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शनिवार, 19 फ़रवरी 2022

दि ग्राम टुडे के वृद्धजनों को समर्पित अंक में मेरी व श्री कृष्ण मनु जी की लघुकथा

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युवा प्रवर्तक में मेरी एक लघुकथा | अंतिम श्रृंगार | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


यूआरएल: https://yuvapravartak.com/?p=60590 

अंतिम श्रृंगार

उसकी दाढ़ी बनाई गयी, नहलाया गया और नये कपडे पहना कर बेड़ियों में जकड़ लिया गया। जेलर उसके पास आया और पूछा, "तुम्हारी फांसी का वक्त हो गया है, कोई आखिरी इच्छा हो तो बताओ।"
उसका चेहरा तमतमा उठा और वो बोला, "इच्छा तो एक ही है-आज़ादी। शर्म आती है तुम जैसे हिन्दुस्तानियों पर, जिनके दिलों में यह इच्छा नहीं जागी।"
वो क्षण भर को रुका फिर कहा, “मेरी यह इच्छा पूरी कर दे, मैं इशारा करूँ, तभी मुझे फाँसी देना और मरने के ठीक बाद मुझे इस मिट्टी में फैंक देना फिर फंदा खोलना।"
जेलर इस अजीब सी इच्छा को सुनकर बोला, "तू इशारा ही नहीं करेगा तो?"
वो हँसते हुए बोला, " आज़ादी के मतवाले की जुबान है, अंग्रेज की नहीं...."
जेलर ने कुछ सोचकर हाँ में सिर हिला दिया और उसे ले जाया गया।
उसके चेहरे पर काला कपड़ा बाँधा गया, उसने जोर से साँस अंदर तक भरी, फेंफड़े हवा से भर गए, कपड़े में छिपा उसका मुंह भी फूल गया। फिर उसने गर्दन हिला कर इशारा किया, और जेलर ने जल्लाद को इशारा किया, जल्लाद ने नीचे से तख्ता हटा दिया और वो तड़पने लगा।
वहां हवा तेज़ चलने लगी, प्रकृति भी व्याकुल हो उठी। मिट्टी उड़ने लगी, जैसे उसका सिर चूमना चाह रही हो, लेकिन काले कपड़े से ढके उसके चेहरे तक पहुँच न सकी।
उसकी साँसों की गति हवा की गति के साथ मंद होती गयी, और कुछ ही क्षणों में उसका शरीर शांत हो गया।
उसे उतार कर धरती पर फैंक दिया गया, वो जैसे करवट लेकर सो रहा था। फिर उसके फंदे को खोला गया, फंदा खोलते ही उसके फेंफडों में भरी हवा तेज़ी से मुंह से निकली और धरती से टकराई, मिट्टी उड़कर उसके चेहरे पर फ़ैल गयी।
आखिर देश की मिट्टी ने उसका श्रृंगार कर ही दिया।
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- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
यूआरएल: https://yuvapravartak.com/?p=60590 

शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2022

लघुकथा: सीता सी वामा | लक्ष्मण रामानुज लड़ीवाला

19-11-1945 को जयपुर में जन्मे लक्ष्मण रामानुज लड़ीवाला ने एम् कॉम, DCWA, कंपनी सचिव (inter) तक शिक्षा प्राप्त की है. वेअग्रगामी (मासिक) के सह-सम्पादक (1975 से 1978) व 1978 से 1990 तक निराला समाज (त्रैमासिक) में भी कार्य किया है. बाबूजी का भारत मित्र, नव्या, अखंड भारत(त्रैमासिक), साहित्य रागिनी, राजस्थान पत्रिका (दैनिक) आदि पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित हुई हैं. वे ओपन बुक्स ऑन लाइन, कविता लोक, आदि वेब मंचों द्वारा सम्मानित हुए हैं. साहित्य में वे दोहे, कुण्डलिया छंद, गीत, कविताएं, कहानियाँ और लघुकथाओं का लेखन करते हैं. आइए आज पढ़ते हैं उनकी एक लघुकथा
  

सीता सी वामा

"सैकड़ों लड़कियाँ देख चुके पर तुझे कोई लड़की पसन्द ही नहीं आती। लड़की देखकर जवाब नहीं देता और दो दिन बाद मना कर देता है। आखिर तुम्हारी पसन्द है क्या?" माँ ने पुत्र से पूछा।
  "लड़की देखने के बाद छानबीन करने पर लड़की में वह समर्पित भावना नजर नहीं आती, जो मैं चाहता हूँ माँ।"
  अब माँ ने आश्चर्यचकित हो पूछा "समर्पित भावना से तुम्हारा क्या आशय है?"
  "जैसे प्रभु राम के साथ माँ सीता सारे सुख त्यागकर वनवास गई थी, ऐसी समर्पित भावना।"
  माँ यह सुनकर मुस्कुरा दी और बोली, "वो तो ठीक है लेकिन क्या तुम्हारा खुदका आचरण भी श्रीराम जैसा मर्यादित है?"
  और यह सुनकर वह विचारों में खो गया।
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- लक्ष्मण रामानुज लड़ीवाला
कृष्णा साकेत, 165, गंगौत्री नगर, गोपालपुरा, टोंक रोड, जयपुर (राज.) - 302018
Mo. 9314249608
Email- lpladiwala@gmail.com 

बुधवार, 16 फ़रवरी 2022

लघुकथा : खामोशी | कुमुद शर्मा "काशवी"

"अरे मालती यूँ रोने से का होगा...जाने वाला तो चला गया,चार चार बच्चे है तेरे पीछे...बिटिया ने भी इंटर कर लिया ब्याहने लायक तो हो ही गई है,परिवार के साथ हो ले सहारा होगा"

"अरे भाई दिनकर अब इनके परिवार को तुम्हें ही सँभालना होगा चाचा हो इनके"

         "आप क्या बोल रहे हो जी हमारा परिवार भी ढंग से ना पलता हम कैसे... कोशिश करेंगे क्यूँ भाभी अपने जेवर वगैरह तो रखे रखी हो ना"

"भाई रामलाल तुम्हीं देखो अब तुम परिवार के बड़े हो"

       "हाँ मैं भी तो तब कुछ करूँ ना जब ये लोग ये घर बेच के गाँव चलने को राजी हो"

"अरे कोई चाय लाएगा....खाने में क्या क्या बन रहा है"

पूरे घर में पसरी खामोशी में रिया के कानों में बस यही बातें गूँज रही थी..."आज सब अपना मतलब साधने आए है पूरे साल भर से बीमार बाबा का किसी ने एक दिन हाल न पूछा "बूत बनी बैठी रिया बुदबुदाई

    मोबाइल की घंटी बजी .... "आप चाहे तो कल से नौकरी ज्वाइन कर सकती है वरना कैंडिडेट और भी बहुत है....आकर पेपर वर्क कन्फर्म कर ले"

     "माँ मैं आती हूँ.......मुझे नौकरी मिल गई है" अपनी खामोशी तोड़ रिया ने मालती जी से कहा...मालती जी की खामोशी ने भी रिया को सहमति दे दी थी।

        "इसे देखो पिता की मौत पे दो आँसू ना निकले...चिता की आग भी ठण्डी ना हुई और इन्हें  बाहर जाना है"

      जिन रास्तों से कल पिता की अर्थी निकली थी....आज उसी घर से बेटी को कर्तव्य पथ पर निकलते देख सबकी जुबान पर खामोशी भरा सन्नाटा था !

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- कुमुद शर्मा "काशवी"
गुवाहाटी, असम
संपर्क सूत्र-
मोबाइल न.8471892167
इमेल- Kumud976@gmail.com

मंगलवार, 15 फ़रवरी 2022

मेरी एक लघुकथा साहित्यप्रीत वेब मैगज़ीन में | शून्य घंटा शून्य मिनट

URL: https://sahityaprit.com/zero-hour-zero-minute/

 

शून्य घंटा शून्य मिनट | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी 

विद्यालय के एक कक्ष में विद्यार्थी परीक्षा देने बैठे थे। कक्ष-निरीक्षक ने सभी को प्रश्नपत्र और उत्तरपुस्तिका बाँट दी थी। पहली घंटी बजी, जिसके बजते ही वह कक्ष-निरीक्षक हर परीक्षा की तरह मशीनी अंदाज़ में तेज़ स्वर में बोला, “दो घंटे का पेपर है। अभी आपके व्यतीत हुए हैं - शून्य घंटा शून्य मिनट।“
यह कहकर वह कमरे में चक्कर लगाने लग गया। कुछ समय बाद एक परीक्षार्थी ने पूछा, “सर टाइम कितना हो गया?”
उसने उत्तर दिया, “अभी आपके व्यतीत हुए हैं - चालीस मिनट। बचे हैं एक घंटा और बीस मिनट।“
और इसी प्रकार समयचक्र कक्ष-निरीक्षक के साथ ही चक्कर लगाता रहा। जितना व्यतीत होता उतना ही कक्ष-निरीक्षक थोड़ी-थोड़ी देर में परीक्षार्थियों को बताता रहता।
आख़िरी पंद्रह मिनट में कक्ष-निरीक्षक ने पुनः सभी परीक्षार्थियों को आगाह किया, “समय व्यतीत हो गया एक घंटा पैंतालिस मिनट। बचे है सिर्फ पंद्रह मिनट।“
उसी समय सबसे पीछे बैठे एक परीक्षार्थी ने पूछा, “सर, कितना समय व्यतीत हो गया?”
कक्ष-निरीक्षक का ध्यान कुछ कागजों को जमाने में था सो वह झल्लाया और “सुनाई नहीं देता” कहकर मुड़ा। लेकिन परीक्षार्थी को देखते ही उसकी मुद्रा बदल गई, चेहरे पर वात्सल्य के भाव आ गए।
वह उस परीक्षार्थी के पास गया और उसके कान में फुसफुसाया, “बेटा, तुम्हारे व्यतीत हुए - शून्य घन्टे शून्य मिनट... बहुत समय बचा है... अंदर जाकर और लिख लेना...“
वह परीक्षार्थी उस विद्यालय के ट्रस्ट के प्रबंध निदेशक का बेटा था।
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डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी 




सोमवार, 14 फ़रवरी 2022

लीला तिवानी जी के ई-लघुकथा संग्रह

साहित्य की दुनिया में जाना-पहचाना नाम लीला तिवानी जी का है. हिंदी में एम.ए., एम.एड. कर वे कई वर्षों तक हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड हुई हैं। उनके दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत हुए हैं। वे हिंदी-सिंधी भाषा में विभिन्न विधाओं में लेखन करती हैं तथा अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी जी लघुकथाएं भी लिखती हैं और उन्होंने लगभग 900 लघुकथाएं लिखी हैं. उनके 16 लघुकथा संग्रहों में से कुछ की ई-पुस्तकें भी बनी हुई हैं. ये पुस्तकें उन्होंने लघुकथा दुनिया के पाठकों के लिए उपलब्ध करवाने की सहज ही स्वीकृति प्रदान की है. 

लीला तिवानी जी के लघुकथा संग्रहों की ये ई-पुस्तकें निम्नानुसार हैं:


मैं सृष्टि हूं

https://issuu.com/shiprajan/docs/_e0_a4_b2_e0_a4_98_e0_a5_81_e0_a4_9


रश्मियों का राग दरबारी

https://issuu.com/shiprajan/docs/_e0_a4_b2_e0_a4_98_e0_a5_81_e0_a4_9_d121c67e0a26b9


रिश्तों की सहेज

https://issuu.com/shiprajan/docs/rishton_ki_sahej


उत्सव

https://issuu.com/shiprajan/docs/utsav


इतिहास का दोहरान

https://issuu.com/shiprajan/docs/itihas_ka_dohran