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रविवार, 23 जून 2019

पुस्तक समीक्षा: मरु नवकिरण (अप्रेल-जून 2019) लघुकथा विशेषांक | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

मरु नवकिरण (अप्रेल-जून 2019) लघुकथा विशेषांक
सम्पादक: डॉ. अजय जोशी 
अतिथि सम्पादक: डॉ. घनश्याम नाथ कच्छावा

समीक्षक: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


मरुधरा पर गिरने वाली पहली अरुण किरण से ही बालू मिट्टी के अलसाए हुए कण रंग परिवर्तित कर चमकने लगते हैं। तब वे अपने आसपास के घरोंदों को भी रक्त-पीत वर्ण का कर उन्हें मरू के स्वर्ण मुकुट सा दर्शाते है और देखने वालों की आँखें हल्की चुंधियाना प्रारम्भ कर देती हैं व उन्हें मन ही मन मरूधरा की गर्मी का अनुभव होने लगता है। सोचें तो यही कार्य लघुकथा का भी है कि अपनी आधार के मर्म तक पहुँचते-पहुँचते पाठक का मस्तिष्क ज़रा सा चौंधिया जाये और वह एक विशेष तथ्य की तरफ चिंतन प्रारम्भ करे। मरु नवकिरण का यह अंक भी इसी प्रकार की लघुकथाओं से भरा हुआ है। डॉ. अजय जोशी के सम्पादन और डॉ. घनश्याम नाथ कच्छावा के अतिथि सम्पादन में प्रकाशित मरु नवकिरण (अप्रेल-जून 2019) लघुकथा विशेषांक का आवरण पृष्ठ पाठक को प्रथम दृष्टि में ही स्वयं की ओर आकर्षित करने का सामर्थ्य रखता है, जिसमें प्रतीक स्वरूप छोटे-छोटे परिंदे अपने पंख फैलाये उड़ रहे हैं।

इस अंक के संपादकीय में डॉ. अजय जोशी बताते हैं कि इस अंक हेतु उन्होने 57 लघुकथाओं का चयन किया है, हालांकि वे चाहते थे कि इससे अधिक लघुकथाएं भी स्थान पा सकें, लेकिन पृष्ठों की सीमित संख्या के कारण वे कुछ अन्य लघुकथाओं को स्थान नहीं दे पाये। अतिथि संपादकीय में डॉ. घनश्याम नाथ कच्छावा लघुकथा को परिभाषित करते हुए अपने विचार रखते हैं कि लघुकथा आंतरिक सत्य की सूक्ष्म और तीक्ष्ण अभिव्यक्ति है जो पाठक की चेतना को झकझोरती है तथा यह आज के व्यस्त जीवन में पाठक को कम समय में अधिक प्रदान करने की क्षमता रखती है। यहाँ पर मेरा भी एक विचार यह रहा है कि लघुकथा के कम समय चूंकि लघुकथा के आकार के साथ सीधे आनुपातिक इसलिए उसका आकार (शब्द संख्या के अनुसार) कितना हो इस चर्चा में पाठकों का मत भी शामिल होना चाहिए। आज यदि लघुकथा नवप्रयोगों के साथ-साथ शब्द संख्या के अनुसार पुराने आकार में वृद्धि कर रही है तो यह जानना भी चाहिए कि लघुकथा विधा द्वारा “व्यस्त जीवन में कम समय में अधिक प्रदान करने की क्षमता” में कहीं कमी तो नहीं आ रही! प्रत्येक प्रयोग में उसकी शक्ति के साथ-साथ दुर्बलता, अवसर और चुनौतियों का विश्लेषण करना भी आवश्यक है और यदि हम इस प्रयोग में सफल रहते हैं तो वह निःसन्देह बहुत अच्छी बात है।

इस लघुकथा विशेषांक का एक आकर्षण चार लेख भी हैं। जिनमें से प्रथम डॉ. रामकुमार घोटड़ द्वारा लिखित “हिन्दी लघुकथा का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य” है, जिसके जरिये वे हिन्दी लघुकथा के मूल आधार व दिशा बोध के बारे में बताते हैं और साथ ही यह भी मानते हैं कि लघुकथा का जन्म स्वतः ही हुआ होगा। कोई रचना विस्तार नहीं पाने के कारण प्राकृतिक रूप से लघु आकारीय हुई होगी, जो समय के साथ लघुकथा विधा के रूप में समृद्ध हुई। डॉ. घोटड़ ने इसी लेख में लघुकथा के सफर को 1875 से प्रारम्भ होकर 2019 तक काल के चार भागों में बांट कर विस्तृत विश्लेषण किया है।

दूसरा लेख प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे का है उनके अनुसार लघुकथा का सार वास्तविक हालातों के कटु यथार्थ में छिपा है यह समसामयिक परिस्थितीयों, विडंबनाओं, विकृतियों, नकारात्मकताओं तथा प्रतिकूलताओं को सटीक, प्रभावी व प्रखर तरीके से अभिव्यक्ति प्रदान करती है। समय अभाव होने से बड़ी रचनाओं को ना पढ़ सकने के कारण इसके पाठकों में वृद्धि होने को प्रो. खरे भी इंगित करते हैं। एक अति महत्वपूर्ण बात वे बताते हैं कि लघुकथा जितनी छोटी हो उतनी ही प्रभावी होने की गुंजाइश है। हालांकि शिथिल कथ्य, नीरस प्रस्तुति तथा बिखरे हुए प्रवाह वाली लघुकथा असफल व निष्प्रभावी सिद्ध होगी।

तीसरा लेख बीकानेर के अशफाक़ कादरी का है जिसका शीर्षक है- वर्तमान लघुकथा के आलोक में: कुछ बिखरे मोती। इस लेख में उन्होने कहा है कि समसामयिक लघुकथा में व्यंग्य और हास-परिहास के बजाय संवेदना जागृत होती है जो आम जीवन के विरोधाभासों को प्रकाशित करती है। उनकी एक लघुकथा मार्ग भी लेख के पश्चात है, जिसमें एक दुकानदार शराब की दुकान का रास्ता नहीं बताता लेकिन हस्पताल का रास्ता विस्तार से बताता है।

चौथा लेख डॉ. लता अग्रवाल ने “लघुकथा में नारी पात्रो के सकारात्मक तेवर” शीर्षक से लिखा है। यह एक अध्ययन पत्र है जो डॉ. अग्रवाल की गहन शोध का परिणाम है। इस लेख में उन्होने वरिष्ठ और नवोदित कई लघुकथाकारों की लघुकथाओं को उद्धृत करते हुए यह ज्ञात किया है कि लघुकथाओं में स्त्री पात्रों की सोच बदलती जा रही है। लेख के पश्चात अपनी लघुकथा संतान-सुख में भी वे एक ऐसी स्त्री पात्र को पेश करती हैं जो मानसिक विकृत बच्चों को देखकर ईश्वर से यह शुक्र अदा करती है कि उसके बेटे भले ही नालायक हैं लेकिन अविकसित मस्तिष्क वाले नहीं।

हम में से जिसने विज्ञान पढ़ा है वे जानते हैं कि प्रतिक्षण नवकिरणें देने वाला प्लाज्मा से निर्मित सूर्य ठोस नहीं है और यह अपने ध्रुवों की अपेक्षा अपनी भूमध्य रेखा पर अधिक तीव्रता से घूमता है। इस तरह के घूर्णन को हम अंतरीय घूर्णन के नाम से जानते हैं। लघुकथाएं भी इसी घूर्णन की तरह ही हमारे अंतर में तीव्र घूर्णन स्थापित कर सकने का सामर्थ्य रखती हैं। इस विशेषांक की पहली लघुकथा इंजी. आशा शर्मा की कच्ची डोर है जिसमें वह पत्नी की व्यथा और अबलापन दोनों ही दर्शाती हैं। इस सत्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि पत्नी को पति की आवश्यकता होती ही है जिसे वह स्वीकारती भी है। अल्पना हर्ष अपनी रचना जीवन बगिया द्वारा बेटे-बेटी में भेद करने वालों पर तंज़ कसती है। डॉ. घनश्याम दास कच्छावा उपलब्धि शीर्षक की लघुकथा से पैतृक ज़मीन को बेचने पर अपना क्षोभ प्रकट करते हैं तो कृष्ण कुमार यादव जी व्यवहार लघुकथा में एक ही (कथित तौर पर छोटी) जाति के नौकर और अफसर के साथ एक ही व्यक्ति के अलग-अलग व्यवहार को दर्शाते हैं। विजयानंद विजय जी ने अपनी रचना के शीर्षक पर अच्छा कार्य किया है। श्रमेव जयते शीर्षक से उनकी लघुकथा में हालांकि उन्होने एक आदर्श स्थिति का वर्णन किया है लेकिन यह धीरे-धीरे सत्य होती एक स्थिति है। तरुण कुमार दाधीच ने अपनी रचना में एक बलात्कार पीड़िता द्वारा अपने बचाव में भागने की स्थिति का वर्णन किया है। संदीप तोमर ने मानवेत्तर पात्रों के द्वारा दांवपेचों को दर्शाया है। पुष्पलता शर्मा ने समझ का फेर में कन्या दान तथा गौदान पर अलग-अलग व्यवहार पर प्रश्न उठाया है। डॉ. वीणा चूण्डावत ने प्रेम कहानी की असफलता को मार्मिक और कविता रूपी शब्दों से कहा है। विष्णु सक्सेना ने हस्पतालों की रोगी को ठीक करने के पहले धन कमाने की प्रवृत्ति पर कटाक्ष किया है। जाफ़र मेहँदी जाफरी ने मजबूरियाँ शीर्षक से अलग-अलग वर्गों की मजबूरीयों का वर्णन किया है। अलका पांडेय ने प्यार की इंतहा के जरिये धर्मवीर भारती की रचना रामजी की चींटी रामजी का शेर की याद दिला दी। राजकुमार धर द्विवेदी जी ने व्यक्तियों के दोहरे रूप दर्शाये हैं। डॉ. सुनील हर्ष ने चाटुकारिता पर व्यंग्य कसा है। कमल कपूर ने अपने चिरपरिचित सकारात्मक और खूबसूरत शब्दों में शादी के पश्चात भी लड़की द्वारा माँ की ज़िम्मेदारी उठाने जैसे विषय पर बढ़िया रचना कही है। गिरेबाँ लघुकथा में पुखराज सोलंकी ने बुराई करने की प्रवृत्ति पर तंज़ कसा है। इन्द्रजीत कौशिक सर्वे द्वारा सांप्रदायिक विद्वेष के एक बड़े कारण का पर्दाफाश करते हैं। राहुल सिंह ने अपनी रचना द्वारा बसों में होने वाली ठगी को दर्शाया है। रमा भाटी पर्यावरण सरंक्षण जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर अपने विचार रखती हैं तो वीरेंद्र कुमार भारद्वाज अपनी रचना के शीर्षक ठंडी रज़ाई को सफल सिद्ध करते हुए अलग-अलग रह रहे पति-पत्नी के वार्तालाप को दर्शाते हैं। अपनी एक रचना सपना में नरेंद्र श्रीवास्तव बालश्रम पर बात करते हैं तो दूसरी रचना नजरिया में एक ही व्यक्ति के प्रति दो अलग-अलग व्यक्तियों के अलग-अलग नजरिए को दर्शाते हैं। सतीश राठी की लघुकथा कुत्ता कई मायनों में बेहतर रचना है। एक व्यक्ति का अपने नौकर के प्रति दुर्व्यवहार और कुत्ते के प्रति प्रेम को दर्शाती यह लघुकथा अंत तक पहुँचते-पहुँचते पाठकों की चेतना जगाने में सक्षम है। संतोष सुपेकर अपनी मार्मिक रचना ऊहापोह के जरिये एक सब्जी वाले की मजबूरी का चित्रण करते हैं। डॉ. विनीता राहुरिकर छत और छाता लघुकथा के जरिये पाठकों को प्रभावित कर रही हैं। राममूरत “राही” तोहफे के रूप में प्राप्त फेंक दिये गए एक नवजात शिशु को पालने वाली माँ के मिल जाने को दर्शाते हैं। मोनिका शर्मा ने नई रोशनी के जरिये खराब हुए चेहरे का दर्द झेलती लड़की का वर्णन किया है, हालांकि इस रचना के और लघु होने की गुंजाइश है। डॉ. ऊषाकिरण सोनी नौकरानियों पर चोरी के झूठे इल्ज़ाम पर रचना कहती हैं। सविता मिश्रा “अक्षजा” ने अपनी लघुकथा में साहित्यकारों को पढ़ने की नसीहत देते हुए इसे ही साहित्यिक गुरु बताया है। दीपक गिरकर अपनी रचना के जरिये जीवन को सकारात्मक ढंग से जीने का संदेश देते हैं। डॉ. पद्मजा शर्मा ने अपनी रचना में किसानों की स्थिति का वर्णन किया है इसमें लेखक का स्वयं का आक्रोश स्पष्ट दिखाई दे रहा है। जय प्रकाश पाण्डेय अपनी रचना में गरीब और भूखे व्यक्ति के राष्ट्रपति बनने के स्वप्न को दर्शाते हैं, पात्र का नामकरण सटीक है, रचना पर और अधिक कार्य हो सकता है। मनीषा पाटिल धार्मिक पर्व पर सफाईकर्मी को मिले सोने की एक चेन के लिए कई महिलाओं की दावेदारी पर कटाक्ष करती हैं। विचित्र सिंह अपनी लघुकथा में पिता के जीवित रहते साथ-साथ और उनकी मृत्यु के पश्चात तुरंत अलग हो जाने पर तंज़ कसते हैं। नीलम पारिक ने अपनी रचना जा तन लागे... के साथ न्याय करते हुए ना केवल शीर्षक उचित रखा है बल्कि लघुकथा लेखन का निर्वाह भी यथोचित किया है। इसी प्रकार अभिजीत दुबे अपनी रचना भरोसा के द्वारा हम सभी को आश्वस्त करते हैं कि वे एक अच्छे लघुकथाकार हैं। सारिका भूषण अपनी रचना के जरिये गूढ संदेश देती हैं कि साहित्य में अच्छा लेखन आवश्यक है वनिस्पत बड़े नाम के। डॉ. मेघना शर्मा अपनी रचना में एक बच्चे द्वारा दूसरे बच्चे को डूबने से बचाने को दर्शाती हैं। नरेंद्र कौर छाबड़ा की नियति एक उत्कृष्ट लघुकथा का उदाहरण है। फ़रूक अफरीदी कथनी-करनी में अंतर की तर्ज पर लेखनी-करनी में अंतर पर अपनी एक रचना कहते हैं और दूसरी रचना चर्चित और हर्षित लेखक के जरिये वे वरिष्ठ साहित्यकारों को रसरंजन पार्टी देकर चर्चित होने की प्रवृत्ति पर कटाक्ष करते हैं। प्रेरणा गुप्ता अपनी लघुकथा श्रेष्ठ कौन में मानवेत्तर पात्रों के जरिये मानवीय विसंगतियों पर प्रहार करती हैं तो विश्वनाथ भाटी अपनी रचना के जरिये दहेज प्रथा पर। खेमकरण ‘सोमन’ एक उभरते हुए लघुकथाकार और शोधकर्ता हैं, अपनी लघुकथा जहरीली घास के द्वारा वे आश्वस्त करते हैं कि लघुकथा के लिए विषयों की कोई कमी नहीं केवल व्यापक लेखकीय दृष्टि होनी चाहिए।

मैं अधिकतर बार कोई भी लघुकथा पढ़ते हुए सबसे पहले उसके विषय पर ध्यान देता हूँ, मरु नवकिरण के इस अंक में कुछ लघुकथाएं पारिवारिक विषयों के विभिन्न तानों-बानों पर भी बुनी गयी हैं, जैसा कि आजकल के काफी लघुकथा विशेषांकों में दिखाई देता है। इनमें अर्चना मंडलोड की तुलसी का बिरवा, कमलेश शर्मा की कहानी, डॉ. शिल्पा जैन सुराणा की नई माँ, प्रो. शरद नारायण खरे की आत्मविश्लेषण, अनिता मिश्रा ‘सिद्धि’ की सोच बदलो, ओम प्रकाश तंवर जी दोनों साथ-साथ, बसंती पँवार की विचार और कर्म, एकता गोस्वामी की बुढ़ापे की लाठी-पेंशन, यामिनी गुप्ता की माँ की सीख और लाजपत राय गर्ग की बचपन का एहसास प्रमुख लघुकथाएं हैं। हालांकि पारिवारिक विषय अधिकतर पुराने होते हैं और रचनाएँ संदेश की बजाय सीख देती हुई हो सकती हैं, लेकिन सम्पादक द्वय ने अपना दायित्व निभाते हुए जो लघुकथाएं चयनित की हैं, उनमें से कई लघुकथाएं न केवल पठन योग्य हैं बल्कि चिंतन योग्य भी।

कोई भी प्रयास सौ प्रतिशत सम्पन्न हो जाये, ऐसा होना संभव नहीं। इस अंक में भी कुछ लघुकथाओं के शीर्षक पढ़ते ही पाठक को उपदेश का ही भान होता है जैसे सीख, विचार और कर्म, माँ की सीख, श्रेष्ठ कौन आदि। कुछ लघुकथाएं बोधकथाओं सरीखी हैं भी। इसी प्रकार कुछ शीर्षक ऐसे भी हैं जो पाठकों को रोचक नहीं लग सकते हैं अथवा उनके दिमाग में उत्सुकता नहीं जगा सकते हैं। लघुकथाकारों को न केवल पाठक वर्ग बढ़ाने के लिए बल्कि वर्तमान पाठक संख्या के अनुरक्षण के लिए भी शीर्षकों पर अधिक ध्यान देना आवश्यक प्रतीत हो रहा है। कुछ लघुकथाएं अंत तक पहुँचने से पूर्व ही अपने अंत का भान कर देती हैं तो कुछ लघुकथाएं ऐसी भी हैं कि जिनका अंत लघुकथा की प्रकृति के विपरीत निर्णयात्मक भी है। हालांकि इक्का-दुक्का रचनाओं को छोड़ दें तो अधिकतर लघुकथाएं संपादन के निस्पंदन के उचित सामर्थ्य को दर्शाने में सफल हैं।

कहीं-कहीं भाषा संबंधी त्रुटियाँ भी हैं। उदाहरणस्वरूप अंदर के सभी पृष्ठों में छपे हुए लघुकथा विशेषांक में लघुकथा के स्थान पर लघु कथा हो गया है। मनीषा पाटिल की रचना ईमानदारी में चेन की बजाय चैन शब्द आ गया है। मेरी अपनी रचना का शीर्षक E=MCxशून्य के स्थान पर शून्य प्रकाशित हुआ है, जो कि लघुकथा के साथ न्याय करता प्रतीत नहीं होता।

कई बार हम रेतीले गर्म रेगिस्तानी मैदानों को मरुस्थल मानते हैं जबकि मरुस्थल का अर्थ कम वर्षा वाला क्षेत्र है। बर्फ से ढका अंटार्कटिक दुनिया का सबसे बड़ा मरुस्थल है। हिमालय सरीखे ऊंचे पर्वतों को भी, जहां कम वर्षा होती है, को मरुस्थल माना गया है। कम वर्षा को यदि हम लघुवर्षा कहें तो न केवल शब्दों और मात्राओं से बल्कि गुणों से भी यह लघुकथा सरीखी है। लघु वर्षा धरती की प्यास तो शांत नहीं करती है बल्कि उसमें हो रही तपन को नमी बनाकर अपने आसपास के व्यक्तियों तक पहुंचा देती है। यही कार्य लघुकथा का भी है कि जिस विषय पर कही जाती है उस विषय की विसंगतियों को अपने पाठकों तक पहुँचा दे, और यही कार्य मरु नवकिरण के इस लघुकथा विशेषांक ने भी बखूबी किया है। कुल मिलाकर मुख्य सम्पादक और अतिथि सम्पादक दोनों का कार्य सराहनीय है।

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

गुरुवार, 20 जून 2019

लघुकथा: अदृश्य जीत | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


जंगल के अंदर उस खुले स्थान पर जानवरों की भारी भीड़ जमा थी। जंगल के राजा शेर ने कई वर्षों बाद आज फिर खरगोश और कछुए की दौड़ का आयोजन किया था।

पिछली बार से कुछ अलग यह दौड़, जानवरों के झुण्ड के बीच में सौ मीटर की पगडंडी में ही संपन्न होनी थी। दोनों प्रतिभागी पगडंडी के एक सिरे पर खड़े हुए थे। दौड़ प्रारंभ होने से पहले कछुए ने खरगोश की तरफ देखा, खरगोश उसे देख कर ऐसे मुस्कुरा दिया, मानों कह रहा हो, "सौ मीटर की दौड़ में मैं सो जाऊँगा क्या?"

और कुछ ही क्षणों में दौड़ प्रारंभ हो गयी।

खरगोश एक ही फर्लांग में बहुत आगे निकल गया और कछुआ अपनी धीमी चाल के कारण उससे बहुत पीछे रह गया।

लगभग पचास मीटर दौड़ने के बाद खरगोश रुक गया, और चुपचाप खड़ा हो गया।

कछुआ धीरे-धीरे चलता हुआ, खरगोश तक पहुंचा। खरगोश ने कोई हरकत नहीं की। कछुआ उससे आगे निकल कर सौ मीटर की पगडंडी को भी पार कर गया, लेकिन खरगोश वहीँ खड़ा रहा।

कछुए के जीतते ही चारों तरफ शोर मच गया, जंगल के जानवरों ने यह तो नहीं सोचा कि खरगोश क्यों खड़ा रह गया और वे सभी चिल्ला-चिल्ला कर कछुए को बधाई देने लगे।

कछुए ने पीछे मुड़ कर खरगोश की तरफ देखा, जो अभी भी पगडंडी के मध्य में ही खड़ा हुआ था। उसे देख खरगोश फिर मुस्कुरा दिया, वह सोच रहा था,
"यह कोई जीवन की दौड़ नहीं है, जिसमें जीतना ज़रूरी हो। खरगोश की वास्तविक गति कछुए के सामने बताई नहीं जाती।"

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
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दैनिक भास्कर  मधुरिमा अंक
पत्रिका समाचार पत्र
उपरोक्त लघुकथा दैनिक भास्कर  के मधुरिमा अंक, पत्रिका समाचार पत्र तथा और भी कई स्थानों पर प्रकाशित हो चुकी है। 





बुधवार, 19 जून 2019

लघुकथाकार परिचय: श्री मधुदीप गुप्ता और उनकी एक रचना पर मेरी प्रतिक्रिया | डॉ. चंद्रेश कुमार छ्तलानी

कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो मील के पत्थर स्थापित करते हैं और जब दूसरे व्यक्ति उसी राह पर निकलते हैं तो मील के पत्थरों को देखते ही उन्हें स्थापित करने वालों से स्वतः ही उनका परिचय हो जाता है। लघुकथा लेखन में मील के पत्थर स्थापित करने वाले मधुदीप गुप्ता जी जैसे व्यक्ति किसी परिचय के मोहताज नहीं, बल्कि उनका परिचय उनके द्वारा किया गया महती कार्य है, जो जगह-जगह दिखाई देता है। लघुकथा लेखन की शुरुआत के साथ ही लगभग हर लेखक का मधुदीप गुप्ता जी से परिचय किसी न किसी तरह अपने-आप ही हो जाता है। मुझ सहित हम में से कई रचनाकारों को आपने न केवल पड़ाव और पड़ताल द्वारा बल्कि फोन, फेसबुक और अन्य साधनों द्वारा भी व्यक्तिगत रूप से कई बार लघुकथा लेखन को बेहतर करने हेतु अमूल्य सुझावों से धन्य किया है। लघुकथा सम्बंधित कई तरह के प्रश्न और उत्तर आपकी फेसबुक टाइमलाइन पर भी दिखाई दे जायेंगे।
लघुकथाकारों सहित सभी लेखकों को आपके द्वारा दिया गया एक मन्त्र है कि,"लिखने से पहले उसके बारे में अच्छा पढ़ना और उसे समझना बहुत ज़रूरी है"। सत्य है कि बिना अच्छा पढ़े अच्छा लेखन असंभव ही है। वे 20 वर्षों तक लेखन में सक्रिय नहीं रहे।  लेकिन मैं समझता हूँ कि उन 20 वर्षों में वे पठन में अक्रिय नहीं रहे होंगे।

अब तक पड़ाव और पड़ताल नामक लघुकथा की श्रंखला के जरिये 31 खण्डों के जरिये आपने लघुकथा के बहुत से रचनाकारों को एक बैनर तले लाने का ऐसा कार्य किया है, जो शायद ही कोई कर सके। इसके लगभग सभी अंक मैं पढ़ चुका हूँ और इसका सेट हमारे विश्वविद्यालय शोधार्थियों के लिए भी हमारी सेंट्रल लाइब्ररी में पिछले एक-डेढ वर्षों से उपलब्ध है। इसे पढ़ने के पश्चात मेरे अनुसार पड़ाव और पड़ताल, "लघुकथा का बाइबिल" है, जिसमें लघुकथा सम्बन्धी काफी सारी जानकारी मय उदाहरण और लघुकथाकारों की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ उपलब्ध हैं। 

पड़ाव और पड़ताल के खंड 1 के पृष्ठ 83 पर उनका परिचय और पृष्ठ 84 से उनकी रचनाएँ हैं। इनमें सबसे पहली रचना है - "हिस्से का दूध"। मेरी पसंद की यह रचना काफी चर्चित रही है।

हिस्से का दूध / श्री मधुदीप गुप्ता
उनींदी आँखों को मलती हुई वह अपने पति के करीब आकर बैठ गई। वह दीवार का सहारा लिए बीड़ी के कश ले रहा था।
‘‘सो गया मुन्ना....?’’
‘‘जी! लो दूध पी लो।’’ सिल्वर का पुराना गिलास उसने बढ़ाया।
‘‘नहीं, मुन्ने के लिए रख दो। उठेगा तो....।’’ वह गिलास को माप रहा था।
‘‘मैं उसे अपना दूध पिला दूँगी।’’ वह आश्वस्त थी।
‘‘पगली, बीड़ी के ऊपर दूध–चाय नहीं पीते। तू पी ले।’’ उसने बहाना बनाकर दूध को उसके और करीब कर दिया।
तभी–
बाहर से हवा के साथ एक स्वर उसके कानों से टकराया। उसकी आँखें कुर्ते की खाली जेब में घुस गई।
‘‘सुनो, जरा चाय रख देना।’’
पत्नी से कहते हुए उसका गला बैठ गया।
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उपरोक्त रचना पर मेरी प्रतिक्रिया एवं पसंद का कारण:

किसी भी पाठक की सबसे पहले दृष्टि लघुकथा के शीर्षक पर जाती है। इसलिए लघुकथाकार शीर्षक ऐसा चुनते हैं जो पाठकों को वह लघुकथा पढ़ने के लिए प्रेरित करे। शीर्षक रोचक भी हो सकता है तो व्यंग्यनुमा भी। इस लघुकथा "हिस्से का दूध" का शीर्षक पाठकों के मस्तिष्क में उत्सुकता जगाता है।  उत्सुकता यह उठती है कि लहगुक्था में कहीं किसी के हिस्से का दूध गिर गया या फिर बच्चे दूध का भी हिस्सा कर रहे, आदि-आदि। यह शीर्षक कलात्मक भी है और भावात्मक भी क्योंकि "हिस्सा" शब्द पढ़ते ही कहीं न कहीं परिवार हमारे दिमाग में आता है इसलिए भावों से जुड़ ही रहा है और साथ-साथ ही दूध के हिस्से को शीर्षक दर्शाना मधुदीप जी के कलात्मक कौशल का परिचय है।

लघुकथा के कथ्य पर बात करें तो एक परिवार जिसकी माली हालत अच्छी नहीं, अपने बच्चे को अच्छी तरह पालना चाहते हैं। हम भारतीयों की यह खासियत तो है ही कि बच्चे हो जाने के बाद हम खुद के लिए कम और अपने बच्चों के लिए ज़्यादा जीते हैं। मार्मिक करती यह लघुकथा कथोपकथन और वर्णनात्मक दोनों का मिश्रित शिल्प लिए हुए है। भाषा की दृष्टि से आम व्यक्ति को भी समझ में आने योग्य  है। मेरी समझ से लघुकथाकार ने लघुकथा को इस तरह कहने का प्रयास किया है ताकि एक घटना पाठकों के दिमाग में चित्रित भी हो। जैसे इन पंक्तियों पर गौर कीजिये //उनींदी आँखों को मलती हुई//, //दीवार का सहारा लिए बीड़ी के कश ले रहा था//, //वह गिलास को माप रहा था।// - आदि।

इस लघुकथा की एक पंक्ति मुझे बहुत अच्छी लगी वह है - //वह आश्वस्त थी।// माँ होकर एक पत्नी यह कहती है कि - मैं अपने बच्चे को अपना दूध पिला दूँगी और चाहती है कि उसका पति दूध पी ले। एक नारी के तीन रूप एक ही पंक्ति में बता दिये हैं मधुदीप जी ने। माँ होकर बच्चे को दूध पिलाना, पत्नी होकर पति की चिंता और गृहिणी होकर आश्वस्त होकर घर की ज़िम्मेदारी। हालांकि लघुकथाकार ने पति से' भी यह कहलवा है कि वह पत्नी को दूध पीने को कह रहा है, यह आदर्शवाद तो है लेकिन रचनाकार ने इसके जरिये भी एक परिवार की आर्थिक स्थिति दर्शाते हुए समाज के एक वर्ग के हालात भी दर्शाने का सफल प्रयास किया है।


पति का पहले यह कहना कि //‘‘पगली, बीड़ी के ऊपर दूध–चाय नहीं पीते। तू पी ले।’// और बाद में यह कहना कि //‘‘सुनो, जरा चाय रख देना।’’// कुछ समीक्षकों को खल सकता है लेकिन मेरी दृष्टि में यह है कि यह एक भूखे व्यक्ति जो पति भी है और पिता भी है की भावनाओं को दर्शा दिया है और साथ ही यह संदेश दिया है कि त्याग करना केवल नारी का ही कार्य नहीं - पुरुष को सहभागी होना ही चाहिए। समय के अनुसार समाज के बदलाव को भी इंगित किया है यहाँ रचनाकार ने।

इस रचना को पढ़ना प्रारम्भ करते ही "उनींदी आँखों को मलती हुई" पाठकों को यह आभास देता है कि सवेरे का समय होना चाहिए और तभी पति का यह प्रश्न कि //‘‘सो गया मुन्ना....?’’// पठन का लय तोड़ता है। पाठक उलझ सकता है कि रात का समय है या दिन का? वैसे यह पंक्ति ना हो तो भी लघुकथा के संदेश और चित्रण में फर्क महसूस नहीं होता।

लघुकथा का अंत करना लघुकथाकार का कौशल है और इस कार्य में भी यह लघुकथा सफल है। पुरुष भूखा है लेकिन भूख मिटाने के लिए खुदके लिए कुछ मांगते हुए उसका स्वर भर्रा जाता है क्योंकि वह स्वयं से पहले अपने परिवार की भूख मिटाना चाह रहा है। अंत स्वतः ही पाठकों के हृदय को मार्मिक कर देता है। इस रचना की एक विशेषता यह भी है कि अंत में पाठकों को विवश करे कि यदि वे सक्षम हैं तो इस तरह के परिवार की सहायता ज़रूर करें और यह विशेषता भी एक कारण है जो यह रचना मेरी पसंद की है।

- डॉ. चंद्रेश कुमार छ्तलानी

मंगलवार, 18 जून 2019

लघुकथा: मृत्यु दंड | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


कितनी ही बार अखबारों में पढ़ता हूँ कि  इस महिला के साथ बलात्कार हो गया, उस महिला को वस्त्रहीन कर दिया गया। तब याद आती है द्रोपदी चीरहरण की। उस पर ही सृजन का एक प्रयास है, आइये पढ़ते हैं।

लघुकथा: मृत्यु दंड

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हज़ारों वर्षों की नारकीय यातनाएं भोगने के बाद भीष्म और द्रोणाचार्य को मुक्ति मिली। दोनों कराहते हुए नर्क के दरवाज़े से बाहर आये ही थे कि सामने कृष्ण को खड़ा देख चौंक उठे, भीष्म ने पूछा, "कन्हैया! पुत्र, तुम यहाँ?"

कृष्ण ने मुस्कुरा कर दोनों के पैर छुए और कहा, "पितामह-गुरुवर आप दोनों को लेने आया हूँ, आप दोनों के पाप का दंड पूर्ण हुआ।"

यह सुनकर द्रोणाचार्य ने विचलित स्वर में कहा, "इतने वर्षों से सुनते आ रहे हैं कि पाप किया, लेकिन ऐसा क्या पाप किया कन्हैया, जो इतनी यातनाओं को सहना पड़ा? क्या अपने राजा की रक्षा करना भी..."

"नहीं गुरुवर।" कृष्ण ने बात काटते हुए कहा, "कुछ अन्य पापों के अतिरिक्त आप दोनों ने एक महापाप किया था। जब भरी सभा में द्रोपदी का वस्त्रहरण हो रहा था, तब आप दोनों अग्रज चुप रहे। स्त्री के शील की रक्षा करने के बजाय चुप रह कर इस कृत्य को स्वीकारना ही महापाप हुआ।"

भीष्म ने सहमति में सिर हिला दिया, लेकिन द्रोणाचार्य ने एक प्रश्न और किया, "हमें तो हमारे पाप का दंड मिल गया, लेकिन हम दोनों की हत्या तुमने छल से करवाई और ईश्वर ने तुम्हें कोई दंड नहीं दिया, ऐसा क्यों?"

सुनते ही कृष्ण के चेहरे पर दर्द आ गया और उन्होंने गहरी सांस भरते हुए अपनी आँखें बंद कर उन दोनों की तरफ अपनी पीठ कर ली फिर भर्राये स्वर में कहा, "जो धर्म की हानि आपने की थी, अब वह धरती पर बहुत व्यक्ति कर रहे हैं, लेकिन किसी वस्त्रहीन द्रोपदी को... वस्त्र देने मैं नहीं जा सकता।"

कृष्ण फिर मुड़े और कहा, "गुरुवर-पितामह, क्या यह दंड पर्याप्त नहीं है कि आप दोनों आज भी बहुत सारे व्यक्तियों में जीवित हैं, लेकिन उनमें कृष्ण मर गया..."

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

सोमवार, 17 जून 2019

विचार-विमर्श: डॉ॰ अशोक भाटिया जी के लेख: लंबी लघुकथाएं : आकार और प्रकार पर

डॉ० अशोक भाटिया जी के इस लेख पर इन दिनों फेसबुक पर काफी विचार-विमर्श हो रहा है। जहां अनिल शूर आज़ाद जी ने "लम्बी लघुकथाएं" शब्द पर एतराज़ किया और यह मत भी प्रकट किया कि जिन लघुकथाओं का डॉ० भाटिया ने उदाहरण दिया है वे वास्तव में लघु कहानियाँ हैं।

उसके उत्तर में अशोक भाटिया जी ने बताया कि उन्होने देश-विदेश की लगभग ४५ लघुकथाओं का उदाहरण दिया है। उनका लेख विशुद्ध रचनात्मक आधार पर है।

डॉ० बलराम अग्रवाल जी के अनुसार भी 'छोटी लघुकथा' 'लघुकथा' और 'लम्बी लघुकथा' के विभाजन का समय अभी नहीं है। अभी लोग 'लघुकथा' शब्द के आभामंडल से चमत्कृत हैं, सराबोर हैं। 'लघुत्तम लघुकथा' की अवधारणा भी सिर पटक रही है। अतीत में 'अणुकथा' की अवधारणा दम तोड़ चुकी है।

श्री वीरेंद्र सिंह के अनुसार कुदरत ने हर चीज का आकार तय किया है। एक मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो हर चीज को अलग दृष्टिकोण से देखा करता है। किसी भी विषय पर बात कीजिए। हर विषय वस्तु की अपनी सीमाएं है। अतः लघुकथा का मतलब ही उसका लघु रूप में विराजमान होना है।

सुभाष नीरव जी की प्रतिक्रिया कुछ इस प्रकार से आई कि बराय मेहरबानी  'लघुकथा' को लघुकथा ही रहने दो ! और उनके अनुसार वे कहानी में लंबी कहानी बेशक खूब चली और पाठकों ने उसे स्वीकार भी किया हो, पर उसी की तर्ज पर लघुकथा का ' लंबी लघुकथा ' के रूप में वर्गीकरण करने के पक्ष में वे नहीं हैं। 

डॉ० अशोक भाटिया का उत्तर कुछ निम्न बिन्दुओं में आया:
  • लघुकथा का बाहरी स्पेस थोड़ा बाधा लेने से यथार्थ को व्यक्त करने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं |पिछले पंद्रह-बीस वर्षों में ऐसी कई श्रेष्ठ लघुकथाएं सामने आई हैं,जो पांच सौ से अधिक और एक हजार शब्दों तक जाती हैं और उन्होने कुछ लघुकथाओं के उदाहरण दिये। 
  • लघुकथा में आकारगत विस्तार हो रहा है,लघुकथा के ही फॉर्मेट में रहते हुए और यह एक स्वस्थ प्रवृत्ति है |क्या इस प्रवृत्ति को उजागर नहीं किया जाना चाहिए ?
  • यथार्थ के अनेक आयाम लघुकथा-लेखक से इसलिए भी छूट जाते हैं कि वह अपने अर्धचेतन में इसके आकार की सीमा को तय किये बैठा है |इस उपक्रम में कई लघुकथाएं इसलिए नहीं लिखी जातीं कि ये तय सीमा से बाहर हैं।
  • लघुकथा के आकार का लेखक के अर्ध-चेतन में बना यह दबाव कहाँ से आया--इस पर विस्तार से फिर बात करेंगे।
  • जून 1973 और जुलाई 1975 के सारिका के लघुकथा विशेषांक में लघुकथा के बारे 250 शब्दों तक आकार रहने की बात करने वाले लेखक ही अधिक थे, तब डा.बालेन्दु शेखर तिवारी ने एक पत्र में लिखा था कि, "अब समय आ गया है कि 250 से अधिक शब्दों वाली रचना को लघुकथा के दायरे से बाहर कर दिया जाए।" पर ऐसा न हुआ,न होना था। लेकिन फिर 500 शब्दों की लघुकथा की भी बात और स्वीकृति होने लगी। अब 1000 का विरोध है,तो यह आकार भी स्वीकृत होगा,क्योंकि यहाँ तक अनेक श्रेष्ठ लघुकथाएं जाती हैं।
  • 'लम्बी लघुकथा' कहने से लघुकथा का विभाजन नहीं होता,क्योंकि यह लघुकथा का विस्तार है,जैसे कि इसने दो-ढाई सौ शब्दों से आगे विस्तार पाया। |लघु उपन्यास शब्द में भी विरोधाभास है,वह भी स्वीकृत हुआ
उपरोक्त डॉ॰ भाटिया की फेसबुक पोस्ट पर राजेश उत्साही जी की टिप्पणी कुछ यों थी, जिन लघुकथाओं की बात हो रही है, वे श्रेष्‍ठ का दर्जा पा चुकी हैं। इसलिए उन्‍हें स्‍वीकारने या नकारने का तो कोई प्रश्‍न ही नहीं है। इससे यह बात तो लगभग तय है कि श्रेष्‍ठ लघुकथाओं के लिए यह शब्‍द संख्‍या पर्याप्‍त है। दूसरे शब्‍दों में कहें तो श्रेष्‍ठ लघुकथा इससे अधिक जगह की माँग नहीं करेगी। हाँ यहाँ समस्‍या उनके लिए है जो उसे 250,500 या 700 शब्‍दों की सीमा में बाँधने के पक्षधर हैं। अपन तो 1000 शब्‍दों की सीमा में बाँधने के पक्षधर भी नहीं हैं। क्‍योंकि लघुकथा का जो शिल्‍प है, वह एक स्‍वाभाविक आकार के बाद स्‍वयं ही दम तोड़ देगा। उसकी विषयवस्‍तु को अगर लम्‍बा खींचने की कोशिश होगी, तो वह बिखर जाएगा। इसका विलोम भी है कि अगर शब्‍द सीमा तय की जाएगी, तो भी उसका कथ्‍य दम तोड़ देगा, या उभरेगा ही नहीं। कल मैंने अभ्‍यास के तौर पर अपनी 19 लघुकथाओं में शब्‍दों की गिनती की। उनमें कम से कम 50 शब्‍दों की है और अधिक से अधिक 721 शब्‍दों की। मेरी दृष्टि में तो दोनों ही अपनी बात कहने में सक्षम हैं।

और इसी पोस्ट पर सुभाष नीरव जी की टिप्पणी अत्यंत महत्वपूर्ण है, पढ़िये, मुझे 'संरचना' का ताज़ा अंक मिल चुका है और मैंने सबसे पहले इस आलेख को ही पढ़ा। मुझे पूरा आलेख छिटपुट असहमति को छोड़कर कहीं से भी नकारे जाने योग्य नहीं लगा। बहुत सी बातें, धारणाएं तो मेरी अपनी सोच को पुष्ट करती ही लगीं। मैंंने तो स्वयं शब्द गिनकर कभी लघुकथाएं नहीं लिखीं, उन्हें अपना सहज आकार लेने दिया और मेरी अधिकतर लघुकथाएं 500 शब्दों से लेकर 800 शब्दों तक गई हैं। मैं लघुकथा को कम शब्दों की वज़ह से 'लघु' नहीं मानता, मैं लघु कथ्य की ओर ध्यान देता हूँ। अपनी लघुकथा लेखन यात्रा के दौरान मुझे भी लगता रहा है कि बदलते समय में जब दुनिया में इतना कुछ नया जुड़ा है, और बहुत कुछ बदला है, तो नये विषय लघुकथा के घेरे में लाने के लिए लघुकथा के आकार में कुछ तो वृद्धि होना स्वाभाविक ही है, तभी उस नये विषय से सही में न्याय हो पाएगा, अन्यथा वे विषय 250 -300 शब्दों की अवधारणा के चलते अपना दम तोड़ देंगे। और रचनाकार के अन्दर जो प्रयोगधर्मी होने का गुण होता है, वह भी मर जाएगा। मैं इस बात से सहमत रहा हूँ कि 'आकार बाहरी चीज़ है ।'

डॉ० भाटिया की उपरोक्त दर्शित पोस्ट पर ही श्री योगराज प्रभाकर की टिप्पणी भी उल्लेखनीय है, उनके अनुसार, इस आलेख में कहीं भी अशोक भाटिया जी लघुकथा के आकार को लेकर आग्रही नहीं दिखे। न ही उन्होंने "लम्बी लघुकथा" शब्द लिखकर कोई आकार के हवाले से लघुकथा को डिफ्रेंशिएट करने का प्रयास ही किया है। अगर सीधे सादे शब्दों में कहा जाए तो किसी इमारत की विशालता, भव्यता या उपयोगिता प्लॉट के साइज़ पर भी निर्भर करती है। वैसे जब लघुकथा में कोई न्यूनतम शब्द सीमा तय नहीं तो अधिकतम शब्द सीमा को 250 या 300 में बांधना कहाँ की समझदारी है?

बहरहाल, इस विमर्श के एक भाग को आप सभी के समक्ष रखा वह लेख भी आप सभी के समक्ष है। आइये इसे भी पढ़ते हैं।


संकलन: डॉ० चंद्रेश कुमार छ्तलानी

रविवार, 16 जून 2019

लघुकथा : मैं जानवर | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

कई दिनों के बाद अपने पिता के कहने पर वह अपने पिता और माता के साथ नाश्ता करने खाने की मेज पर उनके साथ बैठा था। नाश्ता खत्म होने ही वाला था कि पिता ने उसकी तरफ देखा और आदेश भरे स्वर में कहा,
"सुनो रोहन, आज मेरी गाड़ी तुम्हें चलानी है।", कहते हुए वह जग में भरे जूस को गिलास में डालने लगे।

लेकिन पिता का गिलास पूरा भरता उससे पहले ही उसने अंडे का आखिरी टुकड़ा अपने मुंह में डाला और खड़ा होकर चबाता हुआ वॉशबेसिन की तरफ चल पड़ा।

उसकी माँ भी उसके पीछे-पीछे चली गयी और उसके पास जाकर उसका हाथ पकड़ कर बोली, "डैडी ने कुछ कहा था..."

"हूँ..." उसने अपने होठों को मिलाकर उन्हें खींचते हुए कहा

"तो उनके लिए वक्त है कि नहीं तेरे पास?" माँ की आँखों में क्रोध उतर आया

और उसके जेहन में कुछ वर्षों पुराना स्वर गूँज उठा,
"रोहन को समझाओ, मुझे दोस्तों के साथ पार्टी में जाना है और यह साथ खेलने की ज़िद कर रहा है, बेकार का टाइम वेस्ट..."

पुरानी बात याद आते ही उसके चेहरे पर सख्ती आ गयी और वॉशबेसिन का नल खोल कर उसने बहुत सारा पानी अपने चेहरे पर डाल दिया, कुछ पानी उसके कपड़ों पर भी गिर गया।

यह देखकर माँ का पारा सातवें आसमान पर पहुँच गया, वह चिल्ला कर बोली,"ये क्या जानवरों वाली हरकत है?"

उसने वहीँ लटके तौलिये से अपना मुंह पोंछा और माँ की तरफ लाल आँखों से देखते हुए बोला,
"बचपन से तुम्हारा नहीं जानवरों ही का दूध पिया है मम्मा फिर जानवर ही तो बनूँगा और क्या?"

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

शनिवार, 15 जून 2019

लघुकथा : डर के दायरे | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

 "आज की कक्षा का विषय है - डर" यह कहते हुए मनोविज्ञान के शिक्षक ने अपने विद्यार्थियों को एक चित्र दिखाया, जिसमें एक छोटी मछली कांच के मर्तबान में तैर रही थी और एक बड़ी मछली मर्तबान के बाहर उस छोटी मछली को क्रोध भरी आँखों से देख रही थी।
अब शिक्षक ने कहा, "बड़ी मछली छोटी मछली को डरा रही है कि वह मर्तबान तोड़ देगी और छोटी मछली मर जायेगी।"
"सर डरना तो चाहिये, अगर जार टूट गया तो पानी बिखर जायेगा..." एक विद्यार्थी ने कहा।
शिक्षक मुस्कुराते हुए बोला, "लेकिन यह भी तो सोचो कि बड़ी मछली खुद कैसे ज़िन्दा है?"
कक्षा में चुप्पी छा गयी।
उसने आगे कहा, "मर्तबान के कांच के कारण छोटी मछली देख नहीं रही पा रही है कि बाहर मर्तबान से कहीं ज़्यादा पानी है, क्योंकि सामने भी मछली ही तो खड़ी है।"
"तो सर उसे क्या करना चाहिये?"
"उसे खुद मर्तबान से बाहर आना चाहिये... मर्तबान टूटने का ‘डर’ ही उसके ज़्यादा और खुले पानी में जाने में बाधक है।" उसने जोर देकर कहा।
कक्षा में तालियाँ बज उठीं। अब शिक्षक ने सारे विद्यार्थियों से कहा, "यह बताओ कि ट्यूशन पर कौन-कौन जाता है?"
अधिकतर विद्यार्थियों ने हाथ खड़े कर दिए। उसने उनसे पूछा, “क्लास में समझ में नहीं आता है क्या?”
“लेकिन सर ट्यूशन से मार्क्स और अच्छे..." एक विद्यार्थी ने लड़खड़ाते स्वर में कहा।
सुनते ही वह शिक्षक कुछ क्षण चुप हो गया, फिर कहा, "अगर मार्क्स के लिए ट्यूशन जाते हो तो..."
"तो सर?"
"तो... अपने मर्तबान से निकल नहीं पाओगे।" कहकर वह शिक्षक बाहर चला गया और विद्यार्थियों के चेहरों पर छटपटाहट दिखाई देने लगी।