघुकथा को पूर्णतः समर्पित अर्द्धवार्षिक पत्रिका लघुकथा कलश का चौथा अंक (जुलाई-दिसम्बर 2019) इस मआनी में अनूठा है कि इसमें लघुकथाओं के साथ-साथ उनके बनने की कहानियाँ भी दी गयी हैं जिनसे अक्सर पाठक अनजान ही रह जाता है। रचना प्रक्रिया पर आधारित यह अंक जैसे ही मेरे हाथ में आया मैं इसे पढ़ गया, तीन दिनों के अन्दर। फिर पाठकीय प्रतिक्रिया देने में इतनी देर क्यों? अल्जीरियाई दार्शनिक अलबैर् कामू ने कभी कहा था, "हर कलाकार के हृदय की गहराइयों में कहीं एक दरिया बहता है और जब तक वह जीता है अपने इसी दरिया के पानी से प्यास बुझाता है। जब भी उसका यह दरिया सूखता है, तब हम उसके लेखन की धरती में उभरती हुई दरारों को समझ पाते हैं।" मैं एक लेखक तो नहीं पर एक पाठक ज़रूर हूँ और दरिया सिर्फ़ लेखकों का ही नहीं बल्कि पाठकों के हृदय का भी सूखता है। कई बार इसी वजह से वो पाठकीय प्रतिक्रिया तक नहीं दे पाता। वैसे ये दरिया सूखता ही क्यों है? और इससे जो दरारें उभर कर आती हैं वो कितनी गहरी होती हैं? शायद ऐसे ही सवालों को समझने के लिए जीवनियाँ लिखी जाती हैं। कई बार इस दरिया में पानी वापस आ जाता है तो कई बार नहीं भी आ पाता। कितना आता है, सवाल यह भी है। ख़ैर, पूर्व अंकों की भांति इस रचना प्रक्रिया विशेषांक में भी प्रचुर सामग्री मौजूद है जो आपके हृदय में बहने वाले दरिया में पानी की मात्रा को बढ़ाएगी ही। उदाहरण के लिए, पत्रिका में शामिल सामग्री की एक संक्षिप्त सूची इस प्रकार है :

(1) 04 विशिष्ट लघुकथाकार (जसबीर चावला, प्रताप सिंह सोढ़ी, रूप देवगुण व हरभजन खेमकरणी) और उनकी रचना प्रक्रिया।
(2) 06 पुस्तकों (मेरी प्रिय लघुकथाएँ - प्रताप सिंह सोढ़ी, माटी कहे कुम्हार से - डॉ. चंद्रा सायता, गुलाबी छाया नीले रंग - आशीष दलाल, किन्नर समाज की लघुकथाएँ - डॉ. रामकुमार घोटड़, डॉ. लता अग्रवाल, कितना कारावास - मुरलीधर वैष्णव, सब ख़ैरियत है - मार्टिन जॉन) की समीक्षाएँ क्रमशः प्रो. बी.एल. आच्छा, अंतरा करवड़े, रजनीश दीक्षित, कल्पना भट्ट, प्रो. बी.एल. आच्छा और रवि प्रभाकर द्वारा।
(3) लघुकथा कलश के तृतीय अंक की समीक्षाएँ – मृणाल आशुतोष, कल्पना भट्ट, दिव्य राकेश शर्मा, लाजपत राय गर्ग, डॉ. नीरज सुधांशु और डॉ. ध्रुव कुमार द्वारा।
(4) 126 लेखकों की लघुकथाएँ और उनकी रचना प्रक्रिया।
(5) 08 नेपाली लेखकों – खेमराज पोखरेल, टीकाराम रेगमी, नारायण प्रसाद निरौला, राजन सिलवाल, राजू क्षेत्री 'अपूरो', रामकुमार पण्डित क्षत्री, रामहरि पौड्याल तथा लक्ष्मण अर्याल – की रचना प्रक्रिया सहित कुल नौ लघुकथाएँ।


इस पत्रिका का जो स्तम्भ मैं सबसे पहले पढ़ता हूँ वो इसका सम्पादकीय है और इसकी वजह हैं इसके सम्पादक योगराज प्रभाकर। इन्होंने न केवल मुझे लघुकथा का ककहरा सिखाया है बल्कि प्रोत्साहित भी किया है। पर सम्पादकीय पढ़ने की वजह यह नहीं है बल्कि यह है कि ये बेहद सरल भाषा में अपनी बात कहते हैं और वो भी पूरी साफ़गोई से। यह साफ़गोई ही है जो कई बार लोगों को पसन्द नहीं आती। इस पर हफ़ीज़ मेरठी का एक शे'र है जो मुझे याद आ रहा है, रात को रात कह दिया मैंने, सुनते ही बौखला गयी दुनिया।

सम्पादकीय से तीन महत्त्वपूर्ण बातें उभर कर आती हैं जो क्रमशः शिल्प, कथानक और शीर्षक से सम्बन्धित हैं :

1. सत्य घटना और लघुकथा में अन्तर होता है और ये अन्तर उतना ही होता है जितना कि एक मकड़ी और उसके जाले में। इस बात को आप इस अंक की कई रचना प्रक्रियाओं में महसूस कर सकते हैं जहाँ लघुकथा लघुकथा कम और घटना ज़ियादा प्रतीत होती है। इसके पीछे का प्रमुख कारण यह है कि लोग इस पर तो ध्यान देते हैं कि उन्हें 'क्या कहना है', मगर इस पर नहीं कि 'कैसे कहना है'। मधुदीप गुप्ता के शब्दों में, "किसी भी घटना को तुरन्त लिख देना पत्रकारिता की श्रेणी में आता है और वह सृजनात्मक लेखन नहीं होता।" सृजनात्मक लेखन के लिए कल्पनाशीलता अहम है। यह कल्पनाशीलता ही है जो किसी मिट्टी को अलग-अलग रूप दे कर बाज़ार को समृद्ध करती है।

2. दूसरी महत्त्वपूर्ण बात 'क्या कहना है' से सम्बन्धित है। निश्चित तौर पर लोग कथानक चयन पर ध्यान देते हैं पर कई बार वो आत्म-मोह से ग्रसित भी हो जाते हैं जिसकी वजह से उनकी रचनाएँ उनके जीवन-अनुभवों के आस-पास तक ही सीमित हो कर रह जाती हैं। हाँ, अगर किसी के अनुभवों का फ़लक विस्तृत हो तो यह बुरा नहीं है पर अक्सर ऐसा होता नहीं। वैसे तो यह बात पुरुष और महिला दोनों लघुकथाकारों पर समान रूप से लागू होती है पर सम्पादक ने यहाँ पर महिला लघुकथाकारों को विशेष रूप से इंगित किया है। उन्हीं के शब्दों में, "मैं महिला लघुकथाकारों से करबद्ध प्रार्थना करना चाहूँगा कि भगवान के लिए! अब भिंडी-तोरई, आलू-मेथी, तड़का-छौंक, चाय-पकौड़े, सास-बहू, ननद-जेठानी आदि से बाहर निकलें। लघुकथा इन विषयों से कहीं आगे पहुँच चुकी है, अतः वे भी अब रसोई की दुनिया से बाहर झाँकना शुरू करें।" ऊपर मैंने जिस साफ़गोई की बात की है आप उसे साफ़-साफ़ यहाँ पर देख सकते हैं। सम्पादकीय का शीर्षक 'दिल दिआँ गल्लाँ' इस अर्थ में बिल्कुल सटीक है। फ़िलहाल मैं सम्पादक की इस बात से ख़ुद को सहमत होने से नहीं रोक पा रहा हूँ कारण यह है कि मैंने स्वयं अधिकांश (सभी नहीं और इनमें से कुछ इस अंक में शामिल भी हैं) महिला लघुकथाकारों की रचनाएँ इन्हीं विषयों पर केन्द्रित देखी हैं। सम्पादक की इस बात को कई लोगों ने अन्यथा ले लिया जो सर्वथा अनुचित है। भावनाओं के ज्वार में बह कर यह कहना कि बिना रसोई के किसी का काम ही नहीं चल सकता इसलिए हम इसी पर लिखेंगे से कई गुना बेहतर है कि हम अपनी बात तार्किक रूप से ठोस तथ्यों के आधार पर कहें। यहाँ पर मैं अरुंधति रॉय का नाम लेना चाहूँगा जिनसे न सिर्फ़ महिला बल्कि पुरुष लघुकथाकार भी बहुत कुछ सीख सकते हैं।

3. सम्पादकीय से उभर कर आने वाली तीसरी महत्त्वपूर्ण बात शीर्षक चयन से सम्बन्धित है। वैसे इस मामले में मेरा हाथ भी तंग ही है। शीर्षक की बात चली है तो मैं ये बताना चाहूँगा कि इस अंक में तीन लघुकथाएँ एक ही शीर्षक (बोहनी) से मौजूद हैं जो निश्चित रूप से उस चिन्ता को बल देती हैं जो सम्पादकीय में व्यक्त की गयी है। शीर्षक सम्बन्धी कुछ महत्त्वपूर्ण बातें हमें विभिन्न रचना प्रक्रियाओं में भी देखने को मिल जाती हैं जैसे शीर्षक का चयन कब करना चाहिए, लिखने से पहले या लिखने के बाद? कुछ लोग शीर्षक पर लघुकथा लिखने से पहले ही विचार कर लेते हैं जैसे अरुण धर्मावत और नीना छिब्बर वहीं कुछ लोग लघुकथा लिखने के बाद शीर्षक पर विचार करते हैं जैसे कि चंद्रेश कुमार छतलानी।

यूँ तो लगभग सभी की लघुकथाएँ और उनकी रचना प्रक्रिया पठनीय हैं फिर भी अशोक भाटिया, बलराम अग्रवाल, मधुदीप गुप्ता, माधव नागदा, योगराज प्रभाकर, रवि प्रभाकर, रामेश्वर कम्बोज 'हिमांशु', सतीशराज पुष्करणा, सुकेश साहनी और सूर्यकांत नागर की रचना प्रक्रिया विशेष दर्शनीय हैं। यदि पुस्तक समीक्षाओं की बात की जाए तो मुझे रवि प्रभाकर की समीक्षा ने विशेष प्रभावित किया। योगराज प्रभाकर द्वारा अशोक भाटिया की पुस्तक 'बालकांड' की काव्यात्मक समीक्षा अलग होने के कारण विशिष्ट लगी।

पत्रिका को पढ़ने के क्रम में मैं जब मुकेश शर्मा की लघुकथाएँ पढ़ रहा था तो एक चीज़ मुझे खटकी और वो था उनकी दोनों लघुकथाओं में एक ही वाक्य का अक्षरशः प्रयोग – "अँधा क्या चाहे, दो आँखें।" यह कोई बड़ा दोष नहीं है पर मुझे लगता है कि इससे बचा जा सकता था। बाकी हल्के-फुल्के अन्दाज़ में लिखी गयीं उनकी दोनों लघुकथाएँ मज़ेदार हैं। 'दिल की दुनिया' में अक्सर लोगों के 'प्यार का एकाउण्ट' क्लोज़ हो जाता है भले उस खाते में कितना ही एमाउण्ट क्यों न हो। रही बात जन धन खाते वालों की तो उन्हें इससे दूर ही रहना चाहिए। इसी प्रकार, रामनिवास 'मानव' जहाँ एक ओर अपनी लघुकथा 'टॉलरेन्स' की रचना प्रक्रिया में यह कहते हैं कि "हमने कोई फ़िल्म देखी थी, शायद किसी क्रान्तिकारी पर आधारित 'शहीद' फ़िल्म थी।" वहीं अपनी लघुकथा में यह भी लिखते हैं कि "भगत सिंह के साथ दुर्व्यवहार किया जाता है।" ऐसा कैसा हो सकता है कि आपको लघुकथा में तो नाम पता हो किन्तु रचना प्रक्रिया में आप नाम भूल जाएँ? निश्चित ही यह टंकण त्रुटी है पर इस स्तर पर थोड़ी सावधानी बरतनी चाहिए।

लेखकों की रचना प्रक्रिया से कई बातें निकल कर आती हैं। जैसे लघुकथा कथानक आते ही लिख लेना चाहिए या उसे काग़ज़ पर तब उतारना चाहिए जब वो पूरी तरह मस्तिष्क में पक जाए? तारिक़ असलम तस्नीम पहली तरह के लेखक हैं। वो न सिर्फ़ किसी रचना के सृजन से पहले ही उसके आरम्भ से अन्त तक की रूपरेखा सुनिश्चित करने को गैरज़रूरी मानते हैं बल्कि यह भी कहते हैं कि यदि ऐसा होता है तो वह रचना सकारात्मक कम आत्माभिव्यक्ति अधिक सिद्ध होगी। निरंजण बोहा दूसरे तरीके के समर्थक हैं। उन्हीं के शब्दों में, "मैं सदैव लघुकथा के लिए कोई विषय सूझने और उसे काग़ज़ पर उतारने के मध्य एक उचित अन्तराल अवश्य रखता हूँ।" इस दूसरी क़तार में रवि प्रभाकर भी आते हैं। यही कारण है कि उन्होंने लघुकथा को दीर्घ साधना कहा है।

लघुकथा क्या है? इसे समझाने के लिए कई परिभाषाएँ दी जाती हैं। एक ऐसी ही परिभाषा मनु मनस्वी ने भी दी है। उनके अनुसार, "लघुकथा हाइकु की भांति हो, संक्षिप्ततम और पूर्ण, जिसमें कोई भी ऐसा शब्द न आए, जिसके बिना भी बात कही जा सकती हो।" हाइकु जापानी कविता की एक विधा है जिसमें संक्षिप्तता का विशेष ध्यान रखा गया है। संक्षिप्तता की यही ख़ूबी लघुकथा में भी पायी जाती है। पर लघुकथा में सबकुछ लघु नहीं होता। अक्षय तूणीर की इस बात से मैं भी पूरी तरह सहमत हूँ कि लघुकथा का आकार तो लघु हो सकता है किन्तु चिन्तन नहीं। अगर चिन्तन को ही लघुकथा का केन्द्रीय तत्त्व कहा जाए तो गलत नहीं होगा। निरंजण बोहा के शब्दों में, "लघुकथा लिखते हुए मैं सबसे अधिक महत्त्व 'विचार' को देता हूँ, अतः मैं अपनी उन्हीं लघुकथाओं को सफल मानता हूँ जिनमें निहित विचार अथवा दर्शन का मानवोत्थान में कोई योगदान हो।" छोटी चीज़ों को तुच्छ समझना हमारे समाज की ख़ास विशेषता रही है। यही कारण है कि बहुतेरे पाठक लघुकथा में 'लघु' शब्द पर विशेष ज़ोर देते हुए इसे साहित्य की एक छोटी विधा मान लेने की भूल कर बैठते हैं। कुछ लघुकथाकारों द्वारा स्वयं को लघुकथाकार न कहलवाने की इच्छा के पीछे का प्रमुख कारण भी यही है।

जितना ज़रूरी लघुकथा का प्रभावशाली अन्त करना होता है उतना ही ज़रूरी उसकी अच्छी शुरुआत करना भी है। लघुकथा की शुरुआत कहाँ से करनी चाहिए और कहाँ पर उसका अन्त, इसका एक अच्छा उदाहरण है मिर्ज़ा हाफ़िज़ बेग़ की लघुकथा 'बोहनी' और उसकी रचना प्रक्रिया। लिखने के बाद लिखे हुए को प्रकाशित करवाने की बारी आती है जहाँ अक्सर नवोदित जल्दबाज़ी कर बैठते हैं। उन्हें चेतावनी देते हुए रामेश्वर कम्बोज 'हिमांशु' कहते हैं कि "अगम्भीर लेखक लिखते ही लघुकथा को कहीं-न-कहीं भेजकर मुक्ति पाना चाहता है। उसमें अपनी ही रचना को दुबारा पढ़ने का धैर्य नहीं है, जबकि अपनी रचना से दुबारा गुज़रना सधे हुए लेखक के लिए ज़रूरी है।" इसी तरह वो लोग जिन्हें लगता है कि उनकी हर रचना कालजयी होती है को सविता इन्द्र गुप्ता की बात याद रखनी चाहिए। वो कहती हैं, "एक मुकम्मल लघुकथा लिखना सम्भव कहाँ होता है? लेखकों की सारी उम्र बीत जाती है, तब वे दो-तीन कालजयी और सात-आठ मुकम्मल लघुकथाएँ रचने में सफल हो पाते हैं।"

कई लोगों ने अपनी रचना प्रक्रिया में अपनी लघुकथा को प्राप्त हुए पुरस्कारों का भी वर्णन किया है जो पूर्णतः अनुचित है। इसी प्रकार कुछ लोग अपनी रचना प्रक्रिया में इस पर भी गर्व करते हुए पाए गए कि उन्होंने अपनी लघुकथा पर किसी से भी विचार-विमर्श नहीं किया है। मुझे नहीं लगता कि इसमें गर्व करने जैसी कोई भी चीज़ है। अगर आप कहानियाँ लिखते हों और आपके पास विचार-विमर्श के लिए मंटो मौजूद हों, तो? क्या आप उनसे चर्चा-परिचर्चा नहीं करेंगे? हमें यह याद रखना चाहिए कि जितना गौरवपूर्ण किसी से विचार-विमर्श न करना है उससे कहीं ज़ियादा दुर्भाग्यपूर्ण है किसी ऐसे का अपने आस-पास न होना जिसके साथ हम साहित्यिक और बौद्धिक चर्चा कर सकें। किसी भी क़िले को बिना किसी मदद के अकेले फ़तह करना अच्छी बात है पर उसका डंका हमें ख़ुद नहीं पीटना चाहिए।

इस अंक में नाचीज़ की भी दो लघुकथाएँ और उनकी रचना प्रक्रिया शामिल हैं। कई लोगों को लगता है कि मैं बहुत कठिन लिखता हूँ। यह स्थिति किसी भी लेखक के लिए गर्व की बात नहीं है जब तक कि वो ग़ालिब न हो। वो लोग जिन्हें ऐसा लगता है कि मैं कठिन लिखता हूँ से अनुरोध है कि वो इन दोनों लघुकथाओं के साथ उनकी रचना प्रक्रिया को पढ़ कर अपने अमूल्य मत से अवगत कराएँ जिससे कि अपेक्षित सुधार किया जा सके। ये दोनों लघुकथाएँ और उनकी रचना प्रक्रिया इस पोस्ट (Facebook Post: https://www.facebook.com/idrmkr/posts/2630671406979322) में संलग्न हैं। अपनी बात मैं ख़ुद को उस शे'र से अलग करते हुए ख़त्म करना चाहूँगा जो ग़ालिब ने अपने लेखन में मआनी न होने पर कहा था, न सताइश की तमन्ना न सिले की परवा, गर नहीं है मिरे अशआर में मअ'नी न सही।

- महेंद्र कुमार 

गुरुवार, 21 नवंबर 2019

पुस्तक समीक्षा | लघुकथा कलश - चतुर्थ महाविशेषांक | बालकृष्ण गुप्ता 'गुरु'

‘लघुकथा कलश’ का चौथा महत्वपूर्ण कदम


लघुकथा के विकासक्रम में ‘लघुकथा कलश’ का चौथा महत्वपूर्ण कदम, ‘रचना प्रक्रिया महाविशेषांक’ अंगद के पैर की भाँति लघुकथा पटल पर जमता दिख रहा है। नजर भी साफ और पक्ष भी निर्विवाद है। लघुकथा जगत में इस पत्रिका की विशिष्ट स्थिति के ठोस कारण भी हैं।

किसी भी बड़े पत्र या पत्रिका में संपादकीय वास्तव में ‘मेरी बात’ के साथ ही पाठकों के लिए सीख भी होती है। योगराज प्रभाकर के संपादकीय में भी कुछ नई, सटीक बातें होती ही हैं, जिन्हें पाठक अपने नजरिए से देखते हैं। इस बार के संपादकीय में गजानन माधव मुक्तिबोध की रचना प्रक्रिया के तीन पड़ावों का उल्लेख गागर में सागर के समान है। संपादक की यह बात- “पिछले कुछ समय से लघुकथा विधा के कुछ विद्वानों के बीच किसी-न-किसी मुद्दे को लेकर, चर्चा के नाम पर बहस मिल रही है। हालाँकि ऐसी चर्चाओं का विधा के प्रचार-प्रसार से दूर-दूर तक संबंध नहीं होता। अक्सर ऐसी हर चर्चा मात्र बतकूचन तथा पर्सनल स्कोर सेटल करने की कयावद मात्र बनकर रह जाती है...” सत्य के साथ कड़वी दवाई भी है, जिस पर रचनाकार मित्रों को गंभीरता से विचार करना चाहिए।


बहरहाल, किसी खास अंक की प्रस्तुति में सामग्री का वर्गीकरण भी अंक को बेहतर बनाता है। लघुकथा कलश रचना प्रक्रिया महाविशेषांक में भी संपादकीय के बाद, विशिष्ट लघुकथाकार और उनकी रचना प्रक्रिया, लघुकथाएँ और उनकी रचना प्रक्रियाएँ, नेपाली लघुकथाएँ और उनकी रचना प्रक्रियाएँ, पुस्तक समीक्षा, समीक्षा-सत्र होने का मतलब है, एक परिपूर्ण पत्रिका का विचारशील संयोजन। यह अंक लघुकथाकारों, पाठकों (समीक्षकों भी) को सम्मानपूर्वक छप्पन भोग के रूप में मिला है। स्वाभाविक तौर पर सभी रचनाकारों ने चूल्हे पर कड़ाही रखकर ही भोग बनाया है, पर सबकी बनाने की विधि कुछ-कुछ अलग है। इसीलिए इनका स्वाद भी विविधतापूर्ण है, जो पत्रिका की एक बड़ी खूबी है।

सभी व्यंजन, सभी पाठकों को प्रिय लगें, संभव नहीं है, पर खाने योग्य तो जरूर लगेंगे। लघुकथाकारों को अपनी लघुकथाओं की रचना प्रक्रिया बताते हुए जो खुशी हुई होगी, पाठकों को भी उस प्रक्रिया को जानकर अच्छा ही लगा है। इस अंक में शामिल चर्चित लघुकथाकारों की लघुकथाएँ और उनकी रचना प्रक्रियाएँ तो विशिष्ट हैं ही, अन्य काफी लघुकथाएँ और उनकी रचना प्रक्रिया भी प्रभावित करती हैं। रचना प्रक्रिया महाविशेषांक की बहुत-सी लघुकथाएँ ऐसी हैं कि पाठक और समीक्षक को कथ्य पसंद आएगा या शैली, या फिर कथ्य और शैली में नवीनता मिलेगी। ऐसी कई लघुकथाएँ हैं जिनके कथ्य और शिल्प दोनों दमदार हैं, इसलिए इनका स्वाद और सुगंध भी अलहदा है। कुछ नाम बताना तो ईमानदारी ही होगी- इनमें सुकेश साहनी की ‘स्कूल’, ‘विजेता’, माधव नागदा की ‘कुणसी बात बताऊँ’, शील कौशिक की ‘छूटा हुआ सामान’, रामेश्वर कम्बोज ‘हिमांशु’ की ‘ऊँचाई’, बलराम अग्रवाल की ‘गोभोजन कथा’, प्रबोध कुमार गोविल की ‘माँ’, अशोक भाटिया की ‘तीसरा चित्र’, योगराज प्रभाकर की ‘तापमान’, कल्पना भट्ट की ‘रेल की पटरियाँ’, लता अग्रवाल की ‘मुहावरा जीवन का’, रवि प्रभाकर की ‘कुकनूस’... लिस्ट आगे भी बन सकती है। नेपाली लघुकथाओं में भी कुछ अत्यंत प्रभावी हैं, जिनमें प्रमुख हैं- खेमराज पोखरेल की, ‘जन्मदाता’, राजन सिलवाल की, ‘चंद्रहार’। ‘आजादी’, ‘इंसान की औलाद’ आदि भी अच्छी लघुकथाएँ हैं।

हिंदी लघुकथाओं से इतर, लघुकथा कलश के संपादकों का सीमावर्ती प्रांत पंजाब की लघुकथाओं से परिचित कराने का प्रयास भी उल्लेखनीय है। संपादक महोदय ने खुद अनुवाद कला का बखूबी उपयोग करते हुए कुछ लघुकथाओं का सार्थक अनुवाद किया है। विशिष्ट लघुकथाकार हरभजन खेमकरणी, ‘चिकना घड़ा’, सरनेम के चक्कर में फँसता आदमी, ‘बहाना’, गेहूँ के साथ घुन पिसता है। ‘पहला कदम’, सतर्क हक के लिए पत्नी दृढ़ता पर न उतर जाए, पति को पहले समझना चाहिए। ‘जागती आँखों का सपना’, सपनों को साकार करने की इच्छाशक्ति दर्शाती सार्थक लघुकथा है। हरजीत राणा की लघुकथा ‘हवस’ बताती है कि आदमी किस कदर होश खो बैठता है, खासतौर पर पैसे और पद का पावर हो तो।

समीक्षा खंड के समीक्षकों ने लघुकथाकारों के दृष्टिकोण पर लघुकथाओं के माध्यम से दृष्टिपात किया है और लघुकथाकारों के विचारों की अपने विचारों के माध्यम से समीक्षा करते हुए तार्किकता पूर्ण ढंग से समालोचन किया है।

संभव है कि कुछ लघुकथाएँ नजर या समझ की चूक से समीक्षा में नहीं आ पाई होंगी। इतनी बड़ी और विस्तारित पत्रिका में कुछेक जगह प्रूफ की चूकें हैं। कहीं-कहीं लघुकथाकार की रचना प्रक्रिया कुछ लंबी है, जिसे वह अपनी लघुकथा के समान ही लघु और सुगठित कर सकता था। पर्याप्त गुणवत्ता और खूबियाँ होने के बावजूद लघुकथा कलश के रचना प्रक्रिया महाविशेषांक को सौ में से पूरे सौ अंक जानबूझकर नहीं दे रहा हूँ। इसके पीछे लघुकथा कलश की उत्तरोत्तर प्रगति की कामना है। इसके कदम लगातार बढ़ते रहें, आगे और चढ़ाई है। लघुकथा कलश अच्छे से और अच्छा, बहुत अच्छा हो इसी कामना के साथ मेरिट के अंक प्रदान कर रहा हूँ।

लघुकथा के सागर में खिलता पुष्प रूपी ‘लघुकथा कलश’ रचना प्रक्रिया महाविशेषांक अपने सौंदर्य, सुवास और उपयोगिता से स्थायी जगह बनाने में सफल होगा, ऐसा मुझे विश्वास है। कुल तीन सौ साठ पृष्ठों में एक सौ उन्तालीस लघुकथाकारों की कुल दो सौ बाईस लघुकथाओं और उनकी रचना प्रक्रियाओं को समेटे यह अंक पिछले अंकों से एक कदम आगे, उल्लेखनीय और संग्रहणीय है। जाहिर है, बेजोड़ होने के चलते लघुकथा कलश के हर नए अंक के सामने अपने ही पिछले अंकों के मुकाबले बेहतर होने की चुनौती होती है, जिस पर यह चौथा महाविशेषांक खरा उतरा है।

- बालकृष्ण गुप्ता ‘गुरु’

सोमवार, 18 नवंबर 2019

पुस्तक समीक्षा | लघुकथा कलश - चतुर्थ महाविशेषांक | कल्पना भट्ट


तिनकों-तिनकों से बनता है घोंसला 



जब लघुकथा कलश के चौथे अंक के लिए दो-दो लघुकथाओं के साथ उनकी रचना-प्रक्रिया भी मंगवाई गयीं, तब एक बार तो मेरे मन में कुछ प्रश्न उठ रहे थे। ‘रचना-प्रक्रिया’ क्या होती है? कैसे लिखी जाती है? और इस अंक के पीछे क्या उद्देश्य है? इस विषय पर चिंतन-मनन करने लगी। मेरे विचारों में एक चित्र बार-बार उभर कर आ रहा था - किसी परिंदे के घोंसले का। उस पर मनन किया तो एक के बाद एक परतें खुलती चली गयीं और रचना प्रक्रिया सम्बंधित लगभग सारे चित्र एक के बाद एक उभरते चले गए। जब कोई परिंदा अपने लिए घोंसला बनाने की तैयारी में जुट जाता है, तब वह सूखे तिनकों की तलाश में उड़ता है और जहाँ से उसको इनकी उपलब्धता के आसार नज़र आते हैं, वहाँ से वह अपनी चोंच में एक तिनका लेकर दुबारा उड़ता है। अब उसकी तलाश होती है एक सुरक्षित जगह जहाँ वह अपना घोंसला बना सके, उचित स्थान मिल जाने के बाद वह एक-एक करके तिनके इकट्ठे करता है और साथ ही उन तिनकों को बुनने भी लगता है। बड़ी ही कुशलता से वह इन तिनकों को बाँधता जाता है और उनकी बुनावट करता है। वह तब तक नहीं थमता जब तक कि अपने लिए एक घोंसले का निर्माण नहीं कर लेता। इतना ही नहीं घोंसला बनाने के बाद वह उस पर बैठकर-झूलकर इस बात की पुष्टि भी करता है कि वह घोंसला मजबूत है और सुरक्षित है, जिसके लिए वह सतत प्रयास और अथक परिश्रम करता है और पुष्टि होने के तत्पश्चात ही मादा परिंदा उसमे अपना अंडा देती है। यह कुदरत का नियम है और करिश्मा भी कि न सिर्फ परिंदे अपितु हर जीव अपने भावी जीव को जन्म देने के पहले एक सुरक्षित स्थान की तलाश करता है अथवा निर्माण करता है। घोंसले को देखें तो परिंदे की कुशलता और कौशलता दृष्टिगोचर होती है। ओह हाँ! ऐसी ही तो होगी रचना-प्रक्रिया भी! यह विचार कर इस अंक की घोषणा के प्रथम पल से ही इस अंक के आने की प्रतीक्षा करने लगी।

प्रतीक्षा की घड़ी तब खत्म हुई जब हमारे पोस्टमैन साहिब ने ‘लघुकथा कलश का चौथा महाविशेषांक’ मेरे हाथ में थमाया। प्लास्टिक कवर की डबल पैकिंग में लिपटी हुई इस पत्रिका के आकर्षक आवरण ने कोतुहल जगाया। हरे और पीले रंग के इस पृष्ट पर एक फूल बना है जिसकी पंखुड़ियाँ चहुँ ओर उडती नज़र आ रही हैं। अपनी जिज्ञासा को शांत करने हेतु इस फूल की जानकारी एकत्रित करने हेतु गूगल की सहायता ली। इस फूल को सिंहपर्णी कुकरौंधा कहा जाता है, इसे डेंडिलियन(Dandelion) भी कहते हैं।Dandelion एक फ्रैंच शब्दावली Dand de lion है जिसका अर्थ है शेर के दांत और यह नाम इस फूल की पत्तियों के नुकीले आकार के कारण दिया गया है। इसी खोज में इसी तरह के एक और फूल की जानकारी मिली ’शिरीष का फूल’ जिस पर हिन्दी साहित्य के एक महान हस्ताक्षर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी का एक बहुत ही सुंदर ललित निबंध पढ़ने को मिला, जिसमें उन्होंने शिरीष के फूल की तुलना एक ऐसे अवधूत (अनासक्त योगी) से की है जो ग्रीष्म की भीषण तपन सह कर भी खिला रहता है। दोनों ही फूलों की पंखुड़ियाँ बेहद हल्की होती हैं परन्तु दोनों ही अपना-अपना महत्त्व रखते हैं। जहाँ एक तरफ सिंहपर्णी बारहमासी खरपतवार है, जिसकी जड़ें मांसल पर मिटटी में गहराई तक पहुँच जाती है। यह फूल नदी किनारे, तालाब किनारे, बंजर वाली जगहों पर और घर के गमलो में भी उगाया जा सकता है, वहीं दूसरी ओर शिरीष का पेड़ होता है जिसके फूल तो हलके होते हैं, परन्तु इसका फल बहुत कठोर होता है। लघुकथा लेखन और उसकी रचना प्रक्रिया के लिए इस प्रतीकात्मक आवरण को देखकर इस पत्रिका के संपादक योगराज प्रभाकर की सोच, लघुकथा विधा के लिए उनकी चिंता और जीवन संघर्ष को लेकर उनके चिंतन को नमन करने का मन करता है।
अब क्योंकि मैं यहाँ ‘लघुकथा कलश’ के चौथे अंक की बात कर रही हूँ सो इस क्रम को आगे बढाते हुए मैं यह कहना चाहूँगी कि  हिन्दी लघुकथा के विकास में पत्र-पत्रिकाओं का उल्लेखनीय योगदान रहा है। लघुकथा  के पुनरुत्थान काल में ‘सारिका’, ‘तारिका’, ‘शुभतारिका’ ये ऐसी पत्रिकाएँ थीं, जिन्होंने अन्य विधाओं के साथ-साथ लघुकथा को भी प्रमुखता से प्रकाशित किया। इनके पश्चात लखनऊ से ‘लघुकथा’,  गाज़ियाबाद से ‘मिनी युग’, इंदौर से ‘आघात’ और बाद में ‘लघुआघात’, पटना से ‘काशें’, ‘लकीरे’, और ‘दिशा’, रायबरेली से ‘साहित्यकार’ कुछ ऐसी पत्रिकाएँ रही हैं जो पुर्णतः लघुकथा को ही समर्पित थीं। इनमें से ‘लघुकथा’, ‘काशें’ और ‘लकीरे’ दो-दो तीन तीन अंकों के प्रकाशन के बाद बंद हो गईं। शेष सभी पत्रिकाएँ लम्बे समय तक निकलती रही। कहना न होगा, इन पत्रिकाओं ने जहाँ श्रेष्ठ लघुकथाएँ दी और लघुकथा को समझने हेतु अनेक अनेक स्तरीय लेख भी छापे बाद में इसी कड़ी में ‘लघुकथा डॉट कॉम' ई पत्रिका ‘संरचना’, और ‘दृष्टि’ पूर्णतः लघुकथा को समर्पित हैं। इसी कड़ी में पटियाला से योगराज प्रभाकर द्वारा सम्पादित ‘लघुकथा कलश’ भी अपना विशेष स्थान बनाने में सफल रही है। ‘लघुकथा कलश’ के अब तक चार महाविशेषांक आ चुके हैं। हर अंक की अपनी एक अलग विशेषता रही है, किन्तु इसका चौथा अंक (जुलाई- दिसम्बर 2019) 360 पृष्ठों में लघुकथा के क्षेत्र में अपनी अति विशेष उपस्थिति दर्ज करवा रहा है, क्योंकि यह अंक ‘रचना प्रक्रिया महाविशेषांक’ है, जिसके संपादक योगराज प्रभाकर और उपसंपादक रवि प्रभाकर हैं। यह अंक इसलिए भी महत्वपूर्ण बन गया है कि रचना प्रक्रिया पर केन्द्रित किसी भी पत्रिका का पहला विशेषांक है, जिसमें 126 लघुकथाकारों की लघुकथाओं के साथ-साथ लेखक द्वारा उनकी रचना प्रक्रिया को भी बताया गया है। यहाँ यह जान लेना बहुत जरूरी है, कि रचना प्रक्रिया क्या है? मेरी दृष्टि में लेखक के भीतर लघुकथा के बीजारोपण से लेकर उसके पुष्पित पल्लवित होने तक प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से चलने वाली प्रक्रिया को रचना प्रक्रिया कहते हैं। 126 लघुकथाकारों के अतिरिक्त ‘जसबीर चावला’ , ‘प्रताप सिंह सोढ़ी’, ‘रूप देवगुण’ और ‘हरभजन खेमकरनी’ की पाँच-पाँच लघुकथाओं के साथ उनकी रचना प्रक्रिया को भी प्रकाशित किया है। यूँ तो प्रायः सभी लेखकों ने अपनी अपनी तरह से अपनी लघुकथाओं की रचना प्रक्रिया को लिखा है किन्तु उनमें से ‘डॉ. सतीशराज पुष्करणा की महान व्यक्ति एवं मन के साँप’ , ‘सुकेश साहनी स्कूल, तोता एवं विजेता’, ‘राधे श्याम भारतीय की मुआवज़ा एवं सम्मान’, ‘रवि प्रभाकर की कुकनूस’, ‘एकदेव अधिकारी की उत्सव एवं भूकंप’, ‘ध्रुव कुमार की मोल-भाव एवं फर्क’, ‘निरंजन बोहा की ताली की गूँज एवं शीशा’ जिनको योगराज प्रभाकर ने पंजाबी से अनुवाद करने का सद्प्रयास किया है, ‘कमल चोपड़ा की मलबे के ऊपर एवं इतनी दूर’, ‘नीरज शर्मा ‘सुधांशु’ की खरीदी हुई औरत एवं दबे पाँव’, ‘मधुदीप की नज़दीक,बहुत नज़दीक एवं यह बात और है_’, ‘योगराज प्रभाकर की फक्कड़ उवाच एवं तापमान’ ‘माधव नागदा की रईस आदमी एवं कुणसी जात बताऊँ’, ‘रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की ऊँचाई एवं ख़ुशबू’  इत्यादि की रचना प्रक्रियाओं से युवा पीढ़ी बहुत कुछ सीख सकती हैं, इनके अतिरिक्त ‘महेन्द्र कुमार’, ‘मधु जैन’, ‘सीमा जैन,’ ‘आशीष दलाल’, ‘कुमार संभव जोशी’, ‘खेमकरण सोमान’, ‘मिन्नी मिश्रा’, ‘मेघा राठी’, ‘पूनम डोगरा’, ‘सोमा सुर’, ‘सविता इंद्र गुप्ता’, इत्यादि लघुकथाकारों की लघुकथाओं के साथ उनकी रचना प्रक्रिया भी इस अंक में विशेष स्थान प्राप्त करती हुई प्रतीत होती हैं।

इनके अलावा अनेक लेखक ऐसे भी हैं जिन्होंने वस्तुतः रचना प्रक्रिया को ठीक से समझा ही नहीं, कुछ लोगों की रचना प्रक्रिया वास्तविकता के स्थान पर बनावटी पन अधिक झलकता है। अच्छे लघुकथाकारों की रचनाप्रक्रिया से नयी पीढ़ी बहुत कुछ सीख सकती है। इसके अतिरिक्त ‘सगरमाथा की गोद से’ (नेपाली लघुकथाएँ) के स्तम्भ में 8 लेखकों की रचनाएं प्रकाशित की गयी हैं, जिनसे नेपाली भाषा में लिखी जा रही लघुकथाओं के विषय में बहुत कुछ जाना जा सकता है। इसके अतिरिक्त 6 पुस्तकों की क्रमशः प्रो. बी.एल .आच्छा. द्वारा लिखित; प्रताप सिंह सोढ़ी की पुस्तक 'मेरी प्रिय लघुकथाएँ', अंतरा करवड़े द्वारा लिखित डॉ. चंद्रा सायता की पुस्तक: 'माटी कहे कुम्हार से', रजनीश दीक्षित द्वारा लिखित आशीष दलाल के लघुकथा संग्रह 'गुलाबी छाया नीले रंग', कल्पना भट्ट द्वारा लिखित डॉ रामकुमार घोटड़, डॉ.लता अग्रवाल की पुस्तक: 'किन्नर समाज की लघुकथाएँ', बी.एल.आच्छा द्वारा लिखित मुरलीधर वैष्णव की लघुकथा पुस्तक 'कितना कारावास' और रवि प्रभाकर द्वारा लिखित मार्टिन जॉन की पुस्तक 'सब खैरियत है (लघुकथा संग्रह)' की समीक्षाओं का प्रकाशन हुआ है, जिन्हें पढ़कर सम्बंधित पुस्तकों का अवलोकन करने को मन होता है। इसके अतिरिक्त लघुकथा कलश तृतीय महाविशेषांक की समीक्षाओं का प्रकाशन हुआ है। इनमें डॉ. ध्रुव कुमार, और डॉ. नीरज शर्मा ‘सुधांशु’ की समीक्षाओं को विशेष रूप से प्रकाशित किया गया है। इनके अलावा ‘मृणाल आशुतोष’, ‘कल्पना भट्ट’, ‘दिव्या राकेश शर्मा’, ‘लाजपत राय गर्ग’  को समीक्षा प्रतियोगिता में क्रमशः प्रथम द्वितीय और तृतीय 1 और 2 समीक्षाओं का भी प्रकाशन किया गया है। यह सभी समीक्षाएं तृतीय महाविशेषांक के साथ पूरा-पूरा न्याय करती प्रतीत होती हैं और इन सब से ऊपर जो विशेष रूप से चर्चा के योग्य है वो है ‘ दिल दिआँ गल्लाँ...’ शीर्षक से प्रकाशित योगराज प्रभाकर का सम्पादकीय जिसमें उन्होंने रचना प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए लिखा है। वस्तुतः रचना प्रक्रिया अभिव्यंजना से अभिव्यक्ति का लम्बा सफ़र है। रचना प्रक्रिया रचनात्मक अनुभूति की प्रक्रिया है, अतः इसके साहित्यिक महत्त्व को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता। इसके अतिरिक्त सम्पादकीय में रचना प्रक्रिया से जुडी अनेक ऐसी बातों की चर्चा है, जो नयी पीढ़ी का मार्गदर्शन कर सकती है। आखरी पृष्ठ पर योगराज प्रभाकर द्वारा काव्यात्मक समीक्षा भी बहुत प्रभावशाली बन पड़ी है।

चार सो पचास रुपये मूल्य के इस अंक का अपना एक ऐतिहासिक महत्त्व बन गया है। जिसे विस्मृत नहीं किया जा सकता। अपनी इन तमाम विशेषताओं के कारण यह अंक प्रत्येक लघुकथाकार के लिए, संग्रहनीय बन गया है।
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कल्पना भट्ट
श्री.द्वारकाधीश मंदिर, चौक बाज़ार,  
भोपाल - 462001, 
मो. 9424473377

बुधवार, 16 अक्तूबर 2019

‘लघुकथा कलश’ के पांचवें अंक (जनवरी-जून 2020) की सूचना



श्री Yograj Prabhakar सर की फेसबुक वॉल से


आदरणीय साथियो
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‘लघुकथा कलश’ का पांचवां अंक (जनवरी-जून 2020) ‘राष्ट्रीय एकता महाविशेषांक’ होगा जिस हेतु रचनाएँ आमंत्रित हैं. रचनाकारों से अनुरोध है कि वे प्रदत्त विषय पर अपनी 3 चुनिन्दा लघुकथाएँ प्रेषित करें. लघुकथा के इलावा शोधात्मक आलेख व साक्षात्कार आदि का भी स्वागत है.
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- केवल ई-मेल द्वारा भेजी गई टंकित रचनाएँ ही स्वीकार्य होंगी.
- रचनाएँ केवल यूनिकोड/मंगल फॉण्ट में ही टंकित करके भेजें.
- पीडीएफ़ अथवा चित्र रूप में भेजी गई रचनाओं पर विचार नहीं किया 
जाएगा.
- अप्रकाशित/अप्रसारित रचनाओं को प्राथमिकता दी जाएगी.
- सोशल मीडिया/ब्लॉग/वेबसाईट पर आ चुकी रचनाएँ प्रकाशित मानी 
जाएँगी.
- रचना के अंत में उसके मौलिक/अप्रकाशित होने सम्बन्धी अवश्य लिखें.
- रचना के अंत में अपना पूरा डाक पता (पिनकोड/फ़ोन नम्बर सहित) 
अवश्य लिखे.
- जो साथी पहली बार रचना भेज रहे हैं वे रचना के साथ अपना छायाचित्र 
भी अवश्य मेल करे.
- रचनाएँ भेजने की अंतिम तिथि 15 नवम्बर 2019 है.
- रचनाएँ yrprabhakar@gmail.com पर भेजी जा सकती हैं.
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विनीत
योगराज प्रभाकर
संपादक: लघुकथा कलश.
दिनांक: 16 अक्टूबर 2019

रविवार, 22 सितंबर 2019

लघुकथा कलश रचना प्रक्रिया महाविशेषांक | वीरेंद्र वीर मेहता

. . . और आख़िर 24 दिन के लंबे 'संघर्ष' के बाद पोस्ट आफिस के मक्कड़जाल से निकलकर 28 अगस्त को रजिस्टर्ड पोस्ट की गई 'लघुकथा कलश' की प्रति मेरे हाथों में पहुंच ही गई।

'थैंक्स टू इंडिया पोस्ट'. . .

लघुकथा कलश का यह चतुर्थ अंक (जुलाई - दिसंबर 2019) 'रचना-प्रक्रिया, महाविशेषांक' के रूप में प्रस्तुत किया गया है। अपने पूर्व अंकों की तरह आकर्षक साज-सज्जा और बढ़िया क्वालिटी के पेपर पर छपा होने के साथ, अपने प्राकृतिक हरे रंग के खूबसूरत कवर पृष्ठ में पत्रिका सहज ही मन को आकर्षित कर रही है।

अपनी पहली नजर में पत्रिका को देखने में यही अनुभव हो रहा है कि 'रचना-प्रक्रिया' पर आधारित यह अंक अपने अंदर बहुत से गुणीजन लेखकों के लघुकथा से जुड़े अनुभवों को समेटे हुए है। पत्रिका में 360+2 कवर पृष्ठों में 126 नवोदित एवं स्थापित प्रतिष्ठित लघुकथाकारों की करीब 250 लघुकथाओं के साथ उनकी रचना प्रक्रिया एवं चार विशिष्ट लघुकथाकारों की लघुकथाओं सहित उनकी रचना प्रक्रिया को स्थान दिया गया है।
इसके अतिरिक्त छः पुस्तक समीक्षाएं और लघुकथा कलश के पूर्व अंकों से जुड़ी बेहतरीन समीक्षाएं भी इस अंक में शामिल की गई हैं। नेपाली लघुकथाओं की विशेष प्रस्तुति में आठ लघुकथाकारों की लघुकथाएं रचना प्रक्रिया सहित शामिल की गई हैं। अंत में कवर पृष्ठ पर अशोक भाटिया जी के बाल लघुकथा 'बालकांड' की योगराज प्रभाकर जी द्वारा काव्यात्मक समीक्षा भी इस अंक का एक आकर्षण बन गई है। निःसन्देह इतनी विस्तृत सामग्री के पीछे 'कलश परिवार' सहित सभी गुणीजन रचनाकारों की मेहनत का भी बहुत बड़ा योगदान है।

किसी भी पत्र-पत्रिका का संपादकीय उस कृति में सम्मलित किए गए अंशों की बानगी के संदर्भ में उसका सत्य प्रतिबिम्ब ही होता है। पत्रिका का सम्पादकीय "दिल दिआँ गल्लाँ" सहज ही रचना प्रक्रिया अंक की प्रेरणा के साथ उसके अस्तित्व में आने की कथा सामने रखता है। सम्पादकीय न केवल लघुकथाकारों को उनके लेखन के प्रति आश्वस्त करने की कोशिश करता है वरन उन्हें उनकी कमियों के प्रति ध्यानाकर्षित करने के साथ लघुकथा विधा पर और अधिक मंथन करने का आग्रह भी करता है।

"साहित्य सृजन अभिव्यंजना से अभिव्यक्ति तक का सफर है, जब अभिव्यक्ति का कद अभिव्यंजना के कद की बराबरी कर ले तब जाकर कोई कृति एक कलाकृति का रूप धारण करती है।" सम्पादकीय में इन शब्दों में दिए गए मंत्र से अधिक साहित्य साधना की और क्या परिभाषा हो सकती है, जिसे एक साधक को अंगीकार कर लेना चाहिए।

लघुकथा के ढांचे और आकार-प्रकार पर आए दिन होने वाले विवादों पर भी सम्पादकीय दृष्टि अपने चिर-परिचित अंदाज में अपना दृष्टिकोण रखने का प्रयास करती है।

बरहाल पत्रिका के विषय में और अधिक विचार तो संपूर्ण पत्रिका पढ़ने के बाद ही लिखे जा सकते हैं, फिलहाल तो इस अंक में शामिल मेरी दो लघुकथाओं श्राद्ध और जवाब को रचना प्रक्रिया सहित मान देने के लिए 'कलश टीम' को हार्दिक धन्यवाद। साथ ही आद: योगराज प्रभाकर सहित, कलश टीम के सभी वरिष्ठ परामर्शदाताओं और अन्य सभी सहयोगियों के साथ-साथ इसमें शामिल सभी गुणीजन रचनाकारों को भी हार्दिक बधाई सहित इस अंक के लिए सादर शुभकामनाएँ।

//वीर//

पत्रिका प्राप्ति के लिये सम्पर्क सूत्र।
MR. YOGRAJ PRABHAKAR :
+91 98725 68228

MR. RAVI PRABHAKAR
+91 98769 30229

मंगलवार, 17 सितंबर 2019

समीक्षा | लघुकथा कलश रचना प्रक्रिया महाविशेषांक | ज्ञानप्रकाश 'पीयूष'



14 सितंबर हिंदी दिवस के यादगार अवसर पर प्रो. रूप देवगुण के द्वारा लघुकथा कलश का 'रचना-प्रक्रिया महाविशेषांक प्राप्त हुआ। दो दिन तक श्री युवक साहित्य सदन, सिरसा में हिंदी दिवस व पुस्तक लोकार्पण समारोह की बड़ी धूमधाम रही।
आज लघुकथा कलश का रचना -प्रक्रिया महाविशेषांक पढ़ने का सुअवसर मिला। सम्पादकीय और कतिपय लघुकथाएँ पढ़ने के उपरांत निरापद रूप से कहा जा सकता है कि प्रस्तुत अंक बहुत उत्कृष्ट,आकर्षक एवं सुन्दर है। विविध विषय-वस्तुओं व शिल्पादि से सुसज्जित यह अंक पूर्व अंकों से बेहतर है। सुन्दर छपाई , आकर्षक मुख्य आवरण पृष्ठ, वर्तनी की परिशुद्धता,उत्कृष्ट कागज़, वरिष्ठ एवं नवोदित लघुकथाकारों की श्रेष्ठ रचनाओं को बिना भेद-भाव के नाम के वर्णक्रमानुसार अंक में स्थान मिलना आदि विशिष्टताएँ लोकतांत्रिक मूल्यों की जीवंतता की परिचायक हैं और प्रस्तुत अंक की खूबसूरती भी।
श्री योगराज प्रभाकर की श्रमनिष्ठा एवं लग्न का जादू सिर पर चढ़ कर बोल रहा है तथा दूरदृष्टि ,पक्का इरादा और साहित्य-सेवा का विशाल जज़्बा सर्वत्र परिलक्षित हो रहा है।

सम्पादकीय पढ़ने से ही इसकी गुणवत्ता का अंदाजा लगाया जा सकता है।नवोदित लघुकथाकारों के लिए यह संजीवनी के समान है। श्री योगराज प्रभाकर जी 'दिल दियाँ गल्लाँ... में रचना-प्रक्रिया महाविशेषांक के मूल अभिप्रेत पर प्रकाश डालते हुए लिखते हैं, "साहित्य- सृजन अभिव्यंजना से अभिव्यक्ति तक का सफ़र है। जब अभिव्यक्ति का कद अभिव्यंजना के कद की बराबरी कर ले तब जाकर कोई कृति एक कलाकृति का रूप धारण करती है । कृति से कलाकृति बनने का मार्ग अनेक पड़ावों से होकर गुजरता है। वे पड़ाव कौन-कौन से हैं, यही जानने के लिए इस अंक की परिकल्पना की गई थी।"

उक्त मन्तव्य के आधार पर निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि वे अपने मूल अभिप्रेत में पूर्णतया सफल हुए हैं। जिज्ञासा व कौतूहल-वश सम्पादकीय के तुरन्त पश्चात सर्व प्रथम मैंने उनकी 'फक्कड़ उवाच' व 'तापमान' लघुकथाएं पढ़ीं।
अधिकांशतः इनकी लघुकथाएं पात्रानुकूल एवं मनोवैज्ञानिक संवादों से सृजित,संवेदना के रस से अभिसिंचित पाठकों के मन के तारों को झंकृत करती हुई , जिज्ञासा एवं कौतूहल का सृजन करती हैं तथा वांछित प्रभाव डाल कर अपने अभिप्रायः व अभिप्रेत को क्षिप्रता से अभिव्यंजित कर डालती हैं। पढ़ कर बड़ा सुकून मिलता है।
अंक में 126 लघुकथाकारों की रचनाएं , नेपाली- लघुकथाएं ,समीक्षाएं आदि समाविष्ट हैं जिन्हें पढ़ने के लिए मन बड़ा व्यग्र एवं उत्सुक है।
इनमें मेरी भी एक लघुकथा एवं रचना- प्रक्रिया सम्मलित की गई है ,इसके लिए मैं 'प्रभाकर' जी का हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ तथा समस्त रचनाकारों को हार्दिक बधाई अर्पित करता हूँ,जिनकी रचनाएँ इस अंक में प्रकाशित हुई हैं।
आशा करता हूँ भविष्य में इससे भी बेहरत महाविशेषांक पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त होगा।
श्री योगराज प्रभाकर जी की दीर्घायु एवं स्वस्थ जीवन की मंगलमय शुभकामनाएं।

ज्ञानप्रकाश 'पीयूष'
17.09.19.

रविवार, 18 अगस्त 2019

"लघुकथा कलश" के "रचना-प्रक्रिया महाविशेषांक" का विमोचन

श्री योगराज प्रभाकर Yograj Prabhakar की फेसबुक वॉल से 


"लघुकथा कलश" के "रचना-प्रक्रिया महाविशेषांक" का विमोचन आज दिनांक 18 अगस्त 2019 को ओमप्रकाश ग्रेवाल विद्या संस्थान, कुरुक्षेत्र (हरियाणा) के तत्त्वावधान में सर्वश्री रामकुमार आत्रेय, डॉ० अशोक भाटिया, डॉ० राधेश्याम भारतीय, डॉ० अमृतलाल मदान, बलराज सिंह मेहरोत डॉ० ओमप्रकाश करुणेश, रवि प्रभाकर व डॉ० ऊषा लाल के कर कमलों से संपन्न हुआ. इस कार्यक्रम में अन्य लोगों के साथ-साथ उदीयमान लघुकथाकार सतविंद्र राणा, पंकज शर्मा, कुणाल शर्मा, सुश्री अंजलि गुप्ता व मधु गोयल भी शामिल थे.






रविवार, 9 जून 2019

लघुकथा-कलश तृतीय महाविशेषांक पर मेरे विचार

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फेसबुक समूह साहित्य संवेद पर आयोजित परिचर्चा

लघुकथा-कलश तृतीय महाविशेषांक पर विभा रानी श्रीवास्तव जी की समीक्षा से प्रारम्भ करना चाहूँगा, आपके शब्दों मे, "लघुकथा-कलश के तीसरे महाविशेषांक का अध्ययन करने में मुझे लगभग तीन माह से अधिक का समय लगा।" मेरे अनुसार भी इतना धैर्य और इच्छा शक्ति होनी चाहिए, तब जाकर समीक्षा में सत्य का तड़का और तथ्यों के मसाले का सही अनुपात आ सकता है। साहित्यिक परिचर्चा समीक्षा से थोड़ा सा फर्क रखती है। ईमानदार समीक्षा के लिए पुस्तक का पूरा अध्ययन चाहिए लेकिन किसी परिचर्चा में भाग लेने के लिए पूरा अध्ययन उचित ज्ञान सहित चाहिए। पता नहीं सामने वाला कौनसी किताब का कौनसा पृष्ठ पढ़ कर आया हो और कौनसी बात पूछ ले? तब परिचर्चा में भाग लेने व्यक्ति अतिरिक्त सजग हो कुछ अधिक अध्ययन कर लेता है। हालांकि परिचर्चा करने से समीक्षा का महत्व समाप्त नहीं हो जाता। इस परिचर्चा से पूर्व भी Virender Veer Mehta वीरेन्द्र वीर मेहता भाई जी ने "लघुकथा कलश" पर समीक्षा लेखन का आयोजन किया था, जिसमें बहुत अच्छी समीक्षाएं भी आईं। मैंने वे सारी समीक्षाएं पढ़ीं भी थीं और उनमें ईमानदारी का तत्व ढूँढने का प्रयास भी किया। मुझे लगता है कि मैं असफल नहीं हुआ - समीक्षाएं भी असफल नहीं हुईं। ईमानदार समीक्षा के बाद उन पर स्वस्थ परिचर्चा मेरे अनुसार एक कदम आगे बढ़ना है। अतः सबसे पहले मैं समूह के प्रशासकों को बधाई देना चाहूँगा कि एक महत्वपूर्ण परिचर्चा का आयोजन आपने किया। न केवल किया बल्कि एक विशिष्ट प्रारूप भी तय किया जो कि आप सभी की चिंतनशीलता और गंभीरता का परिचायक है। ऐसे प्रारूप परिचर्चा की दिशा तय करते हैं। मैं भी अपने अनुसार इन प्रश्नों के उत्तर देने का प्रयास कर रहा हूँ।

प्रस्तुत लघुकथा संग्रह की बेहतरी हेतु आप क्या सुझाव देना चाहेंगे?
एक उदाहरण से प्रारम्भ करूंगा हमारे प्राचीन वेदों में निहित ज्ञान काफी समृद्ध है। ऋग्वेद के बाद यजुर्वेद, जिसके बाद शुक्ल और कृष्ण यजुर्वेद लिखे/कहे गए – फिर सामवेद और अथर्ववेद की रचना हुई। इनमें से कौनसा वेद बेहतर है और कौनसा वेद बेहतर हो सकता है वह बताना हर युग में असंभव ही रहा। लघुकथा कलश केवल एक पत्रिका ही नहीं बल्कि लघुकथा के एक ग्रंथ समान है। हर अंक समृद्ध ज्ञान से भरपूर और अगला अंक नए ज्ञान के साथ। एक विद्यार्थी अपनी कोर्स की पुस्तकों में भाषा-वर्तनी की कुछ छोटी-मोटी गलतियां निकाल सकता है लेकिन उससे पुस्तक का मूल भाव – उसमें निहित ज्ञान बेहतर नहीं हो सकता। ऐसे ही एक विद्यार्थी रूप में मैं स्वयं को इसकी बेहतरी के लिए बताने योग्य नहीं समझता।

हालांकि एक बात और भी है, वेदों के चार भागों में से चौथा और अंतिम भाग उपनिषद है, जिन्हें वेदान्त कहा गया और जो वेद के मूल रहस्यों को बताते हैं। इस ग्रंथ “लघुकथा कलश” के लिए उपनिषद लेखन कर हर विशेषांक का एक सार (मूल दर्शन) किसी छोटी पुस्तक (मोनोग्राफ) के रूप में लिखा जाये तो वह लघुकथा विधा के विकास में भी सहायक हो सकता है।

लघुकथाओं में निहित उद्देश्य समाज के लिए किस तरह लाभदायक हैं?
वेदों की ही बात करें तो यजुर्वेद के तैत्तिरीय उपनिषद में शिक्षावल्ली के एक मंत्र का अनुवाद है, “सत्य बोलो, धर्म के अनुसार आचरण करो, अध्ययन से प्रमाद मत करो”। इस वाक्य को लघुकथा से जोड़ें तो लघुकथा आज के समय के सत्य – समय/परिस्थिति/स्थान पर आधारित धर्म को दर्शाते हुए अध्ययन हेतु ऐसी सामग्री प्रदान करे जो प्रमाद से बची रहे – ना तो साहित्यकार प्रमाद करे और ना ही पाठक। साहित्य का अर्थ समाज के हित से ही जुड़ा हुआ है, तब लघुकथाएं इससे अछूती कैसे रह सकती हैं? हालांकि लघुकथाओं का शिल्प कैसा भी हो उसे वह विषय उठाने चाहिए जो सामयिक हों अथवा जिनका भविष्य में कुछ परिणाम हो। ऐसी लघुकथाएं जो काल-कालवित हो चुके विषयों पर आधारित हों, मेरे अनुसार अर्थहीन हैं। लघुकथा कलश के इसी अंक में विशिष्ट लघुकथाकार महेंद्र कुमार जी की रचना पढ़िये “ज़िंदा कब्रें”। कोई भी संजीदा पाठक पढ़ कर कह उठेगा वाह। तथाकथित इतिहास को लेकर प्रगतिशील विचारधारा को रोकने जैसे सामयिक विषय पर बेहतरीन रचना है यह। लेकिन इस तरह की रचनाओं को आम पाठक वर्ग में स्थान पाना मुश्किल हो जाता है क्योंकि पाठकों में चिंतन करने की अनिच्छा है, वे या तो भावुक करती रचनाएँ चाहते हैं अथवा मनोरन्जन हेतु समय काटने के लिए पढ़ते हैं। लघुकथा का मूल उद्देश्य (समाज का हित) शून्य तो नहीं लेकिन फिर भी पाठकों की कमी के कारण पूरी तरह पूर्ण नहीं हो पा रहा। केवल समाचारपत्रों से बाहर आकर पाठकों को भी अच्छी पुस्तकें, चाहे वे ऑनलाइन ही क्यों न हों, पढ़नी चाहिए, तब जाकर ये समाज के लिए कुछ लाभदायक हो सकेंगी। रीडिंग हैबिट कुछ वर्षों से कम हुई है।

क्या लघुकथाओं का वर्तमान स्वरूप संतोषजनक है?
कहीं पढ़ा था,
संतोष का एक अलग ही पढ़ा पाठ गया,
मुस्कुराता हुआ बच्चा एक रोटी चार लोगों में बाँट गया।
वह बच्चा तो संतुष्ट था कि उसने चार लोगों की भूख मिटाई लेकिन उन चारों की भूख की संतुष्टि? यही साहित्य का हाल है। हालांकि मैं अपनी बात कहूँ तो मैंने आज तक एक भी लघुकथा ऐसी नहीं कही, जिससे मैं स्वयं पूरी तरह संतुष्ट हो पाया, लेकिन सच्चाई यह है कि सबसे पहले लेखकीय संतुष्टि ज़रूरी है। लघुकथाकार जिस उद्देश्य को लेकर लिख रहे हैं वह उद्देश्य उनकी नज़रों में पूर्ण होना आवश्यक है। लेखक और पाठक के बीच सम्प्रेषण की दूरी ना रहे। बाकी मान कर चलिये चार के चार लोग आपसे कभी भी संतुष्ट नहीं होंगे। हर-एक की भूख अलग-अलग है।

लघुकथा का इतिहास लगभग 100 साल पुराना है क्या आप वर्तमान स्वरूप उससे भिन्न पाते हैं?
मुझे फिर महेंद्र कुमार जी की रचना याद आई। इतिहास की तुलना में हमारा वर्तमान प्रगतिशील रहे यही उत्तम है। एक उद्धरण है – “अपनी आँखेँ अपने भविष्य में रखिए, अपने पैर वर्तमान में लेकिन अपने हाथों में अपना अतीत संभाल कर रखिए।“ अतीत से जो कुछ सीखना चाहिए वो अपने हाथों अर्थात कर्मों में होना चाहिए और यही अतीत में जो हम हारें हैं उससे जीत प्राप्त करना है। इतिहास और प्रगतिशीलता की बात करें तो गांधी जी की भी याद आती है – पतंजलि के अष्टांग योग के आठ अंगों में से पहला अंग है यम जिसके पाँच प्रकार हैं और इसका पहला प्रकार है –अहिंसा। अष्टांग योग का आठवाँ और अंतिम अंग है समाधि अर्थात ईश्वर प्राप्ति। अर्थात मूल विचार यह है कि अहिंसा से प्रारम्भ कर हमें यह योग ईश्वर प्राप्ति तक ले जाता है। यही बात भगवान बुद्ध ने भी अपनाई लेकिन गांधी जी ने अहिंसा को अंग्रेजों को भगाने की रणनीति बनाया। यह एक प्रयोग था – उस समय के इतिहास से काफी भिन्न। भगवान कृष्ण ने भी अतीत की कई अवधारणाओं को बदला उदाहरणस्वरूप इन्द्र की बजाय गोवर्धन की पूजा आदि। “लघुकथा कलश” के इसी अंक में भी डॉ. पुरुषोत्तम दुबे जी का आलेख “लघुकथा कितनी पारंपरिक कितनी आधुनिक” को पढ़ें, तो वे बताते हैं कि “आधुनिक लघुकथाएं भाषा, शिल्प, विषय-वस्तु आदि की दृष्टि से पारंपरिक लघुकथाओं से भिन्न हो सकती हैं लेकिन समाज में व्याप्त भदेस या कहें प्रदूषण के निराकरण का उद्देश्य तो दोनों ही का एक है।“ इसी विशेषांक में ही डॉ. रामकुमार जी घोटड़ ने भी अपने आलेख ‘द्वितीय हिन्दी लघुकथा-काल’ द्वारा 1921-1950 के मध्य की लघुकथाओं पर बात की है। आज की रचनाओं से डॉ. रामकुमार जी घोटड़ द्वारा बताई रचनाओं की तुलना करें तो डॉ. पुरुषोत्तम दुबे जी की बात की सत्यता स्वतः प्रमाणित हो जाती है।
एक अन्य बात जो मुझे प्रतीत हो रही है वह इस प्रश्न में निहित है। 100 वर्ष कहना क्या उचित है? पौराणिक कथाओं पंचतंत्र, बेताल बत्तीसी आदि में निहित छोटी-छोटी रचनाओं का उनके रचनाकाल के संदर्भ में विश्लेषण करें तो हो सकता है यह वर्ष बदला जाये। मैं गलत भी हो सकता हूँ लेकिन फिलहाल संतुष्ट नहीं हूँ।

लघुकथा को मानक के अनुसार ही होना चाहिए या आवश्यकतानुसार?
मेरा मानना है कि यदि मानक निर्धारित हैं तो मानकों में फिट होना ही चाहिए। नए प्रयोग भी ज़रूरी हैं जो नए मानकों का निर्धारण करते हैं। पूर्व के प्रश्न में मैंने बेताल बत्तीसी का उदाहरण दिया था, उन बत्तीस की बत्तीस रचनाओं का अंत एक प्रश्न छोड़ जाता, जैसे हम आज की बहुत सारी लघुकथाओं में भी पाते हैं। उस प्रश्न का उत्तर रचना में नहीं होता लेकिन राजा विक्रमादित्य उस प्रश्न का उत्तर देते। यह राजा के मुंह से कहलाया गया अर्थात श्रोता (पाठक) ने उत्तर बताया – रचना ने नहीं। ढूँढने पर बेताल बत्तीसी में ऐसे और भी ताल हमें मिल जाएँगे जो किसी मानक पर आधारित हैं। हालांकि बिना शोध किये कहना गलत ही होगा लेकिन फिर भी मुझे यह भी लगता है कि किसी श्रोता (पाठक) द्वारा उत्तर बताया जाना सर्वप्रथम यहीं से प्रारम्भ हुआ होगा। ऐसे प्रयोग ही मानकों का निर्धारण खुद ही कर लेते हैं।

प्रस्तुत संग्रह में आपको किस लघुकथा/आलेख/साक्षात्कार ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया और क्यों?
एक से बढ़कर एक लघुकथाएं, आलेख, साक्षात्कार, समीक्षाएं होने पर ऐसे प्रश्न पर कुछ कहना मुश्किल हो जाता है फिर भी मैं अपनी पसंद की बात कह सकता हूँ। महेंद्र कुमार जी की लघुकथा का जिक्र मैं दो बार कर ही चुका हूँ। इसके साथ मुझे ही नहीं लगभग सभी पाठकों को संपादकीय बहुत अच्छा और ज्ञानवर्धक प्रतीत हुआ है। मेरे अनुसार निशांतर जी का आलेख “लघुकथा: रचना-विधान और आलोचना के प्रतिमान” भी ऐसा है कि आने वाले समय में इस आलेख का महत्व बहुत अधिक होगा। रवि प्रभाकर जी की समीक्षा के विस्तार और अशोक भाटिया जी की समीक्षा की गूढ़ता हमेशा की तरह बहुत प्रभावित किया। बाकी लघुकथाओं पर कहना इस तरह का है जैसे समुद्र में निहित प्राकृतिक संपदा के बारे में बात करना। इतनी अधिक मात्रा में और विभिन्न प्रकार कि गुणवत्ता आधारित है कि हर एक रचना पर बहुत कुछ कहा जा सकता है। यहाँ भाई Rajnish Dixit जी को मैं साधुवाद दूँगा कि उन्होने लघुकथा कलश के विशेषांकों की एक-एक रचना पर बात करने की पहल की जो अपने आप में अनूठा और विशिष्ट कार्य है।

किसी लघुकथा को बेहतर बनाये जाने हेतु आप क्या सुझाव देना चाहेंगे?
कुछ लघुकथाओं में शीर्षक पर कार्य किया जा सकता है। हालांकि ज्ञानवर्धक आलेखों से समृद्ध लघुकथा कलश के तीनों अंकों को अच्छी तरह पढ़ें तो मेरा मानना है कि बेहतरी स्वतः ही ज्ञात हो सकती है।

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

गुरुवार, 23 मई 2019

लघुकथा कलश के “रचना प्रक्रिया महाविशेषांक” (जुलाई-दिसम्बर 2019) हेतु चयनित रचनाकारों की सूची

श्री Yograj Prabhakar सर की फेसबुक वाल से,



आदरणीय साथियो,
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प्रस्तुत है “लघुकथा कलश” के “रचना प्रक्रिया महाविशेषांक” (जुलाई-दिसम्बर 2019) हेतु चयनित रचनाकारों की सूची:
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(हिंदी: 123): अंजलि सिफ़र, अंजू निगम, अनघा जोगलेकर, अनीता रश्मि, अनूपा हरबोला, अन्नपूर्णा बाजपेई, अमरेन्द्र सुमन, अरुण धर्मावत, अशोक भाटिया, अशोक वर्मा, आभा खरे, आभा सिंह, आर.बी.भंडारकर, आशा शर्मा, आशीष दलाल, ऊषा भदौरिया, एकदेव अधिकारी, ओमप्रकाश क्षत्रिय, कनक हरलालका, कमल कपूर, कमल चोपड़ा, कमलेश भारतीय, कल्पना भट्ट, कुँवर प्रेमिल, कुमार संभव जोशी, कुसुम पारीक, कुसुम शर्मा नीमच, कृष्णा वर्मा, कृष्णालता यादव, खेमकरण सोमन, चंद्रेश कुमार छतलानी, चित्त रंजन गोप, जगदीश राय कुलरियाँ, जसबीर चावला, ज्ञानप्रकाश पियूष, तारिक़ असलम तसनीम, धर्मपाल साहिल, ध्रुव कुमार, नयना (आरती) कानिटकर, नीना छिब्बर, नीरज शर्मा सुधांशु, नेहा शर्मा, पंकज शर्मा, पदम गोधा, पवित्रा अग्रवाल, पुरुषोत्तम दुबे, पुष्पा जमुआर, पूजा अग्निहोत्री, पूनम डोगरा, पूरन मुद्गल, प्रताप सिंह सोढी, प्रतिभा मिश्रा, प्रेरणा गुप्ता, बलराम अग्रवाल, बालकृष्ण गुप्ता ‘गुरुजी’, भगवती प्रसाद द्विवेदी, भगीरथ परिहार, भारती कुमारी, भारती वर्मा बौड़ाई, मंजीत कौर 'मीत', मंजू गुप्ता, मधु जैन, मधुदीप गुप्ता, मनन कुमार सिंह, मनु मनस्वी, महिमा भटनागर, महेंद्र कुमार, माधव नागदा, मालती बसंत, मिर्ज़ा हाफिज़ बेग, मुकेश शर्मा, मुरलीधर वैष्णव, मृणाल आशुतोष, मेघा राठी, योगराज प्रभाकर, योगेन्द्र शुक्ल, रजनीश दीक्षित, रतन राठौड़, रवि प्रभाकर, राजकमल सक्सेना, राजेन्द्र मोहन बंधु त्रिवेदी, राजेन्द्र वामन काटदरे, राधेश्याम भारतीय, रामकुमार आत्रेय, रामनिवास मानव, राममूरत राही, रामेश्वर काम्बोज, रूप देवगुण, रूपल उपाध्याय, रेणु चन्द्रा माथुर, लता अग्रवाल, लवलेश दत्त, लाजपतराय गर्ग, वन्दना गुप्ता, विभा रश्मि, विभारानी श्रीवास्तव, वीरेन्द्र भारद्वाज, वीरेन्द्र वीर मेहता, शराफ़त अली खान, शावर भक्त भवानी, शील कौशिक, शेख़ शहज़ाद उस्मानी, श्यामसुंदर अग्रवाल, श्यामसुन्दर दीप्ति, संतोष सुपेकर, संदीप आनंद, सतीश राठी, सतीशराज पुष्करणा, सत्या कीर्ति शर्मा, सविता इंद्र गुप्ता, सविता उपाध्याय, सिद्धेश्वर, सीमा जैन, सीमा भाटिया, सुकेश साहनी, सुदर्शन रत्नाकर, सुभाष नीरव, सुभाष सलूजा, सुभाषचन्द्र लखेड़ा, सूर्यकांत नागर, सोमा सुर, स्नेह गोस्वामी, हूंदराज बलवाणी,
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(पंजाबी: 04): निरंजण बोहा, सुरिंदर कैले, हरप्रीत राणा, हरभजन खेमकरणी)
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(नेपाली: 08) खेमराज पोखरेल, टीकाराम रेगमी, नारायणप्रसाद निरौला, राजन सिलवाल, राजू छेत्री अपूरो, रामकुमार पंडित छेत्री, रामहरि पौडयाल, लक्ष्मण अर्याल
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पत्रिका का आवरण पृष्ठ जून के प्रथम सप्ताह में प्रस्तुत किया जाएगा.
सादर
योगराज प्रभाकर
संपादक: लघुकथा कलश

बुधवार, 20 फ़रवरी 2019

"लघुकथा कलश" के चौथे अंक (जुलाई-दिसम्बर 2019) हेतु रचनाएँ आमंत्रित

श्री योगराज प्रभाकर जी की फेसबुक वॉल से 

आदरणीय साथिओ
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"लघुकथा कलश" का चौथा अंक (जुलाई-दिसम्बर 2019) "रचना प्रक्रिया विशेषांक" होगा जिस हेतु रचनाएँ आमंत्रित हैंI आपसे सविनय निवेदन है कि आप अपनी दो चुनिंदा/पसंदीदा लघुकथाएँ भेजेंl इन लघुकथाओं के साथ ही इनकी रचना प्रक्रिया पर एक विस्तृत आलेख भी भेजेंl उस आलेख में इस बात का उल्लेख करें कि लघुकथा का कथानक कैसे सूझाl क्या यह कथानक किसी घटना को देखने/सुनने के बाद सूझा या कि कुछ पढ़ते हुए अथवा किसी विचार से इसकी उत्पत्ति हुईl इसके बाद रचना की प्रथम रूपरेखा क्या बनी तथा रचना पूर्ण होने तक उसमे क्या-क्या परिवर्तन किए गएl शीर्षक के चुनाव पर भी रौशनी डालेंl इसके अतिरिक्त रचना प्रक्रिया से सम्बंधित आलेख,साक्षात्कार, संस्मरण व परिचर्चा आदि का भी स्वागत हैl 
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- केवल ईमेल द्वारा प्रेषित रचनाएँ ही स्वीकार्य होंगीl
- केवल यूनिकोड फॉण्ट में टंकित रचनाएँ ही स्वीकार्य होंगीl 
- रचनाएँ yrprabhakar@gmail.com पर मेल करेंl
- रचनाएँ भेजने की अंतिम तिथि 31-03-2019 हैl 
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योगराज प्रभाकर 
संपादक: "लघुकथा कलश"
चलभाष 98725-68228

शनिवार, 9 फ़रवरी 2019

लघुकथा कलश (तृतीय महाविशेषांक) की समीक्षा श्री सतीश राठी द्वारा

श्री योगराज प्रभाकर के संपादन में 'लघुकथा कलश' का तीसरा महाविशेषांक प्रकाशित हो चुका है और तकरीबन सभी लघुकथा पाठकों को प्राप्त भी हो चुका है। मुझे भी पिछले दिनों यह विशेषांक प्राप्त हो गया और इसे पूरा पढ़ने के बाद मुझे यह जरूरी लगा कि इस विशेषांक पर चर्चा जरूरी है।

इस विशेषांक के पहले भाग में डॉ अशोक भाटिया, प्रोफेसर बीएल आच्छा और रवि प्रभाकर ने श्री महेंद्र कुमार, श्री मुकेश शर्मा एवं डॉ कमल चोपड़ा की लघुकथाओं के बहाने समकालीन लघुकथा लेखन पर बातचीत की है। यह इसलिए महत्वपूर्ण कहा जा सकता है कि इसमें एक नया लघुकथाकार दो वरिष्ठ लघुकथाकारों के साथ अपनी लघुकथाओं को लेकर प्रस्तुत हुआ है और यह लघुकथाएं विधा की नई संभावनाओं की और दिशा देने वाली लघुकथाएं हैं जिसके बारे में डॉ अशोक भाटिया ने भी इंगित किया है। लघुकथाओं को देखने के बाद लघुकथाओं को लेकर कोई चिंता नहीं रखना चाहिए। बहुत सारी अच्छी लघुकथाएं विशेषांक में समाहित है। नौ आलेख इसे समृद्ध करते हैं। कल्पना भट्ट का पिता पात्रों को लेकर लिखा गया आलेख, डॉ ध्रुव कुमार का लघुकथा के शीर्षक पर आलेख, लघुकथा की परंपरा और आधुनिकता पर डॉक्टर पुरुषोत्तम दुबे ,लघुकथा के द्वितीय काल परिदृश्य पर डॉ रामकुमार घोटड, लघुकथा के भाषिक प्रयोगों पर श्री रामेश्वर कांबोज, खलील जिब्रान की लघुकथाओं पर डॉक्टर वीरेंद्र कुमार भारद्वाज, लघुकथा के अतीत पर डॉक्टर सतीशराज पुष्करणा और राजेंद्र यादव की लघुकथा पर सुकेश साहनी, इनके साथ में तीन साक्षात्कार जो मुझसे,  डॉ कमल चोपड़ा एवं डॉ श्याम सुंदर दीप्ति से लिए गए हैं, कुछ पुस्तकों की समीक्षा, कुछ गतिविधियों की जानकारी, दिवंगत लघुकथाकारों को श्रद्धांजलि, कुछ गतिविधियों का जिक्र और 177 हिंदी लघुकथाओं के साथ नेपाली, पंजाबी, सिंधी भाषा के विभिन्न लघुकथाकारों की लघुकथाएं इतना सब एकत्र कर प्रस्तुत करने के पीछे भाई योगराज प्रभाकर की कड़ी मेहनत हमारे सामने आती है। ऐसे काम जुनून से ही पूरे होते हैं और वह जुनून इस विशेषांक में दृष्टिगत होता है। पाठक यदि इस विधा को लेकर कोई प्रश्न खड़े करते हैं तो उसका जवाब भी उन्हें इस तरह के विशेषांक में प्राप्त हो जाता है। मैं श्री योगराज प्रभाकर जी की पूरी टीम को विशिष्ट उपलब्धि के लिए बहुत-बहुत बधाई देता हूं। पिछले दोनों अंको से और आगे जाकर यह तीसरा अंक सामने आया है और यह आश्वस्ति देता है कि चौथा अंक और अधिक समृद्ध साहित्य के साथ में हम सबके सामने प्रस्तुत होगा। पुनः बधाई।

- सतीश राठी

मंगलवार, 29 जनवरी 2019

लघुकथा समाचार: अखिल भारतीय प्रगतिशील लघुकथा मंच और बिहार आर्ट थियेटर की ओर से लघुकथा कलश के तृतीय महाविशेषांक का लोकार्पण


Patna News - deepa is working on small stories in bihar

Dainik Bhaskar| Jan 28, 2019 | Patna News

अखिल भारतीय प्रगतिशील लघुकथा मंच और बिहार आर्ट थियेटर की ओर से लघुकथा कलश के तृतीय महाविशेषांक का लोकार्पण रविवार को कालिदास रंगालय में किया गया। इस अवसर पर विचार गोष्ठी भी हुई। वरिष्ठ लघुकथाकार डॉ. सतीश राज पुष्करणा, लघु कथा मंच के महासचिव डॉ. ध्रुव कुमार, बिहार आर्ट थियेटर के सचिव कुमार अनुपम, समीक्षक डॉ. अनिता राकेश व विभा रानी श्रीवास्तव ने लोकार्पण किया।

कार्यक्रम में डॉ. सतीश राज ने कहा कि लघुकथा एक लंबा सफर तय कर बहस के चौराहे से उठकर चर्चा के चौपाल तक आ पहुंची है, लेकिन इस विद्या के लिए अभी बहुत काम बाकी है। ऐसे में लघुकथा कलश का प्रकाशन एक सार्थक प्रयास है। डॉ. ध्रुव कुमार ने लघुकथा कलश के संपादक योगराज प्रभाकर और संपादकीय टीम को बधाई देते हुए कहा कि बिहार में लघुकथा को लेकर गहराई से काम हो रहा है। कुमार अनुपम ने लघुकथा को एक महत्वपूर्ण साहित्यिक विद्या बताया।

कार्यक्रम में डॉ. अनीता राकेश, डॉ. मेहता नागेंद्र, विभा रानी, अनिल रश्मि, प्रभात, सिद्धेश्वर, विदेश्वरी प्रसाद, आलोक चोपड़ा, घनश्याम, पुष्पा ने भी अपने विचार व्यक्त किए।

News Source:
https://www.bhaskar.com/bihar/patna/news/deepa-is-working-on-small-stories-in-bihar-043131-3760435.html


मंगलवार, 4 दिसंबर 2018

लघुकथा कलश द्वितीय महाविशेषांक की डॉ. पुरुषोत्तम दुबे जी द्वारा समीक्षा

लघुकथा कलश द्वितीय महाविशेषांक :

सौ में से सौ प्राप्तांक ।

' लघुकथा कलश 'द्वितीय महाविशेषांक (जुलाई-दिसंबर 2018 )हिंदी लघुकथा संसार में लघुकथाओं की अनोखी , अछूती और बेमिसाल उपलब्धि की एक अकूत धरोहर लेकर सामने आया है। प्रस्तुत अंक की बेहतरी
लघुकथा के क्षेत्र में अद्यतन उपलब्ध उन तमाम अंकों से शर्त्तिया शर्त्त जितने वाले दावों की मानिंद है जिनका लघुकथाओं के स्थापन्न में महती योगदान गिनाया जाता रहा है।

प्रस्तुत अंक के संपादक योगराज प्रभाकर इस कारण से एक अलहदा किस्म के संपादक करार दिए जा सकते हैं गो कि एक संपादक के नाते उनकी निश्चयात्मक शक्ति न तो किसी असमंजस से बाधित है और न ही उदारता का कोई चोला पहिन कर रचना के मापदंड को दरकिनार कर समझौतापरस्त होकर मूल्यहीन रचनाओं को प्रकाशित करने में उतावलापन दिखाती है।
निष्कर्ष रूप में यह बात फ़क़त 'विशेषांक' के मय कव्हर 364 पेजों पर हाथ फेर कर कोरी हवाईतौर पर नहीं कही गई हैं, प्रत्युत इस बात को शिद्दत के साथ कहने में विशेषांक में समाहित सम्पूर्ण सामग्री से आँखें चार कर के कही गई है। मौजूदा विशेषांक पर ताबड़तोड़ अर्थ में कुछ कहना होता , तो यक़ीनन कब का कह चुका होता। क्योंकि मुझको अंक मिले काफी अरसा बीत चुका है। अंक प्राप्ति के पहले दिन से लेकर अभी-अभी यानी समझिए कल ही अंक को पढ़कर पूर्ण किया है और आज अंक पर लिखने को हुआ हूँ। इसलिए अंक को पचाकर , अंक पर अपनी कैफ़ियत उगल रहा हूँ।

वैसे तो कई-एक लघुकथाकार , जिनको यह अंक प्राप्त हुआ है या जिनकी लघुकथा इस अंक में छपी है , अंक पर उनके त्वरित विचार गाहेबगाहे पढ़ने को मिले भी हैं , लेकिन अपनी बात लिखने में इस बात को लेकर चौकस हूँ कि जो भी अंक पर कहने जा रहा हूँ, वह अंक पर पढ़ी अन्यान्यों की टिप्पणी से सर्वदा अलहदा ही होगी। प्रस्तुत अंक पर किसी के लिखे आयातीत विचारों का लबादा ओढ़कर यहाँ अपनी बात रखना कतई नहीं चाहूँगा, चाहे फिर अंक पर अपना विचार-मत संक्षिप्त ही क्यों न रखूँ ?

श्री योगराज प्रभाकर एक अच्छे ग़ज़लगो हैं और अपनी इसी प्रवृत्ति का दोहन वे प्रस्तुत अंक के संपादकीय की शुरुआत 'अर्ज़ किया है ' के अंदाज़ में मशहूर शायर जनाब जिगर मुरादाबादी के कहे ' शेर ' से करते हैं ; " ये इश्क़ नहीं आसां इतना ही समझ लीजे। एक आग का दरिया है और डूब के जाना है।" वाक़ई योगराज sir आप इस अंक को सजाने,संवारने, निखारने और हमारे बीच लाने में बड़े जटिल पथों से गुजरे हैं, इसकी गवाही खुद आपके संपादकत्व में निकला यह अंक भी दे रहा है और हम भी । यह अंक नहीं था आसां तैयार करने में। कर दिया आपने हम गवाह बने हैं। अपने संपादकीय में अंक के संवर्द्धन में एक बड़ी बेलाग बात संपादक योगराज जी ने कही है , " बिना किसी भेदभाव के सबको साथ लेकर चलने की पूर्व घोषित नीति का अक्षरशः पालन करने का प्रयास इस अंक में भी किया गया है। यह मेरा दृढ़ विश्वास है कि ' सबको साथ लेकर ' चलने की अवधारणा तब पराभूत हो जाती है जब अगड़े -पिछडे तर्ज़ पर रचनाकारों का वर्गीकरण कर दिया जाता है। अतः लघुकथा कलश के प्रवेशांक से ही हमने ऐसी रूढ़ियाँऔर वर्जनाएँ तोडना प्रारम्भ कर दिया था । " यह वक्तव्य सूचित करता है कि संपादक लघुकथा के प्रति आग्रही तो है मगर लघुकथा की शर्तों पर लिखी लघुकथाओं के प्रति।

प्रस्तुत अंक में पठनीय संपादकीय के बावजूद सामयिक लघुकथाकारों की लघुकथाओं पर दृष्टिसम्पन्न आलोचकों के गंभीर विचारों के अलावा लघुकथा के तमामं आयामों,उसका वुजूद,उसका सफरनामा,उसकी बनावट-बुनावट पर लघुकथा के विशिष्ट जानकारों के आलेखों का प्रकाशन , अंक को पायदार बनाने में महत्वपूर्ण है। प्रो बी एल आच्छा, डॉ उमेश मनदोषी, रवि प्रभाकर द्वारा लघुकथाओं की सटीक आलोचना के बरअक्स

डॉ अशोक भाटिया,भगीरथ परिहार,माधव नागदा,मधुदीप,डॉ मिथिलेश दीक्षित, रामेश्वर काम्बोज, डॉ रामकुमार घोटड, डॉ सतीशराज पुष्करणा,पुष्पा जमुआर, डॉ शकुन्तला किरण, डॉ शिखा कौशिक नूतन और अंत में प्रस्तुत अंक पर अंक की परिचयात्मक टिप्पणी के प्रस्तोता नाचीज़ डॉ पुरुषोत्तम दुबे के आलेखों का प्रकाशन हिंदी लघुकथा की समीचीनता के पक्ष में उपयोगी हैं।

लघुकथा पर मुकेश शर्मा द्वारा डॉ इन्दु बाली से तथा डॉ लता अग्रवाल द्वारा शमीम शर्मा से लिये गए साक्षात्कार लघुकथा की दशा,दिशा और संभावनाओं पर केंद्रित होकर लघुकथा में शैली और शिल्प पर भी प्रकाश डालता है। 

इस अंक की खास-उल-खास विशेषता यह है कि अंक में 'शृद्धाञ्जली 'शीर्षक के अधीन उन सभी स्वर्गीय नामचीन लघुकथाकारों की लघुकथाओं का प्रकाशन भी किया गया मिलता है ; जो अपने समय में लघुकथा-जगत में सृजनकर्मी होकर लघुकथा के क्षेत्र के चिरपुरोधा बने हुए हैं। 

अंक में आगे हिन्दी में लघुकथा लिखने वाले 245 लघुकथाकारों का जमावड़ा और आगे के क्रम में बांग्ला, मराठी,निमाड़ी,पंजाबी तथा उर्दू के लघुकथाकारों की लघुकथाएं अपने अलग जज़्बे के साथ पठनीय हैं । 

फिर सामने आता है लघुकथा केंद्रित पुस्तकों की समीक्षा का दौर , तदुपरांत देश के विभिन्न प्रान्तों में आयोजित हुई लघुकथा पर गतिविधियों की रिपोर्ट का प्रकाशन , जो अंक को सम्पूर्ण बनाने में अतिरेक रूप में ज़रूरी -सा दृष्टिगोचर होता है|

बधाई , योगराज प्रभाकर जी ,देश भर के विभिन्न भाषा-भाषी लघुकथाकारों की लघुकथाओं को एक जिल्द में समेटने के सन्दर्भ में। इस बात से सबसे ज़्यादा भला उन लघुकथाकारों को होगा , जो अपनी लघुकथाओं की पृष्ठभूमि में अन्यान्य प्रान्तों के कथानकों को तरज़ीह देना चाहते हैं ,ऐसे लघुकथाकार इस अंक के माध्यम से मराठी, बांग्ला, उर्दू , पंजाबी, निमाड़ी आदि की लघुकथाओं के ' लेखन-प्रचलन ' को नज़दीक से समझकर अपनी लघुकथाओं के कथानकों सृजन में भिन्न-भिन्न भाषाओं की शब्द-सम्पदा गृहीत कर सकते हैं और जिसकी वजह से वे अपनी लघुकथाओं के कथानक की प्रस्तुति मेंअपने वर्णित कथानक को भाषा और विचार की दृष्टि से भारतीय राष्ट्रीयता का रंग दे सकते हैं।

- डॉ. पुरुषोत्तम दुबे
सम्पर्क : 93295 81414
94071 86940

मंगलवार, 16 अक्तूबर 2018

लघुकथा समाचार

‘कम शब्दों में मानव मन को झकझोर देती है लघुकथा’
Swatva Samachar | October 15, 2018 | पटना 

आज के दौर में साहित्य की सबसे अच्छी विधा लघुकथा है। कम शब्दों में सारगर्भित रचना जो इंसानी मन को झकझोर दे वही लघुकथा है। उक्त बातें वरिष्ठ साहित्यकार भगवती प्रसाद द्विवेदी ने साहित्यिक संस्था लेख्य-मंजूषा और अमन स्टूडियो के संयुक्त तत्वाधान में आयोजित लघुकथा कार्यशाला में कही।

लघुकथा की जानकारी देते हुए उन्होंने कहा कि बहुत लोग अंग्रेजी के सिनॉप्सिस को लघुकथा समझते हैं, तो कुछ लोग अंग्रेजी की शार्ट स्टोरी को लघुकथा समझते हैं। जबकि ऐसा बिल्कुल नहीं है। दोनों अलग-अलग भाषाएं हैं। लघुकथा अपने आप में एक पूरी विधा है।

इस कार्यशाला में मुख्य अतिथि प्रोफेसर अनिता राकेश ने कहा कि आज के युवा इस क्षेत्र में काफी अच्छा कर रहे हैं। लघुकथा के क्षेत्र में आज शोध के लिए बहुत सारी लिखित सामग्री उपलब्ध हैं।

मुख्य अतिथि वरिष्ठ पत्रकार ध्रुव कुमार ने कार्यशाला में भाग ले रहे बच्चों को लघुकथा के शिल्प संरचना के पहलुओं से अवगत करवाया। लघुकथा के इतिहास के बारे में जानकारी दी।

लेख्य-मंजूषा की अध्य्क्ष विभा रानी श्रीवास्तव ने लघुकथा के पितामह सतीशराज पुष्करणा के आलेख को बच्चों के लिए पढ़ा।

इस मौके पर हरियाणा से छपने वाली पुस्तक “लघुकथा कलश” का विमोचन भी किया गया। इस पुस्तक में बिहार के तमाम लघुकथाकारों की लघुकथा प्रकाशित है। मिर्ज़ा ग़ालिब टीचर ट्रेनिंग कॉलेज की छात्राओं ने लघुकथा से संबंधित अपने सवाल किए।

दूसरे-तीसरे सत्र में सभी प्रतिभागियों ने अपनी-अपनी लघुकथाओं का पाठ किया। वहीं अमन स्टूडियो और लेख्य-मंजूषा ने भविष्य में शार्ट फ़िल्म बनाने की बात कही। इस मौके पर भोजपुरी फ़िल्म ‘माई’ के स्क्रिप्ट राइटर  मौजूद थे। धन्यवाद ज्ञापन शायर नसीम अख्तर ने किया।

News Source:
https://swatvasamachar.com/bihar-update/patna/kum-sabdo-mein-manav-man-ko-jhakjhor-deti-hai-laghukatha/