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शुक्रवार, 7 जून 2019

परिंदों को मिलेगी मंज़िल यक़ीनन | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

समीक्षा: परिंदे पत्रिका "लघुकथा विशेषांक"


पत्रिका : परिंदे (लघुकथा केन्द्रित अंक) फरवरी-मार्च'19
अतिथि सम्पादक : कृष्ण मनु
संपादक : डॉ. शिवदान सिंह भदौरिया
79-ए, दिलशाद गार्डन, नियर पोस्ट ऑफिस,
दिल्ली- 110095,
पृष्ठ संख्या: 114
मल्य- 40/-

वैसे तो हर विधा को समय के साथ संवर्धन की आवश्यकता होती है, लेकिन लघुकथा एक ऐसी क्षमतावान विधा बन कर उभर सकती है जो स्वयं ही समाज की आवश्यकता बन जाये, इसलिए इसका विकास एक अतिरिक्त एकाग्रता मांगता है। हालांकि इस हेतु न केवल नए प्रयोग करना बल्कि इसकी बुनियादी पवित्रता का सरंक्षण भी ज़रूरी है। विधा के विकास के साथ-साथ बढ़ रहे गुटों की संख्या, आपसी खींचतान में साहित्य से इतर मर्यादा तोड़ते वार्तालाप आदि लघुकथा विधा के संवर्धन हेतु चल रहे यज्ञ की अग्नि में पानी डालने के समान हैं

कुछ ऐसी ही चिंता वरिष्ठ लघुकथाकार कृष्ण मनु जी व्यक्त करते हैं अपने आलेख "तभी नई सदी में दस्तक देगी लघुकथा" में जो उन्होने बतौर अतिथि संपादक लिखा है परिंदे पत्रिका के "लघुकथा विशेषांक" में। अपने ग्यारहवें वर्ष में प्रवेश करती हुई परिंदे पत्रिका ने साहित्य की सड़कों पर लगातार बढ़ रहे लघुकथाओं के छायादार वृक्षों द्वारा अन्याय-विसंगति आदि की तपाती हुई धूप में भी प्रज्ज्वलित चाँदनी का एहसास करा पाने की क्षमता को समझ कर इस विशेषांक का संकल्प लिया होगा और उसे मूर्त रूप भी दे दिया और यही संदेश मैंने पत्रिका के आवरण पृष्ठ से भी पाया है।

अपने आलेख में कृष्ण मनु जी ने कुछ बातें और भी ऐसी कही हैं, उदाहरणस्वरूप, "विषय का चयन न केवल सावधानी पूर्वक होना चाहिए बल्कि जो भी विषय चुना हो चाहे वह पुराना ही क्यों न हो उस पर ईमानदारी से प्रस्तुतीकरण में नयापन हो - कथ्य में ताज़गी हो।", "लघुकथा के मूल लाक्षणिक गुणों को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए।", आदि।

यहाँ मैं एक श्लोक उद्धृत करना चाहूँगा,
“स्वभावो नोपदेशेन शक्यते कर्तुमन्यथा।
सुतप्तमपि पानीयं पुनर्गच्छति शीतताम्॥
अर्थात किसी व्यक्ति को आप चाहे कितनी ही सलाह दे दो किन्तु उसका मूल स्वभाव नहीं बदलता ठीक उसी तरह जैसे ठन्डे पानी को उबालने पर तो वह गर्म हो जाता है लेकिन बाद में वह पुनः ठंडा हो जाता है।“

यही बात लघुकथा पर भी लागू होती है और इस पत्रिका के अतिथि संपादक के लेख के अनुसार भी लघुकथा के मूल गुणों को सदैव लघुकथा में होना चाहिए अर्थात प्रयोग तो हों लेकिन मूलभूत गुणों से छेड़खानी ना की जाये, पानी को उबालेंगे तो वह गरम होकर ठंडा होने की प्रकृति तो रखता ही है लेकिन यदि पानी में नमक मिला देंगे तो वह खारा ही होगा जिसे पुनः प्रकृति प्रदत्त पानी बनाने के लिए मशीनों का सहारा लेना होगा हालांकि उसके बाद भी प्राकृतिक बात तो नहीं रहती। शब्दों के मूल में जाने की कोशिश करें तो अपनी यह बात श्री मनु ने कहीं-कहीं लेखन की विफलता को देखते हुए ही कही है, जिसे लघुकथाकारों को संग्यान में लेना चाहिए।

1970 से 2015 के मध्य अपने लघुकथा लेखन को प्रारम्भ करने वाले 63 लघुकथाकारों की प्रथम लघुकथा और एक अन्य अद्यतन लघुकथा (2018 की) से सुसज्जित परिंदे पत्रिका के इस अंक में प्रमुख संपादक डॉ. शिवदान सिंह भदौरिया जी स्वच्छता पर अपने संपादकीय में न केवल देश में स्वच्छता की आवश्यकता पर बल दिया है बल्कि जागरूक करते हुए कुछ समाधान भी सुझाए हैं। हालांकि उन्होने लघुकथा पर बात नहीं की है लेकिन फिर भी स्वच्छता पर ही जो कुछ उन्होने लिखा है, उस पर लघुकथा सृजन हेतु विषय प्राप्त हो सकते हैं।

पत्रिका के प्रारम्भ में अनिल तिवारी जी द्वारा लिए गए दो साक्षात्कार हैं - पहला श्री बलराम का और दूसरा श्री राम अवतार बैरवा का। दोनों ही साक्षात्कार पठन योग्य हैं और चिंतन-मनन योग्य भी।

सभी लघुकथाओं से पूर्व लघुकथाकार का परिचय दिया गया है, जिसमें एक प्रश्न मुझे बहुत महत्वपूर्ण प्रतीत हुआ - "लघुकथा आपकी प्रिय विधा क्यों है?" यह प्रश्न लघुकथा पर शोध कर रहे शोधार्थियों के लिए निःसन्देह उपयोगी है और यह प्रश्न पत्रिका के इस अंक का महत्व भी बढ़ा रहा है।

इस पत्रिका में दो तरह की लघुकथाएं देने का उद्देश्य मेरे अनुसार यह जानना है कि लघुकथा विधा में एक ही साहित्यकार के लेखन में कितना परिवर्तन आया है? केवल नवोदित ही नहीं बल्कि वरिष्ठ लघुकथाकारों में से भी कुछ लेखक जो चार-पाँच पंक्तियों में लघुकथा कहते थे, समय के साथ वे न केवल शब्दों की संख्या बढ़ा कर भी कथाओं की लाघवता का अनुरक्षण कर पाये बल्कि अपने कहे को और भी स्पष्ट कर पाने में समर्थ हुए हालांकि इसके विपरीत कुछ रचनाकार ऐसे भी हैं जो लघुकथा के अनुसार अधिक शब्दों में लिखते हुए कम (अर्थाव लाघव) की तरफ उन्मुख हुए। कुल मिलाकर यह स्पष्ट है कि सामान्यतः परिपक्वता बढ़ी है और बढ़नी चाहिए भी।

एक और विशिष्ट बात जो मुझे प्रथम और अद्यतन लघुकथाओं को पढ़ते हुए प्रतीत हुई, वह यह कि समय के साथ लघुकथाकारों ने शीर्षक पर भी सोचना प्रारम्भ कर दिया है जो कि लघुकथा लेखन में हो रहे परिष्करण का परिचायक है।

पत्रिका की छ्पाई गुणवत्तापूर्ण है, लघुकथाओं में भाषाई त्रुटियाँ भी कम हैं जो कि सफल और गंभीर सम्पादन की निशानी है। कुल मिलाकर यह एक संग्रहणीय अंक है और मैं आश्वस्त हूँ कि साहित्य, संस्कृति एवं विचार के इस द्वेमासिक के परिंदों को मिलेगी मंज़िल यक़ीनन, ये फैले हुए उनके पर बोलते हैं

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

शुक्रवार, 24 मई 2019

समीक्षा | परिंदे पत्रिका लघुकथा विशेषांक | समीक्षक: भगवती प्रसाद द्विवेदी


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पत्रिका : परिंदे (लघुकथा केन्द्रित अंक) फरवरी-मार्च'19 अ. सम्पादक : कृष्ण मनु
सं. : डॉ.शिवदान सिंह भदौरिया
79ए, दिलशाद गार्डन, नियर पोस्ट ऑफिस,
दिल्ली- 110095,
पृष्ठ संख्या : 116
मल्य- 40/-


लघुकथा अंक की प्रयोगधर्मिता 

क्षण मात्र की कथात्मक अभिव्यक्ति की अत्यंत प्रभावी विधा लघुकथा की लोकप्रियता और पठनीयता का आलम यह है कि आये दिन पत्रिकाओं के विधा केन्द्रित विशेषांक प्रकाशित होते रहते हैं पर अधिकतर विशेषांक संख्याबल और परिमाणात्मक दृष्टि से भले ही भारी भरकम प्रतीत होते हों, किंतु उनमें कोई नयापन नजर नहीं आता। इन सबसे उलट, जब कोई विधा केन्द्रित अंक बनी-बनाई लीक से अलग हटकर प्रकाशित होती है तो उसकी चर्चा लाजिमी हो जाती है।

ऐसा ही, लघुकथा पर केन्द्रित एक अंक प्रकाशित हुआ है साहित्य, संस्कृति एवं विचार की द्वैमासिक पत्रिका परिन्दे का , जो ग्यारहवें वर्ष के प्रथमांक(फरवरी-मार्च '2019) के रुप में आया है। लब्धप्रतिष्ठ लघुकथाकार कृष्ण मनु के अतिथि सम्पादन में छपे इस अंक में एक तरफ वैसे वरिष्ठतम रचनाकार हैं जो लघुकथा लेखन के पांच दशक पूरे कर चुके हैं, वहीं दूसरी ओर वैसी प्रतिभायें हैं जो पिछले पांच वर्षों से इस विधा में सृजनशील हैं। हर लघुकथाकार की पहली लघुकथा, प्रकाशन वर्ष तथा पत्रिका के नामोल्लेख के साथ प्रकाशित की गयी है। साथ ही , वर्ष 2018 में रची एक अद्यतन लघुकथा भी।

विशेषांक में शामिल हरेक लघुकथाकार के परिचय के साथ कुछ सवाल भी पूछे गये हैं, जैसे- अबतक कितनी लघुकथाएं लिखीं, पत्र-पत्रिकाओं के नाम जिनमें उनका प्रकाशन हुआ, लघुकथा लिखना कब से शुरु किया , लघुकथा आपकी प्रिय विधा क्यों है, लघुकथा के क्षेत्र में उपलब्धियां आदि।सन् 1970 से लघुकथा लिखते आ रहे 'विश्व लघुकथा कोश' के सम्पादक बलराम ने अपने साक्षात्कार में कहा है कि #कविता की जगह ले सकती है #लघुकथा। वरिष्ठ लेखक राम अवतार बैरवा का भी मानना है कि उज्ज्वल है लघुकथा का भविष्य। मगर अतिथि सम्पादक ने तल्ख हकीकत का बयान करते हुए लिखा है-' लघुकथा की पहचान बनाये रखनी है तो लिखते समय विषय का चयन सावधानी से करने की जरूरत। है।यहाँ एक बात रेखांकित करने योग्य है कि लघुकथा के प्रति पनप रही उपेक्षा का कारण लघुकथा लेखन में विषयों की आवृति से अधिक स्तरहीनता है। लघुकथा की तकनीक जाने बिना, लघुकथा के विषय में अल्प जानकारी रखते हुए दनादन सीधी सपाट लघुकथा लिखते जाना ही लघुकथा के प्रति ऊब का कारण बनता जा रहा है। विषय पुराने हों, लेकिन प्रस्तुति में नयापन, बुनावट में निपुणता, भाषा में कसावट और कथ्य में ताजगी हो तो पाठक के ऊबने/नकारने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता।'

लघुकथाओं के चयन एवं सम्पादन में अतिथि सम्पादक की सतर्कता व पारखी दृष्टि स्पष्टतः परिलक्षित होती है। यही वजह है कि तिरसठ लघुकथाकारों की एक सौ छब्बीस लघुकथाओं के इस संचयन में ज्यादातर रचनायें अपनी छाप छोड़ने में काफी हद तक कामयाब हैं। लघुकथाकार की पहली लघुकथा भी उतनी ही प्रभावी है, जितनी आज की। यहाँ लघुकथाकारों की एक ही साथ तीन पीढ़ियां अपनी दमदार मौजूदगी का अहसास कराती हैं। आज के युगधर्म का आईना है यह संचयन। महिला लघुकथाकारों ने भी घर-आंगन की चहारदीवारी से बाहर निकलकर सामाजिक विसंगतियों , विद्रूपताओं को अपने कथ्य का विषय बनाया है। और ऐसी रचनाओं में आभा सिंह, डाॅ. आशा 'पुष्प', मंजु शर्मा, डाॅ. लता अग्रवाल, माला वर्मा, कृष्णलता यादव, डाॅ. शैल चंद्रा, इन्जी आशा शर्मा, कनक हरलालका, सविता मिश्रा 'अक्षजा', डाॅ.संध्या तिवारी आदि की लघुकथाएं प्रभावी बन पड़ी हैं।

अपने अनूठे कथ्य व शिल्प की मार्फत मानवीय संवेदना को झकझोरने वाले लघुकथाकारों में प्रमुख हैं- बलराम, कमलेश भारतीय, डाॅ.कमल चोपड़ा, कृष्ण मनु, अशोक भाटिया, सतीश राठी, अतुल मोहन प्रसाद, अंकुश्री, गोविन्द शर्मा, शराफत अली खान, कुंवर प्रेमिल, पवन शर्मा, डाॅ.रामकुमार घोटड़, संदीप तोमर आदि

अंक में खटकने वाली बात है भाषा-व्याकरण तथा प्रुफ की अशुद्धियां -ठीक सुस्वादु खीर में कंकड़ की तरह बतौर बानगी इन पंक्तियों के लेखक का जन्म वर्ष 1955 के बजाय 1995 मुद्रित है। जैसा कि सम्पादकीय में जिक्र है, इस विशेषांक के पुस्तकाकार प्रकाशन की भी योजना है। अतः पुस्तक प्रकाशन के पूर्व अशुद्धियों का शोधन-परिमार्जन अपेक्षित है।

विश्वास है, साहित्य, संस्कृति एवं विचार के स्तर पर 'परिंदे' की यह लघुकथा-केन्द्रित उड़ान सुधी पाठकों को कभी चमत्कृत करेगी, कभी अभिभूत करेगी तो कभी अंतर्मन को आईना भी दिखाएगी।

अतिथि संपादक कृष्ण मनु के साथ ही 'परिंदे' के सम्पादक डॉ. शिवदान सिंह भदौरिया तथा कार्यकारी सम्पादक ठाकुर प्रसाद चौबे भी बधाई के पात्र हैं।

समीक्षक- भगवती प्रसाद द्विवेदी
सम्पर्क : 9430600958