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रविवार, 31 मार्च 2019

लघुकथा समाचार: लेखिका डॉ. चंद्रा सायता के लघुकथा संग्रह \'माटी कहे कुम्हार से\' पर चर्चा संगोष्ठी

Indore News - दैनिक भास्कर।

लेखिका डॉ. चंद्रा सायता के लघुकथा संग्रह 'माटी कहे कुम्हार से' पर चर्चा संगोष्ठी देवी अहिल्या केंद्रीय लाइब्रेरी में 31 मार्च को दोपहर 3.30 बजे से होगी। क्षितिज की इस संगोष्ठी की अध्यक्षता वरिष्ठ कथाकार सूर्यकांत नागर करेंगे। नंदकिशोर बर्वे, सतीश राठी, अंतरा करवड़े इस पुस्तक पर चर्चा करेंगे। संचालन गरिमा दुबे करेंगी। इस अवसर पर क्षितिज में नए सदस्यों के रूप में जुड़े कुछ सदस्य भी अपनी रचना पाठ करेंगे। कार्यक्रम में समस्त साहित्य प्रेमी सादर साग्रह आमंत्रित हैं।


source:
https://www.bhaskar.com/mp/indore/news/mp-news-today-seminar-on-quotmoti-khey-kumhar-sequot-025135-4233847.html

लघुकथा वीडियो | जाने लघुकथा लेखन - संजीव वर्मा 'सलील' | True Media Studio


'रचनाकार.ऑर्ग' लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन 2019 में प्रथम पुरस्कार से पुरस्कृत मार्टिन जॉन की लघुकथा --'डिजिटल स्लेव'

एक मेट्रो सिटी में अच्छे पैकेज पर जॉब करने वाले बेटे को पाप ने इत्तलाय "हम अगले महीने आ रहे हैं बेटा तुम्हारे पास ।....रिजर्वेशन ऑफिस जा रहा हूं टिकट बुक करवाने ।"
"ठीक है आइए ।....लेकिन रिजर्वेशन ऑफिस जाने की क्या ज़रूरत है पापा । मैं ई- टिकट बुक कर देता हूं । आप जर्नी प्रोग्राम बताइए । टिकट निकाल कर आपके मोबाइल में फॉरवर्ड कर दूंगा ।"
पापा रिजर्वेशन ऑफिस के सेवानिवृत्त कर्मी थे । टिकट बनवाने के बहाने कार्यरत सहकर्मियों से भेंट-मुलाकात करने की उनकी दिली इच्छा थी । बेटे की इस प्लानिंग से अभी के लिए उनकी इच्छा धरी रह गई ।
जर्नी प्रोग्राम के मुताबिक नियत समय पर वे मेट्रो सिटी पहुंच गए । बेटा आया था स्टेशन मम्मी-पापा की रिसीव करने । बेटे ने तुरंत कैब बुक किया और घंटे भर में वे पहुंच गए अपार्टमेंट । उस अपार्टमेंट की पांचवीं मंजिल पर बेटे ने फ्लैट ले रखा था ।
लिफ्ट के ज़रिए फ्लैट पहुंचकर फ्रेश होने के बाद पापा को चाय की सख़्त तलब महसूस हुई । उन्होंने अम्मी की ओर देखा । मम्मी समझ गई । फौरन किचन में दाख़िल हो गई । चारों ओर नज़र घुमाकर जब उन्होंने देखा तो पाया कि गैस सिलिंडर , ओवेन और दो-चार बर्तनों के अलावा वहां कुछ नहीं है ।
"क्या खोज रही हो अम्मी ?"
"बेटा , पापा को इस वक़्त चाय पीने की आदत है न ! लेकिन यहां तो कुछ नहीं है ।"
बेटे ने तत्काल फ़ोन घुमाया । दस मिनट बाद डोरबेल बजी । तीन काम चाय हाज़िर ।
"लंच का क्या करेंगे बेटा ? घर में तो राशन-पानी है ही नहीं । बनाउंगी क्या ?"
" डोंट वरी मम्मी । अभी ऑर्डर कर देता हूं । "
घंटे भर के बाद लंच के पैकेट्स लेकर डिलीवर ब्वॉय दरवाज़े पर खड़ा हो गया ।
अगली सुबह पापा ने बेटे से कहा, " बेटा यहां कोई आस-पास बुक स्टॉल है क्या ?"
"क्यों ?"
"अख़बार ख़रीद कर ले आता । .....इसी बहाने थोड़ा मॉर्निंग वॉक भी हो जाता ।"
"इस अपार्टमेंट की छत बहुत बड़ी है , वहीं जाकर वॉक कर लीजिएगा । .....और ये लीजिए आज का न्यूज़ पेपर।" बेटे ने अपने लैपटॉप में ई-पेपर निकाल कर पापा के सामने रख दिया ।
"उसी समय मम्मी ने इच्छा जाहिर की , " बेटा , रेस्टोरेंट का खाना हमारी सेहत के लिए ठीक नहीं रहेगा । चल न हमारे साथ बाज़ार । राशन , सब्जियां और कुछ बर्तन ले आते हैं । में रोज़ खाना बनाउंगी । "
"मार्केट जाने की क्या ज़रूरत है मम्मी । मार्केट को यहीं बुला लेते हैं ।"
उसने अपने स्मार्ट फ़ोन पर अंगुलियां फिरायीं । कुछ देर बाद सब्जियों और राशन के पैकेट्स लेकर डिलीवरी ब्वॉय सलाम ठोंककर मुस्करा रहा था । एक दूसरा डिलीवरी ब्वॉय किचन एप्लायंस दे गया ।
चार दिन हो गए । ऑनलाइन ज़िंदगी ने उन्हें फ्लैट के अंदर ही रहने को मजबूर कर दिया । उन्हें बेहद उकताहट सी महसूस होने लगी थी । खरीदारी के बहाने थोड़ा घूमने- फिरने की इच्छा लिए उस शाम मम्मी ने कहा , "चल न मार्केट , सोचती हूं बड़े भईया के बच्चों के लिए कुछ ड्रेसेस लेती आऊं ।"
बेटा फ़ौरन लैपटॉप लेकर मम्मी के पास बैठ गया और गार्मेंट का पूरा बाज़ार खोल दिया , " लो मम्मी , देखो और पसंद कर लो । इमीडियट ऑर्डर कर देता हूं । दो-तीन दिनों के अंदर डिलीवरी हो जाएगी ।"
उस रात फ्लैट के एक कमरे में बेटा अपना मेल बॉक्स खंगालने में मसरूफ़ था । दूसरे कमरे में मम्मी और पापा बिस्तर पर पड़े-पड़े बगैर किसी संवाद के सफ़ेदी पुती छत के उस पार चांद- सितारों भरे खुले आसमान की कल्पना में खोए हुए थे । अचानक उन्हें लगा उनके ढलती उम्र के शरीर में नामालूम - सा कोई डिवाइस समाता जा रहा है । घबड़ाकर वे दोनों एक दूसरे की बाहों में समा गए ।
अगली सुबह ही तय प्रोग्राम के विपरीत वे दोनों रवानगी की तैयारी में लग गए ।

- मार्टिन जॉन

गुरुवार, 28 मार्च 2019

लघुकथा : ख़ामोशी बोलती है | कामिनी गोलवलकर

निमिता माता-पिता की एकलौती सन्तान थी। देखने में भी सुन्दर और पढ़ी लिखी थी, उसके साथ मुकुल भी पढ़ता था जो उसे मन ही मन चाहता था। पिता ने निमिता के लिए बहुत रिश्ते देखे और निमिता की शादी अच्छे घर में कर दी। पर नियति को तो कुछ और ही मंजूर था, पति ने एक दिन बीमारी से दम तोड़ दिया। निमिता बिलकुल एकाकी पड़ गई।
निमिता जब मायके आई तो उसके साथ उसका 2 साल का बेटा और वह खुद सफेद वस्त्रो में थी।
यह देख मुकुल का दिल दहल गया और न जाने कितने बुरे-बुरे ख्याल आने लगे।
रात भर सोचता रहा की क्या करूँ, कैसे करूँ जिससे उसका दुःख  बाट सकूँ।
अपने प्यार का इज़हार और निमिता को नया जीवन देने के लिए चल पड़ा। सुबह उठते ही मुकुल बाजार से एक सुन्दर साड़ी, सजावट का समान और एक पत्र रख कर निमिता से मिलने चल दिया।
दरबाजे पर दस्तक दी।
निमिता ने दरवाजा खोला और अंदर आने को कहा। मुकुल मौन होकर देखता रहा, माँ जी ने मौन भंग किया।
मुकुल निमिता के हाथ में उपहार वाला थाल थमा कर चल दिया।
छत पर इंतजार करता रहा, साझ होने को आई पर कोई उत्तर नही मिला, मन उदास होने लगा।
अचानक निमिता उसकी दी हुई साड़ी गहने पहने हुए छत पर आई।
उसे उसका उत्तर मिल गया

- कामिनी गोलवलकर

लघुकथा वीडियो : चंदे का डर | हरिशंकर परसाई | Random Rahul


बुधवार, 27 मार्च 2019

लघुकथा वीडियो : संरक्षक | अनघा जोगलेकर | आरजे अमित वधवा

नववर्ष , विक्रम संवत शायद इसीलिए भी मनाया जाता है कि हम अपनी जड़ों से जुड़े रहें, क्योंकि कहा जाता कि जडें ही एक पेड़ की संरक्षक होती हैं,  इंसान के जीवन का संरक्षक कौन होते हैं ? आज इस नववर्ष पर इस कहानी के साथ सुनिये - समझिये उनका महत्व।



रविवार, 24 मार्च 2019

लघुकथा समाचार: साझा लघुकथा संग्रह 'कथांजलि' का विमोचन

नवभारत टाइम्स | Updated:Mar 23, 2019, 06:30AM IST

एनबीटी, लखनऊ : काव्या साहित्यिक संस्था की ओर से साझा काव्य संग्रह 'काव्या' और साझा लघु कथा संग्रह 'कथांजलि' का शुक्रवार को विमोचन हुआ। निशातगंज स्थित कैफी आजमी अकादमी में आयोजित कार्यक्रम के दौरान काव्य गोष्ठी भी हुई। निवेदिता श्रीवास्तव और विजय राज श्रीवास्तव के संयोजन में हुए आयोजन की अध्यक्षता मिथिलेश दीक्षित ने की। इस मौके पर कोलकाता से आई निशा कोठारी, अलका प्रमोद, मंजुल मंजर, दीप्ति भारती, मीतू मिश्रा, कविता गुप्ता, भूपेन्द्र दीक्षित, मुकेश कुमार मिश्र ने अपनी रचनाएं सुनाईं। इस मौके पर मुख्य अतिथि अमिता दुबे और विशिष्ट अतिथि ओम नीरव, चंद्रशेखर वर्मा, शिव मंगल सिंह, विजयराज श्रीवास्तव मौजूद रहे।



Source:
https://navbharattimes.indiatimes.com/metro/lucknow/other-news/released-kaavi-and-kathanjali/articleshow/68528478.cms

ईबुक | और गंगा बहती रही (सिंधी लघुकथाओं का हिन्दी अनुवाद) | देवी नागरानी


शनिवार, 23 मार्च 2019

पहली महिला लघुकथा-लेखिका


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अनिल शूर आज़ाद जी की फेसबुक वॉल से 

हरियाणा - 'आधुनिक हिंदी लघुकथा' के प्रतिष्ठित केंद्रों में एक है। लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि पहली महिला लघुकथा-लेखिका भी हरियाणा से ही रही हैं। जी हां, यहां हरियाणा के फतेहाबाद में 12नवम्बर 1913 को जन्मी लेखिका श्रीमती इंद्रा स्वप्न की बात की जा रही है। इन्होंने सत्तर के दशक में दर्जनों बढ़िया लघुकथाएं लिखी थीं। इनमें अनेक तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में भी प्रकाशित हुई। ग्रामीण परिवेश की आम गृहिणी होते हुए इन्होंने बाईस उपन्यास, तीन कहानी- संग्रह तथा चालीस से अधिक बालसाहित्य की कृतियों की भी रचना की थी।

इनका पहला लघुकथा-संग्रह इनकी मृत्यु के बीस वर्ष के पश्चात वर्ष 2017 में, जानेमाने साहित्यकार डॉ मधुकांत के साथ संयुक्त रूप में "101 प्रतिनिधि लघुकथाएं" शीर्षक से प्रकाशित हुआ। इसमें इंद्रा जी की पचास लघुकथाएं शामिल हैं।

पाठकों के संदर्भ के लिए यहां, इनकी एक लघुकथा प्रस्तुत की जा रही है।
_____________

_लघुकथा _
शिक्षा
*इंद्रा स्वप्न

"देखो बेटा, सिगरेट पीना बहुत बुरा है..अच्छे बच्चे ऐसी गंदी वस्तुओं को हाथ नहीं लगाते।" हरीश ने अपने भतीजे बब्बू को समझातेे हुए कहा, " मैंने तुम्हें कभी सिगरेट पीते देखा तो अच्छा नहीं होगा।"
"समझ गया चाचाजी, सचमुच गंदे मनुष्य ही सिगरेट पीते हैं।" कहते बब्बू चला गया।
दूसरे दिन हरीश सिगरेट पीने अपने कमरे में पहुंचा, मेज पर सिगरेट की डिब्बी नहीं थी। एक कागज का टुकड़ा पड़ा था, जिसपर लिखा था "चाचाजी, सिगरेट गंदे मनुष्य पीते हैं अच्छे नहीं..इसलिए आपकी सिगरेट की डिब्बी सिगरेटों सहित कूड़ेदान में फेंक दी है।"
______________
आधुनिक हिंदी लघुकथा शोधपीठ, नई दिल्ली के सौजन्य से प्रस्तुत। संपर्क : अनिल शूर आज़ाद - 9871357136

Source: https://www.facebook.com/photo.php?fbid=519966321742670&set=a.167832916956014&type=3&theater

शुक्रवार, 22 मार्च 2019

पुस्तक समीक्षा: आधुनिक हिंदी लघुकथा : आधार एवं विश्लेषण | रूप देवगुण | समीक्षाकार: दिलबागसिंह विर्क








लघुकथा विधा पर विचार करती महत्वपूर्ण कृति

पुस्तक - आधुनिक हिंदी लघुकथा : आधार एवं विश्लेषण
लेखक - रूप देवगुण
प्रकाशन - सुकीर्ति प्रकाशन, कैथल
पृष्ठ - 216
कीमत - 450 / - ( सजिल्द )

लघुकथा विधा के रूप में कब शुरू हुई, प्रथम लघुकथा कौन-सी है, लघुकथा का विकास क्रम क्या है और इसके प्रमुख तत्व कौन से हैं, यह प्रश्न अभी तक अनुत्तरित हैं । अलग-अलग विद्वानों के मत अलग-अलग हैं, लेकिन इन प्रश्नों के उत्तर ढूँढने के प्रयास जारी हैं । रूप देवगुण जी की कृति " आधुनिक हिंदी लघुकथा : आधार एवं विश्लेषण " इसी दिशा में किया गया महत्त्वपूर्ण प्रयास है, जिसे पढ़कर इन प्रश्नों के उत्तर ढूँढने में शोधार्थियों को काफ़ी मदद मिलेगी ।

इस कृति में रूप देवगुण ने पत्रात्मक साक्षात्कार को आधार बनाया है । इसके लिए उन्होंने 61 लघुकथाकारों का साक्षात्कार पत्रों के माध्यम से लिया है, जिनमें एक तरफ वे स्थापित लघुकथाकार हैं, जो वर्षों से इस क्षेत्र में काम कर रहे हैं, जैसे - मधुदीप, मधुकांत, डॉ. बलराम अग्रवाल, डॉ. शील कौशिक, डॉ. रामनिवास मानव, डॉ. प्रद्युम्न भल्ला, सुरेश जांगिड, अमृतलाल मदान, घमंडीलाल अग्रवाल, श्याम सखा श्याम, नरेंद्र गौड़ आदि  तो दूसरी तरफ हरीश सेठी जैसे कुछ नई पीढ़ी के लघुकथाकार भी हैं । लघुकथाकारों से उनकी प्रथम लघुकथा, प्रथम प्रकाशित लघुकथा, लघुकथा संकलनों में हिस्सेदारी, एकल लघुकथा संग्रह, लघुकथा और लघुकथा-संग्रह पर मिले पुरस्कार, सम्मान, लघुकथाओं के मंचन, लघुकथाकारों के साक्षात्कारों या अपने साक्षात्कार, शोध, पत्रिकाओं के प्रकाशन, अनुवाद, आलेख के प्रकाशन आदि से संबंधित प्रश्न पूछे गए हैं । इन प्रश्नों के उत्तर को उन्होंने आधार सामग्री के रूप में लेते हुए इनके विश्लेष्ण से लघुकथा के क्षेत्र में योगदान देने वाले लघुकथाकारों, पत्रिकाओं और संस्थाओं संबंधी प्रामाणिक सामग्री उपलब्ध करवाई है।

लघुकथा के प्रारम्भ के बारे में वे लिखते हैं कि इसका वास्तविक प्रारम्भ आठवें दशक से माना जाता है लेकिन उनका मानना है कि इससे पूर्व में प्रेमचन्द और जयशंकर प्रसाद की कहानियों का शोध करके इनमें लघुकथा के तत्वों को देखा जाना चाहिए । इस प्रकार वे लघुकथा का प्रारम्भ चौथे-पांचवें दशक से देखते हुए शोधार्थियों को इस विषय पर शोध करने को कहते हैं।

लघुकथा के स्वरूप के बारे में भी वे अपना मत रखते हैं -
" आधुनिक हिंदी लघुकथा में लघुता, एक घटना, कसाव, मारक व प्रभावशाली अंत का होना अनिवार्य है तथा ऐसी लघुकथा में कालदोष भी नहीं होना चाहिए । आधुनिक हिंदी लघुकथा में भाषा-शैली का भी अलग स्वरूप है । आज की लघुकथा के विषय भी समाज, परिवार तथा समसामयिक वातावरण के खोजे जाते हैं । इसके पात्र केवल मनुष्य होते हैं, पशु-पक्षी, वृक्ष आदि ।"

संक्षेप में, यह लघुकथा से संबंधित एक महत्त्वपूर्ण कृति हैं जिसमें न सिर्फ लघुकथाकारों के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ मिलती हैं, अपितु लघुकथा के क्षेत्र में हो रहे विभिन्न आयोजनों का भी पता चलता है । लघुकथा को शोध का विषय बनाने वालों के लिए तो यह कृति विशेष रूप से लाभदायक सिद्ध होगी ।

- दिलबागसिंह विर्क

Source:
http://dsvirk.blogspot.com/2017/07/blog-post.html

लघुकथा वीडियो : सरोज दहिया की लघुकथाएं


दो लघुकथाएँ: 1. विजातिय और 2. आज भी नारी | सरोज दहिया 



लघुकथा: शाख | सरोज दहिया 


गुरुवार, 21 मार्च 2019

लघुकथाकार निर्देशिका

श्री मधुदीप गुप्ता की फेसबुक वॉल से 

लघुकथाकार निर्देशिका का प्रकाशन प्रस्तावित

आप अपना नाम, जन्म तिथि, पूरा डाक पता, मोबाइल नम्बर और ईमेल आईडी लिखकर भेज सकते हैं, फोटो नहीं। 

सम्पर्क : 
मधुदीप, 
दिशा प्रकाशन ,
138/16 त्रिनगर, ओंकार नगर-बी, दिल्ली-110035
मोबाइल : 93124 00709

जानकारी रजिस्टर्ड डाक से ही भिजवानी है ।
इस सूचना को अपने उन मित्रों तक अवश्य पहुंचायें जो फेस बुक पर नहीं हैं ।


Source:
https://www.facebook.com/madhudeep.gupta/posts/1258813127617771

शोध ग्रंथ प्रस्तावना: हिंदी लघुकथा का विकास | डॉ. अंजलि शर्मा

लघुकथा हिंदी साहित्य की नवीनतम् विधा है । इसका श्रीगणेश छत्तीसगढ़ के प्रथम पत्रकार और कथाकार माधव राव सप्रे के 'एक टोकरी भर मिट्टी से होता है' । हिंदी के अन्य सभी विधाओं की तुलना में अधिक लघुआकार होने के कारण यह समकालीन पाठकों के ज्यादा करीब है  और सिर्फ़ इतना ही नहीं यह अपनी विधागत सरोकार की दृष्टि से भी एक पूर्ण विधा के रूप में हिदीं जगत् में समादृत हो रही है । इसे स्थापित करने में जितना हाथ लघुकथाकारों का रहा है उतना ही कमलेश्वर , राजेन्द्र यादव, बलराम, आदि संपादकों का भी रहा है । खास कर लघुपत्रिकाओं के संपादकों का ।हमने अपने प्रिय पाठकों के लिए पहली बार हिंदी लघुकथा के विकास पर किसी शोध ग्रंथ को धारावाहिक रूप से छापने का निर्णय लिया है ताकि इस लघु किंतु गुरुतर विधा से सारी दुनिया के रचनाकार और पाठक भी अवगत हो सकें ।

हमें खुशी है रविशंकर विश्वविद्यालय, रायपुर, छत्तीसगढ़ के शोध छात्रा और हिदीं के प्राध्यापक डॉ. अंजलि शर्मा जी की सहमति से संपूर्ण शोध कृति अंतरजाल पर प्रकाशित हो रहा है, जिस पर उन्हें पी-एच.ड़ी की उपाधि मिल चुकी है । हिंदी अंतरजाल के इतिहास में शायद पहला अवसर है कि कोई शोध कृति धारावाहिक प्रकाशित हो रही है । - संपादक

प्रस्तावना

हिन्दी में जब कहानी एक स्वतंत्र विधा के रुप में अस्तित्व में आयी, तब वह अंग्रेजी के ‘शार्ट स्टोरी’ के समानान्तर उभरी और छोटी कहानी के नाम से प्रचलित हुई । आगे चलकर हिन्दी में कहानी शब्द का प्रयोग उसी अर्थ में होने लगा और छोटी विशेषण लुप्त हो गई । इसके अनन्तर निर्धारित सांचे ढांचे से अलगाने के लिये हिन्दी कहानीकारों में एक अन्य प्रवृत्ति भी दिखाई दी, जिसे लंबी कहानी के नाम से अभिहित किया गया । एक बार पुनः कहानी का सांचा टूटा और हिंदी कहानी का नवीन रुप सामने आया जो कहानी और लंबी कहानी से अलग थी, उसे लघुकथा नाम से ख्याति मिली । जिस प्रकार लंबी कहानी को संक्षिप्त करके कहानी की रचना नहीं की जा सकती और न कहानी को बढ़ाकर लम्बी बनायी जा सकती, उसी प्रकार छोटी कहानी का आकार कम करके लघुकथा और लघुकथा का आकार बढ़ाकर कहानी का सृजन नहीं किया जा सकता । यह स्पष्ट है कि कहानी, लंबी कहानी और लघुकथा नाम से कहानी के तीन प्रमुख मोड़ है, जिनका अलग-अलग अस्तित्व और सांचा-ढांचा है, जिनसे इस विधा का क्रमिक विकास स्पष्ट होता है ।यद्यपि विगत दो दशकों में लघुकथाओं के लेखन में पर्याप्त वृद्धि हुई है, तथापि इसके बीज जहां वेद, उपनिषद से लेकर पुराण पर्यन्त तथा पंचतंत्र हितोपदेश आदि कथाओं में संस्थित है, वहीं पारंपरिक लोककथाओं में निहित प्रागैतिहासिक काल से लेकर महापर्यन्त जीवन के स्पंदनों से प्रमाणित है । इस दृष्टि से हिन्दी लघुकथा एवं विकास का अध्ययन मौलिक उद्भावना का प्रतीक है । यह परंपरा वेद, पुराण, रामायण, महाभारत, बौद्ध एवं जातक कथाओं में प्राप्त होती है । कुछ विद्वानों का मत है लघुकथा बीसवीं शताब्दी की देन है । आकार की दृष्टि से लघुकथा प्राचीन हो सकती है, लेकिन वैचारिक धरातल पर आज की लघुकथाओं और प्राचीन लघुकथाओं में पर्याप्त अंतर है, इस विशाल ब्रह्माण्ड में लघु पृथ्वी की हैसियत नगण्य है, फिर भी उसकी उपयोगिता को नकारा नहीं जा सकता । ठीक यही बात लघुकथा के लिए उचित प्रतीत होती है । लघुकथा विस्फोटक के साथ-साथ प्रस्फुटित हुई विधा है । यह किसी व्यक्ति की महानता में बोले जाने वाला लच्छेदार भाषण नहीं वरन शोषण और शोषक के खिलाफ एक क्रांति है ।लघुकथाओं में जहां सूक्तियों का समीकरण जीवन की विद्रुपताओं और विषमताओं का समाहार है, वहीं व्यंग्य की पैनीधार, कथा का श्रृंगार और संवादों के माध्यम से नाटकीयता का स्वीकार है । यायावर मन के बीच घटने वाली क्षणिक घटनाओं में जीवन की विराट व्याख्या छिपी रहती है । इस विराट कथ्य का बिंबों में बांध लेना ही लघुकथा सर्जक का उपक्रम है । संक्षिप्तता इसकी पहचान है । मन को आंदोलित करने वाली अनुभूति को डाइल्यूट किये बिना कहना लघुकथा की विशेषता है । यही कारण है कि जिस तल्खी, तीखापन, सटीकता, संक्षिप्तता और चुभन की प्रखरता से आर्थिक विषमता, सामाजिक विसंगतियां, राजनैतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार, व्यक्ति और समाज की विडम्बना, मानवीय संबंधों का खोखलनापन, संघर्ष और शोषण को लघुकथा के माध्यम से उजागर किया जा सकता है, उतना साहित्य के किसी अन्य माध्यम से नहीं ।

लघुकथा एक साथ लघु भी है, और कथा भी । यह न लघुता को छोड़ सकता है, न कथा को ही । लघुकथा में कथानक की लघुता के माध्यम से कथ्य को धारदार रुप में पाठक तक पहुंचाना होता है । लघुकलेवर में प्रभाव पैदा करने के लिए लघुकथाकार को अपने कथानक और कथ्य के चयन में इससे साथ ही भाषिक स्तर पर शब्द योजना और वाक्य विन्यास के विषय में बहुत सतर्क रहना होता है । लघुकथाकार को भाषा की समाहार शक्ति से काम लेना होता है। लघुकथाकार को थोड़े में अधिक कहने की कलाकार क्षमता अर्जित करनी होती है, आकार की यह लघुता महत्तम कलात्मक अपेक्षा रखनी है ।लघुकथा की आकारगत लघुता इस विधा की उपरी पहचान है, और भीतरी शक्ति भी है । इसमें एक ही केंद्रीय प्रसंग होता है, जो पांच सात पंक्तियां चलकर ही अपने उत्कर्ष की चरम पर पहुंच जाती है, यह उत्कर्ष लघुकथा का नाटकीय मोड़ होता है । इस मोड़ पर ही कथ्य संदर्भ के माध्यम से पूरी उर्जो के साथ व्यक्त होता है। इस प्रकार लघुकथा के लघुप्रसंग में एक नाटकीय भंगिमा अवश्य रहती है, जो स्थिति की विडम्बना का एक झटके के साथ पर्दाफाश करती है ।

लघुकथा के लघु कलेवर में एक-दो पात्र ही समा सकते हैं, वे भी व्यक्तित्व के वाहक न होकर किसी विशेष प्रवृत्ति के पर्याय होते हैं । लघुकथा के संक्षिप्त कथानक में पात्रों के व्यक्तित्व के विकास की गुंजाइश नहीं होती। व्यक्तित्व के आयामों के विकास के लिए सम-विषम प्रकृति के अनेक प्रसंगों की आवश्यकता होती है, लेकिन लघुकथा की लघुता एक से अधिक प्रसंग गवारा नहीं कर सकती । मानव जीवन की विकृतियों पर प्रहार करते हुए उसे संस्कृति की स्वस्थ दिशा में प्रेरित करना ही लघुकथा लेखक का मुख्य लक्ष्य होता है । कथ्य अपने आप में महत्वपूर्ण होते हुए भी जब तक संदर्भगत संवेदना और भाषा के सहारे सशक्त सर्जनात्मक अभिव्यक्ति का रुप नहीं ले पाती, तब तक सपाट बयानी के स्तर से उपर नहीं उठ सकती । लघुकथा न बोधकथा है, न नीतिकथा, न ही विचारकथा वरन लघुकथा आज के व्यस्ततम युग की मांग के अनुरुप सृजनधर्मी मानस और विविध विसंगत संदर्भों की टकराहट के बीच से उपजी एक समर्थ विधा है, जो देखने में छोटी होते हुए भी अपनी प्रभाववत्ता में कहानी से कम नहीं है ।सामान्यतः आलोचक कहानी के अंतर्गत लंबी कहानी का विवेचन करते रहे, और लघुकथाओं को अश्पृश्य मानकर उसे पूर्णतः उपेक्षित करते रहे । पाठकों की स्थिति ठीक इसके विपरीत है । उनके लिये लघुकथा प्रिय विधा है और उसकी लोकप्रियता शनैः-शनैः बढ़ते ही जा रही है ।

किसी भी साहित्यिक विधा का अस्तित्व पाठकों पर सर्वाधिक निर्भर करता है, क्योंकि रचनाकार केवल सृजन करता है, जबकि पाठक रचना और रचनाकार का विस्तार ही नहीं करता, उसके लिए साहित्य में स्थान भी सुरक्षित करता है । उल्लेखनीय है कि लघुकथा को पाठकों का संबल मिल गया है । इस विधा की ओर युवा कथाकार अधिक आकृष्ट हुए हैं, वहीं वयोवृद्ध कथाकारों ने भी इसे अपनाया है । अखरने वाली बात यह है कि हिन्दी के आलोचक इस विधा की शक्ति और क्षमता से अपरिचित एवं उदासीन हैं । इसका प्रमाण है कि किसी भी आलोचक ने इस विधा पर लेखनी ही नहीं चलायी है ।मैं यह मानती हूँ कि लघुकथा एक साहित्यिक विधा है, जो कथा साहित्य के अंतर्गत एक प्रयोग के रुप में हमारे सामने आयी पर अब एक चुनौती बन गई है । यह चुनौती रचनाकार के लिए भी है और आलोचक के लिये भी । रचनाकार के लिये कथ्य के चयन से लेकर अभिव्यक्ति तक अनेक चुनौतीपूर्ण आह्वान है । आलोचकों के लिए विकट समस्या यह है कि जिन तत्वों पर कहानी की आलोचना होती है, वे क्या लघुकथा के लिए पर्याप्त हैं ? लघुकथा में रचनात्मक क्षमता है, पर आवश्यकता इस बात की है कि इस विधा को अपनाने वाले रचनाकारों में रचनात्मक क्षमता हो । इस विधा की रचनात्मक क्षमता की संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता । पूर्वोक्त विवेचन के आधार पर यह प्रश्न बेमानी हो जाती है कि लघुकथा की विधा में सामयिक सार्थकता है, या नहीं ? अगर ऐसा न होता तो अपनी 50 वर्षों से अधिक लंबी यात्रा में कैसे टिक सकती थी ? अर्थात् यह समय की परीक्षा में खरी उतरी है, आठवें और नवे दशकों में पर्याप्त सफलता हासिल करके दसवें दशक में प्रवेश कर चुकी है । किसी भी रचना की सार्थकता के आधार इस प्रकार हो सकते हैं, उसमें रचनात्मक सौष्ठव हो, उसमें व्यापक जीवन समेटा गया हो, अभिव्यक्ति में नवीनता एवं मौलिक उद्भावनाएं हों, स्वस्थ जीवन दृष्टि के साथ-साथ वैचारिकता और समकालीनता की झलक हो तथा वह समाज को आगे ले जाये इस प्रकार कृतित्व और श्रेष्ठता एवं प्रासंगिकता मिलकर रचना की सार्थकता को प्रतिपादित करती हैं । कहा जा सकता है कि लघुकथा में सार्थकता के सभी आधार विद्यमान हो सकते हैं और सार्थक लघुकथाओं में विद्यमान रहते हैं ।

लघुकथा का रुप क्या है, और वह मुख्य रुप से कहानी से किस हद तक अलग है, जिसे प्रस्तुत करने के अनेक तरीके अपनाये जाते हैं। इसके लिये कथा का आधार आधुनिक या प्राचीन जीवन से लिया जाता है। उसमें पशु पक्षी आदि के संस्कार से विषय लेकर फेंटेसी के माध्यम से अभिव्यक्ति की जाती है। लघुकथाओं में नीति बोधकथा को नवीन संदर्भों में अभिव्यक्ति देकर जहां वह सामाजिक यथार्थ को अभिव्यक्ति करती है, वहीं तीखे व्यंग्य का बाहक बनती है। लघुकथा में किसी नियोजित कथावस्तु के निर्वाह की गुंजाइश नहीं होती और पात्रों का चरित्र चित्रण भी उसकी निर्धारित सीमा से बाहर होता है, फिर भी लघुकथा का सूत्र कितना भी सूक्ष्म क्यों न हो, उसमें पात्र की मानसिकता को उधेड़ती हुई कलाकार की दृष्टि उसके वास्तविक स्वरुप को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करती है। अतः लघुकथा में व्यक्ति का बाहरी संसार ही उजागर नहीं होता, बल्कि भीतरी संसार भी प्रत्यक्ष हो जाता है। लघुकथाएं समय के सत्य का वाहक बनकर हमारे सामने आती हैं। हिंदी लघुकथा के संदर्भ में व्यप्त भ्रांतियों को दूर करके मैंने विविध विंदुओं पर दूसरे स्वरुप को सुस्पष्ट करने का प्रयास किया है। उपयुक्त तथ्य विविध लघुकथाकारों से चर्चा प्रश्नावली के माध्यम से निदान और लघुकथाकारों के अध्ययन अनुशीलन के अनंतर शोध की नूतन सृष्टि और मौलिकता की दृष्टि का प्रतीक है। हिंदी लघुकथाकारों के स्वरुप और विकास पर अनेक आलोचकों व लघुकथाकारों ने समय-समय पर विचार भी किये हैं तथा कुछ महत्वपूर्ण शोध भी समक्ष प्रस्तुत हुए हैं लेकिन प्रस्तुत शोध प्रबंध के विषय के अनुरुप इसका आंकलन वे व्यवस्थित विचार अभी तक उपलब्ध नहीं था। विचार विच्छिन्न थे और आलोचना को एकांगी और अपरिभाषित संसार ही हमारे समक्ष था।

लघुकथाओं के इस कुज्झटिकाच्छन स्थिति में सत्यान्वेषण के आलोक बतौर यह शोध प्रबंध यदि कुछ दे पाये, तो यह मेरे श्रम की सार्थकता होगी।प्रस्तुत विषय की पूर्णता हेतु जहां मुझे दूसरे विकास क्रम हेतु पत्र-पत्रिकाओं और संग्रहों का संकलन करना पड़ा, वहीं समीक्षा को ढूंढना पड़ा। इसके साथ ही लघुकथाकारों से संपर्क, चर्चा व पत्रों के माध्यम से विचार बिन्दु प्राप्त कर इसके स्वरुप और विकास को व्यवस्थित रखने का विनम्र प्रयास करना पड़ा । समय-सीमा और एक नारी होने की सामाजिक मर्यादा बंधन को स्वीकारते हुए मैंने जो कुछ भी लिखा, यही शोध का गंतव्य और अध्ययन का महत्व है ।मैंने प्रस्तुत विषय को विविध दस अध्यायों में विभक्त कर हिन्दी लघुकथा उद्भव एवं विकास को विवेचित किया है।

प्रथम अध्याय में कथा की परिभाषा एवं कथा का विकासात्मक अध्ययन करते हुए कथा एवं लघुकथा के अंतरों को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है । कथा एवं लघुकथा में रचना प्रक्रिया के अंतर के साथ ही वैचारिक दृष्टिकोणों में मूलभूत अंतर है । साथ ही लघुकथा के संबंध में अनेक विद्वानों को रखते हुए मैंने लघुकथा की विशेषताओं को आंकने का प्रयास किया है ।

द्वितीय अध्याय- ‘लघुकथा का क्रमिक विकास’ शीर्षक में लघुकथा के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को प्रस्तुत करने के लिए अध्ययन की दृष्टि से दो स्थूल रूपों में काल विभाजन किया है प्राचीन युग एवं नवीन युग । प्राचीन काल की लघुकथाओं में वैदिक युगीन लघुकथाओं को प्रथम सूत्र में पिरोया है । इस युग की लघुकथाओं में आध्यात्मिक एवं अलौकिक रहस्यों की व्याख्या की गई है, जैसा कि ऋग्वेद और अर्थववेद में मिलता है । उदाहरणार्थ यम और यमी की कथा । रामायण और महाभारत में भी लंबी कथा से जुड़ी रहकर लघुकथा का स्वतंत्र रुप प्राप्त होता है । रामायण कालीन न्याय व्यवस्था का स्वरुप वाल्मीकि रामायण के उत्तरकांड में गिद्धराज और उल्लू की लड़ाई झगड़े की कथा प्राप्त होती है । लघुकथा का नवीन रुप माखन लाल चतुर्वेदी की लघुकथा ‘बिल्ली और बुखार’ को हिन्दी साहित्य की सर्वप्रथम लघुकथा मानी जा सकती है । आठवाँ दशक लघुकथा के विकास का काल है । इस दशक में लघुकथा को स्वतंत्र मौलिक विधा के रुप में स्थापित करने का स्वर प्रबल रहा । सन् 1974 में मेरठ विश्व विद्यालय के हिन्दी विभाग ने इसे स्वतंत्र मौलिक विधा घोषित करके विश्वविद्यालय में पाठ्यक्रमों में स्थान दिया । इसी अध्याय में लघुकथा के ऐतिहासिक सोपानों को स्पष्ट किया गया है ।

तृतीय अध्याय- में लघुकथा के स्वरुपगत और भाषागत वैशिष्टय को स्पष्ट किया है । लघुकथा के आकारगत वैशिष्ट्य, सुगठित शिल्प एवं सशक्त भाषा के कारण लघुकथा लोकप्रिय हुई । हिन्दी साहित्य की सश्क्त एवं लोकप्रिय विधा लघुकथा का अत्यंत अल्पकाल में इतना विकास हुआ कि अब तक इसकी सर्वमान्य परिभाषा नहीं है । अधिक से अधिक यह कहा जा सकता है कि लघुकथा वास्तविक जीवन की क्षणिक घटना का रेखांकन है, जो छोटी होते हुए भी स्वतः पूर्ण और सुगठित होती है । प्रायः यही परिभाषा कहानी की भी दी जा सकती है, किन्तु लघुकथा और कहानी में बहुत अंतर है । साधारणतः लोग यही समझते हैं कि यदि घटना-क्रम को विस्तार से बड़े आकार में लिखा जाय, तो उसे कहानी कहेंगे और उसी आकार को लघु कर दिया जाये तो लघुकथा कहेंगे, किन्तु यह भ्रांति है । कहानी और रचना में मूलभूत अंतर है । यह अंतर केवल आकार प्रकार का नहीं, आत्मा का भी होता है ।लघुकथा के स्वरुप के संबंध में उसके आकार को लेकर भी विवाद है । वस्तुतः आकार की लघुता लघुकथा की अनिवार्य विशेषता है, जो उसके नाम में ही समाहित है । लघुकथा कितने शब्दों और पृष्ठों की होनी चाहिए । यह कोई व्यवहारिक मुद्दा नहीं है और नहीं कोई बंधन है। यह कहा जा सकता है कि लघुकथा में एक भी शब्द अनावश्यक न हो । दरअसल कम से कम शब्दों में अधिक कह देने के सामर्थ्य में ही लघुकथा का सारा कौशल निहित है ।अतः संक्षिप्तता और कसावट के निर्वाह के लिये लघुकथा की संवेदना के दायरे को समझ लेना चाहिए यदि लघुकथा की तुलना कहानी के साथ करें तो यह बेमानी है, कारण दोनों कही अपने-अपने ढंग से अपने समय के सच को पूरी प्रमाणिकता के साथ व्यक्त करती है । फर्क केवल इतना है कि लघुकथा उस तकतीर की तरह सीधे जाती है, जबकि कहानी विभिन्न स्थितियों का समाकलन करती हुई उस सच को पैदा करने वाली स्थितियों को भी उजागर करती है, तथा अंत में उन स्थितियों के खिलाफ पाठक को सोचने के लिये उत्तेजित करती है । लघुकथा और कहानी में एक बहुत बड़ा फर्क यही है । लघुकथा अपनी संपूर्णता में पाठकों उत्तेजित करने में उतनी सफल नहीं हुई, शायद इसके पीछे लघुकथा के साथ जाने अनजाने जुड़ा हुआ चुटकुला का स्वरुप भी है । अपनी संपूर्ण और ईमानदार कोशिशों के बावजूद लघुकथाकार इस भ्रम को दूर नहीं कर पाये हैं, और जब एक यह भ्रम दूर नहीं होगा उसका प्राप्य उपलब्ध नहीं होगा ।

चतुर्थ अध्याय - में हिन्दी लघुकथा साहित्य की विशेषताओं एवं न्यूनताओं को रेखांकित किया गया है ।

पंचम अध्याय में लघुकथा के शैलीगत वैशिष्टय के अंतर्गत लघुकथा में प्रयुक्त विभिन्न शैलियों का वर्णन किया गया है । लघुकथा की शैली के संबंध में यह प्रश्न उठता है कि क्या व्यंग्य लघुकथा के लिये अनिवार्य तत्व हैं ? यह सही भी है कि सस्ता हास्य लघुकथा के लिये सर्वथा वर्ज्य है किंतु व्यंग्य का अर्थ हास्य, कदापि नहीं है। व्यंग्य की एक शैली है, एक भंगिमा है, एक शक्ति है, जो हमारी चेतना को उद्वेलित करने में अमिधात्मक शैली से अधिक समर्थ होती है।

षष्ठ अध्याय में लघुकथाओं की वैचारिक पृष्ठ भूमि एवं संप्रेषणीयता के प्रश्नों की उद्घाटित करने की चेष्ठा की गई है। अपने लघुआकार में लघुकथा व्याप्क संप्रेषणीयता व प्रभावोत्पादकता के लिये अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम है। लघुकथा के आकारगत वैशिष्टय, सुगंठित शिल्प एवं सशक्त भाषा के कारण लघुकथा लोकप्रिय हुई ।

सप्तम् अध्याय- आठवें दशक की लघुकथाओं में समकालीनता के अंतर्गत आठवें दशक की लघुकथा की विशेषताओं को उजागर करने का प्रयास किया गया है। हिंदी लघुकथा के विकास के संदर्भ में आठवों दशक को नवोन्मेष काल कहा जा सकता है। स्पष्ट है कि पारंपरिक आदर्शों एवं उपदेशों में गुम्फित लघुकथा का यथार्थ के धरातल पर अवतरण हुआ।

अष्टम अध्याय- आठवें अध्याय में हिंदी के श्रेष्ठ लघुकथाकारों की प्रमुख लघुकथाओं की विशेषताओं को रेखांकित करने के साथ ही लघुकथाकारों का परिचय भी दिया गया है।

नवम अध्याय- ‘नवें दशक की लघुकथाओं में समकालीनता’ के अंतर्गत नवें दशक के लघुकथाकारों की लघुकथाओं पर दृष्टि डालने का प्रयास किया है। नवम अध्याय में हिंदी के श्रेष्ठ लघुकथाकारों का प्रदेय एवं मूल्यांकन की ईमानदार कोशिश की गई है।

दशम अध्याय- ‘उपसंहार के अंतर्गत समग्र लघुकथाओं तथा उसके भविष्य की संभावनाओं पर विचार करने के पश्चात निष्कर्षतः सार संक्षेप को प्रस्तुत किया गया है।लघुकथा अपने परिचय से लेकर संघर्ष करने तक की जोखिम भरी तमाम स्थितियों से गुजरकर आठवों दशक में स्वतंत्र विधा के रुप में हमारे समक्ष प्रस्तुत हुई। लघुकथा के कथ्य शिल्प का निर्वाह ईमानदारी से किया जा रहा है। आज की लघुकथाओं में अन्य साहित्यिक विधाओं की तरह शिल्प रचनाधर्मिता के संबंध में गुण तत्व के रुप में समाहित है। लघुकथाएं सम-सामियकता से जुड़ी हुई तथा प्रभाव संप्रेषण की दृष्टि से असीम क्षमता युक्त है। जहां इसकी महता लघुकथाकार के द्वारा नये मूल्यों की स्थापना है, वहीं अपने उत्तरदायित्व की पूरी तरह एहसास कराने में भी, निःसंकोच कहा जा सकता है कि आज की लघुकथाओं में यथार्थ के धरातल और समय की आवाज को मुखर करने को एक ईमानदार कोशिश के अमिट चिन्ह परिलक्षित होते हैं।

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डॉ. अंजलि शर्मा
सहायक प्राध्यापक
शासकीय स्नातकोत्तर कला एवं वाणिज्य महा'जरहाभाटा,
बिलासपुर, छत्तीसगढ

Source:
http://hindilaghukathaa.blogspot.com/2007/09/blog-post.html
स्त्रोत पर प्रकाशन दिनांक: September 25, 2007

बुधवार, 20 मार्च 2019

लघुकथा मंजूषा 3 खंड 1 के पृष्ठ 1-66 गूगल बुक्स पर


पुस्तक समीक्षा । आशा की किरणें । सत्यप्रकाश भारद्वाज । समीक्षाकार: दिलबागसिंह विर्क



अपार आशाएं जगाता लघुकथा-संग्रह

लघुकथा-संग्रह - आशा की किरणें
लघुकथाकार - सत्यप्रकाश भारद्वाज
प्रकाशन -  अंशिका पब्लिकेशन
कीमत - 150 /-
पृष्ठ - 96 ( पेपरबैक )

साहित्य में लघु विधाओं को देखकर इन्हें लिखना जितना आसान लगता हैं, वास्तव में उन्हें लिखना उतना ही कठिन होता है क्योंकि इनमें गागर में सागर भरना होता है, जिसके लिए विशेष महारत की आवश्यकता होती है । आजकल लघुकथाएँ भी काफ़ी मात्रा में लिखी जा रही हैं लेकिन लघुकथाएँ चुटकला बनने से बचें और वे मात्र सपाट बयानी न हों इसके लिए लघुकथाकार का सजग होना बेहद जरूरी है । यूँ तो जीवन का हर विषय लघुकथा में समेटा जा सकता है, लेकिन विषय को लघुकथा का रूप देना ही लघुकथाकार के लिए चुनौती होती है । लघुकथा-संग्रह “ आशा की किरणें ” पढ़ते हुए यह अहसास होता है कि सत्यप्रकाश भारद्वाज जी ने इस चुनौती का सामना सफलतापूर्वक किया है । इस संग्रह में 83 लघुकथाएं है जो जीवन के विभन्न पहलुओं को समेटे हुए हैं ।

पुस्तक के शीर्षक के अनुसार आशावादी दृष्टिकोण प्रमुख रहा है, लेकिन यथार्थ का भी प्रस्तुतिकरण हुआ है । व्यंग्य की प्रचुरता है तो भाव प्रधान लघुकथाएं भी हैं । लेखक ने आदर्शवाद के प्रस्तुतिकरण में कही-कहीं अतिवादी दृष्टिकोण भी अपनाया है, लेकिन ये सब स्वस्थ समाज की कल्पना करती लघुकथाएं हैं । ‘एयर-टिकट’ और ‘सार्थक’ लघुकथाएं आदर्श पुत्र को दिखाती हैं, तो ‘बहू नहीं बेटी’ आदर्श बहू की लघुकथा है । ‘फिर से’ लघुकथा में बच्चे के कारण तलाक होते-होते बच जाता है । ‘दूरियाँ’ लघुकथा में पत्नी पति को उसके गाँव लेकर जाती है, जो सामान्य स्थितियों के विपरीत है, और यही लेखक का आशावाद है । ‘सवेरा’ भी इसी सोच के अंतर्गत लिखी गई है । बच्चा भीख मांगने की बजाए अपने बाबा को सम्मानपूर्वक जीना सिखाता है । ‘इंसानियत’ लघुकथा में देवेन दुर्घटना का शिकार हुए बच्चे को बचाता है । ‘युग-परिवर्तन’ में लड़की को लेकर दादी की सोच बदलती है । ‘अपना धरातल’ में पत्नी से प्रेरणा पाकर पति आत्मनिर्भर बनता है । ‘अपना-अपना ईमान’ लघुकथा में पत्नी पति को अपने ईमान से डोलने नहीं देती । ‘परिश्रम का फल’ लघुकथा में मेहनती विकास का सफल होना और नकलची सुरेंद्र और राकेश का फ्लाईंग स्क्वैड द्वारा पकड़ा जाना आदर्शवाद की स्थापना करता है । ‘नई भोर’ में बस्ती में स्कूल खुलवाकर और बच्चों के माध्यम से नई भोर आने का सपना देखा गया है । ‘भगवान आए’ लघुकथा में मीनू का पिता पिंकी की पढ़ाई की जिम्मेदारी भी लेता है और पिंकी के पिता के ईलाज की व्यवस्था भी करता है । ‘नया जीवन’ में आत्महत्या करने जा रही मालती को बुजुर्ग न सिर्फ बचाता है, अपितु बेटी की तरह अपनाता है । ‘संकल्प’ अच्छे लोगों को शक की नजर से देखने की बात करती लघुकथा है लेकिन इसका सच्चे इन्सान पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । ‘भ्रष्टाचार के नए कीर्तिमान’ ईमानदार व्यक्ति के राजनीति में आकर भ्रष्ट होने की बात तो करती है, लेकिन प्रजा का सबक सिखा देना आशावादी दृष्टिकोण है । ‘लोकतंत्र’ का अंत भी इसी सोच को दर्शाता है । ‘सशक्तिकरण’ का विषय भी राजनीति है । शान्ति भ्रष्ट धर्मसिंह को प्रधान पद से उतरवाकर कार्यवाहक प्रधान के रूप में हालात बदल देती है । औरत कमजोर नहीं । ‘उत्तरदायित्व’ लघुकथा में शंकुतला परिवार का उत्तरदायित्व उठाती है । औरत को अन्याय का विरोध करते और जीतते भी दिखाया गया है । ‘पसीने का मोल’ और ‘नया इतिहास’ इस प्रकार की लघुकथाएं हैं । पुरुष भी ‘आत्मसम्मान’ में अन्याय का विरोध करके जीतता है । धार्मिक सहिष्णुता को लेकर भी लेखक ने ‘ईश्वर का दूत’ और ‘राशिद भाई’ जैसी लघुकथाएं लिखी हैं ।

विधुर जीवन को दिखाती तीन लघुकथाएं है – ‘उसका संग’, ‘पराया हुआ गाँव’ और ‘अश्रुकण’ । तीनों लघुकथाओं में पत्नी के महत्त्व को दर्शाया गया है । प्रतीक के रूप में पशु-पक्षियों को लेकर मानवता पर तंज कसा गया है । इस कड़ी में ‘अंतर’, ‘आदमी की परिभाषा’, ‘आदमी जैसा’ और ‘विषैला’ लघुकथाएं आती हैं । व्यंग्य का प्रयोग अनेक लघुकथाओं में हुआ है । ‘वास्तविकता’ तथाकथित विकास पर व्यंग्य है, ‘सहानुभूति’ पत्रकारों की संवेदनशून्यता पर व्यंग्य है, ‘समझदारी’ में अधिकारियों को ख़ुश करके बच निकलने की बात है, ‘दानवता’ सती प्रथा को लेकर पुलिस और आदमियत पर व्यंग्य करती है । ‘सुरक्षा’ में पुलिस की निष्क्रियता पर व्यंग्य है । ’नए दौर का श्रीगणेश’ में पुलिस को लुटेरा दिखाया गया है । ‘नरभक्षी’ भी पुलिस का ऐसा ही रूप दिखाती है । ‘समय बहुत खराब है’ एक तरफ भक्षक पुलिस को दिखाती है तो दूसरी तरफ गुंडे में मानवीयता दिखाती है । ‘किसे सुनाएं’ नाकों पर होने वाले भ्रष्टाचार को दिखाती है । ‘समाज सेवा हो ली’ भी भ्रष्टाचार को विषय बनाती है । कमीशनखोरी को लेकर भी लघुकथाएं कही गई हैं । ‘वाह, विकास कार्य’, ‘लुटेरे’ इसी प्रकार की लघुकथाएं हैं । ‘नया उग्रवाद’ में पुलिस से मिलीभगत करके उग्रवाद के नाम पर निजी दुश्मनियाँ निकाली जाती हैं । ‘व्यवसाय’ लघुकथा में राजनीति को व्यवसाय कहा गया है, ‘ठहाके’ लघुकथा में दंगों के पीछे नेताओं के हाथ को दिखाती है तो ‘उनको किसी ने नहीं देखा’ नेताओं के दोगलेपन को दिखाती है । ‘स्वतन्त्रता का मूल्य’ में स्वंत्रता सेनानी देश के नेताओं के व्यवहार को देखकर आहत होता है ।

‘जोंक’ और ‘नकली चेहरा’ रिश्तों के सच को ब्यान करती लघुकथाएं हैं । ‘घर’ में मुखिया परिवार की अपेक्षाओं का बोझ ढोता है । ‘प्रेरणा’ में अपने व्यवहार का सन्तान पर प्रभाव दिखाया गया है । ‘उपेक्षा’ में पिता बच्चों के व्यवहार की उपेक्षा करने की बात पत्नी को कहता है, लेकिन वह ख़ुद भी उपेक्षा नहीं कर पाता । ‘अपनी-अपनी श्रद्धा’ पुजारियों की लूट और ‘सुफल’ मन्दिरों में जाती विशेष के लोगों के निषेध को विषय बनाती है । ‘विडम्बना’ लघुकथा दहशतगर्दों का कोई दीन-ईमान नहीं होता, बात को सत्य सिद्ध करती है । ‘जुनून’ में दंगों में स्त्री की अस्मिता को लूटने को विषय बनाया गया है । ‘भीख की लूट’ भिखारिन के प्रति समाज की घटिया मानसिकता को दिखाती है । ‘ममता’ में स्तनपान को लेकर लघुकथा कही गई लेकिन महिला कल्याण समिति में स्तनपान न करवाने की बात अस्वाभाविक लगती है । ‘सत्ता का नशा’ भी अतिशयोक्तिपूर्ण विषय है । यही कमी ‘भाग्यशाली’, ‘दुर्भाग्य’ और ‘पवित्र-अपवित्र’ लघुकथाओं में दिखती है ।

‘यह सिलसिला जारी रहेगा’ दहेज को लेकर संवादात्मक लघुकथा है, जिसका कोई निष्कर्ष लेखक नहीं निकालता । लेखक ने इसी शैली में ‘द्वंद्व’ लघुकथा लिखी है जिसमें सत्य-असत्य का वाद-विवाद है । ‘मर्यादा’ में लेखक पहरावे को छेड़छाड़ का कारण बताता है, ‘परोपकार’ में बच्चों के जन्म को लेकर अनपढ़ और गरीब परिवारों की सोच दिखाई गई है, ‘भ्रष्ट व्यवस्था’ में दिखाया गया है कि ईमानदार अधिकारियों को काम नहीं करने दिया जाता । ‘पराए लोग’ गरीबों के प्रति समाज की उपेक्षा को दिखाती है, तो ‘धुएँ का अंबार’ दिल्ली जैसे शहर में ग्रामीण व्यक्ति के असफल होने की बात करती है । ‘धर्म-अधर्म’ में दिखावे की धार्मिकता और पश्चाताप को दिखाया गया है । ‘कर्त्तव्यबोध’ में गुरु का पतित होने से बचना, ‘शहद में डूबे शब्द’ में दहेज़ को लेकर लड़की का खरा-खरा जवाब, ‘बंटवारा’ में लालची बेटे का वर्णन है । ‘कब्जा’ लघुकथा में जमीन पर कब्जा लेने के लिए झुग्गियों को जला दिया जाता है, ‘उनका खुदा’ जेहाद को विषय बनाती है । ‘स्थानांतरण’ में माँ और पत्नी के कटाक्ष हैं, ‘पत्र’ में पत्र के माध्यम से दोस्त की और पूर्व में अपनी दशा का चित्रण है । ‘विकास’ विज्ञान के अच्छे और बुरे पहलू को दिखाती है, ‘रोटी का स्वाद’ भूखे के लिए रोटी का महत्त्व दिखाती है तो ‘बिरादरी’ में बेटी का गैर बिरादरी के युवक से प्रेम का पिता पर प्रभाव दिखाया है ।

विषय को लेकर यहाँ इन लघुकथाओं में पर्याप्त विविधता है, वहीं इनके शिल्प में भी पर्याप्त विविधता है । लघुकथा का अंत अति महत्त्वपूर्ण होता है । लेखक ने कई लघुकथाओं में पंच लाइन का प्रयोग किया है तो कई लघुकथाओं को पाठकों के ऊपर छोड़ा है । कुछ में लेखकीय टिप्पणी भी मिलती है । एक-दो लघुकथाओं को छोड़कर संवाद छोटे, चुटीले और स्वाभाविक हैं । वर्णन और चित्रण के लिए लघुकथाओं में गुंजाइश कम ही होती है लेकिन लेखक ने इनका भी समुचित प्रयोग किया है । वर्तमान में लघुकथा को एक ही समय में कहे जाने की बात कही जाती है, ऐसे में कुछ लघुकथाएं समय दोष से ग्रसित कही जा सकती हैं, लेकिन यह दोष अखरता नहीं बल्कि यह कुछ लघुकथाओं की मांग लगता है । संक्षेप में, सत्यप्रकाश भारद्वाज का लघुकथा-संग्रह “ आशा की किरणें ” अपार आशाएं जगाता है ।

- दिलबागसिंह विर्क 

साभार:
https://dsvirk.blogspot.com

मंगलवार, 19 मार्च 2019

लघुकथा समाचार: प्रज्ञा साहित्यिक मंच ने लघु कथा की विधा पर किए विचार साझा

Rohtak News - Bhaskar News Network Mar 19, 2019

रोहतक। शहीद दीपक पार्क में प्रज्ञा साहित्यिक मंच की ओर से सोमवार को लेखक से मिलिए कार्यक्रम का आयोजन किया गया। विचार गोष्ठी कार्यक्रम के मुख्य अतिथि दिल्ली से लेखक मधुदीप गुप्ता तथा अध्यक्ष पंचकूला से लाजपत राय गर्ग रहे। मंच का संचालन आशा खत्री ने किया। कार्यक्रम में लघुकथा विधा पर गहराई से विचार विमर्श किया गया। डॉ. मधुकांत और अनूप बंसल ने प्रज्ञा साहित्यिक मंच की तरफ से मधुदीप गुप्ता एवं लाजपत राय गर्ग को शाल व स्मृतिचिन्ह देकर सम्मानित किया। इस अवसर पर श्यामलाल कौशल, डॉ. चंद्रदत्त शर्मा, डॉ. रमाकांता शर्मा, सुनीता बहल,अर्चना कोचर, विजय विभोर मौजूद रहे।


source:
https://www.bhaskar.com/haryana/rohtak/news/haryana-news-pragya39s-literary-platform-shared-views-on-the-story-of-short-stories-033608-4159137.html

पुस्तक समीक्षा । दिव्याँग जगत की 101 लघुकथाएँ । डॉ. राजकुमार निजात । समीक्षाकार: दिलबागसिंह विर्क



समाज में दिव्यांगों की दशा और दिशा का चित्रण करता लघुकथा-संग्रह

लघुकथा-संग्रह – दिव्याँग जगत की 101 लघुकथाएँ
लेखक – राजकुमार निजात
प्रकाशक – एस.एन.पब्लिकेशन
पृष्ठ – 136
कीमत – 400 /- ( सजिल्द )

अनेकता जहां भारतीय समाज की विशेषता है वहीं भेदभाव का होना इसके माथे पर कलंक जैसा है । भारतीय समाज में जाति, आर्थिकता के आधार पर ऊँच-नीच तो है ही, शारीरिक व मानसिक सक्षमता के आधार पर भी वर्ग हैं । निशक्तजन दिव्यांग कहलाते हैं। कई बार समाज दिव्यांगों के प्रति सामान्यजन जैसा व्यवहार नहीं करता । कहीं इनके प्रति घृणा है, तो कहीं सहानुभूति जबकि बहुधा दिव्यांग इन दोनों को नहीं चाहता । वो चाहता है कि उसे सामान्य पुरुष-स्त्री जैसा सम्मान दिया जाए । राजकुमार निजात जी ने समाज के दिव्यांगों के प्रति नजरिए का बड़ी बारीकी से विश्लेषण करते हुए ‘ दिव्यांग जगत की 101 लघुकथाएँ ’ नामक लघुकथा-संग्रह का सृजन किया है । इस संग्रह में समाज में दिव्यांगों की स्थिति का वर्णन तो है ही, दिव्यांगों के नजरिए से समाज को भी देखा गया है । दिव्यांगों की मनोस्थिति को भी समझा गया है । कुछ दिव्यांग अपनी दिव्यांगता के कारण हीनभावना के शिकार हो जाते हैं, जबकि कुछ अपने हौसले से दिव्यांगता पर विजय पा लेते हैं । लेखक ने इन सभी स्थितियों को लघुकथाओं की कथावस्तु में पिरोया है ।

दिव्यांगता कोई गुनाह नहीं लेकिन कई बार दिव्यांग ख़ुद तो कभी उनके माँ-बाप भी इसे शाप मान बैठते हैं । विष्णु की माँ विष्णु को पिछले जन्म का दंड मानती है, हालंकि उसकी ममता उसे तुरंत संभाल लेती है । ‘ दुनियावाले ’ लघुकथा बड़ी सटीकता से समाज की सोच को दिखाती है । दिव्यांग को यहाँ भिखारी समझ लिया जाता है । समाज को इस बात का भी डर सताता रहता है कि दिव्यांग की सन्तान भी दिव्यांग न हो जाए जबकि शारीरिक दिव्यांगता के मामले में ऐसा होने का कोई कारण नहीं होता । लेखक ने ‘ आगमन ’ लघुकथा में इस सोच को निर्मूल साबित किया है । नेताओं की दिव्यांगों के प्रति दोहरी सोच को ‘ पर्दाफाश ’ लघुकथा में दिखाया गया है । ‘ उसका दर्द ’ लघुकथा दिव्यांगों के दर्द को न समझने का चित्रण करती है । अन्य दिवसों की तरह दिव्यांग दिवस की महज औपचारिकता की जाती है । ‘ दिखावे ’ लघुकथा भी बड़े लोगों की दिखावे की प्रवृति को दिखाती है, दिव्यांगों से उनकी सहानुभूति नहीं होती । ‘ सम्पूर्ण दिव्यांगता ’ में सरकारी भ्रष्टतन्त्र की दिव्यांग के प्रति असंवेदनशीलता को दिखाया गया है । ‘ आधी टिकट ’ लघुकथा सरकार की सोच पर व्यंग्य करती है ।

समाज कई बार भेदभाव करता है तो कई बार लापरवाही । दिव्यांगों, विशेषकर मानसिक दिव्यांगों को विशेष देखभाल की जरूरत होती है । ‘ निरंतर ’ लघुकथा दिव्यांग बच्चों पर माँ-बाप के विशेष ध्यान की बात करती है लेकिन लेखक ने लापरवाही को दिखाती हुई लघुकथाओं का भी सृजन किया है । मानसिक रूप से कमजोर व अस्वस्थ कपिला को उसकी माँ अकेले स्कूल भेज देती है । एक माँ खिलौने बेचने भेज देती है तो करुणा की मां रेलवे स्टेशन पर बेटी को पीछे छोड़ आती है । ‘ उसकी बेटी ’ नामक इस लघुकथा में लेखक बड़ा महत्त्वपूर्ण संदेश भी देता है कि मानसिक दिव्यांग के गले में पहचान-पत्र डाला जाना चाहिए । लेखक ने इन लापरवाहियों को बड़े हादसे में बदलते नहीं दिखाया क्योंकि समाज में अच्छे लोग भी हैं । अच्छे-बुरे दोनों प्रकार के लोगों को ‘ लकवा ’ लघुकथा में बड़ी खूबसूरती से दिखाया गया है । नया चेयरमैन गीता को स्कूल से सिर्फ इसलिए निकाल देता है, क्योंकि वह दिव्यांग है लेकिन अभिभावक इसका विरोध करते हैं । समाज के अच्छे रूप को लेखक ने अनेक जगहों पर दिखाया है । ‘ भीतर से ’ लघुकथा दिखाती है कि कैसे दिव्यांग बच्चे के भीतर स्वस्थ बच्चे को पैदा किया जा सकता है । दिव्यांगों को काम करने देना चाहिए क्योंकि उन्हें काम से रोकना उनमें तनाव पैदा करता है, हीनता की ग्रन्थि को उत्पन्न करता है । उत्तर की माँ भी उसे काम करने से रोकती है, जिससे वह तनावग्रस्त होता है और इस तनाव से उसे मुक्ति तभी मिलती है जब वह चुपके से काम कर देता है । ‘ जवाब ’ लघुकथा के आवारा और आज़ाद बच्चे भी यही संदेश देते है कि दिव्यांगों को खेलने दिया जाना चाहिए ।
                     दिव्यांगों को सामन्यत: माँ-बाप का विशेष स्नेह मिलता है । लेखक ने इसे भी लघुकथाओं का विषय बनाया है । ‘ लबालब दामन ’ लघुकथा में दामिनी अपने बेटे से प्रेमपूर्वक व्यवहार करती है । व्यापक को उसके पिता छोटे बच्चों वाली पींग से झूला झुलाते हैं । माँ-बाप के अतिरिक्त समाज के अन्य लोग भी उनकी ख़ुशी के लिए और उनको आगे बढने की प्ररेणा देने के लिए कार्य करते हैं । मिंटू गोपाल की मदद से टॉप स्वीप झूले पर फिसल पाता है ।

समाज के बहुत से लोग दिव्यांगों की सेवा के लिए अपना जीवन अर्पित कर देते हैं, लेखक ने उन पर भी कलम चलाई है । डॉ. विराट दिव्यांगों की सेवा के लिए अमेरिका की प्रैक्टिस छोड़कर भारत आ जाता है । डॉ. दीप्ति सप्ताह में एक पोलियो केस का ऑप्रेशन मुफ्त करती है । डॉ. परमेश्वर दिव्यांग भाग्यलक्ष्मी से शादी करने को तैयार हो जाते हैं । समाज के साथ-साथ सरकार भी दिव्यांगों के लिए मुफ्त पास और नौकरी की व्यवस्था करती है ।

समाज के साथ-साथ दिव्यांगों की सोच और जीवन-शैली को भी इस संग्रह में दिखाया गया है । दिव्यांग होने से मानवीय गुणों में परिवर्तन नहीं आते । लेखक ने अनेक लघुकथाओं के माध्यम से दिव्यांगों में मौजूद गुणों को दिखाया है । ‘ संजीवनी ’ लघुकथा बताती है कि दिव्यांग रेवती में सेवाभाव बरकरार रहता है । ‘ समर्पित ’ लघुकथा में बताया गया है कि दिव्यांगता से समर्पण में कमी नहीं आती । दिव्यांग होने का अर्थ यह नहीं कि वे अपने कर्त्तव्य में कोताही बरतेंगे । ‘ गुहार ’ लघुकथा उनकी कर्त्तव्यनिष्ठ को दिखाती है । ‘ दिल से ’ लघुकथा में कैटरिंग वाले का कथन बहुत कुछ कहता है –
“ तुम जैसे लोग दिल से काम करते हैं । बाकी लोग तो काम के लिए काम करते हैं ।” ( पृ. – 101 )
‘ चौकसी ’ लघुकथा उनकी सतर्कता को दिखाती है । वे सबके लिए प्रार्थना करते हैं । ‘ प्रार्थना ’ लघुकथा इसी उदारता को दिखाती है । दिव्यांग कुलदीप अपने लिए मांग न करके भगवान से प्रार्थना करता है कि धर्मान्धों को सद्बुद्धि दे । दिव्यांग भी सामान्य आदमी की तरह अन्याय का विरोध करते हैं । ‘ महाकाल ’ लघुकथा में गूंगा-बहरा कर्मचारी लड़की की इज्जत लुटने से बचाता है । दिव्यांग किन्नर अन्य किन्नरों की मदद से बदमाश के चंगुल से एक दिव्यांग की जवान बहन को बचाता है । ‘ बाहुपाश ’ लघुकथा में मानसिक दिव्यांग लक्ष्मण बड़े भाई से अपनी माँ को बचाता है । दिव्यांग निवेश सर्वजन हिताय की सोच रखता है । वह अपने पिता से पूछता है कि क्या मछलियाँ भी दिव्यांग होती है और उसका प्रश्न करना उसके पिता को मछलियाँ पकड़कर बेचने की बजाए नाव बनाकर बेचने का व्यवसाय शुरू करवा देता है । एक दिव्यांग, व्यक्ति में ही नहीं पौधों की अपूर्णता पर भी द्रवित हो उठता है, यह इन्द्रानी के माध्यम से दिखाया गया है । जब कोई दिव्यांग अपनी दिव्यांगता की आड़ में समाज पर झूठा दोषारोपण करता है तो दिव्यांग ही उसकी गलतफहमी दूर करता है । शारीरिक दिव्यांग सिर्फ शरीर से दिव्यांग हैं, उनकी सोच स्वस्थ है । ‘ भरपाई ’ लघुकथा में दिव्यांग बच्चे की प्रोढ़ सोच को दिखाया गया है । ‘ न्याय दृष्टि ’ लघुकथा में दिव्यांग अपनी दिव्यांगता के लिए किसी को दोषी नहीं मानता है, न माता-पिता को, न ईश्वर को । ‘ ऑफर ’ लघुकथा में शत-प्रतिशत दिव्यांग दो घंटे की देर को स्वीकार कर लेता है लेकिन वह अपने लिए आरक्षित सीट पर बैठे कैंसर मरीज को नहीं उठाना चाहता । गणेश दिव्यांग होकर भी भीतर से स्वस्थ है, तभी वह ख़ुद को मिल सकने वाली नौकरी उस युवक के लिए छोड़ देता है, जिसकी माँ दिव्यांग है और जिसके कंधों पर पाँच बहनों की जिम्मेदारी है । ऐसे दिव्यांगों का भी वर्णन है जो दिव्यांगता समाप्त हो जाने पर बस पास का प्रयोग नहीं करते । सरकारी नौकरी को इसलिए ठुकरा देते हैं कि वे इसे ख़ुद के बूते से हासिल करना चाहते हैं । वे यह नहीं चाहते कि कोई उन्हें दिव्यांग कहे –
“ लेकिन मुझे कोई लंगड़ा नहीं कहेगा । मैं पाँव से दिव्यांग ज़रूर हूँ मगर काम से लंगड़ा नहीं हूँ ।” ( पृ. – 33 )
उनमें आत्मसम्मान की भावना भी होती है । ‘ पलटवार ’ लघुकथा में दिव्यांग उन दबंगों के हाथ से पुरस्कार लेने से इंकार करता है, जिन्होंने उन्हें दिव्यांग बनाया है ।

अपनों का प्यार बड़ा महत्त्वपूर्ण है । कुबड़ा विनोद पोते का साथ पाकर अपना दर्द भुला देता है । वह अकेला भी नहीं चल पाता है, लेकिन पोते को पीठ पर बैठाकर चलता है । वे भाईचारे को भी महत्त्व देते हैं –
“ यदि हमने प्यार और भाईचारा खो दिया तो फिर हमारे पास शेष बचेगा भी क्या ? हम विशेष हैं इस संसार में । हम भीतर से स्वस्थ हैं, लेकिन अंगों से स्वस्थ नहीं हैं ।” ( पृ. – 49 )
हौसले और दृढ़ संकल्प को भी लेखक ने दिखाया है । बौने कद की शिल्पा अपने दृढ़ संकल्प से डॉक्टर बनती है । निधि को अपनी वर्किंग एनर्जी पर विश्वास है । दिव्यांग गणेश गुड लक नहीं गुड चैलेंज कहलवाना पसंद करता है । सचिन वैज्ञानिक बनकर अपनी दिव्यांगता जैसी दिव्यांगता को समाप्त करना चाहता है । विजय का हौसला उसके अनेक हाथ पैदा कर देता है । ‘ खिलाड़ी ’ लघुकथा में दिव्यांग बच्चे का खिलौने बेचकर खेलने की बात करना उसके जीवट का प्रमाण है । मेघा दिव्यांग है और मेहनत से सर्जन बनती है । वह पोलियो से लड़ने की शपथ लेती है । गणेश भी हिम्मत से काम लेता है, भले ही इसका कारण भूख है । ‘ नई परिभाषा ’ लघुकथा में दिव्यांग तैरकर न सिर्फ अपनी जान बचाता है, अपितु वह एक अन्य दिव्यांग की भी जान बचाता है ।

हिम्मत के लिए किसी-न-किसी प्ररेणा का होना आवश्यक है । लेखक ने समाज में व्याप्त उन घटनाओं और पात्रों को उभारा है जो दिव्यांगों के प्ररेणा स्रोत बनते हैं । ‘ फुल स्पीड ’ लघुकथा में दिव्यांग फिल्म के इस संवाद से प्ररेणा लेता है –
“ पाँव नहीं तो क्या हुआ, दोनों हाथ तो सलामत हैं ।” ( पृ. – 92 )
‘ मंजिल की ओर ’ लघुकथा में दिव्यांग प्रो. द्विवेदी परिंदे से प्ररेणा लेकर कहते हैं –
“ कभी थक जाओ कभी चोट खाकर गिर पड़ो या कभी जख्मी हो भी जाओ तो किसी मदद की ओर मत देखना, बस, जैसे-तैसे चल पड़ना । चल पड़ोगे तो दौड़ने की ताकत भी आ जाएगी । हमें मदद की ओर नहीं मंजिल की ओर देखना चाहिए ।” ( पृ. – 124 )
मीनू नामक बच्चा दूसरे बच्चों को देख हौसला करता है और हाथ से तिपहिया साइकिल चला लेता है । माँ भी उसे सहयोग देती है । ‘ दौड़ ’ लघुकथा में नदी का पानी विजयेन्द्र को पुन: तैरने की प्ररेणा देता है । दिव्यांगों की खेल प्रतियोगिताएँ भी इस दिशा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं । ‘ सितारों से भी आगे ’ इसी संदेश को प्रस्तुत करती है ।

दिव्यांग समझते हैं कि उनके लिए सुविधाओं से जरूरी है उनकी सोच । ‘ समस्या ’ लघुकथा में दिव्यांग अधिवेशन का स्वागताध्यक्ष कहता है –
“ मकान हमारी बड़ी समस्या नहीं है । हमारी समस्या तो अपनी स्थिति है । हम कामना करें कि हमें भीतर से ऊर्जा मिलती रहे ताकि हमें इस स्थिति से लड़ने की ताकत मिले ।” ( पृ. – 93 )
नकारात्मक सोच से बचने की बात की गई है ‘ आत्मबल ’ लघुकथा में –
“ आत्मबल हमारी सबसे बड़ी दवाई है । हमारे लिए नेगेटिव सोचना जीवन को कमजोर बनाना है ।”  ( पृ. – 46 )

नकारात्मकता पर कई बार चाहकर भी विजय नहीं पाई जा सकती । दिव्यांगों में इसके पाये जाने के आसार रहते हैं, इसलिए लेखक ने इस पहलू को भी छुआ है । लेखक ने उन्हें उनकी हीनभावना के साथ छोड़ा नहीं, अपितु किसी-न-किसी पात्र के माध्यम से इससे बाहर निकाला है । दिव्यांग दिनेश में हीनभावना है, लेकिन महिमा उसकी हीनभावना को दूर करती है । सार्थक हीनभावना का शिकार है कि उससे शादी कौन करेगा, लेकिन उसके गुरु एक दिव्यांग लड़की जो कंप्यूटर में दक्ष है, से उसकी शादी करवा देते है, इससे उसके जीवन को सुपथ मिलता है ।

लेखक ने इस संग्रह में मानसिक और शारीरिक सभी प्रकार के दिव्यांगों को लिया है । शारीरिक दिव्यांगों में बौनापन, हाथ, पैर, कान, नाक, आँख, गूंगा-बहरा आदि सभी प्रकार के हैं । उनके दिव्यांग होने के कारणों का भी वर्णन है । कुछ जन्मजात हैं तो कुछ अन्य कारणों से दिव्यांग हुए हैं । इनमें सुभाष का हाथ चारा मशीन में आने के कारण कट जाता है । विनोद रीढ़ की हड्डी के रोग के कारण कुबड़ा हो जाता है । सचिन ए.एम.सी बीमारी से ग्रस्त है । राधिका रेलवे क्रासिंग पर रेल की चपेट में आ जाती है । ‘ पलटवार ’ में दबंग स्वस्थ व्यक्ति के हाथ काट देते हैं । ‘ उसकी रौशनी ’ लघुकथा में दिव्यांगता का जल्दबाजी के कारण हुई दुर्घटना है । दंगाई भीड़ में कुचला जाना, वैन में आग लगना, डॉक्टर की लापरवाही आदि अन्य अनेक कारण हैं ।

साहित्य समाज का प्रतिबिम्ब ही नहीं होता, अपितु मार्गदर्शक भी होता है । इस लघुकथा-संग्रह को देखकर कहा जा सकता है कि लेखक इस कसौटी पर खरा उतरा है । समाज में दिव्यांगता के जितने दृश्य हो सकते हैं, लगभग उन सभी का वर्णन इस संग्रह में मिलता है । लेखक ने कोरे यथार्थ को बयां करने में विश्वास नहीं रखा, अपितु अनेक जगहों पर आदर्शवादी अंत भी किया है जो समाज को राह दिखाता है, यही इस संग्रह की विशेषता है और यही लेखक की कामयाबी है ।

- दिलबागसिंह विर्क

साभार:
https://dsvirk.blogspot.com

सोमवार, 18 मार्च 2019

लघुकथा संकलन: महिला लघुकथाकारों के लिए

महिला कथाकारों से चुनिंदा 10 बेहतरीन लघुकथाएं आमन्त्रित हैं

किताबगंज प्रकाशन द्वारा प्रकाशित होने वाली साझा संकलनों की महायात्रा के अंतर्गत नवीनतम साझा संकलन "बोलती लघुकथाएं" के लिए महिला लघुकथाकारों से बेहतरीन और चुनिंदा 10 लघुकथाएं सचित्र परिचय सहित ईमेल से आमन्त्रित हैं।


  • प्रत्येक महिला रचनाकार को संकलन में सिर्फ चार पृष्ठ दिए जाएंगे। संकलन में सिर्फ 25 महिला रचनाकारों को ही स्थान दिया जाएगा।
  • प्रकाशित/अप्रकाशित को कोई बंधन नहीं हैं। आप सिर्फ मौलिक तथा टाईपशुदा चुनिंदा एवं बेहतरीन 10 लघुकथाएं में से चार चयनित की जाएगी. इस हेतु अपना सचित्र परिचय नाम, जन्मतिथि, योग्यता, मोबाइल न, पता व मेल आईडी के प्रारूप सहित ही ईमेल से भिजवाएं।
  • पुस्तक के यथाशीघ्र "किताबगंज प्रकाशन" से प्रकाशित होगी।
  • सहयोगी कथाकारों को संकलन की पहली लेखकीय प्रति निःशुल्क भेजी जाएगी और उनके द्वारा इस संकलन की अन्य प्रतियां खरीदने पर 50% स्पेशल डिस्काउंट (+डाक खर्च अतिरिक्त) पर उपलब्ध कराई जाएगी ।
  • कृपया अपने चुनिंदा एवं बेहतरीन 10 लघुकथाएं निम्न ईमेल पर 25 मार्च 2019 तक भेजें.


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ओमप्रकाश क्षत्रिय 'प्रकाश'
संपादक (बोलती लघुकथाएं)
📲: 942-407-9675
📧: opkshatriya@gmail.com
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डाॅ. प्रमोद सागर
(चेयरमैन)
किताबगंज प्रकाशन
📲: 8750-660-105
📧: kitabganj@gmail.com

लघुकथा: मधुर मिलन | किरण बरनवाल

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"ऊपर वाले ने सबको एक जैसा बनाया है, हम इंसान ही धर्म के आधार पर बंट कर मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं।"
खुद से बातें करती बूढ़ी काकी कस्बे में हुए दंगे से व्यथित थी। 

जिस मोहल्ले में दिवाली की मिठाई और ईद की सेवइयों को मिल-बाँट कर खाया जाता था, वहीं की स`ड़कें आज खून के छींटों से पटी हुई है। लेकिन किसे पता था कि कौनसा छींटा हरे वाले का है, कौनसा केसरिया वालों का?


हुआ यूं था, नसीर का बेटा लापता हो गया। उसे अंतिम बार साह जी के बेटे के साथ देखा गया था। वर्ग विशेष के ठेकेदारों  ने यह अंदाजा लगवा लिया कि दोस्ती की आड़ में धर्म पर प्रहार किया गया है। फिर क्या! धार्मिक उन्माद में भला-बुरा सोचे बिना प्रतिशोध की ज्वाला जलने लगी।


बदले की भावना से हरे और केसरिये झंडे हवा की बजाय तलवार की नोक पर लहरा रहे थे। दोनों संप्रदाय एक बार फिर उन्मादी होकर एक-दूसरे के सामने आ गए कि तभी बूढ़ी काकी नसीर के बेटे को गोद में लिए बीच में आ गई, और चिल्ला कर बोली, "बच्चा खेलते हुए जंगल की तरफ चला गया और रास्ता भटक गया था। मैं ढंग से चल नहीं सकती हूँ फिर भी इसे ढूंढ कर लाई और तुम लोग... दौड़ सकते हो... लेकिन..." कहते हुए वह फफकने लगी।


तलवारों की चमक धूमिल हो गयी। तेज़ चलती हवा से ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो हरे और केसरिया झंडों के बीच खड़ी काकी अपनी श्वेत धवल साड़ी के उड़ते आँचल से दोनों रंगों का मधुर मिलन करा रही हो।


किरण बरनवाल 

जमशेदपुर

लघुकथा वीडियो : वरिष्ठ लघुकथाकार शोभा रस्तोगी के साथ साहित्यिक गोष्ठी

वरिष्ठ लघुकथाकार शोभा रस्तोगी जी पेशे से शिक्षिका हैं। इनकी लघुकथा कैनवास के लिए इन्हें प्रतिलिपि लघुकथा सम्मान 2017 से सम्मानित किया गया था।


लघुकथा: मृत्युभोज | मुकेश कुमार ऋषि वर्मा

रजुआ बीच जंगल में अपनी भेड़-बकरियों को टिटकारी देता हुआ चरा रहा था, कि तभी उसकी नजर सज्जन सिंह पर पड़ गयी । सज्जन सिंह को सभी गाँव वाले दादा कह कर बुलाते थे। स्वभाव से अच्छे थे इसीलिए औरत - मर्द, बूढे - बच्चे सभी बस दादा - दादा की रट लगाये रहते।

पास जाकर रजुआ ने पूछा, “दादा आज अकेले जंगल में और इतनी दूर कैसे आ गये, किसी जड़ी-बूटी की जरूरत आन पड़ी थी क्या? मुझे बोल देते, मैं ले आता।”

दादा ने रजुआ को धीरे से पलट कर देखा और धीमी आवाज में बोले, “बेटा रजुआ तू! कलेऊ लाया है क्या?  दो दिन से यहीं भूखा पड़ा हूँ, घर छोड़ आया हूँ मैं।”

रजुआ ने अपना खाना दादा की तरफ बढ़ाते हुए कहा, “लो दादा खा लो, पर ये बताओ घर क्यों छोड़ा? पाँच-पाँच बेटे हैं, भरा पूरा परिवार है। सब अच्छा क्माते हैं... फिर?”

“बेटा रजुआ, सब अपने-अपने काम में व्यस्त हैं। मुझे परसों बुखार आ गया था, तो मैंने बड़े लड़के से कुछ रूपये दवा के लिए मांगे, उसने दुत्कार कर भगा दिया, उससे छोटे के पास गया तो उसने भी डांट दिया, इस तरह बारी-बारी से सबने मना कर दिया। फिर मैंने सोच वहाँ रहना बेकार है, कोई किसी का नहीं इस दुखिया संसार में और मैं यहाँ मरने जंगल में चला आया... लेकिन मुई भूख!... सहन नहीं होती।” रोते-बिलखते दादा सज्जन सिंह ने रजुआ को अपनी व्यथा सुना दी ।

रजुआ फिर भी मान-मनुहार कर जबरदस्ती दादा को उनके घर छोड़ आया। चार दिन बाद पता चला दादा इस दुनिया में नहीं रहे ।

और ठीक तैरह दिनों के बाद दादा सज्जन सिंह के पांचों लड़कों ने उनका मृत्युभोज (बृह्मभोज) बारह कुन्तल आटे का किया। माल-पुआ, खीर-सब्जी बनाई गई और आसपास के सभी गाँव वालों को भरपेट खाना खिलाया गया - ताकि उनकी आत्मा तृप्त रह सके।

- मुकेश कुमार ऋषि वर्मा 
ग्राम रिहावली डाक तारौली, 
फतेहाबाद, आगरा, 283111


पुस्तक समीक्षा । हौंसलों की लघुकथाएँ । डॉ. राजकुमार निजात । समीक्षाकार: दिलबागसिंह विर्क



दिव्यांगों के जीवट को दिखाती हुई लघुकथाएँ

पुस्तक - हौंसलों की लघुकथाएँ
संपादक – राजकुमार निजात
प्रकाशन – धर्मदीप प्रकाशन
पृष्ठ - 144
कीमत – 450 /- ( सजिल्द )

साहित्य का उद्देश्य है, कि वह दबे-कुचलों की आवाज बने । सामान्यत: दिव्यांग-जन समाज की उपेक्षा का शिकार होते आए हैं । ऐसे में साहित्यकार का कर्त्तव्य है, कि वह उनको साहित्य का विषय बनाकर उनकी स्थिति में सुधार लाने का प्रयास करे । ऐसा ही प्रयास किया है, डॉ. राजकुमार निजात ने संपादित कृति “हौसलों की लघुकथाएं” द्वारा । यह कृति तीन भागों में विभक्त है । पहले भाग में आलेख हैं, दूसरे भाग में लघुकथाएँ हैं और तीसरे भाग में लघुकथाकारों का परिचय दिया गया है ।

आलेख खंड में पांच आलेख हैं । राजकुमार निजात ने अपने आलेख ‘दिव्यांग जन साहित्य में इस संकलन की यात्रा’ के द्वारा इस संकलन की स्थिति को स्पष्ट किया है । वे दिव्यांग जन के प्रति साहित्यकार के कर्त्तव्य के बारे में लिखते हैं –
“मैं समझता हूँ, दिव्यांग जन की पीड़ा को साहित्यकार अपने लेखन के माध्यम से अभिव्यक्त करें तो यह एक नई साहित्यधारा की पहल होगी ।” ( पृ. – 17 )
डॉ. सतीशराज पुष्करणा अपने आलेख ‘हिंदी लघुकथाओं में दिव्यांगता का चित्रण’ में दिव्यांग जन को लेकर साहित्य में हुए कार्य का वर्णन करते हैं । वे दृढ इच्छाशक्ति पर भरोसा करते हुए लिखते हैं –
“यदि कोई व्यक्ति जीवन में कुछ करना चाहता है, तो वह अपने आत्मबल एवं इच्छाशक्ति के बल पर कर गुजरता है । दिव्यांगता ऐसी स्थिति में आड़े नहीं आती ।” ( पृ. - 21)
डॉ. पुष्पा जमुआर अपने आलेख “दिव्यांगता के प्रति सामाजिक चेतना की दशा और दिशा” में दिव्यांगता पर लिखती हैं –
“दिव्यांगता को तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है । शारीरिक दिव्यांगता, मानसिक दिव्यांगता और आध्यात्मिक दिव्यांगता । शारीरिक दिव्यांगता भी दो कारणों से होती है । प्राकृतिक और अप्राकृतिक ।” ( पृ. - 28 )
इस आलेख में वे विश्व और भारत में दिव्यांग-जन के लिए हुए कार्यों का उल्लेख करती हैं । डॉ. अमरनाथ चौधरी ‘अब्ज’ अपने आलेख “समाज की विकलांग सोच को बदलना जरूरी” में लिखते हैं-
“इतिहास में दिव्यांगों द्वारा किए गए कार्यों की गाथा अनेक रूपों में है । आवश्यकता है अवसर प्रदान करने की ।” ( पृ. – 37 )
वे सूरदास, मिल्टन, रूज वेल्ट के उदाहरण देते हैं । सयुंक्त राष्ट्र संघ के कार्यों और विभिन्न राज्य सरकारों के नजरिये का वर्णन करते हैं । डॉ. प्रद्युम्न भल्ला अपने आलेख “बढ़ रहा लघुकथा के कथ्यों का दायरा” में लघुकथा के बदलते विषयों का वर्णन करते हैं । वे लिखते हैं –
“पिछले कुछेक वर्षों से दिव्यांगता को लेकर भी लघुकथाकारों ने अनेक रचनाएं लिखी हैं ।” ( पृ. – 46 )

पुस्तक के दूसरे भाग में 26 लघुकथाकारों की 105 लघुकथाएं हैं, जिनमें डॉ. अमरनाथ चौधरी ‘अब्ज’, पारस दासोत, डॉ. मधुकांत, डॉ. राजकुमार निजात की दस-दस लघुकथाएं हैं । हरनाम शर्मा की छह; डॉ. प्रद्युम्न भल्ला, डॉ. रामकुमार घोटड, लक्ष्मी रूपल, डॉ. सतीशराज पुष्करणा, सतीश राठी की पाँच-पाँच लघुकथाएँ हैं । आलोक भारती, प्रतापसिंह सोढ़ी, पुष्पलता कश्यप की तीन-तीन; डॉ. कुंवर प्रेमिल, ज्योति जैन, पुष्पा जमुआर, बी.एल. आच्छा, डॉ. भगवानसिंह भास्कर, डॉ. मिथिलेश कुमारी, डॉ. योगेन्द्रनाथ शुक्ला, राजेन्द्र मोहन त्रिवेदी बन्धु, संतोष श्रीवास्तव, संतोष सुपेकर, सूर्यकांत नागर, सुरेश शर्मा की दो-दो लघुकथाएँ और मंगत कुलजिंद की एक लघुकथा है ।

डॉ अब्ज की लघुकथाओं का पात्र ईश्वर में आस्था व विश्वास से जीवन की संजीवनी पाता है, दिव्यांग होकर भी अनुशासित और समय का पाबन्द है, कडक है, स्वाभिमानी है, उर्जावान है, शिष्य का पूजनीय है । एक पात्र कहता है –
“स्वाभिमानी स्वाभिमानी होता है, चाहे वह दिव्यांग ही क्यों न हो ।” ( पृ. – 54 )
वे गणतन्त्र दिवस के भीतर अपाहिज को रेंगता भी दिखाते हैं ।

आलोक भारती मंदबुद्धि को पढाने का रास्ता बताते हैं, दिव्यांग होने का कारण बताते हैं और दिव्यांग को देखकर आतंकवादी तक को दया आ जाती है । कुंअर प्रेमिल की लघुकथाएँ संकेतात्मक हैं और स्वस्थ लोगों की विकलांग सोच को दिखाती हैं । ज्योति जैन भी दहेज लोभी को ही विकलांग कहती है और उसकी पात्र पायल दिव्यांग से शादी करने को तैयार है । मैडम जब स्वस्थ थी, तब दिव्यांगों को मंच पर बुलाने से परहेज करती थी, अब खुद वह इसको भुगत रही है । प्रतापसिंह सोढ़ी दिव्यांग यात्री के हौसले और मानवता को दिखाते हैं, जिससे अन्य यात्री शर्मसार हो उठते हैं । रिंग रोड चौराहे पर हुई दुर्घटना के समय भी दिव्यांग की ललकार लोगों को फर्ज अदा करने के लिए उकसाती है । दिव्यांग की पत्नी पति का प्रेम पाकर खुद को खुशनसीब समझती है ।

डॉ. प्रद्युम्न भल्ला उस दिव्यांग सोच से बचना चाहते हैं, जिसके कारण औलाद माँ-बाप को त्याग देती है । दिवाकर जिन्दादिली से कहता है –
“नहीं...अपंगता शरीर में नहीं सोच में होती है...मेरी सोच स्वस्थ है ।” ( पृ. – 66 )
ऐसी ही स्वस्थ सोच का पात्र भीख लेने से इंकार कर देता है । अधिकारियों की दिव्यांग दिवस के नाम पर मौज मस्ती को भी दिखाया गया है ।

पारस दासोत का दिव्यांग पात्र खुद को बेचारा और दिव्यांग नहीं मानता । एक सूरदास दूसरे सूरदास को खुद को अँधा न कहने का सबक सिखाता है । मिलकर कहानी बनाने की बात कहता है । एक दिव्यांग दूसरे दिव्यांग को कंधे से कंधा मिलाकर चलने को कहता है । दिव्यांग औरत के प्रति समाज की बुरी दृष्टि को दिखाया है और दिव्यांग औरत का स्वाभिमान भी । डॉक्टर फूल के माध्यम से दिव्यांग हुए बच्चे को हौसला देता है । पुष्पलता कश्यप विकलांगता सर्टिफिकेट बनाने के भ्रष्टाचार को उजागर करती है । उसका विकलांग पात्र स्वाभिमानी है और हमदर्दी नहीं चाहता । विधवा और प्रेम विवाह को न मानने वाले चाचा जी को वे विकलांग मानती हैं । डॉ. पुष्पा जमुआर दिव्यांगों की वीरता को दिखाती है । बी.एल.आच्छा झूठा दिव्यांग सर्टिफिकेट बनाने और बनवाने को लघुकथा का विषय बनाते हैं, विकलांग यात्री की सहृदयता को दिखाकर सकलांग यात्रियों की विकलांगता को दिखाते हैं । डॉ. भगवानसिंह भास्कर दिव्यांग जनसेवक की सेवा भावना को दिखाते हैं, दिव्यांग अपनी हिम्मत से अध्यापक बनता है और अन्य दिव्यांगों के लिए प्रेरणा स्रोत बनता है ।

मधुकांत अपनी लघुकथाओं में दिव्यांगों की हिम्मत की बात करते हैं, उनकी बहादुरी को दिखाते हैं । दिव्यांग रक्तदान देकर समाज की उदारता से उऋण होता है । वे दिव्यांग बनाए जाने की बात उठाते हैं, दिव्यांग कुतिया अपने बच्चों के प्रति चिंतित है । बच्चा आँख पर पट्टी बांधकर सूरदास की पीड़ा को समझ जाता है, रेआंश लंगड़ी चिड़िया की पीड़ा को महसूस करता है । डॉ. अंजना दिव्यांग बच्ची को काम देने के साथ पढने के लिए कहती है । डॉ. मिथिलेश कुमारी मिश्र अपनी लघुकथाओं में ऐसे साहसिक कदम की बात करती हैं, जिसमें स्वस्थ लड़की अंधे से शादी करने को तैयार है । एक पिता की ख़ुशी की सीमा नहीं रहती जब बेकार हाथों वाला बेटा पैर में पैन फंसाकर लिखना शुरू करता है । मंगत कुलजिंद अपनी एकमात्र लघुकथा में दिव्यांग के माध्यम से लंगर व्यवस्था का हाल दिखाते हैं । डॉ. योगेन्द्रनाथ शुक्ल दिव्यांगों के प्रति आमजन के पूर्वाग्रहों को दिखाते हुए सूरदास के स्वाभिमान को दिखाते हैं । दिव्यांग अपनी दिव्यांगता के कारण शातिर औरत से बच जाता है ।

राजकुमार निजात अपनी लघुकथाओं में हिम्मती और स्वाभिमानी दिव्यांगों का चित्रण करते हैं । दिव्यांग पात्र उस मेहमान से सम्मान लेने से इंकार कर देता है जो उसको दिव्यांग बनाए जाने के वक्त चुप था । उसके पात्र को लंगड़ा कहलवाना गवारा नहीं –
“लेकिन मुझे कोई लंगड़ा नहीं कहेगा । मैं पाँव से दिव्यांग जरूर हूँ, मगर काम से लंगड़ा नहीं हूँ ।” ( पृ. – 98 )
उनके पात्र ईमानदार और कर्मठ हैं, वे मिलजुल कर रहने में विश्वास रखते हैं । दिव्यांग बच्चों के प्रति माँ के स्नेह को दिखाया गया है । राजेंद्र मोहन त्रिवेदी बन्धु इलाहाबाद से कन्याकुमारी पहुंचकर थोक विक्रेता बने दिव्यांग के जीवट को दिखाते हैं । अंधा लंगड़े के स्वाभिमान को जगाता है । डॉ. रामकुमार घोटड उन दिव्यांगों का चित्रण करते हैं जो दूसरों के लिए अपनी जिंदगी दांव पर लगा देते हैं । नेत्रदान जैसा महादान करने को तैयार हैं । दिव्यांग मिलकर धंधा करने का मन बनाते हैं । लेखक ने दिव्यांगों में हीन भावना को भी दिखाया हैं और उसे दिव्यांग के माध्यम से ही दूर करवाया है । लक्ष्मी रूपल समाज की दकियानूस सोच को भी दिखाती है और दयालु लोगों को भी । डॉ. सतीशराज पुष्करणा समाज के सहयोगी रवैये को दिखता है । दिव्यांग पात्र दूसरे दिव्यांग को देखकर आत्मविश्वास हासिल करता है । उनके पात्र स्वाभिमानी हैं, आत्मविश्वास से भरे हैं । एक पात्र कहता है –
“बाबू ! मुझे सहानुभूति नहीं, श्रम और ईमान का पैसा चाहिए ।” ( पृ. – 119 )

सतीश राठी दिव्यांग की बेबसी को दिखाते हैं । रिश्ते स्वार्थी हैं । वे विकलांगता को संकेत रूप में भी प्रस्तुत करते हैं । संतोष श्रीवास्तव आशा को दिखाती हैं, साथ ही वे अन्याय का विरोध न करने को अपंगता कहती हैं । संतोष सुपेकर का दिव्यांग पात्र खुद को बेचारा नहीं कहलवाना चाहता । वहीं वे समाज के दोहरे चेहरे को उजागर करते हैं । सूर्यकांत नागर की लघुकथाएँ संकेतात्मक हैं । सुरेश शर्मा दिव्यांग सैनिक की खुद्दारी को दिखाते हैं । हरनाम शर्मा अपनी लघुकथाओं में दिव्यांगों के लिए आरक्षित सीट पर यात्रा करने वाले को मानसिक दिव्यांग कहते हैं । दिव्यांग पिता का सच छुपाने वाले पात्र से दूसरा पात्र दूरी बना लेता है । वे पद्मश्री तारानाथ की कथा कहते हैं । रोशन अली के माध्यम से गाय का प्रसंग उठाते हैं ।

विषयों के आधार पर कहा जा सकता है, कि अधिकाँश लघुकथाएँ दिव्यांगों के जीवट को दिखाती हुई लघुकथाएँ हैं । दिव्यांगता के कारणों का जिक्र है । समाज का नजरिया दिखाया गया है । स्वस्थ समाज की दिव्यांगता को दिखाती लघुकथाएँ भी हैं । शैली के दृष्टिकोण से अलग-अलग लघुकथाकारों ने अलग-अलग शैली को अपनाया है । संवाद की प्रधानता है । अनेक लघुकथाओं में पात्रों का नामकरण नहीं किया गया । संकेतात्मक लघुकथाएँ भी हैं ।

संक्षेप में, राजकुमार निजात जी के कुशल संपादन में यह दिव्यांगों के जीवट को दिखाता उत्कृष्ट लघुकथा-संग्रह है, जिसके लिए संपादक और लेखक बधाई के पात्र हैं ।

- दिलबागसिंह विर्क

साभार:
https://dsvirk.blogspot.com

रविवार, 17 मार्च 2019

लघुकथा वीडियो : लिखे जो ख़त तुझे | अर्विना गहलोत | आरजे अमित वधवा

लघुकथा - लिखे जो ख़त तुझे - कहानी एक अलग दृष्टिकोण को दिखाती है जो ख़त लिखने वालों, ख़त पढने वालों से अलग ख़त पहुँचाने वाले की ज़िन्दगी और .... और किस छिपे हुए भाव के बारे में है.. जानने के लिए सुनिए , लिखे जो ख़त तुझे । - आरजे अमित वधवा


पुस्तक समीक्षा । हरियाणा की बाल-लघुकथा । डॉ. राजकुमार निजात । समीक्षाकार: दिलबागसिंह विर्क



बालमन के विविध पहलुओं को उद्घाटित करता लघुकथा-संग्रह

लघुकथा-संग्रह - हरियाणा की बल लघुकथाएँ
संपादक - डॉ. राजकुमार निजात
प्रकाशक - एस.एन.पब्लिकेशन
पृष्ठ - 176
कीमत - 550 / - ( सजिल्द )

बच्चों को ईश्वर का रूप कहा जाता है, क्योंकि वे बड़े भोले और साफ़-दिल होते हैं । बालमन को समझने के लिए बड़ी पारखी नजर की जरूरत होती है । “हरियाणा की बाल-लघुकथा ” एक ऐसा लघुकथा-संग्रह है, जिसमें एक-दो नहीं, अपितु ऐसे बाईस पारखी लघुकथाकार शामिल हैं, जिन्होंने बालमन का बड़ी बारीकी से विश्लेषण किया है और बड़ी सटीकता से इसको ब्यान किया है । इन लघुकथाकारों का संबंध भले ही हरियाणा से है, लेकिन इनकी ख्याति वहां तक फैली हुई है, जहाँ तक लघुकथा की ख्याति है । इन लब्धप्रतिष्ठ लघुकथाकारों को एक विषय पर एक साथ लाने का महत्ती कार्य किया है राजकुमार निजात जी ने ।

इस संग्रह को तीन भागों में बांटा गया है । प्रथम खंड में 21 लघुकथाकारों की  लघुकथाएं हैं, दूसरे खंड में संपादक राजकुमार निजात की चालीस लघुकथाएँ हैं । तीसरे खंड में सभी लघुकथाकारों का परिचय है । पहला और दूसरा खंड दो संकलनों का आभास देता है, क्योंकि दोनों की भूमिका अलग-अलग है । पहले खंड से पूर्व राजकुमार निजात का संपादकीय और माधवराज सप्रे का आलेख है, जबकि दूसरे खंड से पूर्व हरनाम शर्मा का आलेख है ।

प्रथम खंड में 21 लघुकथाकारों की 92 लघुकथाएं हैं, जिनमे 22 प्रो. अशोक भाटिया जी की हैं । डॉ. मधुकांत जी 9, प्रो. रूप देवगुण, डॉ. घमंडीलाल अग्रवाल, डॉ. शील कौशिक और नवलसिंह की 5-5 लघुकथाएँ, डॉ. कृष्णलता यादव और डॉ. आरती बंसल की 4-4, प्रो. जितेन्द्र सूद, प्रो. इंदिरा खुराना, हरनाम शर्मा, डॉ. मुक्ता, डॉ. कमलेश भारतीय, डॉ. उषा लाल, सुरेखा शर्मा और डॉ. अनिलकुमार गोयल सवेरा जी की 3-3, डॉ. रामनिवास मानव, सत्यप्रकाश भारद्वाज, डॉ. अनिल शूर आज़ाद और रघुविन्द्र यादव की 2-2 और डॉ. सुरेन्द्र गुप्त जी की एक लघुकथा शामिल है ।

प्रो. जितेन्द्र सूद ने समाज के बालमन पर पड़ते हुए प्रभाव को रेखांकित करते हुए ‘यह गीत न गाना’ और ‘मैं फिर यह न देखूँ’ लघुकथाएँ लिखी हैं । दहेज़ के कारण जलाई जाने वाली दुल्हनों की बात सुनकर गुडिया कह उठती है –
“मैं कभी दुल्हन नहीं बनूंगी, दादी ।” ( पृ. – 38 )

इसी प्रकार पुवी जीवहत्या को देख दहल जाती है । बंतो भेड़िया बने पिता की हवस की शिकार पात्रा है, लेकिन वह छोटी बहन संतो को बचा लेती है । तीनों लघुकथाएँ मार्मिक अंत लिए हुए हैं । आकार में लघु होते भी लेखक इनमें वातावरण चित्रण करने में सफल रहता है –
“पिंजौर का बाग़ प्रकृति और मानव द्वारा निर्मित मनोहर रंगशाला है ।” ( पृ. -39 )
वह महत्त्वपूर्ण सूक्तियां भी कहता है, यथा –
“व्यक्ति कहीं भी चला जाए, उसका घर-परिवार उसे निरंतर पुकारता रहता है।” ( पृ. - 40 )

डॉ. सुरेन्द्र गुप्त की एकमात्र लघुकथा ‘माँ...मैंने ही खाए थे काजू’ आत्मकथात्मक शैली में लिखी गई है, हालाँकि इसमें मैं पात्र का नामकरण नहीं है, लेकिन यह बालमन को बड़ी बखूबी से ब्यान करती है । जिस काम पर प्रतिबन्ध हो, बच्चे उस काम को करने के लिए लालायित रहते हैं, फिर बात जब खान-पीन की हो, तो यह प्रवृति बढ़ जाती है । मैं पात्र भी चोरी से काजू खाता है, लेकिन भाई को पिटते देख सच उगल देता है । वास्तव में बच्चे ऐसे ही तो होते हैं ।

प्रो. इंदिरा खुराना की लघुकथाएँ बताती हैं, कि बच्चे स्टेट्स नहीं देखते, प्यार देखते हैं । ‘स्टेट्स का फर्क’ और ‘इंसानी पिल्ला’, दोनों लघुकथाओं में बच्चा माँ को आईना दिखाता है । ‘सामाजिक सरोकार’ में बच्चा मजबूरीवश बैग चुराता है, जो समाज के कुरूप चेहरे को दिखाता है । इस लघुकथा का अंत आदर्शात्मक है ।

प्रो. रूप देवगुण की लघुकथाएँ बच्चों के प्रेमिल स्वभाव को भी दिखाती हैं और हालातों का सटीक चित्रण भी करती हैं । पुलिया दादी से दरवाजा खुलवा लेती है, जबकि अब्बू अपनी जेब खर्ची से चाची के लिए सूट, चूडियां आदि लाने की बात करता है । बच्चे जब प्यार करते हैं तो वह आदमी-जानवर का फर्क नहीं जानते । रिशु का यह कहना –
“ले तो आओगे नया पिल्ला पर वह टफी तो नहीं होगा ।”  ( पृ. – 50 )
यहाँ रिशु का टफी के प्रति प्रेम दिखाता है, वहीं बालमन का सजीव चित्र भी प्रस्तुत करता है । ‘नदारद’ लघुकथा बताती है, कि पिता का साया सिर से उठ जाने के बाद बच्चे कैसे परिपक्व हो जाते हैं । ‘तो दिशु ऐसे कहता’ घर के बंटवारे का बालमन पर प्रभाव रेखांकित करती हुई लघुकथा है ।

मधुकांत जिन्न और सैंटा क्लॉज़ जैसे पात्रों के माध्यम से बच्चों पर होमवर्क का बोझ और माँ की फ़िक्र को दिखाते हैं । सैंटा क्लॉज़ का कथानक ईमानदार लकडहारे से प्रभावित लगता है जबकि ईदी का कथानक प्रेमचन्द की कहानी ईदगाह से । ईदी लघुकथा में साबिया ईदी के दस रूपये खाने पर न खर्च कर भाई के लिए खिलौना खरीदती है । गांधी लघुकथा अपना काम स्वयं करने और सफाई का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए भंगी शब्द की नई परिभाषा भी गढ़ती है –
“भंगी तो गंदगी फैलाने वाला होता है ।” ( पृ. – 54 )
सफाई विषय को लेकर ही एक अन्य लघुकथा ‘विद्या-मन्दिर’ है । बालक का तर्क पिता को अनुत्तरित कर देता है । मेरा विद्यालय और मेरा अध्यापक निबन्ध लिखवाकर लेखक ने आदर्श और वास्तविकता के अंतर को दिखाया है । वहीँ प्यासा बचपन की अध्यापिका आदर्श अध्यापिका है । बच्चे प्यार न मिलने के कारण ही स्कूल से घबराते हैं, इस संदेश को लेखक ने बड़ी सरलता से बयाँ किया है । ‘प्यासा बचपन’ लघुकथा आत्मकथात्मक शैली की लघुकथा है, लेकिन इसमें मैं पात्र का नामकरण नहीं किया गया । पारो छोटे मुंह से बड़ी बात करके दादी को हैरान कर देती है ।

हरनाम शर्मा की लघुकथाएँ बच्चों के भीतर मौजूद संवेदना को उद्घाटित करती हैं । नेहा गाय का दर्द नहीं देख पाती, जबकि सेठ का पोता उस मजदूर को पानी पिलाता है जिसकी उसका दादा उपेक्षा करता है । ‘आदमी और आदमी’ लघुकथा का अंत इस व्यंग्योक्ति से किया गया है –
“साहब, कुछ देर के लिए आप ही आदमी हो जाते ।” ( पृ. – 62 )
‘अधिकार’ लघुकथा में जहाँ बालक की मासूमियत दिखाई गई है, वहीं एक बुजुर्ग की भलमनसाहत भी दिखाई है । लघुकथा का आरंभ भी बड़ा आकर्षक है –
“अति प्रतिष्ठित बस्ती की वह अति सुंदर बाल-वाटिका थी । तरू-पल्लवों की ताज़गी तथा विभिन्न पुष्पों की सुगंध से युक्त मंद समीर धीरे-धीरे बह रही थी ।” ( पृ. – 60 )

डॉ. मुक्ता की लघुकथा ‘गुफ्तगू’ दुनियादारी का सच दिखाती लघुकथा है, लेकिन थोड़ी कम विश्वसनीय है, क्योंकि चोर कभी चोरी की वस्तु लौटाने नहीं जाता और लौटाने वाले को ही चोर समझने वाले कम ही होंगे । ‘सीमा रेखा’ लघुकथा में बच्चे के मन में उठते प्रश्न को उठाया गया है –
“जब भगवान ने सबको एक समान बनाया है तो यह अमीर-गरीब की सीमा रेखा क्यों ?” ( पृ. – 64 )
तीसरी लघुकथा में मैं पात्र की बेटी गरीब बच्चों को देखकर प्रश्न उठाती है । तीनों लघुकथाएँ गरीब वर्ग के बच्चों से संबंधित हैं और उनकी मजबूरियों का सटीक चित्रण करती हैं ।

कमलेश भारतीय की लघुकथा ‘कसक’ पिता से दूर रहते बच्चे की कसक को बड़ी सटीकता से ब्यान करती है । ‘स्वाभिमान’ लघुकथा बच्चे के स्वाभिमान को दिखाती है, जो काम करके कमाता है, मदद लेना उसे स्वीकार्य नहीं । ‘चुभन’ लघुकथा बाल सुलभ ईर्ष्या को दिखाती है ।

बच्चों को हमेशा ये लगता है कि दूसरे को ज्यादा हिस्सा दिया गया है और उन्हें कम, यही दिखाया है रामनिवास मानव ने अपनी लघुकथा ‘कथनी-करनी’ में, जबकि दूसरी लघुकथा में मैं पात्र बच्चों को खेलते देखकर महसूस करता है कि सृष्टि का नियंता भी कोई बच्चा ही है । लेखक ने बच्चों के तोतले शब्दों का प्रयोग कर भाषा को सजीव बनाया है ।

बच्चों को अक्सर उनके लिंग के अनुसार कार्य बांटे जाते हैं, लेकिन आजकल के बच्चे इस भेदभाव से ऊपर उठकर सब कार्य करना चाहते हैं, उन्हें सब कार्य करने भी चाहिए । घमंडीलाल अग्रवाल की लघुकथा ‘जीने के लिए’ यही संदेश देती है । ‘गति और क्षति’ लघुकथा में लेखक ने गिलहरी के माध्यम से महत्त्वपूर्ण संदेश दिया है –
“आवश्यकता से अधिक खाद्य-पदार्थ ग्रहण करना अथवा नष्ट करना बुरी बात होती है ।” ( पृ. -72 )
‘योजना’ लघुकथा योजनाबद्ध तरीके से पढाई करने का उपदेश देती है, ‘निश्चय’ लघुकथा में चिड़िया के माध्यम से निरर्थक घूमने-फिरने को व्यर्थ बताया गया है । ‘उपहास’ लघुकथा में गुलाब को नकचढ़ा दिखाया गया है । सभी लघुकथाओं के अंत में सीख दी गई है, यथा –
“दूसरों का उपहास करना हमेशा हानिकारक होता है ।” ( पृ. -74 )

प्रो. अशोक भाटिया की इस संग्रह में 22 लघुकथाएँ हैं और एक को छोड़कर शेष सभी शीर्षक विहीन हैं । लेखक ने प्रतीकात्मक शैली को अपनाया है । ये लघुकथाएँ तीन भागों में हैं । पहले भाग में सपना और सात लघुकथाएँ हैं । पहली लघुकथा में एक तरफ चिड़िया है, एक तरफ बच्चा है । दोनों के क्रियाकलाप और बच्चे की आकांक्षा बच्चों पर पढ़ाई के बोझ का ब्यान करती है । भव्या, मिंकू, रिंकू, चिंटू, सुशील, छोटे के क्रियाकलाप से बच्चों के मन को समझने का प्रयास किया गया है । लेखक के सभी पात्र तोतले हैं अर्थात उनकी आयु छोटी है । लेखक ने बच्चे और माँ की बात करने की बजाए बच्चे और उसकी चाची की बात की है, जो लुप्त हो रहे सांझे परिवारों के दौर में बड़ी संकेतात्मक बात है । दूसरी सात लघुकथाओं में बच्चों में माँ-बाप के दूसरे बच्चे या खिलौने से प्यार करने पर उत्पन्न होने वाले ईर्ष्या भाव को दिखाया है । वे प्यार के बदले प्यार देते हैं । बच्चे चालाक भी होते हैं । तीसरी सात लघुकथाओं में दूसरे भाग से बड़े बच्चों की लघुकथाएँ हैं । इसमें ज्यादातर बच्चे स्कूल जाने वाले हैं और पढ़ाई इन लघुकथाओं का विषय है । बच्चे मासूम भी हैं और उनकी हाजिर जवाबी और तेज तर्रारी सामने वाले को शर्मिंदा भी करती है । बच्चों को शिशुवस्था में दिखाया डर देर तक कायम रहता है । लेखक ने उसी प्रकार की खिचड़ी भाषा का प्रयोग किया है, जैसी कि बच्चे करते हैं –
“मेरा होम-वर्क बिलकुल ठीक था । यह नया होमवर्क ‘रब’ कर दो ।” ( पृ. – 87 )
लेखक ने लघुकथाओं के अंत में बच्चे की बात का दूसरे पर प्रभाव भी दिखाया है और बच्चे पर भी । कुछ अंत कथा का निचोड़ भी हैं, यथा –
“वह दुनिया का सबसे सुंदर, सबसे सुगन्धित फूल था ।” ( पृ. – 83 )

उषालाल की लघुकथाएँ बताती हैं कि बच्चे भोले भी होते हैं और बात को मन पर भी लगा लेते हैं । ऋषभ भोले बच्चों का प्रतिनिधित्व करता है, तो गगन पिता की बात को दिल पर लगाकर दृढ निश्चय करता है और सफल होता है । मुग्धा के माध्यम से लेखिका बताती है कि बच्चे जो सुनते हैं, वही कह देते हैं ।

सत्यप्रकाश भारद्वाज की लघुकथा ‘सवेरा’ स्वाभिमानी बालक की कथा है, जो न सिर्फ खुद भीख मांगने का काम छोड़ता है, अपितु अपने बाबा से भी यह काम छुडवा लेता है । ‘विषैला’ लघुकथा में मच्छर मारने के प्रसंग को लेकर लेखक व्यंग्य कसता है –
“तो क्या आदमी मच्छर से भी विषैला है ।” ( पृ. – 93 )

डॉ. कृष्णलता यादव पक्षियों के माध्यम से मानवता का संदेश देती हैं, खरबूजों के माध्यम से नकलीपन से बचने का संदेश देती हैं । सतीश का बेटा नैतिक शिक्षा की पुस्तक के माध्यम से पिता को सीधी राह पर लाता है, जबकि अखिल के कृत्य उसके बेटे को भी अच्छे कृत्य करने का इरादा देते हैं ।

सुरेखा शर्मा पूजा के नाम पर होते ढोंग को दिखाती हैं । शिवा एक परोपकारी बालक है । रानी मास्टरनी जी की सलाह पर पटाखे न चलाने की बात करती है, लेकिन कहानी की पहली पंक्ति में वह पटाखे खरीदना चाहती है, इस प्रकार कथ्य विरोधाभासी है ।

डॉ. शील कौशिक ने दो बच्चियों के माध्यम से बुजुर्गों को वृद्धाश्रम में छोड़े जाने के उन पर पड़ने वाले प्रभाव को दिखाया है, वहीं दो बहनों के माध्यम से बच्चों की निश्च्छलता को दिखाया है । टिंकू अपनी मासूमियत के कारण परीक्षा में वो नहीं लिखता जो उसे याद करवाया गया है, अपितु वो लिखता है जो घर में होता है । इस लघुकथा के माध्यम से लेखिका ने कामकाजी महिलाओं की विवशता भी दिखाई है । नए स्कूल में परायापन महसूस करना, एक सामान्य बात है; लेखिका ने इसे ‘मुझसे दोस्ती करोगी’ में दिखाया है, साथ ही संदेश दिया है कि बच्चे सहजता से दोस्त बन जाते हैं । दादी-पोती लघुकथा भी पोती की मासूमियतता को दिखाती है ।

डॉ. अनिलकुमार गोयल ‘सवेरा’ जी की लघुकथाएँ स्कूल पर केन्द्रित हैं । पहली दो लघुकथाएँ सफाई पर हैं, जबकि तीसरी लघुकथा में पतंग उड़ाने के माध्यम से दोस्ती का संदेश दिया गया है ।

डॉ. अनिल शूर आज़ाद ने बाल मनोविज्ञान पर आधारित ‘डर’ लघुकथा लिखी है तो ‘डंडा’ लघुकथा घर के माहौल का बच्चे पर प्रभाव दिखाती है । रघुविन्द्र यादव अपनी लघुकथाओं में बच्चों के भोलेपन के साथ उनकी अच्छाई को उद्घाटित करते हैं ।

डॉ. आरती बंसल की लघुकथाओं में दो तरह के अमीर लोगों का वर्णन है । पहले जो कुत्तों को तो गुलगुले खिला सकते हैं, मगर गरीब बच्चों को नहीं । दूसरी तरफ ऐसी मालकिन भी है जो नौकरानी की बेटी को स्कूल दाखिल करवाती है । रिभव उन बच्चों का प्रतिनिधि है, जो सच्ची बात मुंह पर कह देते हैं । लेखिका ने बातूनी बालकों के पालन-पोषण की विधि भी बताई है । आदिक अच्छे संस्कारों वाला बालक है, जो दूसरों को भी प्रेरित करता है ।

नवलसिंह बच्चों की पारखी नज़र को ‘बड़ी सीख’ लघुकथा में दिखाते हैं । ‘रात और सपने’ लघुकथा में बच्चों के नए-नए सवाल पूछने की प्रवृति को दिखाया गया है । अन्य लघुकथाएँ बताती हैं, कि बच्चे बड़ों से हमदर्दी भी रखते हैं और प्यार भी करते हैं । उनका मन साफ़ होता है ।

पुस्तक का दूसरा भाग डॉ. राजकुमार निजात जी लघुकथाओं पर केन्द्रित है । इसमें ओस नामक लड़की पात्र को लेकर 40 लघुकथाएँ लिखी गई हैं । पिता-बेटी का संवाद कथा को कहने का सशक्त माध्यम बना है । ये सभी लघुकथाएँ यहाँ अलग-अलग वजूद रखती हैं, वहीं समग्र रूप से ओस के विविध पहलुओं को दिखाती हुई एक लघु आख्यान का आभास भी देती हैं । ओस को चार साल से सात वर्ष तक दिखाया गया है । लेखक लिखता है –
“ओस बहुत छोटी है । चार साल की नन्हीं बच्ची । वह तो सुबह की ओस की भांति एक नन्हीं ओस है ।” ( पृ. – 132 )
ओस की अध्यापिका कहती है –
“ओस जो कुछ भी करती है, वह भीतर से स्वाभाविक रूप से ही करती है । वह विलक्षण है । वह जहां भी जाती है, सब कुछ जगमग-जगमग हो जाता है ।” ( पृ. – 144 )
लेखक ने ओस के चरित्र के विभिन्न पहलुओं को उजागर किया गया है । वह बहुत अच्छी चित्रकार है । वह हर देखी, सुनी चीज का चित्र बना देती है, जिसमें बादल, वर्षा, कार्टून, पहाड़, बारिश आदि के चित्र हैं । वह कविता भी लिख लेती है । वह आशावादी है । वह जो देखती है, वही करना चाहती है । वह सबकी दोस्त है, सब उसके दोस्त हैं । पुरानी बातों को याद रखती है और उन्हें नए सन्दर्भों के साथ जोड़ लेती है । वह अपना काम खुद करने में विश्वास रखती है और दूसरों की मदद भी करती है । वह दयालु है । दोस्त को बीमार देखकर विचलित हो उठती है । वह दूसरों के दर्द को समझती है –
“मुझे लगा, उसने मेरे दर्द को अपने भीतर तक महसूस किया, मेरी ही तरह ।” ( पृ. – 136 )
बाल भिखारी उसकी मन:स्थिति को झिंझोड़ देता है । गणेश की गर्दन काटने के कारण वह भगवान शिव से नाराज है । उसका दया भाव कुत्ते के लिए भी है । वह चिड़ियों से बातें करती है । स्कूल वह पैदल ही जाना पसंद करती है । वह और उसके दोस्त टोली बनाकर स्कूल जाते हैं । स्कूल उसका नया संसार है । वह सबक जल्दी सीखती है और सीखी हुई बातें दूसरों को भी बताती है । वह जिज्ञासु है, प्रश्न पूछती रहती है । जहाँ का अर्थ समझकर ‘सारे जहाँ से अच्छा गीत’ को बड़े विश्वास के साथ गाती है । वह रावण को मारना चाहती है । आसमान में सैर करना चाहती है, पहाड़ देखना चाहती है, नदियों में नहाना चाहती है । उसके पापा उसे कहते हैं कि वह फूल जैसी है, उसके चेहरे पर सारे फूलों के रंग उतर आए हैं । लेखक को लगता है कि वह पिछले जन्म में फूल रही होगी । उसके पिता जी उसे ईमानदार, जिम्मेदार और सच्चा नागरिक बनाना चाहते हैं । वे उसे कुछ सच बताते हैं तो कुछ सच छुपा भी लेते हैं ताकि बालमन को कुरूप दुनिया न दिखे । एक बेटी जैसे तोहफे लेकर खुश होती है, वैसे ही पिता तोहफे देकर खुश होते हैं । पिता जी बेटी से प्रेरणा भी लेते हैं कि एकांत बाहर नहीं मिलता, अपितु यह मन की स्थिति है ।

लेखक ने ओस के माध्यम से यह बताया है कि बच्चे भरपूर खाते, खेलते, पढ़ते हैं अर्थात भरपूर जीते हैं । बच्चे गिरने पर कब रोते हैं, कब नहीं रोते इस मनोविज्ञान को उद्घाटित किया गया है । लेखक ने अनेक जगहों पर काव्यात्मक भाषा का प्रयोग किया है –
“उसने कमल के फूलों को जी भरकर निहारा और फिर आसमान की और देखकर कमल हो उठी ।” ( पृ. – 150 )

संक्षेप में, यह संकलन बालकों को समझने का एक अनूठा प्रयास है । बाल मन की विविध स्थितियों को विभिन्न लेखकों ने अलग-अलग नजरिये से देखा है । इस संग्रह से गुजरते समय बालकों के विविध रूप आँखों के सामने तैरने लगते हैं, जो इस संग्रह की सफलता का सूचक है । डॉ. निजात जी इस संग्रह के संपादन के लिए बधाई के पात्र हैं ।

- दिलबागसिंह विर्क

Source:
http://dsvirk.blogspot.com/2019/01/blog-post.html

शनिवार, 16 मार्च 2019

लघुकथा समाचार: शहर के लेखक की लघुकथाओं पर बनाई टेली फिल्मों का प्रदर्शन 18 मार्च को

Bhaskar News Network Mar 16, 2019

इंदौर। शहर के साहित्यकार सदाशिव कौतुक की दो लघुकथा परिंदे और चल जमूरे पर बनाई गई दो टेलीफिल्मों का प्रदर्शनी 18 मार्च को जाल सभागृह में शाम 6 बजे किया जाएगा। ये फिल्में इंदौर की लोकेशंस पर फिल्माई गई हैं और इसमें इंदौर-उज्जैन के कलाकारों ने काम किया है। इसमें गृहमंत्री बाला बच्चन और उच्च शिक्षा मंत्री जीतू पटवारी मुख्य अतिथि होंगे। साहित्यकार राकेश शर्मा उद्बोधन देंगे।


source:
https://www.bhaskar.com/mp/indore/news/mp-news-performing-tele-films-on-the-short-stories-of-the-city39s-author-on-march-18-025157-4133773.html

लघुकथा वीडियो: तू नहीं समझेगा | संदीप तोमर | वर्जिन साहित्यपीठ


श्री कस्तूरीलाल तागरा की दो लघुकथाएं

1)
गुलाब के लिए

माली ने जैसे ही बगीचे में प्रवेश किया , कुछ पौधे उल्लास से तो कुछ तनाव से भर गये ।
माली ने अपनी खुरपी संभाली । गुलाब के इर्द-गिर्द उग आई घास को खोद-खोद कर क्यारी के बाहर फेंकने लगा । उसके बाद उसने मिटटी में खाद डाली और क्यारी को पानी से भर दिया ।
क्यारी के बाहर एक तरफ घायल पड़े घास को माली इस समय जल्लाद जैसा लग रहा था । पर वह बेचारा कर क्या सकता था ।
ठीक इसी समय घास को बगीचे के बाहर वाली सड़क से ऊँची-ऊँची  आवाज़ें सुनाई देने लगी –मजदूर एकता ज़िंदाबाद... मजदूर एकता ज़िंदाबाद ...
आवाज़ें और ऊँची होती चली गईं । थोड़ी देर में पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर लाठी चार्ज शुरू कर दिया । आंदोलनकारी इधर-उधर भागने लगे । चीख पुकार मच गई । चोट खाये कुछ लोग बचने के लिए बगीचे की ओर भागे । पुलिस  लाठियां भांजते हुए वहां भी पहुँच गई ।
गुलाब ने कोलाहल सुना तो पास पड़ी घास से इठलाते हुए पूछा –" अबे घास ! यह सब क्या हो रहा है ? "
घास ने तिलमिला कर जवाब दिया –" कुछ ख़ास नहीं , बस किसी गुलाब के लिए घास उखाड़ी जा रही है "
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2)
लेकिन ज़िन्दगी  

पहले वह माफिया डॉन था । बाद में नेता बन गया । बीती रात वह किराये पर लाये गए एक अद्भुत सौंदर्य के साथ जम कर सोया । महंगी विदेशी शराब भी पिलाई उसे । खुद भी छक के पी । सुबह जब थकान से आँखें भारी होने लगी तो सौंदर्य से पूछा--' कैसे आई तुम इस धंधे में ? '
वह पहले उदास हो गई। फिर आँखों में खून भर कर बोली-- 'अपना मर्द ही नीच  निकला ...'
माहौल में चुप्पी छा गई।
कुछ देर बाद नेता ने सवाल किया -- 'एजेंट को कितना परसेंट देना पड़ता है ?'
वह फट पड़ी -'  कमाई का आधा ही मिलता है मुझे । कभी-कभी तो उसमें भी बेईमानी कर जाता है कमीना दलाल ।'
नेता गुस्से से बोला- '  ये दल्ले साले होते ही ऐसे हैं । लो बताओ , ऐसे काम में भी डंडी मार जाते हैं ...कीड़े पड़ेंगे इन हरामिओं के शरीर में । ' 
नेता के इस नैतिक भाषण पर वह व्यंग से मुस्कुराने लगी। नेता झेंप गया । और झेंप मिटाने के लिए नकली हँसी हँसने लगा । फिर बात बदलते हुए बोला- '  मैंने तुम से तुम्हारा नाम तो पूछा ही नहीं '
'अब याद आई आपको मेरे नाम की । क्या करेंगे नाम जान के साहब ?... रात आप बहुत से नामों से प्यार कर रहे थे मुझे । उन्हीं में से कोई एक नाम समझ लो ।' और वह अपना निचला होंठ रोमांटिक अंदाज़ से काटने लगी।
नेता उसकी इस अदा पर बौरा-सा गया । लरजती आवाज़ में बोला  --' बेबी डॉल ! तुम तो हमें मार ही डालोगी ।'
वह तुरन्त बोली -- 'अरे हां ! याद आया , बेबी डॉल ही तो है मेरा नाम '
नेता ने जोर से ठहाका लगाया और उसे अपने और नजदीक कर लिया ।
थोड़ी देर बाद वह पेशवर चतुराई से पलंग से उठी । तुरंत कपड़ों को व्यवस्थित किया और दरवाजे की चिटकनी खोलते हुये बोली --' मेरा टाइम हो गया साहब ... अब चलती हूँ ... सलाम  '
नेता ने चौंक कर पूछा  --' तुम मुसलमान हो ? '
जवाब में वह बोली -- ' जय राम जी की '
और कमरे से बाहर निकल गई ।

- कस्तूरीलाल तागरा