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शनिवार, 7 दिसंबर 2019

पुस्तक समीक्षा: जागती आँखों का सपना | लेखक: हरभजन सिंह खेमकरनी | समीक्षा: पवन जैन


रचनाओं का विषय एवं कथानक के अनुसार वर्गीकरण कर की गयी इस समीक्षा में सहज ही लघुकथा के प्रति लघुकथाकार श्री पवन जैन की गहन रूचि और श्रम परिलक्षित हो रहा है। आइये पढ़ते हैं उनके द्वारा की गयी समीक्षा को:

जागती आँखों का सपना / समीक्षक: पवन जैन 


आदरणीय हरभजन सिंह खेमकरनी जी का लघुकथा संग्रह "जागती आँखों का सपना" सप्रेम प्राप्त हुआ। मूल रूप से खेमकरनी जी पंजाबी के लेखक है, इस लघुकथा संग्रह का संपादन एवं हिंदी में अनुवाद डाॅ.श्याम सुन्दर दीप्ति ने किया है। 
पुस्तक के कवर पेज पर पुस्तक के नाम के अनुरूप आकर्षक रंगीन चित्रांकन है।
इस पुस्तक में 58 लघुकथाएँ संग्रहीत हैं। सभी कथाओं में एक आशा एवं विश्वास है जो कि समाज में फैली कुरीतियों, असमानता के जहर को उखाड़ फेंकने का आव्हान करती हैं। कथाएँ समाज के हर वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं एवं जनजीवन की समस्याओं, भावनाओं को उजागर करती हुई आशा की किरण प्रदीप्त करती हैं। कथाओं की भाषा सहज एवं परिवेश से मेल खाती है। पूर्ण रूप से संप्रेषित इन कथाओं में छुपा संदेश प्रभावी है। 


विभिन्न प्रयासों के बावजूद उच्च एवं निम्न जाति की वर्ण व्यवस्था अभी भी कायम है। "चिकना घड़ा" में यह मानसिकता गहनता से रेखांकित की गई है। "जागती आँखों का सपना" कथा में बच्चों को इंग्लिश मीडिया स्कूल से शिक्षा दिलाने हेतु माँ सम्पन्न घरों में काम करती है एवं कमजोर वर्ग के परिवारों में कई बच्चे होने तथा दोपहर के खाने हेतु सरकारी स्कूल में जाने के मिथ को तोडती है। परस्पर प्रेम में पड़ रही दरारों को प्रतीकात्मक रूप से उभारा है "बहाना" कथा में तथा पुरुष द्वारा स्पर्श सुख को पाने की लालसा को "नजर पर नजर" कथा में उजागर किया है। 

पिता द्वारा शराब छोडने से की गई बचत से बेटी की विदेश में पढ़ने की इच्छा को पंख लग जाते हैं "उड़ान" कथा में। 

बुजुर्गो से सुना है कि चाहे घाटा हो या फायदा एक बार जबान से किया गया सौदा पर कायम रहते थे।"संवेदना " कथा में इसे मूर्त किया है, भैंस की पेशगी हो जाने के बाद अगले दिन भैंस के मर जाने पर भी पूरी रकम चुकाई जाती है। 

घरों में काम करने वाली स्त्रियों में अपनी मेहनत का पूरा पैसा वसूल करने की जागृति आई है "बदलती सोच" में।

मानवीय रिश्तों एवं संस्कारों को बचाये रखने हेतु "ये टी वी देखने की जल्दी ही तुम्हे बच्चों से दूर कर रही है।" बुजुर्ग से कहला कर प्यार से बच्चों के सही लालन- पालन का संदेश देती है "तरकीब" कथा।

कड़वी सच्चाई को उजागर करती "रिश्तों का अंतर" एक छोटी सी कथा है परंतु दिलों की दूरियों को दिखाने में सक्षम है। 

माँ की मृत्यु हो जाने पर, पुत्र द्वारा अंतिम संस्कार किये जाने के पुराने रीति रिवाजों को तोड़कर सेवा करने वाले दामाद को अंतिम संस्कार करने का हक दिलाती है "ढहती दीवारें" कथा। 

वृद्धावस्था की समस्या, उनके प्रति बच्चों का रुख एवं समाजिक परिवेश पर मनोभावों को उजागर करने में "पानी में लकीर","फालतू खर्च", "कबाड़ वाला कमरा" ,"एकान्तवास", "दोहरी मौत" , "पतझड़ के पत्ते","पेइंग गेस्ट", "अधूरी ख्वाहिश" सक्षम कथाएँ हैं। सिक्के के दूसरे पहलू के रूप में बुजुर्गों के सम्मान में भी एक अच्छी कथा है "दूरदर्शी"। 
"हार जीत", "सीनियरटी",और "नौकरी" दफ्तरों की कार्यप्रणाली पर करारी चोट करती कथाएँ है। 

वर्तमान संदर्भों पर बुनी गई "चेतना", "रैफरी","बगावती मिट्टी में" लोक कथाओं के बीज स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ते हैं।

उन्होंने दहेज जैसी समाजिक बुराई पर विभिन्न कोणों से नजर डाली है "सूखे हुए चश्में","धुंधला शीशा" कथा में।

सास द्वारा बहु की पिटाई से बचने के लिए एक दम देशी अंदाज से "उपाय" निकला है। यह कथा सीधे ग्रामीण परिवेश में ले जाती हैं तथा देवरानी -जेठानी के संवादों का रस देती है। इसके अनुवाद पर भरसक मेहनत की गई है जो गांव की खुशबू को बरकरार रखती है। "संताप" भी प्यारी सी कथा है। "चेहरे पर चेहरे" कथा में भाभी नवयौवना को बाल कटवाने न कटवाने के असमंजस से निकालती है । "डरी हुई तस्वीर" में भी भाभी ही समस्या का समाधान करती है। 

संग्रह की अन्य कथाएँ भी सीधे दिल पर दस्तक देती है।

लेखक ने इस संग्रह की कुछ लघुकथाओं की रचना प्रक्रिया भी समाहित की है।

अंत में ख्यातिलब्ध पंजाबी एवं हिंदी भाषा पर समान अधिकार रखने वाले लघुकथाकार योगराज प्रभाकर से लघुकथा पर मुलाकात में बीस प्रश्नों के माध्यम से लघुकथा की रचना प्रक्रिया पर सहजता से अपनी बात की है।
पुस्तक के प्रतिपृष्ठ पर सर्व श्री डाॅ.अशोक भाटिया, सुकेश साहनी, रामेश्वरम काम्बोज 'हिमांशु', योगराज प्रभाकर, श्याम सुन्दर अग्रवाल, डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति एवं प्रो. फूल चंद मानव ने लेखक की रचनाधर्मिता पर प्रकाश डालते हुए इस संग्रह को शुभकामनाएँ व्यक्त की हैं। 
देश में समाज का परिवेश एक जैसा ही है, मानव की भावनाएँ एवं संवेदनाएँ एक ही है उन्हें चाहे पंजाबी या हिंदी भाषा में बुना जाये सर्वव्यापी ही होंगी।

डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति जी को साधुवाद इतना सुन्दर अनुवाद कर संग्रह को हिंदी भाषियों तक पहुंचाने हेतु। इस संग्रह हेतु हमारी अनेकानेक शुभकामनाएँ।

- पवन जैन
593, संजीवनी नगर, जबलपुर

गुरुवार, 5 दिसंबर 2019

अनिल शूर आज़ाद की एक लघुकथा 'विद्रोही'

वरिष्ठ लघुकथाकार अनिल शूर आज़ाद जी की लघुकथा 'विद्रोही' की अंतिम पंक्ति मेरे अनुसार गूढ़ अर्थ रखती है। आइये पहले पढ़ते हैं यह रचना:

विद्रोही / अनिल शूर आज़ाद

पार्क की बेंच पर बैठे एक सेठ, अपने पालतू 'टॉमी' को ब्रेड खिला रहे थे। पास ही गली का एक आवारा कुत्ता खड़ा दुम हिला रहा था।

वह खड़ा दुम हिलाता रहा, हिलाता रहा। पर..लम्बी प्रतीक्षा के बाद भी जब, कुछ मिलने की संभावना नहीं दिखी तो..एकाएक झपट्टा मारकर वह ब्रेड ले उड़ा। कयांउ-पयांउ करता टॉमी अपने मालिक के पीछे जा छिपा। सेठ अपनी उंगली थामे चिल्लाने लगा।

थोड़ी दूरी पर बैठे उसे, बहुत अच्छा लगा था यह सब देखना!
-0- 

- अनिल शूर आज़ाद
एजी-1/33-बी, विकासपुरी
नई दिल्ली -110018
दूरभाष - 9871357136


इस लघुकथा पर मेरे विचार / चन्द्रेश कुमार छतलानी 

इस लघुकथा की अंतिम पंक्ति में "उसे" का अर्थ मैंने एक गरीब / सड़क पर रहने वाले बच्चे से लगाया। "अच्छा लगा" अर्थात उसके दिमाग में बात रह गई कि छीन कर खाया जा सकता है। 

यह लघुकथा स्पष्ट तरीके से यह बता रही है कि एक विद्रोही को देखकर दूसरा विद्रोही कैसे बनता है। रचना यह संकेत दे रही है कि अमीर व्यक्ति यदि अपने 'पालतू' के अतिरिक्त अन्य गरीबों की क्षुधा  भी किसी तरह शांत करने का यत्न करें तो विद्रोह की प्रवृत्ति शायद उभरे ही नहीं। 


मंगलवार, 3 दिसंबर 2019

मेरी तीन लघुकथाएं - विचार वीथी में | संपादक सुरेश सर्वेद





तीन संकल्प / डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

वो दौड़ते हुए पहुँचता,उससे पहले ही उसके परिवार के एक सदस्य के सामने उसकी वो ही तलवार आ गयी, जिसे हाथ में लेते ही उसने पहला संकल्प तोड़ा था कि वो कभी किसी की भी बुराई नहीं सुनेगा। वो पीछे से चिल्लाया - रुक जाओ, तुम्हें तो दूसरे धर्मों के लोगों को मारना है। लेकिन तलवार के कान कहाँ होते हैं। उसने उसके परिवार के उस सदस्य की गर्दन काट दी।

वो फिर दूसरी तरफ  दौड़ा। वहाँ भी उससे पहले उसी की एक बन्दूक पहुँच गयी थी। जिसे हाथ में लेकर उसने दूसरा संकल्प तोड़ा था कि वो कभी भी बुराई की तरफ  नहीं देखेगा। बन्दूक के सामने आकर उसने कहा - मेरी बात मानो, देखो मैं तुम्हारा मालिक हूँ ... लेकिन बन्दूक को कुछ कहाँ दिखाई देता है, और उसने उसके परिवार के दूसरे सदस्य के ऊपर गोलियां दाग दीं।

वो फिर तीसरी दिशा में दौड़ा, लेकिन उसी का आग उगलने वाला वही हथियार पहले से पहुँच चुका था, जिसके आने पर उसने अपना तीसरा संकल्प तोड़ा था कि वो कभी किसी को बुरा नहीं कहेगा। वो कुछ कहता उससे पहले ही हथियार चला और उसने उसके परिवार के तीसरे सदस्य को जला दिया।

और वो स्वयं चौथी दिशा में गिर पड़ा। उसने गिरे हुए ही देखा कि एक बूढ़ा आदमी दूर से धीरे - धीरे लाठी के सहारे चलता हुआ आ रहा था। गोल चश्मा पहने, बिना बालों का वो कृशकाय बूढ़ा उसका वही गुरु था, जिसने उसे मुक्ति दिला कर ये तीनों संकल्प दिलाये थे।

उस गुरु के साथ तीन वानर थे, जिन्हें देखते ही सारे हथियार लुप्त हो गये।
और उसने देखा कि उसके गुरु उसे आशा भरी नज़रों से देख रहे हैं और उनकी लाठी में उसी का चेहरा झाँक रहा है। उसके मुंह से बरबस निकल गया ’हे राम’।

कहते ही वो नींद से जाग गया।
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सोयी हुई सृष्टि / डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

उसने स्वप्न में स्वयं को सोये हुए देखा। उसके आसपास और भी कई लोग सो रहे थे। दायरा बढ़ता गया और उसने देखा कि उसके साथ हज़ारों या लाखों नहीं बल्कि करोड़ों से भी ज़्यादा लोग सो रहे हैं।

उन सोये हुओं में से एक व्यक्ति की आँखें खुलीं। उस व्यक्ति ने देखा कि खादी के कपड़े पहने कुछ लोग खड़े हुए हैं और अपने मुंह से आवाज़ और विषैला धुआं निकाल रहे हैं। आवाज़ से सोये हुओं के चेहरों पर विभिन्न मुद्राएँ बन रहीं थीं और धुएँ से सभी को नींद आ रही थी। वह व्यक्ति चिल्लाया - जागो, तुम्हें विषैले धुएं द्वारा सुलाया जा रहा है।

जहाँ तक वह आवाज़ जा सकती थी, वहां तक सभी सोने वालों के कानों में गयी और उनके चेहरों की भाव - भंगिमाएं बदलीं। उनमें से कुछ जाग भी गए और उस व्यक्ति के साथ खड़े हो गए। अपनी आवाज़ की शक्ति देख उस व्यक्ति ने पहले से खड़े व्यक्तियों में से एक के कपड़े छीन कर स्वयं पहन लिए और दूर खड़ा हो गया।

लेकिन पोशाक पहनते ही उसका स्वर बदल गया और उसके मुंह से भी विषैला धुआं निकलने लगा। जिससे उसके साथ जो लोग जागे थे, वे भी सो गए। उस व्यक्ति की पोशाक में कुछ सिक्के रखे थे जो लगातार खनक रहे थे।

और उसी समय उसका स्वप्न टूट गया। उसे जैसे ही महसूस आया कि वह भी जागा हुआ है। वह घबराया और उठकर तेज़ी से एक अलमारी के पास गया। उसमें से अपने परिचय पत्र को निकाला और उसमें अपने पिता का नाम पढ़ कर राहत की सांस ली।
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गुलाम अधिनायक / डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

उसके हाथ में एक किताब थी। जिसका शीर्षक ’ संविधान’ था और उसके पहले पन्ने पर लिखा था कि वह इस राज्य का राजा है। यह पढ़ने के बावजूद भी वह सालों से चुपचाप चल रहा था। उस पूरे राज्य में बहुत सारे स्वयं को राजा मानने वाले व्यक्ति भी चुपचाप चल रहे थे। किसी पुराने वीर राजा की तरह। उन सभी की पीठ पर एक - एक बेताल लदा हुआ था। उस बेताल को उस राज्य के सिंहासन पर बैठने वाले सेवकों ने लादा था। ’ आश्वासन’  नाम के उस बेताल के कारण ही वे सभी चुप रहते।

वह बेताल वक्त - बेवक्त सभी से कहता था कि - तुम लोगों को किसी बात की कमी नहीं होगी। तुम धनवान बनोगे। तुम्हें जिसने आज़ाद करवाया है वह कहता था - कभी बुरा मत कहो। इसी बात को याद रखो। यदि तुम कुछ बुरा कहोगे तो मैं, तुम्हारा स्वर्णिम भविष्य, उड़ कर चला जाऊँगा।

बेतालों के इस शोर के बीच जिज्ञासावश उसने पहली बार हाथ में पकड़ी किताब का दूसरा पन्ना पढ़ा। उसमें लिखा था - तुम्हें कहने का अधिकार है। यह पढ़ते ही उसने आँखें तरेर कर पीछे लटके बेताल को देखा। उसकी आँखों को देखते ही आश्वासन का वह बेताल उड़ गया। उसी समय पता नहीं कहाँ से एक खाकी वर्दीधारी बाज आया और चोंच चबाते हुए उससे बोला - ’ साधारण व्यक्ति’ तुम क्या समझते हो कि इस युग में कोई बेताल तुम्हारे बोलने का इंतज़ार करेगा?

और बाज उसके मुंह में घुस कर उसके कंठ को काट कर खा गया। फिर एक डकार ले राष्ट्रसेवकों के राजसिंहासन की तरफ  उड़ गया।
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Source:

सोमवार, 2 दिसंबर 2019

लघुकथा वीडियो: टाई | लेखक हरि मृदुल | वाचन: लोकेश गुप्ता

जीवन यापन करने के लिए समझौतों के झंझावातों से गुजरते हुए एक व्यक्ति की मानसिकता को बहुत अच्छे तरीके से दर्शाती लघुकथा 'टाई' को श्री लोकेश गुप्ता के गंभीर और गहरे स्वर के वाचन ने जीवंत कर दिया है। आइये सुनते हैं।