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शुक्रवार, 18 मार्च 2022

लघुकथा: रंगों का मिलन । हिलव्यू समाचार पत्र

 कल 17.02.2022 के हिलव्यू समाचार पत्र में मेरी एक लघुकथा। आप सभी के सादर अवलोकनार्थ।


रंगों का मिलन

धरती पर होली का दिन था और धरती से बहुत दूर किसी लोक में कृष्ण अपने कक्ष का द्वार बंद कर अंदर चुपचाप बैठे थे। रुक्मणि से रहा नहीं गया, वह कक्ष का द्वार खोल कर कृष्ण के पास गयी और बड़े प्रेम से बोली, "प्रभु, आप द्वारा प्रारंभ किये गए फागोत्सव में आप ही सबसे दूर! इस दिन प्रति वर्ष क्यों विचलित हो जाते हैं? आज तो आपके सारे भक्त, सखा और हम आपको अबीर लगाये बिना नहीं मानेंगे।"
कृष्ण मौन ही रहे। उनके झुके हुए चेहरे पर दुःख साफ़-साफ़ दिखाई दे रहा था।
"अपनी प्रथम भक्त के निमन्त्रण को तो अस्वीकार नहीं कर सकते, यही तो आपकी संगिनी थी फागोत्सव के प्रारंभ में।" कहते हुए रुक्मणि ने राधा को सामने कर दिया।
कृष्ण के चेहरे पर मुस्कान आ गयी लेकिन अगले ही क्षण जाने क्या सोच कर वह फिर चुप हो गए। राधा ने अबीर लगाना चाहा तो खुद को दूर कर दिया, और भरे हुए स्वर में कहा, “होली अपूर्ण है।“
कृष्ण यह कह कर बाहर निकल गये, लेकिन सम्पूर्ण द्वारा शुरू किये गए त्यौहार में अपूर्णता क्यों है, यह किसी की समझ में नहीं आ रहा था।
कृष्ण बाहर निकले ही थे कि, उनकी दृष्टि भवन के द्वार पर आये अतिथि पर गयी, यकायक कृष्ण के चेहरे पर प्रसन्नता आ गयी, वो द्वार की तरफ भागे, राह में ही अबीर की मुट्ठी भर ली और  द्वार पर खड़े अतिथि को रंग दिया।
और गले मिलते हुए अतिथि मोहम्मद ने कहा, "मेरे भाई, हर ईद पर आते हो, सेवईयां भी प्यार से खाते हो, कब तक मैं होली पर तुम्हारी मोहब्बत भरी मिठाई ना खा कर अधूरा रहूँगा?"
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- डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी


गुरुवार, 17 मार्च 2022

कल 16 मार्च 2022 के पत्रिका समाचार पत्र में होली पर एक लघुकथा | रक्षा कवच

 


रक्षा कवच

शहर की सबसे बड़ी होली के धधकते अंगारों से निकलती आसमान छूती लपटें पूर्णिमा के चाँद को जैसे लाल करने को आतुर थीं। उस दृश्य को देखने एक परिवार के तीन सदस्य पिता, माँ और उनकी बेटी भी होलिका दहन में आये हुए थे। लगभग 22 वर्षीया बेटी, जिसने एक वर्ष पूर्व ही एक नारी सशक्तिकरण संस्थान में कार्य करना प्रारम्भ किया था, उस दहकती अग्नि को गौर से देख रही थी और देखते-देखते उसकी आखों में आंसू आ गए। बेटी के आंसू माँ की नजरों से छिप नहीं सके। उसने अपनी बेटी को अपने पास लाकर प्यार से पूछा, “अरे! क्या हुआ तुझे?”

बेटी ने ना की मुद्रा में सिर हिला कर कहा, “कुछ नहीं माँ, लेकिन मुझे लगता है कि होलिका ने प्रह्लाद को खुद ही अपनी ना जलने वाली चादर दे दी होगी, ताकि उसका भतीजा नहीं जले। लेकिन अगर प्रह्लाद बेटी होता तो शायद वह अपनी चादर कभी नहीं देती।” 
कहते-कहते उसका स्वर भर्रा गया।

उसके पिता ने यह बात सुनकर उसके कंधे पर हाथ रखा और गंभीर स्वर में कहा, “तब शायद उसका पिता हिरण्यकश्यप ही एक और चादर का इंतजाम कर देता। ना बुआ जलती और ना ही भतीजी।“
फिर एक क्षण चुप रहते हुए पिता ने अपनी बेटी को गौर से देखा और कहा,“प्रेम की चादर को क्रोध की अग्नि जला नहीं सकती।”

और बेटी की आखों में चमक आ गयी।
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- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


बुधवार, 16 मार्च 2022

समीक्षा | लघुकथा-संग्रह " ब्रीफ़केस" | लेखक: नेतराम भारती | हिन्दी दैनिक समाचार- पत्र "इंदौर समाचार" में प्रकाशित | समीक्षाकार: डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी





पुस्तक: ब्रीफ़केस (लघुकथा- संग्रह )

लघुकथाकार : नेतराम भारती

प्रकाशक : अयन प्रकाशन, दिल्ली

पृष्ठ :160

मूल्य : 315/-


समकालीन संवेदनाओं के ओजपूर्ण कथन

- डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी 


नेल्सन मंडेला ने कहा था कि, "यदि आप किसी व्यक्ति से उस भाषा में बात करते हैं जो वो समझता है तो बात उसके दिमाग में जाती है, लेकिन यदि आप उससे उसकी अपनी भाषा में बात करते हैं तो बात सीधे उसके दिल तक जाती है।" साहित्य भी इसी प्रकार के दृष्टिकोण से निर्मित किया जाता है और साहित्य की एक विधा - लघुकथा चूँकि न्यूनतम शब्दों में अपने पाठकों को दीर्घ सन्देश दे पाती है। अतः ऐसा वातावरण, जो मानवीय संवेदनाओं और समकालीन विसंगतियों को दिल तक उतार पाए, का निर्माण करने में लघुकथा का दायित्व अन्य गद्य विधाओं से अधिक स्वतः ही हो जाता है।

हिन्दी शिक्षक, गद्य व पद्य दोनों ही की विभिन्न विधाओं में समान रूप से सक्रिय युवा लेखक श्री नेतराम भारती के लघुकथा संग्रह 'ब्रीफ़केस' में भी सामयिक भाषा व समकालीन विषय, जो सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक यथार्थ की पृष्ठभूमि से जुड़े हैं, की एक सौ एक रचनाएं संगृहीत हैं। लघुकथा लघु और कथा की मर्यादाओं के साथ-साथ जिस क्षण विशेष की बात कर रही होती है, वह, पूरी रचना में हाथों से फिसलना नहीं चाहिए अन्यथा लघुकथा के भटक जाने का खतरा होता है। नेतराम भारती की लघुकथाएं इन दृष्टिकोणों से आश्वस्त करती हैं, इनके अतिरिक्त उनकी कलम किसी नोटों से भरे ब्रीफ़केस से ऊपर उठी दिखाई देती है। इस संग्रह की ‘ब्रीफ़केस’ लघुकथा इसी विचार पर केन्द्रित है। जमील मज़हरी का एक शे'र है,

 "जलाने वाले जलाते ही हैं चराग़ आख़िर, 

ये क्या कहा कि हवा तेज़ है ज़माने की।" 

इस संग्रह की एक अन्य लघुकथा 'रसीदी टिकट' भी भोगवादिता और भाववादिता के अंतर को दर्शाती एक ऐसी रचना है जो चरागों को रोशन करने का पैगाम दे रही है। लघुकथा 'सदमा' के मध्य की यह पंक्ति //वे ही अगर जीवित होती तो, पिताजी के जाने का इतना दुःख नहीं होता।//, न केवल उत्सुकता बढ़ाती है बल्कि रचना का अंत आते-आते यह पञ्चलाइन भी बन जाती है। संस्कृत में एक श्लोक है - "भूमे:गरीयसी माता,स्वर्गात उच्चतर:पिता।" अर्थात भूमि से श्रेष्ठ माता है, स्वर्ग से ऊंचे पिता हैं। रचना 'नये पिता' भारतवर्ष की इसी संस्कृति को उद्घाटित कर रही है। 'फ़रिश्ता' की बात करें तो यह नारी सशक्तिकरण की उन रचनाओं में से एक है जिनका विषय समकालीन व उत्कृष्ट है। 'इडियट को थैंक्स' मित्रता का सन्देश दे रही है और 'आख़िरी पतंग' पिता-पुत्र के प्रेम का। 'पत्नी ने कहा था' का अंत मार्मिक है और निष्ठपूर्ण आचरण का द्योतक है। 'बुज़ुर्ग का चुंबन' प्रवासी भारतीयों का प्रतिनिधित्व करती एक रचना है, जिन्होंने अपने स्वदेश को देखा भी नहीं है। 'शब्दहीन अभिव्यक्ति' में कुत्तों के एक युगल के मध्य प्रेम की अद्भुत अभिव्यक्ति है। 'मैडम सिल्विया' में संवादों की लम्बाई रचना को थोडा उबाऊ ज़रूर कर रही है, परन्तु रचना का शीर्षक व प्रारम्भ उत्सुकता बढ़ाने वाला है। 'कान और मुँह' एक अनछुए विषय पर कही गई रचना है। 'बेड नंबर 118' मेडिक्लेम इंश्योरेंस के प्रति हस्पताल के लालच से परिचय करवाती है तो 'ऑनलाइन - ऑफलाइन' आभासी और भौतिक रिश्तों में अंतर को दर्शाती है। 'एक सत्य यह भी' एक पूर्ण रचना है, इसका शिल्प और अधिक उत्तम होने की सम्भावना है। 'संवेदना की वेदना' वास्तविक वेदना पर हावी टीवी सीरियल की स्क्रिप्टिड वेदना को बहुत अच्छे तरीके से दर्शा रही है। 'सफ़ेद कोठी' अपने संघर्ष के दिनों को न भूलने की सलाह देती हुई है। 'मुहिम' पद से हटाने की रणनीति बताती है। 'क्रॉकरी या जीवन' अपने जीवन काल में स्वअर्जित वस्तुओं के उपभोग का सन्देश दे रही है तो 'यूज एंड थ्रो' लिव-इन-रिलेशनशिप के कटु सत्य को दर्शा रही है। 'गाँधारी काश! तू मना कर देती' एक बेहतरीन शीर्षक की बेमेल विवाह से मना करने की राह दिखाती रचना है। 'अफ़सोस' मृत्यु के समय मनुष्य का अन्तिम वेदोक्त का कर्तव्य अर्थात्

 "वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तंशरीरम्। ओ३म् क्रतो स्मर क्लिबे स्मर कृतंस्मर।।" 

को याद दिला रही है। 'औज़ार...' लघुकथा सत्य को कहने का साहस और 'टायर-पंचर' परेशानी में मदद करने का सन्देश दे रही है।

लेखक की कई रचनाओं में किसी न किसी पात्र का नाम 'दिवाकर' है। पढ़ने-लिखने और प्रश्न करने वाले व्यक्ति की बुद्धि के बारे में कहा गया है कि "दिवाकरकिरणैः नलिनी, दलं इव विस्तारिता बुद्धिः॥" अर्थात वह बुद्धि ऐसे बढ़ती है जैसे कि 'दिवाकर' की किरणों से कमल की पंखुड़ियाँ। इस पुस्तक रुपी रचनाकर्म में भी समाज में सनातन नैतिक मूल्यों को सुदृढ़ बनाने हेतु जिस निष्ठा और समर्पण से सन्देश दीप्तिमान किया गया है वह प्रज्ञा संवृद्धि करता है। अधिकतर रचनाएं सौहार्दपूर्ण सकारात्मक दृष्टिकोण से कही गई हैं। शिल्प उत्तम है और जिस बात की भूरी-भूरी सराहना की जानी चाहिए वह है श्री भारती द्वारा विषय की गूढ़ अध्ययनशीलता और उस अध्ययन को कलमबद्ध करने की क्षमता। कहीं-कहीं जैसे,'शब्दहीन अभिव्यक्ति' में 'भाई सहाब' आदि को छोड़कर वर्तनी की त्रुटियाँ नहीं हैं। भाषा आम बोलचाल की है। कुछ रचनाओं के शीर्षक उत्तम होने की संभावना रखते हैं। समग्रतः, प्रबुद्ध सोच के पश्चात समकालीन मानवीय संवेदनाओं, चिन्तन हेतु आवश्यक विषयों से ओतप्रोत लघुकथाओं का यह संग्रह पठनीय व संग्रहणीय है।


- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

अध्यक्ष, राजस्थान इकाई, विश्व भाषा अकादमी

ब्लॉगर, लघुकथा दुनिया ब्लॉग

सहायक आचार्य (कम्प्यूटर विज्ञान)

रविवार, 13 मार्च 2022

मेरी लघुकथा लेखन प्रक्रिया | चंद्रेश छतलानी | साक्षात्कारकर्ता: ओमप्रकाश क्षत्रिय

 2016 में श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय द्वारा मेरा साक्षात्कार लिया गया था. आज 2022 में हालांकि इस प्रक्रिया में पहले से कुछ परिवर्तन है, जो कि समय के साथ होना भी चाहिए. आइए पढ़ते हैं, ओमप्रकाश क्षत्रिय जी को,

आज हम आप का परिचय एक ऐसे साहित्यकार से करवा रहे है जो लघुकथा के क्षेत्र में अपनी अनोखी रचना प्रक्रिया के लिए जाने जाते हैं. आप की लघुकथाएँ अपनेआप में पूर्ण तथा सम्पूर्ण लघुकथा के मापदंड को पूरा करने की कोशिश करती हैं. हम ने आप से जानना चाहा की आप अपनी लघुकथा की रचना किस तरह करते है? ताकि नए रचनाकार आप की रचना प्रक्रिया से अपनी रचना प्रक्रिया की तुलना कर के अपने लेखन में सुधार ला सके.

लघुकथा के क्षेत्र में अपना पाँव अंगद की तरह ज़माने वाले रचनाकार का नाम है आदरणीय चंद्रेश कुमार छतलानी जी. आइए जाने आप की रचना प्रक्रिया:

ओमप्रकाश क्षत्रिय- चंद्रेश जी ! आप की रचना प्रक्रिया किस की देन है ? या यूँ कहे कि आप किस का अनुसरण कर रहे हैं ? 

चंद्रेश कुमार छतलानी-  आदरणीय सर !  हालाँकि मुझे नहीं पता कि मैं किस हद तक सही हूँ . लेकिन आदरणीय गुरूजी (योगराज जी प्रभाकर) से जो सीखने का यत्न किया है, और उन के द्वारा कही गई बातों को आत्मसात कर के और उन की रचनाएँ पढ़ कर जो कुछ सीखासमझा हूँ, उस का ही अनुसरण कर रहा हूँ.

ओमप्रकाश क्षत्रिय- लघुकथा लिखने के लिए आप सब से पहले क्या-क्या करते हैं ? 

चंद्रेश कुमार छतलानी - सब से पहले तो विषय का चयन करता हूँ . वो कोई चित्र अथवा दिया हुआ विषय भी हो सकता है. कभीकभी विषय का चुनाव स्वयं के अनुभव द्वारा या फिर विचारप्रक्रिया द्वारा प्राप्त करने का प्रयास करता हूँ.

ओमप्रकाश क्षत्रिय- विषय प्राप्त करने के बाद आप किस प्रक्रिया का पालन करते हैं ? 

चंद्रेश कुमार छतलानी - सब से पहले विषय पर विषय सामग्री का अध्ययनमनन करता हूँ. कहीं से भी पढता अवश्य हूँ . जहाँ भी कुछ मिल सके-  किसी पुस्तक में, इन्टरनेट पर, समाचार पत्रों में, धार्मिक ग्रन्थों में या पहले से सृजित उस विषय की रचनाओं आदि को खोजता हूँ.  इस में समय तो अधिक लगता है . लेकिन लाभ यह होता है कि विषय के साथ-साथ कोई न कोई संदेश मिल जाता है. 

इस में से  जो अच्छा लगता है उसे अपनी रचना में देने का दिल करता है  उसे मन में उतर लेता हूँ.  यह जो कुछ अच्छा होता है उसे संदेश के रूप में अथवा विसंगति के रूप में जो कुछ मिलता है, जिस के बारे में लगता है कि उसे उभारा जाए तो उसे अपनी रचना में ढाल कर उभार लेता हूँ.  

ओमप्रकाश क्षत्रिय- मान लीजिए कि इतना करने के बाद भी लिखने को कुछ नहीं मिल पा रहा है तब आप क्या करते हैं ? 

चंद्रेश कुमार छतलानी- जब तक कुछ सूझता नहीं है, तब तक पढता और मनन करता रहता हूँ. जबतक कि कुछ लिखने के लिए कुछ विसंगति या सन्देश नहीं मिल जाता. 

ओमप्रकाश क्षत्रिय- इस के बाद ? 

चंद्रेश कुमार छतलानी - इस विसंगति या संदेश के निश्चय के बाद मेरे लिये लिखना अपेक्षाकृत आसान हो जाता है . तब कथानक पर सोचता हूँ . कथानक कैसे लिखा जाए ? उस के लिए स्वयं का अनुभव, कोई प्रेरणा, अन्य रचनाकारों की रचनाएं,  नया-पुराना साहित्य,  मुहावरे,  लोकोक्तियाँ, आदि से कोई न कोई प्रेरणा प्राप्त करता हूँ.  कई बार अंतरमन से भी कुछ सूझ जाता है . उस के आधार पर पंचलाइन बना कर कथानक पर कार्य करता हूँ .

ओमप्रकाश क्षत्रिय- इस प्रक्रिया में हर बार सफल हो जाते हैं ? 

चंद्रेश कुमार छतलानी-  ऐसा नहीं होता है, कई बार इस प्रक्रिया का उल्टा भी हो जाता है . कोई कथानक अच्छा लगता है तो पहले कथानक लिख लेता हूँ और पंचलाइन बाद में सोचता हूँ .  तब पंचलाइन कथानक के आधार पर होती है .

ओमप्रकाश क्षत्रिय- आप अपनी लघुकथा में पात्र के चयन के लिए क्या करते हैं ? 

चंद्रेश कुमार छतलानी- पहले कथानक को देखता हूँ. उस के आधार पर पात्रों के नाम और संख्या का चयन करता हूँ. पात्र कम से कम हों अथवा न हों . इस बात का विशेष ध्यान रखता हूँ. 

ओमप्रकाश क्षत्रिय- लघुकथा के शब्द संख्या और कसावट के बारे में कुछ बताइए ? 

चंद्रेश कुमार छतलानी - मैं यह प्रयास करता हूँ  कि लघुकथा 300 शब्दों से कम की हो.  हालाँकि प्रथम बार में जो कुछ भी कहना चाहता हूँ  उसे उसी रूप में लिख लेता हूँ. वो अधिक बड़ा और कम कसावट वाला भाग होता है, लेकिन वही मेरी लघुकथा का आधार बन जाता है .  कभी-कभी थोड़े से परिवर्तन के द्वारा ही वह कथानक लघुकथा के रूप में ठीक लगने लगता है. कभी-कभी उस में बहुत ज्यादा बदलाव करना पड़ता है.

ओमप्रकाश क्षत्रिय- लघुकथा को लिखने का कोई तरीका हैं जिस का आप अनुसरण करते हैं ? 

चंद्रेश कुमार छतलानी -  लघुकथा सीधी ही लिखता हूँ. हाँ , दो अनुच्छेदों के बीच में एक खाली पंक्ति अवश्य छोड़ देता हूँ, ताकि पाठकों को पढने में आसानी हो. यह मेरा अपना तरीका है.  इस के अलावा जहाँ संवाद आते हैं वहां हर संवाद को उध्दरण चिन्हों के मध्य रखा देता हूँ . साथ ही प्रत्येक संवाद की समाप्ति के बाद एक खाली पंक्ति छोड़ देता हूँ. यह मेरा अपना तरीका हैं.

ओमप्रकाश क्षत्रिय- इस के बाद आप लघुकथा पर क्या काम करते हैं ताकि वह कसावट प्राप्त कर सके ? 

चंद्रेश कुमार छतलानी- इस के बाद लघुकथा को अंत में दो-चार बार पढ़ कर उस में कसावट लाने का प्रयत्न करता हूँ.  मेरा यह प्रयास रहता है कि लघुकथा 300  शब्दों में पूरी हो जाए. (हालाँकि हर बार सफलता नहीं मिलती) . इस के लिए कभी किसी शब्दों/वाक्यों को हटाना पड़ता हैं .  कभी उन्हें बदल देता हूँ . दो-चार शब्दों/वाक्यों के स्थान पर एक ही शब्द/वाक्य लाने का प्रयास करता हूँ.

कथानक पूरा होने के बाद उसे बार-बार पढ़ कर उस में से लेखन/टाइपिंग/वर्तनी/व्याकरण की अशुद्धियाँ निकालने का प्रयत्न करता हूँ.  उसी समय में शीर्षक भी सोचता रहता हूँ . कोशिश करता हूँ कि शीर्षक के शब्द पंचलाइन में न हों और जो लघुकथा कहने का प्रयास कर रहा हूँ, उसका मूल अर्थ दो-चार शब्दों में आ जाए . मुझे शीर्षक का चयन सबसे अधिक कठिन लगता है.

ओमप्रकाश क्षत्रिय- अंत में कुछ कहना चाहेंगे ? 

चंद्रेश कुमार छतलानी- इस के पश्चात प्रयास यह करता हूँ कि कुछ दिनों तक रचना को रोज़ थोड़ा समय दूं,  कई बार समय की कमी से रचना के प्रकाशन करने में जल्दबाजी कर लेता हूँ,  लेकिन अधिकतर 4 से 7 दिनों के बाद ही भेजता हूँ.  इससे बहुत लाभ होता है.

यह मेरा अपना तरीका हैं. मैं सभी लघुकथाकारों से यह कहना चाहता हूँ कि वे अपनी लघुकथा को पर्याप्त समय दे, उस पर चिंतन-मनन करे. उन्हें जब लगे कि यह अब पूरी तरह सही हो गई हैं तब इसे पोस्ट/प्रकाशित करें. 

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मंगलवार, 8 मार्च 2022

हाल-ए-वक्त | राजस्थान साहित्य अकादमी से आर्थिक सहयोग प्राप्त लघुकथा संग्रह | लेखक : चंद्रेश कुमार छतलानी

लेखक का नाम : चंद्रेश कुमार छतलानी
पुस्तक का नाम : हाल-ए-वक्त
(राजस्थान साहित्य अकादमी से आर्थिक सहयोग प्राप्त लघुकथा संग्रह)
प्रकाशक: हिमांशु पब्लिकेशन्स, उदयपुर
प्रकाशन वर्ष: 2022
ISBN: 978-81-7906-955-4

लघुकथाएं:
देशबंदी, E=(MC)xशून्य, कटती हुई हवा, वही पुरानी तकनीक, पत्ता परिवर्तन, एक बिखरता टुकड़ा, संस्कार, भटकना बेहतर, गूंगा कुछ तो करता है, खोटा सिक्का, गुलाम अधिनायक, अस्वीकृत मृत्यु, ईलाज, सोयी हुई सृष्टि, अन्नदाता, भेड़िया आया था, मुर्दों के सम्प्रदाय, इतिहास गवाह है, निर्भर आज़ादी, नीरव प्रतिध्वनि, सर्पिला इंसान, मानव-मूल्य, मुआवज़ा, खजाना, भयभीत दर्पण, पलायन का दर्द, वीआईपी लाइन, तीन संकल्प, मार्गदर्शक, पश्चाताप, विधवा धरती, धर्म-प्रदूषण, मेरी याद, गरीब सोच, उम्मीद, अपवित्र कर्म, मारते कंकाल, भूख, भय, दोहन, गंगा का धर्म, बिछड़ने का दर्द, अंतिम श्रृंगार, आरती-दर्शन, धार्मिक पुस्तक, झूठे मुखौटे, सिर्फ चाय, माँ पूतना, डर, मेच फिक्सिंग, स्वप्न को समर्पित, विरोध का सच, गांधीजी का तीसरा बन्दर, इंसान जिन्दा है, मौकापरस्त मोहरे, आतंकवादी का धर्म, छुआछूत, ममता, निर्माताओं से मुलाक़ात, बुनियादी कमाई, धर्म, दशा, खुलते पेच, बिकती निष्क्रियता, रसीला फल, नियोजित प्रतिक्रिया, बच्चा नहीं, दायित्व-बोध, अहमियत, अदृश्य जीत, स्वच्छता निवारण, एक गिलास पानी, दहन किसका, गर्व-हीन भावना, अपरिपक्व, माँ के सौदागर, बहुरूपिया, नयी शराब का नशा, उसकी ज़रूरत, कोई तो मरा है
संग्रह से एक लघुकथा:
अदृश्य जीत
जंगल के अंदर उस खुले स्थान पर जानवरों की भारी भीड़ जमा थी। जंगल के राजा शेर ने कई वर्षों बाद आज फिर खरगोश और कछुए की दौड़ का आयोजन किया था।
पिछली बार से कुछ अलग यह दौड़, जानवरों के झुण्ड के बीच में सौ मीटर की पगडंडी में ही संपन्न होनी थी। दोनों प्रतिभागी पगडंडी के एक सिरे पर खड़े हुए थे। दौड़ प्रारंभ होने से पहले कछुए ने खरगोश की तरफ देखा, खरगोश उसे देख कर ऐसे मुस्कुरा दिया, मानों कह रहा हो, "सौ मीटर की दौड़ में मैं सो जाऊँगा क्या?"
और कुछ ही क्षणों में दौड़ प्रारंभ हो गयी।
खरगोश एक ही फर्लांग में बहुत आगे निकल गया और कछुआ अपनी धीमी चाल के कारण उससे बहुत पीछे रह गया।
लगभग पचास मीटर दौड़ने के बाद खरगोश रुक गया, और चुपचाप खड़ा हो गया।
कछुआ धीरे-धीरे चलता हुआ, खरगोश तक पहुंचा। खरगोश ने कोई हरकत नहीं की। कछुआ उससे आगे निकल कर सौ मीटर की पगडंडी को भी पार कर गया, लेकिन खरगोश वहीँ खड़ा रहा।
कछुए के जीतते ही चारों तरफ शोर मच गया, जंगल के जानवरों ने यह तो नहीं सोचा कि खरगोश क्यों खड़ा रह गया और वे सभी चिल्ला-चिल्ला कर कछुए को बधाई देने लगे।
कछुए ने पीछे मुड़ कर खरगोश की तरफ देखा, जो अभी भी पगडंडी के मध्य में ही खड़ा हुआ था। उसे देख खरगोश फिर मुस्कुरा दिया, वह सोच रहा था,
"यह कोई जीवन की दौड़ नहीं है, जिसमें जीतना ज़रूरी हो। खरगोश की वास्तविक गति कछुए के सामने बताई नहीं जाती।"
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बुधवार, 2 मार्च 2022

लघुकथा संग्रह "हाल-ए-वक्त"

गुरुजनों व वरिष्ठजनों के आशीर्वाद व सभी सम्बन्धी-मित्रों के स्नेह के फलस्वरूप राजस्थान साहित्य अकादमी के आर्थिक सहयोग से मेरा लघुकथा संग्रह "हाल-ए-वक्त" प्रकाशित हुआ। 

कुछ दिनों पूर्व अकादमी में वांछित प्रतियां भी जमा हो गईं।

संग्रह में भूमिका प्रो. (कर्नल) एस.एस. सारंगदेवोत (माननीय कुलपति, राजस्थान विद्यापीठ) व फ्लैप मेटर श्री त्रिलोक सिंह ठकुरेला (वरिष्ठ साहित्यकार) द्वारा लिखा गया है। आप दोनों का विशेष आभार। 






सोमवार, 28 फ़रवरी 2022

मेरी एक लघुकथा राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर | मानव-मूल्य

 

मानव-मूल्य / डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

वह चित्रकार अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति को निहार रहा था। चित्र में गांधीजी के तीनों बंदरों  को विकासवाद के सिद्दांत के अनुसार बढ़ते क्रम में मानव बनाकर दिखाया गया था।
उसके एक मित्र ने कक्ष में प्रवेश किया और चित्रकार को उस चित्र को निहारते देख उत्सुकता से पूछा, “यह क्या बनाया है?”
चित्रकार ने मित्र का मुस्कुरा कर स्वागत किया फिर ठंडे, गर्वमिश्रित और दार्शनिक स्वर में उत्तर दिया, “इस तस्वीर में ये तीनों प्रकृति के साथ विकास करते हुए बंदर से इंसान बन गये हैं, अब इनमें इंसानों जैसी बुद्धि आ गयी है। ‘कहाँ’ चुप रहना है, ‘क्या’ नहीं सुनना है और ‘क्या’ नहीं देखना है, यह समझ आ गयी है। अच्छाई और बुराई की परख – पूर्वज बंदरों को ‘इस अदरक’ का स्वाद कहाँ मालूम था?”
आँखें बंद कर कहते हुए चित्रकार की आवाज़ में बात के अंत तक दार्शनिकता और बढ़ गयी थी।
“ओह! लेकिन तस्वीर में इन इंसानों की जेब कहाँ है?” मित्र की आवाज़ में आत्मविश्वास था।
चित्रकार हौले से चौंका, थोड़ी सी गर्दन घुमा कर अपने मित्र की तरफ देखा और पूछा, “क्यों…? जेब किसलिए?”
मित्र ने उत्तर दिया,
“ये केवल तभी बुरा नहीं देखेंगे, बुरा नहीं कहेंगे और बुरा नहीं सुनेगे जब इनकी जेबें भरी रहेंगी। इंसान हैं बंदर नहीं…”
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- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
उदयपुर (राजस्थान)
9928544749
chandresh.chhatlani@gmail.com