tag:blogger.com,1999:blog-66125944568381470862024-03-29T17:31:31.885+05:30लघुकथा दुनिया (Laghukatha Duniya)लघुकथाओं पर आधारित ब्लॉगChandreshhttp://www.blogger.com/profile/02561154935591615367noreply@blogger.comBlogger651125tag:blogger.com,1999:blog-6612594456838147086.post-62028218765924389202024-03-29T17:19:00.006+05:302024-03-29T17:30:58.769+05:30पुस्तक समीक्षा । मन का फेर । समीक्षक: मनोरमा पंत <p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: left;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEga8ljBRHI0jQb4ii4CCezXoYONak3kqO-Nyp_qM3vFFQLiz5bAcBVC_6nfCkz8le6uEW6dkAxhj1gHsiyFQhgTZvoENocVd-HERnJPhotWlImruyTFKWya6EOeHnJQzl8yHwSHWze9jn3BBQ9LPKk3w5KdOo75-ctr00MUkmi7DY8yAtZptuYcQVlfiEY/s720/Front-cover-image-of-man-ka-fer-edit-suresh-saurabh.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="720" data-original-width="479" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEga8ljBRHI0jQb4ii4CCezXoYONak3kqO-Nyp_qM3vFFQLiz5bAcBVC_6nfCkz8le6uEW6dkAxhj1gHsiyFQhgTZvoENocVd-HERnJPhotWlImruyTFKWya6EOeHnJQzl8yHwSHWze9jn3BBQ9LPKk3w5KdOo75-ctr00MUkmi7DY8yAtZptuYcQVlfiEY/s320/Front-cover-image-of-man-ka-fer-edit-suresh-saurabh.jpg" width="213" /></a></div><p><br /></p>पुस्तक: <b><span style="color: #cc0000;">मन का फेर</span></b> (अंधविश्वासों रूढ़ियों एवं कुरीतियों पर केंद्रित साझा लघुकथा संग्रह) <p></p><p>प्रकाशन-श्वेत वर्णा प्रकाशन नोयडा</p><p>संपादक-सुरेश सौरभ </p><p>मूल्य- 260 /</p><p><br /></p><p>अनेक महत्वपूर्ण पुस्तकों के संपादक-लेखक सुरेश सौरभ, नवीन लघुकथा का साझा संग्रह ‘मन का फेर‘ लेकर पाठकों के बीच उपस्थित हुए हैं, अंधविश्वासों, रूढ़ियों एवं कुरीतियों पर केंद्रित यह साझा लघुकथा संग्रह अपने आप में बेहद अनूठा है। जिसमें उनकी संपादन कला निखर कर आई है। बलराम अग्रवाल, योगराज प्रभाकर जैसे प्रमुख लघुकथाकारों ने एक स्वर में कहा है कि लघुकथा का मुख्य उद्देश्य समाज की विसंगतियों को सामने लाना है। इस उद्देश्य में सुरेश सौरभ का नवीनतम लघुकथा-संग्रह ‘मन का फेर’ खरा उतरा है। यह एक विडम्बना ही है कि विकसित देशों के समूह में शामिल होने में अग्रसर भारत का एक बहुत बड़ा वर्ग आज भी धर्म और परम्परा के नाम पर ढोंगी महात्माओं और कथित मौलवियों के जाल में फँसा हुआ है। अभी भी स्त्री को डायन करार देकर प्रताड़ित किया जाता है, पिछड़े इलाकों में बीमार व्यक्ति को, चाहे वह दो महीने का बच्चा ही क्यों न हो, नीम हकीम के द्वारा लोहे के छल्लों से दागा जाता है। ऐसे समाज को जागरुक करने का बीड़ा उठाने में यह लघुकथा-संग्रह सक्षम है।</p><p>सुकेश साहनी, मीरा जैन, डॉ.पूरन सिंह, कल्पना भट्ट, डॉ. अंजू दुआ जैमिनी, गुलजार हुसैन, चित्तरंजन गोप 'लुकाठी', डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी, रमाकान्त चौधरी, अखिलेश कुमार ‘अरूण’, डॉ. राजेंद्र साहिल, डॉ. मिथिलेश दीक्षित, रश्मि लहर, विनोद शर्मा, सहित 60 लघुकथाकारों की लघुकथाओं से सुसज्जित, 144 पृष्ठीय संग्रह में, आडम्बरों को, रूढ़ियों को बेधती मार्मिक लघुकथाएँ सहज, सरल, भाषा शैली में, पाठकों को आकर्षित करने में सफल हैं। हाल ही में इस संग्रह का विमोचन स्वच्छकार समाज और समाज सेवियों ने किया। सौरभ जी का प्रयास है कि समाज में अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति तक साहित्य पहुँचे। संग्रह की भूमिका प्रसिद्ध पत्रकार लेखक अजय बोकिल ने लिखी है। संग्रह की लघुकथाएँ शोधपरक एवं पठनीय हैं। सुरेश सौरभ को इस लघुकथा-संग्रह के लिए बधाई।</p><div>-</div><div>मनोरमा पंत</div>Chandreshhttp://www.blogger.com/profile/02561154935591615367noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6612594456838147086.post-22932312080654391942024-03-16T21:23:00.003+05:302024-03-16T21:23:27.087+05:30पुस्तक: उत्कृष्ट लघुकथा विमर्श । विचार: मिन्नी मिश्रा<p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: left;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhd5XTxXJByJ76fPpgHP8Er-n3RlkSdeKBzXb6uyT60NGPQ4Ftjg1g3MLx29HbOJ6jeTXNPOpm9whxCQhHaMCysAwteDLgAPnv6_jXI-SHteWcY-xujnel90zc2B2B8ao6zFUzMMVyA3_7K_3-4U60NXM06Aw-lNYeoFCjp7YTS6bx14Wn39wConOzf-Lk/s956/FB_IMG_1710604049272.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="956" data-original-width="720" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhd5XTxXJByJ76fPpgHP8Er-n3RlkSdeKBzXb6uyT60NGPQ4Ftjg1g3MLx29HbOJ6jeTXNPOpm9whxCQhHaMCysAwteDLgAPnv6_jXI-SHteWcY-xujnel90zc2B2B8ao6zFUzMMVyA3_7K_3-4U60NXM06Aw-lNYeoFCjp7YTS6bx14Wn39wConOzf-Lk/s320/FB_IMG_1710604049272.jpg" width="241" /></a></div><br /><p></p><p>"<b>उत्कृष्ट लघुकथा विमर्श</b>"</p><p> (संपादक - दीपक गिरकर)</p><p>शिवना प्रकाशन, सीहोर (म. प्र.) </p><p>मूल्य - 400 रूपए </p><p><br /></p><p>*******************************</p><div class="separator" style="clear: both; text-align: left;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEimTLQRVtavYHTCr73aJYZSPhmK-QUYst4VrXtCWQJQ_CFuGPQH5BP9taLdDh7bMB-iSjw7YAxs71ISj4usC-gXKIXak7-tqMCdibaqW1wXZpsiT-Zq99dAsSLsrc-piAc-Np77LqvJJYI2Cw2JQkAhn4bkMF6jEpgl9vfMc9NsZWZ2PUFziH-06qDsYms/s1080/FB_IMG_1710604058322.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1080" data-original-width="720" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEimTLQRVtavYHTCr73aJYZSPhmK-QUYst4VrXtCWQJQ_CFuGPQH5BP9taLdDh7bMB-iSjw7YAxs71ISj4usC-gXKIXak7-tqMCdibaqW1wXZpsiT-Zq99dAsSLsrc-piAc-Np77LqvJJYI2Cw2JQkAhn4bkMF6jEpgl9vfMc9NsZWZ2PUFziH-06qDsYms/s320/FB_IMG_1710604058322.jpg" width="213" /></a></div><br /><p>आ. दीपक गिरकर के द्वारा संपादित पुस्तक "उत्कृष्ट लघुकथा विमर्श" कुछ दिन पहले मुझे मिली | लघुकथा विधा के लिए यह पुस्तक बहुत ही महत्वपूर्ण है | पुस्तक को दो खंडों में बांटा गया है | पहला खंड लघुकथा विमर्श का है तो दूसरा खंड लघुकथाओं का है | पहले खंड में विमर्श के अंतर्गत कुल 26 आलेख हैं । दूसरे खंड में 28 उत्कृष्ट लघुकथाओं को प्रकाशित किया गया है |सभी गुणीजनों के आलेखों को मैंने पढ़ा ।उन आलेखों की जो पंक्तियां मुझे बेहद अच्छी लगीं, उन्हें मैंने कोट किया है।</p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiOBmRojUrQr-orYMiePQ304wJThQJ3UeLSVpSbupqG84j2ZE1bbybcUUeJ5zIpS5ASL3F9_-Gip9cwiabFmrlrXIxXwak41Y0SeL_5DQ9sbu983Brv7NHnGBRfL8tFP4hg7nuIhnJ8t9xbAUcOiUsH9lqCgHIW3z43qbcYLXu-J9gDBdRCFZg6lxSnz3U/s697/39149669_2108013399232728_398762519155441664_n.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="639" data-original-width="697" height="293" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiOBmRojUrQr-orYMiePQ304wJThQJ3UeLSVpSbupqG84j2ZE1bbybcUUeJ5zIpS5ASL3F9_-Gip9cwiabFmrlrXIxXwak41Y0SeL_5DQ9sbu983Brv7NHnGBRfL8tFP4hg7nuIhnJ8t9xbAUcOiUsH9lqCgHIW3z43qbcYLXu-J9gDBdRCFZg6lxSnz3U/s320/39149669_2108013399232728_398762519155441664_n.jpg" width="320" /></a></div><br /><p><br /></p><p>"इस तरह की कृतियां नव लेखकों के लिए थ्योरी और प्रैक्टिकल का एक साथ अभ्यास करवाने में सक्षम होगी।"- डाॅ.विकास दवे</p><p><br /></p><p>"एक सफल लघुकथा वह होती है जिसमें क्लिष्ट संकेत -मात्र न होकर सहजग्राह्य कथानक समाहित हो।"- बलराम अग्रवाल</p><p><br /></p><p>" लेखन स्वांत सुखाय नहीं होता बल्कि समाज की बेहतरी के लिए होता है। "- भगीरथ परिहार</p><p><br /></p><p>"केवल बहुत सारी लघुकथाएंँ पढ़ने या लिखते छपते रहने से काम नहीं चलने वाला, सभी विधाओं की रचनाओं से उसे गुजरना होगा। खूब पढ़ना होगा।"- ब्रजेश कानूनगो</p><p><br /></p><p>"कथानक/कथ्य का समसामयिक होना अधिक प्रभाव छोड़ता है। घटना प्रस्तुति का प्रयोजन जनहित में होना चाहिए।"-डाॅ. चंद्रा सायता</p><p><br /></p><p>" कालखंड कितने समय का होगा यह निश्चित नहीं है।यह एक क्षण से लेकर सदियों और उससे भी अधिक का हो सकता है।"- डाॅ. चन्द्रेश कुमार छतलानी </p><p><br /></p><p>" लघुकथा की शब्द संख्या निश्चित नहीं की जा सकती है। रचना का कथ्य ही उसके आकार को तय करता है।"- दीपक गिरकर</p><p> </p><p>"जीवन के यथार्थ को कम से कम शब्दों में विषय की सटीक अभिव्यक्ति हेतु जो कथात्मक विधा बिना किसी लाग लपेट के सरस,सहज, सरल स्वाभाविक बोलचाल की भाषा में रंजनात्मकता लिए सीधा अपने गंतव्य तक पहुंचती है, लघुकथा कहलाती है।"- डाॅ. धर्मेन्द्र कुमार एच. राठवा </p><p><br /></p><p>" लघुकथा के स्वरूप को समझकर स्वसमीक्षक बनें। एक बार लिखने पर रचना मुकम्मल नहीं हो पाती है। लिखने के बाद उसे कई बार पढ़ा जाना चाहिए। एवं अनावश्यक विवरण को छांटते जाना चाहिए।"- पवन जैन</p><p><br /></p><p>"आपके पास लघुकथा लिखने के लिए लघुकथा का बीज ही हो, जिस पर सिर्फ लघुकथा ही लिखी जा सके।"- प्रबोध कुमार गोबिल </p><p><br /></p><p>"एक अच्छी लघुकथा की पंच लाइन तीक्ष्ण हो तो लघुकथा सौ टके की सफल कृति बनती है।"- संध्या तिवारी </p><p><br /></p><p>"अपने अंदर के आलोचक को बाहर निकाला जाए, उससे रचना जंचवाई जाए, फिर कहीं भेजी जाए।"- सन्तोष सुपेकर</p><p><br /></p><p>"प्रोफेसर बी.एल.आच्छा ने लिखा है कि, लघुकथा ऐसी लगती है, जैसे खौलते तेल में पानी की बूंद, जैसे आलपिन की चुभन, जैसे आवेग का चरम क्षण ....या फिर गीत का पहला छंद।"- सतीश राठी</p><p><br /></p><p>"लघुकथा एक कलात्मक अभिव्यक्ति है जो रचनाकार से अतिरिक्त कौशल की अपेक्षा रखती है।"- डाॅ.शील कौशिक</p><p><br /></p><p>"लेखक की रचना- शैली ऐसी हो कि पाठक उसे सहज आत्मसात कर सके। शब्दों के प्रयोग में स्पष्टता रहनी भी अति आवश्यक है।"- डाॅ. सुरेश वशिष्ठ</p><p><br /></p><p>"यहाँ शब्द सीमित पर चिंतन असीमित हो।"- सूर्यकांत नागर</p><p><br /></p><p>"लेखक के भीतर किसी रचना के लिए आवश्यक कच्चे माल के पकने की प्रक्रिया ही लेखक की रचना-प्रक्रिया है।"- सुकेश साहनी।</p><p> </p><p> इस पुस्तक में मेरा भी एक आलेख प्रकाशित हुआ है | इस हेतु दीपक सर का तहे दिल से शुक्रिया और सादर आभार | यह पुस्तक हम सभी लघुकथाकारों के लिए बहुत ही उपयोगी, संग्रहणीय एवं महत्त्वपूर्ण </p><p>है।</p><p>🙏💐💐</p><p>मिन्नी मिश्र, पटना</p>Chandreshhttp://www.blogger.com/profile/02561154935591615367noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-6612594456838147086.post-51744095025812978892024-03-12T20:48:00.001+05:302024-03-12T20:48:20.578+05:30लघुकथा:रीलें । सुरेश सौरभ<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgDLSN0FBhOGfSzUSJk4toq3AmXqLq6Ghm8bdhfh1t1NYsciAi4ZF83m3ZqDv_WZtipGl7qNVsW6zpEUg5csTqtzvvMCvAeS27JsfqokomVzswafBbaHpo6QPCDn2-7lUGm1CtuHgRMJjqr2HScw_GRm-KfqXtqA1DLW5oMA6i2aAZ055I0O-VZbt_DyU0/s276/download.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="276" data-original-width="182" height="276" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgDLSN0FBhOGfSzUSJk4toq3AmXqLq6Ghm8bdhfh1t1NYsciAi4ZF83m3ZqDv_WZtipGl7qNVsW6zpEUg5csTqtzvvMCvAeS27JsfqokomVzswafBbaHpo6QPCDn2-7lUGm1CtuHgRMJjqr2HScw_GRm-KfqXtqA1DLW5oMA6i2aAZ055I0O-VZbt_DyU0/s1600/download.jpg" width="182" /></a></div><p><br /></p><p> अपना बैग पटक, वह शान्त बैठ गयी।</p><p> "क्या बात है बेटी! इतना फूली क्यों बैठी है? कालेज में कुछ हुआ क्या? जल्दी हाथ-मुँह धो ले, नाश्ता लगा रही हूँ।"</p><p> "नहीं करना नाश्ता-वास्ता"-गुस्से से उसके नथुने फूलने-पिचकने लगे।</p><p> माँ ने जैसे कुरेद दिया हो। </p><p> "अरे! क्या हुआ बेटी।"</p><p> "जरा एक मिनट के लिए अपना मोबाइल देना मम्मी, अभी बताती हूँ क्या हुआ।" </p><p> मम्मी ने उसे मोबाइल दे दिया।</p><p> "ये देखो! ये देखो! आप की हैं ये रीलें।"</p><p> "हाँ हाँ आँ ऽऽऽऽ.."-झेंपते हुए माँ बोली।</p><p> "आज महिला दिवस पर भाषण प्रतियोगिता में मुझे फर्स्ट प्राइज़ मिला। सबने तालियाँ बजा कर मेरा हौसला बढ़ाया। बड़ी प्रशंसा मिली। लोगाें ने मंच के नीचे आते ही पूछा-इतना अच्छा कैसे बोला बेटी। मैंने गर्व से जवाब दिया-यह सब मेरी माँ के दिये संस्कारों का प्रतिफल है। पर.."</p><p> "पर पर क्या बेटी..."</p><p> "रास्ते में मेरी सहेलियाँ फूहड़ गानों पर बनी आप की रीलें, दिखा-दिखा कर फिकरें कस रहीं थीं-भाई बड़ी संस्कारवान हैं माँ-बेटी।"</p><p> "फिर..."</p><p> "फिर क्या.....आप ही बताएँ मेरी जगह आप होतीं तो क्या करतीं ?"</p><p> माँ बुत सी मौन थी। सिर पर जैसे घड़ों पानी पड़ चुका हो। पास में पड़ा मोबाइल मानो कहना चाह रहा था-मैं बिलकुल निर्दोष हूँ। मैंने किसी का दिल नहीं दुखाया।</p><p>-०-</p><p>-<b>सुरेश सौरभ</b> </p><p> पता-निर्मल नगर लखीमपुर खीरी उत्तर प्रदेश पिन-262701</p><p>मो-7860600355</p><div><br /></div>Chandreshhttp://www.blogger.com/profile/02561154935591615367noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6612594456838147086.post-60087559202725700072024-02-25T20:43:00.007+05:302024-02-25T20:43:49.469+05:30 'अविरामवाणी’ पर ‘मुहावरों से सज्जित लघुकथाएँ’ की बीसवीं प्रस्तुति<p><b><span style="color: #990000;">डॉ. उमेश महादोषी जी की फेसबुक वॉल से</span></b></p><p>मित्रो,</p><p> ‘मुहावरों से सज्जित लघुकथाएँ’ कार्यक्रम में आज की रविवारीय प्रस्तुति में शामिल है- डा. चंद्रेश कुमार छतलानी जी की लघुकथा- 'भेड़िया आया था'। लघुकथा का पाठ उमेश महादोषी द्वारा किया गया है।</p><p> </p><p> 'अविरामवाणी' का सामान्य लिंक यह है- https://youtube.com/@user-qr4yx4lz6x</p><p> अविरामवाणी पर आज के वीडियो का लिंक यह रहा-</p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><iframe allowfullscreen="" class="BLOG_video_class" height="266" src="https://www.youtube.com/embed/-9RLQ4MMfk0" width="320" youtube-src-id="-9RLQ4MMfk0"></iframe></div><br /><div>- डॉ. उमेश महादोषी</div><div><br /></div><div><br /></div><p><br /></p><p><br /></p>Chandreshhttp://www.blogger.com/profile/02561154935591615367noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6612594456838147086.post-58220686681952697502024-02-16T11:04:00.008+05:302024-02-16T11:13:23.191+05:30 'इरा मासिक ई पत्रिका' में दो लघुकथाएं<p><i></i></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><i><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgvCmN1JUbspbxvgNvlk9BWVidezgZFuXdQGpfDWqkiNH1-vAk6G1S8nF6fPqXEfTiFZHBWpHRMR17TPZVGQt8__eqj_rV8Qqd5Gi1lxOgkzmJ-HIhLT5QHj481UlCBmiZbh1p2dyWKS9zoQTZ4xruBTRtd9h9Fyn71vDgCok2ZqLahvArzmewOwDvCc6k/s720/IMG_20240216_110603.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="695" data-original-width="720" height="309" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgvCmN1JUbspbxvgNvlk9BWVidezgZFuXdQGpfDWqkiNH1-vAk6G1S8nF6fPqXEfTiFZHBWpHRMR17TPZVGQt8__eqj_rV8Qqd5Gi1lxOgkzmJ-HIhLT5QHj481UlCBmiZbh1p2dyWKS9zoQTZ4xruBTRtd9h9Fyn71vDgCok2ZqLahvArzmewOwDvCc6k/s320/IMG_20240216_110603.jpg" width="320" /></a></i></div><i><br /> 'इरा' में दो लघुकथाएं।</i><p></p><p><i><span style="color: #cc0000;">एक लघुकथा टीवी चैनल रिपोर्टिंग शैली में है और दूसरी में एक नए मुहावरे की कोशिश है।</span></i></p><p><i>आप सभी की राय अपेक्षित है।</i></p><p>1)</p><p><b>ज़रूरी प्रश्न </b></p><p>“दोस्तों टीवी चैनल ‘सबसे पहले’ से, मैं हूँ आपका मित्र रिपोर्टर और मेरे साथ हैं हमारे कैमरामैन. यह देखिए देश के इतने बड़े मंत्री के घर के बाहर कुछ महिलाएं प्रदर्शन कर रही हैं. पुलिस का जाप्ता भी आ गया है लेकिन पुलिस से भी पहले आ चुका है चैनल - ‘सबसे पहले’.”</p><p>...चैनल का विज्ञापन.</p><p>“फिर से स्वागत है. अब देखिए प्रदर्शनकारी महिलाओं में से कईयों ने हाथ में तख्ती पकड़ी हुई हैं, इन पर लिखा है ‘सेव लाइव्स‘, ‘नो रेप - नो मर्डर‘, ‘स्टॉप वोईलेंस‘...</p><p>आइये इनसे कुछ प्रश्न करते हैं.</p><p>आप सब यहाँ प्रदर्शन क्यों कर रही हैं?"</p><p><br /></p><p>“हमारे शहर में रोज़ महिलाओं के साथ अत्याचार हो रहा है. हर रोज़ कोई न कोई बलात्कार होता है, सप्ताह में एक या दो हत्याएं भी हो रही हैं. हमारी जिंदगी की सुरक्षा के लिए हम लड़ रही हैं.”</p><p><br /></p><p>“अच्छा! लेकिन यहीं पर क्यों?”</p><p><br /></p><p>“पिछले चुनाव से पहले मंत्री जी आकर कह गए थे कि एक महीने में वे सब ठीक कर देंगे, लेकिन जीतने के बाद दो साल हो गए हैं... अभी भी... हर रोज़ हम मर रही हैं... प्लीज़-प्लीज़ सेव अवर लाइव्ज़...”</p><p><br /></p><p>“धन्यवाद, आपके उत्तर के लिए. अब यह बताइये कि, यह मंत्री जी का घर है... यहाँ प्रदर्शन से पहले आपने अनुमति ली थी?”</p><p><br /></p><p>“जी!... जी क्या?”</p><p>...विज्ञापन.</p><p>-0-</p><p><br /></p><p>2)</p><p><b>जलेबियाँ गिरेंगी तो कुत्ते लड़ेंगे ही</b></p><p>रोज़ की तरह ही वह बूढ़ा आदमी आज भी कुत्तों के लिए जलेबियाँ लाया. कुत्ते उसके पीछे-पीछे चलने लगे. रोज़ तो वह एक कोने में जाकर हर एक कुत्ते को दो-दो जलेबियाँ बांट देता था, आज एक कुत्ता थोड़ा तेज़ भौंका तो वह घबरा गया और जलेबियों का पैकेट उसके हाथ से छूट कर बीच सड़क में ही गिर गया.</p><p>पैकेट के गिरते ही सारे के सारे कुत्ते उस पैकेट पर झपट पड़े और जलेबियों के लिए एक-दूसरे पर भौंकने और लड़ने लगे. उस लड़ाई में किसी को जलेबी मिली तो किसी को नहीं. उस बूढ़े आदमी ने देखा जो ताकतवर कुत्ते थे वे सारी जलेबियाँ चट कर गए और कमज़ोर कुत्ते गुर्राते ही रह गए.</p><p>वह कुछ देर उन्हें देख कर सोचता रहा, फिर उसने अपना सेलफोन निकाला और सड़क के एक कोने पर जाकर एक नम्बर मिला कर बोला, "एडवोकेट जी, आज मिल सकते हैं क्या? मुझे वसीयत करवा कर मेरे बाद अपने बच्चों में सब कुछ बराबर-बराबर बांटना है."</p><p>...</p><p>-0-</p><p>- <b>चंद्रेश कुमार छतलानी</b></p><p><b>लिंक</b></p><p>https://iraimaginations.com/irawebmag/editorial-detail/Dr_Chandresh_Kumar_Chhatlani_Kii_Laghukathayen</p>Chandreshhttp://www.blogger.com/profile/02561154935591615367noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-6612594456838147086.post-30233646960242877122024-01-19T14:22:00.001+05:302024-01-19T14:22:10.960+05:30लघुकथा : हवा | सुरेश सौरभ<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj13FKddNEnyw-iVMh9gCoCIwoKln0ugEY-fQj5ZJdWzukRjq4WWHOn9fXd6Kmlxo-4VvoTpkL5F0bD1vad6FqDXr6GWmiqR47a1zuHY-2-5GsVqh-R-HOMjKa-1IxsSxb6D-vJMjvvLXKxN-aEa6vug9QaG7AwsFWuwkbREF3YAKFf74A7xmvOe0ZTyuw/s276/download.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="276" data-original-width="182" height="142" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj13FKddNEnyw-iVMh9gCoCIwoKln0ugEY-fQj5ZJdWzukRjq4WWHOn9fXd6Kmlxo-4VvoTpkL5F0bD1vad6FqDXr6GWmiqR47a1zuHY-2-5GsVqh-R-HOMjKa-1IxsSxb6D-vJMjvvLXKxN-aEa6vug9QaG7AwsFWuwkbREF3YAKFf74A7xmvOe0ZTyuw/w94-h142/download.jpg" width="94" /></a></div><p style="text-indent: -24px;"> दरवाजा खुला। </p><p style="text-indent: -24px;"> "इतनी रात कहां कर दी।" अब्बू गुस्से से आगबबूला थे। </p><p style="text-indent: -24px;"> "कार्यक्रम ही लंबा खिंचा। क्या करती ?"</p><p style="text-indent: -24px;"> "क्या था कार्यक्रम? "</p><p style="text-indent: -24px;"> "राम भजन संध्या।" तसल्ली से बैठते हुए बेटी बोली। </p><p style="text-indent: -24px;"> "अरे! तुमने गया राम भजन? </p><p style="text-indent: -24px;"> "हां हां...फिर पर्स से नोट निकालते हुए वह गिनने लगी, एक दो तीन.....नोटों की चमक से,अब्बू की आंखें चुधिंया गईं, "तू तो नात-ए-पाक कव्वाली गाती थी, फिर राम भजन....?" </p><p style="text-indent: -24px;"> वह नोट गिरने में तन्मय थी।</p><p style="text-indent: -24px;"> "वाह! पूरे सोलह हजार, इनाम मिलाकर। इतने कम समय में इतने कभी न मिले। हां अब्बू अब बताओ क्या कह रहे थे आप ?"</p><p style="text-indent: -24px;"> "यही कि तू तो कुछ और ही गाती थी। फिर अचानक राम भजन.."</p><p style="text-indent: -24px;"> "हवा का रुख देखकर पंछी भी परवाज भरते हैं, फिर मैं तो इंसान हूं...हा हा हा....हंसते हुए आंखें नचाकर, "अब्बू आप भी कुछ समझा करो।"</p><p style="text-indent: -24px;"> अब अब्बू भी मुस्करा कर प्यार से बोले-"सलमा बेटी अगली भजन संध्या कब है।"</p><p style="text-indent: -24px;"> "परसो।"</p><p style="text-indent: -24px;"><br /></p><p style="text-indent: -24px;"><b> -सुरेश सौरभ</b></p><p style="text-indent: -24px;"> स्वरचित मौलिक अप्रकाशित</p><p style="text-indent: -24px;"> निर्मल नगर लखीमपुर खीरी उत्तर प्रदेश</p><p style="text-indent: -24px;"> मो-7860600355</p><div style="text-indent: -24px;"><br /></div>Chandreshhttp://www.blogger.com/profile/02561154935591615367noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-6612594456838147086.post-42021540707855484492024-01-08T11:15:00.004+05:302024-01-08T11:15:32.415+05:30 नैतिक मूल्यहीनता पर वैश्विक विमर्श की ओर उन्मुख लघुकथाएँ - सुरेश सौरभ <p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhM3v3O_FsZ27HGPbENkyeF9EhpZGd9KHYhz5jsp48uYo1iS0Z9hEcrJJ01hD3lmtSW5lJqQCv9BRw2IuYI3COvDeMv9hvzqgPGnw25-u6Mjk4ITbgFeRRsCIvqP2U5YOJk5iDWBQJHy62Zgy5v2Zeph0GqyUxB3Kys4DtJjptufYPC5kq6mDLlWmCI5iA/s276/download.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="276" data-original-width="182" height="229" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhM3v3O_FsZ27HGPbENkyeF9EhpZGd9KHYhz5jsp48uYo1iS0Z9hEcrJJ01hD3lmtSW5lJqQCv9BRw2IuYI3COvDeMv9hvzqgPGnw25-u6Mjk4ITbgFeRRsCIvqP2U5YOJk5iDWBQJHy62Zgy5v2Zeph0GqyUxB3Kys4DtJjptufYPC5kq6mDLlWmCI5iA/w151-h229/download.jpg" width="151" /></a></div><p></p><p><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small;">आज हर क्षेत्र में हम बढ़ रहे हैं, किन्तु चरित्र के मामले गिरते जा रहे हैं। आज पढ़े-लिखे ही नित रोज भ्रष्टाचार में संलिप्त दिखाई देते हैं, जो एक रुपया ऊपर से चलता है, नीचे तक आते-आते वह 15 पैसे ही रह जाता है, पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी कभी ऐसा कहते थे। हर क्षेत्र में नैतिक मूल्यों की गिरावट आयी है, फिर चाहे वह शिक्षा का क्षेत्र हो या राजनीति का। शिक्षालयों में जहाँ देश के भविष्य का निर्माण होता है, वहाँ आज नैतिक मूल्यों में गिरावटें दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं, जो विद्यार्थी जिस विषय में टॉप करता है, वहीं पत्रकारों के सवाल के जवाब में अपना सही विषय नहीं बता पाता है। अनामिका शुक्ला जैसी शिक्षक-शिक्षिकाएँ फर्जी तरीके से करोड़ों का कैसेे गबन कर रहे हैं, यह प्रतिदिन अखबारों में खुलासे हो रहे हैं। ऐसे में भ्रष्ट चरित्रहीन शिक्षक-शिक्षिकाएँ क्या बच्चों को शिक्षा देंगे? यह सवालिया विषय है। आज दशा ये है, जिसे नकल रोकने की जिम्मेदारी दी गई है, वही नकल कराने की तरतीब बताता है, जिसे बिजली चोरी रोकने की जिम्मेदारी दी गई, वही बिजली चोरी के नये तरीके बता रहा है। जिसे अपराध रोकने की जिम्मेदारी दी गई, वही अपराधियों को बचाने का ठेका लिए बैठा है। माँ-बाप के पास बच्चों के लिए समय नहीं, बच्चे मोबाइल देख-देख कर जवान हो रहे हैं। व्यवसायिकता की आँधी में संयुक्त परिवार टूट रहे हैं। परिवार जैसी संस्था का, संस्कारों का, रोज जनाजा निकल रहा है। नैतिक मूल्यों पर चर्चा कहीं नहीं होती, चर्चा सिर्फ माँ-बाप अपने बच्चों से यही करते है कि कैसे अधिक से अधिक पैसे कमाए जाए, कैसे अमीर बन कर शोहरत हासिल की जाए। युवा लेखक नृपेन्द्र अभिषेक ‘नृप’ की पुस्तक ’ऊर्जस्वी’ अभी जल्दी ही आयी है, जिसमें वह लिखते हैं-पृथ्वी का सबसे बुद्धिमान प्राणी इंसान होता है। लेकिन इंसान की फितरत होती है कि वह कभी संतुष्ट नहीं होता। उसे जितना प्राप्त हुआ, उससे ज्यादा पाने की चाह में निराश होते रहता है।’’ </span></p><div class="gs" style="background-color: white; font-family: "Google Sans", Roboto, RobotoDraft, Helvetica, Arial, sans-serif; margin: 0px; min-width: 0px; padding: 0px 0px 20px; width: initial;"><div class=""><div class="ii gt" id=":1ba" jslog="20277; u014N:xr6bB; 1:WyIjdGhyZWFkLWY6MTc4NzQ0NDM4MDA3MjMzMTc3NyJd; 4:WyIjbXNnLWY6MTc4NzQ0NDM4MDA3MjMzMTc3NyJd" style="direction: ltr; font-size: 0.875rem; margin: 8px 0px 0px; overflow-x: hidden; padding: 0px; position: relative;"><div class="a3s aiL " id=":1bb" style="direction: initial; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-feature-settings: normal; font-kerning: auto; font-optical-sizing: auto; font-size: small; font-stretch: normal; font-variant-alternates: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; font-variant-position: normal; font-variation-settings: normal; line-height: 1.5; overflow: auto hidden; position: relative;"><div dir="auto"><div dir="auto" style="color: #222222;">गिरते नैतिक मूल्यों पर वरिष्ठ साहित्यकार गिरीश पंकज जी कहते हैं-</div><div dir="auto" style="color: #222222;">होठों पर मुस्कान सजा कर आए हैं/चंद लुटेरे वेश बना कर आए हैं </div><div dir="auto" style="color: #222222;"><br /></div><div dir="auto" style="color: #222222;">वहीं खीरी के वरिष्ठ कवि नंदी लाल जी कहते हैं।</div><div dir="auto" style="color: #222222;">सभ्यता पर नग्नता के जो कलैंडर टँग गए/प्यार के किस्से सभी अखबार वाले पूछते,</div><div dir="auto" style="color: #222222;"><br /></div><div dir="auto" style="color: #222222;">संजीव जायसवाल ‘संजय’ का बाल कहानी संग्रह ‘सोशल मीडिया का राजकुमार’ तथा राजेन्द्र वर्मा का लघुकथा संग्रह ‘विकल्प’ अभी जल्द ही प्रकाशित हुए हैं, जिनकी लघुकथाओं में गिरते नैतिक-शैक्षिक मूल्यों पर दोनों लेखकों का विशद चिंतन-मनन पाठकों के मन की ग्रंथियों को पर्त दर पर्त खोलने, बहुत कुछ विचार करने को विवश करता है। मेरी पसंद में जो मैंने लघुकथाएँ योगराज प्रभाकर और चित्तरंजन गोप की ली हैं, वह कुछ ऐसी ही चिंतन और चेतना को झंकृत करती हैं। मानवीय संवेदनाओं को संजोती हैं, गिरते सामाजिक मूल्य, चारित्रिक मूल्य पर एक वैश्विक विमर्श पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करतीं हैं। </div><div dir="auto" style="color: #222222;"><br /></div><div dir="auto" style="color: #222222;">आज हम अपने बच्चों को शिक्षित करने और पैसा कमाने के लिए मोटीवेशन की क्लास खूब करा रहे हैं, पर चरित्र की गिरावट और इससे हो रहे प्रतिदिन अपराधों को कैसे रोकें, उनमें संस्कारों का बीजारोपण कैसे करें, यह दीक्षा हम नहीं दे पा रहें हैं। स्त्रियों और पुरूषों को अंधविश्वासों, रूढ़ियों, लिंग भेद और साम्प्रदायिकता से आजादी चाहिए, न कि उन्हें अशिष्ट यौनाचार की। अगर उन्हें प्रगतिशीलता के नाम से यौनाचार की पूरी आजादी दे जायेगी, तो हममें और पशुओं में कोई फर्क नहीं रहेगा और यह आजादी कभी भी व्यसायिक रूप ले सकती है, आपराधिक रूप ले सकती है, यानि काफी हद तक ले भी चुकी है। ऐसा ही विमर्श को, योगराज जी की लघुकथा 'आँच' प्रस्तुत करती है। शिक्षा के मंदिरों में गिरते नैतिक मूल्यों पर डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी की लघुकथाएँ ‘डर के दायरे’ 'मैं टीचर नहीं' आदि भी सार्थक संदेश देती हैं। वहीं अपनी लघुकथाओं को जन-मन की शिराओं तक पहुँचने वाले लघुकथा के कुशल कलाकार सुकेश साहनी की 'नपुसंक' जैसी कई लघुकथाएँ, शिक्षा के मंदिरों में गिरते नैतिक मूल्यों पर गहन चिन्तन और चेतना को जन-जन तक पहुँचाने में सफल रही हैं। लघुकथा कलश के माध्यम से योगराज प्रभाकर जी, लघुकथाओं को वैश्विक पहचान दिलाने में महती योगदान दे रहे हैं। उनकी अनेक लघुकथाएँ समाज को वह आईना दिखती हैं, जिसे देखने से दिम्भ्रमित समाज को सही रास्ता ही नहीं, सही मंजिल भी मिल सकती है। योगराज जी के बारे में डॉ. पुरूषोत्तम दूबे लिखते हैं। "पंजाब प्रांत में बहने वाली पाँच नदियों का पवित्र आचमन शिरोधार्य कर पंजाब प्रांत के शहर पटियाला का ‘पंजाबी पुत्तर‘ लघुकथाकार योगराज प्रभाकर हिंदी लघुकथा के क्षेत्र में पंजाब में प्रवाहमान पाँच नदियों का आब अंजुरी में भरकर हिंदी लघुकथा के मस्तक को अभिषिक्त करने आया है। यह एक हिंदीतर प्रांत से, हिंदी लेखन के क्षेत्र में हिंदी की सेवा का भाव लेकर उतरे, इस रचनाकार का भाषागत सौहार्द का मणि-काँचन संयोग जैसा है।’’</div><div dir="auto" style="color: #222222;">योगराज जी की लघुकथा ‘आँच’ आधुनिक शिक्षा के क्षेत्र में आ रही गिरावट को न सिर्फ रेखांकित करती है, बल्कि सुसुप्त हो रही हमारी प्रज्ञा को, मेधा को, चेतना को जाग्रत करने का सद्कार्य करती है।</div><div dir="auto" style="color: #222222;">चित्तरंजन गोप आज लघुकथा के क्षेत्र मे काफी शोहरत हासिल कर चुके है। अभी तक उनका कोई एकल लघुकथा संग्रह प्रकाशित नहीं हुआ है। अपनी अनोखे कहन, अद्भुत शिल्प और दमदार कथ्य के द्वारा पाठको में देर तक और दूर तक अपनी पहचान बना चुके हैं। आज आदिवादी विमर्श बहुत तेजी से हिन्दी साहित्य में विमर्श का महत्वपूर्ण हिस्सा बनता जा रहा है।मीरा जैन, पूरन सिंह, मार्टिन जॉन, जैसे अनेक लघुकथाकार आदिवासी विमर्श को निरंतर अपनी लघुकथाओं से आगे बढ़ा रहे हैं। आदिवासियों की दुश्वारियों पर, समस्याओ पर तो चर्चा विमर्श बहुत होते रहते हैं, फिर भी उन्हें सदियों से वह हक-हुकूक नहीं मिल पाये, जिसकी उन्हें आज भी दरकार है। गोप जी आदिवासी क्षेत्र में रहते हैं, जो देखते हैं वह लिखते हैं। यह होना भी चाहिए। लघुकथा ‘एक ठेला स्वप्न’ में अदिवासी विमर्श को उन्होंने नई धार दी है। प्रेमचंद ने एक जगह लिखा है कि जो आप लिखना चाहते हैं, जब तक उसे देखेंगे नहीं महसूस नहीं करेंगे, तब तक आप बेहतरीन नहीं लिख सकते।'</div><div dir="auto" style="color: #222222;">प्रसिद्ध पत्रकार अजय बोकिल लिखते हैं, ‘‘लघुकथा अपने आप में बहुत मारक और पिन पॉइंटेड होती है। वर्णनात्मकता की बजाए संक्षिप्तता, सूक्ष्मता और सांकेतिकता लघुकथा के प्रभावी औजार हैं। अगर इसमें सोद्देश्यता भी जुड़ जाए तो सोने पे सुहागा होता है।’’</div><div dir="auto" style="color: #222222;">निश्चित रूप से आज लघुकथा अपनी इसी गति-मति से, अपने इसी उद्देश्यपूर्ण ढंग से, अपनी मंजिल की ओर सदानीरा गंगा की तरह प्रवाहमान है। </div><div dir="auto" style="color: #222222;">बकौल गोप साहित्य का उद्देश्य अन्त्योदय होना चाहिए। हर उस अंतिम व्यक्ति की समस्या तक पहुँचे, जिसकी बात सत्ता, सियासत और उसके पहरूए न सुन रहे हो, न कह रहे हो।</div><div dir="auto" style="color: #222222;">सदियाँ बीत गयीं, आज भी करोड़ों आदिवासी मूलभूत, अधिकारों, सुविधाओं से वंचित हैं। उन्हें उनकी दशा में छोड़ने वाले कहते हैं कि वह अपनी संस्कृति अपनी कला को संजो रहे हैं, इसलिए वह जंगल नहीं छोड़ रहे हैं, अपनी मूल प्रवृत्ति नहीं छोड़ रहे हैं, जबकि सच्चाई यह है कि तमाम समान्तवादी और वर्णवादी व्यवस्थाएँ, ऐसी साजिशें बदस्तूर जारी रखें हैं, जिससे, वह जहाँ हैं वहीं रहें। संविधान ने सबको काम का, शिक्षा का, समानता का अधिकार दिया है। आंबेडकर जी के संविधान से बहुत कुछ बदल रहा है, असमानता की दीवारें धराशायी हो रहीं हैं, पर आज भी करोड़ों आदिवासी घुमन्नू जातियों के आपत्तिजनक,भदेस वीडियो बना कर लोग शोसल मीडिया पर अपलोड कर रहे हैं, जिस कारण अदिवासी समाज कौतूहल और मनोरंजन का विषय बना हुआ है। प्रत्येक संवेदनशील व्यक्ति के लिए यह घोर चिंता और विमर्श का विषय है। दोनों लघुकथाएँ उपर्युक्त, विचारों को भावों को प्रस्तुत कर रहीं हैं। लघुकथा मेरी प्रिय विधा है। अनेक लघुकथाकार बेहतरीन लिख रहे हैं। फिलहाल अपनी पसंद की दो लघुकथाएं प्रस्तुत कर रहा हूँ। </div><div dir="auto" style="color: #222222;"> </div><div dir="auto"><b><span style="color: #cc0000;">योगराज प्रभाकर</span></b></div><div dir="auto" style="color: #222222;"><br /></div><div dir="auto" style="color: #222222;"><b><u>आँच</u></b></div><div dir="auto" style="color: #222222;"><br /></div><div dir="auto" style="color: #222222;">सस्ते-से होटल का एक छोटा-सा कमरा।</div><div dir="auto" style="color: #222222;">बंद बत्ती जली।</div><div dir="auto" style="color: #222222;">कमरे में एक अधेड़ मर्द, उम्र पचास के आसपास।</div><div dir="auto" style="color: #222222;">एक जवान लड़की, उम्र बीस से अधिक नहीं।</div><div dir="auto" style="color: #222222;">मर्द के ऊपरी भाग पर कोई कपड़ा नहीं और लड़की का निचला भाग वस्त्रहीन।</div><div dir="auto" style="color: #222222;">मर्द के निर्लज्ज चेहरे पर पाशविक संतुष्टि के भाव और लड़की के चेहरे पर निर्लिप्तता और निश्चिंतता की गहरी पर्त।</div><div dir="auto" style="color: #222222;">लड़की को खींचकर अपनी गोद में बिठाते हुए मर्द ने कुछ नोट उसके टॉप में खोंस दिए।</div><div dir="auto" style="color: #222222;">“थैंक्यू!” कहते हुए वह उठी और फर्श पर पड़ी जीन्स उठाकर उसमें धँसने लगी।</div><div dir="auto" style="color: #222222;">मर्द ने इत्मीनान से सिगरेट सुलगाई, और कहा,</div><div dir="auto" style="color: #222222;">“एक बात पूछूँ स्वीटी?”</div><div dir="auto" style="color: #222222;">“बोलो जानू!”</div><div dir="auto" style="color: #222222;">“आज तुम इतना लेट हो गई हो, घर जाकर क्या कहोगी?”</div><div dir="auto" style="color: #222222;">जीन्स का जिपर चढ़ाते हुए लड़की ने बहुत ही बेपरवाही से उत्तर दिया।</div><div dir="auto" style="color: #222222;">“कहना क्या है यार, कह दूँगी कि ट्यूशन से लेट हो गई।”</div><div dir="auto" style="color: #222222;">मर्द के चेहरे पर एक कमीनी-सी मुस्कान फैल गई।</div><div dir="auto" style="color: #222222;">पर अगले ही क्षण ट्यूशन शब्द उसके मस्तिष्क पर हथौड़ा-सा बनकर बरसा। उसकी मुस्कराहट काफूर हो गई. माथे पर पसीने की बूँदें चमकने लगीं। वह तेजी से कमरे के बाहर आया, जलती हुई सिगरेट फर्श पर फेंककर उसे जूते से मसला। बहुत ही बेचैनी से अपनी घड़ी की ओर देखते हुए पत्नी को फोन लगाया और चिंतित-से स्वर में बोला,</div><div dir="auto" style="color: #222222;">“गुड्डी ट्यूशन से लौट आई क्या?”</div><div dir="auto" style="color: #222222;"><br /></div><div dir="auto" style="color: #222222;"><br /></div><div dir="auto"><b><span style="color: #990000;">चित्तरंजन गोप ‘लुकाठी‘</span></b></div><div dir="auto" style="color: #222222;"><br /></div><div dir="auto" style="color: #222222;"><b><u>एक ठेला स्वप्न</u></b></div><div dir="auto" style="color: #222222;"><br /></div><div dir="auto" style="color: #222222;">आज खूब ठूंस-ठूंसकर खाना खा लिया था। पेट भारी हो गया था। इसलिए पलंग पर लेट गया। लेटे-लेटे खिड़की से बाहर का नजारा देखने लगा।</div><div dir="auto" style="color: #222222;">एक फेरीवाला आया था। वह एक बड़े ठेले पर एक ठेला स्वप्न लाया था। उसका साथी माइक पर घोषणा कर रहा था-- ले लो, ले लो ! अच्छे-अच्छे स्वप्न ले लो। चौबीस घंटे पानी-बिजली का स्वप्न। हर घर में ए.सी. का स्वप्न। घर-घर मोटर कार का स्वप्न। ...ले लो भाई, ले लो !</div><div dir="auto" style="color: #222222;">देखते-देखते कॉलोनी वालों की भीड़ लग गई। औरत-मर्द, जवान-बूढ़े सब ठेले के चारों तरफ जमा हो गए। माइक पर घोषणा जारी थी-- ले लो भाइयों, ले लो ! बेटे-बेटियों को अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाने का स्वप्न। उन्हें डॉक्टर-इंजीनियर बनाने का स्वप्न। आई.ए.एस.-आई.पी.एस. बनाने का स्वप्न। हजारों तरह के स्वप्न हैं। अच्छे-अच्छे स्वप्न हैं। ले लो भाइयों, ले लो !</div><div dir="auto" style="color: #222222;">माइक की आवाज बगल के आदिवासी गांव चोड़ईनाला तक पहुंच रही थी। आदिवासी महिला-पुरुषों का एक झुंड दौड़ा-दौड़ा आया। वे ठेले से कुछ दूरी पर खड़े हो गए। एक बूढ़ा जो लाठी के सहारे चल रहा था, सामने आया। उसने फेरीवाले से पूछा, ‘‘ भूखल लोकेकेर खातिर किछु स्वप्न होय कि बाबू? (भूखे लोगों के लिए कोई स्वप्न है?)‘‘</div><div dir="auto" style="color: #222222;">‘नहीं।‘‘ फेरीवाले ने कहा, ‘‘भूखे लोगों के लिए भोजन के दो-चार स्वप्न हैं जो काफी नीचे दबे पड़े हैं। अगली बार जब आऊंगा, ऊपर करके लाऊंगा। तब तक इंतजार कीजिए।‘‘</div><div dir="auto" style="color: #222222;">‘‘इंतजार करैत-करैत त आज उनसत्तइर बछर (69 वर्ष) उमर भैय गेले। आर कते...?‘‘ कहते-कहते बूढ़े को खांसी आ गई और खांसते-खांसते वह अपने झुंड के पास चला गया। कॉलोनी वाले अपनी-अपनी पसंद के स्वप्न खरीद रहे थे। हो-हुल्लड़, हंसी-ठहाका भी चल रहा था। आदिवासियों ने कुछ देर तक इस नजारे को खड़े-खड़े देखा और अपने गांव की ओर चल दिए। इसी बीच मेरी नींद टूट गई।</div><div dir="auto" style="color: #222222;"><br /></div><div dir="auto" style="color: #222222;"><b>-सुरेश सौरभ</b></div><div dir="auto" style="color: #222222;">निर्मल नगर लखीमपुर खीरी उत्तर प्रदेश पिन-262701</div><div dir="auto" style="color: #222222;">स्वरचित मौलिक अप्रकाशित। </div><div dir="auto" style="color: #222222;">मो-7860600355</div><div style="color: #222222;"><br /></div></div><div class="yj6qo" style="color: #222222;"></div><div class="adL" style="color: #222222;"></div></div></div><div class="hi" style="background: rgb(242, 242, 242); border-bottom-left-radius: 1px; border-bottom-right-radius: 1px; color: #222222; margin: 0px; padding: 0px; width: auto;"></div><div class="WhmR8e" data-hash="0" style="clear: both; color: #222222;"></div></div></div>Chandreshhttp://www.blogger.com/profile/02561154935591615367noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-6612594456838147086.post-45983522832543666482023-12-11T19:28:00.004+05:302023-12-11T19:28:42.309+05:30लघुकथा 2023 | ई-संकलन<p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgugEuSYHF_YUqHFBVnp39IYcFqWA8VBzKJhRyCMVWtVdRFw0Gps8TSyqA0Ul8HNpWxSgdR4u1S3zh-mllHWPOW4HOuF5-h9LyKk6_6kF7BKZcteCd1bQR28MXkfrEVeqtvGF6u8pZfSZ9a6UKu7nNIkCkkgpQo0JSvTrtprn7LzJhHgOi08sA-BZ5Cwg4/s1080/FB_IMG_1702302789387.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1080" data-original-width="1080" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgugEuSYHF_YUqHFBVnp39IYcFqWA8VBzKJhRyCMVWtVdRFw0Gps8TSyqA0Ul8HNpWxSgdR4u1S3zh-mllHWPOW4HOuF5-h9LyKk6_6kF7BKZcteCd1bQR28MXkfrEVeqtvGF6u8pZfSZ9a6UKu7nNIkCkkgpQo0JSvTrtprn7LzJhHgOi08sA-BZ5Cwg4/s320/FB_IMG_1702302789387.jpg" width="320" /></a></div><br /><p></p><p><br /></p><p style="text-align: center;"><a href="https://bijendergemini.blogspot.com/2023/12/2023.html" target="_blank"><b><span style="font-size: medium;">लघुकथा 2023 ई-संकलन पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।</span></b></a></p>Chandreshhttp://www.blogger.com/profile/02561154935591615367noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-6612594456838147086.post-18109522584770780682023-12-10T16:47:00.003+05:302023-12-10T16:47:49.382+05:30देश के जानेमाने लघुकथाकार डॉ. अशोक भाटिया द्वारा लघुकथा वाचन<p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><iframe allowfullscreen="" class="BLOG_video_class" height="266" src="https://www.youtube.com/embed/7v-LUp7N7mI" width="320" youtube-src-id="7v-LUp7N7mI"></iframe></div><br /><p></p>Chandreshhttp://www.blogger.com/profile/02561154935591615367noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6612594456838147086.post-35821948332887466952023-10-02T20:26:00.003+05:302023-10-02T20:32:17.443+05:30 'काम जु आवै कामरी...' का डाउनलोड लिंक |कहावतों/मुहावरों से सज्जित लघुकथाओं का संकलन <p><b><span style="color: #990000;">डॉ. उमेश महदोशी जी की फेसबुक वॉल से</span></b></p><p><b><span style="color: #3d85c6;">कहावतों/मुहावरों से सज्जित लघुकथाओं के संकलन 'काम जु आवै कामरी...' की पीडीएफ</span></b></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgrO7RhFgrni8s8wlR4bfn7gYxu4ypHzQMcGBnWokgQRX43MY1gBwmPGnIW1bpNheXAe8FtHSIBrD02QtiyFTXEwAO6OFuI7sRMdjEolQGm_5VXvNP_io2jn4dJmSz_Njl326egaWsYSJ-FMxe1xia-A3OHscJz5uSLvm2tXllcQA7L7SCOtxZmh8jMo7U/s1700/IMG_20231002_203026.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1700" data-original-width="868" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgrO7RhFgrni8s8wlR4bfn7gYxu4ypHzQMcGBnWokgQRX43MY1gBwmPGnIW1bpNheXAe8FtHSIBrD02QtiyFTXEwAO6OFuI7sRMdjEolQGm_5VXvNP_io2jn4dJmSz_Njl326egaWsYSJ-FMxe1xia-A3OHscJz5uSLvm2tXllcQA7L7SCOtxZmh8jMo7U/s320/IMG_20231002_203026.jpg" width="163" /></a></div><p>कहावतों/मुहावरों से सज्जित लघुकथाओं का संकलन 'काम जु आवै कामरी...' की पीडीएफ तैयार है। मित्रगण नीचे दिए लिंक पर डाउनलोड करके पढ़ सकते हैं। मुद्रित प्रति संकलन में शामिल लेखक मित्रों को निःशुल्क भेजी जायेगी। अपरिहार्य कारणों से प्रेषण कार्य नवंबर माह में ही हो सकेगा। </p><p> संकलन से चुनिंदा लघुकथाओं का अविरामवाणी पर प्रसारण 'मुहावरों से सज्जित लघुकथाएं' कार्यक्रम के अंतर्गत 12 नवंबर 2023 से आरंभ किया जाएगा।</p><p> संकलन में शामिल जिन मित्रों ने रचनाओं के साथ अपना डाक का पता एवम् फोटो नहीं भेजा है, वे मित्र हमारे email पर यथाशीघ्र भेज दें। ताकि संकलन की प्रति यथासमय भेजी जा सके।</p><p> <b><i><span style="color: #2b00fe;">'काम जु आवै कामरी...' का डाउनलोड लिंक-</span></i></b></p><p><a href="https://drive.google.com/uc?export=download&id=1zA4rBjuCeCK2MS36U13qCEWII7HT_XDc" target="_blank">https://drive.google.com/uc?export=download&id=1zA4rBjuCeCK2MS36U13qCEWII7HT_XDc</a></p>Chandreshhttp://www.blogger.com/profile/02561154935591615367noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-6612594456838147086.post-70962599707962730152023-09-23T14:09:00.003+05:302023-09-23T14:09:16.228+05:30पुस्तक समीक्षा | गुलाबी गलियाँ (साझा लघुकथा संग्रह) | समीक्षक-मनोरमा पंत <p> सबसे उपेक्षित वर्ग की गुलाबी गलियाँ / मनोरमा पंत</p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi9q5ew1RTdAQscNArsgPvIYPX7ursWuLbzQ3HGIkCewWjjxl79u6G6Me9AAh-MDuYgb_3XRMGuGVGAOyGWDFpQ-2TXKjziU09XBLDVAdsI8ZuB5lXxVpEDgPV3Dr9yU67U8VI353z7xcQG6dSDQhraaZexuMtAkNYA7u1610zNO_lV62AVPr3M6_ooxa0/s720/cover%20gulabi%20galiya.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="720" data-original-width="479" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi9q5ew1RTdAQscNArsgPvIYPX7ursWuLbzQ3HGIkCewWjjxl79u6G6Me9AAh-MDuYgb_3XRMGuGVGAOyGWDFpQ-2TXKjziU09XBLDVAdsI8ZuB5lXxVpEDgPV3Dr9yU67U8VI353z7xcQG6dSDQhraaZexuMtAkNYA7u1610zNO_lV62AVPr3M6_ooxa0/s320/cover%20gulabi%20galiya.jpg" width="213" /></a></div><p><b><br /></b></p><p><b>पुस्तक-गुलाबी गलियाँ (साझा लघुकथा संग्रह)</b></p><p><b>संपादक-सुरेश सौरभ</b></p><p><b>मूल्य-</b><b>रु </b><b>249/-</b></p><p><b>प्रकाशन-श्वेतवर्णा प्रकाशन नई दिल्ली</b></p><p><b>वर्ष-2023 </b></p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p><p>सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुरेश सौरभ द्वारा संपादित लघुकथा संग्रह “गुलाबी गलियाँ" समाज के सबसे उपेक्षित, तिरस्कृत तथा निन्दनीय वर्ग वेश्याओं के अंतहीन दर्द और वेदनाओं का जीता जागता एक दस्तावेज है। दुःख के महासागर को समेटे हुए इस संग्रह की लघुकथाओं में समाज के दोहरे चरित्र को उजागर करने का ईमानदारी से प्रयास किया गया है। जहां एक ओर दिन के उजाले में उन्हें चरित्रहीन तथा समाज का गंदा धब्बा तवायफ, कुलटा जैसे जुमलों से नवाज़ा जाता है, वहीं दूसरी ओर रात के अंधेरे में वे ही घृणित नारियां रम्या बन जाती हैं। </p><p>पौराणिक काल से ही “मनुष्य“ शब्द का प्रयोग केवल पुरुष के लिये ही तय किया जा चुका है। औरत को मनुष्य शब्द से निकाल कर अलग ही चौखट में जड़ दिया गया। उसके मन की इच्छओं, भावों, और संवेदना को पुरातन काल से ही पुरुष द्वारा नकार दिया गया। इन्द्र द्वारा अहिल्या हरण, भीष्म द्वारा अम्बा अम्बालिका का हरण चंद उदाहरण हैं। “गुलाबी गलियाँ“ की प्रत्येक लघुकथा में वेश्याओं की यही अर्न्तवेदना स्पष्ट रूप से मुखरित होती दीख पड़ती है। </p><p>प्रारम्भ करें संग्रह की प्रथम लघुकथा “मरुस्थल“ से। सुकेश साहनी की यह एक ऐसी औरत की करुण दास्तान है जिसके लिये पति ही उसके अस्तित्व का प्रमाण था। उसकी मृत्यु के पश्चात वह आर्थिक मोर्चे पर हारकर चकलाघर पहुंच जाती है। पति के हमशक्ल ग्राहक में अपने पति को खोजने के निरर्थक प्रयास में अन्त में मर्मान्तक दुःख ही उसके हाथ लगता है। </p><p>सुप्रसिद्ध साहित्यकार राजेन्द्र अवस्थी ने अपनी एक रचना में लिखा है-“औरत के पैरों तले पक्की जमीन होती ही नहीं। उसके सिर पर हमेशा बोझ होता है, आर्थिक गुलामी का। “पति की मौत होने पर, बीमारी में परिवार का पेट भरने के लिए मजबूर होकर ऐसी औरतें वेश्या बन जाती हैं। इस मजबूरी की तड़प देखने को मिलती है-’पूनम (कतरियार) की ’खुखरी’, सत्या शर्मा की “पीर जिया की“,सीमा रानी की “ईमानदारी“,महावीर रावांल्टा की लघुकथा “मदद के हाथ “जैसी लघुकथाओं में। </p><p>प्राचीन कल से ही यह देखा गया है कि पुरुष द्वारा निर्मित परिवेश में जो स्त्री स्वयं को नहीं ढाल पाती ,अपना अस्तित्व सिद्ध करने की कोशिश करती हैं, परन्तु आर्थिक रुप से सक्षम नहीं हैं, तो अपने पति, प्रेमी, रिश्तेदार यहां तक कि पिता, भाई के द्वारा भी चकलाघर पहुंचा दी जाती हैं। रेखा शाह की लघुकथा “इस देश न आना लाडो“ में प्रेमी द्वारा, ऋचा शर्मा की“ निष्कासन“ और मनोरमा पंत की “पेशा “में पति द्वारा, सुधा भार्गव की “वह एक रात में“ पिता के कारण और डॉ. अशोक गुजराती की’ बेटी तू बची रह“ में दलाल द्वारा लड़कियों को वेश्यावृति में धकेल दिया जाता है।</p><p>वेश्या का काम है तन से पुरुष को खुश करना। लेखन से उसका क्या वास्ता ? मीरा जैन की लघुकथा ‘कालम खुशी का’ में नगरवधू जैसे ही आत्मकथा के रूप में एक किताब लिखने की घोषणा करती है तो अगले दिन ही वह लापता हो जाती है। क्यों ? पाठक इसे भली-भांति जानते हैं। यह लघुकथा सभ्य समाज पर एक तमाचा है।</p><p>चकलाघर में पहुंच जाने पर भी कुछ वेश्याएं अपने स्त्रीयोंचित अस्तित्व को बचाए रहती हैं। अनिल पतंग की ‘मजहब’ लघुकथा में सलमा वेश्या समाज के तथाकथित सफेदपोश संभ्रात जनों को कटाक्ष सहित आइना दिखाती है। वह निडरता से कहती है “मैं तो सिर्फ शरीर बेचती हूँ हुजूर ! पर आप लोग ईमान के साथ पूरा देश बेचते हैं। आपका और मेरा एक ही मजहब है केवल पैसा ,पैसा,पैसा। </p><p>भगवान वैद्य की लघुकथा “असली चेहरा “में वेश्या सुंदरी तल्खी के साथ कहती है -“इस शहर के एक और तथाकथित प्रतिष्ठित व्यक्ति का असली चेहरा लेकर जा रही हूं। रुपम झा की लघुकथा “गंगाजल “में वेश्या कहती है “हम तो दुनिया को बता के अपनी अदाएं बेचतीं हैं लेकिन आप जैसे लोग तो.. अपनी आत्मा और ईमान बेच लेते हैं साहेब।“</p><p>रघुविंद्र यादव के “चरित्र हनन“ में चंपा बाई चिढ़ कर बोलती है-‘‘आज के नेताओं के पास चरित्र है ही कहां? जिसका कोई हनन कर सके।’’</p><p>नीरू मित्तल की एक शानदार लघुकथा है जिसमें ग्राहक वेश्या से कहता है-“पति और बच्चे के होते हुए तुम्हें यह सब करने की क्या जरूरत है?’’</p><p>‘‘जरूरत होती है साब.....घर की बहुत सी जरूरत हैं, कुछ इच्छाएं भी होती हैं। पति के आगे हाथ फैलाना और मन मसोस कर रह जाना बहुत मुश्किल होता है।’’ यह लघुकथा उन लोगों की आँखे खोलने के लिए पर्याप्त है, जो वेश्याओं के ऊपर अपना पैसा लुटा देते हैं और पत्नी की छोटी-छोटी ज़रूरतें पूरी करने के लिए भी उसे पैसा नहीं देते।</p><p>“दिनेश कुमार थर्रा उठा यह सोचकर कि पहले पत्नी लड़ती थी पर अब बहुत समय से खामोश रहती है, कहीं उसकी पत्नी भी तो...?,आगे आप समझ ही गये होंगे ।</p><p>मर्द अपने पुत्र में अपनी परछाई को देखता है। अतः उत्तराधिकारी को जन्म देने के लिये उसे पत्नी की आवश्यकता पड़ी। मर्द का हमेशा से यही दृष्टिकोण रहा कि उसकी पत्नी, कभी भी किसी गैर मर्द का संग न करे और पवित्र बनी रही, जबकि स्वयं के लिए उसका अपना दृष्टिकोण है कि पत्नी उत्तराधिकारी को जन्म देने के लिये, और वेश्या खुशी देने के लिये होती है। पुरुष की इसी दोहरी मानसिकता को इस संग्रह की लघुकथाओं में बखूबी चित्रित किया गया है। शुचि भवि की लघुकथा ‘रजिस्टर्ड तवायफ’ में जीनत तवायफ ग्राहक प्रफुल्ल के बटुए से गिरी उसकी पत्नी की फोटो देखकर कहती है ‘‘साहब किसी और के बटुए में भी यही तस्वीर देखी है।“ तो प्रफुल्ल पागल सा हो जाता है। क्योंकि उसकी पत्नी मर्द के पहले से बने-बनाए चौखट में फिट नहीं हो रही थी, ऐसा उसे लगता है जबकि सच्चाई बड़ी पकीजा थी।</p><p>रमेश प्रसून की लघुकथा ‘आधुनिक रंडिया’ लघुकथा में एक अनुभवी वेश्या व्यंग्यपूर्वक कहती है “सुनो कास्टिग काउच, लिव इन रिलेशन, पत्नियां की अदला-बदली क्या वेश्यावृत्ति नहीं?</p><p>‘वेश्याओं का जन्म जिन्दगी के अंधियारों में होता है ,और उसी अंधेरे में खामोशी से अंत भी हो जाता है। पूरी जिन्दगी उनका इस्तेमाल ’एक वस्तु' की तरह होता है। अदित कंसल की लघुकथा “चरित्रहीन “में सोनी कहती है-‘‘इस शहर में ऐसा कोई नहीं जो हमारे जज्बात समझे। सब जिस्म के भूखे भेड़िए हैं।’’</p><p>इसी तरह के दर्द और वेदना के संवाद सुधा भार्गव की लघुकथा “वह एक रात में“ देखने को मिलते हैं। कई लघुकथाओं में वेश्यालय में जन्मे ऐसे बच्चों का जिक्र किया गया है जो जलालत की जिंदगी से बाहर निकल पाए और एक हसीन मुकाम पर पहुंच गए। “बजरंगी लाल की“ वापसी कल्पना भट्ट की “बार गर्ल “विभा रानी श्रीवास्तव की “अंधेरे घर का उजाला “अलका वर्मा की “मैं ऋणी हूं “मंजरी तिवारी की “एक देवी “जिज्ञासा सिंह की “आहट “राजेंद्र पुरोहित की “रंग बदलती तस्वीर में“ ऐसे ही बच्चों की तस्वीरें उकेरी गईं हैं। </p><p>वेश्या से विवाह करके उसे सामान्य जिंदगी देने वाली आदर्श लघुकथाएं भी इस संग्रह की शोभा बढ़ाती है। सुधा भार्गव की “वह एक रात“ अभय कुमार भारती की “कोठे वाली“ राजकुमार घोटड; की “कोठे के फूल में“ ग्राहक वेश्याओं से विवाह करके उन्हें सम्मानजनक जिन्दगी प्रदान करते हैं।</p><p>सत्या शर्मा की लघुकथा “पीर जिया की “में लिखा हुआ है कि उस हाड़-मांस के शरीर के अंदर एक कोमल हृदय भी था,जो न जाने कब से किसी के लिए तड़पने को बेचैन था“ पर वेश्याओं के लिए तो यह सोचा जाता है कि उनका कोई मन ही नहीं होता है।’</p><p><b><u>पढ़िये कुछ चुभते हुए वाक्यांश जो वेश्याओं के लिए कहे जाते हैं :</u></b></p><blockquote style="border: none; margin: 0px 0px 0px 40px; padding: 0px; text-align: left;"><p>-वह एक कलंक है और नए कलंक को जन्म देने जा रही है (ज्ञानदेव मुकेश की “शूल तुम्हारा फूल हमारा“)</p><p> -“तुम्हारा क्या धर्म और क्या जात (“गुलजार हुसैन की “दंगे की एक रात“)</p><p>-“हर रोज नये नये मर्द फाँसती है यह“(कांता राय की “रंडी“ लघुकथा)</p><p>-भगवान के मंदिर को भी नहीं छोड़ा इन लोगों ने। छिः कैसे लोग हैं ,यहां भी गंदगी फैलाने आ गए (“डॉ.रंजना जायसवाल की “कैसे कैसे लोग“)</p><p>-साली को कहीं जगह नहीं मिलती तो यहां चली आती है। (सिद्धेश्वर की “आदमीयत“)</p><p>-इन लोगों की क्या औकात है मेरे सामने (रुपम झा की “गंगाजल“)</p><p>-“चुप रह रंडी। हमसे बराबरी करती है “(मुकेश कुमार ‘मृदुल’ की “चोट“।) </p><p>-रास्ते की औरत और गली का कुत्ता कभी इज्जत नहीं पाते (रमेशचन्द्र शर्मा की लघुकथा “कैरेक्टर लेस")</p></blockquote><p>इस संग्रह में अपमानित करने वाले इन जुमलों को नकारती हुई ऐसे भी अनेक लघुकथाएं हैं, जो वेश्याओं के उजले पक्ष को समाज के सामने रखती हैं। ये लघुकथाएं बतलाती हैं कि जो वेश्याएं इस गंदगी फँसी हुईं हैं, वे नहीं चाहती कि और भी लड़कियां उसमें धकेली जाएं या उनके कारण किसी ग्राहक का घर बर्बाद हो।</p><p>इससे संबंधित कमलेश भारतीय की एक खूबसूरत लघुकथा है “प्यार नहीं करती“ जिसमें वह अपने ग्राहक का घर उजाड़ नहीं चाहती है। इसलिए वह कहती है-जब मैं एक औरत द्वारा अपना पति छीन लिए जाने का दुख भोग रही हूं। तब तुम मुझसे यह उम्मीद कैसे करते हो कि मैं अपना घर बसाने के लिए किसी का बसा बसाया घर उजाड़ दूंगी?’’</p><p>इसी तरह की और भी लघुकथाएं हैं जैसे मिन्नी मिश्रा की “दलदल“ पूनम आनंद की लघुकथा “तवायफ,“ रमाकांत चौधरी की बेहतरीन लघुकथा “गुलबिया“ चित्रगुप्त की “सीख“ ऋचा शर्मा की “मां सी ,“नीना मंदिलवार की “नवजीवन “ ,राजकुमार घोटड; की “कोठे के फूल “,राजेंद्र पुरोहित की “रंग बदलती तस्वीर“ अरविंद असर की “उसूल“ विजयानन्द विजय की “धुंधलका छंटता हुआ“ अशोक गुजराती की “बेटी तू बची रह“ ज्योति मानव की “एक गुण“ आती हैं । </p><p>तन और मन के गहरे भेद को समझाते-बुझाते हुए सुरेश सौरभ की लघुकथा “गंगा मैली नहीं“ में कहा गया है “गंगा मैली नहीं होती कभी नहीं होती।... किसी वेश्या के लिए सौरभ जी के भाव पावन व पुनीत हैं।</p><p>लेखक गुलजार हुसैन “दंगे की रात में“ वेश्या को कह जाते हैं-सबसे खूबसूरत औरत.. और वह यही नहीं रुकते वेश्या को गुलाब की सुंगध तक कह डालते हैं। ओमप्रकाश क्षत्रिय की लघुकथा“ “सफाई“मे वेश्या का पावन चरित्र दृष्टिगोचर होता है। डॉ.चन्द्रेश कुमार छतलानी की लघुकथा “देवी“ भी वेश्या का पवित्र रुप दर्शाती है।</p><p>इन लघुकथाओं में कुछ लघुकथाएं ऐसे भी हैं जिसमें यह दिखाया गया है कि कुछ लेखक /पत्रकार वेश्याओं की जीवनी जानने के लिए कोठे पर पहुंचते हैं पर उनके जख्मों को कुरेदने के कारण उन्हें, अपमानित ही होना पड़ता है। इन लघुकथाओं में भगवती प्रसाद द्विवेदी की “गर्व “लघुकथा है जिसमें वेश्या कहती है-हमें बकवास पसंद नहीं फटाफट अपना काम निपटाओ और फूटो।’’</p><p>डॉ. सुषमा सेंगर की लघुकथा “झूठ के व्यापार “में एक बड़े कहानीकार को कहा जाता है-जिसे देखो वही मुंह उठाए चला आता है जख्म कुरेदने।</p><p>नज़्म सुभाष की लघुकथा “ग्राहक“ में हृदयहीन ग्राहक वेश्या की खराब तबियत की परवाह ही नहीं करता है।.... एक कठोर यथार्थ नज्म़ ने प्रस्तुत किया है।</p><p>इस संग्रह की और भी प्रेरणात्मक लघुकथाएं हैं जिनमें ,“देवेन्द्र राज सुथार की “बदचलन “,डा.प्रदीप उपाध्याय की “वादा“ ,डा .शैलेश गुप्त ‘वीर’ की “गुडबाय“ सुषमा सिन्हा की “पापी कौन“,अनिता रश्मि की ‘असर’ अविनाश अग्निहोत्री की “नातेदार“,कल्पना भट्ट की “बार गर्ल्स डॉ. पूनम आंनद की “तवायफ “,राजेन्द्र वर्मा की “बहू “,विभा रानी श्रीवास्तव की “अंधेरे घर का उजियारा “ ,बजरंगी लाल यादव की “सजना है मुझे “तथा जिज्ञासा सिंह की “आहट “राजेन्द्र उपाध्याय की “दृष्टि “ पुष्प कुमार राय की “बार गर्ल्स“ नीना सिन्हा की “निषिद्धौ पाली रज“ डा .सत्यवीर जी की “सीढियाँ उतरते हुए, विजयानंद विजय की धुंधलका छंटता हुआ’ सहित सभी लघुकथाएं श्लाघनीय हैं।</p><p>सबसे सुखद यह है कि इस संग्रह की भूमिका प्रसिद्ध साहित्यकार संजीव जायसवाल ‘संजय’ ने लिखी है। दो उदीयमान साहित्यकार देवेन्द्र कश्यप ‘निडर’ व नृपेन्द्र अभिषेक नृप ने भी इस दस्तावेजी संग्रह में अपनी छोटी-छोटी विचारोत्तेजक टिप्पणियां जोड़ कर, संग्रह को और भी महत्वपूर्ण बना दिया है।</p><p>अंत में मैं सुरेश सौरभ जी के संपादकीय शब्द दोहराना चाहती हूं-</p><p><b><i>इस साझा संकलन को पढ़ते-पढ़ते वेश्याओं के जीवन, उनके संघर्ष उनके सुख-दुख पर अगर एक व्यक्ति की भी संवेदना जाग्रत होती है तो मैं समझता हूँ कि इस संग्रह का उद्देश्य पूर्ण हुआ। मेरा श्रम सार्थक हुआ।’’</i></b> </p><p>मैं सौरभ जी को इस सुंदर लघुकथा संकलन के संपादन हेतु बधाई प्रेषित करती हूं। सुंदर आवरण बनाने, किताब को हार्ड बाउंड मजबूत बाइंडिंग में प्रकाशित करने के लिए भी मैं श्वेतवर्णा प्रकाशन की मुक्त कंठ से प्रशंसा करती हूं।</p><p><br /></p><p><b>मनोरमा पंत </b></p><p><b>पता-85 इस्टेट बैक कॉलोनी </b></p><p><b>ई-7अरेरा कालोनी ,भोपाल </b></p><p><b>,साई बोर्ड के पास, 11 बस स्टाप </b></p><p><b>पिन-462016 </b></p><p><b>manoramapant33437@gmail.com</b></p><p><b>मो-9229113195</b></p><div><br /></div>Chandreshhttp://www.blogger.com/profile/02561154935591615367noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6612594456838147086.post-65650197380420398562023-07-31T13:32:00.006+05:302023-07-31T13:37:32.555+05:30तूणीर में तीर: मधुकांत की लघुकथाएँ | कल्पना भट्ट<p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjWCDjO-P0i6OE16BgSfZQCAjIOxpfevpp96U_g2dw-3ACeeLZS9y_i8QcOLGq8dLUoX9cm7dSMNF8d4l86MHti100fN2AaVlYr01ji01_sfeTTVW4LCvGMQ7_rFIEFrpvq_7vM33u5eJmkNvkoBb23yeq__GFd5kX6l8D9iHDuPqGbkyMuHRxhPVfbcmQ/s960/%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%A3%E0%A5%80%E0%A4%B0.jpg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="592" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjWCDjO-P0i6OE16BgSfZQCAjIOxpfevpp96U_g2dw-3ACeeLZS9y_i8QcOLGq8dLUoX9cm7dSMNF8d4l86MHti100fN2AaVlYr01ji01_sfeTTVW4LCvGMQ7_rFIEFrpvq_7vM33u5eJmkNvkoBb23yeq__GFd5kX6l8D9iHDuPqGbkyMuHRxhPVfbcmQ/s320/%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%A3%E0%A5%80%E0%A4%B0.jpg" width="197" /></a></div><div><br /></div><div><br /></div>पुस्तक का शीर्षक: तूणीर (लघुकथा सँग्रह)<p></p><p>लेखक: डॉ. मधुकान्त</p><p>प्रकाशक: अयन प्रकाशन</p><p>प्रथम संस्करण : 2019 </p><p>मूल्य : 240 रुपये </p><p>पृष्ठ: 128</p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p><p>हिन्दी लघुकथा जगत् में डॉ. मधुकान्त एक जाने-माने हस्ताक्षर हैं। आप रक्तदान हेतु भी जाने जाते हैं। </p><p>आपने अपनी भूमिका में 'तरकश' नामक आपके प्रथम लघुकथा सँग्रह, जो वर्ष 1984 में प्रकाशित हुआ था, का उल्लेख किया है। परंतु मेरे लिये आपका प्रस्तुत लघुकथा सँग्रह 'तूणीर' द्वारा ही आपकी लेखनी से परिचय हुआ है, जिसे कहने में मैं बिल्कुल संकोच नहीं करूँगी।</p><p>डॉ. सतीशराज पुष्करणा ने अपने आलेख 'हिन्दी लघुकथा की रचना-प्रविधि' में लिखा है कि ' कथा को अन्य विधाओं की अपेक्षाकृत लघुकथा बहुत क्षिप्र होती है और वह अपने गन्तव्य तक यथासम्भव शीघ्र पहुँचती है। </p><p>प्रस्तुत सँग्रह में कुल 91 लघुकथाएँ प्रकाशित हैं जिनको मैंने इन शीर्षकों में विभाजित किया है।</p><p>1. राजीनीति पर आधारित लघुकथाएँ :- इस विषय पर आपकी लघुकथाओं में ' 'वोट की राजनीति'- इस में वोट डालने की परंपरा को अपने संविधानिक अधिकार से अधिक एक औपचारिक निभाते हुए लोगों का चित्रांकन है। 'पहचान'- इस लघुकथा में वोट माँगने जाने वाले नेताओं का चित्रण है, जो चुनाव के बाद अगर जीत जाते हैं तब उसके बाद वह कहीं दिखाई नहीं देते। ऐसे में ज़मीनी तौर पर कोई आम गरीब नागरिक उस नेता को फिर चाहे वह प्रधानमंत्री ही क्यों न हों वह अगर उनको न पहचान पाने की बात करते हुए अपनी झोपड़ी के भीतर चला जाये तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। यहाँ प्रधानमंत्री का उल्लेख है जिनके लिये उनके सहयोगी 'ताकतवर देश के ये प्रधनमंत्री' करके सम्बोधन हैं वहीं उस गरीब व्यक्ति के लिये वह 'दो हड्डी' का है का सम्बोधन है। यहाँ सहयोगी उनकी चापलूसी एवं उनकी पदवी को अहमियत देता नज़र आ रहा है वहीं दो हड्डी के सम्बोधन में वह कमज़ोर और निर्जन नेता प्रतीत होता है । 'निर्मल गाँव'- इस लघुकथा में कथानायक सरपंच सरकार से मेल-जोल बढ़ाकर आदि देकर वह अपने गाँव को 'निर्मल गाँव' घोषित करवा लेता है और फंड्स भी ले लेता है। परन्तु एक मास में उसको अपने गाँव को स्वच्छ बनाना था और वह नहीं बना पाया था। इस हेतु वह गाँव के सभी घरों में शौचालय बनाने का बीड़ा उठाता है। लोगों को पंचायत घर में बुलाता है, बी.डी.ओ भी वहाँ बैठे होते हैं। ऐसे में वह एक ग्रामीण भीमन को बुलाकर पूछता है, "तुम्हारे घर में अभी तक शौचालय नहीं बना?" जिसपर वह उत्तर देता है, "कहाँ सरकार...दो वर्ष से फसल चौपट हो रही है। खाने के लाले पड़े हैं, पखाना कैसे बनेगा?" इसपर सरपंच उसको विश्वास में लेने के इरादे से कहता है, "अरे सरकार तुमको पच्चीस हज़ार का चैक देगी शौचालय बनवाने के लिये परंतु तुमको अपने हिस्से का पाँच हज़ार जमा करवाना पड़ेगा।" </p><p>"सरकार, हम पाँच हज़ार कहाँ से लावें...?"</p><p>"सरकार पिछली स्किम में पकड़ा था, अभी तक उसका ब्याज भी चुकता नहीं हुआ।" </p><p>इन सँवादों से सरकारी स्किम और उसको अमल पर लाने हेतु जिस तरह से ग्रामीणों को बहलाया-फुसलाया जाता है और इसकी आड़ में वह लोग जिस तरह से कर्ज़ के दलदल में फँसते और धँसते नज़र आते हैं का बहुत ही करीने से दर्शाया गया है। </p><p>इसके बाद के सँवादों को भी देखें-</p><p>"सोचो, घर में शौचालय बन गया तो काम किसे आएगा...?" </p><p>"मालूम नहीं।"</p><p>"अरे भीमा, क्या गंवारों वाली बात करते हो। इतना भी नहीं जानते शौचालय तुम्हारे घर में बनेगा तो तुम्हारे ही काम आएगा।"</p><p>सरपंच अपना कपट का जाल बिछाने में कहीं पीछे नहीं हटता और वह पहले से भी अधिक कसा हुआ जाल बिछाने के लिये प्रयास करता है ताकि सरकारी कागज़ों पर उसके कार्यो को सफल माना जाए और अगले चुनाव में भी वह अपनी कुर्सी को पा सके। </p><p>परंतु इस बार कथानायक भीमा सरपंच के झाँसे में नहीं आता और उसको मुँह तोड़ जवाब देता है, "सरपंच जी, कुछ खाने को होगा तभी तो काम आएगा।" इन शब्दों को उगल कर वह कमरे से बाहर आ जाता है। </p><p>इस आखरी सँवाद में ग्रामीण लोगों की न सिर्फ दयनीय स्थिति दिखाई पड़ती है अपितु वह सरकारी महकमें से सचेत और जागरूक होता जा रहा है का परिचय भी करवाता हुआ प्रतीत होता है। </p><p> ईमानदार राजनीति':- इस लघुकथा के माध्यम से लेखक ने यह कहने का प्रयास किया है कि राजनीति में आने वालों की छवि इस हद तक बिगड़ी हुई है कि अगर इस महकमें में कोई नेता ईमानदारी से अपना कार्य करने का प्रयास करता है तब उसके अपने परिवार वालों के चेहरों पर उदासी छा जाती है। इस लघुकथा के माध्यम से लेखक जिस उद्देश्य के साथ चले हैं वह पूर्णतः उसमें सफल होते हैं। 'वोट किसे दूँ':- पत्र शैली में लिखी गयी एक सुंदर लघुकथा हुई है जिसमें चुनावी मतदान में खड़े प्रत्यायशी के लिये एक आम नागरिक की क्या राय है और वह प्रत्याशियों के बारे में किस तरह से सोचता है और उनके प्रति उसकी उदासीनता और पीड़ा को कथानायक जिस तरह से अपने मित्र को पत्र द्वारा बताता है का सहज और सुंदर व्याख्या दिखाई देती है। 'सीमाएँ चल उठी':- अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर लिखी इस लघुकथा में काले देश और गोरे देश को प्रतीक बनाकर यह चित्रांकित किया गया है कि कैसे विकसित देश किसी विकाशील देश को अपने को हथियारों से लेस होकर सुरक्षित हो जाने के अपने झाँसे में ले लेता है और उनको हथियार दे देते हैं और उदारता से यह कहते हैं कि पैसा आराम से लौटा देना। वह इतने चिंतित दिखाई पड़ते हैं कि लगने लगता है कि सच में वह अपना हितैषी है परंतु जब वह बिल्कुल ऐसा ही पड़ोसी देश के लिये भी करता है तब उस देश की कुटिल राजनीति का पर्दाफाश होता है परंतु इस बीच दोनों विकासशील देशों के मध्य सीमाओं को लेकर युध्द हो जाता है। और विकसित देश पुनः जीत जाता है और वह न सिर्फ अपनी देश के लिये विदेशी मुद्रा हासिल कर अपने को पहले से और समृद्ध करता है परंतु वह खुद को और भी मजबूत कर लेता है। और विकासशील देशों की अर्थ व्यवस्था लथड़ती हुई नजर आती है। इस गम्भीर विषय पर कलम चलाकर लेखक ने अपना लेखकीय कौशल का बाखूबी परिचय दिया है। और इसका शीर्षक 'सीमाएँ चल उठी' कथानक के अनुरूप है। 'वोट बिकेंगे नहीं':- इस लघुकथा में वोट को न बेचने की बात पर जोर दिया गया है।'परछाई':- यह लघुकथा राजनीति भ्रष्टाचार पर निर्धारित है। जब सभी अपनी-अपनी ज़िम्मेदारी छोड़कर सिर्फ अपना हित सोचेंगे तो देश का क्या होगा? साथ ही कभी किसी भ्रष्ट व्यक्ति का आमना-सामना अपनी ही परछाई से हो जाए तो उस व्यक्ति का भयभीत होना कितना स्वाभाविक होता है। इसका बहुत सुंदर चित्र इस लघुकथा में दृष्टिगोचर होता है। 'अंगूठे'- यह लघुकथा वोट की खरीद पर आधारित है कि किस तरह एक भ्रष्ट नेता अपनी ताकत को बढ़ाने के उद्देश्य से अँगूठे यानी कि अनपढ़ लोगों के मतों को खरीद लेता है , और किसी को शराब, किसी को नोट, किसीको आश्वासन देकर वह भारी मतों से चुनाव जीत जाता है। और सत्ता मिल जाने के जनून में वह इतना खो जाता है कि वह अपने खरीदे हुए अँगूठों से अधिक खून निकालने लग जाता है, और यदा-कदा कोई ऊँचे स्वर में बोलता हुआ नजर आता है तब वह उनको कटवाकर ज़मीन में दबवा देता है। परिणाम स्वरूप एक ही वर्ष में ही उसकी जमीन में अनेक नाखून वाले अँगूठे अँकुरित हो जाते है, जिसके लिये वह तैयार नही होने के कारण उनको देखकर वह डरा-डरा-सा रहने लगता है। इस लघुकथा का विषय नया नहीं है परंतु इसके प्रत्तिकात्मक प्रस्तुतिकरण के कारण यह एक बेहतरीन लघुकथा की श्रेणी में खड़ी मिलती है। </p><p> 'मलाईमार':- एक ऐसा मौकापरस्त व्यक्ति जो अवसर देखकर बार-बार पार्टी बदल लेता है। ऐसे लोगों को अंत में हार का ही सामना करना पड़ जाता है और वह व्यक्ति ये कहता सुनाई दे जाता है, "सच तो यही है कि जनता अब समझदार हो गयी है।" यही वाक्य इस लघुकथा का अंतिम वाक्य है जो इस लघुकथा के मर्म को दर्शा रहा है और इस लघुकथा के उद्देश्य को भी परिलक्षित कर रहा है। यह एक सुंदर लघुकथा है और इसके प्रतीकात्मक शीर्षक के कारण और रोचक बन गयी है।</p><p> 'राजनीति का प्रभाव',:- राजनीति के क्षेत्र में सफलता हासिल हो जाने के उपरांत वह व्यक्ति इतना खास हो जाता है कि उसका प्रभाव डॉक्टर, व्यापारी, या कोई प्रशासनिक अधिकारी क्यों न हों सभी पर पड़ता है और अपना काम करवाने की इच्छा से सभी उसके मुँह की ओर ताकते हुए नज़र आते है। इसी कथ्य को इस लघुकथा के माध्यम से उकेरा गया है।</p><p>'प्रजातन्त्र':- यह एक मानवेत्तर लघुकथा है । एक जंगल में प्रजातंत्र की घोषणा करी जाती है , और यहाँ के संविधान के अनुसार प्रत्येक पाँच वर्ष के बाद जंगल में प्रधान का चुनाव होने लगता है। यहाँ जंगल के हिंसक प्राणी जैसे शेर, बाघ और चीता को पात्र बनाया गया है ।अब अगर इस लघुकथा की चर्चा करें तो जंगल में प्रथम बार शेर, फिर बाघ और फिर चीते को सिंहासन सौंप दिया जाता है। राजपाट चलाने के लिये नव नियुक्त प्रधान (चीता) जब पूर्व प्रधानों से गुप्त मन्त्रणा करने जाता है तब </p><p>शेर समझाता है -आपको पाँच वर्ष तक शासन करना है। पहले दो वर्ष हमें गालियाँ निकालते रहो। आवश्यकता पड़े तो आरामदायक जेल में भी डाल देना...जनता खुश होगी। </p><p>बाघ कहता है- डिवाइड एण्ड रूल...जातियों में बांट दो परन्तु बात एकता की करो। उद्घाटन करते रहो परन्तु सबको उलझाए रखो और पाँचवे वर्ष में शेर समझाता है -जनता के दुःख दर्द को सुनो । झूठे आश्वासन दो, खजाना खोल दो। आप जीत गए तो फिर मज़े करो, यदि नहीं तो हम जीत जायेंगे। हम तुमको और तुम्हारे परिवार को तनिक कष्ट नहीं देंगे। पक्का वादा। </p><p>राजनैतिक दाँव-पेंचों को समझकर चीता पूर्णतः आश्वस्त हो जाता है। </p><p>राजनीति में अगर कोई सदस्य नया आता है तो उसको उसके वरिष्ठ कुछ इसी तरह से राजनीति दाँव-पेच सिखाते हैं और समय-समय पर उसके साथ होने का दिखावा करते हुए अपनी ही तरह छल-कपट वाली राजनीति सिखाते और करवाते हैं। यह लघुकथा इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखकर लिखी गयी है जो अच्छी बन पड़ी है। </p><p>2.हरियाणा में साहित्य एवं रक्तदान के क्षेत्र में मधुकांत जी अपनी अलग पहचान रखते हैं। रक्तदान को लेकर आप हमेंशा कहते है कि इससे बड़ा दान दुनिया में कोई नहीं । आप समय-समय पर न सिर्फ रक्त का दान करते हैं अपितु दूसरों को भी इसके लिये प्रेरित करते है और ऐसा ही प्रयास आपने लघुकथा लेखन के माध्यम से भी किया है। रक्तदान सम्बंधित आपके दो एकल सँग्रह एड्स का भूत (सन्-2015 ई.)में धर्मदीप प्रकाशन, दिल्ली एवं दूसरा एकल सँग्रह 'रक्तमंजरी' (सन्-2019) में पारूल प्रकाशन , न. दिल्ली से प्रकाशित हुआ। 'लाल चुटकी' नामक आपका लघुकथा संकलन (सन्-2018) में इंटकचुवल फाउन्डेशन , रोहतक से प्रकाशित हुआ। अब प्रस्तुत लघुकथा सँग्रह ' तूणीर' में प्रकाशित आपकी रक्तदान पर आधारित लघुकथाओं की चर्चा करें तो विषय पर आपकी लघुकथाओं में 'फरिश्ता'- इस लघुकथा में रक्त के दान हेतु एक रक्तदाता एक रोगी कि जिसको वह अपना रक्त दान में देता है और उसकी जान बचाता है को प्रेरित करता दिखाई पड़ता है। 'लम्बी मुस्कान'- इस लघुकथा में एक युवा रक्तदान को लेकर उसकी माँ के भीतर के भय को निकालने में सफल हो जाता है और उनको रक्तदान के महत्त्व को भी समझा देता है जिससे उसकी माँ कह उठती है, "सचमुच बेटा, आज तूने बहुत बड़ा काम किया है। आज मैं समझ गयी मेरा बेटा बचपन को छोड़कर जवान हो गया है।" ...और माँ प्यार से अपने बेटे की पीठ थपथपाने लगती है। 'लाल कविता' :- इस लघुकथा में पूरे सप्ताह प्रकाशनार्थ आयी कविताओं को पढ़कर वह कोने में रखता जाता है और एक-एक कर कुड़ेदानी में फैंक देता है। फिर कुछ दिन उस कवि की कोई कविता न आने पर वह बेचैन हो जाता है और कुछ दिनों में उस कवि को भूल जाता है, परंतु फिर एक दिन रक्तदान दिवस पर उसी कवि की इसी विषय पर एक सुंदर सी कविता उसके पास आती है जिसके लिफाफे के ऊपर लाल स्याही से लिखा होता है- रक्तदान दिवस पर विशेष और कविता के शीर्षक के स्थान पर गुलाब का सुंदर चित्र बना होता है। वह इस कविता को पढ़ता ही है तभी अचानक फोन की घण्टी बजती है और कविता छूट जाती है। सामने वाला उसको यह सूचना देता है, "भाई कमलकांत, अभी-अभी मनोज का एक्सीडेंट हो गया । वह मैडिकल में है। खून बहुत निकल गया। डॉक्टर ने कहा है तुरंत खून चाहिए, तुम कुछ करो...' अपने किसी परिचित या घर वाले को अगर रक्त की आवश्यकता पड़ जाती है तब इस दान का असली अर्थ का पता चलता है और आँखे खुल जाती हैं। ऐसा ही कुछ कथानायक के साथ होता है। और वह कुछ करने का आश्वासन देकर फोन को रख देता है। तब उसको एहसास होता है कि इस कवि का सम्बन्ध अवश्य ही कुछ रक्तदाताओं से होगा...कविता भी बहुमूल्य लगने लगती है और वह अपने भांजे को रक्त दिलवाने के लिये कविता उठाकर कवि का फोन नम्बर तलाशने लगता है। यह एक साधारण कथ्य है परंतु यह अपने उद्देश्य को सम्प्रेषित करती है और रक्तदान महादान है का संदेश देती है। इसके अतिरिक्त इसी विषय आपकी पुरस्कार', 'रक्तदानी बेटा', 'मच्छर का अंत', 'अपना खून', 'अपना दान', 'वैलेनटाइन डे', 'जानी अनजानी', 'रक्त दलाल', 'चिट्ठी' इत्यादि शामिल हैं जो किसी न किसी तरह से रक्तदान को बढ़ावा देती है। </p><p>3.वस्तुतः इक्कीसवीं सदी महिला सदी है। वर्ष 2001 महिला सशक्तिकरण वर्ष के रूप में मनाया गया। </p><p>इसमें महिलाओं की क्षमताओं और कौशल का विकास करके उन्हें अधिक सशक्त बनाने तथा समग्र समाज को महिलाओं की स्थिति और भूमिका के संबंध में जागरूक बनाने के प्रयास किये गए। महिला सशक्तिकरण हेतु वर्ष 2001 में </p><p>प्रथम बार प्रथम बार ''राष्ट्रीय महिला उत्थान नीति''बनाई गई जिससे देश में महिलाओं के लिये विभिन्न क्षेत्रों में उत्थानऔर समुचित विकास की आधारभूत विशेषताए निर्धारित किया जाना संभव हो सके। इसमें आर्थिक सामाजिक,सांस्कृतिक सभी क्षेत्रों में पुरूषों के साथ समान आधार पर महिलाओं द्वारा समस्त मानवाधिकारों तथा मौलिक स्वतंत्रताओं का सैद्धान्तिक तथा </p><p>वस्तुतः उपभोग पर तथा इन क्षेत्रों में </p><p>महिलाओं की भागीदारी व निर्णय स्तर तक </p><p>समान पहुँच पर बल दिया गया है।</p><p>आज देखने में आया है कि महिलाओं ने </p><p>स्वयं के अनुभव के आधार पर, अपनी मेहनत और आत्मविश्वास के आधार पर अपने लिए नई मंजिलें ,नये रास्तों का निर्माण किया है। और अपने को पहले से कहीं ज्यादा सशक्त और दृढ़ बना लिया है। कहते हैं न की साहित्य समाज का आईना होती है और साहित्यकार समाज और साहित्य को अपने कलम से सजाता है और अपने पाठकों तक अपनी बात को पहुँचाता है। इस कार्य मे मधुकांत जी भी पीछे नहीं हैं और आपने इस लघुकथा सँग्रह में कुछेक लघुकथाएँ लिखीं हैं जो .21 वीं सदी की महिलाओं को चित्रांकित करती हैं इस श्रेणी में 'अपना अपना घर':- इस लघुकथा की मुख्य नायिका सरिता राजन नामक व्यक्ति से प्यार करती है और दोनों विवाह सूत्र में बंध जाने के इच्छुक हैं । परंतु विवाह के पूर्व सरिता राजन से कहती है कि चूँकि वह माँ की इकलौती सन्तान है और पापा भी इस दुनिया में नहीं हैं, इसलिये शादी के बाद आपको मेरे साथ मेरी माँ के घर मे रहना होगा।" इस पर राजन की असहमति हो जाती है और दोनों के बीच गम्भीर चर्चा होती है और राजन उसको अपने समाज की पुरखों से चली आ रही परंपरा जिसमें एक लडक़ी को शादी के बाद अपने ससुराल में रहने की बात करता है परंतु सरिता इस बात को नहीं मानती है और वह कहती है, "राजन, जब आप मेरे लिए अपने परिवार को नहीं छोड़ सकते तो मैं आपके लिए अपनी माँ को कैसे अकेली छोड़ दूँ? फिर समझ लो हमारी शादी नहीं हो सकती..." और गुड बॉय कहकर वह वहाँ से उठकर चली जाती है और राजन उसके कठोर निर्णय के सामने उसको रोकने की हिम्मत नहीं जुटा पाता।</p><p>यहाँ लेखक ने सरिता के चरित्र से एक शसक्त महिला का चरित्रचित्रण किया है जो प्रशंसनीय है। </p><p>, 'प्रथम':- इस लघुकथा की नायिका अलका भी सरिता की तरह शसक्त है और शादी के पहले प्रथम परिचय के समय, निर्णायक बातचीत करने से पूर्व लड़का-लड़की के मध्य एकांत में चल रही बातचीत को रेखांकित करती है। लड़का उसको पूछता है, "एक बात सच-सच बताइए, आपका किसी लड़के से लव-अफेयर है....?" अलका इस प्रश्न से चौंक जाती है और इसके प्रत्युत्तर में वह यही प्रश्न लड़के से पूछती है । लड़के का पुरुष अहम जाग जाता है और वह कहता है, "अपने होने वाले पति से ऐसा सवाल पूछने का आपका कोई अधिकार नहीं..."अलका के क्यों पूछने पर वह कहता है, "क्योंकि तुम्हें पसन्द करने मैं आया हूँ।" इसपर अलका कहती है, "देखिए जनाब, पसन्द और नापसंद पर मेरा भी बराबर अधिकार है। आप मेरे सवाल का जवाब नहीं देना चाहते तो मैं भी आपसे कोई सम्बंध नहीं जोड़ सकती।" और अलका वहाँ से उठ जाती है। इन दोनों लघुकथाओं में सँवाद सहज और स्वाभाविक तरह से कथानक को आगे बढ़ाते है और उसकी रोचकता को बरकरार रखते हुए निर्णायक यानी कि चरम तक पहुँचाते हैं। 'नई सदी' एवं 'अनसुना', लघुकथाओं में बेबाक, उद्दण्ड और दबंग लड़कियों को केंद्रित करके लिखी गयी लघुकथाएँ हैं जिसमें वे लोग लड़को को इस कदर छेड़ती हैं जिसके चलते वह उनसे आतंकित हो जाते हैं और लड़का वहाँ से अपना सर झुकाए चला जाता है परंतु वे उपहास करते हुए नहीं रुकती ।</p><p>'सगाई':- इस लघुकथा मे लड़के को देखने लड़की और उसके घरवाले आते हैं और वे लड़के से वो सब पूछते हैं जो आमतौर पर लड़के वाले सगाई से पहले लड़की से पूछते हैं। लड़की नौकरी पेशा है और उसकी पहले भी शादी हो चुकी होती है और वह अपने पति को इसलिये छोड़ देती आ</p><p>है और डाइवोर्स ले लेती है क्योंकि उसको लगता है कि वह दकियानूसी है । वह महिला अपने पिता से कहती है कि वह इस पुरुष को एक हफ्ते के ट्रायल पर रखेगी और उसके बाद ही शादी करने का निर्णय लेगी । इसके कथानक के सच में होने की सम्भवना समाज मे कितनी है यह एक शोध का विषय है । 'अर्थबल':- इस लघुकथा में पति-पत्नी दोनों ही नौकरी पेशा हैं परंतु पत्नी अपने कैरियर और नौकरी को लेकर इतनी सजग है कि वह अपने पति से कह देती है कि बच्चे के लिये वह अपनी नौकरी नहीं छोड़ सकेगी परंतु पति को अगर उनके बच्चे की चिंता हो तो वह नौकरी छोड़कर घर में रहकर अपने बेटे की देखभाल कर सकता है। अर्थबल शीर्षक कथानक के अनुरूप सटीक है। </p><p>'आरक्षण'-, महिलाओं के आरक्षण के चलते देश के अधिकांश मुख्य पदों पर महिलाओं की नियुक्ति होने पर पुरुष वर्ग की चिंता और उनके बीच बढ़ रही बेरोजगारी पर केंद्रित यह लघुकथा अच्छी बन पड़ी है जो किसी भी आरक्षण के दुष्परिणाम को रेखांकित कर रही है । आरक्षण जैसे गम्भीर विषय पर समाज को और भी सजग और चिंतन मनन करने की आवश्यकता है । इसी उद्देश्य को परिलक्षित कर रही है यह लघुकथा। 'आभूषणों में क़ैद'- वर्तमान में नारी अपने को आभूषणों में लदी हुई नहीं देखना चाहती अपितु वह शक्तिशाली बनकर अपने पाँवों पर खड़ा होना चाहती हैं। यही बात इस लघुकथा में कही गयी है। </p><p>प्रस्तुत सँग्रह में प्रकाशित में लेखक ने .मोनोविज्ञान पर आधारित लघुकथाओं की चर्चा करते हुए सर्वप्रथम इस श्रेणी की 'मन का आतंक' लघुकथा का अवलोकन करते हैं। यह एक प्रयोगात्मक लघुकथा है जो एकालाप शैली में लिखी गई। इस लघुकथा में एक ही पात्र है जो बोल रहा है और एक पात्र अपरोक्ष रूप से अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहा है। इस लघुकथा का इकलौता पात्र एक पत्नी है जो अपनी मन की पीड़ा और डर के परतों को खोल रही है। इसमें एक पत्नी के मनोविज्ञान को बहुत ही करीने से दर्शाया गया है। इस लघुकथा को देखें- अचानक उसकी नज़र द्वार पर चली गयी। </p><p>"आप इस समय?क्या ऑफिस जल्दी छूट गया? आप कुछ बोलते क्यों नहीं? नाराज़ हो क्या...?"</p><p>....वह कॉलेज में मेरे साथ पढ़ता था....नहीं नहीं, ऐसा कुछ नहीं हुआ....सच तुम्हारी कसम....अचानक सड़क पर मिल गया....औपचारिकतावश चाय के लिए टोक दिया था....हाँ.... हाँ.... कॉलेज की कुछ बातें हुईं थीं.... बस और कुछ नहीं, बिल्कुल भी नहीं....फिर कभी मिला तो कन्नी काट जाऊँगी, ....बोलो अब तो खुश हो न आप...."</p><p>पत्नी का कॉलेज के समय का कोई दोस्त जिसको वह इतने वर्षों बाद मिली परंतु यह बात अब तक उसने अपने पति से छिपाई थी जो आज उसने कहा दिया। परंतु उसने देखा कि तेज हवा से द्वार का पर्दा हिल रहा था।</p><p>'अरे यहाँ तो कोई नहीं आया...फिर मैं किससे बातें कर रही थी?' उसने अपने माथे को छुआ तो चौंक गयी, सचमुच माथा पसीने से गीला था। </p><p>एक पत्नी की आत्मग्लानि जो माथे से पसीना बन बह रही थी । यह इस सँग्रह की उत्कृष्ट लघुकथा है। इसके इसी प्रस्तुतिकरण के कारण यह पाठकों के हृदय को छू लेगी ऐसा मेरा पूर्ण विश्वास है।</p><p> 'तपन':- 'एक व्यक्ति जो नियमित समाचार सुनता तो है परंतु वह सिर्फ सुनता ही है और दूसरे रूप में देखें तो जब कुदरत अपना कहर बरसाती है तब वह प्रलय जैसी स्थिति उत्पन्न कर देती है और इंसान सुनते हुए भी समझते हुए भी कुछ नही कर पाता। ऐसा ही कुछ इस लघुकथा के नायक के साथ होता है जो प्रथम दिन समाचार में सुनता है कि पड़ोसी देश मे भयंकर तूफान आया और सैंकड़ों लोग मारे गए तथा हज़ारों बेघर हो गए। </p><p>जब दूसरे देश की बात थी तब उसने इस समाचार को आसपास बाँटने का कार्य किया एक तमाशबीन की तरह। दूसरे दिन उसने सुना कि तूफान उसके देश की सीमाओं में प्रवेश कर लिया है, तीसरे दिन तूफान उसके राज्य में मंडराने लगा, तब वह चिंता में डूब गया उसी रात तूफान का शोर उसे गाँव की सीमा पर सुनाई पड़ने लगा और वह आपने छप्पर को मजबूत करने लगा पर बहुत देर हो चुकी थी, सुबह-सुबह तूफान बहुत तेज हुआ और उसके घर के छप्पर को उखाड़ कर ले गया। प्रतीकात्मक शैली में लिखी इस लघुकथा में छिपा संदेश कि हर व्यक्ति को दूर की सोच कर ही अपने जीवन में कार्य करना चाहिये क्योंकि मुसीबत कभी कहकर नहीं आती। यह एक अच्छी लघुकथा है और इसका शीर्षक तपन में प्रतिकात्मक है जो कथानक के अनुरूप है कि और अपने में जीवन की तपन को दर्शा रहा है।</p><p> ', 'माहत्मा का सच' :- धर्म का प्रचार एवं मनुष्य को नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाले बाबाओं का अपना योगदान है । यह भी अपने आप में एक व्यवसाय-सा बन गया है और इन लोगों के आडम्बर के चर्चे आम बात है। ऐसे में अगर कोई महात्मा इस लघुकथा के नायक की तरह यह शपत ले ले कि आज जो कहूँगा सच कहूँगा और सच के अलावा कुछ नहीं कहूँगा तब उनके अनुयायीओं की प्रतिक्रिया शायद ऐसी ही हो जैसा कि लेखक ने इस लघुकथा में वर्णन की है। कथानायक पहले तो अपने भक्तों के सामने बाबा क्यों बना इसके पीछे यह कारण बताते हैं कि प्यार में धोखा मिला और बाद में यह भी बताते हैं कि नेताओं के काले धन को सफेद करवाने का माध्यम हैं। उनके भक्तों को पहले तो आश्चर्य हुआ परंतु फिर उनकी समझ में आ गया कि उनके स्वामी सत्यवादी, विनम्र एवं निर्दोष हैं। इसके बाद इनके यहाँ भीड़ बढ़ने लगी। कुल मिलाकर यह बहुत ही साधारण सी लघुकथा है । </p><p>'उबाल' :- घरेलू हिंसा पर आधारित इस लघुकथा में नायिका पत्नी अपने पति की कमीज पर क्रोध निकालकर उसको ज़ोर से पीटना शुरू कर देती है जिस कारण वो वहाँ से फट जाती है पर उसको तनिक भी पश्चाताप नही होता। पुरुष-प्रधान समाज में पत्नी के हालातों को दर्शाती एक साधारण-सी लघुकथा है। दूर के ढोल'- इस लघुकथा के माध्यम से लेखक ने यह समझाने का प्रयास किया है कि आजकल भक्त प्रह्लाद जैसा पुत्र कोई नहीं बनता । </p><p>'अवस्था के बिम्ब':- यह भी एक प्रयोगात्मक लघुकथा है जिसमें तीन दृश्य दिखाए गए हैं। लगभग 18 वर्ष का जोड़ा, पार्क के कोने वाले बैंच पर एक दूसरे को आँखों में आँखें डाले, एक दूसरे से सटकर मौन बैठा था। </p><p>उसी पार्क में लगभग 35 वर्ष का युगल पार्क की छतरी के नीचे, साथ-साथ बैठा, बतिया रहा था। </p><p>पार्क की दीवार की ओट में 75 वर्ष का, एक दूसरे पर आश्रित जोड़ा आमने सामने बैठा धूप सेक रहा था। </p><p>इस लघुकथा के अंतिम वाक्य में इसका सार है पार्क के बीच में खड़ा आश्चर्यचकित बालक तीनों जोड़ों को देखकर घबरा रहा है। </p><p>बच्चे को समझ नहीं आता कि आगे जाकर उसको क्या और कैसे रहना है क्योंकि सब अपने-अपने हिसाब से रहते हैं बिना यह सोचे कि बच्चों के भविष्य का क्या होगा? </p><p> 'विस्तार':- इस लघुकथा में बेटा-बहू के कहने पर अपनी माँ को अनाथाश्रम छोड़ आता है परंतु जब घर के काम-काज करने में वह थकने लगती है तो वह अपने पति को पुनः उनको घर लिवाने के लिए भेज देती है । वह माफ़ी माँगते हुए जब उनको घर आने को कहता है तब एक स्वाभिमानी माँ यह कहती है, "माफी किस बात की? तुमने तो यहाँ भेजकर मुझपर उपकार ही किया है। वहाँ तो मैं केवल तुम्हारी माँ थी, परन्तु यहाँ तो तीस बच्चों की माँ हूँ। आश्रम के स्वामी जी तथा सभी सेवक मुझे भरपूर सम्मान देते हैं। अब तो यह आश्रम ही मुझको अपना घर लगने लगा है।" </p><p>इसका अंतिम वाक्य बेहद सुंदर बन पड़ा है- सारे पासे असफल होते देख बेटा उदास हो गया। परंतु कमरे की खिड़कियों से झाँकती नन्हीं-नन्हीं आँखों में चमक भर गयी। माँ को बच्चों का प्यार और तीस बच्चों को माँ का प्यार मिल जाता है। इस लघुकथा का अंत जिस तरह हुआ है उस कारण यह लघुकथा सुंदर बन पड़ी है। </p><p>'डरे-डरे संरक्षक':- इस लघुकथा के माध्यम से लेखक ने वर्तमान में बच्चों की बदलती मानसिकता को लेकर चिंता व्यक्त की है। कानून ने बच्चों को स्कूल में मारने-पीटने पर रोक लगाई है और अगर वह उनके अभिभावकों को उनकी शिकायत करते हैं तब वे यह कहते हुए मिलते हैं कि अगर उन्होंने उसको डाँटा या मारा और इकलौता बेटा घर से भाग जाएगा...। ये कैसा डर है जो लगभग हर संरक्षक के हृदय में घर कर गया है । यह एक गम्भीर विषय है जिसपर समाज को भी गम्भीरता से सोचना समझना होगा और बच्चों के मानसिकता को समझते हुए उनको सही दिशा दिखाना होगी। </p><p>'पहली लड़ाई' :- एक डरपोक व्यक्ति जब पहली बार पतंग उड़ाता है तब उसकी पतंग कट जाती है परंतु उसको यह सन्तोष हो जाता है कि उसने अपनी पहली लड़ाई इस पतंग के माध्यम से लड़ी और वह दूसरी पतंग को उड़ाने के लिये चला जाता है। इस लघुकथा के माध्यम से लेखक ने यह समझाने का प्रयास किया है कि व्यक्ति का डर और उस डर से लड़ने की क्षमता दोनों ही उसके भीतर होती है। बस उसको उन चीजों को समझना होता है और अपने डर पर प्रयास करके विजय हासिल करना होता है। 'पत्रों का संघर्ष':- इस लघुकथा में पत्रों के माध्यम से लेखक ने पत्रिका के प्रकाशक को जहाँ उसको प्रकाश में लाने हेतु पैसों की आवश्यकता पड़ती है और इसके लिये वह अपने मित्र को लिखने में भी नहीं हिचकता कि क्योंकि उसके पास राशि नहीं है सो हो सकता है वह इस पत्रिका को न ला सके ऐसे में अगर वह मित्र उसको अपनी परेशानी बताते हुए कुछ राशि को उसके बैंक के खाते में डाल दी है कि सूचना देता है तब प्रकाशक का आश्चर्यचकित होना और उसको उसके पत्रों की इबारत अक्षरतः दिखाई देने लगती है जो बहुत ही स्वाभाविक है। ऐसा ही दृश्य इस लघुकथा में चित्रांकित किया गया है। इसके अतिरिक्त 'डी. एन. ए.:- सँवाद शैली में लिखी गयी इस लघुकथा में एक मंत्री के किसी महिला से अनैतिक सम्बन्ध और फलस्वरूप जब वह महिला वर्षों बाद उसको सम्पर्क करती है और यह बताती है कि उसका बेटा जवान हो गया है और पिता का नाम चाहता है। ऐसे में मंत्री जब उसको हड़का देता है तब वह महिला कहती है कि वह बच्चे का का डी. एन.ए टेस्ट करवा सकती है। तब वह मंत्री डर जाता है और उसके घर पहुँचने की बात करता है। उस मंत्री को एहसास हो जाता है कि जवानी में की गई गलती को दबाना कितना कठिन होता है। यहाँ इसी भाव को लिखकर लेखक ने इस लघुकथा का अंत किया है। </p><p><br /></p><p>5. भ्रष्टाचार पर आधारित लघुकथाएँ की बात करें प्रस्तुत सँग्रह में 'संस्कार' 'इज्जत के लिए', 'खोज', 'अंधा बांटे रेवड़ी', इत्यादि रचनाएँ शामिल हैं। संस्कार लघुकथा नौकरी में आरक्षण पर आधारित है जिसमें सुयोग व्यक्ति को कई बार उसके योग्य नौकरी नहीं मिल पाती और वह अपने से कम योग्य व्यक्ति के अंडर काम करने पर मजबूर हो जाता है। इज्जत के लिये :- चिकित्सा विभाग में डॉक्टर द्वारा भ्रष्टाचार किए जाने पर प्रकाश डाला गया है। मरीज और उसके घर वाले किस हद तक मजबूर हो जाते हैं कि गरीब व्यक्ति को अपने परिजन जो मृत्युशैया पर लेटा है जिसका बचना असंभव है उसको वह डॉक्टर को दिखाने के लिये कर्ज भी लेता है समाज के डर से कि कहीं समाज यह न कहे कि जानबूझकर उसने अपने माता या पिता का इलाज नहीं करवाया और ऐसे में अगर कोई झोलाछाप डॉक्टर जो मरीज को इंजेक्शन लगाता है परंतु वह देखता है कि सिरिंज में खून निकलकर भर रहा है। पर लोक-लाज के मारे वह उससे कहता तो कुछ नही पर उसको समझने में यह देर नहीं लगती कि यह डॉक्टर अनाड़ी है। ऐसे डॉक्टर कई जगह नज़र आ जाते हैं जो मरीजों के जीवन से खेल जाते हैं। यह एक गम्भीर समस्या है जिसका निदान होना अति आवश्यक है।</p><p>खोज:- पुलिस भ्रष्टाचार पर आधारित इस लघुकथा में आधी रात को डाकू किसी गाँव में लूटपाट कर दो हत्या कर देते हैं और गाँव से तीन-चार किलोमीटर दूर चले जाते हैं। तब बस्ती में भारी जूतों की आवाज़ ठपठपाने लगती है। वे लोग सवाल पूछ-पूछकर चले जाते हैं और दूसरे दिन शाम को डी. एस. पी. ग्रामीण लोगों को एकत्रित करके बताते हैं, "आपको यह जानकर खुशी होगी कि डाकुओं की बंदूक से निकले दो कारतूस हमने बरामद कर लिए हैं...अब जल्दी ही डाकुओं की पहचान कर ली जाएगी...</p><p>इसका अंतिम वाक्य आमजन के बीच पुलिस प्रशासन के प्रति निराशा दर्शा रही है कि किस कदर इन लोगों ने अपनी छवि बिगाड़ कर रखी है- एक सप्ताह बीत गया, धीरे-धीरे लोगों की आँखें धुँधलाने लगीं। 'अँधा बांटे रेवड़ी'- किसी भी तरह के पुरस्कार बांटने में भी किस तरह से राजनीति होती है और आयोजकों का प्रयास रहता है कि ऐसे में जब लिस्ट बनती है तो नेता यह चाहता है कि अपनी जाति और क्षेत्र का कोई व्यक्ति हो तो उसको लिस्ट में सर्वप्रथम होना चाहिए।</p><p><br /></p><p>6.अन्यान्य विषयों पर आधारित लघुकथाएँ:- 'नाम की महिमा' जो कि सम्पदान व्यवसाय पर आधारित है जिसमें यह दर्शाया गया है कि इस व्यवसाय में एक नामी रचनाकार की रचना को स्थान मिल जाता है फिर चाहे उस रचना में कोई दम न हो परंतु जब यह पता चल जाता है कि वह रचना किसी साधारण लेखक ने लिखी है तब उस रचना को कचरे की टोकरी में फैंक दिया जाता है।, </p><p> 'आजादी' :- इस लघुकथा में लेखक ने यह सन्देश देने का सद्प्रयास किया है कि अमीर होना सुख को पाना नहीं और न ही उसकी खर्च करने की क्षमताओं को देखकर उसकी आजादी का अनुमान लगाया जा सकता है क्योंकि वह अपने नौकरों के आधीन हो जाता है वहीं एक गरीब व्यक्ति जो खुले आसमान के नीचे सोता है परंतु वह जहाँ चाहे जब चाहे आना-जाना कर सकता है और वह स्वतंत्रता से अपने निर्णय ले सकता है। यही सच्ची आज़ादी होती है। यह लघुकथा थोड़ी उपदेशात्मक हो गयी है। , 'प्रशिक्षण':- वर्तमान शिक्षा नीति और उसके बाद उत्पन्न होती बेरोजगारी की समस्या को लेकर व्यंग्य है कि इससे बेहतर है कि राजनीति के मैदान में उतार देना आसान होता है । 'सभ्रान्त नागरिक' :- सड़क दुर्घटना पर आधारित इस लघुकथा में देश के एक जागरूक नागरिक का चित्रण है जो दुर्घटना के होते ही पुलिस स्टेशन में इसकी सूचना देता है और अस्पताल भी ले जाता है। पुलिस जहाँ रिपोर्ट लिखवाने की खाना-पूर्ति करती दिखाई पड़ती है और उस भले इंसान को बे वजह परेशान करती है। ऐसे में अस्पताल से अगर डॉक्टर यह कह देता है कि क्योंकि पेशंट को समय पर अस्पताल में भर्ती करवाया गया उसकी जान बच गयी है। तब एक सम्भ्रान्त नागरिक की परेशानियों का मीठा फल मिल जाता है और उसकी चिंता मिट जाती है। इस लघुकथा में किसी अस्पताल में बिना पुलिस की जानकारी या रिपोर्ट किये उसका इलाज शुरू कर देने वाली घटना पर विश्वास कर पाना मेरे लिये थोड़ा मुश्किल हो रहा है। </p><p>, 'बातूनी' :- यह लघुकथा विद्यार्थी जीवन पर आधारित है जिसमें एक बच्चा अपने दोस्तों के मध्य गपशप करके अपना समय बर्बाद करता है और उसकी माँ उसको पढ़ाई करने को कहती है। 'सुनो कहानी', बदलाव' (फंतासी):- ये दोनों लघुकथाएँ फंतासी शैली में लिखी गयी हैं। सुनो कहानी में एक सुंदर सी लड़की जिसका विवाह एक राजा के साथ होता है परंतु वह उसके महल में अपने सुख-दुःख को किसी से बांट नही पाती क्योंकि ऐसा ही आदेश राजा ने दिया था। और आखिर में वह मर जाती है। इस लघुकथा में मनुष्य सामाजिक प्राणी है जिसको अपने सुख-दुःख बांटने के लिए किसी व्यक्ति की आवश्यकता पड़ती है । फिर वह चाहे बड़े से महल में ही क्यों न रहता हो पर जब उसके भीतर अकेलापन घर कर लेता है और ऐसे में उसके पास किसी को न पाकर वह दम तोड़ देता है जो बहुत ही स्वाभाविक है।</p><p> 'अपनी-अपनी ज़मीन' :-भूख पर आधारित इस लघुकथा में लेखक का यह उद्देश्य परिलक्षित हुआ है कि भूख हर व्यक्ति को लगती है और यह जात-पात नहीं देखती ।अपने अपने रिश्ते' :अंतर जातीय विवाह पर आधारित है । </p><p>, 'सहारा':- इस लघुकथा में कामकाजी बहू के पक्ष में खड़ी एक सास दिखाई देती है जो अभी-अभी काम से घर लौटी है और उसका पति चाय की फरमाइश कर देता है। ऐसे में सास अपने बेटे को टोक देती है और स्वयं चाय बनाने हेतु खड़ी हो जाती है। बेटी जब उसको टोकती है तब वह कह देती है कि बहू से जब नौकरी करवाना है तो घर में उसका हाथ बंटवाने की ज़िम्मेदारी घर के हर सदस्य की बन जाती है। परिवार में प्रेम-भाव बढ़ाने के उद्देश्य से लिखी गई यह एक सुंदर लघुकथा है। 'मेरा वृक्ष' :- यह लघुकथा पर्यावरण संरक्षण के महत्त्व को बढ़ाती लघुकथा है। जिसमें एक भाई के पब्लिक पार्क के चित्र को बनाता है। जिसको रंगों से सजाता है और एक कोने में वट वृक्ष को खड़ा कर देता है। उसका छोटा भाई जलन के मारे अपनी कलम निकाल लेता है और वृक्ष पर काटा लगा देता है। दोनों भाइयों में बहस हो जाती है, और शिकायत माँ तक पहुँच जाती है। वह कुछ कह पाए उसके पहले ही बड़ा भाई कहता है, "अम्मा, इस पागल को इतना भी ज्ञान नहीं कि पेड़ो की शीतल छाया और ऑक्सिजन हमको मिलती है, सरकार को नहीं, इसलिए ये वृक्ष हमारे हैं..."</p><p>और छोटे भाई को अपनी गलती का एहसास हो जाता है और अपनी गलती मान लेता है और बड़े भाई का क्रोध शांत हो जाता है। बाल-सुलभ आधारित यह एक सुंदर लघुकथा हुई है।</p><p>, 'फिर एक बार':- शरणार्थी का दर्द को उकेरती यह एक अच्छी लघुकथा है। एक व्यक्ति जो पाकिस्तान से अपना देश समझकर अपने देश आ जाता है, उसको एक बार तब लूटा गया जब दस वर्षों तक उसको लोग पाकिस्तानी ....शरणार्थी कहते रहे, अगले बीस वर्ष पंजाबी कहकर दंश देते रहे , अब लोगों को इनके शरीर से हरियाणवी मिट्टी की गंध आने लगती है... फिर एक बार सारी गंध सूख जाती है... वह जूतों को बेचने वाला एक व्यापारी होता है जिसकी दूकान को लूट लिया जाता है। वह चिंतित हो जाता है कि वह कैसे चुकाएगा थोक व्यपारी की उधार और कहाँ से भरेगा बैंक की किश्त! यह एक मार्मिक लघुकथा है जो सहज ही हृदय को छू जाती है।, 'सपना' :- इस लघुकथा में एक पत्रकार को राम राज्य का सपना आता है और वह एक लेख लिखता है परंतु लोग उसका कहीं उपहास न उड़ाएँ इस डर से वह अपने लेख को एक फ़ाइल में रख देता है और धीरे-धीरे वह उसमें दबता चला जाता है और पत्रकार लेख को प्रकाशित करवाने हेतु उपयुक्त समय की प्रतीक्षा करता है। साहित्य की स्थिति को दिखाती यह एक गम्भीर रचना है ।</p><p> 'अतिथि देवो भव' मातृ दक्षिणा :- इस लघुकथा में विदेशियों की मदद करता हुआ एक किसान दिखाई देता है जो उनकी गाड़ी के पंक्चर हुए पहिये को निकालकर डिग्गी से दूसरा पहिया निकालकर लगा देता है और उनके द्वारा बख्शीश की राशि को न लेकर भारतीय संस्कृति का परिचय देता है। 'ऊँचा तिरंगा':- यह बाल मनोविज्ञान पर आधारित एक सुंदर लघुकथा है। स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर एक मोहल्ले के बच्चों में बहस छिड़ जाती है कि कल देखते हैं सबसे ऊँचा झण्डा कौन फहराएगा। सब बच्चें अपनी अपनी बात रखते हैं ऐसे में एक बच्चा जिसका घर बहुत नीचा होता है और जो पाइप भी नहीं ला सकता वह चिंतित हो जाता है और रात एक बजे उसको एक ख्याल सूझता है और वह चुपचाप अपने मकान की छत पर आ जाता है। मुंटी में से अपनी चरखड़ी और तिरंगे वाली पतंग निकाल लेता है और आकाश में पतंग उड़ाने लगता है। स्वतंत्रता दिवस की शीतल हवा उसके मन को मस्त और पुलकित कर देती है। पतंग को आकाश में चढ़ाकर वह आसपास के सभी मकानों की और देखता है औए कह उठता है, "हाँ मेरी पतंग सबसे ऊँची है।" यह सोचकर वह सुबह होने की प्रतीक्षा करने लगता है। जहाँ चाह वहाँ राह के मुहावरे को परिभाषित करती यह अपने सोए आत्मविश्वास को जगाने वाली एक सार्थक लघुकथा है।</p><p> , 'कन्या पूजन' :- एक दाई जो कन्याओं को गर्भ में मरवाती देती थी को कान्याओं की महत्ता तब समझ में आती है जब दुर्गाष्टमी के पूजन करने के बाद सात कान्याओं को एकत्रित करने के लिये मोहल्ले में निकलती है परंतु उसको सिर्फ पाँच ही कन्याएँ मिल पाती हैं। दो थाली बच जाने से वह उन दोनों थालियों को लेकर मन्दिर चली जाती है। जब वहाँ दूसरी महिलाओं के साथ चर्चा चलती है तब वह कहती है कि वह दाई इसलिये बनी थी क्योंकि यह उसकी सास की इच्छा थी पर जब पूजन की बात आई तो यह उसके संस्कारो की बात थी जिसमें वह हार गई सो शपत खाती है कि आगे से वह कान्याओं की हत्या किसी के भी गर्भ में न करेगी न करवाएगी। यहाँ पूजन के बाद लड़कियों का न मिल पाने की स्थिति एकदम से आ जाये यह बात थोड़ी खटक रही है। </p><p> 'बोहनी' :- गरीब व्यक्ति के लिये अपने सामान की बिक्री से हो रही बोहनी कितनी महत्त्वपूर्ण होती है यह बात अनुभवी आँखों की आवश्यकता होती है जैसा इस लघुकथा के नायक ज्ञानरंज को होता है जब वह एक मैली- कुचैली लड़की रंग-बिरंगी बॉल बेच रही थी और उसकी बोहनी करवाने की मिन्नते कर रही थी। वह जब बॉल को देखता है तब चाइना मेड होने के कारण एक बार तो खरीदने के लिये इनकार कर देता है पर जब वह उस बच्ची के मुरझाए चेहरे की पीड़ा को देखता है तो एक गेंद खरीदकर उसकी बोहनी करवा देता है। बच्ची के चेहरे पर मुस्कान आ जाती है। यह व्यक्ति के कोमल भावना को दर्शाती हुई प्यारी सी लघुकथा है। भविष्य की चिंता' :- साहनुभूति पाकर अपने लिए खाना माँगने के लिये ज़ोर-ज़ोर से रोने वाले भिखारी को एक दिन अचानक से भविष्य की चिंता सताने लगती है कि अगर किसी दिन किसी को पता चल गया और खाना देना बंद कर दिया तो...और वह बावला भिखारी और तेज रोने लग जाता है। विद्यासागर अभी ज़िंदा है- इस लघुकथा के माध्यम से लेखक ने यह कहने का सद्प्रयास किया है कि व्यक्ति तो मर जाता है परंतु उसके द्वारा किया गया काम उसकी मृत्यु के बाद भी याद किया जाता है और उस व्यक्ति को अपने कार्यों के लिये जाना-पहचाना और जीवंत रखता है। </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi3GvCoUEt13Ll0F68nWrq1rRJA9jQ4-b498lFbFv5u01AAsZSeRa00DFMdfluy6Pd0aVmt7sIpVe5qsBE52-ZO4_Q8fqyc4ddGbM2aqoJLw2HvyP13-F-arE23274RbGKJvMVCC-_mCf95iPQ4rxiBX73BN6FsvYPVlIAxE1qOzMajuQdWuMmJIYUHckg/s416/Kalpana_Bhatt.jpg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="412" data-original-width="416" height="151" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi3GvCoUEt13Ll0F68nWrq1rRJA9jQ4-b498lFbFv5u01AAsZSeRa00DFMdfluy6Pd0aVmt7sIpVe5qsBE52-ZO4_Q8fqyc4ddGbM2aqoJLw2HvyP13-F-arE23274RbGKJvMVCC-_mCf95iPQ4rxiBX73BN6FsvYPVlIAxE1qOzMajuQdWuMmJIYUHckg/w153-h151/Kalpana_Bhatt.jpg" width="153" /></a></div><p>इन लघुकथाओं के विषयों में नयापन नहीं है परंतु भाषा सहज और स्वाभाविक है। आपके इस संग्रह के शीर्षक 'तूणीर' की बात करें तो इसका सामान्य अर्थ तरकश यानी कि तीर रखने वाला पात्र जो सामान्यतः काँधे पर लटकाया जाता है। आपकी लघुकथाओं को पढ़कर यह कहना गलत न होगा कि आपकी लेखनी से निकली कुछ बेहतरीन लघुकथाएँ तीर की तरह पाठकों के ह्रदय को चीरकर उसमें वास करेंगी । मुख्य पृष्ठ आकर्षक लगा। </p><p>कुल मिलाकर मैं यह कहने में अपने को बहुत ही सहज पा रही हूँ कि प्रस्तुत सँग्रह पठनीय है और पाठकों को इसकी लघुकथाएँ पसन्द आएँगी। मधुकांत जी के 'तूणीर' नामक इस एकल लघुकथा सँग्रह को पढ़ते हुए जितना मैं समझ पायी हूँ उस अनुसार अपने विचारों को रखने का विनम्र प्रयास किया है । अब इसमें मैं कितना सफ़ल हो पाई हूँ इसका निर्णय मैं आप सभी सुधिपाठकों पर छोड़ती हूँ।</p><p><br /></p><p>- <b>कल्पना भट्ट</b></p><p>स्थान:- ठाणे(मुम्बई)</p><div><br /></div>Chandreshhttp://www.blogger.com/profile/02561154935591615367noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-6612594456838147086.post-40004420317423607582023-07-18T16:06:00.001+05:302023-07-18T16:06:25.945+05:30लघुकथा वाचन: संध्या तिवारी द्वारा | गरीब सोच/इतिहास गवाह है/मृत्युदंड | चंद्रेश कुमार छतलानी<p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><iframe allowfullscreen="" class="BLOG_video_class" height="266" src="https://www.youtube.com/embed/uCY4fv-Op8s" width="320" youtube-src-id="uCY4fv-Op8s"></iframe></div><br /><p></p>Chandreshhttp://www.blogger.com/profile/02561154935591615367noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6612594456838147086.post-73286580982177093362023-06-12T15:29:00.000+05:302023-06-12T15:29:09.001+05:30हरियाणा प्रादेशिक लघुकथा मंच, सिरसा द्वारा अखिल भारतीय सम्मानों हेतु हिंदी लघुकथा प्रतियोगिता <p><span style="background-color: white; color: #050505; font-family: inherit; font-size: 15px; white-space-collapse: preserve;"><b>हरियाणा प्रादेशिक हिंदी साहित्य सम्मेलन, सिरसा (हरियाणा)</b></span></p><p><span style="background-color: white; color: #050505; font-family: inherit; font-size: 15px; white-space-collapse: preserve;">द्वारा संचालित </span></p><div class="xdj266r x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs x126k92a" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0px; overflow-wrap: break-word; white-space-collapse: preserve;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">हरियाणा प्रादेशिक लघुकथा मंच, सिरसा की ओर से अखिल भारतीय स्तर पर निम्नलिखित सम्मानों के लिए हिंदी लघुकथा प्रतियोगिता के आयोजन हेतु प्रविष्टयां आमंत्रित हैं-</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><br /></div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">1. प्रथम - सुगनचंद मुक्तेश स्मृति लघुकथा सम्मान (नगद पुरस्कार राशि-3100₹, प्रशस्ति पत्र, अंग वस्त्र व माला)</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">2. <span style="font-family: inherit;"><a style="color: #385898; cursor: pointer; font-family: inherit;" tabindex="-1"></a></span>द्वितीय - पूरन मुद्गल स्मृति लघुकथा सम्मान (नगद पुरस्कार राशि-2100₹, प्रशस्ति पत्र, अंग वस्त्र व माला)</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">3. तृतीय - डॉ सुरेंद्र वर्मा स्मृति लघुकथा सम्मान /श्रीमती रक्षा शर्मा 'कमल' स्मृति लघुकथा सम्मान ( प्रत्येक को नगद पुरस्कार राशि-1100₹, प्रशस्ति पत्र, अंग वस्त्र व माला)</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">* उपरोक्त सभी को पुरस्कार राशि <b>श्री योगराज प्रभाकर </b>संपादक 'लघुकथा कलश' के सौजन्य से प्रदान की जाएगी।</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">4. उपरोक्त के अतिरिक्त दस लघुकथाओं को प्रोत्साहन पुरस्कार दिए जाएंगे जिसमें प्रशस्ति पत्र, अंग वस्त्र व माला होगी।</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;"> * उपरोक्त सम्मान/ पुरस्कार 10 सितंबर, 2023 को सिरसा में आयोजित अखिल भारतीय लघुकथा सम्मेलन में प्रदान किए जाएंगे।</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><br /></div><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><b><u>* प्रतियोगिता में सम्मिलित होने हेतु सामान्य नियमावली:-</u></b></div><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><b><u><br /></u></b></div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">1. केवल एक लघुकथा जो विधा के मापदंडों के अनुकूल हो, भेजी जानी है।</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">2. लघुकथा मौलिक, अप्रकाशित (पत्र-पत्रिका या सोशल मीडिया पर न हो) और अप्रसारित हो। </div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">3. लघुकथा के विषय धर्म ,जाति, संप्रदाय, राजनीति आदि पर कटाक्ष अथवा व्यंग्य करने वाले न हों। </div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">4. लघुकथा केवल मुख्य ईमेल बॉडी में पेस्ट करें अथवा वर्ड फाईल में अटैच करें। पीडीएफ, हाथ से लिखकर इमेज के रूप में या अन्य किसी स्वरूप में भेजी गई लघुकथाएं मान्य नहीं की जाएंगी।</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">5. लघुकथा निम्न ईमेल पर केवल यूनिकोड/ मंगल फोंट में दिनांक 15 जुलाई, 2023 तक अवश्य भेज दें-</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">sheelshakti80@gmail.com</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">6. लघुकथा प्रतियोगिता के परिणाम संस्था के मुख्य संयोजक तथा संयोजक द्वारा घोषित किए जाएंगे।</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">7.निर्णायकों का निर्णय अंतिम व सर्वमान्य होगा।</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">8. संस्था के सदस्य इस प्रतियोगिता में हिस्सा नहीं ले सकेंगे। </div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">9. सम्मानित एवं पुरस्कृत लघुकथाओं को संस्था द्वारा प्रकाशित पुस्तक में सम्मिलित किया जाएगा। </div><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><br /></div><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><b>मुख्य संयोजक : प्रोफेसर रूप देवगुण </b></div><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><b>संयोजक : डॉ. शील कौशिक </b></div><div><br /></div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space-collapse: preserve;"></div>Chandreshhttp://www.blogger.com/profile/02561154935591615367noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6612594456838147086.post-80008004400844945362023-05-23T22:54:00.006+05:302023-05-23T22:54:00.142+05:30क्षितिज वैश्विक लघुकथा प्रतियोगिता 2023<p>*क्षितिज वैश्विक लघुकथा प्रतियोगिता2023*</p><p><br /></p><p>क्षितिज संस्था, इंदौर द्वारा <b>दिनांक 29 अक्टूबर 2023 को इंदौर में अखिल भारतीय लघुकथा सम्मेलन2023 </b>आयोजित किया जा रहा है । इस अवसर पर विश्व लघुकथा प्रतियोगिता भी आयोजित की जा रही है। लघुकथा प्रतियोगिता में प्रथम सात विजेता लघुकथाकारों को </p><p>1डॉ सतीश दुबे स्मृति लघुकथा सम्मान ।</p><p>2डॉ श्याम सुंदर व्यास स्मृति लघुकथा सम्मान।</p><p>3 सुरेश शर्मा स्मृति लघुकथा सम्मान ।</p><p>4 विक्रम सोनी स्मृति लघुकथा सम्मान ।</p><p>5 पारस दासोत स्मृति लघुकथा सम्मान। </p><p>6 निरंजन जमीदार स्मृति लघुकथा सम्मान।</p><p>7 चंद्रशेखर दुबे स्मृति लघुकथा सम्मान । </p><p>प्रदान किए जाएंगे।</p><p><br /></p><p> यह पुरस्कार/ सम्मान 29 अक्टूबर 2023 को इंदौर में होने वाले आयोजन में प्रदान किए जाएंगे । </p><p><br /></p><p>लघुकथा प्रतियोगिता में सम्मिलित होने हेतु सामान्य नियमावली:-</p><p>1 - सिर्फ एक लघुकथा जो विधा के मापदंडों के अनुकूल हो, भेजी जाना है।</p><p>2 - लघुकथा का स्वरूप बना रहना चाहिए ।लघुकथा की शब्द सीमा नहीं रखी गई है।</p><p>3 - प्रतियोगिता में लघुकथा की भाषा , व्याकरण, वर्तनी, शिल्प ,नवीन विषयों को अतिरिक्त 3 अंक प्रदान किए जाएंगे।</p><p>4 - लघुकथा मौलिक , अप्रकाशित और अप्रसारित हो । ऐसा एक घोषणा पत्र साथ में संलग्न किया जाए।</p><p>5- लघुकथा प्रिंट मीडिया , इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, समाज माध्यम, व्हाट्सएप , इत्यादि पर प्रकाशित पाए जाने की स्थिति में निरस्त कर प्रतियोगिता से बाहर कर दी जायेगी।</p><p>6 - लघुकथा के विषय मानवतावादी , प्रेरक, समाज के लिए मार्गदर्शक हों । धर्म ,जाति, संप्रदाय आदि पर कटाक्ष अथवा व्यंग्य करने वाली लघुकथाओं को प्रतियोगिता में सम्मिलित नहीं किया जाएगा।</p><p>7- प्रयोग के बहाने से लघुकथा के मूल शिल्प से छेड़छाड़ वाली लघुकथाएं प्रतियोगिता में शामिल नहीं हो सकेंगी।</p><p>8 लघुकथा केवल मुख्य ईमेल बॉडी में पेस्ट करें अथवा वर्ड फाईल में अटैच करें। पीडीएफ, हाथ से लिखकर इमेज के रुप में या अन्य किसी स्वरुप में भेजी गई लघुकथाएं मान्य नहीं की जाएंगी।</p><p>9 - निम्न ईमेल पते के अलावा किसी भी अन्य माध्यम से भेजी गई लघुकथाएं मान्य नहीं होंगी। </p><p>10 लघुकथा प्रतियोगिता के परिणाम संस्था अध्यक्ष द्वारा घोषित किए जाएंगे।</p><p> 11-प्रतियोगिता के निर्णय निर्णायकों के होंगे जो सर्वमान्य होंगे। उन पर किसी भी प्रकार का विवाद मान्य नहीं होगा। किसी भी प्रकार के न्यायिक हस्तक्षेप की स्थिति में न्याय क्षेत्र इंदौर रहेगा।</p><p>12-क्षितिज संस्था के सदस्य इस प्रतियोगिता में हिस्सा नहीं ले सकेंगे। उनके संदर्भ में एक अलग योजना हैं जो उन्हें व्यक्तिगत रूप से सूचित की जा रही है।</p><p>13-पुरस्कृत एवं चयनित लघुकथाओं का प्रकाशन क्षितिज पत्रिका के वार्षिक अंक में किया जाएगा, जिसका लोकार्पण 29 अक्टूबर 2023 को होगा।</p><p><br /></p><p>14 *प्रविष्टि हेतु दिनांक 30/06/2023 तक लघुकथा निम्न पते पर भेजें।* </p><p><br /></p><p>kshitijlaghukatha@gmail.com</p><p><br /></p><p>भवदीय</p><p>अंतरा करवड़े</p><p>संयोजक</p>Chandreshhttp://www.blogger.com/profile/02561154935591615367noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6612594456838147086.post-56310598180517155082023-05-22T09:09:00.004+05:302023-05-22T09:09:00.530+05:30समीक्षा : हाल-ए-वक्त | कमल कपूर<p><b>समय की नब्ज़ को पहचानती कृति…हाल-ए-वक्त</b></p><p><br /></p><p> डॉ चंद्रेश कुमार जी को मैं सुविज्ञ लघुकथा-पुरोधाओं की क़तार में आगे-आगे खड़ा पाती हूँ सदा। मेरा यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि सही मायने में लघुकथा कैसे लिखी जाती है… यह चंद्रेश जी से सीखा जा सकता है। बानगी के तौर पर उनका नव लघुकथा-संग्रह ‘ हाल-ए-वक़्त ‘ सामने है ।सौम्य एवं शीर्षकानुकूल नयनाभिराम आवरण-पृष्ठ से सुसज्जित पुस्तक के मात्र 90 पृष्ठों पर क़रीने से टंकी एक कम 80 लघुकथाएँ…समय की नब्ज़ को कसकर थामे हुए हैं । समाज के विविध क्षेत्रों से कथानक उठाकर सुलेख ने , सलीक़े से ये कथाएँ बुनी हैं…कुछ इस तरह कि हर कथा का अंदाज़ निराला है और मिज़ाज जुदा और पंच मारक भी तथा प्रहारक भी ।</p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjydZNZqqX8kpXohIlsP3ppb1N265OYXPXKb7QVYCo0vL0FqVXmA0D24KgMqKvPGgqJvN9Yga-Ux-HhdC2jKGIMHvxd6EBpLXJWMl4UcfZo-L9G2nZoqprNIdxPqS6u1kqPkoPPiiPT_Qj66BpRm4k1NHJ2wk8OBl7gecPpIQs02g3mWLqNyvNq8IAx/s1024/IMG-20230314-WA0090.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1024" data-original-width="768" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjydZNZqqX8kpXohIlsP3ppb1N265OYXPXKb7QVYCo0vL0FqVXmA0D24KgMqKvPGgqJvN9Yga-Ux-HhdC2jKGIMHvxd6EBpLXJWMl4UcfZo-L9G2nZoqprNIdxPqS6u1kqPkoPPiiPT_Qj66BpRm4k1NHJ2wk8OBl7gecPpIQs02g3mWLqNyvNq8IAx/s320/IMG-20230314-WA0090.jpg" width="240" /></a></div><br /><p><br /></p><p> सर्वप्रथम सुलेखक ने 'लेखकीय वक्तव्य' के अंतर्गत समय की महत्ता पर प्रकाश डाला है। रहीम जी के एक अनमोल दोहे का दृष्टांत देते हुए समझाया है कि समय लाभ सम लाभ नाहिं, समय चूक नाहिं चूक।</p><p>कृति के शीर्षक से संग्रह में कोई कथा नहीं है। वस्तुतः संग्रह की प्रत्येक कथा ‘ हाल-ए-वक़्त ‘ ही तो कह रही है…सरल, सहज एवं सरस भाषा-शैली में। दरअसल प्रस्तुत कृति एक समाज-यात्रा है, जो ‘देशबंदी' से शुभारंभित होकर ‘कोई तो मरा है‘ पर समाप्त होती है। बीच में 77 मोड़ हैं, जो बहुत-बहुत कुछ समझाते और सिखाते हैं । इनमें व्यवस्था के प्रति चिंता भी है और चिंतन भी। किसान द्वारा क्षुब्ध होकर की गई खेतीबंदी कैसे देशबंदी का रूप ले लेती है…स्वयं पढ़ें । ’कोई तो मरा है‘ माँसाहारी-वर्ग पर वार करती है तो ‘ माँ के सौदागर ‘ गौहत्या के वास्तविक कारणों की अजब किंतु सच्ची कहानी बयां करती है।’ मार्गदर्शक ‘ स्वार्थी नेताओं की अवसरवादिता पर कटाक्ष करती है और ‘ मेरी याद ‘ … अति मार्मिक… अपनी गुमशुदगी की खबर खोजते हताश-निराश वृद्ध की व्यथा कथा सुनाती सी। ‘बच्चा नहीं‘ कथा अनकही में बहुत कुछ कह जाती है सिर्फ़ इतना कहकर,” उसका बच्चा किन्नर हुआ है…।”</p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjEJz12LjhQeVWr6ve9tEVhBeDzbK8iHuz4e3s6U9httfhzPPEAl2s6Jv_fzqJw6KuvmmnItrHpL1-4-xa1lQBxBiLGPfAG15QxkyoZ3hWmOEpfwhHYOyJ-TFBA3rIanB3SBemd1Dn_s21L6Bn9QH0dtNYCH4aK7Ha7d0X9nb2lTbHch2ll3-wn96Gr/s1024/IMG-20230314-WA0089.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1024" data-original-width="768" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjEJz12LjhQeVWr6ve9tEVhBeDzbK8iHuz4e3s6U9httfhzPPEAl2s6Jv_fzqJw6KuvmmnItrHpL1-4-xa1lQBxBiLGPfAG15QxkyoZ3hWmOEpfwhHYOyJ-TFBA3rIanB3SBemd1Dn_s21L6Bn9QH0dtNYCH4aK7Ha7d0X9nb2lTbHch2ll3-wn96Gr/s320/IMG-20230314-WA0089.jpg" width="240" /></a></div><br /><p><br /></p><p> ‘ सोयी हुई सृष्टि ‘ सुलेखक के यथार्थ में कल्पना रस घोलने का सुंदर प्रयास है…इसे पढ़कर चंद्रेश जी की कलम को नमन करने को जी चाहता है । ईलाज, धर्म-प्रदूषण, गरीब सोच,एक बिखरता टुकड़ा , कटती हुई हवा ,अन्नदाता एवं इतिहास गवाह है भी अति सराहनीय सुपठनीय कथाएँ हैं किन्तु ‘अस्वीकृत मृत्यु‘ को मैं कृति की सर्वश्रेष्ठ लघुकथा कहूँगी , जो बलात्कार को तीनों लोकों का जघन्यता गुनाह ठहराती है..; इतना कि इसके गुनाहगार को नर्क भी स्वीकार नहीं करता और कीड़े-मकौड़े तक भी उसके पास नहीं फटकते । इस लघुकथा के तो पोस्टर बनने चाहिए और पाठ्यक्रम में भी इसे शामिल करना चाहिए ।</p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj53LKcM3jD7Q3-QFm7HJxheDr1oFio-NJVdFW4J-cs4OUZU3Y6ZT3vGsFIhEmiILta5uucTGp8cDxAmllzKU3Yi6xgHFYu_FwjVQ2b4io2NNhs2tn4CrJFBwT4HP7V_so7HNaczg7xLX-XMzt_yfvm6zQ8Ggvlix0cPXZa4OqXfkLijo1QLBUPf-Wx/s1024/IMG-20230314-WA0088.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1024" data-original-width="768" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj53LKcM3jD7Q3-QFm7HJxheDr1oFio-NJVdFW4J-cs4OUZU3Y6ZT3vGsFIhEmiILta5uucTGp8cDxAmllzKU3Yi6xgHFYu_FwjVQ2b4io2NNhs2tn4CrJFBwT4HP7V_so7HNaczg7xLX-XMzt_yfvm6zQ8Ggvlix0cPXZa4OqXfkLijo1QLBUPf-Wx/s320/IMG-20230314-WA0088.jpg" width="240" /></a></div><p><br /></p><p> कुल मिलाकर ‘हाल-ए-वक्त ‘ एक सुंदर-संग्रहणीय संग्रह है, जो शोधार्थियों के लिए भी अति उपयोगी सिद्ध होगा ।</p><p>अंततः सुलेखक को मन-प्राण से बधाई तथा उनके उज्ज्वल भविष्य के लिये अतिशय मंगल कामनाएँ ।इति!</p><p><br /></p><p>- कमल कपूर </p><p>अध्यक्ष: नारी अभिव्यक्ति मंच ‘ पहचान ‘</p><p>2144/9</p><p>फ़रीदाबाद 121006</p><p>हरियाणा</p>Chandreshhttp://www.blogger.com/profile/02561154935591615367noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-6612594456838147086.post-30695943511904571792023-05-21T18:09:00.000+05:302023-05-21T18:09:06.520+05:30इस दुनिया में तीसरी दुनिया | किन्नर विमर्श की लघुकथाओं का संकलन<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEilDiw6pjx0fM0mbT-4mR0DfONq_iffGYSokjekXgjvtqv7Nvyxvy9DDnj_9b_fZqKMo4xhWTuELBq9bJmc7S8z_iD7wx-f0hjhv_YzM5TtUAL-Pa18AEcJ4r3eBxWOwg3bpc3gj5vXDwmNQ5DaB-e64aW51ZkKtnRLmmjARaP89PLWNwkB9-btA7Iy/s1080/FB_IMG_1684672158578.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1080" data-original-width="1080" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEilDiw6pjx0fM0mbT-4mR0DfONq_iffGYSokjekXgjvtqv7Nvyxvy9DDnj_9b_fZqKMo4xhWTuELBq9bJmc7S8z_iD7wx-f0hjhv_YzM5TtUAL-Pa18AEcJ4r3eBxWOwg3bpc3gj5vXDwmNQ5DaB-e64aW51ZkKtnRLmmjARaP89PLWNwkB9-btA7Iy/s320/FB_IMG_1684672158578.jpg" width="320" /></a></div><p>श्वेतवर्णा प्रकाशन, नयी दिल्ली से प्रकाशित-</p><p>"<b><span style="font-size: medium;">इस दुनिया में तीसरी दुनिया</span></b>"</p><p>संपादक- डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर', सुरेश सौरभ </p><p>(<i>किन्नर विमर्श की लघुकथाओं का संकलन</i>)</p><p>संपादकीय से-</p><p>■ <b>डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर</b>'</p><p>प्रस्तुत लघुकथा-संकलन "इस दुनिया में तीसरी दुनिया" हमारे अपने समाज की ही एक उपेक्षित गाथा है। सदियों के दंश झेल कर यह गाथा चिल्ला-चिल्ला कर कह रही है कि मेरा दोष क्या? और हम जब दोष और दोषी की खोज में निकलते हैं तो हमें अपने मध्य के लोग ही मिलते हैं। किन्नर विमर्श पर केन्द्रित इस लघुकथा-संकलन के माध्यम से हमारा प्रयास समस्याओं को इंगित करना और उनके प्रभावी निराकरण पर रहा है। समय में परिवर्तन आया तो पुरानी मान्यताएँ धराशायी होने लगीं। जिन विषयों को उपेक्षित समझा जाता था या जिन विषयों पर चर्चा करने से लोग मुँह चुराते थे, अब उन विषयों पर मुखर संवाद होने लगा है। यही कारण है कि "इस दुनिया में तीसरी दुनिया" के माध्यम से किन्नर विमर्श कर पाना सहज हो सका। क्या आप सोच सकते हैं कि जिस घर में आप पैदा हुए हैं, उस घर से आप को धक्का मार कर निकाल दिया जाये, उस घर की सम्पत्ति में आपकी हिस्सेदारी न हो। जिस समाज में आप पले-बढ़े हैं, वह समाज आपको अनेक तीखे संबोधनों के साथ आपका तिरस्कार करे। आप अपने माँ-बाप और परिवार से मिलने की मिन्नतें करें और आपको सिर्फ़ दुत्कार ही मिले। प्रतिभा और अनेक योग्यताओं के बावजूद अकारण आपको धरती पर बोझ बता कर किसी अन्य दुनिया में फेंक दिया जाये, जहाँ सिर्फ़ दंश और दंश ही हो, तो कैसे जी पायेंगे आप? बस कुछ पलों के लिए सोच कर देखिए। नर-नारी के साथ किन्नर भी इसी दुनिया का हिस्सा हैं। उनकी दुनिया हमारी दुनिया से पृथक नहीं।</p><p><br /></p><p>■ <b>सुरेश सौरभ</b></p><p>सुखद यह है कि कुछ किन्नर अपनी पहचान बनाये रखते हुए, कार्यपालिका, विधायिका में अपनी उपस्थिति मज़बूती से दर्ज़ करा रहे हैं। रूढ़िवादी कुप्रथाएँ कम हो रहीं हैं। जन्म से ही उन्हें त्यागने एवं भेदभाव करने के मामले कम हो रहे हैं। सच्चाई यह भी है कि समाज का नज़रिया भी उनके प्रति बदल रहा है। साहित्य में वे विमर्श का हिस्सा बन चुके हैं, उनका विमर्श उन तक पहुँचाना, उनमें परिवर्तन लाने का सुफल करना, यह सिर्फ़ हमारी ही ज़िम्मेदारी नहीं, उनके लिए संघर्ष करने वाले कुछ संघटनों की भी ज़िम्मेदारी है। नया सवेरा उन्हें बाँहें पसारे बुला रहा है, अपने आलिंगन में अकोरना चाह रहा है, जहाँ प्रेम के, घनीभूत घन उन पर घनघोर घरघरा कर बरसने को अधीर हैं। </p><p><br /></p><p>■ सम्मिलित सम्मानित लघुकथाकार-</p><p>अंजू खरबंदा</p><p>अंजू निगम</p><p>अनिता रश्मि</p><p>अभय कुमार भारती</p><p>डॉ. इन्दु गुप्ता</p><p>ऋता शेखर ‘मधु’</p><p>कल्पना भट्ट</p><p>डॉ. कुसुम जोशी</p><p>गरिमा सक्सेना</p><p>गीता शुक्ला ‘गीत’</p><p>गुलज़ार हुसैन</p><p>गोविन्द शर्मा</p><p>डॉ. क्षमा सिसोदिया</p><p>डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी</p><p>चित्रगुप्त</p><p>डॉ. जया आनंद</p><p>जिज्ञासा सिंह</p><p>ज्योति जैन</p><p>ज्योति शंकर पण्डा ‘हयात’</p><p>दुर्गा वनवासी</p><p>निशा भास्कर</p><p>डॉ. नीना छिब्बर</p><p>नीना मंदिलवार</p><p>पम्मी सिंह ‘तृप्ति’</p><p>पवन मित्तल</p><p>प्रियंका श्रीवास्तव ‘शुभ्र’</p><p>प्रेरणा गुप्ता</p><p>डॉ. पुष्प कुमार राय</p><p>डॉ. पूनम आनंद </p><p>भगवती प्रसाद द्विवेदी </p><p>भारती नरेश पाराशर</p><p>डॉ. भावना तिवारी</p><p>मंजुला एम. दूसी</p><p>डॉ. मंजु गुप्ता</p><p>मंजू सक्सेना</p><p>मधु जैन</p><p>माधवी चौधरी</p><p>मिन्नी मिश्रा</p><p>मीरा जैन</p><p>मुकेश कुमार मृदुल</p><p>यशोधरा भटनागर</p><p>योगराज प्रभाकर</p><p>डॉ. रंजना शर्मा</p><p>डॉ. रंजना जायसवाल</p><p>डॉ. रघुनन्दन प्रसाद दीक्षित ‘प्रखर’</p><p>रतन चंद ‘रत्नेश’</p><p>रमेश चंद्र शर्मा</p><p>रश्मि अग्रवाल</p><p>राजेन्द्र पुरोहित</p><p>राजेन्द्र वर्मा</p><p>डॉ. राम गरीब पाण्डेय ‘विकल’</p><p>राम मूरत ‘राही’</p><p>राहुल शिवाय</p><p>रेखा शाह आरबी</p><p>डॉ. लता अग्रवाल ‘तुलजा’</p><p>डॉ. लवलेश दत्त</p><p>वंदनागोपाल शर्मा ‘शैली’</p><p>डॉ. वर्षा चौबे</p><p>विजयानंद विजय</p><p>विभा रानी श्रीवास्तव</p><p>विनोद सागर</p><p>विरेंदर ‘वीर’ मेहता</p><p>शांता अशोक गीते</p><p>शुचि ‘भवि’</p><p>डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’</p><p>शोभना श्याम</p><p>संतोष श्रीवास्तव</p><p>सन्तोष सुपेकर</p><p>सत्या शर्मा ‘कीर्ति’</p><p>सरोज बाला सोनी</p><p>सारिका भूषण</p><p>सावित्री शर्मा ‘सवि’</p><p>सीमा वर्मा</p><p>सुधा आदेश</p><p>सुधा दुबे</p><p>सुनीता मिश्रा</p><p>सुरेश सौरभ</p><p>हरभगवान चावला</p>Chandreshhttp://www.blogger.com/profile/02561154935591615367noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-6612594456838147086.post-51438836735778224352023-04-14T12:08:00.007+05:302023-04-14T12:14:54.721+05:30शोध पत्र : हिन्दी लघुकथा में धर्म, दर्शन व वैज्ञानिकता का अध्ययन | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी<p> </p><p style="text-align: center;"><a href="https://drive.google.com/file/d/18g5CBip6IxUIyuKi-bsS9U0XzbV_UyLG/view" target="_blank">यदि आप निम्न फाइल पढ़ नहीं पा रहे हैं तो यहाँ क्लिक कीजिए.</a></p>
<
<iframe allow="autoplay" height="540" src="https://drive.google.com/file/d/18g5CBip6IxUIyuKi-bsS9U0XzbV_UyLG/preview" width="480"></iframe>
Chandreshhttp://www.blogger.com/profile/02561154935591615367noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6612594456838147086.post-35221501164454204152023-01-28T21:41:00.005+05:302023-02-01T15:07:13.173+05:30लघुकथा वीडियो: जानवरीयत | लेखन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी । वाचन: geetaconnectingwithin<p><br /></p><p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><iframe allowfullscreen="" class="BLOG_video_class" height="266" src="https://www.youtube.com/embed/vBHjmGQqfu0" width="320" youtube-src-id="vBHjmGQqfu0"></iframe></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: left;"><b><span style="color: #cc0000;">लघुकथा: जानवरीयत | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी</span></b></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: left;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: left;">वृद्धाश्रम के दरवाज़े से बाहर निकलते ही उसे किसी कमी का अहसास हुआ, उसने दोनों हाथों से अपने चेहरे को टटोला और फिर पीछे पलट कर खोजी आँखों से वृद्धाश्रम के अंदर पड़ताल करने लगा। उसकी यह दशा देख उसकी पत्नी ने माथे पर लकीरें डालते हुए पूछा, "क्या हुआ?"</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: left;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: left;">उसने बुदबुदाते हुए उत्तर दिया, "अंदर कुछ भूल गया..."</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: left;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: left;"> पत्नी ने उसे समझाते हुए कहा, "अब उन्हें भूल ही जाओ, उनकी देखभाल भी यहीं बेहतर होगी। हमने फीस देकर अपना फ़र्ज़ तो अदा कर ही दिया है, चलो..." कहते हुए उसकी पत्नी ने उसका हाथ पकड़ कर उसे कार की तरफ खींचा।</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: left;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: left;"> उसने जबरन हाथ छुड़ाया और ठन्डे लेकिन द्रुत स्वर में बोला, "अरे! मोबाइल फोन अंदर भूल गया हूँ।"</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: left;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: left;"> "ओह!" पत्नी के चेहरे के भाव बदल गए और उसने चिंतातुर होते हुए कहा, "जल्दी से लेकर आ जाओ, कहीं इधर-उधर हो गया तो? मैं घंटी करती हूँ, उससे जल्दी मिल जायेगा।"</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: left;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: left;">वह दौड़ता हुआ अंदर चला गया। अंदर जाते ही वह चौंका, उसके पिता, जिन्हें आज ही वृद्धाश्रम में दाखिल करवाया था, बाहर बगीचे में उनके ही घर के पालतू कुत्ते के साथ खेल रहे थे। पिता ने उसे पल भर देखा और फिर कुत्ते की गर्दन को अपने हाथों से सहलाते हुए बोले, "बहुत प्यार करता है मुझे, कार के पीछे भागता हुआ आ गया... जानवर है ना!"</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: left;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: left;"> डबडबाई आँखों से अपने पिता को भरपूर देखने का प्रयास करते हुए उसने थरथराते हुए स्वर में उत्तर दिया, “जी पापा, जिसे जिनसे प्यार होता है... वे उनके पास भागते हुए पहुँच ही जाते हैं...”</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: left;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: left;"> और उसी समय उसकी पत्नी द्वारा की हुई घंटी के स्वर से मोबाइल फोन बज उठा। वो बात और थी कि आवाज़ उसकी पेंट की जेब से ही आ रही थी।</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: left;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: left;">-0-</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: left;"><br /></div></div>Chandreshhttp://www.blogger.com/profile/02561154935591615367noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-6612594456838147086.post-42786874357335239702023-01-27T13:02:00.004+05:302023-01-27T13:03:11.041+05:30लघुकथा अनुवाद | हिंदी से मैथिली | अनुवादकर्ता: डॉ. मिन्नी मिश्रा | लघुकथा: लहराता खिलौना <p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh5hBQnN48Pyc7RjvaCaRz9M7e7EXsqUczodP_SyDGeWFqmo7YMpJURDtM6q1qXx1PH9yHI8WuglEQlDTdoGLkbM8DI_5ockb0AyiudFedf7HGlY9OAizzJwKVzFBG8OuqiHLSdPdZm_kbUK03lRFJOxjM5rh7SMyS4bNE9d3Vjx1Z6jt5-isUnHF33/s333/Minni_Mishraji.jpg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="333" data-original-width="318" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh5hBQnN48Pyc7RjvaCaRz9M7e7EXsqUczodP_SyDGeWFqmo7YMpJURDtM6q1qXx1PH9yHI8WuglEQlDTdoGLkbM8DI_5ockb0AyiudFedf7HGlY9OAizzJwKVzFBG8OuqiHLSdPdZm_kbUK03lRFJOxjM5rh7SMyS4bNE9d3Vjx1Z6jt5-isUnHF33/s16000/Minni_Mishraji.jpg" /></a></div><p><b>डॉ. मिन्नी मिश्रा </b>एक सशक्त लघुकथाकारा हैं. न केवल लघुकथा लेखन बल्कि समीक्षा व अनुवाद पर भी उनकी अच्छी पकड है. वे एक ब्लॉग <a href="https://minnimishra.blogspot.com/" target="_blank">मिन्नी की कलम से</a> का भी संचालन करती हैं. पटना निवासी श्रीमती मिश्रा को कई श्रेष्ठ पुरस्कार व सम्मान भी प्राप्त हैं. उन्होंने मेरी एक हिंदी लघुकथा 'लहराता खिलौना' का मैथिली भाषा में अनुवाद किया है, यह निम्न है:</p><p></p><p><b><br /></b></p><p><b> <span face=""Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif" style="background-color: white; color: #050505; font-size: 15px;">लहराइत खेलौना (अनुवाद: मिन्नी मिश्रा / मैथिली)</span></b></p><span face=""Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif" style="background-color: white; color: #050505; font-size: 15px;">देश के संविधान दिवसक उत्सव समाप्त केलाक बाद एकटा नेता अपन घरक अंदर पैर रखने हे छलाह कि हुनकर सात- आठ वर्षक बच्चा हुनका पर खेलौना वाला बंदुक तानि देलक, आ कहलक , "डैडी, हमरा किछु पूछबाक अछि।"</span><br style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px;" /><br style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px;" /><span face=""Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif" style="background-color: white; color: #050505; font-size: 15px;">नेता अपन चिर परिचित अंदाज में मुस्की मारैत कहलथि ,"पूछ बेटा।"</span><br style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px;" /><br style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px;" /><span face=""Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif" style="background-color: white; color: #050505; font-size: 15px;">"इ रिपब्लिक- डे कि होइत छैक?" बेटा प्रश्न दगलक।</span><br style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px;" /><br style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px;" /><span face=""Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif" style="background-color: white; color: #050505; font-size: 15px;">सुनैत देरी संविधान दिवसक उत्सव में किछु अभद्र लोग दुआरे लगेल गेल नारा के दर्द नेता के ठोरक मुस्की के भेद देलक ,नेता गंहीर सांस भरैत कहलथि,</span><br style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px;" /><span face=""Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif" style="background-color: white; color: #050505; font-size: 15px;">"हमरा पब्लिक के लऽग में बेर- बेर जेबाक चाही , इ हमरा याद दियेबाक दिन होइत अछि रि- पब्लिक-डे..."</span><br style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px;" /><br style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px;" /><span face=""Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif" style="background-color: white; color: #050505; font-size: 15px;">"ओके डैडी ,ओहिमें झंडा केऽ कोन काज पड़ैत छैक?" बेटा बंदूक तनने रहल।</span><br style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px;" /><br style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px;" /><span face=""Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif" style="background-color: white; color: #050505; font-size: 15px;">नेता जवाब देलथि ,"जेना अहाँ इ बंदूक उठा कऽ रखने छी,ओहिना हमरा सभके इ झंडा उठा कऽ राखय पड़ैत अछि ।"</span><br style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px;" /><br style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px;" /><span face=""Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif" style="background-color: white; color: #050505; font-size: 15px;">"डैडी, हमरो झंडा खरिदि कऽ दियऽ... नहि तऽ हम अहाँके गोली सं मारि देब।" बेटा के स्वर पहिने के अपेक्षा अधिक तिखगर छलैन्ह।</span><br style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px;" /><br style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px;" /><span face=""Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif" style="background-color: white; color: #050505; font-size: 15px;">नेता चौंकलथि आ बेटा के बिगरैत कहलन्हि,"इ के सिखबैत अछि अहांके?" हमर बेटा के हाथ में बंदूक नीक नहि लगैत अछि।आ' ओतय ठाढ़ ड्राइवर के किछु आनय के इशारा करैत,ओ बेटा के हाथ सं बंदूक छिनैत आगु बजलाह,</span><br style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px;" /><span face=""Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif" style="background-color: white; color: #050505; font-size: 15px;">"आब अहाँ गन सं नहि खेलाएब।झंडा मंगवेलौहें ओकरे सं खेलाउ।"एतबा बजैत बिना पाछां तकैत नेता सधल चालि सं अंदर चलि गेलाह।</span><br style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px;" /><br style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px;" /><span style="background-color: white;"><b style="color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px;">अनुवादक- डॉ. मिन्नी </b><span face="Segoe UI Historic, Segoe UI, Helvetica, Arial, sans-serif" style="color: #050505;"><span style="font-size: 15px;"><b>मिश्रा</b></span></span><b style="color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px;">, पटना</b></span><br style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px;" /><div><span face=""Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif" style="background-color: white; color: #050505; font-size: 15px;">-०- </span></div><div><span face=""Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif" style="background-color: white; font-size: 15px;"><b><u><span style="color: #3d85c6;"><br /></span></u></b></span></div><div><span face=""Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif" style="background-color: white; font-size: 15px;"><b><u><span style="color: #3d85c6;">मूल लघुकथा</span></u></b></span></div><div><span face=""Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif" style="background-color: white; color: #050505; font-size: 15px;"><b><u><br /></u></b></span></div><div><span style="background-color: white;"><div><span face="Segoe UI Historic, Segoe UI, Helvetica, Arial, sans-serif" style="color: #050505;"><span style="font-size: 15px;"><b>लहराता खिलौना / डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी</b></span></span></div><div><span face="Segoe UI Historic, Segoe UI, Helvetica, Arial, sans-serif" style="color: #050505;"><span style="font-size: 15px;"><br /></span></span></div><div><span face="Segoe UI Historic, Segoe UI, Helvetica, Arial, sans-serif" style="color: #050505;"><span style="font-size: 15px;">देश के संविधान दिवस का उत्सव समाप्त कर एक नेता ने अपने घर के अंदर कदम रखा ही था कि उसके सात-आठ वर्षीय बेटे ने खिलौने वाली बन्दूक उस पर तान दी और कहा "डैडी, मुझे कुछ पूछना है।"</span></span></div><div><span face="Segoe UI Historic, Segoe UI, Helvetica, Arial, sans-serif" style="color: #050505;"><span style="font-size: 15px;"><br /></span></span></div><div><span face="Segoe UI Historic, Segoe UI, Helvetica, Arial, sans-serif" style="color: #050505;"><span style="font-size: 15px;">नेता अपने चिर-परिचित अंदाज़ में मुस्कुराते हुए बोला, "पूछो बेटे।"</span></span></div><div><span face="Segoe UI Historic, Segoe UI, Helvetica, Arial, sans-serif" style="color: #050505;"><span style="font-size: 15px;"><br /></span></span></div><div><span face="Segoe UI Historic, Segoe UI, Helvetica, Arial, sans-serif" style="color: #050505;"><span style="font-size: 15px;">"ये रिपब्लिक-डे क्या होता है?" बेटे ने प्रश्न दागा।</span></span></div><div><span face="Segoe UI Historic, Segoe UI, Helvetica, Arial, sans-serif" style="color: #050505;"><span style="font-size: 15px;"><br /></span></span></div><div><span face="Segoe UI Historic, Segoe UI, Helvetica, Arial, sans-serif" style="color: #050505;"><span style="font-size: 15px;">सुनते ही संविधान दिवस के उत्सव में कुछ अवांछित लोगों द्वारा लगाये गए नारों के दर्द ने नेता के होंठों की मुस्कराहट को भेद दिया और नेता ने गहरी सांस भरते हुए कहा,</span></span></div><div><span face="Segoe UI Historic, Segoe UI, Helvetica, Arial, sans-serif" style="color: #050505;"><span style="font-size: 15px;">"हमें पब्लिक के पास बार-बार जाना चाहिये, यह हमें याद दिलाने का दिन होता है रि-पब्लिक डे..."</span></span></div><div><span face="Segoe UI Historic, Segoe UI, Helvetica, Arial, sans-serif" style="color: #050505;"><span style="font-size: 15px;"><br /></span></span></div><div><span face="Segoe UI Historic, Segoe UI, Helvetica, Arial, sans-serif" style="color: #050505;"><span style="font-size: 15px;">"ओके डैडी और उसमें झंडे का क्या काम होता है?" बेटे ने बन्दूक तानी हुई ही थी।</span></span></div><div><span face="Segoe UI Historic, Segoe UI, Helvetica, Arial, sans-serif" style="color: #050505;"><span style="font-size: 15px;"><br /></span></span></div><div><span face="Segoe UI Historic, Segoe UI, Helvetica, Arial, sans-serif" style="color: #050505;"><span style="font-size: 15px;">नेता ने उत्तर दिया, "जैसे आपने यह गन उठा रखी है, वैसे ही हमें झंडा उठाना पड़ता है।"</span></span></div><div><span face="Segoe UI Historic, Segoe UI, Helvetica, Arial, sans-serif" style="color: #050505;"><span style="font-size: 15px;"><br /></span></span></div><div><span face="Segoe UI Historic, Segoe UI, Helvetica, Arial, sans-serif" style="color: #050505;"><span style="font-size: 15px;">"डैडी, मुझे भी झंडा खरीद कर दो... नहीं तो मैं आपको गोली से मार दूंगा" बेटे का स्वर पहले की अपेक्षा अधिक तीक्ष्ण था।</span></span></div><div><span face="Segoe UI Historic, Segoe UI, Helvetica, Arial, sans-serif" style="color: #050505;"><span style="font-size: 15px;"><br /></span></span></div><div><span face="Segoe UI Historic, Segoe UI, Helvetica, Arial, sans-serif" style="color: #050505;"><span style="font-size: 15px;">नेता चौंका और बेटे को डाँटते हुए कहा, "ये कौन सिखाता है आपको? बन्दूक अच्छी नहीं लगती मेरे बेटे के हाथ में।" </span></span></div><div><span face="Segoe UI Historic, Segoe UI, Helvetica, Arial, sans-serif" style="color: #050505;"><span style="font-size: 15px;">और उसने वहीँ खड़े ड्राईवर को कुछ लाने का इशारा कर अपने बेटे के हाथ से बन्दूक छीनते हुए आगे कहा,</span></span></div><div><span face="Segoe UI Historic, Segoe UI, Helvetica, Arial, sans-serif" style="color: #050505;"><span style="font-size: 15px;">“अब आप गन से नहीं खेलोगे, झंडा मंगवाया है, उससे खेलो।”</span></span></div><div><span face="Segoe UI Historic, Segoe UI, Helvetica, Arial, sans-serif" style="color: #050505;"><span style="font-size: 15px;"><br /></span></span></div><div><span face="Segoe UI Historic, Segoe UI, Helvetica, Arial, sans-serif" style="color: #050505;"><span style="font-size: 15px;">कहते हुए नेता बिना पीछे देखे सधे हुए क़दमों से अंदर चला गया।</span></span></div><div>-०-</div></span></div><div><span face=""Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif" style="background-color: white; color: #050505; font-size: 15px;"><b><u><br /></u></b></span></div>Chandreshhttp://www.blogger.com/profile/02561154935591615367noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6612594456838147086.post-59573681634551224792023-01-21T19:37:00.001+05:302023-01-21T19:37:32.020+05:30श्रीमती मिथिलेश दीक्षित द्वारा मधुदीप जी को भेजे गए प्रश्न व मधुदीप जी के उत्तर<p> </p><p><b>प्रश्न : हिन्दी की प्रथम लघुकथा, उद्भव कब से, प्रथम लघुकथाकार</b></p><p>उत्तर : हिन्दी की प्रथम लघुकथा किसे माना जाये ---इस विषय में मतभेद हैं | श्री कमल किशोर गोयनकाजी तथा अन्य कुछ विद्वान 1901 में छत्तीशगढ़ मित्र मासिक में प्रकाशित श्री माधव राय सप्रे की रचना ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ को हिन्दी की प्रथम लघुकथा मानते हैं | दूसरी तरफ इसी रचना को हिन्दी की पहली कहानी के रूप में भी स्वीकार किया जाता है | यहीं पर मतभेद और भ्रम उभरता है कि एक ही रचना को दो विधाओं की रचना कैसे स्वीकार किया जा सकता है ? वैसे भी मेरे विचार में यह रचना लघुकथा की सीमा का अतिक्रमण तो करती ही है | इस मुद्दे पर स्पष्ट निष्कर्ष तो लघुकथा के स्वतन्त्र अध्येता एवं विचारक ही दे सकते हैं | इस विषय में दूसरा पक्ष उन विचारकों का है जो श्री भारतेन्दुजी की 1876 में प्रकाशित पुस्तक ‘परिहासिनी’ में प्रकाशित रचना ‘अंगहीन धनी’ को हिन्दी की प्रथम लघुकथा स्वीकार करते हैं | कुछ विचारक इस पुस्तक को हास-परिहास की पुस्तक मानते हुए इसमें संकलित रचना को लघुकथा मानने से परहेज करते हैं | कुछ तो इसमें संकलित रचनाओं को भारतेन्दुजी की मौलिक रचना होने पर भी प्रश्नचिन्ह लगाते हैं | परन्तु मेरे विचार में ‘अंगहीन धनी’ उस समय के धनीवर्ग पर चोट करते हुए एक श्रेष्ठ लघुकथा है जिसे हास-परिहास की रचना कहकर खारिज नहीं किया जा सकता | इस लघुकथा में परिलक्षित परिहास का पुट वास्तव में तीखा व्यंग्य है जो इस रचना को उच्च कोटि की लघुकथा के रूप में स्थापित करता है | इस तरह मैं हिन्दी लघुकथा का उद्भव 1876 से मानता हूँ और ‘अंगहीन धनी’ को हिन्दी की पहली लघुकथा स्वीकार करता हूँ | मैंने अपनी सम्पादित पुस्तक ‘हिन्दी की कालजयी लघुकथाएँ (पडाव और पड़ताल, खण्ड-27) में इस तथ्य को रेखांकित भी किया है | एक बात और साफ़ कर दूँ कि ये सभी मान्यताएँ नवीन शोधों के बाद खण्डित भी हो सकती हैं और हमें नित नए हो रहे गम्भीर शोधकार्यों के साथ अपनी धारणा बदलने में कोई आपत्ति भी नहीं होनी चाहिए |</p><p> </p><p><b>प्रश्न : लघुकथा की विकासयात्रा के परिप्रेक्ष्य में इसके वर्तमान स्वरूप पर प्रकाश डालें |</b></p><p>उत्तर : लघुकथा का जो वर्तमान स्वरूप है वह पिछली सदी के आठवें दशक से शुरू होता है | हालाँकि 1876 से 1970 के मध्य भी बहुत से लेखकों ने लघुकथाएँ या लाघुकथानुमा रचनाएँ लिखी हैं लेकिन 1970 के बाद से लघुकथा में एक आन्दोलन का सूत्रपात होता है | मैं लघुकथा को तीन कालखण्डों में विभक्त करके देखता हूँ | 1876 से 1970 तक ‘नींव’, 1971 से 2000 तक ‘निर्माण’ तथा 2001 से अद्यतन ‘ नई सदी की धमक’ | स्वीकार करने को तो ‘हितोपदेश’ और ‘पंचतन्त्र’ की रचनाओं को भी लघुकथा का उद्गम माना जा सकता है लेकिन वह वास्तविक न होकर सिर्फ मानने के लिए ही होगा | हाँ, इतना अवश्य है कि उन्हें या उस तरह की दूसरी कई रचनाओं को लघुकथा के बीज रूप में स्वीकार किये जाने से परहेज नहीं होना चाहिए | 1876 से 1970 तक की लघुकथाओं पर बहुत कुछ कहानी का प्रभाव था क्योंकि इनमें से अधिकतर कहानीकारों द्वारा ही लिखी गई थीं लेकिन 1970 के बाद लघुकथा का जो आन्दोलन शुरू हुआ उसमें लघुकथा को कहानी से अलग करने की छटपटाहट साफ़ दिखाई देती है | इस काल में कहानीकारों से कतई इतर लघुकथाकार उभरकर सामने आते हैं जो इस विधा को हिन्दी गद्य साहित्य की स्वतन्त्र विधा स्वीकार करवाने के लिए कृत-संकल्प थे | उस दशक में ‘सारिका’ के जो लघुकथा विशेषांक निकले उनमें अधिकतर व्यंग्य प्रधान लघुकथाएँ/रचनाएँ थीं जिनसे यह भ्रम विकसित हुआ कि व्यंग्य लघुकथा का अनिवार्य अंग है और जिस रचना मं व्यंग्य न हो उसे लघु कहानी कहा जाए | लेकिन बहुत जल्दी ही लघुकथा ने स्वयं को इस भ्रम से मुक्त करा लिया | अब जो लघुकथाएँ सामने आ रही हैं उनमें जीवन की विडम्बनाओं के साथ ही मानवीय सम्वेदनाओं को पूरी शिद्दत और तीव्रता से पाठक के समक्ष प्रस्तुत किया जा रहा है | 1970 के दशक में लघुकथा के ‘लघु’ पक्ष पर अधिक जोर दिया जाता था लेकिन अब नई सदी के आते-आते इसके ‘कथा’ पक्ष पर भी बराबर जोर दिया जाने लगा है ताकि लघुकथा रचना के रूप में पठनीय भी हो सके | 2001 के बाद 2012 तक लघुकथा के विकास की गति बहुत धीमी रही | पुराने लघुकथाकारों का विधा से मोहभंग हो रहा था | उनमें से काफी मित्र उपन्यास और कहानी की तरफ जा रहे थे और नई पीढ़ी सामने नहीं आ पा रही थी | पुराने लघुकथाकारों को लगने लगा था कि सिर्फ लघुकथा के सहारे साहित्याकार नहीं बना जा सकता | एक भेंट में आदरणीय कमल किशोर गोयनकाजी ने भी हमें सलाह दी थी कि हम लघुकथाकारों को साहित्य की दूसरी विधाओं में भी लेखन करना चाहिए | लेकिन मेरी धारणा इससे कुछ अलग है | मेरा मानना है कि एक लेखक को पूरी गम्भीरता से और बिना विचलित हुए लघुकथा को अपना सर्वोत्तम देना चाहिए ताकि इस विधा का पूर्ण विकास हो | विधा के विकास में ही लेखक का विकास निहित है | इस समय पूरे देश में लघुकथा की लहर है और आनेवाला समय लघुकथा का समय होगा, ऐसा मेरा मानना है |</p><p><b>प्रश्न : आपकी दृष्टि में हिन्दी के कथात्मक साहित्य में लघुकथा का क्या स्थान है ?</b></p><p>उत्तर : उपन्यास, कहानी, नाटक तथा लघुकथा कथात्मक साहित्य के प्रमुख रूप हैं | जहाँ उपन्यास और कहानी मूल रूप में पश्चिम से भारत में आए हैं वहीं लघुकथा भारत से पश्चिम की तरफ गई है | लघुकथा शोधकर्ता इरा सरमा वलेरिया ने केम्ब्रिज से स्वीकृत अपने शोध में इस सत्य को प्रतिपादित किया है | यह सत्य है कि विश्वविद्यालयों तथा अकादमियों में लघुकथा को उपन्यास या कहानी के समकक्ष स्थान नहीं मिला है | विश्वविद्यालयों में लघुकथा पर शोधकार्य हो तो रहे हैं लेकिन उपन्यास, कविता या कहानी के मुकाबले उनकी संख्या बहुत ही कम है | उन्हें शिकायत रहती थी कि लघुकथा विधा में इतनी सामग्री ही उपलब्ध नहीं है जिस पर शोधकार्य करवाए जा सकें | लेकिन अब ‘पड़ाव और पड़ताल’ लघुकथा-शृंखला के 27 खण्ड आ जाने के बाद उनका यह कहना अनुचित लगने लगा है | इससे पहले भारतीय लघुकथा कोश, हिन्दी लघुकथा कोश, अनेक निजी एवं सम्पादित लघुकथा-संग्रह/संकलन आ चुके हैं | हर साल लघुकथा की 50 पुस्तकें तो आ ही रही हैं | इसी वर्ष विश्व हिन्दी लघुकथाकार कोश का प्रकाशन भी हो चुका है | केन्द्रीय हिन्दी अकादमी और राज्य की हिन्दी अकादमियों से यह अनुरोध किया जाना चाहिए कि वे पुरस्कार के लिए पुस्तकों का चयन करते समय लघुकथा की पुस्तकों पर भी ध्यान दें | कुछ राज्यों की हिन्दी अकादमियों ने इस विषय में पहल भी की है | मैं आशा करता हूँ कि आनेवाले पाँच वर्षों में हिन्दी लघुकथा की कोई पुस्तक साहित्य अकादमी पुरस्कार से अवश्य ही सम्मानित होगी | इस समय तो हमें स्वीकार करना ही होगा कि कहानी या उपन्यास के समक्ष लघुकथा पूरी मजबूती से नहीं टिक पा रही है लेकिन जिस तरह से पाठकों का रुझान लघुकथा की तरफ बढ़ा है और जिस तरह एक सशक्त आन्दोलन इस विधा में चल रहा है उसे देखते हुए लघुकथा हिन्दी की अन्य कथात्मक विधाओं के समक्ष एक दमदार चुनौती प्रस्तुत करने जा रही है | पिछले तीन नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेलों में इसकी अनुगूंज सभी ने सुनी है | इसके लिए सभी लघुकथाकारों को पूरी तल्लीनता से लेखन करना होगा |</p><p> </p><p><b>प्रश्न : लघुकथा के स्वरूप, स्तर और विकास में सोशल मीडिया की क्या भूमिका है ?</b></p><p>उत्तर : मैंने पहले कहा था कि 2001 से 2012 तक लघुकथा में विकास की गति बहुत धीमी रही | इसके कुछ कारण भी मैंने बताये थे | 2012 के बाद फेसबुक तथा सोशल मीडिया का उदय होता है और लघुकथा के विकास और स्वरूप पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा है | लघुकथा में इसके साथ ही फिर से एक आन्दोलन शुरू हो गया है और सोशल मीडिया पर धड़ल्ले से लघुकथाएँ लिखी जा रही हैं | आजकल फेस बुक साहित्य का दौर है | छोटे आकार की रचना को फेस बुक पर सरलता से पोस्ट किया जा सकता है | इसलिए कविता, क्षणिका व हाइकू के साथ-साथ लघुकथाएँ भी बहुतायत से फेस बुक पर पोस्ट की जा रही हैं | अब तो फेस बुक पर पोस्ट की गई लघुकथाओं के संकलन प्रकाशित करने/करवाने का प्रचलन भी जोर पकड़ता जा रहा है |</p><p> फेस बुक पर लघुकथाओं को पोस्ट किया जाना इस विधा के प्रचार-प्रसार के लिए एक शुभ लक्षण भी हो सकता है | आज सोशल मीडिया का युग है और इसके माध्यम से आप अपने विचार तथा रचनाएँ द्रुत गति से अन्य लोगों/पाठकों तक पहुँचा सकते हैं | नि:सन्देह किसी भी विधा के प्रसार के लिए सोशल मीडिया एक सशक्त माध्यम हो सकता है मगर इसके अपने खतरे भी कम नहीं हैं |</p><p> पिछले कुछ दिनों/महीनों से फेस बुक पर लघुकथा-समूहों की बाढ़-सी आ गई है | कम-से-कम आठ-दस समूह तो मेरी नजर से भी गुजरे हैं | मजे की बात यह है की जो नवोदित लेखक इस विधा के प्रारम्भिक दौर से गुजरते हुए इस विधा को समझने का प्रयास कर रहे हैं वे इन समूहों के ‘एडमिन’ बने बैठे हैं | ऐसे में सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है की उन समूहों में किस तरह की या किस स्तर की लघुकथाएँ पोस्ट हो रही हैं | उस पर तुर्रा यह की उनमें से अधिकतर समूह लघुकथाओं की प्रतियोगिताएँ आयोजित कर रहे हैं तथा श्रेष्ठ लघुकथाओं के प्रमाण-पत्र भी बाँट रहे हैं |</p><p> फेस बुक पर व्यक्तिगत या लघुकथा-समूहों पर पोस्ट की जा रही लघुकथाओं तथा उससे इस विधा के हो रहे अहित के मुद्दे पर बात करना चाहता हूँ | यदि आप फेस बुक से जुड़े हैं तो अवश्य ही आप वहाँ पर लघुकथा-समूहों की गतिविधियों से तथा वहाँ पर पोस्ट की जा रही लघुकथाओं तथा उनकी गुणवत्ता से भी रूबरू होते होंगे | बुरा मत मानना, कितनी ही कमजोर तथा अधकचरी रचनाएँ वहाँ पर प्रस्तुत की जा रही हैं, यह किसीसे छिपा हुआ नहीं है | उन रचनाओं को एक-दूसरे की प्रशंसा और भ्रमित करनेवाली टिप्पणियाँ भी मिलती हैं | इस झूठी प्रशंसा से नवोदित लेखक दिग्भ्रमित होता है और मेरा यह मानना है कि इससे उसका विकास रुक जाता है | एक रचनाकार जो भी रचता है उसकी दृष्टि में वह श्रेष्ठ ही होता है | अगर उसकी दृष्टि में वह पूर्ण और श्रेष्ठ न हो तो वह उसे कागज पर उतारेगा ही नहीं | लेखक अपनी रचना की सही-सही परख कभी नहीं कर सकता क्योंकि वह उसकी अपनी रचना होती है | यह बात नवोदितों पर ही नहीं पुराने रचनाकारों पर भी लागू होती है | रचना के गुण-दोषों की परख तो कोई दूसरा निष्पक्ष व्यक्ति ही कर सकता है और यह दूसरा होता है पाठक, अन्य वरिष्ठ लेखक, समीक्षक या सम्पादक | पहले जब लेखन होता था तो उसके सृजन तथा प्रकाशन के मध्य सम्पादक होता था जोकि रचना के गुण-दोष के आधार पर उसका प्रकाशन स्वीकार या अस्वीकार करता था | इस तरह रचना की पड़ताल हो जाती थी तथा कमजोर रचना बाहर हो जाती थी | मगर फेस बुक पर ऐसा नहीं हो पाता | यहाँ पर यह सुविधा उपलब्ध है की जो कुछ भी आप लिखें उसे वहाँ पर पोस्ट कर दें | ऐसे रचनाकारों का एक समूह बन जाता है जो एक-दूसरे की रचनाओं की जी-खोलकर प्रशंसा भी कर देते हैं | अब तो स्थिति इतनी विकट और विकृत हो गई है कि यदि कोई वरिष्ठ रचनाकार उन्हें सही बात समझाना चाहता है तो नवोदित एकदम आक्रामक मुद्रा में आ जाते हैं | हर महीने शीर्षक देकर लघुकथाएँ लिखने/लिखवाने का प्रचलन भी जोर पकड़ता जा रहा है जिससे फेक्ट्री मैड लघुकथाओं की बाढ़ आ गई है और उस बाढ़ में रचनात्मकता कहीं खोती जा रही है |</p><p> सोशल मीडिया एक दुधारी तलवार है जिसके सही प्रयोग से तो लघुकथा का विकास संभव है लेकिन इसके गलत प्रयोग से विधा का बहुत अधिक अहित भी हो सकता है | हमें इस बात को ध्यान में रखना होगा कि हम सोशल मीडिया की शक्ति का पूरा उपयोग विधा के विकास में करें | यदि सोशल मीडिया के माध्यम से हम खुद को या अपनी लघुकथाओं को चमकाने या उन्हें ही सही ठहराने का प्रयास करेंगे तो इसके बहुत ही गलत दूरगामी परिणाम होंगे |</p><p> </p><p><b>प्रश्न : लघुकथा की वर्तमान स्थिति से आप कहाँ तक संतुष्ट हैं ?</b></p><p>उत्तर : सन्तुष्ट हो जाना यानी विराम लग जाना और असन्तुष्ट रहना यानी गतिवान रहना | इसलिए लघुकथा की वर्तमान स्थिति से सन्तुष्ट होकर बैठ जाने का तो प्रश्न ही नहीं है | निरन्तर प्रयास हो रहे हैं, और भी तेजी से प्रयास किये जाने की आवश्यकता है | मेरा सभी साथियों से यही कहना है कि वे अपनी पूरी क्षमता से विधा के विकास के लिए काम करें | विधा के विकास में ही हम सभी लघुकथाकारों का विकास समाहित है | कुछ तथाकथित लेखकों के माध्यम से यह प्रश्न उछाला जाता है की लघुकथा का भविष्य क्या है ! कुछ अजीब-सा प्रश्न नहीं है यह ? साहित्य की किसी भी विधा का भविष्य उस विधा के लेखकों के सामर्थ्य पर निर्भर करता है | लेखन दमदार होगा तो पाठक उसे कैसे नकारेगा ? जिन्हें अपने लेखन पर भरोसा नहीं होता या जो फिर साहित्य में अपना स्थान बनाने की बहुत जल्दी में होते हैं वे ही ऐसी बेतुकी बातें करते हैं | साहित्य जब काव्य से उपन्यास की तरफ और उपन्यास से कहानी की तरफ मुड़ा तब भी शायद ऐसे ही प्रश्न उठे होंगे मगर उपन्यास या कहानी अपने समय में साहित्य के केन्द्र में रहे हैं, इस बात को कतई नहीं नकारा जा सकता | साहित्य की वही विधा केन्द्र में रहेगी जिसमें जन-मानस की भावनाओं की अभिव्यक्ति होते हुए दमदार लेखन होगा | सिर्फ गाल बजाने से कुछ नहीं होगा |</p><p> आनेवाला समय, खासतौर पर 2020 के बाद के दस वर्ष लघुकथा के होंगे | आवश्यकता हम लघुकथाकारों द्वारा अपने पर विश्वास रखते हुए निरन्तर और दमदार लेखन करने की है | हमें जन-भावनाओं और जन-आकंक्षाओं पर अपनी पकड़ मजबूत रखते हुए सामायिक समस्याओं को अपने लेखन का आधार बनाना है | कोई भी लेखन अपने समय से कटकर जिन्दा नहीं रह सकता | इस बात पर अब विवाद करना बेमानी है कि लघुकथा में क्या और कितना-कुछ कहा जा सकता है | लेखक में दम होना चाहिए, हर स्थिति और समस्या को इस विधा में उकेरा जा सकता है और बहुत ही प्रभावी ढंग से उकेरा जा सकता है | पिछले दिनों लघुकथा में जो लेखन हुआ है उससे यह बात साबित भी हो चुकी है |</p><p> साफ शब्दों में कहूँ तो मैं लघुकथा की वर्तमान स्थिति से पूर्णतया संतुष्ट तो नहीं हूँ लेकिन मुझे इतना विशवास है कि निकट भविष्य में ही लघुकथा अपना प्राप्य प्राप्त कर लेगी |</p><p>००००</p>Chandreshhttp://www.blogger.com/profile/02561154935591615367noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-6612594456838147086.post-38256285837876638542022-12-15T13:41:00.001+05:302022-12-15T13:41:49.045+05:30साक्षात्कार: कमलेश भारतीय (वरिष्ठ लघुकथाकार) | साक्षात्कारकर्ता: डॉ. लता अग्रवाल<p><b><span style="color: #cc0000;">सीसीटीवी कैमरे की तरह जीवन की हर सूक्ष्म बात को पकड़ लेती है : लघुकथा </span></b></p><p><b><span style="color: #cc0000;">खेमे शेमे में साहित्य नहीं पनपता - कमलेश भारतीय</span></b></p><p><b><i><span style="font-size: medium;">वरिष्ठ लघुकथाकार श्री कमलेश भारतीय से डॉ. लता अग्रवाल की बातचीत</span></i></b></p><p><b><i><br /></i></b></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhTfJlZNiwB6ugkuzCDKk4Go3aQX3jZycs_uKEfeuZx47k7Gtsqy-Rk_YanJ_AuYY4LvtPfwfgSOxRhMr9kOxrfqGU98iz_QXxIz-fq92XsCafGVrhtheBimKCLqrOA-SzkE8XfkXDiUcyHIMrIi-KNI3fhkU4dHXBqiR085nvI7F-lGb1sOAdHdZul/s243/Kamlesh%20Bhartiya.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="243" data-original-width="208" height="243" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhTfJlZNiwB6ugkuzCDKk4Go3aQX3jZycs_uKEfeuZx47k7Gtsqy-Rk_YanJ_AuYY4LvtPfwfgSOxRhMr9kOxrfqGU98iz_QXxIz-fq92XsCafGVrhtheBimKCLqrOA-SzkE8XfkXDiUcyHIMrIi-KNI3fhkU4dHXBqiR085nvI7F-lGb1sOAdHdZul/s1600/Kamlesh%20Bhartiya.jpg" width="208" /></a></div><p><i>महज सत्रह वर्ष की आयु में कलम थाम, शिक्षक से , प्राध्यापक एवं प्राचार्य के पदों पर अपनी सेवाएं देने के बाद दैनिक ट्रिब्यून चंडीगढ़ में मुख्य संवाददाता रहे, तत्पश्चात हरियाणा ग्रंथ अकादमी में उपाध्यक्ष के पद पर रहे स्वतंत्र पत्रकार के रूप में अपनी पहचान बनाने वाली बेहद जिंदादिल शख्सियत श्री कमलेश भारतीय जी साहित्य के क्षेत्र में भी बेहद लोकप्रिय नाम है । अब तक आपके दस कथा संग्रह हिंदी साहित्य की धरोहर बन चुके हैं । पंजाबी, उर्दू, अंग्रेजी, मराठी, डोगरी, बंगला आदि भाषाओँ में आपकी रचनाएँ अनुवादित हो चुकी हैं । आपकी कृति ’एक संवाददाता की डायरी’ को केन्द्रीय हिंदी निदेशालय नयी दिल्ली द्वारा पुरस्कृत किया गया । पूर्व प्रधानमन्त्री स्व. अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने निवास पर इस सम्मान से सम्मानित किया। इसके अलावा आप हरियाणा साहित्य अकादमी पंचकूला द्वारा भी सम्मानित हो चुके हैं ।</i></p><p><i>2017 में पंचकूला साहित्य अकादमी द्वारा आयोजित लघुकथा सम्मेलन में आपका सान्निध्य मिला तो जाना बेहद विनम्र और बुध्दिजीवी, अनुशासित व्यक्तित्व ...जिनसे प्रेरणा ली जानी चाहिए । आप लघुकथा के आरंभ के सहयात्री रहे हैं अत: लगा आपसे भी लघुकथा पर चर्चा की जानी चाहिए । बातचीत के कुछ अंश आपसे साझा करती हूँ ।</i></p><p><br /></p><p><b>डॉ. लता अग्रवाल</b> - जीवन और समाज में साहित्य की क्या भूमिका है आपसे जानना चाहेंगे ?</p><p><b>कमलेश भारतीय</b>- जीवन और समाज साहित्य के बिना सूने । साहित्य मनुष्य को संवेदनशील बनाता है । जीवन को सरस बनाता है । जीवन को महकाता है । जिस समाज में साहित्य नहीं वह समाज निर्मम और क्रूर हो जाता है । साहित्य हृदय को परिवर्तित कर देता है । बाबा भारती की कहानी यही संदेश देती है । </p><p><br /></p><p><b>डॉ. लता अग्रवाल </b>– जी हम सभी ने पढ़ी है यह कहानी । भारत कथा/कहानी का केंद्र रहा है, लघुकथा भी कथा विधा का ही अंग है। आप साहित्य में इसकी क्या भूमिका देखते हैं ?</p><p><b>कमलेश भारतीय</b>- लघुकथा प्राचीन समय से है। पंचतंत्र व हितोपदेश जाने कितने इसके प्रमाण हैं। लघुकथा बहुत कम शब्दों में बहुत बड़ी बात कहने में सक्षम विधा है। लघुकथा ने इसीलिए इतनी लोकप्रियता पाई है। आज साहित्य की केंद्रीय विधा बन चुकी है जिसे कभी अखबार के फिलर के रूप में उपयोग किया जाता था। </p><p><br /></p><p><b> डॉ. लता अग्रवाल </b>- सहमत हूँ, हमारे यहां साहित्य को कला नहीं विधा माना जाता है कला को आनन्द की वस्तु कहा गया है जबकि साहित्य के मूल में स+ हित है। लघुकथा एक विधा के रूप में इस कसौटी पर कितनी खरी उतरती है।</p><p><b>कमलेश भारतीय</b>- लघुकथा हर कसौटी पर खरी उतर रही है। ‘सहित’ तो सभी विधाओं की मूल शर्त है। इसके बिना लेखन किसलिए और किसके लिए ? लघुकथा आज सीसीटीवी कैमरे की तरह जीवन के हर सूक्ष्म बात को पकड़ लेती है। यही इसकी खूबी है। गुण है।</p><p><br /></p><p><b>डॉ. लता अग्रवाल </b>– जी ,आज पाठ्यक्रमों में लघुकथा को स्थान देने की मांग की जा रही है। आप शिक्षा में इसका कहां तक उपयोग देखते हैं ?</p><p><b>कमलेश भारतीय</b>- मांग कहां ? मेरी लघुकथाएं पंजाब स्कूल शिक्षा बोर्ड की पाठ्यपुस्तकों में शामिल रही हैं। मेरी तरह अन्य रचनाकारों की लघुकथाएं भी अलग अलग पाठ्यक्रमों में लगी होंगीं। </p><p><br /></p><p><b>डॉ. लता अग्रवाल </b>– मतलब निकट भविष्य में मुख्य विषय के रूप में इसकी कल्पना कई जा सकती है। लघुकथा में पुनर्लेखन को आप किस रूप में देखते हैं, मेरा आशय प्राचीन लघुकथाओं से भी है और पौराणिक से भी।</p><p><b>कमलेश भारतीय</b>- लघुकथाओं का पुनर्लेखन यानी नये समाज व प्रसंग के साथ जोड़ कर लिखना। ऐसी लघुकथाएं बहुतायत में हैं। मैंने इस तरह का प्रयोग जनता और नेता में किया है। राजा विक्रमादित्य में किया है।</p><p><br /></p><p><b>डॉ. लता अग्रवाल </b>– हाँ, आज पुस्तकालयों में सन्नाटे झांक रहे हैं, मुफ्त में भी किताब भेंट करें तो उन्हें पढ़ने के संस्कार नहीं दिखते। क्या कारण है .पढ़ने में रुचि कम हो रही है या इस भागदौड़ भरी जिंदगी में इंसान के भीतर की बेचैनी है जो उसे एकाग्र नहीं होने देती।</p><p><b>कमलेश भारतीय</b>- इसीलिए मैं अपनी किताबें स्वयं प्रकाशित कर एक एक पाठक तक पहुंचा रहा हूं। मैंने लिखा है यादों की धरोहर में कि होम डिलीवरी करने में भी संकोच नहीं। मेरी इस पुस्तक के दो संस्करण हाथों हाथ पाठकों तक पहुंच गये। दो माह में संस्करण खत्म। मेरी खुद से चुनौती थी कि दो संस्करण निकाल कर दिखाऊंगा। पुस्तक कम मूल्य कम हो और पेपरबैक हो। तभी पाठक स्वीकार करता है। महंगे मूल्य क्यों ? </p><p><br /></p><p><b>डॉ. लता अग्रवाल </b>– पुस्तकों का महंगा होना भी एक अहम् कारण है। आज लघुकथा में किन विषय वस्तु को उठाने की दरकार आप महसूस करते हैं जो समाज को संबोधित करने की ताकत रखती है और आवश्यक है।</p><p><b>कमलेश भारतीय</b>- विषय की कोई कमी नहीं। मोबाइल , इंटरनेट और सोशल मीडिया तक इसके विषयों में शुमार हो चुके हैं। लघुकथा में सबको समा लेने की क्षमता है।</p><p><br /></p><p><b>डॉ. लता अग्रवाल </b>– बिलकुल, इधर कुछ समय से लघुकथा में काव्यात्मकता की आवश्यकता महसूस की जा रही है , कहीं - कहीं इस पर काम भी हुआ है। आप इस संबंध में क्या कहना चाहेंगे।</p><p><b>कमलेश भारतीय</b>- काव्यात्मकता से आपका आश्य सरसता से है। मैंने प्रेम लघुकथाएं ऐसे ही प्रयोग के तौर पर लिखी हैं। सरसता और कथारस जरूरी है। </p><p><br /></p><p><b>डॉ. लता अग्रवाल </b>– ठीक कहा, लघुकथा के अनेक मंच तैयार हो गए हैं ऐसा महसूस किया जा रहा है कि इन मंचों के दबाव में लघुकथा कहीं दब सी गई है। इसमें कितनी सच्चाई है ?</p><p><b>कमलेश भारतीय</b>- हां। कुछ अति हो रही है। ज्यादा मंच और कम काम। कोई भी मंच वर्ष की श्रेष्ठ लघुकथाओं का संकलन प्रकाशित नहीं करता। यह सुझाव है मेरा।</p><p><br /></p><p><b>डॉ. लता अग्रवाल </b>– पूर्णत: सहमत, लघुकथा में भाषा और शिल्प को लेकर जो नए- नए प्रयोग किए जा रहे हैं आप उसे लघुकथा के लिए कितना हितकर मानते हैं ?</p><p><b>कमलेश भारतीय</b>- बात को हटकर कहने का अंदाज ही नये प्रयोग की ओर ले जाता है। पर सायास नहीं होने चाहिएं।</p><p><br /></p><p><b>डॉ. लता अग्रवाल </b>– जी, आज जिस परिमाण में लघुकथाएं लिखी जा रही हैं ,इससे अच्छी लघुकथाओं को लेकर चिंतन उत्पन्न हो रहा है। अच्छी लघुकथा की परिभाषा आपसे जानना चाहेंगे ? </p><p><b>कमलेश भारतीय</b>- अच्छी लघुकथा जिसे सायास नहीं अनायास सहज ही लिखा जाए। स्वाभाविक। यह आकाश में बिजली कौंधने के समान है। इसे अनावश्यक विस्तार नहीं दिया जाना चाहिए। जितने कम शब्दों व प्रतीकों में बात कही जाए तो सुखद व श्रेयस्कर।</p><p><br /></p><p><b>डॉ. लता अग्रवाल </b>- कम शब्दों पर जानना चाहूंगी, लघुकथा को जो मैं समझ पाई हूँ कम से कम शब्दों में व्यक्त करने की कला है। मगर आज इसकी शब्द सीमा में निरंतर विकास हो रहा है। आप इस बढ़ती शब्द सीमा से कितनी सहमति रखते हैं ?</p><p><b>कमलेश भारतीय</b>- ज्यादा लम्बी नहीं होनी चाहिए। शब्द संख्या तय नहीं लेकिन यदि कुछ बढ़ती है तो इसे छोटी कहानी के रूप में लें। कुछ रचनाएं मेरी भी बड़ी हैं और इनके बाद काफी सतर्क होना पड़ा। अपने आलोचक बनना सीखें।</p><p><br /></p><p><b>डॉ. लता अग्रवाल </b>– मतलब कम शब्दों में गहरी बात कही जाय, इसी से जुड़ा अगला सवाल, आज बड़ी मात्रा में लघुकथाकारों का आगमन हो रहा है। क्या यह मान लिया जाए कि लघुकथा लिखना आसान है ?</p><p><b>कमलेश भारतीय</b>- नहीं। आसान नहीं। पर यदि सिर्फ रविवारी लघुकथा ही लिखना है तो कोई लाभ नहीं विधा को। ज्यादा बाढ़ नवम् दशक में आई और फिर उतार भी आया। सोच समझ कर लिखा जाए। गुलेरी का उदाहरण।कम लिखो। उसने कहा था ने उन्हें अमर कर दिया।</p><p><br /></p><p><b>डॉ. लता अग्रवाल </b>- यह भी कहा जाता है कि विषय को शब्द सीमा में नहीं बांधा जा सकता, किन्तु मेरा सवाल फिर वहीं आता है। शब्दों की मितव्ययता ही तो इस विधा की मौलिक पहचान है !</p><p><b>कमलेश भारतीय</b>- शब्द कम से कम और मारक व बेधक शक्ति ज्यादा। शब्दभेदी बाण जैसी।</p><p><br /></p><p><b>डॉ. लता अग्रवाल </b>– प्रेरक उदाहरण, जीवन की कठिनाई, मुसीबतों, जटिलताओं और अंतर विरोधों के बीच ही श्रेष्ठ लघुकथाओं का सृजन होता है ? आप इस विचार से कितनी सहमति रखते हैं ?</p><p><b>कमलेश भारतीय</b>- यह तो सारे साहित्य का मूल है संघर्ष , चुनौतियां जीवन की और सुख दुख सभी तो इसके अंगसंग हैं और लेखन का आधार। लेखन की नींव।</p><p><br /></p><p><b>डॉ. लता अग्रवाल </b>–बिलकुल, वर्तमान में लघुकथा प्राचीन नियमों की दीवार फांद कर अपने लिए नए दायरे स्थापित कर रही है इसे कहां तक स्वीकृति की संभावना आप देखते हैं ?</p><p><b>कमलेश भारतीय</b>- नये समय के अनुसार परिवर्तन के लिए हमें तैयार रहना चाहिए और बदलाव सहर्ष स्वीकार करने चाहिएं।</p><p><br /></p><p><b>डॉ. लता अग्रवाल </b>– जी, 21वीं सदी के दूसरे दशक में लघुकथा की स्थिति और उपस्थिति के बारे में आपसे जानना चाहेंगे ?</p><p><b>कमलेश भारतीय</b>- नयी सदी में लघुकथा और अधिक लोकप्रिय होगी। सबके पास समय का अभाव। व्यस्तता के बीच लघुकथा को तुरंत पढ़ा जाता है। यह इसकी खूबी है। गुण है और लोककथाओं की तरह प्रचलित हो रही हैं।</p><p><br /></p><p><b>डॉ. लता अग्रवाल </b>– ठीक बात, लघुकथा में अनुभव और अनुभूति को आप किस तरह स्वीकार करते हैं?</p><p><b>कमलेश भारतीय</b>- अनुभव को अनुभूति तक ले जाना और अभिव्यक्त करना ही लेखन की कला है। यदि हमने जो अनुभव किया है उसे लिखने में असमर्थ होते हैं तो निश्चय ही हम अनुभूति तक ले जाने में विफल रहे हैं। यह समझ लीजिए।</p><p><br /></p><p><b>डॉ. लता अग्रवाल </b>– जी, जो कुछ भी जीवन में है; साहित्य में वह त्याज्य नहीं, न ही वर्जित है। इस दृष्टि से लघुकथा में कई विषय अनछुए रह गए हैं। अगर आप सहमत हैं तो उन विषयों के बारे में आपसे जानना चाहेंगे ?</p><p><b>कमलेश भारतीय</b>- नहीं। मेरा ख्याल है कि यह भ्रम है। सभी विषयों को छू रही है लघुकथा। अभी आपने डा. घोटड़ के साथ किन्नर समाज तक की लघुकथाएं दी हैं। क्या पहले कभी इस विषय को छुआ गया ?</p><p><br /></p><p><b></b></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><b><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhtDFmDwkLjFHOCg0T8wBXw2vtfDwPvsGN0io-lSG5z0rGOgTkhII7HE5q5Q446laAsY-BVWvKk1le7cn8_0NlLQpIb6tIE8vwYN2HCb5_F53UpBQ_boM32Mg29OPCN2G6FxtfItaNefHGG4sJXBC3XgKwbIXeDjEh8ar0N4j5fvMVK0fM18d5MREFN/s253/Dr%20Lata%20Agarwal.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="253" data-original-width="199" height="145" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhtDFmDwkLjFHOCg0T8wBXw2vtfDwPvsGN0io-lSG5z0rGOgTkhII7HE5q5Q446laAsY-BVWvKk1le7cn8_0NlLQpIb6tIE8vwYN2HCb5_F53UpBQ_boM32Mg29OPCN2G6FxtfItaNefHGG4sJXBC3XgKwbIXeDjEh8ar0N4j5fvMVK0fM18d5MREFN/w114-h145/Dr%20Lata%20Agarwal.jpg" width="114" /></a></b></div><b><br />डॉ. लता अग्रवाल </b>–जी धन्यवाद , जब भी कोई विचार या भाव आपके मन में घुमडता है ,आप कैसे तय करते हैं कि उसे किस विधा और किस शिल्प में ढाला जाए ? क्योंकि एक साहित्यकार लघुकथाकार के अतिरिक्त कई विधाओं से जुड़ा होता है।<p></p><p><b>कमलेश भारतीय</b>- हां। यहआपने सही कहा। कुछ विषय लघुकथा के लिए चुने लेकिन वे कहानी का रूप ले गये तो कुछ कहानियां लघुकथा बन गयीं। जैसे ताजा लघुकथा तिलस्म। कहानी लिखना चाहता था पर लगा कि लघुकथा में ही बात कह सकता हूं। इस तरह लिखने की प्रक्रिया में अपने आप लेखक मन तय कर लेता है।बस , थोड़ा सा झूठ कहानी लघुकथा के रूप में लिखनी शुरू की लेकिन कहानी बन गयी और खूब चर्चित रही । </p><p><br /></p><p><b>डॉ. लता अग्रवाल </b>–वाह, लघुकथा का वास्तविक उद्देश्य और सार्थकता क्या है ?</p><p><b>कमलेश भारतीय</b>- हर साहित्यिक विधा का उद्देश्य अपना संदेश देना है। समाज को बदलने में भूमिका निभाना है। मुंशी प्रेमचंद के अनुसार मनोरंजन करना साहित्य लेखन नहीं। </p><p><br /></p><p><b>डॉ. लता अग्रवाल </b>- निर्मल जी ने कहा है कि, 'ठिठुरती आत्मा को गर्माहट देना साहित्य का काम है।' इसी वाक्य को यदि कुछ इस तरह मैं कहूं कि जड़ मानवीय संवेदना में भावों का संचार करना ही लघुकथा का काम है आप कितनी सहमति रखते हैं ?</p><p><b>कमलेश भारतीय</b>- जी बिलकुल सही है ,संवेदना को झकझोरने का काम साहित्य करता है। आत्मा को जगाए रखने का काम साहित्य करता है।</p><p><br /></p><p><b>डॉ. लता अग्रवाल </b>– जी साहित्य रागात्मक सम्बन्ध उत्पन्न करता है। लघुकथाकार को धैर्यवान होना चाहिए, ताकि वह विसंगतियों को कटघरे में खड़ा कर सके। क्या आज लघुकथाकार इस कसौटी पर खरे उतर रहे हैं ? </p><p><b>कमलेश भारतीय</b>- कोशिश। कोशिश। कोशिश।</p><p><br /></p><p><b>डॉ. लता अग्रवाल </b>– बहुत खूब , आप काफी समय से लघुकथा से जुड़े हैं, उस वक्त लघुकथा यानी 'साहित्य को जबरन बोना करने या फिलर के रूप में कहीं स्थान पाना मात्र था। आज लघुकथा को आप कहां पाते हैं ? </p><p><b>कमलेश भारतीय</b>- फिलर से पूर्ण विधा। पचास साल के सफर में कितने रूप और कितनी मंजिलें तय कीं। जैसे व्य॔ग्य की स्थिति को कभी शूद्र की स्थिति में रखा था हरिशंकर परसाई ने लेकिन आज स्थिति बदल चुकी। ऐसे ही लघुकथा ने बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान बना लिया। अब कोई पत्र -पत्रिका इसकी उपेक्षा नहीं कर सकती।</p><p><br /></p><p><b>डॉ. लता अग्रवाल – </b>बधाई, खेमे बनाने से कोई विधा नहीं पनपती फिर भी आज लघुकथा में कई खेमें नित्य जन्म ले रहे हैं। ऐसे में लघुकथा का क्या भविष्य देखते हैं ?</p><p><b>कमलेश भारतीय</b>- मैंने लम्बे लघुकथा सफर में किसी भी खेमे से अपनेआपको जुडने नहीं दिया। भरसक दूरी बनाए रखी। कुछ नुकसान भी उठाया लेकिन अपने पथ से विचलित नहीं हुआ। खेमे शेमे में साहित्य नहीं पनपता यह मेरा विश्वास है। </p><p><br /></p><p><b>डॉ. लता अग्रवाल </b>–लघुकथाओं के प्रति शौक कैसे उत्पन्न हुआ ? लघुकथा को लेकर आपके साहित्य संसार के बारे में जानना चाहेंगे।</p><p><b>कमलेश भारतीय</b>- मूलतः कहानियां लिखता था। लम्बी कहानियां। छह कथा संग्रह हैं मेरे। धर्मयुग , कहानी , सारिका , नया प्रतीक सभी में कहानियां आईं। पहले लघुकथा संग्रह महक से ऊपर को पंजाब के भाषा विभाग की ओर से सर्वोत्तम कथाकृति का पुरस्कार मिला तो एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री पुरस्कार। इसके बाबजूद लघुकथा की ओर आकर्षित हुआ और चार लघुकथा संग्रह भी दिए। पांचवें की तैयारी में हूं। कम शब्दों में बड़ी से बड़ी बात पहुंचाना ही आकर्षण का केंद्र बना। नाटक , गजल और दोहे जैसी विधाओं की तरह तुरंत बात पहुंचाना लघुकथा में संभव। एक लघुकथा संग्रह ‘इतनी सी बात’ का पंजाबी में ‘ऐनी कु गल्ल’ के रूप में अनुवाद भी हुआ। इसका नेपाली में भी अनुवाद होने छा रहा है। अनेक लघुकथाएं पंजाबी , गुजराती , मलयालम व अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ। </p><p><br /></p><p><b>डॉ. लता अग्रवाल </b>- एक लेखक ‘सार्त्र’ रहे, जिन्होंने नोबेल पुरस्कार को भी आलू की बोरी कहकर ठुकरा दिया। आज पुरस्कार लेने की होड़ लगी है, आप भी उसी लेखक समाज से आते हैं मगर जितना में जानती हूँ आप मंच से सदैव दूरी बनाए रखते हैं, इसकी कोई खास वजह...?</p><p><b>कमलेश भारतीय</b>- लघुकथा के समर्पित सिपाही के तौर पर काम करना पसंद। यही कर रहा हूं पचास वर्ष से। सिर्फ कार्यकर्त्ता की भूमिका। नेतागिरी या पुरस्कार पर आंख नहीं। पुरस्कार के पीछे भागना पसंद नहीं। आप पुरस्कार के लिए नहीं लिखते। आत्मसंतुष्टि और समाज के लिए लिखते हैं। प्रधानमंत्री तक का पुरस्कार सहज ही मिला। लेखक को श्रेष्ठ लिखने की चिंता करनी चाहिए। पुरस्कारों की नहीं।</p><p><br /></p><p><b>डॉ. लता अग्रवाल </b>– काश...! आपने लघुकथा को परिभाषित किया है कि 'मेरी दृष्टि में लघुकथा उन क्षणों का वर्णन है जिन्हें जानबूझकर विस्तार नहीं दिया जा सकता यदि लघुकथा लेखक ऐसा करता है तो सजग पाठक उसे तुरंत पहचान लेता है। तो क्या लघुकथा लेखन के दौरान विषय चयन को लेकर कोई सावधानी रखनी चाहिए ?</p><p><b>कमलेश भारतीय</b>- सावधानी नहीं। अंदर से यह अनुशासन होना चाहिए। सप्रयास कुछ नहीं। सहजता ही मूलमंत्र।</p><p><br /></p><p><b>डॉ. लता अग्रवाल </b>– जी, लघुकथा को लेकर जितना समर्पण भाव पंजाबी, गुजराती, डोगरी में संजीदगी से हो रहा है,हिंदी में वह गंभीरता कम ही दिखाई देती है। क्या वजह हो सकती है।</p><p><b>कमलेश भारतीय</b>- समर्पण जरूरी है। बहुत सचेत रहने की जरूरत। हिंदी में मठों की स्थापना ज्यादा और इसे संवारने की ओर ध्यान कम। </p><p><br /></p><p><b>डॉ. लता अग्रवाल </b>– सहमत हूँ, आपने एक बात बड़ी रोचक कही, 'लघुकथा आंदोलन में बिखराव का कारण सब ने अपनी - अपनी डेढ़ इंच की मस्जिद बनाकर मसीहाई मुद्रा अपना ली है। इससे कैसे बाहर आया जाये?</p><p><b>कमलेश भारतीय</b>- खुद को खेमों और मठों से दूर रखना ही इसका उपाय है। यही कर रहा हूं। सिर्फ लेखन पर ध्यान। कभी संग्रह संपादन नहीं किया। समाचारपत्र व पत्रिका के संपादन में भी नये रचनाकारों को मुक्तहृदय से मंच प्रदान किया। </p><p>-0-</p>Chandreshhttp://www.blogger.com/profile/02561154935591615367noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-6612594456838147086.post-26497288039960583542022-12-14T14:10:00.008+05:302022-12-14T16:26:25.212+05:30पुस्तक समीक्षा | अपकेन्द्रीय बल | लेखक: संतोष सुपेकर | समीक्षक: दिव्या राकेश शर्मा<p><b><span style="color: #cc0000;">संवेदना को हौले-हौले से जगाती कथाएँ</span></b></p><p><span style="color: #cc0000;"><b><br /></b></span><b><span style="color: #cc0000;"></span></b></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><b><span style="color: #cc0000;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhBfyhMllvQA93WxFn_9-MO3MqPNs7Cbe9ZbW1HmHqZRk491CSrN8BAkSlWaDcfZM2o5BkQq3bxHXhmq_-cpOs5qyFjz2dJVWIUDxiMzs8AHBRBl_V-i297WUFjZhW5CNI_GMzavydlK8Dl0NNO9L18x5AVA65FjuaOhl7G-OofXR-38Qc8jxyVF5M4/s1792/Apkendriya_Bal.jpg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1792" data-original-width="1008" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhBfyhMllvQA93WxFn_9-MO3MqPNs7Cbe9ZbW1HmHqZRk491CSrN8BAkSlWaDcfZM2o5BkQq3bxHXhmq_-cpOs5qyFjz2dJVWIUDxiMzs8AHBRBl_V-i297WUFjZhW5CNI_GMzavydlK8Dl0NNO9L18x5AVA65FjuaOhl7G-OofXR-38Qc8jxyVF5M4/s320/Apkendriya_Bal.jpg" width="180" /></a></span></b></div><p></p><p>"<i>सुपेकर उन लघुकथाकारों में से हैं जो लघुकथा-सृजन का रास्ता अपनी वैचारिक शक्ति के बूते एक अन्वेषी के रूप में खुद खोजते हैं।किसी का अनुगामी होकर चलना उनके रचानात्मक स्वभाव में नहीं हैं।</i>"</p><p>आदरणीय संतोष सुपेकर जी के लिए यह उदगार आदरणीय डॉ. पुरुषोत्तम दूबे सर के हैं। उनकी इस बात से मैं भी पूरी तरह सहमत हूँ। हम सुपेकर सर की रचनाओं को विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में अक्सर पढ़ते रहते हैं। उनकी रचनाशीलता व लघुकथा के प्रति समर्पण भी उनकी साहित्यिक कर्मठता को दिखाता है।वैचारिक शक्ति का एक उदाहरण सुपेकर जी के नये लघुकथा संग्रह 'अपकेन्द्रीय बल' में आपको मिलेगा।यह उनका छठा लघुकथा संग्रह है जो एचआई पब्लिकेशन से प्रकाशित हुआ है।</p><p>'अपकेन्द्रीय बल' में संकलित कथाओं के बारें में आदरणीय योगराज सर लिखते हैं कि,</p><p>"<i>इस संग्रह से गुजरते हुए मैंने पाया कि संतोष सुपेकर की लघुकथाएँ हमारे जीवन की विसंगतियों का बहुत ही बारीकी से अन्वेषण करती हैं।यथार्थ से सजी इन लघुकथाओं में जीवन की श्वेत श्याम फोटोग्राफी है।</i>"</p><p>कथाओं में निहित मूल भाव और उद्देश्य का सार योगराज सर ने अपने इस वक्तव्य में दिया है। जो भी पाठक संतोष सुपेकर जी की लघुकथाओं से परिचित है वह इस बात से सहमत होगा कि संतोष सुपेकर जी की लघुकथाएँ यथार्थ का आईना हैं।</p><p>इन कथाओं में कोई कृत्रिमता नहीं है बल्कि स्वभाविक भाव लिए उन बिन्दुओं पर चोट है जिन बिन्दुओं की डार्क स्याही से हम बचकर निकल जाने की कोशिश करते हैं। कथाओं के पात्र हमारे इर्दगिर्द ही हैं जिन्हें आप रोज देखते हो और आगे बढ़ जाते हो।</p><p>सबसे पहले मैं इस संग्रह की लघुकथा विवश प्रस्ताव का जिक्र करूंगी। यह कथा भले ही लेखक के दिमाग की कल्पना हो, लेकिन पात्र सच्चे हैं और मैं व्यक्तिगत ऐसे पात्रों को देख चुकी हूं जिन्होंने लेखन को अपनी आत्मा बना लिया है। एक बेबस वरिष्ठ लेखक जिसने जीवन में लेखन से सम्मान तो पाया किन्तु धन नहीं कमा सके। धन तो जीवन में सम्मान से बढ़कर होता है! इसलिए लेखक के घरवालों को अब लेखक का लिखना पसंद नहीं। लेखन को बचाने के लिए वरिष्ठ लेखक अपनी जमापूंजी को ऐसे व्यक्ति के हाथों सौंप देता है जो संस्था द्वारा लेखकों को सम्मान देने का.काम करता है।</p><p>"इसमें से तीन हजार आपकी संस्था के सहायतार्थ रख लीजिए और…दो हजार मेरा सम्मान कार्यक्रम कर मुझे दे देना ताकि मेरे घरवाले मुझे लेखन करने दें।"</p><p>इस संवाद को पढ़कर इस कथा के मूल से आप परिचित हो गए होंगे।</p><p>लेखक ने लेखन में समाज की उस विसंगति को जो कि लेखको की आत्मपीड़ा बनकर आर्तनाद कर रही है। इस कथा के माध्यम से बड़ी मार्मिकता से उभारा है। डिसेंडिंग ऑर्डर शीर्षक से क्रमशः एक और दो कथाएँ हैं, दोनों ही उम्दा हैं। मुहर,अपार्टमेंट, संकुचन,स्थाई कसक,जुड़ाव, फायर,जैसी कथाएँ मनोवैज्ञानिक अवलोकन पर आधारित हैं।</p><p>सुपेकर जी ने सरकारी कार्यालयों और सरकारी कर्मचारियों को लेकर अनेक कथाएँ लिखी हैं।इन कथाओं में व्यवस्था और उसमें शामिल भ्रष्टाचार अपने नग्न रुप में सामने आ रहा है।</p><p>संग्रह की कथाओं में प्रवाह है और ठहराव भी।भाषा सहज सुगम है और पात्रानुकूल है।</p><p>इन कथाओं के पात्र कभी अपने रोग से लड़ते हुए विजेता होने का सपना देखते हैं तो कभी सच रिश्तों की चुगली कर बतियाते हैं।</p><p>हताशा का लावा अच्छा शीर्षक है कथा भी जानदार। कथाओं की डोर सख्त कील से बंधी लेकिन अपने ऊपर ढेरों आशाएं टाँगे यह डोर संवेदना को हौले-हौले से झिंझोड़ कर जगा रही है।</p><p>सात रहती दूरियाँ ऐसे ही आपको खंरोच कर निकल जाती है, तो रास्ते का पत्थर टक से आपके दिल पर जाकर लगता है। इस कथा को पढ़कर एक बार अपने मन को ज़रूर टटोलना होगा कि कहीं कभी हमने भी ऐसा तो न कहा या किया था!</p><p>सुपेकर जी रचनाधर्मिता के साथ एक और धर्म बहुत स्पष्टता से निभा रहे हैं और वह है साहित्यकारों के हृदय की पीड़ा उनके जीवन में आने वाली दिक्कतों को संजीदगी के साथ समाज और व्यवस्था के सामने रखना। उन्होंने अनेक कथाओं में लेखन जगत की विसंगतियों को उभारा है जैसा कि मैं पहले लिख ही चुकी हूँ।</p><p>चाल ,साजिशें और गिरगिट की तरह रंग बदलते पात्रों में एक पात्र लखन दादा भी है, जो राकेश की बारात का स्वागत इसलिए करता है क्योंकि अब उसे पार्षद के इलेक्शन के लिए गरीब राकेश की बस्ती के वोट चाहिएं।</p><p>उस रक्त स्नान के खिलाफ इंसानियत के बचने की कथा है।</p><p>'अपकेन्द्रीय बल' संग्रह की शीर्षक कथा समाजिक असमानता के तानेबाने और सोच व ज़रूरत पर लिखी गई कथा है। सेठ छगनलाल और सेवक मंगल की आवश्कताओं का अपकेन्द्रीय बल जो कि बेहतरीन कथा बन पड़ी है।</p><p>जाति धर्म एक ऐसा विषय जो बेहद संवेदनशील विषय है और अक्सर झगड़े की वजह भी बनता है। संग्रह की प्रथम लघुकथा 'इस बार' में चार दोस्तों के बीच अपने धर्म और जाति के विवाद के बीच उपजी बहस में अचानक सभी सच को देख खामोश हो जाते हैं और अपने ऊपर शर्मिंदा होने लगते हैं।</p><p>लघुकथाओं को समझने के लिए पाठकों को उपन्यास को समझने से ज्यादा धैर्य व श्रम की आवश्यकता होती है।अमूमन यह धारणा है कि लघुकथाएं उपन्यास के सामने महत्व नहीं रखती जबकि ऐसा नहीं है क्योंकि एक लघुकथा जो चंद वाक्यों में लिखी जाती है वह हज़ारों शब्दों में लिखे गए उपन्यास से ज्यादा लम्बी कहानी को समेटे होती है, जिसका उद्देश्य समाज की चेतना को जाग्रत करना होता है।</p><p>इस संग्रह में भी आपको ऐसी ही कथाएं पढ़ने को मिलेंगी।</p><p>संग्रह के लिए आदरणीय सुपेकर सर को बधाई व शुभकामनाएं।</p><p><b>- दिव्या शर्मा</b></p>Chandreshhttp://www.blogger.com/profile/02561154935591615367noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-6612594456838147086.post-16937185679436748192022-12-01T22:42:00.005+05:302022-12-01T22:42:51.762+05:30लघुकथा की शैली में एक प्रयोग<p>कालखंड पर काम करते समय लघुकथा की एक शैली पर भी काम किया था, इस लघुकथा पर मैं समझ सकता हूँ कि काफी काम बचा हुआ है, यह सिर्फ शैली का अभ्यास सा है.</p><p>यह शैली घड़ी के घंटों पर आधारित है. हर एक घंटे में जो परिवर्तन आए वे लिखे और घड़ी के घंटों के बदलने को एक घटना जैसा दर्शाने की कोशिश की है.</p><p>-0-</p><p><br /></p><p><b><span style="color: #990000;">बारह घंटे में भगवान् / चंद्रेश कुमार छतलानी</span></b></p><p><br /></p><p>12:00 बजे : वक्त का पाबन्द वह, ठीक वक्त पर नहा-धो कर नशा करने के लिए, क्लॉक टावर के नीचे बैठ कर कपडे में भिगोया हुआ केरोसिन सूंघना शुरू हो गया.</p><p><br /></p><p>13:00 बजे : उसका एक दोस्त आया. अब तक वह नशे में धुत हो चुका है. दोस्त भी उसके साथ केरोसीन सूंघने लगा.</p><p><br /></p><p>14:00 बजे : दोस्त ने उससे कहा, कोई भी केरोसीन को केवल सूंघ सकता है, पी नहीं सकता. उसे किक सी लगी और उसने कहा कि वह केरोसीन पी भी सकता है. इस बात पर दोनों की पचास हजार रुपये की शर्त लग गई.</p><p><br /></p><p>15:00 बजे : नशे की हालत में वह काफी सारा केरोसीन पी गया था, केरोसीन उसके कपड़ों पर भी गिरा हुआ दिखाई दे रहा है.</p><p><br /></p><p>16:00 बजे : शर्त हारते ही उसका दोस्त बेचैन हो गया था और रुपयों का इंतज़ाम करने को सोचते हुए तब से लेकर अब तक वह सिगरेट पर सिगरेट फूंक रहा है. </p><p><br /></p><p>17:00 बजे : उधर ज्यादा केरोसीन पीने के कारण उसके शरीर ने जवाब दे दिया और वह मर गया. आसपास कुछ लोग इकट्ठे हो गए. यह देख कर सिगरेट फूंक रहा दोस्त घबरा कर जलती हुई सिगरेट वहीं फैंक कर भागा. सिगरेट उसके मृत शरीर पर पीछे की तरफ जा गिरी है.</p><p>जलती सिगरेट से कुछ ही देर में उसके शरीर में आग लग गई. बाहर व अंदर केरोसीन होने के कारण वह अपने-आप जलने लगा, </p><p><br /></p><p>18:00 बजे : धीरे-धीरे आग उसके पूरे शरीर में फ़ैल चुकी है. वहाँ इकट्ठे लोग यह समझ रहे हैं कि वह अपने-आप जल रहा है. वे उसका विडियो भी बना रहे हैं.</p><p><br /></p><p>19:00 बजे : वह जल कर राख हो गया है.</p><p><br /></p><p>20:00 बजे : सोशल मीडिया के जरिए यह बात पूरे देश में वायरल हो गई है.</p><p><br /></p><p>21:00 बजे : वहाँ शहर के अलग-अलग धर्मों के कुछ धर्मगुरु भी आ गए हैं और आपस में चर्चा कर रहे हैं.</p><p><br /></p><p>22:00 बजे : धर्मगुरुओं की आपसी बातचीत खत्म हो गई. </p><p><br /></p><p>23:00 बजे : वहां कुछ पत्रकार बुलाए गए, जो आ चुके हैं और धर्मगुरुओं के मठों व आश्रमों के लोग भी आ गए. कई लोगों की भीड़ भी जमा हो गई है. </p><p><br /></p><p>00:00 बजे : उसकी राख पर रखा बड़ा दान पात्र उसकी समाधी जैसा दिखाई दे रहा है. दान पात्र पर सभी धर्मों के चिन्ह बने हुए हैं. </p><p>-0-</p><p><br /></p><p>धन्यवाद।</p><p><b>डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी</b></p>Chandreshhttp://www.blogger.com/profile/02561154935591615367noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-6612594456838147086.post-46578489091587212632022-11-29T01:17:00.001+05:302022-11-29T01:17:00.160+05:30पुस्तक समीक्षा | तूणीर (लघुकथा सँग्रह) | लेखक: डॉ. मधुकान्त | समीक्षक: कल्पना भट्ट<p><b><span style="color: #cc0000;">पुस्तक का नाम: तूणीर (लघुकथा सँग्रह)</span></b></p><p><b><span style="color: #cc0000;">लेखक: डॉ मधुकान्त</span></b></p><p><b><span style="color: #cc0000;">प्रकाशक: अयन प्रकाशन</span></b></p><p><b><span style="color: #cc0000;">प्रथम संस्करण : 2019 </span></b></p><p><b><span style="color: #cc0000;">मूल्य : 240 रुपये </span></b></p><p><b><span style="color: #cc0000;">पृष्ठ: 128</span></b></p><p><br /></p><p style="text-align: center;"><b><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">तूणीर में तीर: मधुकांत की लघुकथाएँ</span></b></p><p>हिन्दी लघुकथा जगत् में डॉ मधुकान्त जी एक जाने-माने हस्ताक्षर हैं। आप रक्तदान हेतु भी जाने जाते हैं। </p><p>आपने अपनी भूमिका में 'तरकश' नामक आपके प्रथम लघुकथा सँग्रह जो वर्ष 1984 में प्रकाशित हुआ था का उल्लेख किया है। परंतु मेरे लिये आपका प्रस्तुत लघुकथा सँग्रह 'तूणीर' से ही आपकी लेखनी से परिचय हुआ है, इसको कहने में मैं बिल्कुल संकोच नहीं करूँगी।</p><p>डॉ. सतीशराज पुष्करणा ने अपने आलेख 'हिन्दी लघुकथा की रचना-प्रविधि' में लिखा है कि ' कथा को अन्य विधाओं की अपेक्षाकृत लघुकथा बहुत क्षिप्र होती है और वह अपने गन्तव्य तक यथासम्भव शीघ्र पहुँचती है। </p><p>प्रस्तुत सँग्रह में कुल 91 लघुकथाएँ प्रकाशित हैं जिनको मैंने इन शीर्षकों में विभाजित किया है।</p><p><b>1. राजीनीति पर आधारित लघुकथाएँ </b>:- इस विषय पर आपकी लघुकथाओं में ' 'वोट की राजनीति'- इस में वोट डालने की परंपरा को अपने संविधानिक अधिकार से अधिक एक औपचारिक निभाते हुए लोगों का चित्रांकन है। 'पहचान'- इस लघुकथा में वोट माँगने जाने वाले नेताओं का चित्रण है, जो चुनाव के बाद अगर जीत जाते हैं तब उसके बाद वह कहीं दिखाई नहीं देते। ऐसे में ज़मीनी तौर पर कोई आम गरीब नागरिक उस नेता को फिर चाहे वह प्रधानमंत्री ही क्यों न हों वह अगर उनको न पहचान पाने की बात करते हुए अपनी झोपड़ी के भीतर चला जाये तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। यहाँ प्रधानमंत्री का उल्लेख है जिनके लिये उनके सहयोगी 'ताकतवर देश के ये प्रधनमंत्री' करके सम्बोधन हैं वहीं उस गरीब व्यक्ति के लिये वह 'दो हड्डी' का है का सम्बोधन है। यहाँ सहयोगी उनकी चापलूसी एवं उनकी पदवी को अहमियत देता नज़र आ रहा है वहीं दो हड्डी के सम्बोधन में वह कमज़ोर और निर्जन नेता प्रतीत होता है । 'निर्मल गाँव'- इस लघुकथा में कथानायक सरपंच सरकार से मेल-जोल बढ़ाकर आदि देकर वह अपने गाँव को 'निर्मल गाँव' घोषित करवा लेता है और फंड्स भी ले लेता है। परन्तु एक मास में उसको अपने गाँव को स्वच्छ बनाना था और वह नहीं बना पाया था। इस हेतु वह गाँव के सभी घरों में शौचालय बनाने का बीड़ा उठाता है। लोगों को पंचायत घर में बुलाता है, बी.डी.ओ भी वहाँ बैठे होते हैं। ऐसे में वह एक ग्रामीण भीमन को बुलाकर पूछता है, "तुम्हारे घर में अभी तक शौचालय नहीं बना?" जिसपर वह उत्तर देता है, "कहाँ सरकार...दो वर्ष से फसल चौपट हो रही है। खाने के लाले पड़े हैं, पखाना कैसे बनेगा?" इसपर सरपंच उसको विश्वास में लेने के इरादे से कहता है, "अरे सरकार तुमको पच्चीस हज़ार का चैक देगी शौचालय बनवाने के लिये परंतु तुमको अपने हिस्से का पाँच हज़ार जमा करवाना पड़ेगा।" </p><p>"सरकार, हम पाँच हज़ार कहाँ से लावें...?"</p><p>"सरकार पिछली स्किम में पकड़ा था, अभी तक उसका ब्याज भी चुकता नहीं हुआ।" </p><p>इन सँवादों से सरकारी स्किम और उसको अमल पर लाने हेतु जिस तरह से ग्रामीणों को बहलाया-फुसलाया जाता है और इसकी आड़ में वह लोग जिस तरह से कर्ज़ के दलदल में फँसते और धँसते नज़र आते हैं का बहुत ही करीने से दर्शाया गया है। </p><p>इसके बाद के सँवादों को भी देखें-</p><p>"सोचो, घर में शौचालय बन गया तो काम किसे आएगा...?" </p><p>"मालूम नहीं।"</p><p>"अरे भीमा, क्या गंवारों वाली बात करते हो। इतना भी नहीं जानते शौचालय तुम्हारे घर में बनेगा तो तुम्हारे ही काम आएगा।"</p><p>सरपंच अपना कपट का जाल बिछाने में कहीं पीछे नहीं हटता और वह पहले से भी अधिक कसा हुआ जाल बिछाने के लिये प्रयास करता है ताकि सरकारी कागज़ों पर उसके कार्यो को सफल माना जाए और अगले चुनाव में भी वह अपनी कुर्सी को पा सके। </p><p>परंतु इस बार कथानायक भीमा सरपंच के झाँसे में नहीं आता और उसको मुँह तोड़ जवाब देता है, "सरपंच जी, कुछ खाने को होगा तभी तो काम आएगा।" इन शब्दों को उगल कर वह कमरे से बाहर आ जाता है। </p><p>इस आखरी सँवाद में ग्रामीण लोगों की न सिर्फ दयनीय स्थिति दिखाई पड़ती है अपितु वह सरकारी महकमें से सचेत और जागरूक होता जा रहा है का परिचय भी करवाता हुआ प्रतीत होता है। </p><p> ईमानदार राजनीति':- इस लघुकथा के माध्यम से लेखक ने यह कहने का प्रयास किया है कि राजनीति में आने वालों की छवि इस हद तक बिगड़ी हुई है कि अगर इस महकमें में कोई नेता ईमानदारी से अपना कार्य करने का प्रयास करता है तब उसके अपने परिवार वालों के चेहरों पर उदासी छा जाती है। इस लघुकथा के माध्यम से लेखक जिस उद्देश्य के साथ चले हैं वह पूर्णतः उसमें सफल होते हैं। 'वोट किसे दूँ':- पत्र शैली में लिखी गयी एक सुंदर लघुकथा हुई है जिसमें चुनावी मतदान में खड़े प्रत्यायशी के लिये एक आम नागरिक की क्या राय है और वह प्रत्याशियों के बारे में किस तरह से सोचता है और उनके प्रति उसकी उदासीनता और पीड़ा को कथानायक जिस तरह से अपने मित्र को पत्र द्वारा बताता है का सहज और सुंदर व्याख्या दिखाई देती है। 'सीमाएँ चल उठी':- अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर लिखी इस लघुकथा में काले देश और गोरे देश को प्रतीक बनाकर यह चित्रांकित किया गया है कि कैसे विकसित देश किसी विकाशील देश को अपने को हथियारों से लेस होकर सुरक्षित हो जाने के अपने झाँसे में ले लेता है और उनको हथियार दे देते हैं और उदारता से यह कहते हैं कि पैसा आराम से लौटा देना। वह इतने चिंतित दिखाई पड़ते हैं कि लगने लगता है कि सच में वह अपना हितैषी है परंतु जब वह बिल्कुल ऐसा ही पड़ोसी देश के लिये भी करता है तब उस देश की कुटिल राजनीति का पर्दाफाश होता है परंतु इस बीच दोनों विकासशील देशों के मध्य सीमाओं को लेकर युध्द हो जाता है। और विकसित देश पुनः जीत जाता है और वह न सिर्फ अपनी देश के लिये विदेशी मुद्रा हासिल कर अपने को पहले से और समृद्ध करता है परंतु वह खुद को और भी मजबूत कर लेता है। और विकासशील देशों की अर्थ व्यवस्था लथड़ती हुई नजर आती है। इस गम्भीर विषय पर कलम चलाकर लेखक ने अपना लेखकीय कौशल का बाखूबी परिचय दिया है। और इसका शीर्षक 'सीमाएँ चल उठी' कथानक के अनुरूप है। 'वोट बिकेंगे नहीं':- इस लघुकथा में वोट को न बेचने की बात पर जोर दिया गया है।'परछाई':- यह लघुकथा राजनीति भ्रष्टाचार पर निर्धारित है। जब सभी अपनी-अपनी ज़िम्मेदारी छोड़कर सिर्फ अपना हित सोचेंगे तो देश का क्या होगा? साथ ही कभी किसी भ्रष्ट व्यक्ति का आमना-सामना अपनी ही परछाई से हो जाए तो उस व्यक्ति का भयभीत होना कितना स्वाभाविक होता है। इसका बहुत सुंदर चित्र इस लघुकथा में दृष्टिगोचर होता है। 'अंगूठे'- यह लघुकथा वोट की खरीद पर आधारित है कि किस तरह एक भ्रष्ट नेता अपनी ताकत को बढ़ाने के उद्देश्य से अँगूठे यानी कि अनपढ़ लोगों के मतों को खरीद लेता है , और किसी को शराब, किसी को नोट, किसीको आश्वासन देकर वह भारी मतों से चुनाव जीत जाता है। और सत्ता मिल जाने के जनून में वह इतना खो जाता है कि वह अपने खरीदे हुए अँगूठों से अधिक खून निकालने लग जाता है, और यदा-कदा कोई ऊँचे स्वर में बोलता हुआ नजर आता है तब वह उनको कटवाकर ज़मीन में दबवा देता है। परिणाम स्वरूप एक ही वर्ष में ही उसकी जमीन में अनेक नाखून वाले अँगूठे अँकुरित हो जाते है, जिसके लिये वह तैयार नही होने के कारण उनको देखकर वह डरा-डरा-सा रहने लगता है। इस लघुकथा का विषय नया नहीं है परंतु इसके प्रत्तिकात्मक प्रस्तुतिकरण के कारण यह एक बेहतरीन लघुकथा की श्रेणी में खड़ी मिलती है। </p><p> 'मलाईमार':- एक ऐसा मौकापरस्त व्यक्ति जो अवसर देखकर बार-बार पार्टी बदल लेता है। ऐसे लोगों को अंत में हार का ही सामना करना पड़ जाता है और वह व्यक्ति ये कहता सुनाई दे जाता है, "सच तो यही है कि जनता अब समझदार हो गयी है।" यही वाक्य इस लघुकथा का अंतिम वाक्य है जो इस लघुकथा के मर्म को दर्शा रहा है और इस लघुकथा के उद्देश्य को भी परिलक्षित कर रहा है। यह एक सुंदर लघुकथा है और इसके प्रतीकात्मक शीर्षक के कारण और रोचक बन गयी है।</p><p> 'राजनीति का प्रभाव',:- राजनीति के क्षेत्र में सफलता हासिल हो जाने के उपरांत वह व्यक्ति इतना खास हो जाता है कि उसका प्रभाव डॉक्टर, व्यापारी, या कोई प्रशासनिक अधिकारी क्यों न हों सभी पर पड़ता है और अपना काम करवाने की इच्छा से सभी उसके मुँह की ओर ताकते हुए नज़र आते है। इसी कथ्य को इस लघुकथा के माध्यम से उकेरा गया है।</p><p>'प्रजातन्त्र':- यह एक मानवेत्तर लघुकथा है । एक जंगल में प्रजातंत्र की घोषणा करी जाती है , और यहाँ के संविधान के अनुसार प्रत्येक पाँच वर्ष के बाद जंगल में प्रधान का चुनाव होने लगता है। यहाँ जंगल के हिंसक प्राणी जैसे शेर, बाघ और चीता को पात्र बनाया गया है ।अब अगर इस लघुकथा की चर्चा करें तो जंगल में प्रथम बार शेर, फिर बाघ और फिर चीते को सिंहासन सौंप दिया जाता है। राजपाट चलाने के लिये नव नियुक्त प्रधान (चीता) जब पूर्व प्रधानों से गुप्त मन्त्रणा करने जाता है तब </p><p>शेर समझाता है -आपको पाँच वर्ष तक शासन करना है। पहले दो वर्ष हमें गालियाँ निकालते रहो। आवश्यकता पड़े तो आरामदायक जेल में भी डाल देना...जनता खुश होगी। </p><p>बाघ कहता है- डिवाइड एण्ड रूल...जातियों में बांट दो परन्तु बात एकता की करो। उद्घाटन करते रहो परन्तु सबको उलझाए रखो और पाँचवे वर्ष में शेर समझाता है -जनता के दुःख दर्द को सुनो । झूठे आश्वासन दो, खजाना खोल दो। आप जीत गए तो फिर मज़े करो, यदि नहीं तो हम जीत जायेंगे। हम तुमको और तुम्हारे परिवार को तनिक कष्ट नहीं देंगे। पक्का वादा। </p><p>राजनैतिक दाँव-पेंचों को समझकर चीता पूर्णतः आश्वस्त हो जाता है। </p><p>राजनीति में अगर कोई सदस्य नया आता है तो उसको उसके वरिष्ठ कुछ इसी तरह से राजनीति दाँव-पेच सिखाते हैं और समय-समय पर उसके साथ होने का दिखावा करते हुए अपनी ही तरह छल-कपट वाली राजनीति सिखाते और करवाते हैं। यह लघुकथा इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखकर लिखी गयी है जो अच्छी बन पड़ी है। </p><p><b>2.हरियाणा में साहित्य एवं रक्तदान के क्षेत्र में मधुकांत जी </b>अपनी अलग पहचान रखते हैं। रक्तदान को लेकर आप हमेंशा कहते है कि इससे बड़ा दान दुनिया में कोई नहीं । आप समय-समय पर न सिर्फ रक्त का दान करते हैं अपितु दूसरों को भी इसके लिये प्रेरित करते है और ऐसा ही प्रयास आपने लघुकथा लेखन के माध्यम से भी किया है। रक्तदान सम्बंधित आपके दो एकल सँग्रह एड्स का भूत (सन्-2015 ई.)में धर्मदीप प्रकाशन, दिल्ली एवं दूसरा एकल सँग्रह 'रक्तमंजरी' (सन्-2019) में पारूल प्रकाशन , न. दिल्ली से प्रकाशित हुआ। 'लाल चुटकी' नामक आपका लघुकथा संकलन (सन्-2018) में इंटकचुवल फाउन्डेशन , रोहतक से प्रकाशित हुआ। अब प्रस्तुत लघुकथा सँग्रह ' तूणीर' में प्रकाशित आपकी रक्तदान पर आधारित लघुकथाओं की चर्चा करें तो विषय पर आपकी लघुकथाओं में 'फरिश्ता'- इस लघुकथा में रक्त के दान हेतु एक रक्तदाता एक रोगी कि जिसको वह अपना रक्त दान में देता है और उसकी जान बचाता है को प्रेरित करता दिखाई पड़ता है। 'लम्बी मुस्कान'- इस लघुकथा में एक युवा रक्तदान को लेकर उसकी माँ के भीतर के भय को निकालने में सफल हो जाता है और उनको रक्तदान के महत्त्व को भी समझा देता है जिससे उसकी माँ कह उठती है, "सचमुच बेटा, आज तूने बहुत बड़ा काम किया है। आज मैं समझ गयी मेरा बेटा बचपन को छोड़कर जवान हो गया है।" ...और माँ प्यार से अपने बेटे की पीठ थपथपाने लगती है। 'लाल कविता' :- इस लघुकथा में पूरे सप्ताह प्रकाशनार्थ आयी कविताओं को पढ़कर वह कोने में रखता जाता है और एक-एक कर कुड़ेदानी में फैंक देता है। फिर कुछ दिन उस कवि की कोई कविता न आने पर वह बेचैन हो जाता है और कुछ दिनों में उस कवि को भूल जाता है, परंतु फिर एक दिन रक्तदान दिवस पर उसी कवि की इसी विषय पर एक सुंदर सी कविता उसके पास आती है जिसके लिफाफे के ऊपर लाल स्याही से लिखा होता है- रक्तदान दिवस पर विशेष और कविता के शीर्षक के स्थान पर गुलाब का सुंदर चित्र बना होता है। वह इस कविता को पढ़ता ही है तभी अचानक फोन की घण्टी बजती है और कविता छूट जाती है। सामने वाला उसको यह सूचना देता है, "भाई कमलकांत, अभी-अभी मनोज का एक्सीडेंट हो गया । वह मैडिकल में है। खून बहुत निकल गया। डॉक्टर ने कहा है तुरंत खून चाहिए, तुम कुछ करो...' अपने किसी परिचित या घर वाले को अगर रक्त की आवश्यकता पड़ जाती है तब इस दान का असली अर्थ का पता चलता है और आँखे खुल जाती हैं। ऐसा ही कुछ कथानायक के साथ होता है। और वह कुछ करने का आश्वासन देकर फोन को रख देता है। तब उसको एहसास होता है कि इस कवि का सम्बन्ध अवश्य ही कुछ रक्तदाताओं से होगा...कविता भी बहुमूल्य लगने लगती है और वह अपने भांजे को रक्त दिलवाने के लिये कविता उठाकर कवि का फोन नम्बर तलाशने लगता है। यह एक साधारण कथ्य है परंतु यह अपने उद्देश्य को सम्प्रेषित करती है और रक्तदान महादान है का संदेश देती है। इसके अतिरिक्त इसी विषय आपकी पुरस्कार', 'रक्तदानी बेटा', 'मच्छर का अंत', 'अपना खून', 'अपना दान', 'वैलेनटाइन डे', 'जानी अनजानी', 'रक्त दलाल', 'चिट्ठी' इत्यादि शामिल हैं जो किसी न किसी तरह से रक्तदान को बढ़ावा देती है। </p><p><b>3.वस्तुतः इक्कीसवीं सदी महिला सदी है। </b>वर्ष 2001 महिला सशक्तिकरण वर्ष के रूप में मनाया गया। </p><p>इसमें महिलाओं की क्षमताओं और कौशल का विकास करके उन्हें अधिक सशक्त बनाने तथा समग्र समाज को महिलाओं की स्थिति और भूमिका के संबंध में जागरूक बनाने के प्रयास किये गए। महिला सशक्तिकरण हेतु वर्ष 2001 में </p><p>प्रथम बार प्रथम बार ''राष्ट्रीय महिला उत्थान नीति''बनाई गई जिससे देश में महिलाओं के लिये विभिन्न क्षेत्रों में उत्थानऔर समुचित विकास की आधारभूत विशेषताए निर्धारित किया जाना संभव हो सके। इसमें आर्थिक सामाजिक,सांस्कृतिक सभी क्षेत्रों में पुरूषों के साथ समान आधार पर महिलाओं द्वारा समस्त मानवाधिकारों तथा मौलिक स्वतंत्रताओं का सैद्धान्तिक तथा </p><p>वस्तुतः उपभोग पर तथा इन क्षेत्रों में </p><p>महिलाओं की भागीदारी व निर्णय स्तर तक </p><p>समान पहुँच पर बल दिया गया है।</p><p>आज देखने में आया है कि महिलाओं ने </p><p>स्वयं के अनुभव के आधार पर, अपनी मेहनत और आत्मविश्वास के आधार पर अपने लिए नई मंजिलें ,नये रास्तों का निर्माण किया है। और अपने को पहले से कहीं ज्यादा सशक्त और दृढ़ बना लिया है। कहते हैं न की साहित्य समाज का आईना होती है और साहित्यकार समाज और साहित्य को अपने कलम से सजाता है और अपने पाठकों तक अपनी बात को पहुँचाता है। इस कार्य मे मधुकांत जी भी पीछे नहीं हैं और आपने इस लघुकथा सँग्रह में कुछेक लघुकथाएँ लिखीं हैं जो .21 वीं सदी की महिलाओं को चित्रांकित करती हैं इस श्रेणी में 'अपना अपना घर':- इस लघुकथा की मुख्य नायिका सरिता राजन नामक व्यक्ति से प्यार करती है और दोनों विवाह सूत्र में बंध जाने के इच्छुक हैं । परंतु विवाह के पूर्व सरिता राजन से कहती है कि चूँकि वह माँ की इकलौती सन्तान है और पापा भी इस दुनिया में नहीं हैं, इसलिये शादी के बाद आपको मेरे साथ मेरी माँ के घर मे रहना होगा।" इस पर राजन की असहमति हो जाती है और दोनों के बीच गम्भीर चर्चा होती है और राजन उसको अपने समाज की पुरखों से चली आ रही परंपरा जिसमें एक लडक़ी को शादी के बाद अपने ससुराल में रहने की बात करता है परंतु सरिता इस बात को नहीं मानती है और वह कहती है, "राजन, जब आप मेरे लिए अपने परिवार को नहीं छोड़ सकते तो मैं आपके लिए अपनी माँ को कैसे अकेली छोड़ दूँ? फिर समझ लो हमारी शादी नहीं हो सकती..." और गुड बॉय कहकर वह वहाँ से उठकर चली जाती है और राजन उसके कठोर निर्णय के सामने उसको रोकने की हिम्मत नहीं जुटा पाता।</p><p>यहाँ लेखक ने सरिता के चरित्र से एक शसक्त महिला का चरित्रचित्रण किया है जो प्रशंसनीय है। </p><p>'प्रथम':- इस लघुकथा की नायिका अलका भी सरिता की तरह शसक्त है और शादी के पहले प्रथम परिचय के समय, निर्णायक बातचीत करने से पूर्व लड़का-लड़की के मध्य एकांत में चल रही बातचीत को रेखांकित करती है। लड़का उसको पूछता है, "एक बात सच-सच बताइए, आपका किसी लड़के से लव-अफेयर है....?" अलका इस प्रश्न से चौंक जाती है और इसके प्रत्युत्तर में वह यही प्रश्न लड़के से पूछती है । लड़के का पुरुष अहम जाग जाता है और वह कहता है, "अपने होने वाले पति से ऐसा सवाल पूछने का आपका कोई अधिकार नहीं..."अलका के क्यों पूछने पर वह कहता है, "क्योंकि तुम्हें पसन्द करने मैं आया हूँ।" इसपर अलका कहती है, "देखिए जनाब, पसन्द और नापसंद पर मेरा भी बराबर अधिकार है। आप मेरे सवाल का जवाब नहीं देना चाहते तो मैं भी आपसे कोई सम्बंध नहीं जोड़ सकती।" और अलका वहाँ से उठ जाती है। इन दोनों लघुकथाओं में सँवाद सहज और स्वाभाविक तरह से कथानक को आगे बढ़ाते है और उसकी रोचकता को बरकरार रखते हुए निर्णायक यानी कि चरम तक पहुँचाते हैं। 'नई सदी' एवं 'अनसुना', लघुकथाओं में बेबाक, उद्दण्ड और दबंग लड़कियों को केंद्रित करके लिखी गयी लघुकथाएँ हैं जिसमें वे लोग लड़को को इस कदर छेड़ती हैं जिसके चलते वह उनसे आतंकित हो जाते हैं और लड़का वहाँ से अपना सर झुकाए चला जाता है परंतु वे उपहास करते हुए नहीं रुकती ।</p><p>'सगाई':- इस लघुकथा मे लड़के को देखने लड़की और उसके घरवाले आते हैं और वे लड़के से वो सब पूछते हैं जो आमतौर पर लड़के वाले सगाई से पहले लड़की से पूछते हैं। लड़की नौकरी पेशा है और उसकी पहले भी शादी हो चुकी होती है और वह अपने पति को इसलिये छोड़ देती आ</p><p>है और डाइवोर्स ले लेती है क्योंकि उसको लगता है कि वह दकियानूसी है । वह महिला अपने पिता से कहती है कि वह इस पुरुष को एक हफ्ते के ट्रायल पर रखेगी और उसके बाद ही शादी करने का निर्णय लेगी । इसके कथानक के सच में होने की सम्भवना समाज मे कितनी है यह एक शोध का विषय है । 'अर्थबल':- इस लघुकथा में पति-पत्नी दोनों ही नौकरी पेशा हैं परंतु पत्नी अपने कैरियर और नौकरी को लेकर इतनी सजग है कि वह अपने पति से कह देती है कि बच्चे के लिये वह अपनी नौकरी नहीं छोड़ सकेगी परंतु पति को अगर उनके बच्चे की चिंता हो तो वह नौकरी छोड़कर घर में रहकर अपने बेटे की देखभाल कर सकता है। अर्थबल शीर्षक कथानक के अनुरूप सटीक है। </p><p>'आरक्षण'-, महिलाओं के आरक्षण के चलते देश के अधिकांश मुख्य पदों पर महिलाओं की नियुक्ति होने पर पुरुष वर्ग की चिंता और उनके बीच बढ़ रही बेरोजगारी पर केंद्रित यह लघुकथा अच्छी बन पड़ी है जो किसी भी आरक्षण के दुष्परिणाम को रेखांकित कर रही है । आरक्षण जैसे गम्भीर विषय पर समाज को और भी सजग और चिंतन मनन करने की आवश्यकता है । इसी उद्देश्य को परिलक्षित कर रही है यह लघुकथा। 'आभूषणों में क़ैद'- वर्तमान में नारी अपने को आभूषणों में लदी हुई नहीं देखना चाहती अपितु वह शक्तिशाली बनकर अपने पाँवों पर खड़ा होना चाहती हैं। यही बात इस लघुकथा में कही गयी है। </p><p>प्रस्तुत सँग्रह में प्रकाशित में लेखक ने .मोनोविज्ञान पर आधारित लघुकथाओं की चर्चा करते हुए सर्वप्रथम इस श्रेणी की 'मन का आतंक' लघुकथा का अवलोकन करते हैं। यह एक प्रयोगात्मक लघुकथा है जो एकालाप शैली में लिखी गई। इस लघुकथा में एक ही पात्र है जो बोल रहा है और एक पात्र अपरोक्ष रूप से अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहा है। इस लघुकथा का इकलौता पात्र एक पत्नी है जो अपनी मन की पीड़ा और डर के परतों को खोल रही है। इसमें एक पत्नी के मनोविज्ञान को बहुत ही करीने से दर्शाया गया है। इस लघुकथा को देखें- अचानक उसकी नज़र द्वार पर चली गयी। </p><p>"आप इस समय?क्या ऑफिस जल्दी छूट गया? आप कुछ बोलते क्यों नहीं? नाराज़ हो क्या...?"</p><p>....वह कॉलेज में मेरे साथ पढ़ता था....नहीं नहीं, ऐसा कुछ नहीं हुआ....सच तुम्हारी कसम....अचानक सड़क पर मिल गया....औपचारिकतावश चाय के लिए टोक दिया था....हाँ.... हाँ.... कॉलेज की कुछ बातें हुईं थीं.... बस और कुछ नहीं, बिल्कुल भी नहीं....फिर कभी मिला तो कन्नी काट जाऊँगी, ....बोलो अब तो खुश हो न आप...."</p><p>पत्नी का कॉलेज के समय का कोई दोस्त जिसको वह इतने वर्षों बाद मिली परंतु यह बात अब तक उसने अपने पति से छिपाई थी जो आज उसने कहा दिया। परंतु उसने देखा कि तेज हवा से द्वार का पर्दा हिल रहा था।</p><p>'अरे यहाँ तो कोई नहीं आया...फिर मैं किससे बातें कर रही थी?' उसने अपने माथे को छुआ तो चौंक गयी, सचमुच माथा पसीने से गीला था। </p><p>एक पत्नी की आत्मग्लानि जो माथे से पसीना बन बह रही थी । यह इस सँग्रह की उत्कृष्ट लघुकथा है। इसके इसी प्रस्तुतिकरण के कारण यह पाठकों के हृदय को छू लेगी ऐसा मेरा पूर्ण विश्वास है।</p><p> 'तपन':- 'एक व्यक्ति जो नियमित समाचार सुनता तो है परंतु वह सिर्फ सुनता ही है और दूसरे रूप में देखें तो जब कुदरत अपना कहर बरसाती है तब वह प्रलय जैसी स्थिति उत्पन्न कर देती है और इंसान सुनते हुए भी समझते हुए भी कुछ नही कर पाता। ऐसा ही कुछ इस लघुकथा के नायक के साथ होता है जो प्रथम दिन समाचार में सुनता है कि पड़ोसी देश मे भयंकर तूफान आया और सैंकड़ों लोग मारे गए तथा हज़ारों बेघर हो गए। </p><p>जब दूसरे देश की बात थी तब उसने इस समाचार को आसपास बाँटने का कार्य किया एक तमाशबीन की तरह। दूसरे दिन उसने सुना कि तूफान उसके देश की सीमाओं में प्रवेश कर लिया है, तीसरे दिन तूफान उसके राज्य में मंडराने लगा, तब वह चिंता में डूब गया उसी रात तूफान का शोर उसे गाँव की सीमा पर सुनाई पड़ने लगा और वह आपने छप्पर को मजबूत करने लगा पर बहुत देर हो चुकी थी, सुबह-सुबह तूफान बहुत तेज हुआ और उसके घर के छप्पर को उखाड़ कर ले गया। प्रतीकात्मक शैली में लिखी इस लघुकथा में छिपा संदेश कि हर व्यक्ति को दूर की सोच कर ही अपने जीवन में कार्य करना चाहिये क्योंकि मुसीबत कभी कहकर नहीं आती। यह एक अच्छी लघुकथा है और इसका शीर्षक तपन में प्रतिकात्मक है जो कथानक के अनुरूप है कि और अपने में जीवन की तपन को दर्शा रहा है।</p><p>'महात्मा का सच' :- धर्म का प्रचार एवं मनुष्य को नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाले बाबाओं का अपना योगदान है । यह भी अपने आप में एक व्यवसाय-सा बन गया है और इन लोगों के आडम्बर के चर्चे आम बात है। ऐसे में अगर कोई महात्मा इस लघुकथा के नायक की तरह यह शपत ले ले कि आज जो कहूँगा सच कहूँगा और सच के अलावा कुछ नहीं कहूँगा तब उनके अनुयायीओं की प्रतिक्रिया शायद ऐसी ही हो जैसा कि लेखक ने इस लघुकथा में वर्णन की है। कथानायक पहले तो अपने भक्तों के सामने बाबा क्यों बना इसके पीछे यह कारण बताते हैं कि प्यार में धोखा मिला और बाद में यह भी बताते हैं कि नेताओं के काले धन को सफेद करवाने का माध्यम हैं। उनके भक्तों को पहले तो आश्चर्य हुआ परंतु फिर उनकी समझ में आ गया कि उनके स्वामी सत्यवादी, विनम्र एवं निर्दोष हैं। इसके बाद इनके यहाँ भीड़ बढ़ने लगी। कुल मिलाकर यह बहुत ही साधारण सी लघुकथा है । </p><p>'उबाल' :- घरेलू हिंसा पर आधारित इस लघुकथा में नायिका पत्नी अपने पति की कमीज पर क्रोध निकालकर उसको ज़ोर से पीटना शुरू कर देती है जिस कारण वो वहाँ से फट जाती है पर उसको तनिक भी पश्चाताप नही होता। पुरुष-प्रधान समाज में पत्नी के हालातों को दर्शाती एक साधारण-सी लघुकथा है। दूर के ढोल'- इस लघुकथा के माध्यम से लेखक ने यह समझाने का प्रयास किया है कि आजकल भक्त प्रह्लाद जैसा पुत्र कोई नहीं बनता । </p><p>'अवस्था के बिम्ब':- यह भी एक प्रयोगात्मक लघुकथा है जिसमें तीन दृश्य दिखाए गए हैं। लगभग 18 वर्ष का जोड़ा, पार्क के कोने वाले बैंच पर एक दूसरे को आँखों में आँखें डाले, एक दूसरे से सटकर मौन बैठा था। </p><p>उसी पार्क में लगभग 35 वर्ष का युगल पार्क की छतरी के नीचे, साथ-साथ बैठा, बतिया रहा था। </p><p>पार्क की दीवार की ओट में 75 वर्ष का, एक दूसरे पर आश्रित जोड़ा आमने सामने बैठा धूप सेक रहा था। </p><p>इस लघुकथा के अंतिम वाक्य में इसका सार है पार्क के बीच में खड़ा आश्चर्यचकित बालक तीनों जोड़ों को देखकर घबरा रहा है। </p><p>बच्चे को समझ नहीं आता कि आगे जाकर उसको क्या और कैसे रहना है क्योंकि सब अपने-अपने हिसाब से रहते हैं बिना यह सोचे कि बच्चों के भविष्य का क्या होगा? </p><p> 'विस्तार':- इस लघुकथा में बेटा-बहू के कहने पर अपनी माँ को अनाथाश्रम छोड़ आता है परंतु जब घर के काम-काज करने में वह थकने लगती है तो वह अपने पति को पुनः उनको घर लिवाने के लिए भेज देती है । वह माफ़ी माँगते हुए जब उनको घर आने को कहता है तब एक स्वाभिमानी माँ यह कहती है, "माफी किस बात की? तुमने तो यहाँ भेजकर मुझपर उपकार ही किया है। वहाँ तो मैं केवल तुम्हारी माँ थी, परन्तु यहाँ तो तीस बच्चों की माँ हूँ। आश्रम के स्वामी जी तथा सभी सेवक मुझे भरपूर सम्मान देते हैं। अब तो यह आश्रम ही मुझको अपना घर लगने लगा है।" </p><p>इसका अंतिम वाक्य बेहद सुंदर बन पड़ा है- सारे पासे असफल होते देख बेटा उदास हो गया। परंतु कमरे की खिड़कियों से झाँकती नन्हीं-नन्हीं आँखों में चमक भर गयी। माँ को बच्चों का प्यार और तीस बच्चों को माँ का प्यार मिल जाता है। इस लघुकथा का अंत जिस तरह हुआ है उस कारण यह लघुकथा सुंदर बन पड़ी है। </p><p>'डरे-डरे संरक्षक':- इस लघुकथा के माध्यम से लेखक ने वर्तमान में बच्चों की बदलती मानसिकता को लेकर चिंता व्यक्त की है। कानून ने बच्चों को स्कूल में मारने-पीटने पर रोक लगाई है और अगर वह उनके अभिभावकों को उनकी शिकायत करते हैं तब वे यह कहते हुए मिलते हैं कि अगर उन्होंने उसको डाँटा या मारा और इकलौता बेटा घर से भाग जाएगा...। ये कैसा डर है जो लगभग हर संरक्षक के हृदय में घर कर गया है । यह एक गम्भीर विषय है जिसपर समाज को भी गम्भीरता से सोचना समझना होगा और बच्चों के मानसिकता को समझते हुए उनको सही दिशा दिखाना होगी। </p><p>'पहली लड़ाई' :- एक डरपोक व्यक्ति जब पहली बार पतंग उड़ाता है तब उसकी पतंग कट जाती है परंतु उसको यह सन्तोष हो जाता है कि उसने अपनी पहली लड़ाई इस पतंग के माध्यम से लड़ी और वह दूसरी पतंग को उड़ाने के लिये चला जाता है। इस लघुकथा के माध्यम से लेखक ने यह समझाने का प्रयास किया है कि व्यक्ति का डर और उस डर से लड़ने की क्षमता दोनों ही उसके भीतर होती है। बस उसको उन चीजों को समझना होता है और अपने डर पर प्रयास करके विजय हासिल करना होता है। 'पत्रों का संघर्ष':- इस लघुकथा में पत्रों के माध्यम से लेखक ने पत्रिका के प्रकाशक को जहाँ उसको प्रकाश में लाने हेतु पैसों की आवश्यकता पड़ती है और इसके लिये वह अपने मित्र को लिखने में भी नहीं हिचकता कि क्योंकि उसके पास राशि नहीं है सो हो सकता है वह इस पत्रिका को न ला सके ऐसे में अगर वह मित्र उसको अपनी परेशानी बताते हुए कुछ राशि को उसके बैंक के खाते में डाल दी है कि सूचना देता है तब प्रकाशक का आश्चर्यचकित होना और उसको उसके पत्रों की इबारत अक्षरतः दिखाई देने लगती है जो बहुत ही स्वाभाविक है। ऐसा ही दृश्य इस लघुकथा में चित्रांकित किया गया है। इसके अतिरिक्त 'डी. एन. ए.:- सँवाद शैली में लिखी गयी इस लघुकथा में एक मंत्री के किसी महिला से अनैतिक सम्बन्ध और फलस्वरूप जब वह महिला वर्षों बाद उसको सम्पर्क करती है और यह बताती है कि उसका बेटा जवान हो गया है और पिता का नाम चाहता है। ऐसे में मंत्री जब उसको हड़का देता है तब वह महिला कहती है कि वह बच्चे का का डी. एन.ए टेस्ट करवा सकती है। तब वह मंत्री डर जाता है और उसके घर पहुँचने की बात करता है। उस मंत्री को एहसास हो जाता है कि जवानी में की गई गलती को दबाना कितना कठिन होता है। यहाँ इसी भाव को लिखकर लेखक ने इस लघुकथा का अंत किया है। </p><p><br /></p><p><b>5. भ्रष्टाचार पर आधारित लघुकथाएँ </b>की बात करें प्रस्तुत सँग्रह में 'संस्कार' 'इज्जत के लिए', 'खोज', 'अंधा बांटे रेवड़ी', इत्यादि रचनाएँ शामिल हैं। संस्कार लघुकथा नौकरी में आरक्षण पर आधारित है जिसमें सुयोग व्यक्ति को कई बार उसके योग्य नौकरी नहीं मिल पाती और वह अपने से कम योग्य व्यक्ति के अंडर काम करने पर मजबूर हो जाता है। इज्जत के लिये :- चिकित्सा विभाग में डॉक्टर द्वारा भ्रष्टाचार किए जाने पर प्रकाश डाला गया है। मरीज और उसके घर वाले किस हद तक मजबूर हो जाते हैं कि गरीब व्यक्ति को अपने परिजन जो मृत्युशैया पर लेटा है जिसका बचना असंभव है उसको वह डॉक्टर को दिखाने के लिये कर्ज भी लेता है समाज के डर से कि कहीं समाज यह न कहे कि जानबूझकर उसने अपने माता या पिता का इलाज नहीं करवाया और ऐसे में अगर कोई झोलाछाप डॉक्टर जो मरीज को इंजेक्शन लगाता है परंतु वह देखता है कि सिरिंज में खून निकलकर भर रहा है। पर लोक-लाज के मारे वह उससे कहता तो कुछ नही पर उसको समझने में यह देर नहीं लगती कि यह डॉक्टर अनाड़ी है। ऐसे डॉक्टर कई जगह नज़र आ जाते हैं जो मरीजों के जीवन से खेल जाते हैं। यह एक गम्भीर समस्या है जिसका निदान होना अति आवश्यक है।</p><p>खोज:- पुलिस भ्रष्टाचार पर आधारित इस लघुकथा में आधी रात को डाकू किसी गाँव में लूटपाट कर दो हत्या कर देते हैं और गाँव से तीन-चार किलोमीटर दूर चले जाते हैं। तब बस्ती में भारी जूतों की आवाज़ ठपठपाने लगती है। वे लोग सवाल पूछ-पूछकर चले जाते हैं और दूसरे दिन शाम को डी. एस. पी. ग्रामीण लोगों को एकत्रित करके बताते हैं, "आपको यह जानकर खुशी होगी कि डाकुओं की बंदूक से निकले दो कारतूस हमने बरामद कर लिए हैं...अब जल्दी ही डाकुओं की पहचान कर ली जाएगी...</p><p>इसका अंतिम वाक्य आमजन के बीच पुलिस प्रशासन के प्रति निराशा दर्शा रही है कि किस कदर इन लोगों ने अपनी छवि बिगाड़ कर रखी है- एक सप्ताह बीत गया, धीरे-धीरे लोगों की आँखें धुँधलाने लगीं। 'अँधा बांटे रेवड़ी'- किसी भी तरह के पुरस्कार बांटने में भी किस तरह से राजनीति होती है और आयोजकों का प्रयास रहता है कि ऐसे में जब लिस्ट बनती है तो नेता यह चाहता है कि अपनी जाति और क्षेत्र का कोई व्यक्ति हो तो उसको लिस्ट में सर्वप्रथम होना चाहिए।</p><p><br /></p><p><b>6.अन्यान्य विषयों पर आधारित लघुकथाएँ</b>:- 'नाम की महिमा' जो कि सम्पदान व्यवसाय पर आधारित है जिसमें यह दर्शाया गया है कि इस व्यवसाय में एक नामी रचनाकार की रचना को स्थान मिल जाता है फिर चाहे उस रचना में कोई दम न हो परंतु जब यह पता चल जाता है कि वह रचना किसी साधारण लेखक ने लिखी है तब उस रचना को कचरे की टोकरी में फैंक दिया जाता है।, </p><p> 'आजादी' :- इस लघुकथा में लेखक ने यह सन्देश देने का सद्प्रयास किया है कि अमीर होना सुख को पाना नहीं और न ही उसकी खर्च करने की क्षमताओं को देखकर उसकी आजादी का अनुमान लगाया जा सकता है क्योंकि वह अपने नौकरों के आधीन हो जाता है वहीं एक गरीब व्यक्ति जो खुले आसमान के नीचे सोता है परंतु वह जहाँ चाहे जब चाहे आना-जाना कर सकता है और वह स्वतंत्रता से अपने निर्णय ले सकता है। यही सच्ची आज़ादी होती है। यह लघुकथा थोड़ी उपदेशात्मक हो गयी है। , 'प्रशिक्षण':- वर्तमान शिक्षा नीति और उसके बाद उत्पन्न होती बेरोजगारी की समस्या को लेकर व्यंग्य है कि इससे बेहतर है कि राजनीति के मैदान में उतार देना आसान होता है । 'सभ्रान्त नागरिक' :- सड़क दुर्घटना पर आधारित इस लघुकथा में देश के एक जागरूक नागरिक का चित्रण है जो दुर्घटना के होते ही पुलिस स्टेशन में इसकी सूचना देता है और अस्पताल भी ले जाता है। पुलिस जहाँ रिपोर्ट लिखवाने की खाना-पूर्ति करती दिखाई पड़ती है और उस भले इंसान को बे वजह परेशान करती है। ऐसे में अस्पताल से अगर डॉक्टर यह कह देता है कि क्योंकि पेशंट को समय पर अस्पताल में भर्ती करवाया गया उसकी जान बच गयी है। तब एक सम्भ्रान्त नागरिक की परेशानियों का मीठा फल मिल जाता है और उसकी चिंता मिट जाती है। इस लघुकथा में किसी अस्पताल में बिना पुलिस की जानकारी या रिपोर्ट किये उसका इलाज शुरू कर देने वाली घटना पर विश्वास कर पाना मेरे लिये थोड़ा मुश्किल हो रहा है। </p><p>, 'बातूनी' :- यह लघुकथा विद्यार्थी जीवन पर आधारित है जिसमें एक बच्चा अपने दोस्तों के मध्य गपशप करके अपना समय बर्बाद करता है और उसकी माँ उसको पढ़ाई करने को कहती है। 'सुनो कहानी', बदलाव' (फंतासी):- ये दोनों लघुकथाएँ फंतासी शैली में लिखी गयी हैं। सुनो कहानी में एक सुंदर सी लड़की जिसका विवाह एक राजा के साथ होता है परंतु वह उसके महल में अपने सुख-दुःख को किसी से बांट नही पाती क्योंकि ऐसा ही आदेश राजा ने दिया था। और आखिर में वह मर जाती है। इस लघुकथा में मनुष्य सामाजिक प्राणी है जिसको अपने सुख-दुःख बांटने के लिए किसी व्यक्ति की आवश्यकता पड़ती है । फिर वह चाहे बड़े से महल में ही क्यों न रहता हो पर जब उसके भीतर अकेलापन घर कर लेता है और ऐसे में उसके पास किसी को न पाकर वह दम तोड़ देता है जो बहुत ही स्वाभाविक है।</p><p> 'अपनी-अपनी ज़मीन' :-भूख पर आधारित इस लघुकथा में लेखक का यह उद्देश्य परिलक्षित हुआ है कि भूख हर व्यक्ति को लगती है और यह जात-पात नहीं देखती ।अपने अपने रिश्ते' :अंतर जातीय विवाह पर आधारित है । </p><p>, 'सहारा':- इस लघुकथा में कामकाजी बहू के पक्ष में खड़ी एक सास दिखाई देती है जो अभी-अभी काम से घर लौटी है और उसका पति चाय की फरमाइश कर देता है। ऐसे में सास अपने बेटे को टोक देती है और स्वयं चाय बनाने हेतु खड़ी हो जाती है। बेटी जब उसको टोकती है तब वह कह देती है कि बहू से जब नौकरी करवाना है तो घर में उसका हाथ बंटवाने की ज़िम्मेदारी घर के हर सदस्य की बन जाती है। परिवार में प्रेम-भाव बढ़ाने के उद्देश्य से लिखी गई यह एक सुंदर लघुकथा है। 'मेरा वृक्ष' :- यह लघुकथा पर्यावरण संरक्षण के महत्त्व को बढ़ाती लघुकथा है। जिसमें एक भाई के पब्लिक पार्क के चित्र को बनाता है। जिसको रंगों से सजाता है और एक कोने में वट वृक्ष को खड़ा कर देता है। उसका छोटा भाई जलन के मारे अपनी कलम निकाल लेता है और वृक्ष पर काटा लगा देता है। दोनों भाइयों में बहस हो जाती है, और शिकायत माँ तक पहुँच जाती है। वह कुछ कह पाए उसके पहले ही बड़ा भाई कहता है, "अम्मा, इस पागल को इतना भी ज्ञान नहीं कि पेड़ो की शीतल छाया और ऑक्सिजन हमको मिलती है, सरकार को नहीं, इसलिए ये वृक्ष हमारे हैं..."</p><p>और छोटे भाई को अपनी गलती का एहसास हो जाता है और अपनी गलती मान लेता है और बड़े भाई का क्रोध शांत हो जाता है। बाल-सुलभ आधारित यह एक सुंदर लघुकथा हुई है।</p><p>, 'फिर एक बार':- शरणार्थी का दर्द को उकेरती यह एक अच्छी लघुकथा है। एक व्यक्ति जो पाकिस्तान से अपना देश समझकर अपने देश आ जाता है, उसको एक बार तब लूटा गया जब दस वर्षों तक उसको लोग पाकिस्तानी ....शरणार्थी कहते रहे, अगले बीस वर्ष पंजाबी कहकर दंश देते रहे , अब लोगों को इनके शरीर से हरियाणवी मिट्टी की गंध आने लगती है... फिर एक बार सारी गंध सूख जाती है... वह जूतों को बेचने वाला एक व्यापारी होता है जिसकी दूकान को लूट लिया जाता है। वह चिंतित हो जाता है कि वह कैसे चुकाएगा थोक व्यपारी की उधार और कहाँ से भरेगा बैंक की किश्त! यह एक मार्मिक लघुकथा है जो सहज ही हृदय को छू जाती है।, 'सपना' :- इस लघुकथा में एक पत्रकार को राम राज्य का सपना आता है और वह एक लेख लिखता है परंतु लोग उसका कहीं उपहास न उड़ाएँ इस डर से वह अपने लेख को एक फ़ाइल में रख देता है और धीरे-धीरे वह उसमें दबता चला जाता है और पत्रकार लेख को प्रकाशित करवाने हेतु उपयुक्त समय की प्रतीक्षा करता है। साहित्य की स्थिति को दिखाती यह एक गम्भीर रचना है ।</p><p> 'अतिथि देवो भव' मातृ दक्षिणा :- इस लघुकथा में विदेशियों की मदद करता हुआ एक किसान दिखाई देता है जो उनकी गाड़ी के पंक्चर हुए पहिये को निकालकर डिग्गी से दूसरा पहिया निकालकर लगा देता है और उनके द्वारा बख्शीश की राशि को न लेकर भारतीय संस्कृति का परिचय देता है। 'ऊँचा तिरंगा':- यह बाल मनोविज्ञान पर आधारित एक सुंदर लघुकथा है। स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर एक मोहल्ले के बच्चों में बहस छिड़ जाती है कि कल देखते हैं सबसे ऊँचा झण्डा कौन फहराएगा। सब बच्चें अपनी अपनी बात रखते हैं ऐसे में एक बच्चा जिसका घर बहुत नीचा होता है और जो पाइप भी नहीं ला सकता वह चिंतित हो जाता है और रात एक बजे उसको एक ख्याल सूझता है और वह चुपचाप अपने मकान की छत पर आ जाता है। मुंटी में से अपनी चरखड़ी और तिरंगे वाली पतंग निकाल लेता है और आकाश में पतंग उड़ाने लगता है। स्वतंत्रता दिवस की शीतल हवा उसके मन को मस्त और पुलकित कर देती है। पतंग को आकाश में चढ़ाकर वह आसपास के सभी मकानों की और देखता है औए कह उठता है, "हाँ मेरी पतंग सबसे ऊँची है।" यह सोचकर वह सुबह होने की प्रतीक्षा करने लगता है। जहाँ चाह वहाँ राह के मुहावरे को परिभाषित करती यह अपने सोए आत्मविश्वास को जगाने वाली एक सार्थक लघुकथा है।</p><p> , 'कन्या पूजन' :- एक दाई जो कन्याओं को गर्भ में मरवाती देती थी को कान्याओं की महत्ता तब समझ में आती है जब दुर्गाष्टमी के पूजन करने के बाद सात कान्याओं को एकत्रित करने के लिये मोहल्ले में निकलती है परंतु उसको सिर्फ पाँच ही कन्याएँ मिल पाती हैं। दो थाली बच जाने से वह उन दोनों थालियों को लेकर मन्दिर चली जाती है। जब वहाँ दूसरी महिलाओं के साथ चर्चा चलती है तब वह कहती है कि वह दाई इसलिये बनी थी क्योंकि यह उसकी सास की इच्छा थी पर जब पूजन की बात आई तो यह उसके संस्कारो की बात थी जिसमें वह हार गई सो शपत खाती है कि आगे से वह कान्याओं की हत्या किसी के भी गर्भ में न करेगी न करवाएगी। यहाँ पूजन के बाद लड़कियों का न मिल पाने की स्थिति एकदम से आ जाये यह बात थोड़ी खटक रही है। </p><p> 'बोहनी' :- गरीब व्यक्ति के लिये अपने सामान की बिक्री से हो रही बोहनी कितनी महत्त्वपूर्ण होती है यह बात अनुभवी आँखों की आवश्यकता होती है जैसा इस लघुकथा के नायक ज्ञानरंज को होता है जब वह एक मैली- कुचैली लड़की रंग-बिरंगी बॉल बेच रही थी और उसकी बोहनी करवाने की मिन्नते कर रही थी। वह जब बॉल को देखता है तब चाइना मेड होने के कारण एक बार तो खरीदने के लिये इनकार कर देता है पर जब वह उस बच्ची के मुरझाए चेहरे की पीड़ा को देखता है तो एक गेंद खरीदकर उसकी बोहनी करवा देता है। बच्ची के चेहरे पर मुस्कान आ जाती है। यह व्यक्ति के कोमल भावना को दर्शाती हुई प्यारी सी लघुकथा है। भविष्य की चिंता' :- साहनुभूति पाकर अपने लिए खाना माँगने के लिये ज़ोर-ज़ोर से रोने वाले भिखारी को एक दिन अचानक से भविष्य की चिंता सताने लगती है कि अगर किसी दिन किसी को पता चल गया और खाना देना बंद कर दिया तो...और वह बावला भिखारी और तेज रोने लग जाता है। विद्यासागर अभी ज़िंदा है- इस लघुकथा के माध्यम से लेखक ने यह कहने का सद्प्रयास किया है कि व्यक्ति तो मर जाता है परंतु उसके द्वारा किया गया काम उसकी मृत्यु के बाद भी याद किया जाता है और उस व्यक्ति को अपने कार्यों के लिये जाना-पहचाना और जीवंत रखता है। </p><p>इन लघुकथाओं के विषयों में नयापन नहीं है परंतु भाषा सहज और स्वाभाविक है। आपके इस संग्रह के शीर्षक 'तूणीर' की बात करें तो इसका सामान्य अर्थ तरकश यानी कि तीर रखने वाला पात्र जो सामान्यतः काँधे पर लटकाया जाता है। आपकी लघुकथाओं को पढ़कर यह कहना गलत न होगा कि आपकी लेखनी से निकली कुछ बेहतरीन लघुकथाएँ तीर की तरह पाठकों के ह्रदय को चीरकर उसमें वास करेंगी । मुख्य पृष्ठ आकर्षक लगा। </p><p>कुल मिलाकर मैं यह कहने में अपने को बहुत ही सहज पा रही हूँ कि प्रस्तुत सँग्रह पठनीय है और पाठकों को इसकी लघुकथाएँ पसन्द आएँगी। मधुकांत जी के 'तूणीर' नामक इस एकल लघुकथा सँग्रह को पढ़ते हुए जितना मैं समझ पायी हूँ उस अनुसार अपने विचारों को रखने का विनम्र प्रयास किया है । अब इसमें मैं कितना सफ़ल हो पाई हूँ इसका निर्णय मैं आप सभी सुधिपाठकों पर छोड़ती हूँ।</p><p><br /></p><p><b>- कल्पना भट्ट</b></p><p><br /></p>Chandreshhttp://www.blogger.com/profile/02561154935591615367noreply@blogger.com1