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रविवार, 30 जून 2019

मेरी लघुकथा "ईलाज" पर रजनीश दीक्षित जी की समीक्षा


लघुकथा: ईलाज

स्टीव को चर्च के घण्टे की आवाज़ से नफरत थी। प्रार्थना शुरू होने से कुछ वक्त पहले बजते घण्टे की आवाज़ सुनकर वह कितनी ही बार अशांत हो कह उठता कि, "पवित्र ढोंगियों को प्रार्थना का टाइम भी याद दिलाना पड़ता है।" लेकिन उसकी मजबूरी थी कि वह चर्च में ही प्रार्थना कक्ष की सफाई का काम करता था। वह स्वभाव से दिलफेंक तो नहीं था, लेकिन शाम को छिपता-छिपाता चर्च से कुछ दूर स्थित एक वेश्यालय के बाहर जाकर खड़ा हो जाता। वहां जाने के लिए उसने एक विशेष वक्त चुना था जब लगभग सारी लड़कियां बाहर बॉलकनी में खड़ी मिलती थीं। दूसरी मंजिल पर खड़ी रहती एक सुंदर लड़की उसे बहुत पसंद थी।

एक दिन नीचे खड़े दरबान ने पूछने पर बताया था कि उस लड़की के लिए उसे 55 डॉलर देने होंगे। स्टीव की जेब में कुल जमा दस-पन्द्रह डॉलर से ज़्यादा रहते ही नहीं थे। उसके बाद उसने कभी किसी से कुछ नहीं पूछा, सिर्फ वहां जाता और बाहर खड़ा होकर जब तक वह लड़की बॉलकनी में रहती, उसे देखता रहता।

एक दिन चर्च में सफाई करते हुए उसे एक बटुआ मिला, उसने खोल कर देखा, उसमें लगभग 400 डॉलर रखे हुए थे। वह खुशी से नाच उठा, यीशू की मूर्ति को नमन कर वह भागता हुआ वेश्यालय पहुंच गया।

वहां कीमत चुकाकर वह उस लड़की के कमरे में गया। जैसे ही उस लड़की ने कमरे का दरवाज़ा बन्द किया, वह उस लड़की से लिपट गया। लड़की दिलकश अंदाज़ में मुस्कुराते हुए शहद जैसी आवाज़ में बोली, "बहुत बेसब्र हो। सालों से लिखी जा रही किताब को एक ही बार में पढ़ना चाहते हो।"

स्टीव उसके चेहरे पर नजर टिकाते हुए बोला, "हाँ! महीनों से किताब को सिर्फ देख रहा हूँ।"

"अच्छा!", वह हैरत से बोली, "हाँ! बहुत बार तुम्हें बाहर खड़े देखा है। क्या नाम है तुम्हारा?"

"स्टीव और तुम्हारा?"

"मैरी"

जाना-पहचाना नाम सुनते ही स्टीव के जेहन में चर्च के घण्टे बजने लगे। इतने तेज़ कि उसका सिर फटने लगा। वह कसमसाकर उस लड़की से अलग हुआ और सिर पकड़ कर पलँग पर बैठ गया।

लड़की ने सहज मुस्कुराहट के साथ पूछा, "क्या हुआ?"

वहीँ बैठे-बैठे स्टीव ने अपनी जेब में हाथ डाला और बचे हुए सारे डॉलर निकाल कर उस लड़की के हाथ में थमा दिए। वह लड़की चौंकी और लगभग डरे हुए स्वर में बोली, "इतने डॉलर! इनके बदले में मुझे क्या करना होगा?"

स्टीव ने धीमे लेकिन दृढ़ स्वर में उत्तर दिया, "बदले में अपना नाम बदल देना।"

कहकर स्टीव उठा और दरवाज़ा खोलकर बाहर निकल गया। अब उसे घण्टों की आवाज़ से नफरत नहीं रही थी।
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रजनीश दीक्षित जी की समीक्षा 

'मेरी समझ' की आज की कड़ी में आज के लेखक हैं आदरणीय चंद्रेश छतलानी जी। आज उनकी लघुकथा "इलाज" पर अपनी समझ रख रहा हूँ, कुछ इस प्रकार:

#लेखक - चंद्रेश छतलानी जी
#लघुकथा - इलाज
#शब्द_संख्या - 430

अगर सही अर्थों में देखा जाए तो कोई भी व्यक्ति नास्तिक नहीं होता है। कम से कम यह बात हमारे भारत में तो लागू होती ही है। हमारे देश में ज्यादातर तथाकथित नास्तिक मानते हैं कि उसी धर्म के होकर, उसी धर्म और उनके ईश्वर की बुराई करना और दूसरे धर्म के बारे में अच्छा बोलना ही नास्तिकता है। दरअसल वे राजनीति से प्रेरित जो होते हैं। हमारे देश में धर्म, राजनीति में घुस गया है और विचारधाराएं इसे अपने नफा-नुकसान की तरह प्रयोग करती हैं। यह मुझे तबतक पता न चलता जबतक मैं एक ऐसे देश में नहीं गया जहाँ के अधिकतर लोग नास्तिक हैं और वह भी वास्तविक वाले नास्तिक। हालांकि, उस देश में आस्तिक भी हैं जो बौद्ध धर्म के मानने वाले हैं लेकिन 20-25 प्रतिशत से ज्यादा नहीं। मैंने इसकी तह में जाना चाहा तो पता चला कि बाकी के 75-80 प्रतिशत वास्तव में असली वाले नास्तिक हैं। मैंने जब उन नास्तिकों से उनकी धार्मिक मान्यताओं के बारे में जानना चाहा तो उनके हावभाव ऐसे थे जैसे कि मैंने कोई फालतू सा सवाल पूछा हो। वे बिल्कुल ही धार्मिक जैसे शब्द से अनभिज्ञ लगे। उन्हें कुछ भी नहीं पता। यहाँ तक कि यह भी नहीं कि उनके देश में पूजा पाठ की कोई परंपरा भी है। इनके व्यवहार में कोई कटुता, विद्वेष या विकार मुझे नजर ही नहीं आया। बड़े मिलनसार, सह्रदय और बिल्कुल उस परिभाषा से भिन्न जो हमें भारत के तथाकथित नास्तिकों में दिखाई देती है। निश्चित रूप से हमारे देश के अनेक नास्तिक मनोरोगी हैं जिन्हें बड़े 'इलाज' की जरूरत है। यहाँ यह कहने का यह अर्थ कतई नहीं है कि हर देश के तथाकथित आस्तिकों को किसी इलाज की आवश्यकता नहीं है। अर्थात, उन्हें भी है।

...यह तो सर्वविदित है कि किसी भी स्थान पर चल रहे कार्यकलापों का वहाँ के वातावरण में, वहाँ की फिजा में उसका अपना प्रभाव रहता है। यह प्रभाव वहां पर उपस्थित या उससे संबंधित सभी मनुष्यों, जीव-जंतुओं, पेड़-पौधों पर समान रूप से अपना असर करता है लेकिन यह निर्भर करता है कि किसमें कितनी ग्राह्य क्षमता है। किसकी कैसी भावना है और किसका क्या उद्देश्य है? हमारे देवालयों में बहुत लोग जाते हैं जिसमें कोई भगवान को धन्यवाद कहने जाता है, कोई माफी मांगने जाता है, कोई आशीर्वाद, कृपा के लिए जाता है, कोई जेब काटने के लिए और कोई जूते-चप्पल की फिराक में।

रामचरित मानस में गोस्वामी तुसलीदास जी कहते हैं:
"जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।

....तो वहाँ के वातावरण का असर लोगों की अपनी सोच और मानसिक स्थिति पर निर्भर करता है कि उन्हें वहाँ से क्या हांसिल हुआ, होता है या होगा?

प्रस्तुत लघुकथा में भी गिरजाघर में सफाई के काम में कार्यरत स्टीव का भी ऐसा ही कुछ हाल था। उसे ईश्वर पर कितना विश्वास था यह अलग बात है लेकिन उसे उस रूढ़ि से नफरत थी कि लोगों को घंटी बजाकर प्रार्थना की याद दिलानी पड़ती है। संभवतः यह उसकी अपनी सोच थी लेकिन मंदिर, मस्जिद या गिरजाघर के संचालन के अपने नियम होते हैं और सार्वजनिक स्थलों पर ऐसे कायदे होते हैं जिन्हें वहाँ की व्यवस्था सुचारू रूप से चलाने के लिए यह सब करना पड़ता है। खैर....अक्सर जिन्हें नियम, कायदे कानूनों से खासी परेशानी होती है उनके अपने कुछ अलग ही चरित्र होते हैं। स्टीव का भी यही हाल था। लेखक ने भले ही उसे दिलफेंक न कहा हो लेकिन जब-तब प्राकृतिक/अप्राकृतिक, अभिलाषायें/कुंठाएं सतह पर आ ही जाती हैं। इन्हीं कुंठाओं को शांत करने के लिए वह चला जाता था उस वैश्यालय में जहाँ नियत समय पर सारी लड़कियां बालकनी में खड़ी होती होंगी। शायद ग्राहकों को आमंत्रित करने का समय होता होगा। अब जब स्टीव एक नियत समय पर पहुंचता था तो घटना तो आगे के चरण पर जाना ही चाहेगी। उसे उस समूह की सबसे सुंदर लड़की बहुत पसंद थी और उसके साथ समय बिताने की कीमत थी 55 डॉलर। उसकी अंटी में 10-15 डॉलर से ज्यादा काब्यहि हुए ही नहीं। इतनी रकम उस सफाई कर्मचारी के पास शायद बड़ी थी। तो क्या करे? फिलहाल तो बस उसके दर्शन मात्र से ही सुख पा रहा था। कहते हैं कि आकर्षण के नियम (लॉ ऑफ अट्रैक्शन) का एक सिद्धान्त है कि जो आप चेतन मन से अधिक सोचते हैं वह धीरे-धीरे आपके अचेतन मन में प्रवेश कर जाता है और फिर अचेतन मन उसे आपके लिए उपलब्ध कराने में जुट जाता है। ध्यान रहे, अचेतन मन को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपकी सोच अच्छी है ये बुरी। उसे तो हुक्म की तामील करनी होती है।

जब व्यक्ति का अंतर्मन अनुचित विचारों में लगा रहता है तो फिर किसी बाह्य देवालय के वश की बात नहीं होती है कि आपका आचरण बदल पाए। क्योंकि कि हर व्यक्ति का पहला देवालय उसके अंदर होता है और दूसरा बाहर। जब अंतर्मन ही आपने शुद्ध नहीं किया तो फिर बाहर के मंदिर से जुड़ना असंभव होता है।

स्टीव के अचेतन मन के प्रयासों से उसके विकारों को साकार करने के लिए उसे एक दिन सफाई करते हुए उसी गिरजाघर में किसी का बटुआ मिल गया जिसमें 400 डॉलर की बड़ी रकम थी। स्टीव को तो जैसे इन्हीं की दरकार थी। उसने यह परवाह भी नहीं की कि इस तरह से किसी के बटुए को हड़प लेना कितना बड़ा पाप है। हालांकि उसने चोरी नहीं की थी मगर यह किसी चोरी से कम भी नहीं थी। और जैसे उसकी मुराद पूरी हो गई थी। और फिर वह रकम लेकर वैश्यालय की ओर दौड़ गया, उसी सुन्दर लड़की के पास जिसे उसने बहुत समय से केवल देखकर संतोष किया था। हालांकि उसे पता था कि वह क्या करने जा रहा था, लेकिन किसी का बटुआ हड़पने और वैश्यालय की ओर कदम बढ़ाने से पहले वह प्रभु यीशु को मथ्था टेकना नहीं भूला। अब वह बिना देर किए, उस लड़की को पाना चाहता था और वासना से लथपथ सारी हदें पार करना चाहता था।

....एकतरफा ही सही, उसकी अपनी स्वप्न सुंदरी से मुलाकात और वार्तालाप शुरू हुआ। इससे पहले कि 'मिलन' की बहुप्रतीक्षित घड़ी आती, स्टीव को पता चला कि उसका नाम "मैरी" है। शायद बुराइयों से लदे उस व्यक्ति में गिरजाघर में सफाई के दौरान कहीं न कहीं दुआओं, प्रार्थनाओं, उद्घोषों से छन-छन कर आने वाला पवित्र नाम "मैरी" आज ऊपरी सतह पर आ गया था। आज गिरजाघर में सुने उस "मैरी" शब्द की आवृत्ति (frequency) संभवतः इस वैश्यालय में सुने शब्द से मेल खा गई थी। मन के किसी कौने से आवाज आई और हृदय परिवर्तन हो गया उसका। आखिर रोज-रोज की प्रार्थनाओं, घंटियाँ और वैश्यालय की ओर चलने से पहले प्रभु की चरण वंदना का कुछ तो असर होना ही था। इससे पहले कि वह उस खाई में गिरता, उसने अपने पास उपलब्ध सारे पैसे उस हसीन लड़की को दे दिए। स्टीव के मन में चल रहे झंझावतों से अनभिज्ञ वह सुंदरी तो जैसे घबरा ही गई थी कि इतने ज्यादा पैसे देकर अब उसे और न जाने क्या अनैतिक करना पड़ेगा? पूछने पर स्टीव इतना ही कह सका, "अपना नाम बदल लेना"...और फिर वह वैश्यालय, उस लड़की से दूर आ गया।

आज उसके अंतर्मन ने अनजाने ही सही, उसका 'इलाज' कर दिया था। अब उसके मन में मैरी और गिरजाघर से दूर भी वहाँ की पवित्र घंटियाँ सुनाई दे रही थीं। अब उसे उन आवाजों से कोई नफरत नहीं हो रही थी। मन से काले बादल छँट गए थे।

मैं छतलानी साहब को अच्छी लघुकथा के लिए बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ।

#रजनीश_दीक्षित

शनिवार, 29 जून 2019

प्रतिलिपि लघुकथा सम्मान 2018 प्राप्त विजेता लघुकथा:: अन्नदाता | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

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फसल कटाई के बाद उसके चेहरे और खेत की ज़मीन में कोई खास फर्क नहीं दिखाई दे रहा था। दोनों पर गड्ढे और रेशे। घर की चौखट पर बैठा धंसी हुई आंखों से वह कटी हुई फसल और काटने वाली ज़िन्दगी के अनुपात को मापने का प्रयास कर रहा था कि एक चमचमाती कार उसके घर के सामने आ खड़ी हुई। उसमें से एक सफेद कुर्ता-पजामा धारी हाथ जोड़ता हुआ बाहर निकला और उसके पास आकर बोला, "राम-राम काका।" और अपने कुर्ते की जेब से केसरिया सरीखा रंग निकाल कर उसके ललाट पर लगा दिया। उसने अचंभित होकर पूछा, "आज होली..."

उस व्यक्ति ने हँसते हुए उत्तर दिया, "नहीं काका। यह रंग हमारे धर्म का है, इसे सिर पर लगाये रखिये। दूसरे लोग हमारे धर्म को बेचना चाहते हैं, इसलिए आप वोट हमें देना ताकि हमारा धर्म सुरक्षित रहें और हां! हम और सिर्फ हम ही आपके साथ हैं और कोई नहीं।"

सुनकर उसने हाँ की मुद्रा में गर्दन हिलाकर कहा, "जी अन्नदाता।"

उस चमचमाती कार के जाते ही एक दूसरी चमचमाती कार उसके घर के सामने आई। उसमें से भी पहले व्यक्ति जैसे कपड़े पहने एक आदमी निकला। हाथ दिखाते हुए उस आदमी ने उसके पास आकर उसकी आँखों और नाक पर सफेद रंग लगाया और बोला, "देश को धर्म के आधार पर तोड़ने की साजिश की जा रही है। आप अपनी आंखें खुली रखें और देश की इज्जत बचाये रखने के लिये हमें वोट दें और हाँ! हम और सिर्फ हम ही आपके साथ हैं और कोई नहीं।"

उसे भी अपने साथ पा वह मुस्कुरा कर बोला, "जी अन्नदाता।"

उस व्यक्ति के जाते ही एक तीसरा आदमी अंदर आ गया। उसके चेहरे के रंगों को देखकर वह आदमी घृणायुक्त स्वर में बोला, "तुम खुद अन्नदाता होकर गलत रंगों में रंगे हो! अपने लिए खुद आवाज़ उठाओ, और हाँ! सिर्फ हम ही हैं जो तुम्हारे साथ हैं।" कहकर उस आदमी ने उसके मुंह पर लाल रंग मल दिया।

वह प्रफुल्लित हो उठा। सभी तो उसके साथ थे।

उसने अपने बायीं तरफ देखा, वहां वह खुद ही खड़ा था और दाएं तरफ भी वही। अपने सभी ओर उसने खुदको ही खड़ा पाया। अलग-अलग रंगों से पुता हुआ उसका हर रूप अलग-अलग कुर्ता-पजामा धारियों के नाम के ढोल बजाता हुआ चल दिया, इस बात से अनभिज्ञ कि घर की चौखट पर एक रंगीन फंदे में लुढ़की हुई गर्दन लिए उसका जिस्म सड़ने लगा है।

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

शुक्रवार, 28 जून 2019

लघुकथा : छुआछूत | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

'अ' पहली बार अपने दोस्त 'ब' के घर गया, वहां देखकर उसने कहा, "तुम्हारा घर कितना शानदार है - साफ और चमकदार"
"सरकार ने दिया है, पुरखों ने जितना अस्पृश्यता को सहा है, उसके मुकाबले में आरक्षण से मिली नौकरी कुछ भी नहीं है, आओ चाय पीते हैं"
चाय आयी, लेकिन लाने वाले को देखते ही 'ब' खड़ा हो गया, और दूर से चिल्लाया, "चाय वहीँ रखो...और चले जाओ...."
'अ' ने पूछा, "क्या हो गया?"
"अरे! यही घर का शौचालाय साफ़ करता है और यही चाय ला रहा था!"

गुरुवार, 27 जून 2019

आलेख: लघुकथा समीक्षा भाग-2 | समीक्षक के गुण | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


इस आलेख के भाग 1 (https://laghukathaduniya.blogspot.com/2019/06/blog-post_8.html) में हमने यह चर्चा की थी कि समीक्षा और आलोचना में भी ईमानदारी की कमी है। बहुत सारी साहित्यिक समीक्षाएं केवल उस पुस्तक की अनुक्रमणिका को देख कर लिखी जा रही है। एक पत्रिका की समीक्षा लिखने से पूर्व उस पत्रिका को पूरा पढ़ना फिर समझना और आत्मसात करना आवश्यक है लेकिन कई बार समीक्षाएं पढ़ कर ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ भी ईमानदारी की कमी है।

इस भाग में इसी बात को आगे बढ़ाते हुए एक समीक्षक या आलोचक में क्या गुण होने चाहिए उस पर चर्चा करते हैं।

समीक्षक या आलोचक के गुण 

सभी अन्य कार्यों की तरह समीक्षक समीक्षा के प्रति ईमानदार तो हो ही, अध्ययनशीलता अथवा समय की कमी के कारण पूरी पुस्तक नहीं पढे बिना समीक्षा ना करें।

हालांकि सबसे
महत्वपूर्ण है आपका समीक्षात्मक विवेक जिसके जरिये आपको लेखक की आत्मा में प्रवेश करना है, उसके भाव और कला को उसकी अभिव्यक्ति के जरिये पहचानना है। उस लेखक की अन्य रचनाएँ आपने पढ़ी हों तो बेहतर और लेखक के व्यक्तित्व के बारे में आप जानते हों तो आप समीक्षा के लिए बेहतरीन व्यक्ति हैं। रचनाकार की समान अनुभूति से सहृदय होकर जुड़ना समीक्षक का मूलभूत गुण है।

समीक्षक निष्पक्ष होकर या यों कहें कि तटस्थ रहकर अर्थात अपने स्वयं के आग्रहों से मुक्त होकर समीक्षा करे। इन दिनों लघुकथा में समीक्षा के तौर पर वाह-वाही का दौर प्रारम्भ हो गया है, जो कि भविष्य में लघुकथा के लिए घातक सिद्ध होगा। व्यक्तिगत दिलचस्पी की ज़मीन पर किसी लघुकथा के गुणों अथवा अवगुणों की विवेचना करने से समीक्षा रूपी पौधा नहीं उग सकता है। 

समीक्षक में सत्य कहने और लिखने का साहस भी होना चाहिए, हालांकि मैं यह मानता हूँ कि समीक्षक एक अच्छा मार्गदर्शक भी होता है और कितनी ही बार लेखक का mentor भी हो जाता है। इसलिए समीक्षक के पास, जिस तरह की रचना की वह समीक्षा कर रहे हैं, का उचित ज्ञान, हृदय में संवेदनशीलता और चिंतन करने की क्षमता भी होनी चाहिए।

समीक्षक को अपनी बातों को तर्कसंगत और तथ्यपरक ढंग से रखना भी आना चाहिएसमीक्षा में देशी-विदेशी रचनाओं/पुस्तकों आदि के अध्ययन कर उनके संदर्भ भी देने चाहिए

समीक्षक को विदेशी साहित्य (रचनाएँ और पुस्तकें आदि) पढ़ना तो चाहिए लेकिन समीक्षा में उनकी नक़ल नहीं करनी है, बल्कि अपने साहित्य को समझ कर उसकी उपयोगिता पर मनन करना चाहिए।

समीक्षक को किसी भी तथ्य तक पहुँचने में उतावला नहीं होना चाहिए

अपनी पहली समीक्षा प्रारम्भ करने से पहले निम्न शब्दों के अर्थों को लघुकथा के संदर्भ में अवश्य समझिए:
आधुनिकता (समसामयिकता), प्रयोगशीलता, अनुभूति, क्षण,  सत्य, यथार्थ, मानव-मूल्य, विसंगति, घटित होना, विडंबना, उपदेशात्मक, मनोरंजन, गंभीरता, संचेतना, व्यापकता, उपयोगिता, साहित्येतर, सामाजिक सरोकार, शिल्प, भाषा, पाठक की बोध-वृति, बिम्ब, प्रगतिशीलताप्रतिबद्धताप्रतिमान और सपाटबयानी।

इसी प्रकार साहित्य की दृष्टि से इन शब्दों पर भी विचार कीजिये:
साहित्य की जड़ता, कृत्रिमता, अप्रासंगिक लेखन, स्वच्छंदता, परम्परागत लेखन, वैयक्तिक रुचि, साहित्यिक दृष्टि, विचारों की प्रौढ़ता, रचनात्मक विचार, युगीन हलचल, वैचारिक द्वंद्, सामाजिक-आर्थिक सहसंबंध, राजनीतिक चिंतन, धार्मिक चिंतन, राष्ट्रीय चिंतन और वैश्विक चिंतन।


क्रमशः:

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

Read Also:

आलेख: लघुकथा समीक्षा भाग-1 

बुधवार, 26 जून 2019

अखिल भारतीय 'शकुन्तला कपूर स्मृति' लघुकथा प्रतियोगिता में पुरस्कृत मेरी लघुकथा : अस्वीकृत मृत्यु


अस्वीकृत मृत्यु

अंतिम दर्शन हेतु उसके चेहरे पर रखा कपड़ा हटाते ही वहाँ खड़े लोग चौंक उठे। शव को पसीना आ रहा था और होंठ बुदबुदा रहे थे। यह देखकर अधिकतर लोग भयभीत हो भाग निकले, लेकिन परिवारजनों के साथ कुछ बहादुर लोग वहीँ रुके रहे। हालाँकि उनमें से भी किसी की हिम्मत नहीं हो रही थी कि शव के पास जा सकें। वहाँ दो वर्दीधारी पुलिस वाले भी खड़े थे, उनमें से एक बोला, "डॉक्टर ने चेक तो ठीक किया था? फांसी के इतने वक्त के बाद भी ज़िन्दा है क्या?"

दूसरा धीमे कदमों से शव के पास गया, उसकी नाक पर अंगुली रखी और हैरत भरे स्वर में बोला, "इसकी साँसें चल रही हैं!" यह सुनते ही परिजनों की छलकती आँखें ख़ुशी से चमक उठीं।

अब शव के पूरे शरीर में सुगबुगाहट होने लगी और वह उठ कर बैठ गया। परिजनों में से एक पुलिस वालों से बोला, "इन्हें आप लोग नहीं ले जायेंगे। यह तो नया जन्म हुआ है!"

और वह स्थिर आँखों से देखते हुए अपनी पूरी शक्ति लगाकर खड़ा हुआ, अपने ऊपर रखी चादर को ओढा और घर के अंदर चला गया। परिजन भी उसके पीछे-पीछे चल पड़े।

अंदर जाकर वह एक कुर्सी पर बैठ गया और अपने परिजनों को देख कर मुस्कुराने का असफल प्रयास करते हुए बहुत धीमे स्वर में बोला, "ईश्वर ने... फिर भेज दिया... तुम सबके पास.."। परिजन उसकी बात सुन तो नहीं पाये पर समझकर नतमस्तक हो ईश्वर का शुक्र मनाया।

लेकिन उसी वक्त उसके मस्तिष्क में वे शब्द गूंजने लगे, जब उसे नर्क ले जाया गया था और वहाँ दरवाज़े से ही धकेल कर फैंक दिया गया, इस चिंघाड़ के साथ कि, "पापी! तूने एक मासूम के साथ बलात्कार किया है... तेरे लिए तो नर्क में भी जगह नहीं है... फैंक दो इस गंदगी को...."

और उसने देखा कि ज़मीन पर छोटे-छोटे कीड़े उससे दूर भाग रहे हैं।


मंगलवार, 25 जून 2019

प्रेरणा अंशु जून 2019 में प्रकाशित मेरी लघुकथा : धार्मिक पुस्तक




























लघुकथा: धार्मिक पुस्तक

वह बहुत धार्मिक था, हर कार्य अपने सम्प्रदाय के नियमों के अनुसार करता। रोज़ पूजा-पाठ, सात्विक भोजन, शरीर-मन की साफ़-सफाई, भजन सुनना उसकी दिनचर्या के मुख्य अंग थे। आज भी रोज़ की तरह स्नान-ध्यान कर, एक धार्मिक पुस्तक को अपने हाथ में लिए, वह अपनी ही धुन में सड़क पर चला जा रहा था, कि सामने से सड़क साफ़ करते-करते एक सफाईकर्मी अपना झाड़ू फैंक उसके सामने दौड़कर आया।

वह चिल्लाया, "अरे शूद्र! दूर रह....."

लेकिन वह सफाईकर्मी रुका नहीं और उसके कंधे को पकड़ कर नीचे गिरा दिया, वो सफाईकर्मी के साथ धम्म से सड़क पर गिर गया।

अगले ही क्षण उसके पीछे से एक कार तीव्र गति से आई और उस सफाईकर्मी के एक पैर को कुचलती हुई निकल गयी।

वह अचंभित था, भीड़ इकट्ठी हो गयी, और सफाईकर्मी को अस्पताल ले जाने के लिए एक गाड़ी में बैठा दिया, वह भी दौड़ कर उस गाड़ी के अंदर चला गया और उस सफाईकर्मी का सिर अपनी गोद में रख दिया।

सफाईकर्मी ने अपना सिर उसकी गोद से हटाने का असफल प्रयत्न कर, कराहते हुए कहा, "आप के... पैर.... गंदे हो जायेंगे।"

उसकी आँखों में आँसू आ गए और चेहरे पर कृतज्ञता के भाव। उसने प्रयास किया पर वह कुछ बोल नहीं पाया, केवल उस सफाईकर्मी के सिर पर हाथ रख, गर्दन ना में घुमा दी।

सफाईकर्मी ने फिर पूछा, "आपकी किताब.... वहीँ गिरी रह गयी...?"

"नहीं, मेरी गोद में है।" अब उसकी आवाज़ में दृढ़ता थी।

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

सोमवार, 24 जून 2019

लघुकथा : सुख (ओमप्रकाश क्षत्रिय 'प्रकाश') तथा कटती हुई हवा (डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी)

सुमन सागर त्रैमासिक पत्रिका के जुलाई-सितंबर 2019 के अंक में वरिष्ठ लघुकथाकार ओमप्रकाश क्षत्रिय जी सर के साथ लघुकथा 'सुख' के साथ मेरी लघुकथा 'कटती हुई हवा'।






























कटती हुई हवा

पिछले लगभग दस दिनों से उस क्षेत्र के वृक्षों में चीख पुकार मची हुई थी। उस दिन सबसे आगे खड़े वृक्ष को हवा के साथ लहराती पत्तियों की सरसराहट सुनाई दी। उसने ध्यान से सुना, वह सरसराहट उससे कुछ दूरी पर खड़े एक दूसरे वृक्ष से आ रही थी।

सरसराहट से आवाज़ आई, "सुनो! "
फिर वह आवाज़ कुछ कांपने सी लगी, "पेड़खोर इन्सान...  यहां तक पहुंच चुका है। पहले तो उसने... हम तक पहुंचने वाले पानी को रोका और अब हमें...आssह!"

और उसी समय वृक्ष पर कुल्हाड़ी के तेज प्रहार की आवाज़ आई। सबसे आगे खड़े उस वृक्ष की जड़ें तक कांप उठीं। उसके बाद सरसराहट से एक दर्दीला स्वर आया,
"उफ्फ! हम सब पेड़ों का यह परिवार… कितना खुश और हवादार था। कितने ही बिछड़ गए और अब ये मुझ पर... आह! आह!"

तेज़ गति से कुल्हाड़ियों के वार की आवाज़ ने सरसराहट की चीखों को दबा दिया। कुछ ही समय में कट कर गिरते हुए वृक्ष की चरचराहट के स्वर के साथ सरसराहट वाली आवाज़ फिर आई, इस बार यह आवाज़ बहुत कमजोर और बिखरी हुई थी, "सुनो! मैं जा रहा हूँ। मेरे बहुत सारे बीज धरती माँ पर बिखर गए हैं। उगने पर उन्हें हवा-पानी, रोशनी और गर्मी के महत्व को समझाना… मिट्टी से प्यार करना भी। प्रार्थना करना… कि अगली बार मैं किसी ऊंचे पहाड़ पर उगूं… जहां की हवा भी ये… पेड़खोर छू नहीं पाएं। उफ्फ...मेरी जड़ें भी उखड़..."

धम्म से वृक्ष के गिरने का स्वर गूँजा और फिर चारों तरफ शांति छा गयी। सबसे आगे खड़ा वृक्ष शिकायती लहज़े में सोच रहा था, "ईश्वर, तुमने हम पेड़ों को पीड़ा तो दी, पैर क्यों नहीं दिए?"




रविवार, 23 जून 2019

पुस्तक समीक्षा: मरु नवकिरण (अप्रेल-जून 2019) लघुकथा विशेषांक | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

मरु नवकिरण (अप्रेल-जून 2019) लघुकथा विशेषांक
सम्पादक: डॉ. अजय जोशी 
अतिथि सम्पादक: डॉ. घनश्याम नाथ कच्छावा

समीक्षक: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


मरुधरा पर गिरने वाली पहली अरुण किरण से ही बालू मिट्टी के अलसाए हुए कण रंग परिवर्तित कर चमकने लगते हैं। तब वे अपने आसपास के घरोंदों को भी रक्त-पीत वर्ण का कर उन्हें मरू के स्वर्ण मुकुट सा दर्शाते है और देखने वालों की आँखें हल्की चुंधियाना प्रारम्भ कर देती हैं व उन्हें मन ही मन मरूधरा की गर्मी का अनुभव होने लगता है। सोचें तो यही कार्य लघुकथा का भी है कि अपनी आधार के मर्म तक पहुँचते-पहुँचते पाठक का मस्तिष्क ज़रा सा चौंधिया जाये और वह एक विशेष तथ्य की तरफ चिंतन प्रारम्भ करे। मरु नवकिरण का यह अंक भी इसी प्रकार की लघुकथाओं से भरा हुआ है। डॉ. अजय जोशी के सम्पादन और डॉ. घनश्याम नाथ कच्छावा के अतिथि सम्पादन में प्रकाशित मरु नवकिरण (अप्रेल-जून 2019) लघुकथा विशेषांक का आवरण पृष्ठ पाठक को प्रथम दृष्टि में ही स्वयं की ओर आकर्षित करने का सामर्थ्य रखता है, जिसमें प्रतीक स्वरूप छोटे-छोटे परिंदे अपने पंख फैलाये उड़ रहे हैं।

इस अंक के संपादकीय में डॉ. अजय जोशी बताते हैं कि इस अंक हेतु उन्होने 57 लघुकथाओं का चयन किया है, हालांकि वे चाहते थे कि इससे अधिक लघुकथाएं भी स्थान पा सकें, लेकिन पृष्ठों की सीमित संख्या के कारण वे कुछ अन्य लघुकथाओं को स्थान नहीं दे पाये। अतिथि संपादकीय में डॉ. घनश्याम नाथ कच्छावा लघुकथा को परिभाषित करते हुए अपने विचार रखते हैं कि लघुकथा आंतरिक सत्य की सूक्ष्म और तीक्ष्ण अभिव्यक्ति है जो पाठक की चेतना को झकझोरती है तथा यह आज के व्यस्त जीवन में पाठक को कम समय में अधिक प्रदान करने की क्षमता रखती है। यहाँ पर मेरा भी एक विचार यह रहा है कि लघुकथा के कम समय चूंकि लघुकथा के आकार के साथ सीधे आनुपातिक इसलिए उसका आकार (शब्द संख्या के अनुसार) कितना हो इस चर्चा में पाठकों का मत भी शामिल होना चाहिए। आज यदि लघुकथा नवप्रयोगों के साथ-साथ शब्द संख्या के अनुसार पुराने आकार में वृद्धि कर रही है तो यह जानना भी चाहिए कि लघुकथा विधा द्वारा “व्यस्त जीवन में कम समय में अधिक प्रदान करने की क्षमता” में कहीं कमी तो नहीं आ रही! प्रत्येक प्रयोग में उसकी शक्ति के साथ-साथ दुर्बलता, अवसर और चुनौतियों का विश्लेषण करना भी आवश्यक है और यदि हम इस प्रयोग में सफल रहते हैं तो वह निःसन्देह बहुत अच्छी बात है।

इस लघुकथा विशेषांक का एक आकर्षण चार लेख भी हैं। जिनमें से प्रथम डॉ. रामकुमार घोटड़ द्वारा लिखित “हिन्दी लघुकथा का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य” है, जिसके जरिये वे हिन्दी लघुकथा के मूल आधार व दिशा बोध के बारे में बताते हैं और साथ ही यह भी मानते हैं कि लघुकथा का जन्म स्वतः ही हुआ होगा। कोई रचना विस्तार नहीं पाने के कारण प्राकृतिक रूप से लघु आकारीय हुई होगी, जो समय के साथ लघुकथा विधा के रूप में समृद्ध हुई। डॉ. घोटड़ ने इसी लेख में लघुकथा के सफर को 1875 से प्रारम्भ होकर 2019 तक काल के चार भागों में बांट कर विस्तृत विश्लेषण किया है।

दूसरा लेख प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे का है उनके अनुसार लघुकथा का सार वास्तविक हालातों के कटु यथार्थ में छिपा है यह समसामयिक परिस्थितीयों, विडंबनाओं, विकृतियों, नकारात्मकताओं तथा प्रतिकूलताओं को सटीक, प्रभावी व प्रखर तरीके से अभिव्यक्ति प्रदान करती है। समय अभाव होने से बड़ी रचनाओं को ना पढ़ सकने के कारण इसके पाठकों में वृद्धि होने को प्रो. खरे भी इंगित करते हैं। एक अति महत्वपूर्ण बात वे बताते हैं कि लघुकथा जितनी छोटी हो उतनी ही प्रभावी होने की गुंजाइश है। हालांकि शिथिल कथ्य, नीरस प्रस्तुति तथा बिखरे हुए प्रवाह वाली लघुकथा असफल व निष्प्रभावी सिद्ध होगी।

तीसरा लेख बीकानेर के अशफाक़ कादरी का है जिसका शीर्षक है- वर्तमान लघुकथा के आलोक में: कुछ बिखरे मोती। इस लेख में उन्होने कहा है कि समसामयिक लघुकथा में व्यंग्य और हास-परिहास के बजाय संवेदना जागृत होती है जो आम जीवन के विरोधाभासों को प्रकाशित करती है। उनकी एक लघुकथा मार्ग भी लेख के पश्चात है, जिसमें एक दुकानदार शराब की दुकान का रास्ता नहीं बताता लेकिन हस्पताल का रास्ता विस्तार से बताता है।

चौथा लेख डॉ. लता अग्रवाल ने “लघुकथा में नारी पात्रो के सकारात्मक तेवर” शीर्षक से लिखा है। यह एक अध्ययन पत्र है जो डॉ. अग्रवाल की गहन शोध का परिणाम है। इस लेख में उन्होने वरिष्ठ और नवोदित कई लघुकथाकारों की लघुकथाओं को उद्धृत करते हुए यह ज्ञात किया है कि लघुकथाओं में स्त्री पात्रों की सोच बदलती जा रही है। लेख के पश्चात अपनी लघुकथा संतान-सुख में भी वे एक ऐसी स्त्री पात्र को पेश करती हैं जो मानसिक विकृत बच्चों को देखकर ईश्वर से यह शुक्र अदा करती है कि उसके बेटे भले ही नालायक हैं लेकिन अविकसित मस्तिष्क वाले नहीं।

हम में से जिसने विज्ञान पढ़ा है वे जानते हैं कि प्रतिक्षण नवकिरणें देने वाला प्लाज्मा से निर्मित सूर्य ठोस नहीं है और यह अपने ध्रुवों की अपेक्षा अपनी भूमध्य रेखा पर अधिक तीव्रता से घूमता है। इस तरह के घूर्णन को हम अंतरीय घूर्णन के नाम से जानते हैं। लघुकथाएं भी इसी घूर्णन की तरह ही हमारे अंतर में तीव्र घूर्णन स्थापित कर सकने का सामर्थ्य रखती हैं। इस विशेषांक की पहली लघुकथा इंजी. आशा शर्मा की कच्ची डोर है जिसमें वह पत्नी की व्यथा और अबलापन दोनों ही दर्शाती हैं। इस सत्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि पत्नी को पति की आवश्यकता होती ही है जिसे वह स्वीकारती भी है। अल्पना हर्ष अपनी रचना जीवन बगिया द्वारा बेटे-बेटी में भेद करने वालों पर तंज़ कसती है। डॉ. घनश्याम दास कच्छावा उपलब्धि शीर्षक की लघुकथा से पैतृक ज़मीन को बेचने पर अपना क्षोभ प्रकट करते हैं तो कृष्ण कुमार यादव जी व्यवहार लघुकथा में एक ही (कथित तौर पर छोटी) जाति के नौकर और अफसर के साथ एक ही व्यक्ति के अलग-अलग व्यवहार को दर्शाते हैं। विजयानंद विजय जी ने अपनी रचना के शीर्षक पर अच्छा कार्य किया है। श्रमेव जयते शीर्षक से उनकी लघुकथा में हालांकि उन्होने एक आदर्श स्थिति का वर्णन किया है लेकिन यह धीरे-धीरे सत्य होती एक स्थिति है। तरुण कुमार दाधीच ने अपनी रचना में एक बलात्कार पीड़िता द्वारा अपने बचाव में भागने की स्थिति का वर्णन किया है। संदीप तोमर ने मानवेत्तर पात्रों के द्वारा दांवपेचों को दर्शाया है। पुष्पलता शर्मा ने समझ का फेर में कन्या दान तथा गौदान पर अलग-अलग व्यवहार पर प्रश्न उठाया है। डॉ. वीणा चूण्डावत ने प्रेम कहानी की असफलता को मार्मिक और कविता रूपी शब्दों से कहा है। विष्णु सक्सेना ने हस्पतालों की रोगी को ठीक करने के पहले धन कमाने की प्रवृत्ति पर कटाक्ष किया है। जाफ़र मेहँदी जाफरी ने मजबूरियाँ शीर्षक से अलग-अलग वर्गों की मजबूरीयों का वर्णन किया है। अलका पांडेय ने प्यार की इंतहा के जरिये धर्मवीर भारती की रचना रामजी की चींटी रामजी का शेर की याद दिला दी। राजकुमार धर द्विवेदी जी ने व्यक्तियों के दोहरे रूप दर्शाये हैं। डॉ. सुनील हर्ष ने चाटुकारिता पर व्यंग्य कसा है। कमल कपूर ने अपने चिरपरिचित सकारात्मक और खूबसूरत शब्दों में शादी के पश्चात भी लड़की द्वारा माँ की ज़िम्मेदारी उठाने जैसे विषय पर बढ़िया रचना कही है। गिरेबाँ लघुकथा में पुखराज सोलंकी ने बुराई करने की प्रवृत्ति पर तंज़ कसा है। इन्द्रजीत कौशिक सर्वे द्वारा सांप्रदायिक विद्वेष के एक बड़े कारण का पर्दाफाश करते हैं। राहुल सिंह ने अपनी रचना द्वारा बसों में होने वाली ठगी को दर्शाया है। रमा भाटी पर्यावरण सरंक्षण जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर अपने विचार रखती हैं तो वीरेंद्र कुमार भारद्वाज अपनी रचना के शीर्षक ठंडी रज़ाई को सफल सिद्ध करते हुए अलग-अलग रह रहे पति-पत्नी के वार्तालाप को दर्शाते हैं। अपनी एक रचना सपना में नरेंद्र श्रीवास्तव बालश्रम पर बात करते हैं तो दूसरी रचना नजरिया में एक ही व्यक्ति के प्रति दो अलग-अलग व्यक्तियों के अलग-अलग नजरिए को दर्शाते हैं। सतीश राठी की लघुकथा कुत्ता कई मायनों में बेहतर रचना है। एक व्यक्ति का अपने नौकर के प्रति दुर्व्यवहार और कुत्ते के प्रति प्रेम को दर्शाती यह लघुकथा अंत तक पहुँचते-पहुँचते पाठकों की चेतना जगाने में सक्षम है। संतोष सुपेकर अपनी मार्मिक रचना ऊहापोह के जरिये एक सब्जी वाले की मजबूरी का चित्रण करते हैं। डॉ. विनीता राहुरिकर छत और छाता लघुकथा के जरिये पाठकों को प्रभावित कर रही हैं। राममूरत “राही” तोहफे के रूप में प्राप्त फेंक दिये गए एक नवजात शिशु को पालने वाली माँ के मिल जाने को दर्शाते हैं। मोनिका शर्मा ने नई रोशनी के जरिये खराब हुए चेहरे का दर्द झेलती लड़की का वर्णन किया है, हालांकि इस रचना के और लघु होने की गुंजाइश है। डॉ. ऊषाकिरण सोनी नौकरानियों पर चोरी के झूठे इल्ज़ाम पर रचना कहती हैं। सविता मिश्रा “अक्षजा” ने अपनी लघुकथा में साहित्यकारों को पढ़ने की नसीहत देते हुए इसे ही साहित्यिक गुरु बताया है। दीपक गिरकर अपनी रचना के जरिये जीवन को सकारात्मक ढंग से जीने का संदेश देते हैं। डॉ. पद्मजा शर्मा ने अपनी रचना में किसानों की स्थिति का वर्णन किया है इसमें लेखक का स्वयं का आक्रोश स्पष्ट दिखाई दे रहा है। जय प्रकाश पाण्डेय अपनी रचना में गरीब और भूखे व्यक्ति के राष्ट्रपति बनने के स्वप्न को दर्शाते हैं, पात्र का नामकरण सटीक है, रचना पर और अधिक कार्य हो सकता है। मनीषा पाटिल धार्मिक पर्व पर सफाईकर्मी को मिले सोने की एक चेन के लिए कई महिलाओं की दावेदारी पर कटाक्ष करती हैं। विचित्र सिंह अपनी लघुकथा में पिता के जीवित रहते साथ-साथ और उनकी मृत्यु के पश्चात तुरंत अलग हो जाने पर तंज़ कसते हैं। नीलम पारिक ने अपनी रचना जा तन लागे... के साथ न्याय करते हुए ना केवल शीर्षक उचित रखा है बल्कि लघुकथा लेखन का निर्वाह भी यथोचित किया है। इसी प्रकार अभिजीत दुबे अपनी रचना भरोसा के द्वारा हम सभी को आश्वस्त करते हैं कि वे एक अच्छे लघुकथाकार हैं। सारिका भूषण अपनी रचना के जरिये गूढ संदेश देती हैं कि साहित्य में अच्छा लेखन आवश्यक है वनिस्पत बड़े नाम के। डॉ. मेघना शर्मा अपनी रचना में एक बच्चे द्वारा दूसरे बच्चे को डूबने से बचाने को दर्शाती हैं। नरेंद्र कौर छाबड़ा की नियति एक उत्कृष्ट लघुकथा का उदाहरण है। फ़रूक अफरीदी कथनी-करनी में अंतर की तर्ज पर लेखनी-करनी में अंतर पर अपनी एक रचना कहते हैं और दूसरी रचना चर्चित और हर्षित लेखक के जरिये वे वरिष्ठ साहित्यकारों को रसरंजन पार्टी देकर चर्चित होने की प्रवृत्ति पर कटाक्ष करते हैं। प्रेरणा गुप्ता अपनी लघुकथा श्रेष्ठ कौन में मानवेत्तर पात्रों के जरिये मानवीय विसंगतियों पर प्रहार करती हैं तो विश्वनाथ भाटी अपनी रचना के जरिये दहेज प्रथा पर। खेमकरण ‘सोमन’ एक उभरते हुए लघुकथाकार और शोधकर्ता हैं, अपनी लघुकथा जहरीली घास के द्वारा वे आश्वस्त करते हैं कि लघुकथा के लिए विषयों की कोई कमी नहीं केवल व्यापक लेखकीय दृष्टि होनी चाहिए।

मैं अधिकतर बार कोई भी लघुकथा पढ़ते हुए सबसे पहले उसके विषय पर ध्यान देता हूँ, मरु नवकिरण के इस अंक में कुछ लघुकथाएं पारिवारिक विषयों के विभिन्न तानों-बानों पर भी बुनी गयी हैं, जैसा कि आजकल के काफी लघुकथा विशेषांकों में दिखाई देता है। इनमें अर्चना मंडलोड की तुलसी का बिरवा, कमलेश शर्मा की कहानी, डॉ. शिल्पा जैन सुराणा की नई माँ, प्रो. शरद नारायण खरे की आत्मविश्लेषण, अनिता मिश्रा ‘सिद्धि’ की सोच बदलो, ओम प्रकाश तंवर जी दोनों साथ-साथ, बसंती पँवार की विचार और कर्म, एकता गोस्वामी की बुढ़ापे की लाठी-पेंशन, यामिनी गुप्ता की माँ की सीख और लाजपत राय गर्ग की बचपन का एहसास प्रमुख लघुकथाएं हैं। हालांकि पारिवारिक विषय अधिकतर पुराने होते हैं और रचनाएँ संदेश की बजाय सीख देती हुई हो सकती हैं, लेकिन सम्पादक द्वय ने अपना दायित्व निभाते हुए जो लघुकथाएं चयनित की हैं, उनमें से कई लघुकथाएं न केवल पठन योग्य हैं बल्कि चिंतन योग्य भी।

कोई भी प्रयास सौ प्रतिशत सम्पन्न हो जाये, ऐसा होना संभव नहीं। इस अंक में भी कुछ लघुकथाओं के शीर्षक पढ़ते ही पाठक को उपदेश का ही भान होता है जैसे सीख, विचार और कर्म, माँ की सीख, श्रेष्ठ कौन आदि। कुछ लघुकथाएं बोधकथाओं सरीखी हैं भी। इसी प्रकार कुछ शीर्षक ऐसे भी हैं जो पाठकों को रोचक नहीं लग सकते हैं अथवा उनके दिमाग में उत्सुकता नहीं जगा सकते हैं। लघुकथाकारों को न केवल पाठक वर्ग बढ़ाने के लिए बल्कि वर्तमान पाठक संख्या के अनुरक्षण के लिए भी शीर्षकों पर अधिक ध्यान देना आवश्यक प्रतीत हो रहा है। कुछ लघुकथाएं अंत तक पहुँचने से पूर्व ही अपने अंत का भान कर देती हैं तो कुछ लघुकथाएं ऐसी भी हैं कि जिनका अंत लघुकथा की प्रकृति के विपरीत निर्णयात्मक भी है। हालांकि इक्का-दुक्का रचनाओं को छोड़ दें तो अधिकतर लघुकथाएं संपादन के निस्पंदन के उचित सामर्थ्य को दर्शाने में सफल हैं।

कहीं-कहीं भाषा संबंधी त्रुटियाँ भी हैं। उदाहरणस्वरूप अंदर के सभी पृष्ठों में छपे हुए लघुकथा विशेषांक में लघुकथा के स्थान पर लघु कथा हो गया है। मनीषा पाटिल की रचना ईमानदारी में चेन की बजाय चैन शब्द आ गया है। मेरी अपनी रचना का शीर्षक E=MCxशून्य के स्थान पर शून्य प्रकाशित हुआ है, जो कि लघुकथा के साथ न्याय करता प्रतीत नहीं होता।

कई बार हम रेतीले गर्म रेगिस्तानी मैदानों को मरुस्थल मानते हैं जबकि मरुस्थल का अर्थ कम वर्षा वाला क्षेत्र है। बर्फ से ढका अंटार्कटिक दुनिया का सबसे बड़ा मरुस्थल है। हिमालय सरीखे ऊंचे पर्वतों को भी, जहां कम वर्षा होती है, को मरुस्थल माना गया है। कम वर्षा को यदि हम लघुवर्षा कहें तो न केवल शब्दों और मात्राओं से बल्कि गुणों से भी यह लघुकथा सरीखी है। लघु वर्षा धरती की प्यास तो शांत नहीं करती है बल्कि उसमें हो रही तपन को नमी बनाकर अपने आसपास के व्यक्तियों तक पहुंचा देती है। यही कार्य लघुकथा का भी है कि जिस विषय पर कही जाती है उस विषय की विसंगतियों को अपने पाठकों तक पहुँचा दे, और यही कार्य मरु नवकिरण के इस लघुकथा विशेषांक ने भी बखूबी किया है। कुल मिलाकर मुख्य सम्पादक और अतिथि सम्पादक दोनों का कार्य सराहनीय है।

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

गुरुवार, 20 जून 2019

लघुकथा: अदृश्य जीत | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


जंगल के अंदर उस खुले स्थान पर जानवरों की भारी भीड़ जमा थी। जंगल के राजा शेर ने कई वर्षों बाद आज फिर खरगोश और कछुए की दौड़ का आयोजन किया था।

पिछली बार से कुछ अलग यह दौड़, जानवरों के झुण्ड के बीच में सौ मीटर की पगडंडी में ही संपन्न होनी थी। दोनों प्रतिभागी पगडंडी के एक सिरे पर खड़े हुए थे। दौड़ प्रारंभ होने से पहले कछुए ने खरगोश की तरफ देखा, खरगोश उसे देख कर ऐसे मुस्कुरा दिया, मानों कह रहा हो, "सौ मीटर की दौड़ में मैं सो जाऊँगा क्या?"

और कुछ ही क्षणों में दौड़ प्रारंभ हो गयी।

खरगोश एक ही फर्लांग में बहुत आगे निकल गया और कछुआ अपनी धीमी चाल के कारण उससे बहुत पीछे रह गया।

लगभग पचास मीटर दौड़ने के बाद खरगोश रुक गया, और चुपचाप खड़ा हो गया।

कछुआ धीरे-धीरे चलता हुआ, खरगोश तक पहुंचा। खरगोश ने कोई हरकत नहीं की। कछुआ उससे आगे निकल कर सौ मीटर की पगडंडी को भी पार कर गया, लेकिन खरगोश वहीँ खड़ा रहा।

कछुए के जीतते ही चारों तरफ शोर मच गया, जंगल के जानवरों ने यह तो नहीं सोचा कि खरगोश क्यों खड़ा रह गया और वे सभी चिल्ला-चिल्ला कर कछुए को बधाई देने लगे।

कछुए ने पीछे मुड़ कर खरगोश की तरफ देखा, जो अभी भी पगडंडी के मध्य में ही खड़ा हुआ था। उसे देख खरगोश फिर मुस्कुरा दिया, वह सोच रहा था,
"यह कोई जीवन की दौड़ नहीं है, जिसमें जीतना ज़रूरी हो। खरगोश की वास्तविक गति कछुए के सामने बताई नहीं जाती।"

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
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दैनिक भास्कर  मधुरिमा अंक
पत्रिका समाचार पत्र
उपरोक्त लघुकथा दैनिक भास्कर  के मधुरिमा अंक, पत्रिका समाचार पत्र तथा और भी कई स्थानों पर प्रकाशित हो चुकी है। 





बुधवार, 19 जून 2019

लघुकथाकार परिचय: श्री मधुदीप गुप्ता और उनकी एक रचना पर मेरी प्रतिक्रिया | डॉ. चंद्रेश कुमार छ्तलानी

कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो मील के पत्थर स्थापित करते हैं और जब दूसरे व्यक्ति उसी राह पर निकलते हैं तो मील के पत्थरों को देखते ही उन्हें स्थापित करने वालों से स्वतः ही उनका परिचय हो जाता है। लघुकथा लेखन में मील के पत्थर स्थापित करने वाले मधुदीप गुप्ता जी जैसे व्यक्ति किसी परिचय के मोहताज नहीं, बल्कि उनका परिचय उनके द्वारा किया गया महती कार्य है, जो जगह-जगह दिखाई देता है। लघुकथा लेखन की शुरुआत के साथ ही लगभग हर लेखक का मधुदीप गुप्ता जी से परिचय किसी न किसी तरह अपने-आप ही हो जाता है। मुझ सहित हम में से कई रचनाकारों को आपने न केवल पड़ाव और पड़ताल द्वारा बल्कि फोन, फेसबुक और अन्य साधनों द्वारा भी व्यक्तिगत रूप से कई बार लघुकथा लेखन को बेहतर करने हेतु अमूल्य सुझावों से धन्य किया है। लघुकथा सम्बंधित कई तरह के प्रश्न और उत्तर आपकी फेसबुक टाइमलाइन पर भी दिखाई दे जायेंगे।
लघुकथाकारों सहित सभी लेखकों को आपके द्वारा दिया गया एक मन्त्र है कि,"लिखने से पहले उसके बारे में अच्छा पढ़ना और उसे समझना बहुत ज़रूरी है"। सत्य है कि बिना अच्छा पढ़े अच्छा लेखन असंभव ही है। वे 20 वर्षों तक लेखन में सक्रिय नहीं रहे।  लेकिन मैं समझता हूँ कि उन 20 वर्षों में वे पठन में अक्रिय नहीं रहे होंगे।

अब तक पड़ाव और पड़ताल नामक लघुकथा की श्रंखला के जरिये 31 खण्डों के जरिये आपने लघुकथा के बहुत से रचनाकारों को एक बैनर तले लाने का ऐसा कार्य किया है, जो शायद ही कोई कर सके। इसके लगभग सभी अंक मैं पढ़ चुका हूँ और इसका सेट हमारे विश्वविद्यालय शोधार्थियों के लिए भी हमारी सेंट्रल लाइब्ररी में पिछले एक-डेढ वर्षों से उपलब्ध है। इसे पढ़ने के पश्चात मेरे अनुसार पड़ाव और पड़ताल, "लघुकथा का बाइबिल" है, जिसमें लघुकथा सम्बन्धी काफी सारी जानकारी मय उदाहरण और लघुकथाकारों की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ उपलब्ध हैं। 

पड़ाव और पड़ताल के खंड 1 के पृष्ठ 83 पर उनका परिचय और पृष्ठ 84 से उनकी रचनाएँ हैं। इनमें सबसे पहली रचना है - "हिस्से का दूध"। मेरी पसंद की यह रचना काफी चर्चित रही है।

हिस्से का दूध / श्री मधुदीप गुप्ता
उनींदी आँखों को मलती हुई वह अपने पति के करीब आकर बैठ गई। वह दीवार का सहारा लिए बीड़ी के कश ले रहा था।
‘‘सो गया मुन्ना....?’’
‘‘जी! लो दूध पी लो।’’ सिल्वर का पुराना गिलास उसने बढ़ाया।
‘‘नहीं, मुन्ने के लिए रख दो। उठेगा तो....।’’ वह गिलास को माप रहा था।
‘‘मैं उसे अपना दूध पिला दूँगी।’’ वह आश्वस्त थी।
‘‘पगली, बीड़ी के ऊपर दूध–चाय नहीं पीते। तू पी ले।’’ उसने बहाना बनाकर दूध को उसके और करीब कर दिया।
तभी–
बाहर से हवा के साथ एक स्वर उसके कानों से टकराया। उसकी आँखें कुर्ते की खाली जेब में घुस गई।
‘‘सुनो, जरा चाय रख देना।’’
पत्नी से कहते हुए उसका गला बैठ गया।
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उपरोक्त रचना पर मेरी प्रतिक्रिया एवं पसंद का कारण:

किसी भी पाठक की सबसे पहले दृष्टि लघुकथा के शीर्षक पर जाती है। इसलिए लघुकथाकार शीर्षक ऐसा चुनते हैं जो पाठकों को वह लघुकथा पढ़ने के लिए प्रेरित करे। शीर्षक रोचक भी हो सकता है तो व्यंग्यनुमा भी। इस लघुकथा "हिस्से का दूध" का शीर्षक पाठकों के मस्तिष्क में उत्सुकता जगाता है।  उत्सुकता यह उठती है कि लहगुक्था में कहीं किसी के हिस्से का दूध गिर गया या फिर बच्चे दूध का भी हिस्सा कर रहे, आदि-आदि। यह शीर्षक कलात्मक भी है और भावात्मक भी क्योंकि "हिस्सा" शब्द पढ़ते ही कहीं न कहीं परिवार हमारे दिमाग में आता है इसलिए भावों से जुड़ ही रहा है और साथ-साथ ही दूध के हिस्से को शीर्षक दर्शाना मधुदीप जी के कलात्मक कौशल का परिचय है।

लघुकथा के कथ्य पर बात करें तो एक परिवार जिसकी माली हालत अच्छी नहीं, अपने बच्चे को अच्छी तरह पालना चाहते हैं। हम भारतीयों की यह खासियत तो है ही कि बच्चे हो जाने के बाद हम खुद के लिए कम और अपने बच्चों के लिए ज़्यादा जीते हैं। मार्मिक करती यह लघुकथा कथोपकथन और वर्णनात्मक दोनों का मिश्रित शिल्प लिए हुए है। भाषा की दृष्टि से आम व्यक्ति को भी समझ में आने योग्य  है। मेरी समझ से लघुकथाकार ने लघुकथा को इस तरह कहने का प्रयास किया है ताकि एक घटना पाठकों के दिमाग में चित्रित भी हो। जैसे इन पंक्तियों पर गौर कीजिये //उनींदी आँखों को मलती हुई//, //दीवार का सहारा लिए बीड़ी के कश ले रहा था//, //वह गिलास को माप रहा था।// - आदि।

इस लघुकथा की एक पंक्ति मुझे बहुत अच्छी लगी वह है - //वह आश्वस्त थी।// माँ होकर एक पत्नी यह कहती है कि - मैं अपने बच्चे को अपना दूध पिला दूँगी और चाहती है कि उसका पति दूध पी ले। एक नारी के तीन रूप एक ही पंक्ति में बता दिये हैं मधुदीप जी ने। माँ होकर बच्चे को दूध पिलाना, पत्नी होकर पति की चिंता और गृहिणी होकर आश्वस्त होकर घर की ज़िम्मेदारी। हालांकि लघुकथाकार ने पति से' भी यह कहलवा है कि वह पत्नी को दूध पीने को कह रहा है, यह आदर्शवाद तो है लेकिन रचनाकार ने इसके जरिये भी एक परिवार की आर्थिक स्थिति दर्शाते हुए समाज के एक वर्ग के हालात भी दर्शाने का सफल प्रयास किया है।


पति का पहले यह कहना कि //‘‘पगली, बीड़ी के ऊपर दूध–चाय नहीं पीते। तू पी ले।’// और बाद में यह कहना कि //‘‘सुनो, जरा चाय रख देना।’’// कुछ समीक्षकों को खल सकता है लेकिन मेरी दृष्टि में यह है कि यह एक भूखे व्यक्ति जो पति भी है और पिता भी है की भावनाओं को दर्शा दिया है और साथ ही यह संदेश दिया है कि त्याग करना केवल नारी का ही कार्य नहीं - पुरुष को सहभागी होना ही चाहिए। समय के अनुसार समाज के बदलाव को भी इंगित किया है यहाँ रचनाकार ने।

इस रचना को पढ़ना प्रारम्भ करते ही "उनींदी आँखों को मलती हुई" पाठकों को यह आभास देता है कि सवेरे का समय होना चाहिए और तभी पति का यह प्रश्न कि //‘‘सो गया मुन्ना....?’’// पठन का लय तोड़ता है। पाठक उलझ सकता है कि रात का समय है या दिन का? वैसे यह पंक्ति ना हो तो भी लघुकथा के संदेश और चित्रण में फर्क महसूस नहीं होता।

लघुकथा का अंत करना लघुकथाकार का कौशल है और इस कार्य में भी यह लघुकथा सफल है। पुरुष भूखा है लेकिन भूख मिटाने के लिए खुदके लिए कुछ मांगते हुए उसका स्वर भर्रा जाता है क्योंकि वह स्वयं से पहले अपने परिवार की भूख मिटाना चाह रहा है। अंत स्वतः ही पाठकों के हृदय को मार्मिक कर देता है। इस रचना की एक विशेषता यह भी है कि अंत में पाठकों को विवश करे कि यदि वे सक्षम हैं तो इस तरह के परिवार की सहायता ज़रूर करें और यह विशेषता भी एक कारण है जो यह रचना मेरी पसंद की है।

- डॉ. चंद्रेश कुमार छ्तलानी

मंगलवार, 18 जून 2019

लघुकथा: मृत्यु दंड | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


कितनी ही बार अखबारों में पढ़ता हूँ कि  इस महिला के साथ बलात्कार हो गया, उस महिला को वस्त्रहीन कर दिया गया। तब याद आती है द्रोपदी चीरहरण की। उस पर ही सृजन का एक प्रयास है, आइये पढ़ते हैं।

लघुकथा: मृत्यु दंड

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हज़ारों वर्षों की नारकीय यातनाएं भोगने के बाद भीष्म और द्रोणाचार्य को मुक्ति मिली। दोनों कराहते हुए नर्क के दरवाज़े से बाहर आये ही थे कि सामने कृष्ण को खड़ा देख चौंक उठे, भीष्म ने पूछा, "कन्हैया! पुत्र, तुम यहाँ?"

कृष्ण ने मुस्कुरा कर दोनों के पैर छुए और कहा, "पितामह-गुरुवर आप दोनों को लेने आया हूँ, आप दोनों के पाप का दंड पूर्ण हुआ।"

यह सुनकर द्रोणाचार्य ने विचलित स्वर में कहा, "इतने वर्षों से सुनते आ रहे हैं कि पाप किया, लेकिन ऐसा क्या पाप किया कन्हैया, जो इतनी यातनाओं को सहना पड़ा? क्या अपने राजा की रक्षा करना भी..."

"नहीं गुरुवर।" कृष्ण ने बात काटते हुए कहा, "कुछ अन्य पापों के अतिरिक्त आप दोनों ने एक महापाप किया था। जब भरी सभा में द्रोपदी का वस्त्रहरण हो रहा था, तब आप दोनों अग्रज चुप रहे। स्त्री के शील की रक्षा करने के बजाय चुप रह कर इस कृत्य को स्वीकारना ही महापाप हुआ।"

भीष्म ने सहमति में सिर हिला दिया, लेकिन द्रोणाचार्य ने एक प्रश्न और किया, "हमें तो हमारे पाप का दंड मिल गया, लेकिन हम दोनों की हत्या तुमने छल से करवाई और ईश्वर ने तुम्हें कोई दंड नहीं दिया, ऐसा क्यों?"

सुनते ही कृष्ण के चेहरे पर दर्द आ गया और उन्होंने गहरी सांस भरते हुए अपनी आँखें बंद कर उन दोनों की तरफ अपनी पीठ कर ली फिर भर्राये स्वर में कहा, "जो धर्म की हानि आपने की थी, अब वह धरती पर बहुत व्यक्ति कर रहे हैं, लेकिन किसी वस्त्रहीन द्रोपदी को... वस्त्र देने मैं नहीं जा सकता।"

कृष्ण फिर मुड़े और कहा, "गुरुवर-पितामह, क्या यह दंड पर्याप्त नहीं है कि आप दोनों आज भी बहुत सारे व्यक्तियों में जीवित हैं, लेकिन उनमें कृष्ण मर गया..."

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

सोमवार, 17 जून 2019

विचार-विमर्श: डॉ॰ अशोक भाटिया जी के लेख: लंबी लघुकथाएं : आकार और प्रकार पर

डॉ० अशोक भाटिया जी के इस लेख पर इन दिनों फेसबुक पर काफी विचार-विमर्श हो रहा है। जहां अनिल शूर आज़ाद जी ने "लम्बी लघुकथाएं" शब्द पर एतराज़ किया और यह मत भी प्रकट किया कि जिन लघुकथाओं का डॉ० भाटिया ने उदाहरण दिया है वे वास्तव में लघु कहानियाँ हैं।

उसके उत्तर में अशोक भाटिया जी ने बताया कि उन्होने देश-विदेश की लगभग ४५ लघुकथाओं का उदाहरण दिया है। उनका लेख विशुद्ध रचनात्मक आधार पर है।

डॉ० बलराम अग्रवाल जी के अनुसार भी 'छोटी लघुकथा' 'लघुकथा' और 'लम्बी लघुकथा' के विभाजन का समय अभी नहीं है। अभी लोग 'लघुकथा' शब्द के आभामंडल से चमत्कृत हैं, सराबोर हैं। 'लघुत्तम लघुकथा' की अवधारणा भी सिर पटक रही है। अतीत में 'अणुकथा' की अवधारणा दम तोड़ चुकी है।

श्री वीरेंद्र सिंह के अनुसार कुदरत ने हर चीज का आकार तय किया है। एक मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो हर चीज को अलग दृष्टिकोण से देखा करता है। किसी भी विषय पर बात कीजिए। हर विषय वस्तु की अपनी सीमाएं है। अतः लघुकथा का मतलब ही उसका लघु रूप में विराजमान होना है।

सुभाष नीरव जी की प्रतिक्रिया कुछ इस प्रकार से आई कि बराय मेहरबानी  'लघुकथा' को लघुकथा ही रहने दो ! और उनके अनुसार वे कहानी में लंबी कहानी बेशक खूब चली और पाठकों ने उसे स्वीकार भी किया हो, पर उसी की तर्ज पर लघुकथा का ' लंबी लघुकथा ' के रूप में वर्गीकरण करने के पक्ष में वे नहीं हैं। 

डॉ० अशोक भाटिया का उत्तर कुछ निम्न बिन्दुओं में आया:
  • लघुकथा का बाहरी स्पेस थोड़ा बाधा लेने से यथार्थ को व्यक्त करने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं |पिछले पंद्रह-बीस वर्षों में ऐसी कई श्रेष्ठ लघुकथाएं सामने आई हैं,जो पांच सौ से अधिक और एक हजार शब्दों तक जाती हैं और उन्होने कुछ लघुकथाओं के उदाहरण दिये। 
  • लघुकथा में आकारगत विस्तार हो रहा है,लघुकथा के ही फॉर्मेट में रहते हुए और यह एक स्वस्थ प्रवृत्ति है |क्या इस प्रवृत्ति को उजागर नहीं किया जाना चाहिए ?
  • यथार्थ के अनेक आयाम लघुकथा-लेखक से इसलिए भी छूट जाते हैं कि वह अपने अर्धचेतन में इसके आकार की सीमा को तय किये बैठा है |इस उपक्रम में कई लघुकथाएं इसलिए नहीं लिखी जातीं कि ये तय सीमा से बाहर हैं।
  • लघुकथा के आकार का लेखक के अर्ध-चेतन में बना यह दबाव कहाँ से आया--इस पर विस्तार से फिर बात करेंगे।
  • जून 1973 और जुलाई 1975 के सारिका के लघुकथा विशेषांक में लघुकथा के बारे 250 शब्दों तक आकार रहने की बात करने वाले लेखक ही अधिक थे, तब डा.बालेन्दु शेखर तिवारी ने एक पत्र में लिखा था कि, "अब समय आ गया है कि 250 से अधिक शब्दों वाली रचना को लघुकथा के दायरे से बाहर कर दिया जाए।" पर ऐसा न हुआ,न होना था। लेकिन फिर 500 शब्दों की लघुकथा की भी बात और स्वीकृति होने लगी। अब 1000 का विरोध है,तो यह आकार भी स्वीकृत होगा,क्योंकि यहाँ तक अनेक श्रेष्ठ लघुकथाएं जाती हैं।
  • 'लम्बी लघुकथा' कहने से लघुकथा का विभाजन नहीं होता,क्योंकि यह लघुकथा का विस्तार है,जैसे कि इसने दो-ढाई सौ शब्दों से आगे विस्तार पाया। |लघु उपन्यास शब्द में भी विरोधाभास है,वह भी स्वीकृत हुआ
उपरोक्त डॉ॰ भाटिया की फेसबुक पोस्ट पर राजेश उत्साही जी की टिप्पणी कुछ यों थी, जिन लघुकथाओं की बात हो रही है, वे श्रेष्‍ठ का दर्जा पा चुकी हैं। इसलिए उन्‍हें स्‍वीकारने या नकारने का तो कोई प्रश्‍न ही नहीं है। इससे यह बात तो लगभग तय है कि श्रेष्‍ठ लघुकथाओं के लिए यह शब्‍द संख्‍या पर्याप्‍त है। दूसरे शब्‍दों में कहें तो श्रेष्‍ठ लघुकथा इससे अधिक जगह की माँग नहीं करेगी। हाँ यहाँ समस्‍या उनके लिए है जो उसे 250,500 या 700 शब्‍दों की सीमा में बाँधने के पक्षधर हैं। अपन तो 1000 शब्‍दों की सीमा में बाँधने के पक्षधर भी नहीं हैं। क्‍योंकि लघुकथा का जो शिल्‍प है, वह एक स्‍वाभाविक आकार के बाद स्‍वयं ही दम तोड़ देगा। उसकी विषयवस्‍तु को अगर लम्‍बा खींचने की कोशिश होगी, तो वह बिखर जाएगा। इसका विलोम भी है कि अगर शब्‍द सीमा तय की जाएगी, तो भी उसका कथ्‍य दम तोड़ देगा, या उभरेगा ही नहीं। कल मैंने अभ्‍यास के तौर पर अपनी 19 लघुकथाओं में शब्‍दों की गिनती की। उनमें कम से कम 50 शब्‍दों की है और अधिक से अधिक 721 शब्‍दों की। मेरी दृष्टि में तो दोनों ही अपनी बात कहने में सक्षम हैं।

और इसी पोस्ट पर सुभाष नीरव जी की टिप्पणी अत्यंत महत्वपूर्ण है, पढ़िये, मुझे 'संरचना' का ताज़ा अंक मिल चुका है और मैंने सबसे पहले इस आलेख को ही पढ़ा। मुझे पूरा आलेख छिटपुट असहमति को छोड़कर कहीं से भी नकारे जाने योग्य नहीं लगा। बहुत सी बातें, धारणाएं तो मेरी अपनी सोच को पुष्ट करती ही लगीं। मैंंने तो स्वयं शब्द गिनकर कभी लघुकथाएं नहीं लिखीं, उन्हें अपना सहज आकार लेने दिया और मेरी अधिकतर लघुकथाएं 500 शब्दों से लेकर 800 शब्दों तक गई हैं। मैं लघुकथा को कम शब्दों की वज़ह से 'लघु' नहीं मानता, मैं लघु कथ्य की ओर ध्यान देता हूँ। अपनी लघुकथा लेखन यात्रा के दौरान मुझे भी लगता रहा है कि बदलते समय में जब दुनिया में इतना कुछ नया जुड़ा है, और बहुत कुछ बदला है, तो नये विषय लघुकथा के घेरे में लाने के लिए लघुकथा के आकार में कुछ तो वृद्धि होना स्वाभाविक ही है, तभी उस नये विषय से सही में न्याय हो पाएगा, अन्यथा वे विषय 250 -300 शब्दों की अवधारणा के चलते अपना दम तोड़ देंगे। और रचनाकार के अन्दर जो प्रयोगधर्मी होने का गुण होता है, वह भी मर जाएगा। मैं इस बात से सहमत रहा हूँ कि 'आकार बाहरी चीज़ है ।'

डॉ० भाटिया की उपरोक्त दर्शित पोस्ट पर ही श्री योगराज प्रभाकर की टिप्पणी भी उल्लेखनीय है, उनके अनुसार, इस आलेख में कहीं भी अशोक भाटिया जी लघुकथा के आकार को लेकर आग्रही नहीं दिखे। न ही उन्होंने "लम्बी लघुकथा" शब्द लिखकर कोई आकार के हवाले से लघुकथा को डिफ्रेंशिएट करने का प्रयास ही किया है। अगर सीधे सादे शब्दों में कहा जाए तो किसी इमारत की विशालता, भव्यता या उपयोगिता प्लॉट के साइज़ पर भी निर्भर करती है। वैसे जब लघुकथा में कोई न्यूनतम शब्द सीमा तय नहीं तो अधिकतम शब्द सीमा को 250 या 300 में बांधना कहाँ की समझदारी है?

बहरहाल, इस विमर्श के एक भाग को आप सभी के समक्ष रखा वह लेख भी आप सभी के समक्ष है। आइये इसे भी पढ़ते हैं।


संकलन: डॉ० चंद्रेश कुमार छ्तलानी