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गुरुवार, 15 दिसंबर 2022

साक्षात्कार: कमलेश भारतीय (वरिष्ठ लघुकथाकार) | साक्षात्कारकर्ता: डॉ. लता अग्रवाल

सीसीटीवी कैमरे की तरह जीवन की हर सूक्ष्म बात को पकड़ लेती है : लघुकथा 

खेमे शेमे में साहित्य नहीं पनपता - कमलेश भारतीय

वरिष्ठ लघुकथाकार श्री कमलेश भारतीय से डॉ. लता अग्रवाल की बातचीत


महज सत्रह वर्ष की आयु में कलम थाम, शिक्षक से , प्राध्यापक एवं प्राचार्य के पदों पर अपनी सेवाएं देने के बाद दैनिक ट्रिब्यून चंडीगढ़ में मुख्य संवाददाता रहे, तत्पश्चात हरियाणा ग्रंथ अकादमी में उपाध्यक्ष के पद पर रहे स्वतंत्र पत्रकार के रूप में अपनी पहचान बनाने वाली बेहद जिंदादिल शख्सियत श्री कमलेश भारतीय जी साहित्य के क्षेत्र में भी बेहद लोकप्रिय नाम है । अब तक आपके दस कथा संग्रह हिंदी साहित्य की धरोहर बन चुके हैं । पंजाबी, उर्दू, अंग्रेजी, मराठी, डोगरी, बंगला आदि भाषाओँ में आपकी रचनाएँ अनुवादित हो चुकी हैं । आपकी कृति ’एक संवाददाता की डायरी’ को केन्द्रीय हिंदी निदेशालय नयी दिल्ली द्वारा पुरस्कृत किया गया । पूर्व प्रधानमन्त्री स्व. अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने निवास पर इस सम्मान से सम्मानित किया। इसके अलावा आप हरियाणा साहित्य अकादमी पंचकूला द्वारा भी सम्मानित हो चुके हैं ।

2017 में पंचकूला साहित्य अकादमी द्वारा आयोजित लघुकथा सम्मेलन में आपका सान्निध्य मिला तो जाना बेहद विनम्र और बुध्दिजीवी, अनुशासित व्यक्तित्व ...जिनसे प्रेरणा ली जानी चाहिए । आप लघुकथा के आरंभ के सहयात्री रहे हैं अत: लगा आपसे भी लघुकथा पर चर्चा की जानी चाहिए । बातचीत के कुछ अंश आपसे साझा करती हूँ ।


डॉ. लता अग्रवाल - जीवन और समाज में साहित्य की क्या भूमिका है आपसे जानना चाहेंगे ?

कमलेश भारतीय- जीवन और समाज साहित्य के बिना सूने । साहित्य मनुष्य को संवेदनशील बनाता है । जीवन को सरस बनाता है । जीवन को महकाता है । जिस समाज में साहित्य नहीं वह समाज निर्मम और क्रूर हो जाता है । साहित्य हृदय को परिवर्तित कर देता है । बाबा भारती की कहानी यही संदेश देती है । 


डॉ. लता अग्रवाल – जी हम सभी ने पढ़ी है यह कहानी । भारत कथा/कहानी का केंद्र रहा है, लघुकथा भी कथा विधा का ही अंग है। आप साहित्य में इसकी क्या भूमिका देखते हैं ?

कमलेश भारतीय- लघुकथा प्राचीन समय से है। पंचतंत्र व हितोपदेश जाने कितने इसके प्रमाण हैं। लघुकथा बहुत कम शब्दों में बहुत बड़ी बात कहने में सक्षम विधा है। लघुकथा ने इसीलिए इतनी लोकप्रियता पाई है। आज साहित्य की केंद्रीय विधा बन चुकी है जिसे कभी अखबार के फिलर के रूप में उपयोग किया जाता था। 


 डॉ. लता अग्रवाल -  सहमत हूँ, हमारे यहां साहित्य को कला नहीं विधा माना जाता है कला को आनन्द की वस्तु कहा गया है जबकि साहित्य के मूल में  स+ हित है। लघुकथा एक विधा के रूप में इस कसौटी पर कितनी खरी उतरती है।

कमलेश भारतीय- लघुकथा हर कसौटी पर खरी उतर रही है। ‘सहित’ तो सभी विधाओं की मूल शर्त है। इसके बिना लेखन किसलिए और किसके लिए ? लघुकथा आज सीसीटीवी कैमरे की तरह जीवन के हर सूक्ष्म बात को पकड़ लेती है। यही इसकी खूबी है। गुण है।


डॉ. लता अग्रवाल – जी ,आज पाठ्यक्रमों में लघुकथा को स्थान देने की मांग की जा रही है। आप शिक्षा में इसका कहां तक उपयोग देखते हैं ?

कमलेश भारतीय-  मांग कहां ? मेरी लघुकथाएं पंजाब स्कूल शिक्षा बोर्ड की पाठ्यपुस्तकों में शामिल रही हैं। मेरी तरह अन्य रचनाकारों की लघुकथाएं भी अलग अलग पाठ्यक्रमों में लगी होंगीं। 


डॉ. लता अग्रवाल – मतलब निकट भविष्य में मुख्य विषय के रूप में इसकी कल्पना कई जा सकती है। लघुकथा में पुनर्लेखन को आप किस रूप में देखते हैं, मेरा आशय प्राचीन लघुकथाओं से भी है और पौराणिक से भी।

कमलेश भारतीय-  लघुकथाओं का पुनर्लेखन यानी नये समाज व प्रसंग के साथ जोड़ कर लिखना। ऐसी लघुकथाएं बहुतायत में हैं। मैंने इस तरह का प्रयोग जनता और नेता में किया है। राजा विक्रमादित्य में किया है।


डॉ. लता अग्रवाल – हाँ, आज पुस्तकालयों में सन्नाटे झांक रहे हैं, मुफ्त में भी किताब भेंट करें तो उन्हें पढ़ने के संस्कार नहीं दिखते। क्या कारण है   .पढ़ने में रुचि कम हो रही है या इस भागदौड़ भरी जिंदगी में इंसान के भीतर की बेचैनी है जो उसे एकाग्र नहीं होने देती।

कमलेश भारतीय-  इसीलिए मैं अपनी किताबें स्वयं प्रकाशित कर एक एक पाठक तक पहुंचा रहा हूं। मैंने लिखा है यादों की धरोहर में कि होम डिलीवरी करने में भी संकोच नहीं। मेरी इस पुस्तक के दो संस्करण हाथों हाथ पाठकों तक पहुंच गये। दो माह में संस्करण खत्म। मेरी खुद से चुनौती थी कि दो संस्करण निकाल कर दिखाऊंगा।  पुस्तक कम मूल्य कम हो और पेपरबैक हो। तभी पाठक स्वीकार करता है। महंगे मूल्य क्यों ? 


डॉ. लता अग्रवाल – पुस्तकों का महंगा होना भी एक अहम् कारण है। आज लघुकथा में किन विषय वस्तु को उठाने की दरकार आप महसूस करते हैं जो समाज को संबोधित करने की ताकत रखती है और आवश्यक है।

कमलेश भारतीय-  विषय की कोई कमी नहीं। मोबाइल , इंटरनेट और सोशल मीडिया तक इसके विषयों में शुमार हो चुके हैं। लघुकथा में सबको समा लेने की क्षमता है।


डॉ. लता अग्रवाल – बिलकुल, इधर कुछ समय से लघुकथा में काव्यात्मकता की आवश्यकता महसूस की जा रही है , कहीं - कहीं इस पर काम भी हुआ है। आप इस संबंध में क्या कहना चाहेंगे।

कमलेश भारतीय-  काव्यात्मकता से आपका आश्य सरसता से है। मैंने प्रेम लघुकथाएं ऐसे ही प्रयोग के तौर पर लिखी हैं। सरसता और कथारस जरूरी है। 


डॉ. लता अग्रवाल – ठीक कहा, लघुकथा के अनेक मंच तैयार हो गए हैं ऐसा महसूस किया जा रहा है कि इन मंचों के दबाव में लघुकथा कहीं दब सी गई है। इसमें कितनी सच्चाई है ?

कमलेश भारतीय-  हां। कुछ अति हो रही है। ज्यादा मंच और कम काम। कोई भी मंच वर्ष की श्रेष्ठ लघुकथाओं का संकलन प्रकाशित नहीं करता। यह सुझाव है मेरा।


डॉ. लता अग्रवाल – पूर्णत: सहमत, लघुकथा में भाषा और शिल्प को लेकर जो नए- नए प्रयोग किए जा रहे हैं आप उसे लघुकथा के लिए कितना हितकर मानते हैं ?

कमलेश भारतीय-  बात को हटकर कहने का अंदाज ही नये प्रयोग की ओर ले जाता है। पर सायास नहीं होने चाहिएं।


डॉ. लता अग्रवाल – जी, आज जिस परिमाण में लघुकथाएं लिखी जा रही हैं ,इससे अच्छी लघुकथाओं को लेकर चिंतन उत्पन्न हो रहा है। अच्छी लघुकथा की परिभाषा आपसे जानना चाहेंगे ? 

कमलेश भारतीय-  अच्छी लघुकथा जिसे सायास नहीं अनायास सहज ही लिखा जाए। स्वाभाविक। यह आकाश में बिजली कौंधने के समान है। इसे अनावश्यक विस्तार नहीं दिया जाना चाहिए। जितने कम शब्दों व प्रतीकों में बात कही जाए तो सुखद व श्रेयस्कर।


डॉ. लता अग्रवाल -  कम शब्दों पर जानना चाहूंगी, लघुकथा को जो मैं समझ पाई हूँ कम से कम शब्दों में व्यक्त करने की कला है। मगर आज इसकी शब्द सीमा में निरंतर विकास हो रहा है। आप इस बढ़ती शब्द सीमा से कितनी सहमति रखते हैं ?

कमलेश भारतीय-  ज्यादा लम्बी नहीं होनी चाहिए। शब्द संख्या तय नहीं लेकिन यदि कुछ बढ़ती है तो इसे छोटी कहानी के रूप में लें। कुछ रचनाएं मेरी भी बड़ी हैं और इनके बाद काफी सतर्क होना पड़ा। अपने आलोचक बनना सीखें।


डॉ. लता अग्रवाल – मतलब कम शब्दों में गहरी बात कही जाय, इसी से जुड़ा अगला सवाल, आज बड़ी मात्रा में लघुकथाकारों का आगमन हो रहा है। क्या यह मान लिया जाए कि लघुकथा लिखना आसान है ?

कमलेश भारतीय-  नहीं। आसान नहीं। पर यदि सिर्फ रविवारी लघुकथा ही लिखना है तो कोई लाभ नहीं विधा को। ज्यादा बाढ़  नवम् दशक में आई और फिर उतार भी आया। सोच समझ कर लिखा जाए। गुलेरी का उदाहरण।कम लिखो। उसने कहा था ने उन्हें अमर कर दिया।


डॉ. लता अग्रवाल -  यह भी कहा जाता है कि विषय को शब्द सीमा में नहीं बांधा जा सकता, किन्तु मेरा सवाल फिर वहीं आता है। शब्दों की मितव्ययता ही तो इस विधा की मौलिक पहचान है !

कमलेश भारतीय- शब्द कम से कम और मारक व बेधक शक्ति ज्यादा। शब्दभेदी बाण जैसी।


डॉ. लता अग्रवाल – प्रेरक उदाहरण, जीवन की कठिनाई, मुसीबतों, जटिलताओं और अंतर विरोधों के बीच ही श्रेष्ठ लघुकथाओं का सृजन होता है ? आप इस विचार से कितनी सहमति रखते हैं ?

कमलेश भारतीय- यह तो सारे साहित्य का मूल है  संघर्ष , चुनौतियां जीवन की और सुख दुख सभी तो इसके अंगसंग हैं और लेखन का आधार। लेखन की नींव।


डॉ. लता अग्रवाल –बिलकुल, वर्तमान में लघुकथा प्राचीन नियमों की दीवार फांद कर अपने लिए नए दायरे स्थापित कर रही है इसे कहां तक स्वीकृति की संभावना आप देखते हैं ?

कमलेश भारतीय- नये समय के अनुसार परिवर्तन के लिए हमें तैयार रहना चाहिए और बदलाव सहर्ष स्वीकार करने चाहिएं।


डॉ. लता अग्रवाल – जी, 21वीं सदी के दूसरे दशक में लघुकथा की स्थिति और उपस्थिति के बारे में आपसे जानना चाहेंगे ?

कमलेश भारतीय-  नयी सदी में लघुकथा और अधिक लोकप्रिय होगी। सबके पास समय का अभाव। व्यस्तता के बीच लघुकथा को तुरंत पढ़ा जाता है। यह इसकी खूबी है। गुण है और लोककथाओं की तरह प्रचलित हो रही हैं।


डॉ. लता अग्रवाल – ठीक बात, लघुकथा में अनुभव और अनुभूति को आप किस तरह स्वीकार करते हैं?

कमलेश भारतीय- अनुभव को अनुभूति तक ले जाना और अभिव्यक्त करना ही लेखन की कला है। यदि हमने जो अनुभव किया है उसे लिखने में असमर्थ होते हैं तो निश्चय ही हम अनुभूति तक ले जाने में विफल रहे हैं। यह समझ लीजिए।


डॉ. लता अग्रवाल – जी, जो कुछ भी जीवन में है; साहित्य में वह त्याज्य नहीं, न ही वर्जित है। इस दृष्टि से लघुकथा में कई विषय अनछुए रह गए हैं। अगर आप सहमत हैं तो उन विषयों के बारे में आपसे जानना चाहेंगे ?

कमलेश भारतीय-  नहीं। मेरा ख्याल है कि यह भ्रम है। सभी विषयों को छू रही है लघुकथा। अभी आपने डा. घोटड़ के साथ किन्नर समाज तक की लघुकथाएं दी हैं। क्या पहले कभी इस विषय को छुआ गया ?



डॉ. लता अग्रवाल
–जी धन्यवाद , जब भी कोई विचार या भाव आपके मन में घुमडता है ,आप कैसे तय करते हैं कि उसे किस विधा और किस शिल्प में ढाला जाए ? क्योंकि एक साहित्यकार लघुकथाकार के अतिरिक्त कई विधाओं से जुड़ा होता है।

कमलेश भारतीय-  हां। यहआपने सही कहा। कुछ विषय लघुकथा के लिए चुने लेकिन वे कहानी का रूप ले गये तो कुछ कहानियां लघुकथा बन गयीं। जैसे ताजा लघुकथा तिलस्म। कहानी लिखना चाहता था पर लगा कि लघुकथा में ही बात कह सकता हूं। इस तरह लिखने की प्रक्रिया में अपने आप लेखक मन तय कर लेता है।बस , थोड़ा सा झूठ कहानी लघुकथा के रूप में लिखनी शुरू की लेकिन कहानी बन गयी और खूब चर्चित रही । 


डॉ. लता अग्रवाल –वाह, लघुकथा का वास्तविक उद्देश्य और सार्थकता क्या है ?

कमलेश भारतीय-  हर साहित्यिक विधा का उद्देश्य अपना संदेश देना है। समाज को बदलने में भूमिका निभाना है। मुंशी प्रेमचंद के अनुसार मनोरंजन करना साहित्य लेखन नहीं।   


डॉ. लता अग्रवाल - निर्मल जी ने कहा है कि, 'ठिठुरती आत्मा को गर्माहट देना साहित्य का काम है।' इसी वाक्य को यदि कुछ इस तरह मैं कहूं कि जड़ मानवीय संवेदना में भावों का संचार करना ही लघुकथा का काम है आप कितनी सहमति रखते हैं ?

कमलेश भारतीय- जी बिलकुल सही है ,संवेदना को झकझोरने का काम साहित्य करता है। आत्मा को जगाए रखने का काम साहित्य करता है।


डॉ. लता अग्रवाल – जी साहित्य रागात्मक सम्बन्ध उत्पन्न करता है। लघुकथाकार को धैर्यवान होना चाहिए, ताकि वह विसंगतियों को कटघरे में खड़ा कर सके। क्या आज लघुकथाकार इस कसौटी पर खरे उतर रहे हैं ? 

कमलेश भारतीय- कोशिश। कोशिश। कोशिश।


डॉ. लता अग्रवाल – बहुत खूब , आप काफी समय से लघुकथा से जुड़े हैं, उस वक्त लघुकथा यानी 'साहित्य को जबरन बोना करने या फिलर के रूप में कहीं स्थान पाना मात्र था। आज लघुकथा को आप कहां पाते हैं ? 

कमलेश भारतीय-  फिलर से पूर्ण विधा। पचास साल के सफर में कितने रूप और कितनी मंजिलें तय कीं। जैसे व्य॔ग्य की स्थिति को कभी शूद्र की स्थिति में रखा था हरिशंकर परसाई ने लेकिन आज स्थिति बदल चुकी। ऐसे ही लघुकथा ने बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान बना लिया। अब कोई पत्र -पत्रिका इसकी उपेक्षा नहीं कर सकती।


डॉ. लता अग्रवाल – बधाई,  खेमे बनाने से कोई विधा नहीं पनपती फिर भी आज लघुकथा में कई खेमें नित्य जन्म ले रहे हैं। ऐसे में लघुकथा का क्या भविष्य देखते हैं ?

कमलेश भारतीय-  मैंने लम्बे लघुकथा सफर में किसी भी खेमे से अपनेआपको जुडने नहीं दिया। भरसक दूरी बनाए रखी। कुछ नुकसान भी उठाया लेकिन अपने पथ से विचलित नहीं हुआ। खेमे शेमे में साहित्य नहीं पनपता यह मेरा विश्वास है। 


डॉ. लता अग्रवाल –लघुकथाओं के प्रति शौक कैसे उत्पन्न हुआ ? लघुकथा को लेकर आपके साहित्य संसार के बारे में जानना चाहेंगे।

कमलेश भारतीय-  मूलतः कहानियां लिखता था। लम्बी कहानियां। छह कथा संग्रह हैं मेरे।  धर्मयुग , कहानी , सारिका , नया प्रतीक सभी में कहानियां आईं। पहले लघुकथा संग्रह महक से ऊपर को पंजाब के भाषा विभाग की ओर से सर्वोत्तम कथाकृति का पुरस्कार मिला तो एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री पुरस्कार। इसके बाबजूद लघुकथा की ओर आकर्षित हुआ और चार लघुकथा संग्रह भी दिए। पांचवें की तैयारी में हूं। कम शब्दों में बड़ी से बड़ी बात पहुंचाना ही आकर्षण का केंद्र बना। नाटक , गजल और दोहे जैसी विधाओं की तरह तुरंत बात पहुंचाना लघुकथा में संभव। एक लघुकथा संग्रह ‘इतनी सी बात’ का पंजाबी में ‘ऐनी कु गल्ल’ के रूप में अनुवाद भी हुआ। इसका नेपाली में भी अनुवाद होने छा रहा है। अनेक लघुकथाएं पंजाबी , गुजराती , मलयालम व अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ। 


डॉ. लता अग्रवाल -  एक लेखक ‘सार्त्र’ रहे, जिन्होंने नोबेल पुरस्कार को भी आलू की बोरी कहकर ठुकरा दिया। आज पुरस्कार लेने की होड़ लगी है, आप भी उसी लेखक समाज से आते हैं मगर जितना में जानती हूँ आप मंच से सदैव दूरी बनाए रखते हैं, इसकी कोई खास वजह...?

कमलेश भारतीय-  लघुकथा के समर्पित सिपाही के तौर पर काम करना पसंद। यही कर रहा हूं पचास वर्ष से। सिर्फ कार्यकर्त्ता की भूमिका। नेतागिरी या पुरस्कार पर आंख नहीं।  पुरस्कार के पीछे भागना पसंद नहीं। आप पुरस्कार के लिए नहीं लिखते। आत्मसंतुष्टि और समाज के लिए लिखते हैं। प्रधानमंत्री तक का पुरस्कार सहज ही मिला। लेखक को श्रेष्ठ लिखने की चिंता करनी चाहिए। पुरस्कारों की नहीं।


डॉ. लता अग्रवाल – काश...! आपने लघुकथा को परिभाषित किया है कि 'मेरी दृष्टि में लघुकथा उन क्षणों का वर्णन है जिन्हें जानबूझकर विस्तार नहीं दिया जा सकता यदि लघुकथा लेखक ऐसा करता है तो सजग पाठक उसे तुरंत पहचान लेता है। तो क्या लघुकथा लेखन के दौरान विषय चयन को लेकर कोई सावधानी रखनी चाहिए ?

कमलेश भारतीय- सावधानी नहीं। अंदर से यह अनुशासन होना चाहिए। सप्रयास कुछ नहीं। सहजता ही मूलमंत्र।


डॉ. लता अग्रवाल – जी, लघुकथा को लेकर जितना समर्पण भाव पंजाबी, गुजराती, डोगरी में संजीदगी से हो रहा है,हिंदी में वह गंभीरता कम ही दिखाई देती है। क्या वजह हो सकती है।

कमलेश भारतीय- समर्पण जरूरी है। बहुत सचेत रहने की जरूरत। हिंदी में मठों की स्थापना ज्यादा और इसे संवारने की ओर ध्यान कम। 


डॉ. लता अग्रवाल – सहमत हूँ,  आपने एक बात बड़ी रोचक कही, 'लघुकथा आंदोलन में बिखराव का कारण सब ने अपनी - अपनी डेढ़ इंच की मस्जिद बनाकर मसीहाई मुद्रा अपना ली है। इससे कैसे बाहर आया जाये?

कमलेश भारतीय-  खुद को खेमों और मठों से दूर रखना ही इसका उपाय है। यही कर रहा हूं। सिर्फ लेखन पर ध्यान। कभी संग्रह संपादन नहीं किया। समाचारपत्र व पत्रिका के संपादन में भी नये रचनाकारों को मुक्तहृदय से मंच प्रदान किया। 

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रविवार, 22 मई 2022

लघुकथाओं का फिल्मांकन कर रहे श्री अनिल पतंग का साक्षात्कार | साक्षात्कारकर्ता: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

 01 जून 1951 , बेगूसराय - बिहार में जन्में श्री अनिल पतंग एक फिल्मकार, नाटककार, अभिनेता व सम्पादक- हैं, आपने एम.ए. नाट्यशास्त्र, एम.ए. हिन्दी, साहित्यरत्न,विद्यावाचस्पति, डिप.इन टीच., डिप.इन फिल्म, एन.ई.टी. यू.जी.सी. एम.डी. अल्ट. मेडिसीन की शिक्षा प्राप्त की है। आप हिन्दी अधिकारी दूरदर्शन, बिहार सरकार द्वारा अनुशंसित अनेक रंग संस्थाओं एवं साहित्यिक संस्थाओं के सचिव/अध्यक्ष/ अधिकारी एवं सदस्य तथा निदेशक, नाट्य विद्यालय, बेगूसराय जैसे महत्वपूर्ण पदों पर आसीन रहे हैं।

श्री पतंग ने कई पुस्तकों का लेखन किया है, जैसे, नाटक विधा में -दीवार, प्रजातंत्र, कीमत, जट जटिन, सामा- चकेवा, डोमकछ, एक महर्षि का मूल्य, नागयज्ञ, लोक कथा रूपक, कहानी विधा में - प्रोफेसर सपना बाबू व निबंध संग्रह-रंग संदर्भ। लेखन के अतिरिक्त आपने सम्पादन कार्य भी किए हैं, बिहार के लोकधर्मी नाट्य व रंग अभियान (नाट्य पत्रिका) आपकी संपादित कृतियाँ हैं। श्री पतंग सम्पर्क (दूरदर्शन जालंधर की पत्रिका) में प्रधान सम्पादक के दायित्व का निर्वाह भी कर रहे हैं और अनेक स्मारिकाओं का संपादन किया है। अनिल पतंग जी राजकीय, राज्य, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अनेक सम्मानों से सम्मानित हुए हैं। इन दिनों श्री अनिल पतंग लघुकथाओं पर लघु फिल्मों का निर्माण कर रहे हैं। 

आइए उन्हीसे उनकी लघु-फिल्मों के निर्माण के बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त करें।


चंद्रेश कुमार छतलानी: आदरणीय श्री अनिल पतंग जी, आपको लघुकथाओं पर फिल्मांकन का विचार कैसे आया?

अनिल पतंग: मैं 1991_92 से ही फिल्मों से जुड़ा रहा। प्रकाश झा प्रोडक्शन का धारावाहिक "विद्रोह" जो वीर कुंवर सिंह की जीवन पर आधारित है,में उनके अनुज दयाल सिंह की भूमिका की थी। बाद में उनके फिल्म प्रवाह में काम किया। फिर एक फुल लेंथ हिंदी फीचर फिल्म "जट जटिन" का निर्माण किया। जो लोकप्रिय हुआ और दुनिया के लगभग 55 देशों के फिल्म फेस्टिवल में शामिल किया गया और 70 अंतर्राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त हुआ। इधर लॉकडाउन में शिथिलता के बाद लगभग 700 से अधिक स्वास्थ्य, साहित्य, नाटक और अन्य तरह के लघुफिल्मों के निर्माण में लगा रहा। बाद में कई मित्रों की राय से वैसी लघुकथाएं जो राष्ट्र, समाज और पारिवारिक विसंगतियों और विद्रूपताओं को दर्शाती हैं, का फिल्मांकन प्रारम्भ किया, जो कम समय में अपना संदेश छोड़ सके।

चंद्रेश कुमार छतलानी: शॉर्ट फ़िल्म हेतु लघुकथा के चयन आप किस आधार पर करते हैं?

अनिल पतंग:  फिलहाल अपने लक्ष्यों के अनुरूप लघुकथाएं, जिसके पात्र और परिस्थिति हमारे अनुकूल हों।

चंद्रेश कुमार छतलानी: आप लघु फ़िल्म बनाने में क्या प्रक्रिया अपनाते हैं?

अनिल पतंग: बेगूसराय या अन्य उपलब्ध कलाकारों द्वारा बेगूसराय में शूट कर मुंबई, गुड़गांव और दिल्ली के स्टूडियो में एडिट होकर यूट्यूब पर डाला जाता है।

चंद्रेश कुमार छतलानी:  इस कार्य में कैसी समस्याओं का सामना करना पड़ा?

अनिल पतंग:  आज के कमर्शियल युग में अच्छे कलाकारों का मिलना आसान नहीं है। फिर भी जो साथ चल रहे हैं, धन्यवाद के पात्र हैं। यहां साधन की भी कमी है। फिर भी हमारे कलाकारों और दर्शकों का उत्साह हमारे मनोबल को बढ़ाता है।

चंद्रेश कुमार छतलानी:  इस कार्य में क्या लघुकथाकारों या सम्पादकों का भी सहयोग लेते हैं?

अनिल पतंग:  लघुकथाकार और संपादक हमारे इस अभियान के रीढ़ हैं। उनके बिना इस मिशन की कल्पना नहीं की जा सकती।

चंद्रेश कुमार छतलानी:  यूट्यूब पर लघुकथाएं यों तो बहुत देखी जा रही हैं? आपकी लघु फिल्मों ओर व्यूज़ कितने आ जाते हैं?

अनिल पतंग:  यह तो पारदर्शी है, आप यूट्यूब पर देख लें।

चंद्रेश कुमार छतलानी:  लघुकथा के कौनसे ऐसे तत्व हैं जो फिल्मांकन में उचित रहते हैं और कौनसे तत्व जो लघु फिल्म बनाने में सशक्त नहीं होते?

अनिल पतंग:  कहानियों के सभी तत्व इसमें मौजूद रहते हैं, लेकिन सूक्ष्मता, और पिन पॉइंटेड,जो छक और धक से दर्शकों को लग जाय। समाप्ति उसे स्तब्ध कर दे।

चंद्रेश कुमार छतलानी:  इससे सम्बंधित भविष्य की कोई योजना?

अनिल पतंग:  71 वर्ष पार कर रहा हूं, आपका सहयोग है, आर्थिक समस्या भी कम नहीं है। मैं लघुकथाकारों और कलाकारों  को फिलहाल कुछ नहीं दे पा रहा हूं। लेकिन आने वाले दिनों में ऐसा नहीं हो, योजना में शामिल है।

चंद्रेश कुमार छतलानी:  लघुकथाकारों को किसी फिल्म के लिए ही लेखन करने के लिए क्या सुझाव देना चाहेंगे?

अनिल पतंग:  लघुकथाकारों से धन्यवाद सहित अनुरोध है कि वे कम और आसान पात्रों, लोकेशन, मजबूत तथ्य और कथ्य की रचनाएँ  भेजें। जो राष्ट्र, समाज और परिवार के लिए उपयोगी हो।

चंद्रेश कुमार छतलानी: धन्यवाद आपका अनिल पतंग जी। 

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श्री अनिल पतंग से निम्न पते पर संपर्क किया जा सकता है:

अनिल पतंग

बाघा (रेलवे कैबिन के पास) 

पो. - सुहृद नगर (बेगूसराय) 

पिनकोड: 851218.

मोबाइल फोन- 7004839500

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अनिल पतंग द्वारा फिल्मांकन की गई चंद्रेश कुमार छतलानी की एक लघुकथा



मंगलवार, 22 मार्च 2022

बीजेन्द्र जैमिनी जी द्वारा संपादित इनसे मिलिए (ई-साक्षात्कार संकलन) के अंतर्गत मेरा साक्षात्कार

 प्रश्न न.1 -  लघुकथा में सबसे महत्वपूर्ण तत्व कौन सा है ?

उत्तर - मेरे अनुसार यों तो लघुकथा में कोई ऐसा तत्व नहीं हैं जिसका महत्व कम हो क्योंकि जब कम-से-कम शब्दों में अपनी बात कहनी है तो शीर्षक से लेकर अंत तक सभी शब्दों, शिल्प आदि पर पूरा ध्यान देना होता ही है। मैं अपने लेखन में सबसे अधिक विषय (विशेष तौर पर जो समकालीन यथार्थ पर आधारित हो) के अध्ययन को समय देता हूँ फिर कथानक और उसके प्रस्तुतिकरण के निर्धारण में।


प्रश्न न.2 -  समकालीन लघुकथा साहित्य में कोई पांच नाम बताओं?  जिनकी भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण है?

उत्तर - हालांकि पांच से अधिक नाम जेहन में आ रहे हैं, फिर भी प्रश्न की सीमा न लांघते हुए मैं सर्वश्री योगराज प्रभाकर, अशोक भाटिया, बलराम अग्रवाल, मधुदीप गुप्ता व उमेश महादोषी के नाम लेना चाहूंगा। वस्तुतः आप (बीजेंद्र जैमिनी) सहित कई अन्य वरिष्ठ व कई नवोदित भी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं।


प्रश्न न.3 - लघुकथा की समीक्षा के कौन - कौन से मापदंड होने चाहिए ?

उत्तर - मेरे अनुसार निम्न तत्वों पर एक लघुकथा समीक्षक को ध्यान देना आवश्यक है:-

रचना का उद्देश्य, विषय, लाघवता व पल विशेष, कथानक, शिल्प, शैली, शीर्षक, पात्र, भाषा एवं संप्रेषण, संदेश / सामाजिक महत्व, न्यूनतम अतिशयोक्ति व सांकेतिकता। इनके अतिरिक्त मेरा यह भी मानना है कि कोई लघुकथा अपने पाठकों को कितना प्रभावित कर सकती है इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए।


प्रश्न न.4 - लघुकथा साहित्य में सोशल मीडिया के कौन-कौन से प्लेटफॉर्म बहुत महत्वपूर्ण हैं?

उत्तर - पिछले कुछ वर्षों से सोशल मीडिया ने लघुकथा को स्थापित करने में सहायता की है। फेसबुक, व्हाट्सएप्प, यूट्यूब, फोरम व ब्लोग्स द्वारा फिलवक्त लघुकथा पर काफी कार्य किया जा रहा है। आने वाले समय में अन्य सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म यथा इन्स्टाग्राम,  पिनट्रेस्ट, लिंक्डइन, ट्वीटर आदि पर अच्छे कार्य होने की उम्मीद है।


प्रश्न न.5 - आज के साहित्यिक परिवेश में लघुकथा की क्या स्थिति है ?

उत्तर - फिलहाल लघुकथाएं मात्रात्मक दृष्टि से एक अच्छी संख्या में कही जा रही हैं, हालांकि गुणात्मकता पर विचार करें तो उनकी संख्या बहुत अधिक नहीं है। संपादकों व प्रकाशकों को भी पुस्तकों, संग्रहों, संकलनों आदि में कहीं न कहीं समझौता करना ही पड़ता है। इसके अतिरिक्त रचनाओं में समसामयिक विषयों की भी कमी प्रतीत होती है। ग्लोबल वॉर्मिंग, प्रदूषण, राजनीतिक पतन, साइबर क्राइम, दिव्यांग जैसे वर्ग की समस्याएं, पुरातन लोक संगीत / वास्तुकला आदि के सरंक्षण सहित कई विषय ऐसे हैं जिन पर कलम बहुत अधिक नहीं चली है। कहीं-कहीं लघुकथा की समीक्षा में निष्पक्षता की आवश्यकता भी महसूस होती है।


प्रश्न न.6 - लघुकथा की वर्तमान स्थिति से क्या आप सतुष्ट हैं ?

उत्तर - यह एक अच्छी बात है कि लघुकथा अब अधिकतर साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं का अभिन्न हिस्सा बन चुकी है। इससे प्रबुद्ध पाठकों की संख्या में भी लगातार वृद्धि हो रही है। गुणात्मकता के अतिरिक्त प्रकाशित रचनाओं में कभी-कभी प्रूफ रीडिंग, सम्पादन व कुछ निष्पक्षता की आवश्यकता ज़रूर प्रतीत होती है। मैं उन सभी लघुकथाकारों की हृदय से प्रशंसा करना चाहूँगा, जिन्होंने इस विधा को स्थापित करने में अपना समय और धन दोनों को बिना सोचे खर्च किया है। आप सभी के परिश्रम से जो स्थान इस विधा को प्राप्त हुआ है उससे मुझ सहित अन्य लघुकथाकारों को काफी संतुष्टि मिलना स्वाभाविक ही है। हालांकि, मुझे अपने लेखन से स्वयं को संतुष्टि मिल पाए, ऐसा समय अभी नहीं आया।


प्रश्न न.7 - आप किस प्रकार के पृष्ठभूमि से आए हैं?  बतायें किस प्रकार के मार्गदर्शक बन पाये हैं?

उत्तर - मैं यों तो विज्ञान का विद्यार्थी रहा हूँ, लेकिन हिन्दी व अन्य भाषाओं और साहित्य में रूचि प्रारम्भ से ही रही। पढ़ने के नाम पर मैं जो कुछ भी मिले पढ़ लेता था। शिक्षा समाप्ति के बाद देश-विदेश के विभिन्न संस्थानों के लिए सॉफ्टवेयर व वेबसाइट निर्माण किए और कुछ समय पश्चात् शिक्षण व शोध के क्षेत्र में आ गया। फिलहाल मैं कम्प्यूटर विज्ञान के छात्रों का ही मार्गदर्शक बन पाया हूँ। नवीन विषयों तथा भिन्न शिल्प को लेकर लेखन करना मुझे पसंद है।


प्रश्न न.8 - आप के लेखन में आपके परिवार की भूमिका क्या है?

उत्तर - परिवार से मुझे सदैव प्रोत्साहन ही मिला है। वस्तुतः जो समय मुझे परिवार को देना चाहिए, उसी में से कुछ वक्त निकाल कर मैं साहित्य सृजन कर पाता हूँ, लेकिन कभी शिकायत नहीं मिली। परिवार के सदस्यों को मैं समय-समय पर लेखन कार्य में प्रवृत्त करने का प्रयास भी करता हूँ और उनसे प्रेरणा भी प्राप्त करता हूँ।


प्रश्न न.9 - आप की आजीविका में आपके लेखन की क्या स्थिति है ?

उत्तर - अभी इस बारे में सोचा नहीं। हालांकि साहित्यिक पुस्तक बिक्री, प्रतियोगिताओं, शोध-कार्य आदि से कुछ आय हुई भी है लेकिन अधिकतर बार उसे अन्य पुस्तकें खरीदने में ही खर्च किया है।


प्रश्न न.10 - आपकी दृष्टि में लघुकथा का भविष्य कैसा होगा ?

उत्तर - जिस तरह से लघुकथा विधा उन्नति कर रही है, यह प्रतीत होता है कि गद्य विधा में जल्दी ही लघुकथा का ही युग होगा। इस हेतु उचित सृजन महती कार्य है। मेरा मानना है कि किसी लेखक को लघुकथा को सिद्ध करना है तो सबसे पहले उसके विषय व कथानक को आत्मसात कर उसमें निहित पात्रों को स्वयं जीना होता है। वे बातें भी दिमाग में होनी चाहिए जो हम रचना में तो नहीं लिख रहे हैं लेकिन रचना को प्रभावित कर रही हैं। इसीसे लेखन में जीवन्तता आती है। इस प्रकार का लेखन पर्याप्त समय लेता है और इसके विपरीत जल्दबाजी में विधा और साहित्य दोनों को हानि होती है। हालांकि समय स्वयं अच्छी रचनाओं को अपने साथ भविष्य की ओर बढाता है तथा अन्य को पीछे छोड़ देता है। लेकिन यह भी सत्य है कि इन दिनों कई रचनाएं ऐसी भी कही जा रही हैं, जो विधा की उन्नति के समय को बढ़ा रही हैं। लघुकथा पर शोध व नवीन प्रयोग भी आवश्यकता से कम हो रहे हैं। लघुकथा में नए मुहावरे भी गढ़े जा सकते हैं। बहरहाल, इन सबके बावजूद भी मैं विधा के अच्छे भविष्य के प्रति आश्वस्त हूँ क्योंकि वर्तमान अधिक बिगड़ा हुआ नहीं है बल्कि अपेक्षाकृत बेहतर है।


प्रश्न न.11 - लघुकथा साहित्य से आपको क्या प्राप्त हुआ है ?

उत्तर - कहीं पढ़ा था कि, “Literature is a bridge from disappointment to hope.” यह बात लेखन पर भी लागू होती है। लघुकथा में लेखकीय प्रवेश वर्जित है, इस बात का अपनी तरफ से जितना रख सकता हूँ, ध्यान रखते हुए, कई बार अपनी बात जुबानी न कहने की स्थिति में उसे लघुकथा के रूप में ढाल देता हूँ, उससे मानसिक शांति तो प्राप्त होती ही है और साथ ही अपनी बात इस प्रकार कह देने का अवसर भी मिलता है। कई विषयों को पढ़ कर समझने की प्रवृत्ति को एक नई दिशा भी मिली तथा सोच का दायरा भी विस्तृत हुआ। साथ ही शोध हेतु यह एक और विषय भी मिला। इनके अतिरिक्त मुझे गुरुओं का जो मार्गदर्शन प्राप्त हुआ, वरिष्ठ लघुकथाकारों का जो आशीर्वाद मिला और समकालीन व मेरे लेखन प्रारम्भ करने के बाद आए लघुकथाकारों का जो स्नेह प्राप्त हुआ, उसे शब्दों में व्यक्त करना मेरे लिए असंभव है।

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रविवार, 13 मार्च 2022

मेरी लघुकथा लेखन प्रक्रिया | चंद्रेश छतलानी | साक्षात्कारकर्ता: ओमप्रकाश क्षत्रिय

 2016 में श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय द्वारा मेरा साक्षात्कार लिया गया था. आज 2022 में हालांकि इस प्रक्रिया में पहले से कुछ परिवर्तन है, जो कि समय के साथ होना भी चाहिए. आइए पढ़ते हैं, ओमप्रकाश क्षत्रिय जी को,

आज हम आप का परिचय एक ऐसे साहित्यकार से करवा रहे है जो लघुकथा के क्षेत्र में अपनी अनोखी रचना प्रक्रिया के लिए जाने जाते हैं. आप की लघुकथाएँ अपनेआप में पूर्ण तथा सम्पूर्ण लघुकथा के मापदंड को पूरा करने की कोशिश करती हैं. हम ने आप से जानना चाहा की आप अपनी लघुकथा की रचना किस तरह करते है? ताकि नए रचनाकार आप की रचना प्रक्रिया से अपनी रचना प्रक्रिया की तुलना कर के अपने लेखन में सुधार ला सके.

लघुकथा के क्षेत्र में अपना पाँव अंगद की तरह ज़माने वाले रचनाकार का नाम है आदरणीय चंद्रेश कुमार छतलानी जी. आइए जाने आप की रचना प्रक्रिया:

ओमप्रकाश क्षत्रिय- चंद्रेश जी ! आप की रचना प्रक्रिया किस की देन है ? या यूँ कहे कि आप किस का अनुसरण कर रहे हैं ? 

चंद्रेश कुमार छतलानी-  आदरणीय सर !  हालाँकि मुझे नहीं पता कि मैं किस हद तक सही हूँ . लेकिन आदरणीय गुरूजी (योगराज जी प्रभाकर) से जो सीखने का यत्न किया है, और उन के द्वारा कही गई बातों को आत्मसात कर के और उन की रचनाएँ पढ़ कर जो कुछ सीखासमझा हूँ, उस का ही अनुसरण कर रहा हूँ.

ओमप्रकाश क्षत्रिय- लघुकथा लिखने के लिए आप सब से पहले क्या-क्या करते हैं ? 

चंद्रेश कुमार छतलानी - सब से पहले तो विषय का चयन करता हूँ . वो कोई चित्र अथवा दिया हुआ विषय भी हो सकता है. कभीकभी विषय का चुनाव स्वयं के अनुभव द्वारा या फिर विचारप्रक्रिया द्वारा प्राप्त करने का प्रयास करता हूँ.

ओमप्रकाश क्षत्रिय- विषय प्राप्त करने के बाद आप किस प्रक्रिया का पालन करते हैं ? 

चंद्रेश कुमार छतलानी - सब से पहले विषय पर विषय सामग्री का अध्ययनमनन करता हूँ. कहीं से भी पढता अवश्य हूँ . जहाँ भी कुछ मिल सके-  किसी पुस्तक में, इन्टरनेट पर, समाचार पत्रों में, धार्मिक ग्रन्थों में या पहले से सृजित उस विषय की रचनाओं आदि को खोजता हूँ.  इस में समय तो अधिक लगता है . लेकिन लाभ यह होता है कि विषय के साथ-साथ कोई न कोई संदेश मिल जाता है. 

इस में से  जो अच्छा लगता है उसे अपनी रचना में देने का दिल करता है  उसे मन में उतर लेता हूँ.  यह जो कुछ अच्छा होता है उसे संदेश के रूप में अथवा विसंगति के रूप में जो कुछ मिलता है, जिस के बारे में लगता है कि उसे उभारा जाए तो उसे अपनी रचना में ढाल कर उभार लेता हूँ.  

ओमप्रकाश क्षत्रिय- मान लीजिए कि इतना करने के बाद भी लिखने को कुछ नहीं मिल पा रहा है तब आप क्या करते हैं ? 

चंद्रेश कुमार छतलानी- जब तक कुछ सूझता नहीं है, तब तक पढता और मनन करता रहता हूँ. जबतक कि कुछ लिखने के लिए कुछ विसंगति या सन्देश नहीं मिल जाता. 

ओमप्रकाश क्षत्रिय- इस के बाद ? 

चंद्रेश कुमार छतलानी - इस विसंगति या संदेश के निश्चय के बाद मेरे लिये लिखना अपेक्षाकृत आसान हो जाता है . तब कथानक पर सोचता हूँ . कथानक कैसे लिखा जाए ? उस के लिए स्वयं का अनुभव, कोई प्रेरणा, अन्य रचनाकारों की रचनाएं,  नया-पुराना साहित्य,  मुहावरे,  लोकोक्तियाँ, आदि से कोई न कोई प्रेरणा प्राप्त करता हूँ.  कई बार अंतरमन से भी कुछ सूझ जाता है . उस के आधार पर पंचलाइन बना कर कथानक पर कार्य करता हूँ .

ओमप्रकाश क्षत्रिय- इस प्रक्रिया में हर बार सफल हो जाते हैं ? 

चंद्रेश कुमार छतलानी-  ऐसा नहीं होता है, कई बार इस प्रक्रिया का उल्टा भी हो जाता है . कोई कथानक अच्छा लगता है तो पहले कथानक लिख लेता हूँ और पंचलाइन बाद में सोचता हूँ .  तब पंचलाइन कथानक के आधार पर होती है .

ओमप्रकाश क्षत्रिय- आप अपनी लघुकथा में पात्र के चयन के लिए क्या करते हैं ? 

चंद्रेश कुमार छतलानी- पहले कथानक को देखता हूँ. उस के आधार पर पात्रों के नाम और संख्या का चयन करता हूँ. पात्र कम से कम हों अथवा न हों . इस बात का विशेष ध्यान रखता हूँ. 

ओमप्रकाश क्षत्रिय- लघुकथा के शब्द संख्या और कसावट के बारे में कुछ बताइए ? 

चंद्रेश कुमार छतलानी - मैं यह प्रयास करता हूँ  कि लघुकथा 300 शब्दों से कम की हो.  हालाँकि प्रथम बार में जो कुछ भी कहना चाहता हूँ  उसे उसी रूप में लिख लेता हूँ. वो अधिक बड़ा और कम कसावट वाला भाग होता है, लेकिन वही मेरी लघुकथा का आधार बन जाता है .  कभी-कभी थोड़े से परिवर्तन के द्वारा ही वह कथानक लघुकथा के रूप में ठीक लगने लगता है. कभी-कभी उस में बहुत ज्यादा बदलाव करना पड़ता है.

ओमप्रकाश क्षत्रिय- लघुकथा को लिखने का कोई तरीका हैं जिस का आप अनुसरण करते हैं ? 

चंद्रेश कुमार छतलानी -  लघुकथा सीधी ही लिखता हूँ. हाँ , दो अनुच्छेदों के बीच में एक खाली पंक्ति अवश्य छोड़ देता हूँ, ताकि पाठकों को पढने में आसानी हो. यह मेरा अपना तरीका है.  इस के अलावा जहाँ संवाद आते हैं वहां हर संवाद को उध्दरण चिन्हों के मध्य रखा देता हूँ . साथ ही प्रत्येक संवाद की समाप्ति के बाद एक खाली पंक्ति छोड़ देता हूँ. यह मेरा अपना तरीका हैं.

ओमप्रकाश क्षत्रिय- इस के बाद आप लघुकथा पर क्या काम करते हैं ताकि वह कसावट प्राप्त कर सके ? 

चंद्रेश कुमार छतलानी- इस के बाद लघुकथा को अंत में दो-चार बार पढ़ कर उस में कसावट लाने का प्रयत्न करता हूँ.  मेरा यह प्रयास रहता है कि लघुकथा 300  शब्दों में पूरी हो जाए. (हालाँकि हर बार सफलता नहीं मिलती) . इस के लिए कभी किसी शब्दों/वाक्यों को हटाना पड़ता हैं .  कभी उन्हें बदल देता हूँ . दो-चार शब्दों/वाक्यों के स्थान पर एक ही शब्द/वाक्य लाने का प्रयास करता हूँ.

कथानक पूरा होने के बाद उसे बार-बार पढ़ कर उस में से लेखन/टाइपिंग/वर्तनी/व्याकरण की अशुद्धियाँ निकालने का प्रयत्न करता हूँ.  उसी समय में शीर्षक भी सोचता रहता हूँ . कोशिश करता हूँ कि शीर्षक के शब्द पंचलाइन में न हों और जो लघुकथा कहने का प्रयास कर रहा हूँ, उसका मूल अर्थ दो-चार शब्दों में आ जाए . मुझे शीर्षक का चयन सबसे अधिक कठिन लगता है.

ओमप्रकाश क्षत्रिय- अंत में कुछ कहना चाहेंगे ? 

चंद्रेश कुमार छतलानी- इस के पश्चात प्रयास यह करता हूँ कि कुछ दिनों तक रचना को रोज़ थोड़ा समय दूं,  कई बार समय की कमी से रचना के प्रकाशन करने में जल्दबाजी कर लेता हूँ,  लेकिन अधिकतर 4 से 7 दिनों के बाद ही भेजता हूँ.  इससे बहुत लाभ होता है.

यह मेरा अपना तरीका हैं. मैं सभी लघुकथाकारों से यह कहना चाहता हूँ कि वे अपनी लघुकथा को पर्याप्त समय दे, उस पर चिंतन-मनन करे. उन्हें जब लगे कि यह अब पूरी तरह सही हो गई हैं तब इसे पोस्ट/प्रकाशित करें. 

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गुरुवार, 20 फ़रवरी 2020

साक्षात्कार | लघुकथाकार डॉ. पूरन सिंह का साक्षात्कार | डॉ. पूनम तुषामड़ द्वारा


डॉ. पूरन सिंह का दलित साहित्य में ही नहीं गैर दलित साहित्य में भी में जाना-पहचाना नाम है. डॉ. पूरन सिंह जी ने लघुकथा क्षेत्र में प्रसिद्धि हासिल की है, लेकिन कहानियां भी लिखते हैं. इनकी कई किताबें अब तक प्रकाशित हो चुकी हैं. डॉ. पूरन सिंह जी का साक्षात्कार डॉ. पूनम तुषामड़ ने विश्व पुस्तक मेला 2020, प्रगति मैदान, नई दिल्ली में कदम प्रकाशन के स्टॉल पर लिया. साक्षात्कार के वीडियो की रिकार्डिंग तथा एडिटिंग मनीषा चौहान व अतुल चौहान ने की है.

Source:
https://www.youtube.com/watch?v=9ocUNpbdss8&feature=youtu.be

गुरुवार, 19 दिसंबर 2019

रामकुमार आत्रेय : काँटों में से राह बनाने वाले साहित्यकार | राधेश्याम भारतीय

रामकुमार आत्रेय जी का राधेश्याम भारतीय जी द्वारा लिया गया साक्षात्कार | लघुकथा डॉट कॉम पर 
(हरियाणा सरकार द्वारा रामकुमार आत्रेय जी को बाल मुकुन्द गुप्त पुरस्कार  दिए जाने के अवसर पर राधे श्याम भारतीय द्वारा उनसे लिया गया साक्षात्कार)



रामकुमार आत्रेय 
हिन्दी साहित्य के वरिष्ठ कवि एवं कथाकार रामकुमार आत्रेय को हरियाणा साहित्य अकादमी की ओर से बालमुकुन्द गुप्त पुरस्कार मिलने पर मैं उन्हें बधाई देने उनके घर पहुँचा। रामकुमार कुमार आत्रेय का व्यक्तित्व जितना अनुकरणीय है, उतना ही उनका साहित्य। वे केवल साहित्य में ही आदर्शवाद की बातें नहीं करते बल्कि वे स्वयं उनका पालन करने वाले भी हैं। आज साहित्य क्षेत्र में जिस तरह गुटबाजी कायम है, वे उससे कोसों दूर रहे हैं। आज देश की ऐसी कोई पत्रिका नहीं है ,जिनमें इनकी रचनाएँ  ससम्मान प्रकाशित न होती हों। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय कुरुक्षेत्र के बी.ए.प्रथम वर्ष के पाठ्यक्रम में इनकी कविताएँ  (हरियाणी बोली) में  पढ़ाई जा रही हैं। प्रधानाचार्य के पद से सेवानिवृत्त होने पर भी खुद को साक्षर मानते हैं। पिछले कई वर्षों से इनकी नेत्रदृष्टि बिल्कुल साथ छोड़ गई है। इसके बावजूद ये साहित्यिक -साधना में रत हैं और उसी साधना के बल पर इन्होंने  हिन्दी एवं हरियाणवी भाषा में 15 पुस्तकें पाठकों को देकर एक अनुपम कार्य किया है। अनुपम इसलिए क्योंकि जिन विकट परिस्थितियों में आम आदमी हार मान बैठता है, ऐसे में आत्रेय जी लड़ते रहे और अपनी लेखनी से अपने मन के भावों एवं आम आदमी की पीड़ा को शब्दों में पिरोकर समाज को एक नई राह दिखाने को प्रयासरत हैं। आत्रेय जी मूलतः स्वयं को कवि मानते हैं। मैं समझता हूँ कि इनके मन में काव्य के उपजने के पीछे कहीं न कहीं वेदना का प्रभाव रहा है, क्योंकि 6 वर्ष की आयु में जिनके सिर सेे पिता का साया उठ गया हो । घर में एकमात्र पुत्र होने के कारण परिवार का सारा बोझ जिनके कंधों पर आ पड़ा हो और आगे चलकर 30 वर्ष की अवधि में जिनकी धर्मपत्नी छोटे- छोटे बच्चों को छोड़कर इस लौकिक संसार से विदा हो गई हो तो ऐसे में मन दुखों से भर ही जाता है। संसार मिथ्या नजर आता है, और फिर पीड़ित मन संसार के यथार्थ की खोज में भटकने लगता। वहीं से कल्पना लोक में विचरते मन से उपजने लगती है कविता। सुमित्रानंदन पंत की वे काव्य पंक्तियाँ  –

वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान।
उमड़कर आँखों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान।।

आत्रेय जी पर सटीक बैठती प्रतीत होती हैं; आइए , आत्रेय जी के व्यक्तित्व एवं कृत्तित्व से रू-ब-रू होते हैं-

राधेश्याम भारतीय


राधेश्याम भारतीय: आत्रेयजी, आपने साहित्य की अनेक विधाओं में लिखा है। लिखा ही नहीं बल्कि उस साहित्य ने हिंदी साहित्य में अपनी एक अलग पहचान भी बनाई है। आप स्वयं को मूलतः कवि मानते हैं । आपके कवि बनने के पीछे क्या कारण रहे हैं ?

रामकुमार आत्रेय: मेरे कवि बनने में मेरी माँ की भूमिका विशेष रही है। साहित्यिक जीवन की शुरूआती दिनों में जब मैं जे.बी.टी का कोर्स कर रहा था, तो पुण्डरी कैथल में फौजी की एक दुकान थी। जिस पर 25 पैसे में नॉवल किराए पर मिलते थे । मैंने नॉवल किराये पर लेने शुरू कर दिए। विष्णु प्रभाकर और रामधारी सिंह दिनकर का साहित्य पढ़ डाला। मुझे विष्णु प्रभाकर के नाटकों में और रामधारी सिंह दिनकर की कविताएँ  में बड़ा आनन्द आता था और दिनकर की कविताओं से प्रेरित हो मेरे मन में काव्य के अंकुर फूटने लगे। वैसे ये अंकुर बचपन में ही फूटने लगे थे । जब मेरी माँ और दादी सोते वक्त मुझे कहानियाँ सुनाया करती थी। उनमें से अधिकतर पौराणिक संदर्भो पर आधारित होती थीं। कुछ कहानियाँ बिल्कुल कपोल -कल्पित होती थीं। जिनमें परियाँ और राक्षसों के आश्चर्यजनक कारनामों का वर्णन होता था। परन्तु उन सब में नैतिक मूल्यों को प्राथमिकता अवश्य दी जाती थी। बस, वहीं से मैं अपना दुख- दर्द भूलकर दूसरों के दुख-दर्द को समझने, जूझने, थकने तथा टूटने लगा और अन्तःकरण से फूटने लगी कविता।

राधेश्याम भारतीय: क्या आप कवि ही बनना चाहते थे ,या साहित्य की अन्य विधाओं में भी रूचि थी?

रामकुमार आत्रेय: भारतीय जी, मैं एक कवि एवं कथाकार तो बन गया पर, एक नाटककार न बन सका यह टीस मेरे मन में रही। मुझे धर्मवीर भारती के नाटक ‘अन्धायुग’ ने इतना अधिक प्रभावित किया कि उनकी प्रशंसा के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं। बाद में निराला जी से प्रभावित हुआ और उनकी शैली का अनुसरण करते हुए मैं मुक्त छंद में कविता करने लगा। बस, अब तो मैं स्वयं को कवि कहलवाना अधिक प्रसन्द करता हूँ।

राधेश्याम भारतीय:आप साहित्य से जुड़ाव के शुरूआती दिनों के बारे कुछ बताइए ?

रामकुमार आत्रेय: मुझे रचना लिखने की सीख 1980 में आई। पर, मैं गाँव में रहने वाला व्यक्ति किसी वरिष्ठ साहित्यकार के सम्पर्क में नहीं आया इसलिए परिस्थितियों से अकेला ही जूझता रहा । मैं अपनी रचनाएँ  धर्मवीर भारती की पत्रिका ‘धर्मयुग’ में भेजता रहा । रचनाएँ  न छपी । इंतजार करता रहा। एक दिन एक पत्रिका पढ़ी । उसमें लिखा था कि यदि किसी साहित्यकार को अपनी रद्द हुई रचनाओं बारे पता करना हो तो जवाबी लिफाफा साथ में भेजें । मैंने भी ऐसा ही किया।

एक दिन धर्मवीर भारती का पत्र आया कि आपकी रचना हमें मिल चुकी हैं, हम रचना के बारे सूचित नहीं करते और उसके बावजूद रचनाएँ  भेजता रहा फिर रचनाएँ  छपने लगी। मैं तो इतना ही भेजें कि हमने साहित्य में अपना स्थान यूं ही नहीं बनाया बल्कि साहित्य की उबड़ -खाबड़ राहों से गुजरे हैं…हरियाणवी में कहूँ तो ‘‘हाम् तो वो राही सै जिनहै डल्यां म्ह तै राह बणाई सै।’’ उसके बाद कविताएँ  ‘पंजाब केसरी और ‘वीर प्रताप’में छपने लगीं।

राधेश्याम भारतीय:- 1987 में आपका प्रथम काव्य संग्रह ‘बुझी मशालों का जुलूस ’ प्रकाशित हुआ । उसके बाद‘ बूढ़ी होती बच्ची’, ‘आंधियों के खिलाफ’, ‘रास्ता बदलता ईश्वर’ और सद्यः प्रकाशित काव्य संग्रह ‘ नींद में एक घरेलू स्त्री’ आदि काव्य संग्रह। आप अपनी कविताओं के बारे कुछ बताएँ ?

रामकुमार आत्रेय-इन संग्रहों में संकलित कविताएँ  मेरी अपनी अनुभूतियॉँ हैं और अनुभूतियाँ कभी असत्य नहीं होती । बचपन से ही इतनी विपदाएँ , विषमताएँ  एवं कटुताएँ  झेली कि मैं यथार्थ का पुजारी होते हुए भी अपने आपको भावुकता में डूबने से बचा नहीं पाया। एक बात स्पष्ट करना चाहूँगा कि भावुकता के आवेश में चाहे मेरा मन आकाश में उड़ता रहा हो लेकिन अपने पाँवों को मैंने कभी धरातल से ऊपर नहीं उठने दिया। इसलिए इस धरती का दर्द, धरती पर ‘धरती’बनकर जीने वाले लोगों का दुखदर्द भी मेरा अपना ही दुख दर्द रहा है । इसी दुख दर्द को मैंने अपनी वाणी देने का प्रयत्न किया है । मैं नहीं जानता कि मैं कहाँ तक सफल हुआ हूँ । संभवतः एक यही कारण है कि मेरी ये कविताएँ  बिना किसी आडम्बर के सीधी-सरल भाषा में लिखी गई हैं । हो सकता हो इसीलिए इन पर सपाट-बयानी का आरोप लगाया जाए। मात्र कला के नाम पर लिखी गई कविताओं में भाषा की जटिलता और सर्वथा अप्रचलित बिम्बों की बोझिलता एक गुण हो सकती है, लेकिन दुख-दर्द की भाषा किसी आडम्बर की मुहताज नहीं होती। फिर मैं तो उस कविता को कविता नहीं मानता जो पाठक को दण्ड पेलने पर भी उसकी समझ में न आए।

राधेश्याम भारतीय:- आप लघुकथा लेखक के रूप में भी अपनी एक विशेष पहचान रखते हैं? अभी तक आपके चार लघुकथा संग्रह- ‘इक्कीस जूते’ (1993), ‘आँखों वाले अंधे’(1999) ‘छोटी-सी बात’ (2006) और (2011) में बिन शीशों का चश्मा’ प्रकाशित हो चुके हैं। मैं समझता हूँ कि इस विधा पर इतना कार्य हरियाणा में शायद ही किसी ने किया हो। आप लघुकथा बारे बताइए ?

रामकुमार आत्रेय– प्रथम लघुकथा संग्रह ‘इक्कीस जूते ’ हरियाणा साहित्य अकादमी के अनुदान से प्रकाशित हुआ है। लघुकथा का स्तरीय रूप टेढ़ा काम है। जितना इसमें लाघव है उतना ही टेढ़ापन ; जिसे साधना कठिन है। कम से कम शब्दों में ज्यादा से ज्यादा सार्थक बात कहना ही लघुकथा की विशेषता है। लेकिन जब रचनाकार शब्दों से खेलने लगता है और सिर्फ कहन मानकर ही रचना का रूप दे देता है। इससे उसकी गम्भीरता एवं सार्थकता पर आघात पहुँचता है।

इसके बावजूद हिन्दी लघुकथा पर बहुत अधिक कार्य हो रहा है। इसके पीछे पाठकों द्वारा लघुकथा को महत्व दिया जाना है क्योंकि आज पाठक के पास लम्बे-चौड़े उपन्यास या लम्बी कहानियाँ पढ़ने का समय नहीं है। इसलिए वे लघुकथा में ही उपन्यास और कहानी का आस्वादन लेते हैं। आज लघुकथा के क्षेत्र में नए-नए प्रयोग हो रहे हैं, जो उत्साहवर्धक तो हैं ही, भविष्य के प्रति आश्वस्त भी करते हैं। लघुकथा एक अचूक शस्त्र बनकर वर्तमान में व्याप्त बुराइयों पर बड़ी सार्थकता के साथ आक्रमण कर रही है। इस प्रकार लघुकथा का भविष्य उज्ज्वल है। भविष्य में निश्चित ही एक प्रतिष्ठित विधा के रुप में इसका अध्ययन एवं अध्यापन होगा।

राधेश्याम भारतीय:- किसी रचना का आधार क्या होना चाहिए?

रामकुमार आत्रेय– किसी रचना का आधार यथार्थ होना चाहिए । पर, उसमें कल्पना से परहेज नहीं करना चाहिए। यथार्थ-बोध का मतलब यह नहीं है कि कैमरा उठाया और फोटो खींच लिया। यथार्थ यथार्थ लगे इसके लिए सूत्रों के योजक से कल्पना का सहारा लिया जा सकता है। और वह कल्पना से रचना को नीरस होने से बचाया जा सकता है।

राधेश्याम भारतीय:- लघुकथा की शब्द संख्या बारे विद्वानों के विभिन्न मत रहे हैं , आप इस बारे में क्या सोचते हैं?

रामकुमार आत्रेय– कोई रचना शब्दों में नहीं बांधी जा सकती है क्योंकि रचना कोई गणित नहीं होती । गणित की अपनी एक सीमा होती है । रचना संवेदना होती है; भावना होती है और भावना, संवेदना को शब्द सीमा में बांधना उसकी आत्मा को मार देना है। लघुकथा में लघु विशेषण जुड़ा है इसलिए इसमें शब्द सीमा संख्या कम से कम हो। और कम से कम की भी कोई सीमा नहीं हो सकती।

राधेश्याम भारतीय– अच्छा यह बताइए ,आपकी पहली कहानी कब और किस पत्रिका में छपी?

रामकुमार आत्रेय:-वैसे तो मैं कहानियाँ आठवें दशक के मध्य में ही लिखने लगा था। लेकिन वे सभी कहानियाँ  सर्वथा काल्पनिक और भावुकता की चाश्नी में लिपटी होती थीं। आठवें दशक के उत्तरार्ध में एक कहानी ‘टपकती जहरीली लारें’ चंडीगढ़ से प्रकाशित होने वाली जागृति नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। इस कहानी के प्रकाशन से मुझे 50 रूपये पारिश्रमिक के रूप में प्राप्त हुए थे। परन्तु इस कहानी को मैंने बाद में नष्ट कर दिया था क्योंकि यह भी सर्वथा काल्पनिक और भावुकता की चाशनी में लिपटी थी।

राधेश्याम भारतीयः– आप कहानियाँ क्यों लिखते हैं?

रामकुमार आत्रेय:-मेरी अपनी जिंदगी आपदाओं और असफलताओं से घिरी रही है। दुर्भाग्य मुझे हमेशा ठुकराता रहा है इसलिए व्यक्ति के जीवन के अभाव ,उसकी असफलताएँ , उसका दर्द और संघर्ष मुझे आकर्षित करते रहे हैं। किसी भी दुखी व्यक्ति का दर्द अपना बनाकर मैं कहानी के माध्यम से पाठकों तक पहुंचाता रहा हूं। ऐसा करने से मुझे लगता है कि मैंने किसी के दुख दर्द को बंटाकर उसे किसी हद तक कम करने में सहायता की है।

राधेश्याम भारतीय:- अब तक छपी कहानियों में कौनसी कहानी आपको अधिक प्रिय है। क्यों?

रामकुमार आत्रेय:-इस प्रश्न का उत्तर देना बहुत ही कठिन है। मेरी हर कहानी अनुभव की गहन आंच के बीच से निकली है। कहानी लिखने के उपरांत एक लम्बे समय तक मैं उस आंच में तपता रहा हूं। फिर भी प्रश्न का उत्तर यदि देना ही है तो मैं कहूंगा कि ‘आग, फूल और पानी’ कहानी सर्वप्रथम हंस पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। राजेन्द्र जी ने इसे लघुकथा कहकर प्रकाशित किया था। इसी नाम से मेरा एक कथा-संग्रह ‘बोधि प्रकाशन’ जयपुर से प्रकाशित हुआ है। वैसे‘पिलूरे’ कहानी को दैनिक भास्कर की रचना पर्व प्रतियोगिता में तीसरा स्थान प्राप्त हुआ था। और अब तक का सबसे ज्यादा पारिश्रमिक दिलाने वाली यही कहानी है।

राधेश्याम भारतीय-क्या लेखन के कारण आपको व्यक्तिगत जीवन में कभी संघर्ष का सामना करना पड़ा? कोई अविस्मरणीय घटना?

रामकुमार आत्रेय- लेखन की वजह से जीवन में कोई संघर्ष तो नहीं करना पड़ा। परन्तु कहानी लिखते समय मैं पात्रों के साथ इतना अधिक जुड़ जाता हूं कि मैं टेंस हो उठता हूं। कई बार कहानी में सुधार करने के लिए उसे बार-बार लिखना पड़ता है। ऐसे में दुखी होकर उन पात्रों से पीछा छुड़ाने के लिए कहानी को अलविदा कहना पड़ता है। यही कारण है कि वर्ष भर में 2-3 कहानियाँ  ही लिख पाता हूँ।

राधेश्याम भारतीयः- नए कहानीकारों की कुछ उल्लेखनीय कहानियों के साथ कथाकारों के नाम भी बताइए अपनी दृष्टि से?

रामकुमार आत्रेय- मैं हर वर्ष नई से नई पत्रिकाएँ  पढ़ता और देखता रहता था। परन्तु 2008 में आंखों में फंगल इंफैक्शन हो जाने पर मेरी बाईं आँख को हटकार उसकी जगह नई आँख लगाई गई। लेकिन मेरी देह ने इसे स्वीकार नहीं किया। और फलतः 6’6 देखने वाली आँख एकदम अंधेरे में बदल गई। चिकित्सकों के अनुसार फंगल इंफैक्शन को तो निकाल दिया पर वे दृष्टि को नहीं बचा सके। दाईं आँख में लैंस डालकर उसे धूंप-छांव देखने के लायक बनाया गया। परिणाम यह हुआ कि मेरा पढ़ना पूरी तरह से बंद हो गया। अब मैं दूसरों की दया पर आश्रित हूँ। थोड़ा-थोड़ा लिखने का प्रयास अवश्य करता हूं।जो कि काफी कठिनाई भरा एवं मंहगा पड़ता है। अतः नए कहानीकारों की कहानी सिर्फ एक आध ही सुन पाता हूं। वैसे संजीव, उदय प्रकाश, स्वदेश दीपक, राकेश वत्स और बहुत से रचनाकार है जिनकी कहानियाँ  मुझे यदा-कदा कचोटती रहती हैं।

राधेश्याम भारतीयः– कहानियों में कथ्य और कलात्मक संतुलन की कोई सीमा तय होनी चाहिए या कहानी कथ्य प्रधान होनी चाहिए?

रामकुमार आत्रेय:-कहानी बिना कथ्य के तो लिखी ही नहीं जा सकती। कथ्य होगा तो कहानी होगी। लेखक कथ्य में जितना अधिक डूबकर लिखेगा, उतना ही कथारस उस रचना में उत्पन्न होगा। कथारस की उत्पत्ति के साथ-साथ कलात्मकता अपने आप उसी में गुंथकर प्रकट होती रहती है। सच कहूं तो मैं कलात्मकता के विषय में ज्यादा कुछ जानता नहीं हूं। सिर्फ कहानी कहने की कोशिश करता हूं। जिसे कभी-कभी पाठक पसंद भी कर लेते हैं। यहाँ मैं आठवें दशक में दैनिक पंजाब केसरी में प्रकाशित मेरी एक कहानी का जिक्र करना चाहूंगा। दुर्भाग्यवश उस कहानी का नाम मैं स्मरण नहीं कर पा रहा हूं। लेकिन मेरी अपनी जिंदगी में पहली बार उस कहानी पर पचास प्रशंसा पत्र प्राप्त हुए थे। एक पत्र उस समय लुधियाना शहर की महिला नगर पार्षद का भी था। पत्र लिखते समय वह इतना रोई थी कि आंसू की बूंदें पत्र के अक्षरों को फैला गई थी। उसका नाम तो मैं नहीं लूंगा लेकिन उसने कहा था कि यह कहानी मैंने उसकी असली जिंदगी से चुराई है। बाद में मैंने इस कहानी को भी नष्ट कर दिया क्योंकि वह भी भावुकता के आवेश में लिखी गई थी। कहानी की लोकप्रियता मेरे लिए कलात्मक संतुलन है। लेकिन कहानी सामाजिक सरोकारों से जुड़ी होनी चाहिए।

राधेश्याम भारतीय:- आत्रेय जी, आपने हरियाणवीं बोली में साहित्य रचा है उसके बारे बताएँ  ?

रामकुमार आत्रेय: हरियाणवी भाषा में एक दोहा संग्रह ‘ सच्चाई कड़वी घणी’ प्रकाशित हो चुका है। दैनिक ट्रिब्यून में खरी खोटी के नाम एक स्तम्भ रविवार को प्रकाशित होता था जिसमें उस स्तम्भ की समाप्ति पर स्तभ से मिलता-जुलता हरियाणवी भाषा में एक चुटकला दिया जाता था। अपनी बोली में बात कहने का आनंद ही कुछ और है। 

राधेश्याम भारतीय – आत्रेय जी अन्य राज्यों में उनकी क्षेत्रीय भाषा में साहित्य प्रचुर मात्रा में है परन्तु हरियाणा में इसकी कमी दिखाई पड़ती है क्यों?

रामकुमार आत्रेय: इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि किसी भी सरकार ने हरियाणवीं को महत्व नहीं दिया। स्वाभाविक बात है कि साहित्यकार भी उसी भाषा की ओर आकर्षित होते हैं जिससे सरकार महत्व देती हो। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि उसी भाषा में पुस्तक लिखने, छपवाने का लाभ होता है जिसे सरकारी आश्रय मिला हो। जब तक हरियाणा पंजाब संयुक्त थे तब तक किसी भी मुख्यमंत्री ने इस ओर ध्यान देना उचित न समझा। हरियाणा बनने के बाद अखबारों तथा सरकारी पत्रिकाओं ने हरियाणवीं रचनाओं को सिर्फ दिखावे के लिए मामूली-सा स्थान देना शुरू किया, इसलिए हरियाणवीं भाषा में काफी मात्रा में साहित्य नहीं रचा गया। दूसरे राज्य की बोलियाँ  जिन्हें भाषा के रूप में 8वीं अनुसूची में स्थान प्राप्त है वहीं उन भाषाओं में साहित्य लिखा जा रहा है। अपनी हरियाणवीं को भी 8वीं अनुसूची में लाने के प्रयास हो रहे है उसका असर अवश्य दिखाई पड़ेगा।

राधेश्याम भारतीय:-आत्रेय जी, आपने बच्चों के लिए ‘ भारतीय संस्कृति की प्रेरक कहानियाँ ‘ ‘समय का मोल’ और ‘परियाँ  झूठ नहीं बोलती’ और ‘ठोला गुरू’ आदि पुस्तकें अपने बाल पाठकों को दी है। बाल साहित्य की रचना करते समय हमें किन बातों का ध्यान रखना चाहिए ?

रामकुमार आत्रेयः– बाल साहित्य में रचना करते समय भाषा की सरलता, सबसे महत्वपूर्ण बात है। मतलब बच्चे के मानसिक विकास के अनुसार भाषा का उपयोग होना चाहिए। रचनाएँ  रोचक हो और इसके साथ-साथ ज्ञानवर्धक भी होनी चाहिए। रचनाकार के द्वारा सीधे उपदेश झाड़ने की आदत से बचना चाहिए। आज कम्प्यूटर का युग है तो लेखकों को नई-नई जानकारी के साथ बाल साहित्य की रचना में आना चाहिए।

राधेश्याम भारतीय:- साहित्यकारों द्वारा आत्मकथा लिखी जाती रही है आप भी अपनी आत्मकथा लिखिए न?’’

रामकुमार आत्रेय: अरे भाई! हम इतने बडे़ साहित्यकार नहीं हैं। अभी तो बहुत कुछ करना बाकी हैं। आत्मकथा तो महान साहित्यकार लिखते हैं ।

राधेश्याम भारतीय:- आत्रेय जी, आप एक प्राथमिक शिक्षक से लेकर प्रधानाचार्य के पद पर रहकर बड़ी ही कर्तव्यनिष्ठा से अघ्यापन कार्य किया है और आपके पढ़ाएँ  विद्यार्थी जो ज्यादातर उन्हीं के गॉव (करोड़ा, जिला कैथल ) के हैं, जो उच्चपदो पर विराजमान हैं। इसके बावजूद आप खुद को साक्षर मात्र मानते हैं। क्यों ?

रामकुमार आत्रेय: राधेश्याम जी, इंसान सारी उम्र सीखता है। मैं भी सीख रहा हूँ। और अन्त तक सीखता रहूँगा। अब भला सिखने वाला खुद को शिक्षित कैसे मान सकता है। और बात पढ़ाएँ  छात्रों का उच्च पदों पर सेवा करना तो, मैंने कर्म को पूजा समझकर किया है। मैंने कभी नहीं चाहा कि दुनिया मेरे काम की तारीफ करें। मैं निस्वार्थ भाव से अपने काम में लगा रहा। मैं समझता हूँ अब मेरे कर्म का फल मुझे मिल रहा है क्योंकि जब मेरा पढ़ाया कोई विद्यार्थी मेरे पास आकर कहता है कि गु रुजी मैं इस पद पर कार्य कर रहा हूँ तो आत्मिक सुख का अनुभव होता है। मैं तो इतना ही कहूँगा कि हर शिक्षक को मन लगाकर पढ़ाना चाहिए ,क्योंकि उनके पढ़ाएँ  विद्यार्थी ही देश के सच्चे नागरिक बनेंगे, वे राष्ट्र का नाम रोशन करेंगे और उनका भीे। एक शिक्षक के लिए यही सबसें बड़ा पुरस्कार होगा।

राधेश्याम भारतीयः– आप साहित्य से जुड़े रहे हैं ,कोई ऐसी साहित्यिक घटना जो आपकों बार-बार याद आती हो ?

रामकुमार आत्रेयः-‘‘ नहीं, ऐसी तो कोई खास नहीं पर, एक बार अपनी नासमझी कहँू या अप्रत्याशित होने के कारण यादगार बनी। मेरी एक कविता ‘मुफ्त में ठगी’ ‘अक्षरपर्व’ पत्रिका में प्रकाशित हुई । वह कविता केरल में पढ़ी गई । उस कविता में क्या ताकत थी कि एस.सी. ई. आर.टी की तत्कालीन निर्देशिका ने उस कविता को पढ़ा, समझा और दसवीं कक्षा के पाठ्यक्रम में प्रकाशित करने की अनुमति चाही। लेखक तो चाहता यही है कि उसकी रचना का आस्वाद अधिक से अधिक पाठक ले और मैंने अनुमति प्रदान कर दी। महीने भर में ही उनका फोन आया कि आप फाइव थाउजैंड़ की पावती रसीद भेजे। मैने कहा, मैडम मैं पॉच सौ रूपये की रसीद भेज देता हूँ। उन्होंने पुनः कहा, पाँच सौ की नहीं; फाइव थाउजैंड यानी पॉच हजार की। यह सुनकर एक बार तो मुझे विश्वास ही नहीं हुआ कि मेरी एक रचना के पॉच हजार मिल रहे हैं पर विश्वास करना पड़ा। यह घटना मुझे अक्सर याद आ जाती है……..’’

राधेश्याम भारतीय: आपकी नेत्रदृष्टि आपका साथ छोड़ गई हैं ऐसे में आपका लेखन कार्य कैसे चलता है ?

रामकुमार आत्रेय: नेत्रदृष्टि जाने के बाद लेखन कार्य में बड़ी बाधा आती है। जब मेरे मन काव्य संबंधी विचार उमड़ते हैं तो मैं कागज पर टेढे़-मेढे़ रूप में लिख लेता हूँ और बाद में अपने पोते विकास से उन्हें लेखनीबद्ध करा लेता हूँ।

राधेश्याम भारतीय:- नव लेखकों के लिए कोई संदेश ?

रामकुमार आत्रेय- वे अधिक से अधिक पढ़े और निरन्तर लिखते जाए। साहित्यकार बनने का कोई शॉर्टकट नहीं है। साहित्य साधना की मांग करता है। और जो साधना करते हैं वे जीवन में अवश्य सफल होते हैं।

गुरुवार, 28 नवंबर 2019

आदर्श और यथार्थ के पलड़े में लघुकथा

शिक्षाविद एवं लघुकथा चिंतक डॉ. लता अग्रवाल से विख्यात कथाकार सन्दीप तोमर की खास बातचीत



डॉ. लता अग्रवाल, वर्तमान में एक जाना-माना नाम है, वे किसी परिचय की मोहताज नहीं है, विविध विषयों को लेकर उनका चिंतन परख लेखन हमारे सम्मुख है । लता जी ने शिक्षा एवं साहित्य की विभिन्न विधाओं पर लगभग सभी वर्गों पर मूल्य परख लेखन समाज को दिया है, यही कारण है कि पाठक समाज में उनका एक विशिष्ट स्थान है । लघुकथा की बात करें तो वे काफी पहले से लघुकथा से जुड़ी हैं, उनके लघुकथा लेखन में भले ही बीच में ठहराव आया हो मगर चेतना में लघुकथा सदा रहीं हैं । एकल विषयों को लेकर संग्रह रचना उनकी विशेषता रही है, चाहे कविता हो, कहानी हो, बाल साहित्य हो या फिर लघुकथा । नारी विमर्श , बाल मनोविज्ञान, पौराणिक सन्दर्भ, किन्नर समाज आदि विषयों पर उनका एकल लघुकथा लेखन रहा है। इसके साथ ही नव लेखक समाज को लघुकथा के सही स्वरूप से अवगत करने हेतु वरिष्ठजनों से साक्षात्कार को लेकर (लघुकथा का अन्तरंग) आपका अभूतपूर्व कार्य हुआ है ।

वरिष्ठ कथाकार सन्दीप तोमर ने डॉ. लता अग्रवाल से लघुकथा पर चर्चा की और कुछ प्रश्न जो उनके मानस में हलचल किये हुए थे लताजी से किये। पाठको के लिए प्रस्तुत हैं, बातचीत के अंश।


डॉ. लता अग्रवाल – सन्दीप जी ! अब तक मैंने लघुकथा को लेकर कई साक्षात्कार किये हैं, अब साक्षात्कार देने का अनुभव कर रही हूँ ।



सन्दीप तोमर – चलिए पहला प्रश्न यहीं से लेता हूँ, आपने लगभग २० लघुकथाकारों से केवल लघुकथा को लेकर अलग-अलग प्रश्न किये, मेरे ख्याल से ४५० से ऊपर प्रश्न होंगे, वाकई अद्भुत है ...कैसे कर पाई आप यह?

डॉ. लता अग्रवाल – आपने ठीक कहा, लघुकथा को लेकर लगभग २० साक्षात्कार वह भी सबसे अलग-अलग प्रश्न करना यह चुनौती मैंने स्वयं अपने लिए ली। मुझे अच्छा लगता है खुद को चुनौती देना... इससे आप अपनी क्षमता को पहचान पाते हैं। यह कार्य मेरे लिए बहुत रोमांचक रहा। चलते-फिरते लघुकथा आँखों के आगे नाचती, कोई लघुकथा पढ़ती तो उसे उलट-पलटकर उसके बारे में सोचती और प्रश्न बनाती।

सन्दीप तोमर – आपको क्यों लगा कि आपको इस चुनौती को लेने की आवश्यकता है?

डॉ. लता अग्रवाल – बहुत अच्छा सवाल है संदीप जी, इसकी शुरुआत किसी पूर्व योजना के तहत नहीं हुई, बस यहाँ देखा कि लघुकथा को लेकर बहुत घालमेल हो रहा है। लेखकों में समझ का अभाव है, उन्हें सही मार्गदर्शन नहीं मिल रहा। ऐसे में अगर मैं कहती हूँ कि यह उचित नहीं है तो बात किसी को समझ नहीं आएगी, कारण-मैं कोई मठाधीश नहीं या अपने पर कोई विशिष्टता का लेबल लगाकर नहीं चलती। हमारे देश को आदत है कोई वरिष्ठ कहे तो बात जल्दी गले उतर जाती है। जैसे कोई साधारण व्यक्ति कहे बच्चों को पोलियो से बचाने के लिए पोलियो टीका जरुर लगवाना चाहिए तो असर नहीं होता ...अमिताभ बच्चन यदि यही बात कहें तो लोग आसानी से समझ जाते हैं ।

मेरे मन में कहीं न कहीं पीड़ा थी कि विधा के सही रूप से पाठक अवगत नहीं हो पा रहा है। अत: मैंने लघुकथा के क्षेत्र में अमिताभ (बुध्दियुक्त, कांतिवान) के माध्यम से बात पहुँचाने का सहारा लिया। जिसके लिए अगर कहूँ कि प्रश्न बनाने में अपने दिमाग को निचोड़ दिया। मुझे वरिष्ठ जनों का सहयोग भी मिला। तब मकसद सिर्फ यही था कि यह बात पाठकों तक पहुँच जाय, कभी सोचा नहीं था कि यह इस तरह संग्रह का आकार लेगा।

सन्दीप तोमर – तो पाठकों की क्या प्रतिक्रिया रही?

डॉ. लता अग्रवाल – मुझे इन साक्षात्कारों का बहुत अच्छा प्रतिसाद मिला पाठकों, प्रकाशकों और अपने वरिष्ठ जन जिन्होंने अपने विचार साक्षात्कारों में रखे हैं सभी ने विशेषकर प्रश्नों की खुलकर प्रशंसा की। सभी महत्वपूर्ण, प्रतिष्ठित पत्रिकाओं ने साक्षात्कार को स्थान दिया। लगभग सभी साक्षात्कार पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आप इसी से अंदाजा लगा सकते हैं

सन्दीप तोमर – इसके आलावा लघुकथा पर आपके कई संग्रह भी आ चुके हैं, वह भी विशिष्ट विषयों को लेकर, कुछ इस बारे में बताइए? आप एक ही विषय पर इतना कैसे लिख लेती हैं?

डॉ. लता अग्रवाल – वही बात दोहराऊँगी, चुनौती, मुझे हमेशा से नया काम करने में रूचि रही है, प्रोफेसर हूँ इसलिए भी नवाचार मेरा शौक है। अपने लघुशोध और पी-एचडी के विषय भी मैंने एकदम नये लिए, जिसमें मैं पहली शोध छात्रा रही हूँ। लेखन हेतु मेरे पास सिर्फ वह लेखक और उनका साहित्य ही उपलब्ध था जिस पर मुझे कार्य करना था। जब मैं किसी विषय को लेखन के लिए उठाती हूँ तो उसकी गहराई में चली जाती हूँ उसे चारों और से उलट-पलट कर रेशे निकलती हूँ इस तरह विषय को लेकर काफी साहित्य मेरे पास एकत्र हो जाता है। जब मैंने देखा लघुकथा में नारी विमर्श, बाल मनोविज्ञान, पौराणिक संदर्भों को लेकर अब तक कोई एकल संग्रह नहीं आया है तो मैंने उस दिशा में अपना प्रयास किया, आगे भी ऐसे प्रयास जारी हैं।

सन्दीप तोमर – हमारी शुभकामनायें हैं लता जी ! आप लघुकथा से एक लम्बे समय से जुड़ी रही हैं, लघुकथा के विकासक्रम पर भी कुछ प्रकाश डालिए।

डॉ. लता अग्रवाल – लघुकथा को न समझते हुए १९८७ में मैंने कालेज की पत्रिका (प्रत्यंचा) में एक छोटी सी नैतिक मूल्य परख कहानी लिखी थी, जिसे आज मैंने मानवेत्तर लघुकथा की कसौटी पर खरा पाया। फिर रुक-रुक कर कार्य हुआ। लघुकथा के विकासक्रम की बात करें तो यह इतिहास काफी प्राचीन है जिसे आदरणीय डॉ. शकुंतला किरण जी ने अपने शोध ग्रन्थ में उल्लेखित किया है, उपनिषद, पुराणों, हितोपदेश, जातक कथाओं आदि में हमें लघुकथा देखने को मिलती है, जिसे आज का लघुकथाकार वर्ग स्वीकार नहीं कर रहा किन्तु मैं मानती हूँ वह लघुकथाएँ हैं । बस उनके विषय और प्रस्तुति उनके युगानुरूप थी आज के विषय और प्रस्तुति आज के अनुसार है। बल्कि विषय की गहराई में अगर आप जायेंगे तो पायेंगे विषय वही हैं, क्योंकि मानव जीवन की प्रवृत्तियां वही रहती हैं, सत्य बदलता नहीं है। फिर १९७०-७१ से लघुकथा का आधुनिक दौर आरम्भ हुआ जो महज एक दशक तक ही चला। लघुकथा  के स्तर में गिरावट और अन्य विधाओं के वर्चस्व से लघुकथा में यह समय संक्रांतिकाल रहा । अब फिर २०१०-१२ से लघुकथा अपने अस्तित्व की लड़ाई को जीतकर हाशिये से ऊपर उठने का प्रयास कर रही है। जिसे साहित्य जगत में स्वीकृति मिल रही है। लघुकथा ने अपना एक विस्तृत पाठक वर्ग तैयार किया है।

सन्दीप तोमर – क्या कथा के संक्षिप्तीकरण को लघुकथा कहा जा सकता है, आजकल बहुत सी रचनाओं में कथा का संक्षिप्त रूप दिखाई देता है ऐसे में ये भ्रम उत्पन्न होता है कि ये लघुकथा है भी या नहीं?

डॉ. लता अग्रवाल – सही कह रहे हैं आप, आज लघुकथा को लेकर जो भीड़ उमड़ी है उसमें इस तरह के प्रसंग अक्सर सामने आ रहे हैं। आप तो स्वयं शिक्षक हैं समझ सकते हैं, जिस तरह (आरम्भ) और (प्रारम्भ) शब्द दोनों एक से दीखते हैं मगर दोनों में अंतर है वे कभी एक नहीं कहे जा सकते। ठीक उसी प्रकार कथा और लघुकथा कभी एक नहीं हो सकतीं, दोनों विधाओं की कसौटी अलग है। जब कोई कथा अपने एकल विषय को पार कर दूसरे विषय की परिधि में प्रवेश करती है, उद्देश्य से भटकती है, समझाइश की ओर जाती है समझिये वह कथा में प्रवेश कर रही है।

सन्दीप तोमर – लघुकथा के कथानक और कहानी के कथानक में क्या अंतर है?  क्या कहानी के कथानक पर भी लघुकथा लिखी / कही जा सकती है?

डॉ. लता अग्रवाल – बहुत सीधी सी बात है कथानक, विषय, लक्ष्य, पात्र, आकार को लेकर लघुकथा की अपनी सीमाएँ हैं, आप उसकी अनदेखी नहीं कर सकते। जबकि कहानी में आप अपनी इच्छा अनुसार प्रसंग, पात्र, कथानक का विस्तार दे सकते हैं। दूसरे शब्दों में कहूँ तो लघुकथा आपको ऊंगली पकड कर जिन मार्गों पर चलने का संकेत करेगी आपको उन्हीं मार्गों का अनुसरण करना है जबकि कहानी आपको स्वच्छंद विचरण करने को छोड़ देती है। आप जिस भी मार्ग का अवलोकन, अनुसरण करना चाहें कर सकते हैं।

क्या कहानी के कथानक पर भी लघुकथा लिखी जा सकती है ...? मैं कहूँगी हाँ, कई कहानियों में ऐसा हो सकता है, अगर लेखक में वह कौशल है तो वह कथा से लघुकथा निकाल सकता है। बशर्ते वह लघुकथा के सभी पक्षों से भली–भांति परिचित हो।

सन्दीप तोमर – लघुकथा में अंत कैसे किया जाना चाहिए क्या इसके लिए कोई नियम है? सुखांत या दुखांत में से किसे अधिक महत्वपूर्ण कहा जा सकता है? क्या नकारात्मक अंत की कथा को बेहतर नहीं माना जाता? लघुकथाकारों की इस बारे में क्या राय है?

डॉ. लता अग्रवाल – आपने एक साथ चार प्रश्न किये हैं, क्रमश: उत्तर देती हूँ,

← वस्तुत: लघुकथा में अंत करने का कोई नियम नहीं है, बल्कि लघुकथा की कोई सर्वमान्य नियमावली ही नहीं है, दरअसल यह पंच के लिए आप पूछ रहे हैं न, जिसे अजातशत्रु जी तेजाबी वाक्य कहते हैं। यहाँ मकसद सिर्फ इतना है कि लघुकथा का प्रभाव पाठकों तक पहुँचे। चूँकि लघुकथा आकारगत छोटी होती है अत: जिस उद्देश्य को लेकर लिखी गई है वह चुटीले शब्दों के माध्यम से अगर दिया जाय तो हम समझते हैं पाठक पर असर करता है। मैं समझती हूँ यह काम भाव भी कर सकते हैं, अगर आपके भावों में वह सम्वेदना है तो भी लघुकथा प्रभावोत्पादक होगी। आप प्रेमचन्द जी की लघुकथा को देखिये कहीं तेजाबी वाक्य नहीं है फिर भी पाठक को आकर्षित करती है ।

← सुखांत और दुखांत लघुकथा के दो पहलू हैं, जो कथा की माँग के अनुसार आते हैं। दोनों का अपना महत्व है जिसे नकारा नहीं जा सकता। आज सकारात्मकता पर अधिक बल दिया जा रहा है जिसके चलते लघुकथाएँ  जीवन से परे होकर आदर्शवाद की ओर प्रवेश कर रही हैं जो लघुकथा के हित में नहीं है।

← किसे महत्वपूर्ण कहा जाय इस सम्बन्ध में अधिकतर लघुकथाकारों की राय सकारात्मकता की ओर है। किन्तु मेरा निजी मत है कि दुखांत लघुकथाएँ पाठकों को अधिक प्रभावित करती है कारण दुःख, सम्वेदना ही लोगों को परस्पर जोड़ते हैं  ।

सन्दीप तोमर – बहुत से लोग लघुकथा के आकार को लेकर संशय में हैं, लघुकथा के आकार को लेकर क्या  कोई निश्चित मापदंड हैं? क्या कोई न्यूनतम और अधिकतम सीमा है?

डॉ. लता अग्रवाल – यह एक ऐसा विवादित प्रश्न है जिसका न कोई हल निकला है न ही निकट भविष्य में हल निकलने की सम्भावना है। कारण- लघुकथा का अपना कोई संविधान ही नहीं है और तब तक नहीं होगा जब तक लघुकथा के शुभचिंतक और बुद्धिजीवी बैठकर इस पर एक मत हो कोई बिंदु न बना लें। अगर अपनी बात करूँ तो लघुकथा की गरिमा उसकी लघुता में ही है आज अपने अनुसार हर कोई उसकी सीमा तय कर रहा है  ५० से लेकर १५०० तक शब्द सीमा जा चुकी है अगर कोई निर्णय न लिया गया तो जल्द ही ये शब्द और आंकड़े पार कर जायेंगे। लेखक का वही तो कौशल है कि वह अपने विचार को २५० से ३०० शब्दों के बीच प्रस्तुत करे, बहुत हुआ तो ५०० ठीक है । इससे आगे अगर आपको जाना है तो लघु कथा है, कहानी है।

सन्दीप तोमर –कुछ लोगों का मानना है कि लघुकथा में मारकता होनी चाहिए? ये मारकता क्या बला है  और क्यों जरुरी है ? (यदि है तो)

डॉ. लता अग्रवाल – इससे सम्बन्धित जवाब ऊपर दिया है, और स्पष्ट कर दूँ, मारकता से मतलब जिसमें प्रहार करने की क्षमता हो, क्योंकि शब्दों को तलवार के समकक्ष कहा गया है। यह मारकता व्यक्ति के सोये जमीर पर प्रहार कर उसे मानवता की राह दिखाए। जब कभी हम भ्रष्टाचार, किसी बालक या स्त्री के साथ हुई कई घटना पढ़ते हैं मगर कोई घटना होती है जो हमें अंदर तक छू जाती है, यदि हमसे भी कभी कोई ऐसी गलती हुई है तो उस घटना को पढने के बाद हम यह तय करते हैं इस घटना से उस व्यक्ति को इतनी पीड़ा हुई ...अब हम कभी ऐसा व्यवहार नहीं करेंगे। यह है शब्दों की मारकता ।


← क्यों आवश्यक है, साहित्य का उद्देश्य है विसंगति को मिटाना, शब्दों के मारक प्रभाव से पाठक के भीतर बैठी बुराई का अंत करने के लिए मारकता की आवश्यकता महसूस की गई है।

सन्दीप तोमर - लघुकथा के विषय को लेकर इसके प्रारंभ से ही संशय बना रहा है, क्या विषय चयन के लिए भी कोई विशेष नियम है? या कुछ विषयों का लघुकथा में प्रतिबन्ध है? अगर ऐसा है तो पाठको/श्रोताओं को इससे अवगत कराएँ..

डॉ. लता अग्रवाल – विषय के चयन को लेकर कोई नियम नहीं है बल्कि अछूते / उपेक्षित विषयों पर काम हो रहा है और होना ही चाहिए । लेखक के लिए कोई विषय अछूता हो ही नहीं सकता। हमारा सम्पादित संकलन ‘किन्नर समाज की लघुकथा’ इस बात का प्रमाण है। यह लेखक को तय करना है कि वह अपनी लघुकथा को कितना समाजोपयोगी बना सकता है, वह विषय चुने। क्योंकि केवल और केवल समाज से जुड़ा साहित्य ही जीवित रहता है।

साहित्य समाज का आइना होता है, पुरानी कहावत है और आईने का स्वभाव है जो जैसा है वैसा ही प्रतिबिम्ब दिखाना। इस नाते समाज में जो भी घट रहा है चाहे वह शुभ हो, चाहे अशुभ, लेखन का विषय हो सकता है। बस लेखक को यह संज्ञान में रखना है कि उसका प्रस्तुतिकरण ऐसा न हो कि अशुभ में और अशुभ हो जाय। लेखक का एक रूप समाजशास्त्री का भी होता है यह बात स्मृति में रखनी चाहिए। हम देखते हैं आज बाल यौन हिंसा नित अख़बारों, टेलीविजन की खबर बनी हुई है। जन-जाग्रति के लिए यह बात सूचनार्थ तो ठीक है किन्तु दिन भर उस न्यूज को टेलीविजन की सुर्ख़ियों में रखना... यह तो बलात्कार का भी बलात्कार हुआ न। यह सावधानी बहुत आवश्यक है।

सन्दीप तोमर – आपकी बात से सहमत हूँ। शैली की बात करूँ तो लघुकथा में कौन-कौन सी शैली प्रचलन में हैं? क्या कुछ विशेष शैली का आ जाना लघुकथा को अधिक प्रभावी बनाता है या फिर कथाकार स्वयं की शैली को अपनाने या विकसित करने के लिए स्वतंत्र है?

डॉ. लता अग्रवाल – लघुकथा में अधिकतर लेखन परम्परागत ही होता रहा है, कम लोग ही हैं जो लीक से हटकर जाने का प्रयास करते हैं कारण एक भय समाया है यदि हमने लीक से हटकर लिखा तो कहीं हमारी लघुकथा / साहित्य को ख़ारिज न कर दिया जाय।

निश्चित ही नई शैलियों का आना लघुकथा के लिए शुभ संकेत है। क्योंकि साहित्य में समकालीनता को देखते हुए बदलाव अपरिहार्य है। नवीन लघुकथाकारों में कुछ लघुकथाकार हैं जो इस दिशा में प्रयास कर रहे हैं उन्हें सराहा जाना चाहिए, शोभना श्याम, संध्या तिवारी, महेश शर्मा, कुमार गौरव, उपमा शर्मा, चित्रा राणा, अनुराधा सैनी आदि के अलावा और भी कई लघुकथाकार हैं जिनके साहित्य तक मैं नहीं पहुँच पाई हूँ लघुकथा में नवाचार कर रहे हैं। लघुकथा में नवाचार की चुनौती को स्वीकार करना होगा तभी इसमें नवीनता आएगी। नवीनता ही विधा में रोचकता और जीवन्तता लाती है।

हाल ही में एक चुनौती मैंने स्वीकार करते हुए अपने नवीनतम लघुकथा संग्रह ‘गांधारी नहीं हूँ मैं’ में पौराणिक सन्दर्भों को आधुनिक सन्दर्भ से जोड़ते हुए लगभग 27 से 28 शैलियों का प्रयोग किया है। मुझे लगता है यह अपने आप में नवीन प्रयोग है। देखना है पाठकों का कितना प्रतिसाद मिलता है।

सन्दीप तोमर – आपका प्रयास अवश्य सफल होगा, शुभेच्छा । वर्तमान समय की लघुकथाओं को देखकर मन में सवाल उठता है कि समाचार वाचन / लेखन,  रिपोर्टिंग, विवेचना से लघुकथा किस प्रकार भिन्न है?

डॉ. लता अग्रवाल- समाचार वाचन, वाचिक परम्परा का हिस्सा है, लेखन का क्षेत्र विस्तृत है, रिपोर्टिंग किसी घटना का शब्दों के माध्यम से चित्र उकेरना है, विवेचना किसी घटना / स्थिति का ओपरेशन कर शब्दों के माध्यम से उसका प्रस्तुतीकरण करना है। लघुकथा निःसंदेह जीवन से आती है मगर किसी अनुभव या घटना को रोचक तरीके से कथ्य में बांधकर, कुछ काल्पनिक पात्र निर्मित कर, एक उद्देश्य तय कर, उनके माध्यम से अपने विचारों को प्रस्तुत करने की विधा है लघुकथा।

जो समाचार पढ़ा जाये, जो लेखन किया जाय, जो रिपोर्टिंग की हो, जो विवेचना की गई है उनके कई उद्देश्य हो सकते हैं, आवश्यक नहीं कि सुनने वाले अथवा पढ़ने वाले को वो प्रभावित करें या उनका उद्देश्य उन तक पहुँचे। न पहुँचने पर उस विधा पर कोई फर्क भी नहीं पड़ेगा, मगर लघुकथा यदि पाठक के अंतर्मन तक नहीं पहुँची, अपने उद्देश्य की पूर्ति नहीं कर पाई तो वह लघुकथा असफल मानी जाएगी।


सन्दीप तोमर –   क्या हर एक घटना जो रचनाकार के इर्द-गिर्द घटित हो रही है, उस पर लघुकथा लिखी / कही जा सकती है या रचनाकार को विशेष घटना का इन्तजार करना चाहिये?

डॉ. लता अग्रवाल- देखिये, लिखने को इन्सान कुछ भी लिख सकता है जैसे- शादी हाल में दूल्हा-दुल्हन बैठे थे, लोग उन्हें लिफाफे देकर जा रहे थे। एक बच्चे ने लिफाफे उठाये और चलता बना। उसे पकड़कर पूछा गया कि उसने ऐसा क्यों किया? , बच्चे का जवाब था, ’मुझे टॉफी खाना है’ अब बताइए इससे तो लघुकथा का साहित्य समृध्द नहीं होगा न?

सच यह है कि हमें ऐसे लेखन से बचना चाहिए। अगर हम चाहते हैं हमारी लघुकथा / साहित्य की उम्र लम्बी हो तो हमें विषय भी ऐसे ही चुनने होंगे।

सन्दीप तोमर -  सटीक बात लेकिन फिर सवाल ये होगा कि लघुकथा में व्यंग्य, हास्य या कटाक्ष का क्या स्थान है? क्या ये सब लघुकथा को अधिक प्रभावी बनाते हैं?

डॉ. लता अग्रवाल- व्यंग्य और हास्य का गुण है मनोरंजन उत्पन्न करना, लघुकथा एक गंभीर विधा है कारण इसमें लघुता के कारण ज्यादा भावों की गुंजाइश नहीं है। अत: केवल विषय की माँग को देखते हुए हास्य और व्यंग्य की उपस्थिति हो तो स्वीकार किया जा सकता है किन्तु यदि वह लघुकथा की गंभीरता और उद्देश्य प्राप्ति में भटकाव उत्पन्न करता है तो इससे परहेज किया जाना चाहिए।

१९८० के बाद लघुकथा विधा को जो नुकसान हुआ है उसकी एक वजह यह भी है कि लघुकथा पर हास्य और व्यंग्य हावी हो गये थे। और लघुकथा लघुकथा न रहकर चुटकुला बनकर रह गई थी ।


सन्दीप तोमर – ठीक कहा आपने, अच्छा ये बताएँ कि बोध कथा, प्रेरक प्रसंग इत्यादि को लघुकथा कहा / माना जा सकता है? यदि नहीं तो क्यों?

डॉ. लता अग्रवाल- सन्दीप जी यहाँ मेरा विचार जरा अन्य लोगों से हटकर है। मैं मानती हूँ बोधकथा लघुकथा हैं, उनका लेखन काल जो था वो उस काल की लघुकथा हैं। कारण आकार, प्रकार, पात्र, जीवन के किसी एक उद्देश्य को लेकर ये कथाएं अपने अंदाज में बात करती हैं। वह युग आदर्शवाद का युग था अत: वहां ‘मारक’ जैसे शब्दों को कहीं स्थान नहीं था। बस प्रेम और शांति से बदलाव ही जीवन का लक्ष्य था। बल्कि मैं कहूँगी बोधकथाओं को नकारना ठीक ऐसे, जैसे गंगा को तो हम पूज रहे हैं मगर गौमुख को नकार रहे हैं।

सन्दीप तोमर –एक शब्द बहुत अधिक चर्चा में रहता है-कालदोष, लघुकथा में कालदोष के क्या मायने हैं? क्या लम्बी अवधि में कही गयी कथा को लघुकथा से ख़ारिज किया जा सकता है? इस बारें में क्या नियम हैं कृपया विस्तार से बताइए..

डॉ. लता अग्रवाल- हमने पहले भी चर्चा की कि, प्रत्येक विधा का अपना शास्त्र है, यद्यपि लघुकथा का कोई लिखित शास्त्र नहीं मगर फिर भी इसकी लघुता को देखते हुए इसे क्षण  विशेष की लघुकथा कहा है। ताकि इसकी आकार गत विशेषता अक्षुण्य रहे। अत: एक क्षण विशेष की परिधि से बाहर की कथा को लघुकथा कालदोष से युक्त माना गया है। चूँकि कभी बहुत आवश्यक होने से हमें विगत का भी जिक्र करना पड़ जाता है, तो इसके लिए फ्लैश बैक का प्रावधान लघुकथा में किया गया है। मगर देखने में आ रहा है कि कई जगह इसका दुरूपयोग हो रहा है। लेखक जीवन की पूरी कहानी फ्लैश बैक में लिखकर अंत में उसे एक क्षण में लाकर कह देते हैं लघुकथा। यह ठीक नहीं है। 3-3 पेज की लघुकथाएं जब मैं देखती हूँ तो हैरानी होती है। आखिर लघुकथा ही क्यों ...! आप लघु कहानी लिखिए, कहानी लिखिए ...। अगर मेरा मत जानना चाहते हैं तो बिलकुल ऐसी सामग्री को लघुकथा से ख़ारिज कर देना चाहिए।

सन्दीप तोमर -  क्या आत्मकथ्यात्मक शैली को लघुकथा से बेदखल किया गया है? या फिर लेखक स्वयं पात्र हो सकता है? आपकी क्या राय है?

डॉ. लता अग्रवाल- बेदखल नहीं किया गया है, आत्मकथन शैली में लघुकथा लिखी जा रही हैं। मैंने भी लिखी हैं। वास्तव में आत्मकथ्यात्मक शैली में लेखक के मन के जो भाव हैं उसे वह एक पात्र गढ़ कर उसके माध्यम से कहता है। उसकी स्वयं की उपस्थिति वर्जित है, यानि लेखकीय प्रवेश न हो।

सन्दीप तोमर -    लघुकथा में  बिम्ब, प्रतीक, काव्यात्मक अलंकार, रस तत्व, सशक्त भाव पक्ष इत्यादि का समावेश होना अवश्यमभावी है? इनके बिना लिखी रचना को आप कहाँ रखना पसंद करेंगे?

डॉ. लता अग्रवाल- ये सभी लघुकथा के रा मटेरियल हैं, कच्ची सामग्री, जिनसे लघुकथा रची जाती है। आप चाहें न चाहें यह तत्व किसी न किसी मात्रा में कथा में समाहित रहते ही हैं । इनके बिना रचना सम्भव ही नहीं है।


सन्दीप तोमर – आपकी दृष्टि में ऐसी कौन सी लघुकथा है जिसे आप लघुकथा के मापदंड पर आदर्श लघुकथा मानते हैं और जो आकार में छोटी होते हुए भी कथावस्तु से लेकर, शिल्प, भाषा, संवाद, पात्र,पंच, शीर्षक सभी के मापदंड का समुचित पालन करती हो?

डॉ. लता अग्रवाल- यहाँ कहना कि सिर्फ यही लघुकथा पूर्ण है अव्यवहारिक होगा,  क्योंकि बहुत सी अच्छी लघुकथा लिखी गईं है। और बहुत सी लघुकथाओं से मैं अनभिग्य हूँ। लघुकथा साहित्य का फलक काफी बड़ा है, मैं बहुत अदना सी पाठक हूँ। हाँ ! इतना कह सकती हूँ कि कुछ लघुकथाओं ने गहराई से छुआ है जिनमें अशोक वर्मा जी की ‘संस्कार’ है, गाँव की “पत्नी जब पति से कहती है, ‘गाय हरी होना चाहवै है , पति का जवाब शाम को बाग़ वाले सांड के पास ले जावेगा।  यहाँ पत्नी का चिन्तन शुरू होता है ‘यो पाप अब न होणे दूंगी मैं, कि गैय्या अपने ही सांड बेटे से ..., सामने से उसके पति की जवान सौतेली माँ का प्रवेश।’..... कथा को देखने की दृष्टि जिसके पास है वह जान सकता है पत्नी का अनकहा। लघु आकार में कथाकार ने चरित्र के बहुत बड़े पहलु, समाज के सबसे विध्वंस रूप को जिस सच्चाई से प्रस्तुत किया है, जिसमें बिम्ब भी है, प्रतीक भी , भाषा भी, कथा भी और तेजाबी वाक्य भी। इसी तरह एक लघुकथा है ‘कनस्तर’ लेखक का नाम याद नहीं आ रहा । डॉ. ‘कमल चौपड़ा जी’ की फ्राक...और भी बहुत सी लघुकथाएँ हैं जिनसे प्रेरणा पाकर नई पीढ़ी लिख सकती है ।


संदीप तोमर -  बहुत खूब,  ये बताइए, आपकी पसंदीदा लघुकथा कौन सी है ? उसके लेखक का नाम इत्यादि बताइए और क्यों आप उसे सर्वाधिक पसंद करते हैं?

डॉ. लता अग्रवाल- किसी एक का नाम बताना सम्भव नहीं बहुत सी लघुकथाएं पसंद हैं। इसके लिए मुझे पुन: सभी किताबों को लेकर बैठना होगा क्योंकि ऐसी कोई सूची बनाई नहीं।

सन्दीप तोमर - अच्छा अगर स्वयं की बात करूँ तब...?

डॉ. लता अग्रवाल – (हँसते हुए) आपको जितना पढ़ा उसके आधार पर मेरी राय है- संवेदना के स्तर पर “दूसरी बेटी का बाप” समाज परिवर्तन की दरकार करती है तो “ट्यूशनखोर” और “अच्छाई का गणित” शिक्षा में व्याप्त धांधलियों की कलई खोलती हैं सन्दीप तोमर” आपकी एक लघुकथा कथाक्रम में पढ़ी थी “सिस्टम” जो गरीब तबके की बालिकाओं के दैहिक शोषण का मार्मिक चित्रण करती है। आगे तो एक लम्बी फेहरिस्त हो सकती है।


सन्दीप तोमर -  और आपकी अपनी लघुकथा, जिसे आप सब से अच्छी लघुकथा मानते हैं, और उसका कारण?

डॉ. लता अग्रवाल- वही घिसा पिटा जवाब दूंगी, अपनी कई लघुकथाएँ मुझे पसंद हैं जिनमें ममता, साँझा दुःख, कोठी वाली, हलवाहा, शुक्रिया जनाब, .....ये लघुकथाएं इसलिए पसंद हैं कि इन्हें लिखते हुए स्वयं मेरे समक्ष वह चित्र ऐसे साकार हो गये मानो मैं स्वयं इस वेदना से गुजर रही हूँ।


सन्दीप तोमर – लता जी ,  आजकल विषय या चित्र आदि पर लघुकथा लिखवाने का सोशल मीडिया पर चलन बढ़ा है?  इसे आप कितना उचित मानते हैं?

डॉ. लता अग्रवाल- विषय पर लेखन से लघुकथा में आमद निसंदेह बढ़ी है मगर स्तर नहीं है जो लघुकथा के लिए विकास के मार्ग में बाधा उत्पन्न करता है। एक से विषय में कोई कितनी नवीनता देगा ...?


सन्दीप तोमर -  सही कहा आपने, एक लम्बे समय से लघुकथा में कुछ सीमित और पुराने विषय ही देखने को मिलते हैं - दहेज़ ह्त्या ,बलात्कार, धार्मिक उन्माद, बुजुर्गों की उपेक्षा आदि आदि, इस विषय पर आपके क्या विचार है. क्या इन विषयों पर ही लिखा जाए या फिर नव प्रयोग को आप तवज्जो देंगे?

डॉ. लता अग्रवाल- संदीप जी, अदृश्य लेखन के लिए दिमागी कलम को पैना करना होता है, इंसानी फितरत है जो दिखता है लेखक वह लिखता है क्योंकि यह आसान प्रक्रिया है। इसलिए आपकी बात से इंकार नहीं करुँगी फिर भी कहना चाहूंगी, मैं सोशल मिडिया पर कम रहती हूँ तब भी मैंने देखा है नये और साहित्यिक अभिरुचि के लोग कम ही सही, नये विषय उठा रहे हैं।

सन्दीप तोमर -  जी,  लघुकथा में भूमिका या प्रस्तावना का क्या प्रावधान है? यह कितनी लम्बी या छोटी होनी चाहिये? क्या रचना भूमिका विहीन भी हो सकती है ?

डॉ. लता अग्रवाल- रचना भूमिका विहीन हो सकती है, लघुकथा को भी भूमिका विहीन रचना ही कहा गया है। कारण लघुकथा के गर्भ में कम ही शब्दों की गुंजाईश है। इसलिए लेखक का कौशल यह हो कि वह अपनी कथा का आरम्भ ही ऐसा करे कि कथा की प्रस्तावना स्वत: ही मुखर हो जाये। आज समय भी यही है सीधे अपनी बात कही जाय, ज्यादा लाग-लपेट के साथ कहेंगे तो लोग आपको सुनना पसंद नहीं करेंगे।


सन्दीप तोमर – इसी क्रम में जुड़ा एक और प्रश्न,  आप सम्वाद शैली में लिखी रचना को ज्यादा महत्व देते हैं या विवरणात्मक शैली की रचना को या फिर इन दोनों का मिश्रण ज्यादा सही है?

डॉ. लता अग्रवाल- विवरणात्मक शैली का प्रयोग प्राय: लघुकथा में कम ही होता है। नहीं होता ऐसा भी नहीं है। सम्वाद शैली काफी प्रयोग होती है। स्वयं मेरा प्रथम संग्रह ‘मूल्यहीनता का संत्रास’ में मैंने लगभग इसी शैली का प्रयोग किया है।


सन्दीप तोमर – लता जी, लघुकथा में कथ्य या कथानक तो सीमित ही हैं ऐसे में किसी का एक दूसरे पर रचना चोरी का इल्जाम लगाना भी देखने को मिलता है. अगर घटनाक्रम, परिस्थितियाँ और ट्रीटमेंट भिन्न है तो भी क्या उसे चोरी कहा जाना चाहिए?

डॉ. लता अग्रवाल- सन्दीप जी प्रासंगिक विषय है, मैं बहुत भुक्तभोगी हूँ। कई स्थानों पर यह इल्जाम नहीं सच्चाई है। मेरा मानना है हम एक ही समाज में रहते हैं, परिवेश में भी साम्यता है इसलिए समस्याएँ  समान हो सकती हैं। कटु बात है, मगर हकीकत है कि ईश्वर ने दिमाग और सोचने की क्षमता सबको अलग दी है। आप किसी समस्या को अपनी तरह से सोचेंगे, कोई दूसरा अपने अनुसार सोचेगा। किन्तु जब देखा जाता है लघुकथा का शीर्षक, पात्र, कथा सब कुछ वही, बीच में एक-दो शब्द उल्ट फेर कर दिया, लो जी कथा उनकी हो गई। कई जगह तो साथियों ने वह तकलीफ भी नहीं उठाई बस कापी की, नीचे से नाम काटकर अपना नाम और लघुकथा को अपना बता दिया। अफ़सोस तो यह कि वही आपसे पूछेंगे कि क्या सबूत है आपके पास कि यह आपकी रचना है ...? अब आप जवाब देते रहिये। इसे आप चोरी नहीं तो क्या कहेंगे... अब तो राजनेता भी भाषण चुराने लगे हैं। लगता है इन लोगों को डाक्टर ने प्रिस्क्रिप्शन दिया हुआ है दिन में एक लघुकथा लिखना अनिवार्य है अन्यथा आप फलां रोग के शिकार हो सकते हैं।

हाँ, यदि घटना क्रम एक है और ट्रीटमेंट अलग है तो वह कथा चोरी की नहीं कही जाएगी।


सन्दीप तोमर – आपका कहना ठीक है, एक और महत्वपूर्ण सवाल—पहले शीर्षक तय किया जाए या रचना कर्म से निपटकर शीर्षक पर विचार किया जाए? कौन सा तरीका ज्यादा उचित है?

डॉ. लता अग्रवाल- किसी एक तरीके को स्थायी कहना ठीक नहीं, दोनों ही तरीके हो सकते हैं। कभी हमें अचानक से कोई शब्द ऐसा मस्तिष्क में आता है कि हम उस पर पूरी लघुकथा लिख देते हैं। वहीं कभी पूरी लघुकथा लिख जाने के बाद लगता है इसका यह शीर्षक उपयुक्त होगा।


सन्दीप तोमर – ठीक है, अच्छा इतनी बातें कर लेने के बाद एक अजीब सवाल- लघुकथा का उद्देश्य क्या है? क्या यथार्थ का उद्घाटन या आदर्श की स्थापना?

डॉ. लता अग्रवाल-  लघुकथा का उद्देश्य यथार्थ की राह पर चलकर आदर्श की स्थापना करना है, इसमें कभी आदर्श न भी हो तो चलेगा मगर यथार्थ जुड़ा रहे तो कथा जीवित रहेगी ।

सन्दीप तोमर – आपने लघुकथा को लेकर महत्वपूर्ण जानकारी दी आपका बहुत बहुत आभार ।

डॉ. लता अग्रवाल- अगर हम किसी विधा के लिए कार्य कर रहे हैं तो यह हमारा दायित्व है इसमें आभार कैसा। हाँ ! यह साक्षात्कार मेरे लिए चुनौती अवश्य है ।



संदीप तोमर – चुनौती !! वह कैसे?

डॉ. लता अग्रवाल-  क्योंकि अब तक मैं इस विषय पर कई साक्षात्कार ले चुकी हूँ। किसी के विचार न टकरा जाएँ अन्यथा यह भी चोरी कही जाएगी। सभी के विचारों को दिमाग की हार्ड डिस्क से डिलीट मार कर, एक ईमानदार प्रयास करना चुनौती हुआ न।



संदीप तोमर- जी पुन: आभार । आपने बड़ी सहजता से प्रश्नों के जवाब दिए।

डॉ. लता अग्रवाल-  धन्यवाद ।
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सोमवार, 30 सितंबर 2019

लघुकथा दुनिया ब्लॉग हेतु प्राप्त "ब्लॉगर ऑफ़ द ईयर 2019" का सम्मान मिलने पर मेरा साक्षात्कार


डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी जी 2015 से ब्लॉगिंग कर रहे है। पाठकों की प्रतिक्रियाओं के आधार पर आपको विजेता घोषित किया गया था। पिछले दिनों डॉ. छतलानी जी से साक्षात्कार किया गया था। पेश है साक्षात्कार के प्रमुख अंश-
iBlogger : Blogger of the year 2019 का विजेता का ताज आपको मिला है, जब आपको यह जानकारी मिली तो कैसा लगा?
डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी : ब्लॉगर ऑफ द ईयर 2019 मेरे लिए केवल एक पुरस्कार ही नहीं है वरन सूचना मिलते ही मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि एक स्वप्न साकार सा हुआ। चूँकि यहाँ केवल मैं ही पुरस्कृत नहीं हुआ बल्कि मेरे ब्लॉग को और ब्लॉग से भी बढ़कर उसमें निहित सामग्री उसके विषय ‘लघुकथा’ को यह सम्मान मिला है, इसलिए कुछ संतुष्टि सी भी प्रतीत हुई।
iBlogger : Blogger of the year अवार्ड के लिए सबसे पहले किसे शुक्रिया कहना चाहेंगे?
डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी : सबसे पहले ‘लघुकथा’ विधा को ही धन्यवाद कहूंगा, तत्पश्चात लाइक और कमेंट करने वाले पाठक मित्रों, निर्णायक गणों और iBlogger की पूरी टीम का हृदय से आभार व्यक्त करना चाहूंगा।
iBlogger : क्या आपने नामांकन से पूर्व Blogger of the year 2019 का Winner बनने की कल्पना की थी।
डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी : जी। नामांकन भरते समय यह कल्पना मस्तिष्क में थी, हालाँकि पहली बार ही भाग लिया था, इसलिए सफल हो भी पाऊँगा, यह संदेह भी कहीं न कहीं था।
iBlogger : आपकी नज़र में सफल ब्लॉगर की क्या खूबियां होनी चाहिए। क्या आप स्वयं को भी सफल ब्लॉगर मानते हैं?
डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी : हालाँकि इसमें विभिन्न मत हो सकते हैं, लेकिन इस पर एक मत होना चाहिए कि किसी भी ब्लॉगर को सर्वप्रथम स्वयं के कार्य से संतुष्टि हो। ब्लॉगर की पहली सफलता, मेरे अनुसार उनके द्वारा लिखे गए ब्लॉग की विषय-वस्तु को सही व्यक्तियों तक पहुंचा पाने में है। ब्लॉग लिखने के पश्चात् उसके कंटेंट्स ब्लॉगर के नहीं बल्कि सामान्य जन के स्वामित्व में हो जाते हैं। तब सही व्यक्तियों तक पहुँचने पर ही न सिर्फ ब्लॉग का बल्कि ब्लॉगर की आत्मा (विचारों) का भी मूल्यांकन होता है और उन विचारों की तीक्ष्णता और मस्तिष्क भेदन क्षमता का भी अनुभव हो पाता है। ब्लॉग के वो कंटेंट्स जो उचित व्यक्तियों के मस्तिष्क में स्थायी निवास करने में सक्षम हैं, निःसंदेह ही पूरी तरह सफल भी हैं।
iBlogger :आपके शुभचिन्तकों और पाठकों नेआपका लघुकथा के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान बताया है, आप कितने सहमत है?
डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी : इन दिनों लघुकथा के क्षेत्र में बहुत काम हो रहा है। अन्य सभी के साथ मैं भी प्रयास कर रहा हूँ। यह प्रयास किसी को ठीक लगा तो उनकी भावना मेरे सिर-आँखों पर है। हालाँकि, मेरे अनुसार अभी और भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है।
iBlogger : लघुकथा के अलावा आप किन विद्याओं में ज्यादा लिखते है?
डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी : मैंने कविताओं, कहानियां, हाइकु, पत्र आदि पर भी हाथ आजमाएं हैं। हालाँकि सबसे प्रिय विधा लघुकथा ही है।
iBlogger : आप ब्लॉगिंग के क्षेत्र मे कैसे आये?
डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी : होश संभालने के साथ ही पढ़ने का शौक रहा था, तब किताबें पढ़ता था। कम्प्यूटर में रुचि होने के कारण मैंने कम्प्यूटर सम्बंधित कार्यों को प्रारम्भ किया। उन्हीं दिनों ब्लॉग के बारे में जानकारी प्राप्त हुई। तब से लेकर आज तक ब्लॉग्स का मैं नियमित पाठक हूँ। विभिन्न प्रकार के विषयों में रुचि होने के कारण मुझे अपनी पसंद की हर पुस्तक प्राप्त होना मुश्किल था। ब्लॉग ने मेरे पढ़ने के शौक में बहुत सहायता की। मेरी ब्लॉगिंग की यात्रा ब्लॉग्स पढ़ने से प्रारम्भ हुई।
पढ़ने के साथ-साथ लिखने में भी मेरी रुचि बचपन ही से थी, लेकिन इस रुचि को अपनी शैक्षणिक/ सह-शैक्षणिक गतिविधियों, खेलों और तत्पश्चात नौकरी आदि कार्यों में व्यस्तता के कारण उचित मूर्त रूप नहीं दे पाया। हालांकि फिर समय के साथ पुरानी रुचि पुनः जागृत हुई। लघुकथा विधा का अध्ययन करते हुए मुझे यह प्रतीत हुआ कि इस विधा के लेखकों की कमी नहीं, लेकिन जितने लेखक हैं उतने भी पाठक नहीं, जबकि इस विधा के जरिये अपने विचारों को सीधे पाठकों के मस्तिष्क पर चोट करते हुए दिल में प्रवेश करवाया जा सकता है। साहित्य की इस विधा को इसके उचित पाठको तक पहुंचाने हेतु एक ब्लॉग बनाने का विचार आया और उसे तुरंत ही मूर्त रूप दे दिया। यह ब्लॉग लघुकथा से समाज को जोड़ने हेतु एक प्रयास है।
iBlogger :अब तक के ब्लॉगिंग सफर में किसी परेशानी का सामना करना पड़ा? यदि हां तो वह क्या रही?
डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी : मेरे कार्यालयिक कार्यों के कारण ब्लॉग लेखन में कभी-कभी समयाभाव ज़रूर अवरोध की तरह खड़ा हो जाता है। हालाँकि तब गुरुजनों के समर्पण का स्मरण कर स्वयं को प्रोत्साहित कर ब्लॉग के लिए समय निकाल लेता हूँ।
iBlogger : आपकी अब तक कितनी पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है। क्या उनके बारे में कुछ बतायेंगे?
डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी : अभी तक मेरी कम्प्यूटर विज्ञान की तीन पुस्तकें (मोनोग्राफ) प्रकाशित हुई हैं। इनके अतिरिक्त कुछ साँझा संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं।
iBlogger : आप वर्तमान में ब्लॉगिंग के अलावा क्या कर रहे है?
डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी : मैं एक विश्वविद्यालय में कम्प्यूटर विज्ञान का शिक्षक हूँ। सॉफ्टवेयर और वेबसाइट निर्माण का कार्य भी करता हूँ, शोध में भी रूचि है। इनके अतिरिक्त कम्पयूटर नेटवर्क, कम्पयूटर सिक्योरिटी, सूचना तकनीक, शोध परियोजना प्रस्ताव बनाने, शोध परियोजना के कार्यान्वयन, सेमिनार/संगोष्ठी आदि के समन्वयन एवं विभिन्न सरकारी परिषदों, समितियों से संबन्धित कार्यों की साथ-साथ कुछ शोध पत्रिकाओं में संपादक के दायित्व का निर्वहन कर रहा हूँ।
iBlogger : क्या आपकी ब्लॉगिंग या लेखन को लेकर भविष्य की कोई योजना है?
डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी : लघुकथा के रचनाकारों के अनुसार लघुकथा 2020 की विधा है, इस सोच के पश्चात भी लघुकथा को साहित्य में उच्च दर्जे पर लाना आवश्यक है। इस ब्लॉग के एक भाग को मैं इतना उन्नत करना चाहता हूँ कि कोई भी शोधार्थी इस ब्लॉग पर आकर लघुकथा संबन्धित बेहतरीन सामग्री पा सके। इसके लिए न केवल शोध पत्र बल्कि शोध ग्रंथ, लेख और शोध आधारित चर्चाओं पर भी काम करना चाहता हूँ। लघुकथा में अभी बहुत अधिक शोध नहीं हुआ है, और नए-नए प्रयोगों की आवश्यकता है। पाठक और लघुकथा से इतर रचनाकार भी किस तरह अधिक से अधिक लघुकथा का पठन कर इसे सम्मान के साथ देखते हुए प्रतिष्ठित मंचों पर शोभायमान करें इस पर भी विचार करते हुए कार्य करना है।
iBlogger : नये ब्लॉगरों के लिए आप क्या कहना चाहेंगे?
डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी : कभी भी निरुत्साहित न हों। कई व्यक्ति हतोत्साहित भी करेंगे, आपके उत्कृष्ट कार्य को नज़रअंदाज़ भी करेंगे, लेकिन जो कुछ भी आप कर रहे हैं, उसे पूरे मन से अपनी संतुष्टि के स्तर तक और बेहतरीन तरीके से करें। यकीन मानिये आप सफल हैं।
एक और बात कहना चाहूंगा कि अपने कार्य का उद्देश्य और किस तरह उसे मूर्त रूप देना है, इसकी एक रूपरेखा ज़रूर तैयार करें। इस रूपरेखा को तैयार करने में पूरा समय दें। तत्पश्चात उसी का अनुसरण करें।
iBlogger :iBlogger और अपने ब्लॉग के सम्मानितपाठकों को आप क्या संदेश देना चाहेंगे?
डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी : मेरे लिखे ब्लॉग मेरे विचार हैं, जिन व्यक्तियों के कार्यों को मैंने उद्धृत किया है उनके विचार हैं, लेकिन जो पाठक हैं वे ही ब्लॉग के प्राण हैं। अपनी इस आत्मा तक पहुँचने के लिए मैं स्वाध्याय का प्रयास कर रहा हूँ, मेरी तरह सभी ब्लॉगर करते हैं। पाठकों से निवेदन है कि इस स्वाध्याय में कुछ कमी रह जाए तो किसी भी प्रकार से उसका उल्लेख ज़रूर करें, ताकि वांछित सुधार की तरफ अग्रसर हुआ जा सके।
iBlogger : हमारे लिए आप क्या सुझाव देना चाहेंगे?
डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी : iBlogger के प्रयास अद्वितीय और अनुकरणीय हैं। इन प्रयासों से मुझे भी काफी कुछ नया सीखने को मिला है। इसके जरिये यदि ब्लॉगर्स के लिए ब्लॉग लेखन और पठन सम्बंधित टिप्स भी नियमित रूप से मिलती रहे तो भारतीय ब्लॉग भी अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर उच्च स्थान प्राप्त कर सकते हैं।
iBlogger : अगले वर्ष के लिए होने वाले Blogger of the year 2020 के लिए कोई सुझाव देना चाहेंगे?
डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी : Blogger of the year 2020 के नामांकन प्राप्त करते समय, ब्लॉगर के बारे में जानकारी के साथ यदि ब्लॉग का उद्देश्य, ब्लॉग द्वारा व्यक्ति-समाज को कैसे लाभ प्राप्त हो रहा है इसकी जानकारी भी ली जाए तो मेरे अनुसार बेहतर होना चाहिए।


डॉ. छतलानी जी आपकी सलाह पर जरूर विचार किया जायेगा। आपने iBlogger को अपना कीमती समय दिया, इसके लिए हम आपके तहेदिल से आभारी है।