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गुरुवार, 22 अगस्त 2019

बिजेंद्र जैमिनी जी के ब्लॉग पर परिचर्चा : बिना संवाद के सार्थक लघुकथा सम्भव है क्या?


बिजेंद्र जैमिनी जी ने अपने ब्लॉग पर एक महत्वपूर्ण विषय पर  परिचर्चा का आयोजन किया है। कोई भी लघुकथा वर्णनात्मक हो सकती है, संवादात्मक हो सकती है और इन दोनों का मिश्रण भी हो सकती है। हलांकि कई व्यक्तियों का विचार यह है कि  संवादों के बिना लघुकथा प्रभावी नहीं होती। 

यह परिचर्चा निम्न लिंक पर उपलब्ध है:

परिचर्चा : बिना संवाद के सार्थक लघुकथा सम्भव है क्या ? 


इस परिचर्चा में  मेरे विचार निम्नानुसार हैं:

संवाद लघुकथा का अनिवार्य तत्व नहीं है। हालाँकि यह भी सत्य है कि तीक्ष्ण कथोपकथन द्वारा लघुकथा का कसाव, प्रवाह और सन्देश अधिक आसानी से सम्प्रेषित किया जा सकता है, इसका एक कारण यह भी है कि वार्तालाप मानवीय गुण है अतः पाठकों को अधिक आसानी से रचना का मर्म समझ में आ जाता है लेकिन इसके विपरीत लघुकथा लेखन में इस तरह की शैलियाँ भी हैं जिनमें लघुकथा सार्थक रहते हुए भी संवाद न होने की पूरी गुंजाइश है, उदहारणस्वरुप पत्र शैली। केवल पत्र शैली ही नहीं कितनी ही सार्थक और प्रभावी लघुकथाएं ऐसी रची गयी हैं जिनमें संवाद नहीं है। खलील जिब्रान की लघुकथा "औरत और मर्द",  रामेश्वर काम्बोज हिंमाशु की "धर्म–निरपेक्ष " आदि इनके उदाहरण हैं।  

हालाँकि लघुकथा में कथोपकथन हो अथवा नहीं, इसका निर्णय रचना की सहजता को बरकरार रखते हुए ही करना चाहिए। रचना का सहज स्वरूप कलात्मक तरीके से अनावृत्त होना भी लघुकथा की सार्थकता ही है।

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
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उपरोक्त विचार में मैंने दो लघुकथाओं का जिक्र किया है, जिन्हें  परिचर्चा में सम्मिलित करने से वह काफी लम्बी हो जाती। यहाँ उन दोनों लघुकथाओं को आपके समक्ष पेश कर रहा हूँ: 

1. खलील जिब्रान की इस लघुकथा का अनुवाद वरिष्ठ लघुकथाकार डॉ. बलराम अग्रवाल ने किया है। इसकी गहराई में उतर कर देखिये:

"औरत और मर्द" / खलील जिब्रान

एक बार मैंने एक औरत का चेहरा देखा। 
उसमें मुझे उसकी समस्त अजन्मी सन्तानें दिखाई दीं।
और एक औरत ने मेरे चेहरे को देखा। 
वह अपने जन्म से भी पहले मर चुके मेरे सारे पुरखों को जान गई।

2. दूसरी रचना "धर्म-निरपेक्ष" जिसके रचियता रामेश्वर काम्बोज 'हिंमाशु' जी हैं,  के बारे में जाने-माने लघुकथाकार श्री सुकेश साहनी बताते हैं कि, "इस रचना ने मुझे बहुत प्रभावित किया था। साम्प्रदायिकता जैसे विषय पर जिस लेखकीय दायित्व एवं अनुशासन की ज़रूरत होती है और जिसे बड़े सिद्धहस्त लेखक साधने में चूक कर जाते हैं, उसका सफल निर्वहन इस रचना में हुआ है। वर्षों पहले की बात है, मैं हंस कार्यालय में राजेन्द्र यादव जी के पास बैठा था। हंस के ताजा अंक में किसी कहानीकार की साम्प्रदायिकता पर एक लघुकथा छपी थी जिसमें लेखक रचना में उपस्थित होकर एक सम्प्रदाय विशेष के पक्ष में खड़ा दिखाई देता है। मैंने यादव जी से रचना की इस कमजोरी पर चर्चा की थी, उदाहरण के रूप में काम्बोज की लघुकथा 'धर्म-निरपेक्ष' का समापन कोट किया था; जिसे उन्होंने सराहा था।
(Source: रामेश्वर काम्बोज की अर्थगर्भी लघुकथाएँ / सुकेश साहनी - Gadya Kosh)

इस रचना को आप भी पढ़िए और गुनिये कि यह सार्थक लघुकथाओं के लिए मार्गदर्शक लघुकथा है कि नहीं:

धर्म-निरपेक्ष / रामेश्वर काम्बोज हिंमाशु
शहर में दंगा हो गया था। घर जलाए जा रहे थे। छोटे बच्चों को भाले की नोकों पर उछाला जा रहा था। वे दोनों चौराहे पर निकल आए। आज से पहले उन्होंने एक–दूसरे को देखा न था। उनकी आँखों में खून उतर आया। उनके धर्म अलग–अलग थे। पहले ने दूसरे को माँ की गाली दी, दूसरे ने पहले को बहिन की गाली देकर धमकाया। दोनों ने अपने–अपने छुरे निकाल लिये। हड्डी को चिचोड़ता पास में खड़ा हुआ कुत्ता गुर्रा उठा। वे दोनों एक–दूसरे को जान से मारने की धमकी दे रहे थे। हड्डी छोड़कर कुत्ता उनकी ओर देखने लगा।
उन्होंने हाथ तौलकर एक–दूसरे पर छुरे का वार किया। दोनों छटपटाकर चौराहे के बीच में गिर पड़े। ज़मीन खून से भीग गई।
कुत्ते ने पास आकर दोनों को सूँघा। कान फड़फड़ाए। बारी–बारी से दोनों के ऊपर पेशाब किया और सूखी हड्डी चबाने में लग गया।
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