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गुरुवार, 26 दिसंबर 2019

पुस्तक समीक्षा | महानगर की लघुकथाएँ | संपादक : सुकेश साहनी | समीक्षा: कल्पना भट्ट


महानगर की लघुकथाएँ
संपादक : सुकेश साहनी
प्रकाशक : अयन प्रकाशन १/२०, महरौली, नई दिल्ली-११००३०
प्रथम संस्करण : १९९३, द्वितीय संस्करण : २०१९
मूल्य : ३०० रुपये



हिंदी लघुकथा अपनी गति से क्रमशः प्रगति की राह पर चल रही है। लघुकथा आज के समय की माँग भी है और यह  भौतिक और मशीनीयुग की जरूरत भी बन चुकी है। लोगों के पास लम्बी-लम्बी कहानी और उपन्यास पढ़ने का समय नहीं है। अनेकानेक लेखकों ने हिंदी- लघुकथा के विकास में  एकल संग्रह, संकलन और पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से लघुकथा के विकास में अपना योगदान दिया है।

हिंदी लघुकथा में ऐसे लेखकों में सुकेश साहनी का नाम पांक्तेय है।  ‘ठंडी रजाई’ आपकी प्रतिनिधि लघुकथा है। उन्होंने हिंदी- लघुकथा की पहली वेबसाइट www.laghukatha.com  का वर्ष 2000 से सम्पादन किया है, वर्ष २००८  से रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ भी उनके साथ इस काम में जुड़ गये। सुकेश साहनी के  १२ संपादित  लघुकथा संकलनों में ‘महानगर की लघुकथाएँ’ विशेष स्थान रखता है।

जैसे की नाम से विदित होता है कि प्रस्तुत पुस्तक ‘महानगर’ विषय पर आधारित है, इस पुस्तक में महानगर के जीवन से परिचय तो होता ही है, साथ ही  महानगर को समझने के लिए एक सकारात्मक दृष्टिकोण भी बनता नज़र आता है। सुकेश साहनी ने अपने सम्पादकीय में अपने अनुभवों को साझा करते हुए महानगर से सम्बंधित कुछ समस्यायों पर अपने विचार प्रकट किये हैं जो विचारणीय है।

प्रस्तुत संकलन  को दो भागों  में बाँटा गया है, पहले भाग में कुल ९३ लेखकों की लघुकथाएँ प्रकाशित हैं  जिनमें   चर्चित लघुकथाकारों के साथ-साथ कुछ अचर्चित लेखकों की भी उत्कृष्ट लघुकथाएँ प्रकाशित हुई हैं। दूसरे भाग में   परिशिष्ट में प्रथम संस्करण में प्रकाशित रचनाकारों के अतिरिक्त  २१ नई लघुकथाओं को भी शामिल किया गया है। युवा पीढ़ी ऐसे संकलनो से न सिर्फ अपने वरिष्ठ रचनाकारों को पढ़कर सीख सकती हैं अपितु शोधार्थियों के लिए भी विषय आधारित संकलन  अध्ययन हेतु उपयोगी साबित होते हैं। सुकेश साहनी ने उपर्युक्त पुस्तक का दूसरा संस्करण प्रकाशित करवा कर हिंदी- लघुकथा- जगत् को एक अनमोल और ऐतिहासिक धरोहर प्रदान की है जिसके लिए सुकेश साहनी बधाई के पात्र हैं। जहां तक मेरा अध्ययन है महानगर को लेकर यह प्रथम संकलन है।

इस संकलन का अध्ययन करते समय संपादक की ये पंक्तियाँ अत्यधिक महत्त्वपूर्ण प्रतीत होती हैं, “महानगरों में रहने वाला आदमी  कितना प्रतिशत कंप्यूटर में बदल गया है और कहाँ कहाँ उसकी आत्मा का लोप हुआ है। किसी भी समाज को जिवीत रखने के लिए अनिवार्य संवेदना एवं सहानुभूति की भावना की महानगरों में कितनी कमी हुई है।” इसमें प्रकाशित प्रायः लघुकथाकारों ने महानगरों में उपज रही समस्यायों एवं विडम्बनाओं का चित्रण बहुत ही सुंदर ढंग से किया है। मानव मूल्यों हेतु संघर्ष करते लोगों का चित्रण, ‘रिश्ते’ (पृथ्वीराज अरोड़ा), ‘अर्थ’ (कुमार नरेन्द्र) की लघुकथाओं में स्पष्ट देखा जा सकता है जो जितना बड़ा महानगर है उसमे उतनी ही भ्रष्ट व्यवस्था है जिसे ‘सवारी’ (राजेंद्र मोहन त्रिवेदी ‘बंधु’) ,’सुरक्षा’ (श्रीकांत चौधरी), ‘हादसा’ (महेश दर्पण) इत्यादि लघुकथाओं में स्पष्ट है।

आज शिक्षा की जब सबसे ज्यादा आवश्यकता है तो ऐसे समय में शिक्षा संस्थानों में जो भ्रष्टाचार मचा हुआ है वो भी किसीसे छिपा नहीं है, महानगर की  इस समस्या पर यूँ तो कई लोगों ने लिखा है किन्तु ‘वज़न’ (सुरेश अवस्थी), ‘शुरुआत’ (शशिप्रभा शास्त्री) की लघुकथाएँ अपने उद्देश्य में अधिक सफल रही हैं। महानगर में नित्यप्रति हो रहे अवमूल्यन पर भी लघुकथाकारों ने अपने-अपने ढंग से सुंदर चित्रण किया है ‘आशीर्वाद’ (पल्लव), ‘कमीशन’( यशपाल वैद, ‘आग’ (भारत भूषण), ‘लंगड़ा’ (पवन शर्मा), ‘बीसवीं सदी का आदमी’ (भारत यायावर) इत्यादि लेखकों ने अपने कौशल से लोहा मनवाया है। अरविन्द ओझा की ‘खरीद’ लघुकथा महानगर में किस प्रकार लोगों का विदेशी वस्तुओं के प्रति  आकर्षण बढ़ता जा रहा है उसपर करारी चोट की है और महानगरों में जितनी तेज़ी से आबादी बढ़ रही है, उतनी ही तेज़ी से सभी क्षेत्रों में प्रदूषण भी बढ़ता जा रहा है, जिसे रमाकांत की लघुकथा ‘मृत आत्मा’ में देखा जा सकता है। इतना ही नहीं छोटे शहरों की अपेक्षा महानगरों में क्रूर मानसिकता का भी तेज़ी से विकास हो रहा है जिसे ज्ञानप्रकाश विवेक की लघुकथा ‘जेबकतरा’ में देखा जा सकता है।

अपवाद को छोड़ दें तो महानगरों में प्रायः लोग दोहरा जीवन जी रहे हैं। एक ही बात पर दूसरों के प्रति उनकी विचारधारा कुछ होती है और अपने बारे में उनकी विचारधारा ठीक इसके विपरीत होती है जिसे सतीशराज पुष्करणा की लघुकथा  ‘उच्छलन’ में देखा जा सकता है,अर्थाभाव के कारण कैसे व्यक्ति संवेदना शून्य हो जाता है इसे प्रायः महानगरों में देखा जा सकता है इस मानसिकता को महावीर प्रसाद जैन ने अपनी लघुकथा ‘हाथ वाले’ में प्रत्यक्ष किया है।

प्रायः व्यक्ति अच्छी बातों कि अपेक्षा बुरी बातों से जल्दी प्रभावित होता है, यही बात फिल्मों के सन्दर्भ में भी कही जा सकती है, फिल्मों द्वारा उपजी बुराइयों का प्रभाव किस प्रकार बढ़ता जा रहां  इसे रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की लघुकथा ‘स्क्रीन-टेस्ट’ में देखा जा सकता है। आज हमारी नज़र जितनी दूर भी जाती है हम देखते हैं कि पैसा बेचा जा रहा है और पैसा ही खरीदा जा रहा है आज हमारे जीवन  में पैसा ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बन गया है जिसके आगे रिश्तों के बीच का अपनापन लुप्त होता हुआ प्रतीत होता है इसे बहुत ही सटीक ढंग से दर्शाती है कमल चोपड़ा की लघुकथा ‘किराया’। ऐसी ही श्रेष्ठ लघुकथाएँ लिखने में सुकेश साहनी ने अपना लोहा मनवाया है यहाँ भी ‘काला घोड़ा’ लघुकथा में महानगरीय सभ्यता से अभिशप्त इंसान का चित्रण करके स्वयं को सिद्ध कर दिया है। महानगर में जहाँ अम्बानी जैसे धनाढ्य लोग हैं वहीँ दिहाड़ी पर काम करने वाले लाखों इंसान भी हैं। धनाढ्य लोगों के चक्रव्ह्यू में किस प्रकार आदमी फंसता-सिमटता जा रहा है यह बात गीता डोगरा ‘मीनू’ की लघुकथा ‘हमदर्द’ में भली-भाँति देखा जा सकता है। आज उपभोक्तावादी संस्कृति में महानगर के आदमी को  इस बुरी सभ्यता ने इस तरह से जकड़ लिया है कि उसकी प्राथमिकतायें ही बदलती जा रही है। इन्हें हम इस संकलन की प्रायः लघुकथाओं में देख सकते हैं। इसके अतिरिक्त विविध समस्याओं से परिपूर्ण जो लघुकथाएँ आकर्षित करती हैं उनमें डॉ. सतीश दुबे, शंकर पुणताम्बेकर, रमेश बत्रा, प्रबोध गोविल, चित्रा मुद्गल, मधुदीप, बलराम, सुदर्शन, विक्रम सोनी, कृष्ण कमलेश, असगर वजाहत, कृष्णानन्द कृष्ण, मंटो, हीरालाल नागर, सतीश राठी, सुभाष नीरव, पवन शर्मा, राजकुमार गौतम, मधुकांत, कमल कपूर, अशोक लव, भगवती प्रसाद द्विवेदी, बलराम अग्रवाल, रमेश गौतम, मार्टीन जॉन ‘अजनबी’, नीलिमा शर्मा निविया, अनीता ललित, डॉ.सुषमा गुप्ता, सविता मिश्रा, सत्या शर्मा ‘कीर्ति’ इत्यादि की लघुकथाओं की परख की जा सकती है। एक संकलन में इतनी अधिक एक ही विषय पर श्रेष्ठ लघुकथाओं का होना संपादक के सम्पादकीय कौशल को प्रत्यक्ष करता है।

इतना ही नहीं, नामी लघुकथाकारों की लघुकथाओं के साथ-साथ जहाँ उन्होंने नवोदित लघुकथाकारों को स्थान दिया है वहाँ अज्ञात नामों की लघुकथाओं को छापने में भी परहेज़ नहीं किया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि सम्पादक को नामों की अपेक्षा श्रेष्ठ लघुकथाओं से ही मतलब रहा है।


इस संकलन के लिए मैं बिना किसी संकोच के कहना चाहती हूँ कि सम्पादित लघुकथा संकलनों में यह संकलन अपनी विशिष्ट पहचान प्रत्यक्ष करता है। अंत में मैं संपादक को एक अति विनम्र सुझाव देना चाहती हूँ कि वे इसी प्रकार ‘ग्रामीण क्षेत्र की लघुकथाओं’ पर भी काम करें, क्योंकि इस विषय पर लघुकथा में अभी कोई काम हुआ हो ऐसा मेरी जानकारी में नहीं है।



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कल्पना भट्ट 
श्री द्वारकाधीश मंदिर, 
चौक बाज़ार, 
भोपाल-४६२००१. 
मो : ९४२४४७३३७७

बुधवार, 25 दिसंबर 2019

सुकेश साहनी की लघुकथाएँ नहीं पढ़नी चाहिए... | रवि प्रभाकर

सुकेश साहनी जी का लघुकथा संग्रह ‘साइबरमैन‘ और भगीरथ परिहार जी रचित ‘कथाशिल्पी सुकेश साहनी की सृजन-संचेतना‘ का परिचय रवि प्रभाकर जी ने अलग ही अंदाज में दिया है। रवि जी अपनी विस्तृत समीक्षा के लिए जाने जाते हैं, अपने अनूठे अंदाज से उन्होंने इन पुस्तकों को पढ़ने के लिए प्रेरित किया है। आइये पढ़ते हैं:

सुकेश साहनी की लघुकथाएँ नहीं पढ़नी चाहिए... | रवि प्रभाकर 

दिनांक 6 दिसंबर को आदरणीय सुकेश साहनी जी द्वारा भेजी पुस्तकें ‘साइबरमैन‘ और भगीरथ परिहार रचित ‘कथाशिल्पी सुकेश साहनी की सृजन-संचेतना‘ प्राप्त हुईं। अपरिहार्य कारणों के चलते घर से बाहर जाना पड़ा और 4-5 दिन पुस्तक पढ़ने का सौभाग्य नहीं मिला। मुझे याद है जब सातवीं या आठवीं कक्षा में था तब पिताजी ने नया लाल रंग का ‘जैंकी‘ साइकिल दिलवाया था। रात आठ बजे साइकल मिला था, सुबह तक इंतज़ार करना भारी हो गया था कि कब सुबह हो और कब साईकल   चलाऊं। लगभग साढ़े तीन दशक बाद वही बेचैनी और रोमांच महसूस हुआ जब ‘साइबरमैन‘ घर थी और मैं उसे पढ़ नहीं पा रहा था। ख़ुदा ख़ुदा करके दिन निकले और मैं घर वापिस आया। ‘अथ उलूक कथा‘ (प्रकाशन मार्च 1987) से लेकर ‘चिड़िया‘ (साहनी जी की नवीनतम कृति) तक सभी लघुकथाएँ और प्रो. बी.एल. आच्छा द्वारा लिखित ‘लघुकथा के धरातल और शिल्प की नवोन्मेषी ललक‘ पढ़ते-पढ़ते एक सप्ताह कैसे निकला पता ही नहीं चला। इन लघुकथाओं का ख़ुमार अभी तक है। ‘साइबरमैन‘ पढ़ने के बाद जो विचार सबसे पहले मन में आया वो है ‘सुकेश साहनी की लघुकथाएँ नहीं पढ़नी चाहिए।‘ क्योंकि साहनी जी को पढ़ने के बाद कोई सतही लघुकथाएँ पचा नहीं सकता। इन लघुकथाओं को पढ़ते-पढ़ते आप मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला। भाषायी आडम्बर से कोसों दूर, शिल्प के प्रति कोई विशेष आग्रह नहीं और सबसे बड़ी बात- इन लघुकथाओं के शीर्षक, कमाल! कमाल! कमाल! पृष्ठ 90 पर प्रकाशित ‘मरुस्थल‘ पढ़ने के बाद दिल से एक आह निकलने के साथ-साथ निकला ‘सुकेश साहनी जिन्दाबाद‘। 21 वर्ष पूर्व प्रकाशित लघुकथा ‘राजपथ‘ (प्रकाशन ‘हंस‘ अक्तूबर 98) पढ़कर कोई नहीं कह सकता कि ये आज के हालात पर लिखी नवीनतम लघुकथा है। यानी आज भी प्रासंगिक है। पृष्ठ 20 पर अंकित ‘ओएसिस‘ को पढ़कर समझ में आ जाता है कि लघुकथा सरीखी विधा में शीर्षक का क्या महत्त्व है। इस संकलन में 50 लघुकथाएँ शामिल है, जिन्हें पढ़ना अपने आपमें एक सीख है। सुकेश साहनी लघुकथा का ‘स्कूल‘ नहीं अपितु विश्वविद्यालय हैं। भगवान आपको दीर्घायु और आपकी कलम को बल बख़्शे।

हिन्दी साहित्य निकेतन, 16, साहित्य विहार, बिजनौर (उ.प्र.) द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक का मूल्य मात्र 250 रुपये है। हर लघुकथा अनुरागी के पास यह पुस्तक होनी ही चाहिए।

प्रस्तुत हैं इस संकलन में प्रकाशित दो लघुकथाएँ:

राजपथ
प्रजा बेहाल थी। दैवीय आपदाओं के साथ साथ अत्याचार, कुव्यवस्था एवं भूख से सैकड़ों लोग रोज़ मर रहे थे, पर राजा के कान पर तक नहीं रेंग रही थी। अंततः जनता राजा के ख़िलाफ़ सड़कों पर उतर आई। राजा और उसके मंत्रियों के पुतले फूंकती, 'मुर्दाबाद! मुर्दाबाद!!' के नारे लगाती उग्र भीड़ राजमहल की ओर बढ़ रही थी। राजमार्ग को रौंदते क़दमों की धमक से राजमहल की दीवारें सूखे पत्ते-सी काँप रही थीं। ऐसा लग रहा था कि भीड़ आज राजमहल की ईंट से ईंट बजा देगी।
तभी अप्रत्याशित बात हुई। गगनभेदी विस्फोट से एकबारगी भीड़ के कान बहरे हो गए, आँखें चौंधिया गईं। कई विमान आकाश को चीरते चले गए, ख़तरे का सायरन बजने लगा। राजा के सिपहसालार पड़ोसी देश द्वारा एकाएक आक्रमण कर दिए जाने की घोषणा के साथ लोगों को सुरक्षित स्थानों में छिप जाने के निर्देश देने लगे।
भीड़ में भगदड़ मच गई। राजमार्ग के आसपास खुदी खाइयों में शरण लेते हुए लोग हैरान थे कि अचानक इतनी खाइयाँ कहाँ से प्रकट हो गईं।
सामान्य स्थिति की घोषणा होते ही लोग खाइयों से बाहर आ गए। उनके चेहरे देशभक्ति की भावना से दमक रहे थे, बाँहें फड़क रही थीं। अब वे सब देश के लिए मर-मिटने को तैयार थे। राष्ट्रहित में उन्होंने राजा के ख़िलाफ़ अभियान स्थगित कर दिया था। देशप्रेम के नारे लगाते वे सब घरों को लौटने लगे थे।
राजमहल की दीवारें पहले की तरह स्थिर हो गई थीं। रातोंरात राजमार्ग के इर्द-गिर्द खाइयाँ खोदनेवालों को राजा द्वारा पुरस्कृत किया जा रहा था।
(हंस, अक्टूबर 98)

मरुस्थल
'जमना, तू क्या कहना चाह रही है?' 'मौसी, जे जो गिराहक आया है, इसे किसी और के संग मत भेजियो।'
'जमना, जे तू के रई हय? इत्ती पुरानी होके। हमारे लिए किसी एक गिराक से आशनाई ठीक नई।'
'अरे मौसी, तू मुझे गलत समझ रई है। मैं कोई बच्ची तो नहीं, तू किसी बात की चिंता कर। पर इसे मैं ही बिठाऊँगी।'
'वजह भी तो जानूँ?'
'वो बात जे है कि...कि...' एकाएक जमना का पीला चेहरा और फीका हो गया, आँखें झुक गईं, 'इसकी शक्ल मेरे सुरगवाली मरद से बहुत मिलती है। जब इसे बिठाती हूँ, तो थोड़ी देर के वास्ते ऐसा लगे है, जैसे मैं धंधे में नहीं अपने मरद के साथ घर में हूँ।'
'पर...पर...आज तो वह तेरे साथ बैठनाई नहीं चाह रिया, उसे तो बारह-चौदह साल की चइए।' 
(कथादेश, जनवरी 2019)




सोमवार, 25 नवंबर 2019

लघुकथा समाचार | क्षितिज मंच द्वारा इंदौर में आयोजित अ. भा. लघुकथा सम्मेलन

दैनिक भास्कर | Nov 25, 2019.

कहानियां दवा पर लघुकथा इंजेक्शन हैं, फौरन असर करेंगी, बच्चों के पाठ्यक्रम में इन्हें शामिल कर हम जागरूक पीढ़ी तैयार कर सकेंगे


"लघुकथा जातीय भेदभाव, लिंगभेद, स्त्री पर अत्याचारों और साम्प्रदायिक हिंसा के खिलाफ किशोरों-युवाओं को प्रभावी ढंग से जागरूक कर सकती है। इसलिए देश के तमाम स्कूल-काॅलेज के पाठ्यक्रमों में श्रेष्ठ लघुकथाओं को शामिल किया जाना चाहिए। कहानी के मुकाबले लघुकथा इंजेक्शन की तरह फौरन असर करती है। आकार में लघु होने और बेहतर संप्रेषण के कारण ये ज्यादा असरदार साबित हुई हैं।' शुक्रवार को क्षितिज के अखिल भारतीय लघुकथा सम्मेलन में साहित्यकार माधव नागदा संबोधित कर रहे थे। मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति में हुए सम्मेलन में कई सत्रों में वक्ताओं ने विचार रखे। 


सीप में मोती बनने की प्रक्रिया पीड़ादायक होती है, लघुकथाकार के मन में हो यह पीड़ा 

सुकेश साहनी ने कहा कि सीप में मोती बनने की प्रक्रिया बहुत पीड़ादायक होती है इसी तरह मन में लघुकथा बनने की प्रक्रिया भी पीड़ादायक होना चाहिए। जैसे मोती को निकालने के लिए नाज़ुक शल्य क्रिया होती है, उसी तरह लघुकथा को भी संवारना होता है। रचनायात्रा तपती रेत पर चलने के समान है और पुरस्कार मिलना शीतल छाया है। साहित्यकार श्यामसुंदर अग्रवाल ने कहा कि क्षितिज लघुकथा पत्रिका में पंजाबी लघुकथा पर एक लेख पढ़कर मैंने लघुकथा रचने को चुनौती की तरह लिया और खूब लिखा। आज पंजाब में 25 लघुकथा संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। नर्मदाप्रसाद उपाध्याय ने कहा कि लघुकथाकार दूसरे अनुशासनों में झांककर ही बेहतर लिख सकता है। दृष्टिसम्पन्न होकर ही पुनरावृत्ति के दोष और शिल्पगत वैविध्य के अभाव से मुक्त हुआ जा सकता है। कुणाल शर्मा ने भी संबोधित किया। दूसरे सत्र में 35 लघुकथाकारों ने पाठ किया। 

तीसरे सत्र में नारी अस्मिता और लघुकथा पर सूरीकांत नागर बलराम अग्रवाल, ज्योति जैन और वसुधा गाडगिल ने बातचीत की। आखरी सत्र कथा शिल्प और प्रभाव पर साहित्यकार राकेश शर्मा, सुकेश साहनी, बलराम अग्रवाल, श्याम सुंदर अग्रवाल और ब्रजेश कानूनगो ने सवालों के जवाब दिए। संचालन अंतरा करवेड़े, सीमा व्यास, निधि जैन और डॉ. गरिमा संजय दुबे ने किया। आभार सतीश राठी, पुरुषोत्तम दुबे ने माना। 

श्री नर्मदा प्रसाद उपाध्याय को कला साहित्य सृजन सम्मान, श्री हीरालाल नागर को लघुकथा सम्मान, श्री श्याम सुंदर अग्रवाल को क्षितिज लघुकथा शिखर सेतु सम्मान 2019 हिंदी और पंजाबी भाषा में मिनी पत्रिका के माध्यम से सेतु का काम करने के संदर्भ में दिया गया है जबकि श्री सुकेश साहनी को क्षितिज लघुकथा शिखर सम्मान 2019 प्रदान किया गया है जो गत वर्ष श्री बलराम अग्रवाल को दिया गया था श्री माधव नागदा को क्षितिज लघुकथा समालोचना सम्मान 2019 प्रदान किया गया है गत वर्ष यह सम्मान श्री बीएल आच्छा को दिया गया था। श्री कुणाल शर्मा को क्षितिज लघुकथा नवलेखन सम्मान 2019 से सम्मानित किया गया है गत वर्ष यह सम्मान श्री कपिल शास्त्री को दिया गया था



Sources:
1. https://www.bhaskar.com/news/mp-news-stories-are-short-lived-injections-on-medicine-they-will-make-an-immediate-impact-by-including-them-in-the-curriculum-of-children-we-will-be-able-to-create-a-conscious-generation-075624-6019212.html

2. Shri Satish Rathi

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शुक्रवार, 23 नवंबर 2018

लघुकथा वीडियो

आजतक टीवी चैनल के कार्यक्रम साहित्य आजतक में सुकेश साहनी जी और गिरीश नाथ झा जी से रोहित सरदाना की बातचीत
Published  at YouTube on 22 Nov 2018


लघुकथा का बाजार बढ़ रहा है, बहुत से लोग हैं जो सोशल मीडिया पर खूब लिख रहे हैं और शेयर भी कर रहे हैं. ऐसे लोगों को कॉपीराइट की चिंता नहीं है. ये बातें कहीं लघुकथा से प्रसिद्धी पा रहे गिरींद्र नाथ झा ने. सत्र में पहुंचे सुकेश साहनी ने कहा कि लघुकथा के लिए वरदान है कि वह कम समय में पढ़ ली जाती है. आज के समय में किसी के पास समय नहीं है. देखिए वीडियो