घड़ी की सुईयां / योगराज प्रभाकर
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मंगलवार, 1 फ़रवरी 2022
वरिष्ठ लघुकथाकार योगराज प्रभाकर जी की लघुकथा और रचना की कल्पना भट्ट जी द्वारा समीक्षा
बुधवार, 26 जनवरी 2022
मधुदीप गुप्ता दादा को श्रद्धा सुमन | कल्पना भट्ट
बहुत दुःख का विषय है कि कुछ दिनों पूर्व लघुकथा के एक महत्वपूर्ण स्तम्भ श्री मधुदीप अपनी जीवन यात्रा समाप्त कर अनंत की ओर प्रस्थान कर गए। ईश्वर से प्रार्थना है कि उन्हें अपने श्री चरणों में स्थान दें। लघुकथाकारा कल्पना भट्ट जी ने उन्हें श्रद्धांजलिस्वरुप उनकी रचना को अपने शब्दों में व्यक्त किया है, रचना और यह अभिव्यक्ति आप सभी के समक्ष प्रस्तुत है।
उजबक की कदमताल | मधुदीप
समय के चक्र को उल्टा नहीं घुमाया जा सकता। हाँ, बनवारीलाल आज पूरी शिद्दत के साथ यही महसूस कर रहा था। समय चालीस साल आगे बढ़ गया है मगर वह अभी भी वहीं खड़ा कदमताल कर रहा है। उसने भी कई बार समय के साथ आगे बढ़ने की बात सोची मगर परम्पराओं और दायित्वों में जकड़े पाँवों ने हमेशा ही मना कर दिया तो वह बेबस होकर रह गया।
जब सब-कुछ बदल गया है तो उसके पाँव कदमताल छोड़कर आगे क्यों नहीं बढ़ जाते ? तीनों छोटे भाई अपनी-अपनी सुविधाओं के तहत शहरों में जा बसे हैं। उनके बच्चे अब सरकारी नौकरियों में अधिकारी हैं, कुछ तो विदेश तक पहुँच गए हैं मगर वह और उसका एकमात्र पुत्र आज तक गाँव के इस कच्चे घर की देहरी को नहीं लाँघ पाए। पिता का साया बचपन में ही चारों भाइयों के सिर से उठ गया तो वह उन तीनों के लिए पिता बन गया। जमीन तो थोड़ी ही थी, यह तो माँ की कर्मठता और उसकी जीतोड़ मेहनत थी कि वह सभी छोटों को हिल्ले से लगा सका।
चार बेटों की कर्मठ माँ की इहलीला कल रात समाप्त हो गई थी और आज दोपहर वह अपने सपूतों के काँधों पर सवार होकर अपनी अन्तिम यात्रा पर जा चुकी थी। उतरती रात के पहले प्रहर में चारों भाइयों का भरा-पूरा परिवार अपने कच्चे घर की बैठक में जुड़ा हुआ था।
“बड़े भाई, अब गाँव की जमीन-घर का बँटवारा हो जाये तो अच्छा है।” छोटे ने कहा तो बनवारीलाल उजबक की तरह उसकी तरफ देखने लगा।
“हाँ, अब गाँव में हमारा आना कहाँ हो पायेगा ! माँ थी तो...” मँझले ने जानबूझकर अपनी बात अधूरी छोड़ दी तो उजबक की गर्दन उधर घूम गई।
सन्नाटे में तीनों की झकझक तेज होती जा रही है। बनवारीलाल को लग रहा है कि समय का चक्र बहुत तेजी से घूम रहा है और वह वहीं खड़ा कदमताल कर रहा है। मगर यह क्या ! उसके पाँवों के तले जमीन तो है ही नहीं। **
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इस रचना पर कल्पना भट्ट जी की अभिव्यक्ति
कथा साहित्य में यूँ तो परिवार पर आधारित अनेकों रचनाएँ पढने को मिल जाती हैं वह फिर चाहे उपन्यास हो, कहानी हो या लघुकथा ही क्यों न हो। पिता पात्र पर आधारित लघुकथाओं में से मधुदीप की लघुकथा , ‘उजबक की कदमताल’ ने इसके शीर्षक से ही मुझे अपनी तरफ खींचा। जब इस लघुकथा को पढ़ना शुरू किया तो एक परिवार का चित्र आँखों के सामने उभर कर आ रहा था, एक ऐसा परिवार जो किसी गाँव में रहता है। इस परिवार का मुखिया, ‘बनवारीलाल’ है, जो अपने को अपने ही स्थान पर पिछले चालीस वर्षों से कदमताल करता हुआ देख रहा है। इस लघुकथा की यह पंक्ति देखें:- ‘ समय चालीस साल आगे बढ़ गया है मगर वह अभी भी वहीँ खड़ा कदमताल कर रहा है।’ बनवारीलाल पात्र गाँव का सीधा-सादा सामान्यज्ञान वाला एक ऐसा व्यक्ति है जिसके लिए उसका परिवार सर्वोपरि है, वह अपनी जिम्मेदारियों के आगे खुदको झोंक देता हुआ प्रतीत होत है, ऐसा नहीं कि वह आगे नहीं बढ़ना चाहता या उसने कभी प्रयास नहीं किया हो, इस बात को सिद्ध करती हुई इन पंक्तियों को देखी जा सकती है, ‘ उसने भी कई बार समय के साथ आगे बढ़ने की बात सोची मगर परम्पराओं और दायित्वों में जकड़े पाँवों ने हमेशा ही मना कर दिया, तो वह बेबस होकर रह गया।’ समय बलवान होता है यह बात सच भी है और यथार्थ भी, समय के साथ चलना ही अकलमंदी होती है, और जो समयानुसार न चल सके उसको पिछड़ा हुआ ही माना जाता है, वह अपने को इस स्थिति से उबारना चाहे तो उबार सकता है क्योंकि समय हर इंसान को उठने के लिए मौक़ा देता है परन्तु जो व्यक्ति इस मौके का फायदा न उठा सके तो वह सच में ‘उजबक’ ही सिद्ध होता है। ‘उजबक’ का साहित्यिक अर्थ ‘अनाडी’ या ‘मुर्ख’ है। ‘बनवारीलाल’ यूँ तो चार भाइयों के परिवार में सबसे बड़ा है, परन्तु बचपन में ही पिता का साया उठ जाने के उपरान्त वह अपने तीन भाइयों के लिए पिता बन जाता है, लघुकथा की इन पंक्तियों को देखा जा सकता है,’ पिता का साया बचपन में ही चारों भाइयों के सिर से उठ गया तो वह उन तीनों के लिए पिता बन गया।’ पिता की मृत्यु के उपरान्त उनकी कर्मठ माँ की छत्रछाया में और उनके दिशानिर्देश के अनुसार बनवारीलाल खुद को ढाल लेता है। इस लघुकथा में माँ को एक कर्मठ महिला के रूप में चित्रांकित किया गया है, जो जीवन में संघर्ष को ही जीवन मान लेती है और अपने संग-संग अपने बड़े बेटे को भी उसी राह पर मोड़ देती है, बनवारीलाल अपनी माँ से अधिक प्रेम करता है, अधिक इसलिए की वह उनका आज्ञाकारी बेटा बनकर ही रह जाता है और अपने तीनों भाइयों का पिता, परन्तु वह इन दायित्वों को निभाने में इतना खो जाता है कि वह भूल जाता है कि उसका अपना भी एक इकलौता पुत्र है जिसका वह पिता है, अपने माता-पिता की संतानों की जिम्मेदारियों में वह अपने ही बेटे का पिता होने का फ़र्ज़ निभाने में चुक जाता है। यहाँ ये अतिशयोक्ति प्रतीत होती है, यहाँ बनवारीलाल का अपना परिवार भी है, जैसा की वर्णित है, ‘ मगर वह और उसका एकमात्र पुत्र आज तक गाँव के इस कच्चे घर की देहरी को नहीं लाँघ पाए’ यहाँ देहरी क्यों नहीं लाँघ पाए इस बात को स्पष्ट नहीं किया गया है, एक सामान्य व्यक्ति जब खुद कोई गलती करता है तो वह यह कभी नहीं चाहेगा कि इस गलती को उसका पुत्र या अगली पीढ़ी दोहराए, वह प्रयासरत्त रहता है कि ऐसी गलतियों को न दोहराया जाए, अगर इस बात को मान भी लिया जाए कि वह एक आज्ञाकारी बेटा था, उसकी माँ ने जैसा कहा वह वैसे ही करता चला गया, इसका अर्थ यहाँ उसने अपनी पत्नी और इकलौते बेटे को भी उसी जिम्मेदारियों की भट्टी में झोंक दिया और वह भी बिना अपनी पत्नी के विरोध के...इस बात से बनवारीलाल को मुर्ख कहा जा सकता है परन्तु क्या उसकी पत्नी(जो इस लघुकथा का एक अदृश्य पात्र है) उसके लिए... भी यही बात हो... यहाँ माँ के अनुसार घर चल रहा है, इसका अर्थ है नारी-प्रधान परिवार है.... फिर बनवारी लाल की पत्नी...? यहाँ बनवारीलाल पिता किस आधार पर बन गया यह स्पष्ट नहीं हो पा रहा है।
चालीस वर्षो के बाद जब वह पीछे मुड़कर देखता है तो देखता है कि : ‘जब सब-कुछ बदल गया है तो उसके पाँव कदमताल छोड़कर आगे क्यों नहीं बढ़ जाते हैं। तीनों छोटे भाई अपनी-अपनी सुविधाओं के तहत शहरों में जा बसे हैं। उनके बच्चे अब सरकारी नौकरियों में अधिकारी हैं, कुछ तो विदेश तक पहुँच गए हैं मगर...” इन पंक्तियों से प्रतीत होता है की तीनों भाई स्वार्थी निकले, और उन्होंने अपने बच्चों को भी उन्हींकी तरह बनाया। यहाँ ऐसा प्रतीत होता है कि ये लोग पलट कर अपने गाँव वाले घर में कभी नहीं आये, और न ही बच्चे ही आये... इतने लम्बे अंतराल तक एक दूसरे से न मिलें न ही संपर्क हो यह संभव तो हो सकता है, परन्तु क्या माँ और भाई भी कभी शहर नहीं आये? क्या कोई संपर्क इतने वर्षों में रहा ही नहीं? और अगर रहा तो क्या तीनों भाइयों के परिवार से भी किसीने अपनी चुप्पी नहीं तोड़ी और न ही किसी बच्चे ने अपनी दादी और पिताजी के बड़े भाई के परिवार वालों की सुध ही ली... ऐसे अनेकों सवाल इस लघुकथा से उठते हैं... ‘चार बेटों की कर्मठ माँ की इहलीला कल रात समाप्त हो गयी थी और आज दोपहर वह अपने सपूतों के कंधों पर सवार होकर अपनी अन्तिम यात्रा पर जा चुकी थी। उतरती रात के पहले पहर में चारों भाइयों का भरा-पूरा परिवार अपने कच्चे घर की बैठक में जुड़ा हुआ था।’ यहाँ फिर एक सम्भावना जताई जा रही है कि बनवारीलाल के बाकि के तीनों भाइयों का परिवार गाँव से उतनी ही दूरी पर थी कि वह सभी उतरती रात के पहले पहर में ही वहाँ आ गए थे। या तो बनवारीलाल ने पहले ही उन सब को बुलवा लिया था... तीनो भाई स्वार्थी के साथ-साथ लालची भी प्रतीत होते हैं’ ‘बड़े भाई, अब गाँव की जमीन-घर का बँटवारा हो जाए तो अच्छा है” अब इस पंक्ति को भी देखें: ‘ जमीन तो थोड़ी ही थी, यह तो माँ की कर्मठता और उसकी जीतोड़ मेहनत थी कि वह सभी छोटों को हिल्ले से लगा सका।’यहाँ इससे यह प्रतीत होता है कि ‘ज़मीन छोटी तो थी परन्तु पर्याप्त थी’ तभी तो मेहनत करने पर इतने लोगों की परवरिश और गुज़ारा हो पाया। यहाँ यह भी प्रतीत होता है कि माँ के साथ बनवारीलाल ने भी उतनी ही निष्ठां से मेहनत की कि उन दोनों के प्रयासों के चलते उसके तीनों भाइयों के परिवार भी बन गए और उनकी नौकरियां भी लग गयी। आगे देखिये: “हाँ, अब गाँव में हमारा आना कहाँ हो पायेगा। माँ थी तो....” मँझले ने जानबूझकर अपनी बात अधूरी छोड़ दी तो उजबक की गर्दन उधर घूम गई।इसका अर्थ यह होता है कि यह लोग माँ से मिलने यहाँ आते थे... फिर भी माँ और बनवारीलाल की स्थिति जस-की-तस रही! जब तीनों भाई आगे बढ़ रहे थे, बनवारीलाल उनको आगे बढ़ते हुए देखते हुए भी अपने और अपने परिवार के लिए कुछ न सोच पाया और न ही आगे बढ़ पाया, ऐसा कार्य तो सिर्फ और सिर्फ एक उजबक ही कर सकता है, यह किसी जिम्मेदार या समझदार इंसान तो कदापि नहीं करेगा। पिता की मृत्यु के बाद बड़े होने के नाते माँ की हाजरी में खुद को पिता समझ बैठना यह बनवारीलाल की प्रथम गलती थी, जिम्मेदारियों को वह बड़े भाई के नाते भी निभा सकता था। जो व्यक्ति एक बार गलती करने के बाद अपनी गलती को सुधार ले तो वह तो सामान्य है परन्तु जो गलतियों को दोहराता रहे और बार-बार नज़र अंदाज़ करके खुदका ही घर जला ले ये काम तो सिर्फ एक मुर्ख व्यक्ति ही करेगा और ऐसे व्यक्ति का अंत बिलकुल वैसा ही होता है जैसा कि इस लघुकथा के नायक’ ‘बनवारीलाल’ का हुआ, जब माँ का दाह दाह संस्कार करने के बाद जब : सन्नाटे में तीनों की झकझक तेज होती जा रही है। बनवारीलाल को लग रहा है कि समय का चक्र बहुत तेजी से घूम रहा है और वह वहीँ खड़ा कदमताल कर रहा है। मगर यह क्या! उसकें पांवों के तले जमीन तो है ही नहीं। इस अंत से ये सिद्ध होता है कि बनवारीलाल जिस तरह से शुरू से ही मूकदर्शक बना रहा आखिर तक उसने अपने आपको कहीं भी कभी भी बदलने का प्रयास नहीं किया। उसने अपने को उजबक ही सिद्ध किया है। इस लघुकथा के माध्यम से मधुदीप ने परिवार के बदलते परिवेश का चित्रण करने का सद्प्रयास किया है, हिन्दू परिवारों में जब परिवार को ही सर्वोपरि माना जाता रहा है, वहीँ समय के पहिये की तरह लोगों की सोच भी बदल गयी है, जहाँ पहले परिवार में त्याग और समर्पण की भावनाएं होती थीं आज के भौतिक युग में स्वार्थ और लालच ने हर परिवार में डेरा जमा लिया है, ऐसे में अगर समय रहते कोई न चेते और समय को न पहचान पाए और खुद को समयानुसार न बदल पाए तो दुनिया उसको बेवकूफ जान उसका गलत फायदा ही उठाएगी जैसा कि बनवारीलाल के तीनों भाइयो ने उसके साथ किया, और खुद बनवारीलाल ने भी खुद को बदलने का प्रयास नहीं किया और दुनियावालों का साथ दिया और उनके साथ-साथ स्वयं को ही उज्बग सिद्ध कर दिया। वह दूसरों को ख़ुश रखना चाहता था, पर कहते हैं न सब को ख़ुश कर पाना कभी भी संभव नहीं होता। इस लघुकथा के माध्यम से जहाँ ‘बनवारीलाल’ को एक आदर्श स्थापित करते हुए दर्शाया गया है, वहीँ इस पात्र का दूसरा पहलू यह भी है कि सब आदर्श धरे रह जाते हैं जब समय रहते न चेत सके कोई। ‘जो चमकता दिखाई देता है वह हर बार सोना नहीं होता’, इस कहावत को सिद्ध करती हुई ‘उजबक की कदमताल’ एक बेहतरीन लघुकथा है, यहाँ बनवारीलाल के पात्र के माध्यम से मधुदीप जैसे एक कुशल लघुकथाकार ने अपने कौशल का परिचय देते हुए स्वार्थी लोगों से सावधान, और समय को पहचान खुद के व्यव्हार को तय करने की हिदायत भी दी है। और साथ में यह भी सिद्ध करने का सद्प्रयास किया है कि पिता बन जाना एक बार आसान हो सकता है परन्तु पिता बनकर उनके दायित्वों को निभा पाना उतना ही मुश्किल है जितना बिना माली के किसी भी बाग़ को उर्वरित और देख-रेख रख पाना।
- कल्पना भट्ट
गुरुवार, 2 जनवरी 2020
पुस्तक समीक्षा | असभ्य नगर एवं अन्य लघुकथाएँ | कल्पना भट्ट
पुस्तक का नाम :
असभ्य नगर एवं अन्य लघुकथाएँ
लेखक:
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
प्रकाशन:
अयन प्रकाशन १/२०, महरौली, नई दिल्ली-११० ०३०
मूल्य: २०० रुपये
हिंदी-लघुकथा सन् १८७४ में हसन मुंशी अली की लघुकथाओं से विकास करना शुरू करती है, उसके पश्चात भारतेंदु हरिश्चन्द्र, जयशंकर ‘प्रसाद’, उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’, अवधनारायण मुद्गल , सतीश दुबे से होते हुए आज सन् २०१९ में नयी पीढ़ी तक आ पहुँची है| हसन मुंशी अली से लेकर नयी पीढ़ी तक आते-आते लघुकथा के रूप-स्वरूप और भाषा-शैली में अनेक प्रकार की भिन्नता दिखाई पड़ती है, इन भिन्नताओं को लघुकथा-विकास के सोपानों के रूप में देखा जा सकता है| इसके मथ्य नवें दशक जिसे लघुकथा का स्वर्णकाल भी कहा जा सकता है| इस काल में जो कुछ लेखक अपनी विशिष्ट लघुकथाएँ लेकर सामने आये उनमें रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ का भी एक उल्लेखनीय हस्ताक्षर है| और इन्होंने अपने समकालीनों की तुलना में बहुत अधिक लघुकथाएँ तो नहीं लिखी किन्तु जो लिखी वे लघुकथाएँ उनके अब तक की एक-मात्र लघुकथा संग्रह ‘असभ्य नगर एवं अन्य लघुकथाएँ’ में संगृहीत हैं| इन लघुकथाओं को पढ़ते समय इस बात का सहज ही एहसास होता है कि इन्होंने मात्र लघुकथाएँ लिखने के लिए लघुकथाएँ नहीं लिखीं, जब कभी इन्होंने अपने समाज में घटित होती समस्याओं और विडम्बनाओं को देखा और प्रतिक्रया स्वरूप जब लघुकथा क रूप लेकर इन्हें बेचैन किया, तब इन्होंने उन लघुकथाओं को लिपिबद्ध कर दिया| ऐसी स्थिति में यह स्वाभाविक ही था कि ये लघुकथाएँ संवेदनशील होती | और संवेदना किसी भी श्रेष्ठ लघुकथा का पहला गुण हैं|
यूँ तो इस संग्रह में प्रकाशित प्रत्येक लघुकथा भिन्न-भिन्न कारणों से अपना महत्त्व रखती है किन्तु उनमें भी ‘ऊँचाई’, ‘ चक्रव्यूह’, ‘क्रौंच-वध’, ‘अश्लीलता’, ‘प्रवेश-निषेध’, ‘पिघलती हुई बर्फ’, ‘राजनीति’,’स्क्रीन-टेस्ट’, ‘कटे हुए पंख’, ‘असभ्य नगर’, ‘नवजन्मा’ इत्यादि लघुकथाओं ने न सिर्फ संवेदित किया अपितु मेरे मन-मष्तिष्क को झिंझोड़ कर भी रख दिया| इस कारण मैं इनके चिंतन-मनन को विवश हो गयी|
सर्वप्रथम मैं ‘ऊँचाई’ लघुकथा की चर्चा करना चाहूँगी| यह लघुकथा हिमांशु जी की न मात्र प्रतिनिधि लघुकथा है अपितु यह उनके विशिष्ट लघुकथाकार के रूप में पहचान भी है| मुझे विश्वास है कि कभी-न-कभी यह लघुकथा प्रत्येक लघुकथाकार की नज़र से गुज़री होगी और असंख्य पाठकों ने इसे पढ़ा भी होगा| इस लघुकथा मे नायक अपने पिता के आगमन पर यह सोचता है कि उसके पिता आर्थिक सहयोग के दृष्टिकोण से उसके पास आये हैं किन्तु भोजन करने के बाद उसके पिता जाते समय अपने पुत्र को बुला कर कहते हैं, “खेती के काम से घड़ी भर की फुर्सत नहीं मिलती है| इस बखत काम का ज़ोर है| रात की गाड़ी से ही वापस जाऊँगा| तीन महीने से तुम्हारी कोई चिट्ठी तक नहीं मिली| जब तुम परेशान होते हो, तभी ऐसा करते हो|” जो बेटा अपने पिता के आगमन से ही विचलित हो जाता है, उसके पिता ने उलट अपने बेटे के लिए चिंता जताई है| और इसी लघुकथा में नायक के पिता को ऊँचाई दी है, कि उनका बेटा शहर तो आ गया, पर उसकी सोच संकीर्ण हो गयी और वह इतना स्वार्थी हो गया कि उसने अपने पिता का स्वागत मन मार कर किया, ऐसे में भी पिता ने अपनी जेब से सौ-सौ के दस नोट निकालकर नायक की तरफ बढ़ा दिए और कहा, “रख लो! तुम्हारे काम आ जायेंगे| इस बार धान की फसल अच्छी हो गयी है| घर में कोई दिक्कत नहीं है| तुम बहुत कमजोर लग रहे हो| ढंग से खाया-पीया करो| बहु का भी ध्यान रखो|” बेटा परेशान है इसका एहसास पिता को है, वहीँ वह यह भी जानते हैं कि पैसा देने पर उनके बेटे को उसके माता-पिता की चिंता भी होगी, इसकी वजह से वह उसको चिंतामुक्त भी कर देते हैं और अपने को सहज भी कर ले इसका अवसर भी दे देते हैं| इन अन्तिम वाक्यों ने इस लघुकथा को सर्वश्रेष्ठ बना दिया है| और पिता और पुत्र के बीच के रिश्ते के अपनत्व का भी उत्कृष्ट तरीके से चित्रण करने का सद्प्रयास किया है| इस लघुकथा का कथानक न सिर्फ श्रेष्ठ है अपितु इसके शीर्षक ने भी इस लघुकथा को उत्कृष्ट बनाया है| गाँव से पलायन कर शहर में रहने से कोई अमीर नहीं हो जाता समस्याएँ यहाँ भी पीछा नहीं छोड़ती, पर इंसान किस तरह स्वार्थी हो जाता है और विवश हो जाता है कि उसको अपने माता-पिता भी बोझ लगने लगते हैं वह यह भी भूल जाते हैं कि किस तरह से उन्होंने भी परेशानियों का सामना किया होगा और वह भी निस्वार्थ भाव से| इस लघुकथा में पिता का यह कहना कि “इस बार फसल अच्छी हुई है...” से हिमांशु एक सन्देश भी देना चाहते हैं कि ‘समस्याओं से भागना कोई हल नहीं हैं अपितु उनका सामना करना ही हितकारी होता है’ और माता-पिता से बढ़कर इस दुनिया में कोई भी नहीं होता जो नि:स्वार्थ भावना रखता है| इसको पढ़ने के पश्चात् क्या ऐसा सबके साथ नही होता जो मेरे साथ हुआ है|
इसी प्रकार अन्य ऊपर उल्लेखित की गई लघुकथाओं में भी देखा जा सकता है| ‘चक्रव्यूह’ में नायक मध्यमवर्गीय परिवार से है जो अपनी जिजीविषा के लिए दिन-रात मेहनत तो करता है, पर महंगाई की मार उसकी कमर तोड़ देती है और वह खुद को चक्रव्यूह में फँसा हुआ अनुभव करता है, इस लघुकथा की अंतिम पंक्तियाँ देखी जा सकती हैं ‘ एक पीली रोशनी मेरी आँखों के आगे पसर रही है;जिसमें जर्जर पिताजी मचिया पर पड़े कराह रहे हैं और अस्थि-पंजर-सा मेरा मँझला बेटा सूखी खपच्ची टाँगों से गिरता-पड़ता कहीं दूर भागा जा रहा है| और मैं धरती पर पाँव टिकाने में भी खुद को असमर्थ पा रहा हूँ|” इस लघुकथा के माध्यम से हिमांशु जी ने मध्यमवर्गीय परिवार की परेशानियों को उभारने का सद्प्रयास किया है जिसमें वह सफल भी रहे हैं|
‘क्रौंच-वध’ पौराणिक मिथक पात्रों को लेकर लिखी गयी यह लघुकथा सांकेतिक ढंग से यह सन्देश देने में पूर्णतः सफल रही है कि पुरुष प्रधान समाज की सोच को अब बदलना होगा | जिस तरह से वाल्मीकि रामायण में आदर्श स्थापित किया है वहीँ स्त्री जाति पर आरोप-प्रत्यारोप की झलक भी दिखाई पड़ती है| इस लघुकथा में हिमांशु जी पौराणिक मिथक पात्रो के माध्यम से आज को जोड़ा है कि समय बदल रहा है और स्त्री को भी पुरुष की तरह समान अधिकार मिलने चाहिए | हिंदी-लघुकथा में पौराणिक और मिथक पात्रों को लेकर ऐसी लघुकथा अभी तक कोई अन्य मेरे पढ़ने में नहीं आई है|
‘अश्लीलता’ इंसान की विकृत सोच को दर्शाती इस लघुकथा का अंत नकारत्मकता लिए है परन्तु इसके बावजूद इस लघुकथा में इंसान की दोहरी सोच और उसके मनोविज्ञान को भली-भाँति समझा जा सकता है| इस लघुकथा की प्रथम पंक्ति को देखें: ‘रामलाल कि अगुआई में नग्न मूर्ति को तोड़ने के लिए जुड़ आई भीड़ पुलिस ने किसी तरह खदेड़ दी थी....|” और इसी लघुकथा की अन्तिम पंक्तियों को भी देखें: “ वह मूर्ति के पास आ चुका था| देवमणि के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा| रामलाल मूर्ति से पूरी तरह गूँथ चुका था और उसके हाथ मूर्ति के सुडौल अँगों पर के केचुए की तरह रेंगने लगे थे|”
‘प्रवेश-निषेद’ यह लघुकथा वर्तमान की राजनीति पर करारा कटाक्ष लिए है| लघु आकार की होने के बावजूद इस लघुकथा के माध्यम से हिमांशु जी ने इस रचना में क्षिप्रता देकर उत्कृष्ट बनाने का सफलतम सद्प्रयास किया है| इसका अंतिम वाक्य देखा जा सकता है, जब राजनीति एक वैश्या की चौखट पर आती है और दलाल उससे उसका परिचय पूछता है, दरवाज़े ओट में खड़ी वह कहती है, “ यहाँ तुम्हारी जरूरत नहीं है| हमें अपना धंधा चौपट नहीं कराना| तुमसे अगर किसी को छूत की बीमारी लग गयी तो मरने से भी उसका इलाज नहीं होगा|” और वह दरवाज़ा बंद कर देती है|
‘पिघलती हुई बर्फ’ पति-पत्नी का रिश्ता अनोखा होता है, प्रकृति ने मनुष्यों को जहाँ अलग-अलग चेहरे दिए हैं वैसे ही उनके स्वाभाव में भी भिन्नता होती है, इसके बावजूद मनुष्य को एक सामाजिक प्राणी का दर्जा प्राप्त है| पति-पत्नी भी अपवाद नहीं हैं, छोटी-मोटी बहस के बावजूद एक दूसरे के समर्पण भाव सहज देखने को मिल जाते है| लेखक ने इस लघुकथा के माध्यम से इस रिश्ते की नींव को मज़बूत बनाने का सार्थक प्रयास किया है जिसमें वह पूर्णतः सफल रहे हैं|
‘राजनीति’ यह लघुकथा राजनीति की पृष्ठभूमि पर लिखी एक अच्छी लघुकथा है, इस लघुकथा के माध्यम से हिमांशु जी ने राजनीति में पनप रही कूटनीति और बढ़ते हुए अपराध को बड़े ही करीने से उजागर किया है|
‘स्क्रीन-टेस्ट’ फ़िल्मी दुनिया हमेशा आकर्षण का केंद्र रही है, नाम और शौहरत पाने की लालसा में और जल्द-से-जल्द अमीर बनाने की चाहत में युवा- वर्ग इस ओर आकर्षित हो जाती है, परन्तु इस चकाचौंध के पीछे के दलदल में फँस कर रह जाती है, जहाँ से वापिस आना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन- सा हो जाता है| इस लघुकथा के माध्यम से हिमांशु जी ने एक सकारात्मक सन्देश भी दिया है, “ सफलता पाने के लिए कोई शॉर्टकट रास्ता नहीं होता’|
‘कटे हुए पंख’ अर्ध मानवेत्तर शैली में लिखी गयी यह लघुकथा भी राजनीति और सामंतशाही से प्रेरित है, किस तरह से ऊँचे व्यक्ति पैसे और सत्ता के दम पर अपने से नीचे के लोगों को कुचल कर अपना साम्राज्य स्थापित करना चाहते हैं और वे किसीकी भी परवाह किये बिना अपने स्वार्थ को सिद्ध करते है| इस लघुकथा के अंत से इस बात की पुष्टि होती है : ‘परन्तु तोता उड़ न सका| धीरे-धीरे-से पिंजरे के पास बैठ गया था; क्योंकि उसके पंख मुक्त होने से पहले ही काट दिए गए थे|
‘असभ्य नगर’ आज के भौतिक और भूमंडलीकारण के चलते पशु-पक्षियों के जीवन को भी खतरा हो गया है| परन्तु यह भी सच है कि इस आपा-धापी में हम अपना सुख-चैन भी खो चुके हैं, एक तरफ जहाँ हम जंगलों को काटते जा रहे हैं और बड़ी-बड़ी गगनचुम्बी इमारतें बनाते जा रहे हैं, हमारे भीतर की संवेदना खत्म होती जा रही है| हिमांशु जी ने इस मानवेत्तर लघुकथा के माध्यम से एक सार्थक सन्देश देने का सद्प्रयास किया है| इस लघुकथा की अन्तिम पंक्ति में पूरी लघुकथा का सार मिल जाता है, ‘उल्लू ने कबूतर को पुचकारा- “मेरे भाई, जंगल हमेशा नगरों से अधिक सभ्य रहे हैं| तभी तो ऋषि-मुनि यहाँ आकर तपस्या करते थे|” इस लघुकथा के माध्यम से हिमांशु जी ने पर्यावरण के नष्ट होने पर अपनी चिंता जताई है और जिससे यह सिद्ध होता है, कि हिमांशु जी न सिर्फ सामाजिक परन्तु वह प्रकृति-प्रेमी भी दिखाई पड़ते हैं |
‘नवजन्मा’ लड़की बचाओ पर आधारित एक उत्कृष्ट लघुकथा है, जिलेसिंह जिसके घर में एक पुत्री-रत्न की प्राप्ति हुई है, उसके घर वाले निराश होकर उसको शिकायत करते है और लड़की होने के नुक्सान गिनवाते हैं, वो कहते हैं औरत ही औरत की दुश्मन होती है, इस लघुकथा में इसका चित्रण बहुत ही करीने से हुआ है, जिलेसिंह की दादी और बहन दोनों ही लड़की पैदा होने का शोक मनाते हैं, वहीँ दूसरी ओर जिलेसिंह पहले तो तनाव में आ जाता है परन्तु अपनी पत्नी और पुत्री का चेहरा देखकर उसका हृदय परिवर्तन हो जाता है और वह बाहर से ढोलियों को लेकर आता है और नाचने लगता है और ढोलियों को खूब तेज़ ढोल बजाने के लिए प्रेरित करता है| इस लघुकथा के माध्यम से हिमांशु जी ने लड़का और लड़की के भेद को मिटाने का सकारात्मक सन्देश दिया है|
इन लघुकथाओं के अतिरिक्त अन्य सभी लघुकथाएँ आलोचना की दृष्टि से मत-भिन्नता का शिकार हो सकती हैं, किन्तु पाठकीय दृष्टि से उनपर प्रश्नचिह्न लगाना कठिन है| यों भी आजतक कोई कृति ऐसी प्रकाश में नहीं आई है, जो एक मत से निर्दोष सिद्ध हुई हो| तो इस कृति से ही हम ऐसी आशा क्यों करें कि यह निर्दोष है| इसकी विशेषताओं में विषय की विविधता और भाषा- शैली है |
लघुकथा संग्रहों में ऐसे संग्रह नगण्य ही हैं जिनके दूसरा संस्करण भी प्रकाशित हुए हों| इस संग्रह का दूसरा संस्करण प्रकाश में आया है, जो इस बात का द्योतक है कि इस संग्रह को पाठकों ने भरपूर स्नेह दिया है|
मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि अन्य अनेक चर्चित संग्रहों की तरह से नयी पीढ़ी के लिए यह भी एक आदर्श संग्रह साबित होगा|
- कल्पना भट्ट
श्री द्वारकाधीश मंदिर
चौक बाज़ार
भोपाल ४६२००१
मो ९४२४४७३३७७
गुरुवार, 26 दिसंबर 2019
पुस्तक समीक्षा | महानगर की लघुकथाएँ | संपादक : सुकेश साहनी | समीक्षा: कल्पना भट्ट
संपादक : सुकेश साहनी
प्रकाशक : अयन प्रकाशन १/२०, महरौली, नई दिल्ली-११००३०
प्रथम संस्करण : १९९३, द्वितीय संस्करण : २०१९
मूल्य : ३०० रुपये
हिंदी लघुकथा अपनी गति से क्रमशः प्रगति की राह पर चल रही है। लघुकथा आज के समय की माँग भी है और यह भौतिक और मशीनीयुग की जरूरत भी बन चुकी है। लोगों के पास लम्बी-लम्बी कहानी और उपन्यास पढ़ने का समय नहीं है। अनेकानेक लेखकों ने हिंदी- लघुकथा के विकास में एकल संग्रह, संकलन और पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से लघुकथा के विकास में अपना योगदान दिया है।
हिंदी लघुकथा में ऐसे लेखकों में सुकेश साहनी का नाम पांक्तेय है। ‘ठंडी रजाई’ आपकी प्रतिनिधि लघुकथा है। उन्होंने हिंदी- लघुकथा की पहली वेबसाइट www.laghukatha.com का वर्ष 2000 से सम्पादन किया है, वर्ष २००८ से रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ भी उनके साथ इस काम में जुड़ गये। सुकेश साहनी के १२ संपादित लघुकथा संकलनों में ‘महानगर की लघुकथाएँ’ विशेष स्थान रखता है।
जैसे की नाम से विदित होता है कि प्रस्तुत पुस्तक ‘महानगर’ विषय पर आधारित है, इस पुस्तक में महानगर के जीवन से परिचय तो होता ही है, साथ ही महानगर को समझने के लिए एक सकारात्मक दृष्टिकोण भी बनता नज़र आता है। सुकेश साहनी ने अपने सम्पादकीय में अपने अनुभवों को साझा करते हुए महानगर से सम्बंधित कुछ समस्यायों पर अपने विचार प्रकट किये हैं जो विचारणीय है।
प्रस्तुत संकलन को दो भागों में बाँटा गया है, पहले भाग में कुल ९३ लेखकों की लघुकथाएँ प्रकाशित हैं जिनमें चर्चित लघुकथाकारों के साथ-साथ कुछ अचर्चित लेखकों की भी उत्कृष्ट लघुकथाएँ प्रकाशित हुई हैं। दूसरे भाग में परिशिष्ट में प्रथम संस्करण में प्रकाशित रचनाकारों के अतिरिक्त २१ नई लघुकथाओं को भी शामिल किया गया है। युवा पीढ़ी ऐसे संकलनो से न सिर्फ अपने वरिष्ठ रचनाकारों को पढ़कर सीख सकती हैं अपितु शोधार्थियों के लिए भी विषय आधारित संकलन अध्ययन हेतु उपयोगी साबित होते हैं। सुकेश साहनी ने उपर्युक्त पुस्तक का दूसरा संस्करण प्रकाशित करवा कर हिंदी- लघुकथा- जगत् को एक अनमोल और ऐतिहासिक धरोहर प्रदान की है जिसके लिए सुकेश साहनी बधाई के पात्र हैं। जहां तक मेरा अध्ययन है महानगर को लेकर यह प्रथम संकलन है।
इस संकलन का अध्ययन करते समय संपादक की ये पंक्तियाँ अत्यधिक महत्त्वपूर्ण प्रतीत होती हैं, “महानगरों में रहने वाला आदमी कितना प्रतिशत कंप्यूटर में बदल गया है और कहाँ कहाँ उसकी आत्मा का लोप हुआ है। किसी भी समाज को जिवीत रखने के लिए अनिवार्य संवेदना एवं सहानुभूति की भावना की महानगरों में कितनी कमी हुई है।” इसमें प्रकाशित प्रायः लघुकथाकारों ने महानगरों में उपज रही समस्यायों एवं विडम्बनाओं का चित्रण बहुत ही सुंदर ढंग से किया है। मानव मूल्यों हेतु संघर्ष करते लोगों का चित्रण, ‘रिश्ते’ (पृथ्वीराज अरोड़ा), ‘अर्थ’ (कुमार नरेन्द्र) की लघुकथाओं में स्पष्ट देखा जा सकता है जो जितना बड़ा महानगर है उसमे उतनी ही भ्रष्ट व्यवस्था है जिसे ‘सवारी’ (राजेंद्र मोहन त्रिवेदी ‘बंधु’) ,’सुरक्षा’ (श्रीकांत चौधरी), ‘हादसा’ (महेश दर्पण) इत्यादि लघुकथाओं में स्पष्ट है।
आज शिक्षा की जब सबसे ज्यादा आवश्यकता है तो ऐसे समय में शिक्षा संस्थानों में जो भ्रष्टाचार मचा हुआ है वो भी किसीसे छिपा नहीं है, महानगर की इस समस्या पर यूँ तो कई लोगों ने लिखा है किन्तु ‘वज़न’ (सुरेश अवस्थी), ‘शुरुआत’ (शशिप्रभा शास्त्री) की लघुकथाएँ अपने उद्देश्य में अधिक सफल रही हैं। महानगर में नित्यप्रति हो रहे अवमूल्यन पर भी लघुकथाकारों ने अपने-अपने ढंग से सुंदर चित्रण किया है ‘आशीर्वाद’ (पल्लव), ‘कमीशन’( यशपाल वैद, ‘आग’ (भारत भूषण), ‘लंगड़ा’ (पवन शर्मा), ‘बीसवीं सदी का आदमी’ (भारत यायावर) इत्यादि लेखकों ने अपने कौशल से लोहा मनवाया है। अरविन्द ओझा की ‘खरीद’ लघुकथा महानगर में किस प्रकार लोगों का विदेशी वस्तुओं के प्रति आकर्षण बढ़ता जा रहा है उसपर करारी चोट की है और महानगरों में जितनी तेज़ी से आबादी बढ़ रही है, उतनी ही तेज़ी से सभी क्षेत्रों में प्रदूषण भी बढ़ता जा रहा है, जिसे रमाकांत की लघुकथा ‘मृत आत्मा’ में देखा जा सकता है। इतना ही नहीं छोटे शहरों की अपेक्षा महानगरों में क्रूर मानसिकता का भी तेज़ी से विकास हो रहा है जिसे ज्ञानप्रकाश विवेक की लघुकथा ‘जेबकतरा’ में देखा जा सकता है।
अपवाद को छोड़ दें तो महानगरों में प्रायः लोग दोहरा जीवन जी रहे हैं। एक ही बात पर दूसरों के प्रति उनकी विचारधारा कुछ होती है और अपने बारे में उनकी विचारधारा ठीक इसके विपरीत होती है जिसे सतीशराज पुष्करणा की लघुकथा ‘उच्छलन’ में देखा जा सकता है,अर्थाभाव के कारण कैसे व्यक्ति संवेदना शून्य हो जाता है इसे प्रायः महानगरों में देखा जा सकता है इस मानसिकता को महावीर प्रसाद जैन ने अपनी लघुकथा ‘हाथ वाले’ में प्रत्यक्ष किया है।
प्रायः व्यक्ति अच्छी बातों कि अपेक्षा बुरी बातों से जल्दी प्रभावित होता है, यही बात फिल्मों के सन्दर्भ में भी कही जा सकती है, फिल्मों द्वारा उपजी बुराइयों का प्रभाव किस प्रकार बढ़ता जा रहां इसे रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की लघुकथा ‘स्क्रीन-टेस्ट’ में देखा जा सकता है। आज हमारी नज़र जितनी दूर भी जाती है हम देखते हैं कि पैसा बेचा जा रहा है और पैसा ही खरीदा जा रहा है आज हमारे जीवन में पैसा ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बन गया है जिसके आगे रिश्तों के बीच का अपनापन लुप्त होता हुआ प्रतीत होता है इसे बहुत ही सटीक ढंग से दर्शाती है कमल चोपड़ा की लघुकथा ‘किराया’। ऐसी ही श्रेष्ठ लघुकथाएँ लिखने में सुकेश साहनी ने अपना लोहा मनवाया है यहाँ भी ‘काला घोड़ा’ लघुकथा में महानगरीय सभ्यता से अभिशप्त इंसान का चित्रण करके स्वयं को सिद्ध कर दिया है। महानगर में जहाँ अम्बानी जैसे धनाढ्य लोग हैं वहीँ दिहाड़ी पर काम करने वाले लाखों इंसान भी हैं। धनाढ्य लोगों के चक्रव्ह्यू में किस प्रकार आदमी फंसता-सिमटता जा रहा है यह बात गीता डोगरा ‘मीनू’ की लघुकथा ‘हमदर्द’ में भली-भाँति देखा जा सकता है। आज उपभोक्तावादी संस्कृति में महानगर के आदमी को इस बुरी सभ्यता ने इस तरह से जकड़ लिया है कि उसकी प्राथमिकतायें ही बदलती जा रही है। इन्हें हम इस संकलन की प्रायः लघुकथाओं में देख सकते हैं। इसके अतिरिक्त विविध समस्याओं से परिपूर्ण जो लघुकथाएँ आकर्षित करती हैं उनमें डॉ. सतीश दुबे, शंकर पुणताम्बेकर, रमेश बत्रा, प्रबोध गोविल, चित्रा मुद्गल, मधुदीप, बलराम, सुदर्शन, विक्रम सोनी, कृष्ण कमलेश, असगर वजाहत, कृष्णानन्द कृष्ण, मंटो, हीरालाल नागर, सतीश राठी, सुभाष नीरव, पवन शर्मा, राजकुमार गौतम, मधुकांत, कमल कपूर, अशोक लव, भगवती प्रसाद द्विवेदी, बलराम अग्रवाल, रमेश गौतम, मार्टीन जॉन ‘अजनबी’, नीलिमा शर्मा निविया, अनीता ललित, डॉ.सुषमा गुप्ता, सविता मिश्रा, सत्या शर्मा ‘कीर्ति’ इत्यादि की लघुकथाओं की परख की जा सकती है। एक संकलन में इतनी अधिक एक ही विषय पर श्रेष्ठ लघुकथाओं का होना संपादक के सम्पादकीय कौशल को प्रत्यक्ष करता है।
इतना ही नहीं, नामी लघुकथाकारों की लघुकथाओं के साथ-साथ जहाँ उन्होंने नवोदित लघुकथाकारों को स्थान दिया है वहाँ अज्ञात नामों की लघुकथाओं को छापने में भी परहेज़ नहीं किया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि सम्पादक को नामों की अपेक्षा श्रेष्ठ लघुकथाओं से ही मतलब रहा है।
इस संकलन के लिए मैं बिना किसी संकोच के कहना चाहती हूँ कि सम्पादित लघुकथा संकलनों में यह संकलन अपनी विशिष्ट पहचान प्रत्यक्ष करता है। अंत में मैं संपादक को एक अति विनम्र सुझाव देना चाहती हूँ कि वे इसी प्रकार ‘ग्रामीण क्षेत्र की लघुकथाओं’ पर भी काम करें, क्योंकि इस विषय पर लघुकथा में अभी कोई काम हुआ हो ऐसा मेरी जानकारी में नहीं है।
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कल्पना भट्ट
श्री द्वारकाधीश मंदिर,
चौक बाज़ार,
भोपाल-४६२००१.
मो : ९४२४४७३३७७
सोमवार, 18 नवंबर 2019
पुस्तक समीक्षा | लघुकथा कलश - चतुर्थ महाविशेषांक | कल्पना भट्ट
प्रतीक्षा की घड़ी तब खत्म हुई जब हमारे पोस्टमैन साहिब ने ‘लघुकथा कलश का चौथा महाविशेषांक’ मेरे हाथ में थमाया। प्लास्टिक कवर की डबल पैकिंग में लिपटी हुई इस पत्रिका के आकर्षक आवरण ने कोतुहल जगाया। हरे और पीले रंग के इस पृष्ट पर एक फूल बना है जिसकी पंखुड़ियाँ चहुँ ओर उडती नज़र आ रही हैं। अपनी जिज्ञासा को शांत करने हेतु इस फूल की जानकारी एकत्रित करने हेतु गूगल की सहायता ली। इस फूल को सिंहपर्णी कुकरौंधा कहा जाता है, इसे डेंडिलियन(Dandelion) भी कहते हैं।Dandelion एक फ्रैंच शब्दावली Dand de lion है जिसका अर्थ है शेर के दांत और यह नाम इस फूल की पत्तियों के नुकीले आकार के कारण दिया गया है। इसी खोज में इसी तरह के एक और फूल की जानकारी मिली ’शिरीष का फूल’ जिस पर हिन्दी साहित्य के एक महान हस्ताक्षर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी का एक बहुत ही सुंदर ललित निबंध पढ़ने को मिला, जिसमें उन्होंने शिरीष के फूल की तुलना एक ऐसे अवधूत (अनासक्त योगी) से की है जो ग्रीष्म की भीषण तपन सह कर भी खिला रहता है। दोनों ही फूलों की पंखुड़ियाँ बेहद हल्की होती हैं परन्तु दोनों ही अपना-अपना महत्त्व रखते हैं। जहाँ एक तरफ सिंहपर्णी बारहमासी खरपतवार है, जिसकी जड़ें मांसल पर मिटटी में गहराई तक पहुँच जाती है। यह फूल नदी किनारे, तालाब किनारे, बंजर वाली जगहों पर और घर के गमलो में भी उगाया जा सकता है, वहीं दूसरी ओर शिरीष का पेड़ होता है जिसके फूल तो हलके होते हैं, परन्तु इसका फल बहुत कठोर होता है। लघुकथा लेखन और उसकी रचना प्रक्रिया के लिए इस प्रतीकात्मक आवरण को देखकर इस पत्रिका के संपादक योगराज प्रभाकर की सोच, लघुकथा विधा के लिए उनकी चिंता और जीवन संघर्ष को लेकर उनके चिंतन को नमन करने का मन करता है।अब क्योंकि मैं यहाँ ‘लघुकथा कलश’ के चौथे अंक की बात कर रही हूँ सो इस क्रम को आगे बढाते हुए मैं यह कहना चाहूँगी कि हिन्दी लघुकथा के विकास में पत्र-पत्रिकाओं का उल्लेखनीय योगदान रहा है। लघुकथा के पुनरुत्थान काल में ‘सारिका’, ‘तारिका’, ‘शुभतारिका’ ये ऐसी पत्रिकाएँ थीं, जिन्होंने अन्य विधाओं के साथ-साथ लघुकथा को भी प्रमुखता से प्रकाशित किया। इनके पश्चात लखनऊ से ‘लघुकथा’, गाज़ियाबाद से ‘मिनी युग’, इंदौर से ‘आघात’ और बाद में ‘लघुआघात’, पटना से ‘काशें’, ‘लकीरे’, और ‘दिशा’, रायबरेली से ‘साहित्यकार’ कुछ ऐसी पत्रिकाएँ रही हैं जो पुर्णतः लघुकथा को ही समर्पित थीं। इनमें से ‘लघुकथा’, ‘काशें’ और ‘लकीरे’ दो-दो तीन तीन अंकों के प्रकाशन के बाद बंद हो गईं। शेष सभी पत्रिकाएँ लम्बे समय तक निकलती रही। कहना न होगा, इन पत्रिकाओं ने जहाँ श्रेष्ठ लघुकथाएँ दी और लघुकथा को समझने हेतु अनेक अनेक स्तरीय लेख भी छापे बाद में इसी कड़ी में ‘लघुकथा डॉट कॉम' ई पत्रिका ‘संरचना’, और ‘दृष्टि’ पूर्णतः लघुकथा को समर्पित हैं। इसी कड़ी में पटियाला से योगराज प्रभाकर द्वारा सम्पादित ‘लघुकथा कलश’ भी अपना विशेष स्थान बनाने में सफल रही है। ‘लघुकथा कलश’ के अब तक चार महाविशेषांक आ चुके हैं। हर अंक की अपनी एक अलग विशेषता रही है, किन्तु इसका चौथा अंक (जुलाई- दिसम्बर 2019) 360 पृष्ठों में लघुकथा के क्षेत्र में अपनी अति विशेष उपस्थिति दर्ज करवा रहा है, क्योंकि यह अंक ‘रचना प्रक्रिया महाविशेषांक’ है, जिसके संपादक योगराज प्रभाकर और उपसंपादक रवि प्रभाकर हैं। यह अंक इसलिए भी महत्वपूर्ण बन गया है कि रचना प्रक्रिया पर केन्द्रित किसी भी पत्रिका का पहला विशेषांक है, जिसमें 126 लघुकथाकारों की लघुकथाओं के साथ-साथ लेखक द्वारा उनकी रचना प्रक्रिया को भी बताया गया है। यहाँ यह जान लेना बहुत जरूरी है, कि रचना प्रक्रिया क्या है? मेरी दृष्टि में लेखक के भीतर लघुकथा के बीजारोपण से लेकर उसके पुष्पित पल्लवित होने तक प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से चलने वाली प्रक्रिया को रचना प्रक्रिया कहते हैं। 126 लघुकथाकारों के अतिरिक्त ‘जसबीर चावला’ , ‘प्रताप सिंह सोढ़ी’, ‘रूप देवगुण’ और ‘हरभजन खेमकरनी’ की पाँच-पाँच लघुकथाओं के साथ उनकी रचना प्रक्रिया को भी प्रकाशित किया है। यूँ तो प्रायः सभी लेखकों ने अपनी अपनी तरह से अपनी लघुकथाओं की रचना प्रक्रिया को लिखा है किन्तु उनमें से ‘डॉ. सतीशराज पुष्करणा की महान व्यक्ति एवं मन के साँप’ , ‘सुकेश साहनी स्कूल, तोता एवं विजेता’, ‘राधे श्याम भारतीय की मुआवज़ा एवं सम्मान’, ‘रवि प्रभाकर की कुकनूस’, ‘एकदेव अधिकारी की उत्सव एवं भूकंप’, ‘ध्रुव कुमार की मोल-भाव एवं फर्क’, ‘निरंजन बोहा की ताली की गूँज एवं शीशा’ जिनको योगराज प्रभाकर ने पंजाबी से अनुवाद करने का सद्प्रयास किया है, ‘कमल चोपड़ा की मलबे के ऊपर एवं इतनी दूर’, ‘नीरज शर्मा ‘सुधांशु’ की खरीदी हुई औरत एवं दबे पाँव’, ‘मधुदीप की नज़दीक,बहुत नज़दीक एवं यह बात और है_’, ‘योगराज प्रभाकर की फक्कड़ उवाच एवं तापमान’ ‘माधव नागदा की रईस आदमी एवं कुणसी जात बताऊँ’, ‘रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की ऊँचाई एवं ख़ुशबू’ इत्यादि की रचना प्रक्रियाओं से युवा पीढ़ी बहुत कुछ सीख सकती हैं, इनके अतिरिक्त ‘महेन्द्र कुमार’, ‘मधु जैन’, ‘सीमा जैन,’ ‘आशीष दलाल’, ‘कुमार संभव जोशी’, ‘खेमकरण सोमान’, ‘मिन्नी मिश्रा’, ‘मेघा राठी’, ‘पूनम डोगरा’, ‘सोमा सुर’, ‘सविता इंद्र गुप्ता’, इत्यादि लघुकथाकारों की लघुकथाओं के साथ उनकी रचना प्रक्रिया भी इस अंक में विशेष स्थान प्राप्त करती हुई प्रतीत होती हैं।
इनके अलावा अनेक लेखक ऐसे भी हैं जिन्होंने वस्तुतः रचना प्रक्रिया को ठीक से समझा ही नहीं, कुछ लोगों की रचना प्रक्रिया वास्तविकता के स्थान पर बनावटी पन अधिक झलकता है। अच्छे लघुकथाकारों की रचनाप्रक्रिया से नयी पीढ़ी बहुत कुछ सीख सकती है। इसके अतिरिक्त ‘सगरमाथा की गोद से’ (नेपाली लघुकथाएँ) के स्तम्भ में 8 लेखकों की रचनाएं प्रकाशित की गयी हैं, जिनसे नेपाली भाषा में लिखी जा रही लघुकथाओं के विषय में बहुत कुछ जाना जा सकता है। इसके अतिरिक्त 6 पुस्तकों की क्रमशः प्रो. बी.एल .आच्छा. द्वारा लिखित; प्रताप सिंह सोढ़ी की पुस्तक 'मेरी प्रिय लघुकथाएँ', अंतरा करवड़े द्वारा लिखित डॉ. चंद्रा सायता की पुस्तक: 'माटी कहे कुम्हार से', रजनीश दीक्षित द्वारा लिखित आशीष दलाल के लघुकथा संग्रह 'गुलाबी छाया नीले रंग', कल्पना भट्ट द्वारा लिखित डॉ रामकुमार घोटड़, डॉ.लता अग्रवाल की पुस्तक: 'किन्नर समाज की लघुकथाएँ', बी.एल.आच्छा द्वारा लिखित मुरलीधर वैष्णव की लघुकथा पुस्तक 'कितना कारावास' और रवि प्रभाकर द्वारा लिखित मार्टिन जॉन की पुस्तक 'सब खैरियत है (लघुकथा संग्रह)' की समीक्षाओं का प्रकाशन हुआ है, जिन्हें पढ़कर सम्बंधित पुस्तकों का अवलोकन करने को मन होता है। इसके अतिरिक्त लघुकथा कलश तृतीय महाविशेषांक की समीक्षाओं का प्रकाशन हुआ है। इनमें डॉ. ध्रुव कुमार, और डॉ. नीरज शर्मा ‘सुधांशु’ की समीक्षाओं को विशेष रूप से प्रकाशित किया गया है। इनके अलावा ‘मृणाल आशुतोष’, ‘कल्पना भट्ट’, ‘दिव्या राकेश शर्मा’, ‘लाजपत राय गर्ग’ को समीक्षा प्रतियोगिता में क्रमशः प्रथम द्वितीय और तृतीय 1 और 2 समीक्षाओं का भी प्रकाशन किया गया है। यह सभी समीक्षाएं तृतीय महाविशेषांक के साथ पूरा-पूरा न्याय करती प्रतीत होती हैं और इन सब से ऊपर जो विशेष रूप से चर्चा के योग्य है वो है ‘ दिल दिआँ गल्लाँ...’ शीर्षक से प्रकाशित योगराज प्रभाकर का सम्पादकीय जिसमें उन्होंने रचना प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए लिखा है। वस्तुतः रचना प्रक्रिया अभिव्यंजना से अभिव्यक्ति का लम्बा सफ़र है। रचना प्रक्रिया रचनात्मक अनुभूति की प्रक्रिया है, अतः इसके साहित्यिक महत्त्व को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता। इसके अतिरिक्त सम्पादकीय में रचना प्रक्रिया से जुडी अनेक ऐसी बातों की चर्चा है, जो नयी पीढ़ी का मार्गदर्शन कर सकती है। आखरी पृष्ठ पर योगराज प्रभाकर द्वारा काव्यात्मक समीक्षा भी बहुत प्रभावशाली बन पड़ी है।
चार सो पचास रुपये मूल्य के इस अंक का अपना एक ऐतिहासिक महत्त्व बन गया है। जिसे विस्मृत नहीं किया जा सकता। अपनी इन तमाम विशेषताओं के कारण यह अंक प्रत्येक लघुकथाकार के लिए, संग्रहनीय बन गया है।
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कल्पना भट्ट
शुक्रवार, 8 नवंबर 2019
लघुकथा : सद्भाव | लेखक: डॉ. सतीश राज पुष्करणा | समीक्षा : कल्पना भट्ट
आधुनिक विचारों की मीता की शादी हुई तो उसने न तो सिन्दूर लगाया और न ही साड़ी, सलवार-कमीज आदि पहनना स्वीकार किया| वह कुँवारेपन की तरह जीन्स एवं टी-शर्ट ही पहनती|
ससुराल में सभी उसे अजीब नजरों से देखते| मोहल्ले टोले में उसका सिन्दूर न लगाना और उसका जीन्स एवं टी-शर्ट पहनना, चर्चा का विषय बन गया| मीता सुनती किन्तु उसे कभी किसी की भी परवाह नहीं थी| वह कुँवारेपन की तरह ही समय परोफ्फिस जाती और समय पर घर लौट आती|
एक दिन वह आई और सीधे पलंग पर लेट गयी | सास ने बहुत वात्सल्य भाव से पुछा,"क्या बात है बेटे? क्या तबियत खराब है?"
"हाँ ! कुछ बुखार-सा लग रहा है...सिर आदि में भी बहुत दर्द है|"
सास अभी उसकी तबियत के बारे में समझ ही रही थी कि उसके ससुर डॉक्टर ले आये|"
डॉक्टर ने ठीक से देखा और दावा लिख कर चले गए|
ऑफिस से लौटकर सत्यम अभी घर में प्रवेश कर ही रहा थे कि डॉक्टर को घर से निकलते देख सत्यम परेशान हो गया| उसने साथ चल रहे पिता से पूछा, "क्या हुआ? किसकी तबियत खराब है?"
"मीता की... चिंता की कोई बात नहीं|"
इतना सुनते ही सत्यम लपककर मीता के पास पहुँचा, “क्या हुआ मीते?” चिंता की रेखाएँ सत्यम के चेहरे पर स्पष्ट थीं, जिन्हें मीता ने पढ़ लिया|
सत्यम तुरंत पिटा की ओर बढ़ा, “ पापा! प्रेसक्रिप्शन कहाँ है? दीजिये मैं दवाएँ ले आता हूँ|”
“बेटा! मैं जब जा ही रहा हूँ तो तू क्यों परेशान होता है?”
“नहीं पापा! आप लोग मीता को देखें... ,मैं दवा लेकर आता हूँ|” यह कहकर वह बाईक पर स्वर हुआ और बाज़ार की ओर बढ़ गया|”
मीता सोचने लगी! अरे यह कैसा परिवार है ज़रा-सा बुखार होने पर सबने जमीन-आस्मां एक कर दिया| इतना प्यार मुझसे... ख़ुशी से उसकी आँखें छलछला आयीं|
आँखों में पानी देखकर सास ने कहा, “बेटे! तू चिंता न कर, तू जल्दी ठीक हो जायेगी| ले ! तब तक तू चाय पी ले...सत्यम दवा लेकर आता ही होगा|”
“माँ-जी ! मुझे हुआ ही क्या है? ... बुखार एकाध दिन में उतर जायेगा|”
“हिल नहीं बेटा! चुपचाप आराम से पड़ी रहो|”
मीता कुछ नहीं बोली| सत्यम दवाएँ ले आया... जिन्हें खाकर वह सो गयी| दो-तीन दिन बाद जब वह तैयार होकर ऑफिस जाने लगी तो सबके आश्चर्य की सीमा न रही| आज उसकी माँग में सिन्दूर भी था और बदन साड़ी और ब्लाउज से भी ढका था| सास-ससुर के चरण-स्पर्श करके बहु ऑफिस जाने हेतु अपनी गाड़ी की ओर बढ़ गयी|
समीक्षा / कल्पना भट्ट
गुरुवार, 7 नवंबर 2019
डॉ. सतीशराज पुष्करणा की लघुकथा 'दिखावा' 17 भाषाओँ में | कल्पना भट्ट
आदरणीया कल्पना भट्ट जी (Kalpana Bhatt) की फेसबुक पोस्ट से
दिखावा
“देखो! तुम गलत समझ रहे हो| बात ऐसी नहीं है|”
“तो फिर”
“यदि वाकई ऐसी बात है, तो सामने भीख माँग रहे भिखारी को जाकर गले लगाकर दिखाओ|”
“उसे मैं भीख तो दे सकता हूँ, किन्तु इस गंदे भिखारी को अपने गले किसी कीमत पर नहीं लगा सकता| तुम चाहो तो जाकर उससे गले मिलो| या...”
इतना सुनते ही वह कुर्ताधारी युवक लपककर उस भिखारी कि ओर बढ़ गया और जाते ही उसे अपनी बाँहों में भरकर गले से लगा लिया|
इस प्रकार युवक को अपने गले लगते देख पहले तो भिखारी कुछ घबराया, किन्तु फिर कुछ सँभलते हुए बोला, “ बाबु! पेट गले लगाने से नहीं रोटी से भरता है... और रोटी के लिए पैसा चाहिए|”
डॉ. सतीशराज पुष्करणा
ਮਿੰਨੀ ਕਹਾਣੀ: ਦਿਖਾਵਾ
(ਡਾ. ਸਤੀਸ਼ਰਾਜ ਪੁਸ਼ਕਰਣਾ)
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ਇੱਕ ਕਾਫ਼ੀ ਹਾਊਸ ਦੇ ਬਾਹਰ ਵਰਾਂਡੇ ਵਿਚ ਪਏ ਕੁਰਸੀ-ਮੇਜ਼ਾਂ ਤੇ ਬੈਠੇ ਕੁਝ ਨੌਜਵਾਨ ਕਾਫੀ ਪੀਂਦਿਆਂ ਹੋਇਆਂ ਕਿਸੇ ਮੁੱਦੇ ਤੇ ਉੱਚੀ-ਉੱਚੀ ਬਹਿਸ ਵੀ ਕਰ ਰਹੇ ਸਨ. ਬਾਹਰ ਸੜਕ 'ਤੇ ਇੱਕ ਮੰਗਤਾ ਹੱਥ 'ਚ ਕੌਲਾ ਫੜੀ ਭੀਖ ਮੰਗਣ ਲਈ ਖਲੋਤਾ ਸੀ. ਉਨ੍ਹਾਂ 'ਚੋਂ ਇੱਕ ਨੌਜਵਾਨ ਜਿਸਨੇ ਕੁਰਤਾ-ਪਜਾਮਾ ਪਾਇਆ ਹੋਇਆ ਸੀ, ਇੱਕ ਸਫ਼ਾਰੀ ਸੂਟ ਵਾਲੇ ਨੌਜਵਾਨ ਨੂੰ ਕਹਿਣ ਲੱਗਾ,
"ਤੁਸੀਂ ਸਰਮਾਏਦਾਰ ਲੋਕ ਗਰੀਬਾਂ ਨੂੰ ਦੇਖਣਾ ਵੀ ਪਸੰਦ ਨਹੀਂ ਕਰਦੇ। ਹਾਲਾਂਕਿ ਇਨ੍ਹਾਂ ਗਰੀਬਾਂ ਦੀ ਵਜ੍ਹਾ ਤੋਂ ਹੀ ਤੁਸੀਂ ਐਨੇ ਠਾਠ-ਬਾਠ ਨਾਲ ਰਹਿੰਦੇ ਹੋ."
"ਦੇਖ, ਤੂੰ ਗ਼ਲਤ ਸਮਝ ਰਿਹੈਂ। ਅਜਿਹੀ ਕੋਈ ਗੱਲ ਨਹੀਂ ਹੈਂ.."
"ਤੇ ਫੇਰ...? ਜੇਕਰ ਅਜਿਹੀ ਕੋਈ ਗੱਲ ਨਹੀਂ ਤਾਂ ਭੀਖ ਮੰਗ ਰਹੇ ਮੰਗਤੇ ਨੂੰ ਗਲ ਲਾ ਕੇ ਵਿਖਾ।"
"ਮੈਂ ਉਸਨੂੰ ਭੀਖ ਤਾਂ ਦੇ ਸਕਦਾਂ, ਪਰ ਇਸ ਗੰਦੇ ਮੰਗਤੇ ਨੂੰ ਕਿਸੀ ਕੀਮਤ ਤੇ ਗੱਲ ਨਹੀਂ ਲਾ ਸਕਦਾ। ਤੂੰ ਚਾਹੇਂ ਤਾਂ ਉਸਨੂੰ ਗਲ ਲਾ ਸਕਦੈਂ .. ਜਾਂ..."
ਇਹ ਸੁਣਦਿਆਂ ਹੀ ਕੁਰਤੇ ਵਾਲਾ ਨੌਜਵਾਨ ਮੰਗਤੇ ਵੱਲ ਵਧਿਆ ਅਤੇ ਉਸਨੂੰ ਗਲਵੱਕੜੀ ਪਾ ਲਈ.
ਨੌਜਵਾਨ ਨੂੰ ਇੰਝ ਗਲਵੱਕੜੀ ਪਾਉਂਦਿਆਂ ਵੇਖ ਪਹਿਲਾਂ ਤਾਂ ਮੰਗਤਾ ਕੁਝ ਘਾਬਰ ਜਿਹਾ ਗਿਆ, ਫੇਰ ਕੁਝ ਸੰਭਲਦਿਆਂ ਹੋਇਆਂ ਬੋਲਿਆ,
"ਬਾਊ ਜੀ, ਢਿੱਡ ਗਲਵੱਕੜੀ ਨਾਲ ਨੀ, ਰੋਟੀ ਨਾਲ ਭਰਦਾ ਹੈ... 'ਤੇ ਰੋਟੀ ਲਈ ਪੈਸੇ ਚਾਹੀਦੇ ਹੁੰਦੇ ਨੇ."
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(اردو ترجمہ)
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افسانچہ :دکھاوا
" دیکھو،تم غلت سمجھ رہے ہو. ایسی کوئی بات نہیں ہے."
"تو پھر..؟ اگر ایسی کوئی بات نہیں ہے تو اس فقیر کو گلے سے لگاکر دکھاؤ ."
"میں اسکو خیرات تو دے سکتا ہوں، پر اس غلیز فقیر کو گلے نہیں لگا سکتا. تم چاہو تو اسے گلے لگا سکتے ہو...یا..."
یہ سنتے ہی کرتے والا نوجوان فقیر کی جانب بڑھا اور اسکو گلے لگا لیا. نوجوان کو یوں گلے سے لگاتے دیکھ فقیر پہلے تو کچھ گھبرایا، پھر خود کو سمھلتے ہوئے بولا،
بابو! پیٹ گلے لگانے سے نہیں روٹی سے بھرتا ہے، اور روٹی کے لئے پیسہ درکار ہوتا ہے."
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“Noway ! This is not true. You are taking it wrongly.”
“Oh yeah! Really!”
“ If you really say so , then why don’t you go to that beggar and embrace him.”
“I will surely offer him Alms, but no any circumstances can embrace him. Instead if you so feel, you are free to do so. Else…”
As soon as he had finished saying this, the young men in kurta-pajama moved forward towards the beggar and immediately took him into his arms.
Astonished with such a sudden act of the youth, the beggar at first felt a bit hesitant, but then he gathered some confidence and said, “ Sir, One cannot fill his stomach by embracing anyone, rather only food can satisfy his hunger, and for this Money is must,”
Originally written by Dr. Satish Raj Pushkarna
Translated by Kalpana Bhatt
Dated: 3rd Nov, 2019
"જો ભાઈ! આવું કયીંજ નથી, આ ધારણા તારી તદ્દન ખોટી છે."
"અચ્છા!"
"જો તું તારી વાત પર કાયમ છો તો સામે ઉભેલ ભિખારી ને આલિંગન કરીને દેખાડ ."
"એને હૂં નાણા આપી શકું, પરંતુ આવા ગંદા ભિખારી ને કોઈ પણ પરિસ્થિતિ માં આલિંગન તો ન જ કરી શકું. તારી ઈચ્છા હોય તો તું કરી આવ. અથવા તો..."
આ સાંભળતાંજ કુર્તા પેહરેલ નવ-યુવક લપકી ને એ ભિખારી પાસે ગયો અને એને પોતાના હૃદય થી લગાડી લીધું.
આવા પ્રકારતી આલિંગન થયેલ ભિખારી પેહલા તો થોડો ઘભ્રાયો, પણ થોડાજ ક્ષણોમાં એણે સ્વયમ ને સાંભળી લીધું અને એને કહ્યું, " સાહેબ , આલિંગન કરીને કોઈ દિવસ પેટ ભરાતું નથી, એની માટે રોટલો જોઈએ, અને રોટલા માટે નાણા જોઈએ."
અનુવાદ : કલ્પના ભટ્ટ
ભોપાલ
"जो तू साँची कह रह्यो है तो जा वा भिखमंगे कू गले लगाय आ। नहीं तो..."
"मैं वाकु पैसा भीख में दे सकूँ, पर वाकु गले तो कभी भी नहीं लगा सकूँगो। तेरी इच्छा होय तो तू ही लगा ले वाकू अपने गले।"
ये सुनते ही वो कृता वालो छोरा उठ्यो और लपकके वा भिखारी कू गले लगा लियो।
या प्रकार सूं गले लगावतो देख पहले तो वो भिखारी तनिक डर गयो पर कछु देर बाद वाने खुद कु संभलयों और वा कुर्ता वाले छोरा सूं कह्यी," बाबू! ऐसे गले लगावे सूं पेट कोइको पेट नहीँ भरे, वाके लिये रोटी चहिये, और रोटी के लानी पैसा चहिये।"
" हे बघ! ही तुझी चुकीची समजूत आहे."
"तर मग"
"जर तू खरा आहेस तर एक काम कर, त्या समोरच्या भिका-याला एक घट्ट मिठी मारुन दाखव."
"नाही! मी त्याला भीक घालिन पण कोणत्या ही परिस्थितीत मिठी ..अशक्य आहे हे. अरे! असे कर तूच घे ना त्याला मिठीत.."
हे ऐकता क्षणी कुर्ता-पायजामामधील तरुण धावत त्या भिकारी कडे गेला आणी आपले बाहू पसरून त्याला मिठीत घेतले.
अनुवाद: नयना(आरती)कानिटकर
मगही अनुवाद- अभिलाषा सिंह (पटना)
"देख अ!तू गलत समझ रहल ह ,बात अइसन नय है"
"त फेर?"अगर सच में अइसन बात नैय है त सामने भीख माँग रहल भिखारी के जाके गला से लगाके देखाब त।"
"ओकरा हम भीख तो दे सकलिओ ह,लेकिन ई घिनाएल
भिखरिया के अप्पन गला से कौनो कीमत पर नैय लगा सकलिओ ह।तू चाह ह त जाके ओकरा से गला मिल ल।"
एतना सुनते ही ऊ कुरता वाला युवक लपकके ऊ भिखारी दने बढ़ गेलै ।जैते ही ओकरा अप्पन
बाजू में भरके गले से लगा लेलकै।
ऊ युवकवा के ऐसे अप्पन गला से लगते देख के पहिले तो भिखरिया तनी घबरा गेलै,बाकी फेर तनी सँभलते कहलकै-"बाबू,पेटबा तो गला लगाबे से नैय, रोटी से भरतय ......आ रोटी लागी त पैसा चाही न।
लघुकथा क्रमांक -2 पेज 48
अभ्यासक्रम -०१ डॉ. सतीशराज पुष्करणा जीक लघुकथा सभ पर
एकटा कॉफ़ी हाउसक बाहर बरंडा मे लागल मेज-कुर्सी पर बैसल किछ युवक कॉफ़ी पीलाक संग-संग किछ ऊँच स्वर मे कोनो विषय पर बहस सेहो क' रहल छलाह। बाहर मेन रोड पर एकटा भिखमंगा हाथ मे कटोरा लेने भीखक उद्देश्य सँ ठाड़ छल| ओहि युवक सभ मे सँ एकटा युवक, जे कुर्ता-पैजामा पहिरने छला,एक सफारी सूट पहिरने युवक सँ कह' लागल, “तु पूंजीपति सभ गरीब-गुरबा केँ' देखनाय पसंद नहि करैत छ'|” जखन कि यैह गरीबक कारणेँ तु सभ एहि ठाठ-बाट सँ रहै छैं| नहि त'...|”
“देख! तु गलत बुझि रहल छैं | बात ऐहन नहि छैक|”
“तखन फेर”
“जौं सही मे एहन बात अछि, त' सोझा मे भीख माँगि रहल भिखमंगा केँ जा क' गरदनि सँ लगा क' देखा”
“ओकरा हम भीख त' द' सकैत छी, मुदा एहि मैल भिखारी केँ अपन गरदनि सँ कोनो कीमत पर नहि लगा सकै छी| तु चाहै छैं त' जा केँ ओकरा गरदनि सँ लगा| या...”
एतेक सुनिते कुर्ताधारी युवक लपकि क' ओहि भिखमंगा दिस बढि गेल आ जाइते ओकरा अपन बाँहि मे भरि गरदनि सँ लगा लेलक|
एहि तरहें युवक केँ अपन गरदनि लागैत देख पहिने त' भिखारी किछ डरा गेल, मुदा फेर किछ सम्हरैत बाजल, “ बाबु! पेट गरदनि लगेला सँ नहि रोटी सँ भरैत अछि... आ रोटी कलेल पाय चाही|”
Originally written by Dr. Satish Raj Pushkarna
Translated by Shri Shivam Jha in Maithali
માં ચર્ચા કર્ધા વા. બાર મેન રોડ તે હકડો ભિખારી પોતેજે હથ મેં હકડો વાટકો પકડી ને ભીક મન્ગેલાય ઉભો વો. હેન મળે યુવાનો મેં હકડો સાધારણ જબ્ભે-પય્જામે વો ,હેનજી સામે હકડો પૈસા વાળો યુવાન સફારી મેં વો, પેલ્લો ગુસ્સે થી બોલ્યો,' આયીં મળે પૈસા વાળા ગરીબ સામે નેરેલાય કડે પણ તૈયાર નાથા થિયો, આયીં મળે ભૂલી વનોતા કે ગરીબ જેજ લીધે આયી મળે ઠાઠ થી રયી શકો તા.હી ન હોત તો...'
'ના, હેડો નાય, તું જે વિચારેતો ઈ તદ્દન ખોટો આય.'
'સચ્ચે! તો પછી કેડો આય?'
'જો તું સચ્ચો અયીયે તો હુડા વનીને ઉ ભિખારી કે બચ્ચી ભરીને અચ.'
'નેર , આઉ હેનકે ભીખ ડયી સકા, પણ હેટલે ગંદે ભિખારી કે બચ્ચી ન ભરી શકા.તું છુટ્ટો અયીએ, તોકે કરનું હોય તો કરી અચ, મૂંજી છૂટ આય, નયીતો..'
હેટલો સુણી ને જબ્ભો વાળો યુવાન ઉઠ્યો અને હેન ભિખારી પાસે વનીને બચ્ચી ભરયી.
એકદમ ઓચિંતો હેડો નેરીને ઉ ભિખારી પેલા તો થોડો ધારજી વ્યો પણ પછી પોતે કે સંભાળી ગણયી, અને બોલ્યો,' ભા, બચ્ચી ભરીને પેટ ના ભરાય, હેન લાય ખાધે જો ખપ્પે, રોટલા ખપ્પન, અને ખાદેલાય, પૈહ્યા ખપ્પન.'
અનુવાદ; કલ્પના ભટ્ટ
" त फिरू ।"
" जदी सच में अइसन बात बा, त सोझा भीख मांगत ऊ भिखारी के जाके गला लगा के देखाव s।"
"നോക്കൂ! നിങ്ങൾ അത് തെറ്റായി മനസ്സിലാക്കുന്നു. ഇത് അങ്ങനെയല്ല. "
"പിന്നെ"
"ശരിക്കും അങ്ങനെയാണെങ്കിൽ, പോയി ഭിക്ഷക്കാരൻ നിങ്ങളുടെ മുൻപിൽ യാചിക്കുന്നത് കാണിക്കുക."
"എനിക്ക് അദ്ദേഹത്തിന് ദാനം നൽകാം, പക്ഷേ ഈ വൃത്തികെട്ട ഭിക്ഷക്കാരനെ എനിക്ക് എന്ത് വിലകൊടുത്തും സ്വീകരിക്കാൻ കഴിയില്ല. നിങ്ങൾക്ക് വേണമെങ്കിൽ പോയി അവനെ കെട്ടിപ്പിടിക്കുക. അല്ലെങ്കിൽ… ”
ഇതുകേട്ട കുർത്തയുമായി യുവാവ് ഭിക്ഷക്കാരന്റെ അടുത്തേക്ക് ഓടിക്കയറി കൈകളിൽ നിറച്ച് പോകുമ്പോൾ കെട്ടിപ്പിടിച്ചു.
അങ്ങനെ, യുവാവ് അവനെ കെട്ടിപ്പിടിക്കുന്നത് ആദ്യം കണ്ടപ്പോൾ യാചകന് അല്പം പരിഭ്രാന്തി വന്നു, പക്ഷേ അയാൾ "ബാബു! ആലിംഗനം അല്ല, ആമാശയം അപ്പം നിറയ്ക്കുന്നു ... ബ്രെഡിന് പണം ആവശ്യമാണ്.
ಕಾಫಿ ಮನೆಯ ಹೊರಗೆ, ವರಾಂಡಾದಲ್ಲಿ ಟೇಬಲ್-ಚೇರ್ಗಳ ಮೇಲೆ ಕುಳಿತಿದ್ದ ಕೆಲವು ಯುವಕರು ಕಾಫಿ ಕುಡಿಯುವುದರ ಜೊತೆಗೆ ಕೆಲವು ವಿಷಯದ ಬಗ್ಗೆ ದೊಡ್ಡ ಧ್ವನಿಯಲ್ಲಿ ವಾದಿಸುತ್ತಿದ್ದರು. ಮುಖ್ಯ ರಸ್ತೆಯ ಹೊರಗೆ, ಭಿಕ್ಷುಕನ ಉದ್ದೇಶಕ್ಕಾಗಿ ಭಿಕ್ಷುಕನು ಕೈಯಲ್ಲಿ ಬಟ್ಟಲಿನೊಂದಿಗೆ ನಿಂತನು. ಕುರ್ತಾ-ಪೈಜಾಮ ಧರಿಸಿದ ಯುವಕರೊಬ್ಬರು, ಸಫಾರಿ ಸೂಟ್ ಧರಿಸಿದ ಯುವಕನಿಗೆ, "ನೀವು ಬೂರ್ಜ್ವಾಸಿ ಬಡವರನ್ನು ನೋಡಲು ಇಷ್ಟಪಡುವುದಿಲ್ಲ" ಎಂದು ಹೇಳಿದರು. ಆದರೆ ಈ ಬಡ ಜನರ ಕಾರಣದಿಂದಾಗಿ ನೀವು ಈ ಚಿಕ್ ರೀತಿಯಲ್ಲಿ ವಾಸಿಸುತ್ತಿದ್ದೀರಿ ಬಿ ಇಲ್ಲದಿದ್ದರೆ… ”
"ನೋಡಿ! ನೀವು ಅದನ್ನು ತಪ್ಪಾಗಿ ಪಡೆಯುತ್ತಿದ್ದೀರಿ. ಈ ರೀತಿಯಾಗಿಲ್ಲ. "
"ನಂತರ"
"ಅದು ನಿಜವಾಗಿದ್ದರೆ, ಹೋಗಿ ಭಿಕ್ಷುಕ ಭಿಕ್ಷಾಟನೆಯನ್ನು ನಿಮ್ಮ ಮುಂದೆ ತೋರಿಸಿ."
"ನಾನು ಅವನಿಗೆ ಭಿಕ್ಷೆ ನೀಡಬಲ್ಲೆ, ಆದರೆ ಈ ಕೊಳಕು ಭಿಕ್ಷುಕನನ್ನು ನಾನು ಯಾವುದೇ ವೆಚ್ಚದಲ್ಲಿ ಸ್ವೀಕರಿಸಲು ಸಾಧ್ಯವಿಲ್ಲ. ನಿಮಗೆ ಬೇಕಾದರೆ, ಹೋಗಿ ಅವನನ್ನು ತಬ್ಬಿಕೊಳ್ಳಿ. ಅಥವಾ… ”
ಇದನ್ನು ಕೇಳಿದ ಕುರ್ತಾ ಹೊಂದಿದ್ದ ಯುವಕ ಭಿಕ್ಷುಕನ ಕಡೆಗೆ ಧಾವಿಸಿ ಅದನ್ನು ತನ್ನ ತೋಳುಗಳಲ್ಲಿ ತುಂಬಿಸಿ ಅವನು ಹೋಗುತ್ತಿದ್ದಂತೆ ತಬ್ಬಿಕೊಂಡನು.
ಹೀಗೆ, ಮೊದಲು ಯುವಕನು ಅವನನ್ನು ತಬ್ಬಿಕೊಳ್ಳುವುದನ್ನು ನೋಡಿದ ಭಿಕ್ಷುಕನಿಗೆ ಸ್ವಲ್ಪ ಬೇಸರವಾಯಿತು, ಆದರೆ ನಂತರ ಅವನು "ಬಾಬು! ಹೊಟ್ಟೆಯು ಬ್ರೆಡ್ನಿಂದ ತುಂಬುತ್ತದೆ, ತಬ್ಬಿಕೊಳ್ಳುವುದರಿಂದ ಅಲ್ಲ ... ಮತ್ತು ಬ್ರೆಡ್ಗೆ ಹಣದ ಅಗತ್ಯವಿದೆ. "
ஒரு காபி ஹவுஸுக்கு வெளியே, வராண்டாவில் மேஜை நாற்காலிகளில் அமர்ந்திருந்த சில இளைஞர்கள் காபி குடித்துக்கொண்டிருந்தார்கள், அதே போல் ஏதோ ஒரு தலைப்பில் உரத்த குரலில் வாதிட்டனர். பிரதான சாலையில் வெளியே, ஒரு பிச்சைக்காரன் பிச்சை எடுக்கும் நோக்கத்திற்காக கையில் ஒரு கிண்ணத்துடன் நின்றான். குர்தா-பைஜாமா அணிந்திருந்த இளைஞர்களில் ஒருவர், சஃபாரி சூட் அணிந்த இளைஞரிடம், "நீங்கள் முதலாளித்துவ மக்கள் ஏழைகளைப் பார்க்க விரும்பவில்லை" என்று கூறினார். உள்ளன | இல்லையென்றால்… ”
"பாருங்கள்! நீங்கள் அதை தவறாகப் பெறுகிறீர்கள். இது அப்படி இல்லை. "
"பின்னர்"
"உண்மையில் அப்படி இருந்தால், போய் பிச்சைக்காரன் உங்கள் முன் பிச்சை எடுப்பதைக் காட்டு."
"நான் அவருக்கு பிச்சை கொடுக்க முடியும், ஆனால் இந்த அழுக்கு பிச்சைக்காரனை எந்த விலையிலும் என்னால் தழுவ முடியாது. நீங்கள் விரும்பினால், சென்று அவரை அணைத்துக்கொள்ளுங்கள். அல்லது… ”
இதைக் கேட்டதும், குர்தாவுடன் வந்த இளைஞன் பிச்சைக்காரனை நோக்கி விரைந்து வந்து அதை தன் கைகளில் நிரப்பி அவன் போகும்போது கட்டிப்பிடித்தான்.
இவ்வாறு, முதலில் அந்த இளைஞன் அவரைக் கட்டிப்பிடிப்பதைப் பார்த்ததும், பிச்சைக்காரன் கொஞ்சம் பதற்றமடைந்தான், ஆனால் பின்னர் அவன், “பாபு! கட்டிப்பிடிப்பதன் மூலம் அல்ல, வயிற்றை ரொட்டியால் நிரப்புகிறது ... மேலும் ரொட்டிக்கு பணம் தேவைப்படுகிறது
ఒక కాఫీ హౌస్ వెలుపల, వరండాలోని టేబుల్-కుర్చీలపై కూర్చున్న కొంతమంది యువకులు కాఫీ తాగుతూ, కొన్ని అంశాలపై పెద్ద గొంతులో వాదిస్తున్నారు. ప్రధాన రహదారి వెలుపల, యాచించే ఉద్దేశ్యంతో ఒక బిచ్చగాడు చేతిలో ఒక గిన్నెతో నిలబడ్డాడు. కుర్తా-పైజామా ధరించిన యువకులలో ఒకరు సఫారీ సూట్ ధరించిన యువకుడితో, "మీరు బూర్జువా పేదలను చూడటం ఇష్టం లేదు" అని అన్నారు. అయితే ఈ పేద ప్రజల కారణంగా మీరు ఈ చిక్ పద్ధతిలో నివసించారు ఉన్నాయి | లేకపోతే… ”
"చూడండి! మీరు తప్పు చేస్తున్నారు. ఇది అలా కాదు. "
"అప్పుడు"
"అది నిజంగా అలా అయితే, వెళ్లి మీ ముందు బిచ్చగాడు యాచించడాన్ని చూపించు."
"నేను అతనికి భిక్ష ఇవ్వగలను, కాని నేను ఈ మురికి బిచ్చగాడిని ఏ ధరనైనా స్వీకరించలేను. మీకు కావాలంటే, వెళ్లి అతన్ని కౌగిలించుకోండి. లేదా… ”
ఇది విన్న కుర్తాతో ఉన్న యువకుడు బిచ్చగాడి వైపు పరుగెత్తుకుంటూ చేతుల్లో నింపి వెళ్ళేటప్పుడు కౌగిలించుకున్నాడు.
ఆ విధంగా, మొదట ఆ యువకుడు తనను కౌగిలించుకోవడం చూసి, బిచ్చగాడు కొంచెం భయపడ్డాడు, కాని అప్పుడు అతను "బాబు! కడుపు రొట్టెతో నింపుతుంది, కౌగిలించుకోవడం ద్వారా కాదు ... రొట్టెకి డబ్బు అవసరం. "
एक छोरा जो सादा-भोला दिख्ये था अपणे कपड़े लत्ते ते वो बोल्या दूसरे छोरे ते जो अपटूडेट बण रह्या था सूट-बूट पहण के - के भाई तम बड़े लोग(यानी पींस्यां आळे लोग) ते इन गरीब आदमियां ने देख के कति राज्जी कोन्या जबकि ये ही गरीब लोग थारे कारखाने में काम करके तमने बड़े साहब बणावं हैं।
उसकी बात सुणके वो सूट-बूट आळा छोरा बोल्या - दखे भाई इसी बात ना से।
त फैर किसी बात सै भाई - कुड़ता पजामे आळा छोरा बोल्या .. जै इसी बात ना सै त उस भिखारी कै जा के गले मिल के दिखा।
सूट-बूट आळा बोल्या- भाई देख, मैं उसने भीख दे सकूं हूं पर इन गंदे कपड़्यां में अपने गले ना ला सकता। तनै गले मिलना से तो जा कै मिल ले भाई।
इतणी सुणते ही कुड़ते-पजामे आळा छोरा भाजकै उस भिखारी कै गले लाग्या। भिखारी पहलां तै थोड़ा डरग्या फैर बोल्या - ओ बाबू जी.. गले मिलकै म्हारा पेट कोन्या भरैगा, पेट भरण तईं पईसा चाहिए सै।
हरियाणवी में रूपांतरित करण आळी प्रवीन मलिक बेबे
দেখানো
একটি কাফী হাউসের বারান্দার আগে রাখা কুর্সি আর টেবিলে বোসে অনেক যুবক জোর জোর করে কিছু টপিক উওপর চর্চা করছিলেন।
হঠাৎ বাইরে মেন রোড উপরের একটি ভিখারী হাথে বাটি নিয়ে ভিক্ষার উদেশায় দাড়িয়ে ছিলো।
সেই যুবককে মধায় এক যুবক কুর্তা পায়জামা পড়ে ছিলো, এক সাফারী সুট পড়া যুবক কে বলে,", তোর মতন ক্যাপিটালিস্ট লোগ গরীব জন কে দেখতে চাও না "।
তোমরা এই গরীব লোকের জন্য হী খুব আরাম করে থাকো বর্না,,,, ।
অন্ন বন্দু বলেন "দেখো! তুমি আমাকে ভুল বুঝছো। ইমানী কিছু ব্যাপার নয়"।
"তো"
"যদি কোনো কোথায় নেই, তো সামনে দাঁড়িয়ে ভিখারী কে হাক করতে পারেন।
না আমি কোনও কোস্ট গলা লাগতে পারবো কিন্তু যদি তুমি চাও তুম ওকে হাক কর যা,,,"
হঠাৎ উর কথা সুনে কুর্তা পায়জামা পড়ে জে যুবক টি ছিলো সে ঊঠ জয়ে আর ভিখারীর কাছে যায় আর ওকে ধরে নিয়ে নিজের আলিঙ্গন পাশে বন্ধে রাখে । কুর্তা পড়ে যুবক কে আলিঙ্গন করতে দেখে ভিখারী ভয় পেয়ে গেল আর মুখ সমলিয় বলে,",
বাবু! আমার পেট গলা জড়িয়ে লাগলে ভরবে না,,, আমকে রুটি জন্য পৌয়েশা চাই।"