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बुधवार, 29 दिसंबर 2021

फेसबुक समूह साहित्य संवेद व किस्सा कोताह द्वारा आयोजित लघुकथा प्रतियोगिता का परिणाम

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https://www.facebook.com/groups/437133820382776/posts/1086572615438890
साहित्य_संवेद_किस्सा_कोताह_लघुकथा_प्रतियोगिता(आयोजन तिथि: 26-27नवम्बर 2021) के परिणाम के साथ आप सबके समक्ष उपस्थित हूँ।
प्रतियोगिता के समीक्षक-निर्णायक थे वरिष्ठ लघुकथाकार द्वय श्री Pawan Sharma और श्री Ramesh Gautam। आप दोनों विज्ञजनों का हार्दिक आभार।
विजेताओं का चयन मुश्किल भरा रहा। बहुत अच्छा लगा कि प्राप्तांक में कहीं-कहीं टाई का भी मामला रहा। सबसे अच्छी बात कि हम सभी लघुकथाप्रेमियों को अच्छी रचनाएँ पढ़ने को मिलीं।
दोनों निर्णायकों के मत और आयोजन समिति के सहमति के पश्चात विजेताओं का चयन इस प्रकार है। आप सभी को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं। आप सभी अपना पूरा पता पिन कोड के साथ और मोबाइल नंबर मुझे मेसेंजर पर भेज दें ताकि आपको पुरस्कृत पुस्तक भेजी जा सके।
प्रथम पुरस्कार(हलाहल: भारती दाधीच ) और
द्वितीय पुरस्कार(केंचुल: Saurabh Vachaspati )
को भवभूति मिश्र रचित लघुकथा संग्रह 'बची-खुची सम्पत्ति'+ मधुदीप संपादित #पड़ाव_पड़ताल का कोई एक खण्ड+ संतोष सुपेकर Santosh Supekar सम्पादित 'उत्कंठा के चलते'

तृतीय पुरस्कार(विस्तृत आकार : Jyotsana Singh )
विजेता को भवभूति मिश्र रचित लघुकथा संग्रह 'बची-खुची सम्पत्ति'+मधुदीप संपादित #पड़ाव_पड़ताल का कोई एक खण्ड

प्रोत्साहन पुरस्कार(तवायफ सभा: Chandresh Kumar Chhatlani एवं वक्त: Sandhya Tiwari )
भवभूति मिश्र रचित लघुकथा संग्रह 'बची-खुची सम्पत्ति'

विदित है कि प्रथम तीन विजेता रचनाओं का प्रकाशन #किस्सा_कोताह पत्रिका में किया जाएगा और प्रथम पांच विजेताओ को डिजिटल सर्टिफिकेट प्रदान किये जायेंगे।

श्री पवन शर्मा द्वारा लघुकथा एवं प्रतियोगिता में आई रचनाओं पर समीक्षकीय टिप्पणी:
"साहित्य संवेद किस्सा कोताह’ लघुकथा प्रतियोगिता"
मार्ग प्रशस्त करती समकालीन हिंदी लघुकथा
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•पवन शर्मा

लघुकथा पूर्णतः बौद्धिक लेखन है, जिसमें हमारे आसपास फैली व्याप्त विसंगतियों को उजागर कर पाठकों के सामने लाने का प्रयास किया जाता है। अनेक अवधारणाओं के बावजूद समकालीन हिंदी लघुकथा हिंदी साहित्य के प्रति अपना मार्ग प्रशस्त करती है।
आज की लघुकथाओं ने बदलते दौर में भी अपनी अस्मिता और गरिमा को बचाए रखा है। आज की लघुकथाओं ने मानवीय मूल्यों को बचाए रखा है, जो पाठकों का लगातार पीछा करते रहते हैं। सटीक, यथार्थपरक, संवेदनशील विषयों पर लिखी गई लघुकथाएं पाठक के मन मस्तिष्क पर अंकित रहती हैं। ऐसी ही लघुकथाएं दीर्घकालिक रहती हैं।
"लघुकथा जो न रिपोर्टिंग, न वक्तव्य, न संस्मरण और न दृश्यग्राफ है, बल्कि गद्य साहित्य में कथा विधा की सशक्त लघु आकारीय विधा है, जो वर्तमान की जमीन पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में कथा तत्वों को अपने में समाहित करती है।"
-लघुकथा में मौलिकता का समावेश हो। संक्षिप्तता हो। जीवन के एक ही पक्ष का सफल उद्घाटन हो। तीव्र गति से अपने लक्ष्य की ओर बढ़े। अनुभूतियों का सफल चित्रण हो। जिज्ञासा एवं कौतूहल का समावेश हो। प्रभाव और संवेदना की अन्विती हो। भाषा एवं शैली सरल हो। शीर्षक विषय के अनुकूल और छोटे हों। हिन्दी की अन्य विधाओं की तुलना में लघुकथा का आकार लघु होने के कारण पाठकों के बहुत नजदीक है। अपनी विधागत गुणों के दृष्टि से भी लघुकथा स्थापित हुई है। नि:संदेह लघुकथा मानव मूल्यों को तलाशने और तराशने का कार्य करती है। कठिन विरोधों के बावजूद भी साहित्य को एक गति प्रदान की है। विगत कई वर्षों से अनेक लेखक लघुकथा लेखन की ओर अग्रसर हुए हैं और अपने गम्भीर लघुकथा लेखन से अपना एक स्थान बनाया है। जिसमें नवीन भाषा, कथ्य, शिल्प देखने को मिले हैं। अनकों पत्र पत्रिकाओं ने लघुकथा के विकास में अपना अहम् योगदान दिया है।
‘साहित्य संवेद किस्सा कोताह’ लघुकथा प्रतियोगिता के लिए मुझे 73 लघुकथाएं प्राप्त हुईं। अद्योपांत लघुकथाओं को पढ़ने के बाद मुझे लगा कि बहुत सी लघुकथाएं जल्दबाजी में लिखी गई हैं। कथानक, शिल्प अच्छे हैं, पर लघुकथाओं में जो प्रभाव मिलना चाहिए, वो नहीं मिल पाया। कारण एक ही समझ में आया कि लघुकथा को लिखने के बाद गंभीरतापूर्वक उसे पढ़ने और परिमार्जित करने की आवश्यकता नहीं हुई, जबकि लेखक अपनी लिखी रचना को जितनी बार स्वयं पढ़ेगा, उतनी बार उसमें परिमार्जन की गुंजाइश रहती है, रचना तपकर कुंदन की तरह निखरेगी। लेखन में ‘क्वांटिटी’ के स्थान पर ‘क्वालिटी’ पर ध्यान देने की आवश्यकता होनी चाहिए, फिर भी बहुत सी लघुकथाएं अच्छी और प्रभावशाली हैं, जो पाठक को सहज रूप में आकृष्ट करती हैं और मन मस्तिष्क पर अपनी छाप छोड़ जाती हैं| बहरहाल, लघुकथा प्रतियोगिता में अच्छी और बेहतरीन लघुकथाएं पढ़ने को मिली हैं| सभी सम्मानित लघुकथाकारों को हार्दिक
बधाई
और शुभकामनाएं|
लघुकथा प्रतियोगिता हेतु प्राप्त लघुकथाओं में से तेजवीर सिंह Tej Veer Singh
की लघुकथा ‘पराभव’ राजनीति को आगे बढ़ाने और किसी को गिराने की परंपरा सालों साल से चलती आ रही है। अपनी राजनीतिक परंपरा में अपनी शाख बचाने एवं विकल्प् खोजती संवाद शैली में लिखी गई लघुकथा अद्भुत है। संवादों के एक एक शब्द पठनीय है। गहरे भाव की इस लघुकथा का अंत सोचने पर मजबूर करता है।
डॉ.रंजना जायसवाल की लघुकथा ‘भेड़िया’ कम शब्दों में लिखी गई मनुष्य के अंदर के भेड़ियेपन को दर्शाती है। ऐसे कुछ भेडिय़े शहरी संस्कृति में पले बड़े क्यों न हों। आखिर भेडिय़ा गांवों में ही तो घुसते हैं। भेडिय़ा को केन्द्र में रखकर लिखी गई लघुकथा प्रभाव डालती है।
सौरभ वाचस्पति ने लघुकथा ‘कैंचुल’ में जिस विषय को चुना है, वो पुराना जरूर है पर उन्होंने अपनी लघुकथा में उस चहरे को प्रस्तुत किया है। जो दया बाबू के चेहरे रूप में समाज में देखने को मिलता है। ऐसे लोगों की कैंचुल उतारने में राधा जैसी गांव की महिलाएं सक्षम हैं और उसे उतार फैंकने में परहेज नहीं करतीं।
सीमा व्यास की लघुकथा ‘रुकना या ठहरना’ में जीवन की भाग दौड़ में जीवन निकला जा रहा है, को भली प्रकार से दर्शाया गया है। दो पल भी जीवन को ठहरने का समय नहीं है। कम शब्दों में लिखी गई लघुकथा में स्वयं को ही तय करना होगा कि रुकना है या ठहरना।
रजनीश दीक्षित Rajnish Dixit की लघुकथा ‘इंसाफ’ प्रतीकात्मक शैली में लिखी गई लघुकथा है, जो प्रतीको के सहारे ही आगे बढ़ती है। मानवता डरी हुई और सहमी हुई है। विषय अलग है। भाषा एवं संवाद अच्छे हैं ।
नेहा अग्रवाल नेह Neha Agarwal Neh ने अपनी लघुकथा ‘फड़फड़ाते हुऐ पन्ने ’ में मॉं-बेटी के बीच के प्रेम को बेहद अनूठे और बेहतर ढंग से दर्शाया है। लघुकथा प्रभावकारी है। लघुकथा का अंत प्रभावित करता है।
शेख शहजाद उस्मांनी Sheikh Shahzad Usmani की लघुकथा ‘बूस्टर डोज’ कम शब्दों की व्यापारिक स्पर्धा इंगित करती और आपदा में अवसर तलाशती एक अच्छी लघुकथा है। जो समसामयिक और विश्वव्यापी समस्या को उजागर करती है।
चन्द्रेश कुमार छतलानी की लघुकथा ‘तवायफ सभा’ दकियानूसी विचारों आडंबर लिए, रीति रिवाजों में जकड़ी तवायफ की लघुकथा है| जिसके माध्यम से वह तवायफ तवायफ सभा में अदृश्य हथकड़ियों की ओर इशारा करती बेहतर लघुकथा है।
ज्योत्स्ना सिंह की लघुकथा ‘विस्तृत आकार’ संवेदना के स्तर पर एक अच्छी लघुकथा है। जीवन जीने में मेहनत का अंत सुखद ही होता है इसका उदाहरण निरखु के रूप में लघुकथा में उपस्थित है।
स्त्री जीवन पर लिखी गई मधु जैन
की लघुकथा ‘आकार से निराकार’ एक अच्छी लघुकथा है। एक स्त्री अपनी परंपरा का निर्वाह किस तरह से करती है, ये बात लघुकथा में बेहतर ढंग से दर्शाया गया है | लघुकथा का शीर्षक अत्यंत प्रभावित करता है।
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श्री रमेश गौतम द्वारा लघुकथा एवं प्रतियोगिता में आई रचनाओं पर की समीक्षकीय टिप्पणी:

साहित्य संवेद किस्सा कोताह लघुकथा प्रतियोगिता के संयोजक द्वारा प्रेषित लघुकथाओं को पढ़कर प्रतियोगिता हेतु श्रेष्ठता क्रम में लघुकथाओं का चयन करना एक कठिन अनुभव रहा। किस लघुकथा को कम अंक दिए जाएं, इसका निर्णय कर पाना बहुत ही मुश्किल था क्योंकि सभी लोग लघुकथाकारों ने अपनी ओर से उत्कृष्ट रचनाएं भेजीं किंतु जहाँ प्रतियोगिता की बात हो तो प्रत्येक प्रतियोगिता में कुछ मानक निर्धारित किए जाते हैं और उन्हीं के आधार पर रचनाओं का चयन किया जाता है। इस बात को ध्यान में रखते हुए तथा लघुकथा के कथ्य एवं शिल्प को मानक मानकर उनका मूल्यांकन किया गया। इस आधार पर ही श्रेष्ठ लघुकथाएं चयनित की गई हैं जिनमें अंकों का अंतर बहुत कम है फिर भी कथ्य की नव्यता को मुख्य आधार मानकर लघुकथा की श्रेष्ठता सूची बनाई गई है। विजयी लघुकथाकारों को बधाई के साथ सभी लघुकथाकारों से यह भी कहना है कि लघुकथा के कथ्य में नवीनता होने के साथ-साथ शिल्प को ध्यान में रखना भी अनिवार्य है। कुछ भी लिख देने से लघुकथा नहीं बनती है, ना ही कहानी को छोटा करने से लघुकथा बनती है। लघुकथा एक स्वतंत्र, सशक्त एवं संपूर्ण विधा है।
इस प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त करने वाली लघुकथा 'हलाहल'(भारती दधीच) अपने कथ्य की नवीनता के आधार पर ध्यान आकृष्ट करती है क्योंकि ऐसे ऐसे विमर्श पर केंद्रित है जो हमें सजग करता है कि लैंगिक विकलांगता के साथ जन्म देने वालों बच्चों के प्रति हीनता बोध से मुक्ति होनी चाहिए ना कि इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बना कर उनका सामाजिक बहिष्कार किया जाना चाहिए। लघुकथा 'वक्त'(सन्ध्या तिवारी) करोना काल की भयावहता को मार्मिक ढंग से हमारे समक्ष प्रस्तुत करती है। इस लघुकथा ने करोना काल के इस कटु यथार्थ को उजागर किया है कि महामारी ने सारी मानवीय संवेदनाओं को मृतप्राय कर दिया। लघुकथा का कथ्य संवेदनहीनता पर प्रश्नचिह्न लगाता है।
ज्योत्स्ना सिंह की 'विस्तृत आकार' मानवीय संवेदनाओं को आंदोलित करता है।
कल्पना मिश्रा की लघुकथा 'मनौती' दो बेटों के बीच तिरस्कृत मां की पीड़ा को नए ढंग से व्यक्त करती है। 'न्योछावर' बच्चों की खुशी को सर्वोपरि मानकर स्वार्थ से परे होकर परिवार में माता-पिता की सोच को ऊंचाई देती है। चंद्रेश छतलानी की 'तवायफ सभा' वेश्याओं के उजले पक्ष को प्रस्तुत करने का प्रयास करती है साथ ही देश और समाज की चिंता को भी रेखांकित करती है।
सौरभ वाचस्पति की 'केंचुल' स्त्रियों के संबंध में समाज के वितरित सोच पर प्रहार करती है।
शर्मिला चौहान Sharmila Chouhan की 'लाइलाज मर्ज' वर्तमान अस्पतालों में व्यवसायिक मानसिकता इस सीमा तक पसर चुकी है कि रोगी के मर जाने के बाद भी उसे वेंटिलेटर पर डाले रखते हैं और अधिक से अधिक बिल बनाने की कुत्सित प्रवृत्ति की ओर संकेत करती है। पुष्पा जोशी की 'लाल साड़ी गोटे वाली' समय पर काम न आने पर अपराध बोध से ग्रसित मनोभावों को चित्रित करती है। Poonam Katriar की 'आदिम स्पृहा' आज के युवाओं की अकेले रहने की सोच, भटकाव एवं स्वछंद मनोवृत्ति को दर्शाते हुए उसका सकारात्मक समाधान प्रस्तुत करती है। इसी तरह अन्य लघुकथाएँ भी अपने कथ्य की नवीनता से इस बात के लिए आश्वस्त करती हैं कि लघुकथा के क्षेत्र में सक्रियता बढ़ी है जो कि भविष्य के लिए आशान्वित करती है। सभी लघुकथाकारों को बहुत-बहुत बधाई।
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सधन्यवाद

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मंगलवार, 28 दिसंबर 2021

समकालीन लघुकथा स्वर्ण जयन्ती सम्मान 2021

समकालीन लघुकथा स्वर्ण जयन्ती सम्मान 2021 का परिणाम अविराम साहित्यिकी की प्रधान सम्पादिका की अनुमति से सभी मित्रों के समक्ष रखा जा रहा है। इस योजना में 15 प्रतिभागियों को ‘स्वर्ण जयन्ती समकालीन लघुकथा प्रतियोगिता 2021’ के आधार पर नामांकित किया गया था। इन प्रतिभागियों से आमंत्रित सामग्री- लघुकथाएँ और समकालीन लघुकथा के विकास में उनके योगदान सम्बन्धी विवरण का मूल्यांकन समकालीन लघुकथा के दो वरिष्ठ विशेषज्ञों श्री भगीरथ परिहार एवं डॉ. बलराम अग्रवाल तथा अविराम साहित्यिकी के संपादक मण्डल के दो सदस्यों- डॉ. उमेश महादोषी एवं डॉ. सुरेश पाण्डेय सपन द्वारा किया गया। दोनों विशेषज्ञों को कुल 60 अंक (प्रत्येक को लघुकथाओं के लिए 22.5 अंक तथा अन्य योगदान के लिए 7.5 अंक) निर्धारित किए गये थे। तथा संपादकीय टीम को कुल 40 अंक (डॉ. उमेश महादोषी को लघुकथाओं के लिए 20 अंक तथा अन्य योगदान के लिए 10 अंक एवं डॉ. सुरेश पाण्डेय सपन को लघुकथाओं के लिए 10 अंक) निर्धारित किए गये थे। इस प्रकार कुल 100 अंको में से 75 अंक के आधार पर लघुकथाओं का और 25 अंको के आधार पर लघुकथा के विकास में योगदान (जिसमें लघुकथा संग्रहों का प्रकाशन, सम्पादकीय योगदान, लघुकथा विमर्श/समीक्षा-समालोचना यानी आलेख कार्य, प्राप्त सम्मान-पुरस्कार आदि, इण्टरनेट आदि विभिन्न माध्यमों से अन्य योगदान आदि कार्य शामिल थे) का मूल्यांकन किया गया। समग्र मूल्यांकन (लघुकथाओं एवं लघुकथा के विकास में योगदान) के समेकित अंकों (चारों मूल्यांकनकर्ताओं के कुल योग यानी 100 अंकों) के आधार पर प्राप्त अंक (कोष्ठक में उनका मेरिट अनुक्रम) इस प्रकार हैं-

1. डॉ. संध्या तिवारी- 84.3           (1)

2. सुश्री ज्योत्स्ना ‘कपिल’- 76.0    (4)

3. सुश्री सविता इन्द्र गुप्ता- 77.1   (3)

4. श्री विरेंदर ‘वीर’ मेहता- 73.9  (6)

5. डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी- 83.6 (2)

6. डॉ. कुमार सम्भव जोशी- 74.6  (5)

7. डा. उपमा शर्मा- 71.1          (9)

8. डॉ. शैल चन्द्रा- 61.0           (13)

9. श्री सदानंद कवीश्वर- 59.3   (14)

10. सुश्री अंकिता भार्गव (स्व.)- 55.3 (15)

11. सुश्री भारती कुमारी- 62.9 (12)

12. सुश्री मीनू खरे- 72.2          (7)

13. सुश्री दिव्या शर्मा- 72.2      (8)

14. डॉ. क्षमा सिसोदिया- 67.6  (10)

15. डॉ. संगीता गाँधी- 65.1       (11)

सभी प्रतिभागियों को व्यक्तिगत सूचना उनके ई मेल से दी जा रही है।


पाँचो विजेताओं के नाम इस प्रकार हैं- 

डॉ. संध्या तिवारी- प्रथम (सम्मान राशि रु. 8000/- एवं 3000/- कुल 11000/-), 

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी‘ द्वितीय (कुल सम्मान राशि रु. 5000/-), 

सुश्री सविता इन्द्र गुप्ता- तृतीय (कुल सम्मान राशि रु. 3000/-), 

सुश्री ज्योत्स्ना ‘कपिल’- चतुर्थ (कुल सम्मान राशि रु. 2500/-) एवं 

डॉ. कुमार सम्भव जोशी- पंचम (कुल सम्मान राशि रु. 2000/-)। 


सभी विजेताओं को हार्दिक बधाई।

अपरिहार्य कारणों से कोई सम्मान समारोह आयोजित करना संभव नहीं है, अतः सम्मान राशि एवं प्रमाण पत्र आगामी दो सप्ताह में पंजीकृत डाक से भेज दिये जायेंगे।

लघुकथाओं के मूल्यांकन में सभी नामांकितों के मध्य अच्छी प्रतियोगिता रही। अनेक अच्छी लघुकथाएँ सामने आयीं। सभी नामांकित/प्रतिभागी मित्रों को हार्दिक शुभकामनाएँ। सहयोग के लिए सभी प्रतिभागियों एवं आदरणीय श्री भगीरथ परिहार जी, डॉ. बलराम अग्रवाल जी एवं डॉ. सुरेश पाण्डेय ‘सपन’ का हार्दिक आभार! स्वर्ण जयन्ती समकालीन लघुकथा प्रतियोगिता 2021 के सभी प्रतिभागियों और मूल्यांकन में शामिल रहे सभी आदरणीय अग्रजों/मित्रों का एक बार पुनः आभार!

संयोजक : उमेश महादोषी 

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लघुकथा समाचार: नए लेखकों के लिए सरल काव्यांजलि द्वारा लघुकथा कार्यशाला आयोजित

 लघुकथा पिरामिड की तरह शिखर बनाती है - प्रो. शर्मा

आजकल लिखा बहुत जा रहा है, पर वह कितना सार्थक और कालजयी रहेगा, यह एक बड़ी चुनौती है। उपन्यास लेखन में कई शिखर बन सकते हैं, लेकिन लघुकथा पिरामिड की तरह होती है।लघुकथा में तलवार का काम सुई से लेना होता है। ध्यान रहे कि आपके लेखन से   विशेष प्रकार के भाव और सन्देश पैदा हों। अपने  अनुभव को पकड़ें, मौलिकता का ध्यान रखते हुए द्वंदात्मकता उत्पन्न करें।यह आवश्यक नही कि द्वंद रचना के मध्य में आए, पर द्वंद को उभारें, तनाव को उभारें और उसका पर्यवसान इस बिंदु पर करें कि पाठक चकित रह जाए। एक लघुकथाकार से अपेक्षा होती है कि वह सभी प्रतिमानों पर खरा उतरे। ये उदगार ख्यात समीक्षक, सम्पादक, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के कुलानुशासक प्रो शैलेन्द्रकुमार शर्मा ने व्यक्त किये। वे सुदामा नगर में संस्था सरल काव्यांजलि  द्वारा शहर के नए लघुकथाकारों के लिए आयोजित महत्त्वपूर्ण लघुकथा कार्यशाला को सम्बोधित कर रहे थे। 

इस अवसर पर डॉक्टर शर्मा ने नए रचनाकारों को डॉ. कमल चोपडा, सतीशराज पुष्करणा, डॉ.बलराम अग्रवाल द्वारा हिन्दी मे अनूदित तेलुगु रचना, चित्रा मुद्गल, महेश दर्पण, सन्तोष सुपेकर आदि की लघुकथाओं के उदाहरण देकर लघुकथा के प्रतिमानों को स्पष्ट किया। 

वरिष्ठ लघुकथाकार श्री सन्तोष सुपेकर ने कहा कि लघुकथा महज संक्षिप्तता का संयोजन नही है, यह अथक परिश्रम से तैयार एक शिल्प और  उसमें  समाहित भावों की सशक्त अभिव्यक्ति है। उन्होंने नए लघुकथाकारों से लघुकथा में भाषा, शिल्प, बिम्ब , प्रतीक, संवाद के स्तर पर अत्यधिक श्रम करने का आह्वान किया। उनके अनुसार प्रभावी शीर्षक देकर और  विषयों में विविधता लाकर लघुकथा के भविष्य को स्वर्णिम बनाया जा सकता है।

यह जानकारी देते हुए संस्था के प्रचार सचिव श्री विजयसिंह गेहलोत 'साकित उज्जैनी' ने बताया कि इस अवसर पर नए रचनाकारों सर्वश्री हेमन्त भोपाले ने 'बेटे से पहचान', रूबी कुरैशी ने 'ढाल', प्रतिभा शर्मा ने 'सौदा' , इंदर सिंह चौधरी ने 'माफी', रामचन्द्र धर्मदासानी ने 'क्रिसमस गिफ्ट', और के.एन शर्मा 'अकेला' ने 'सहजता और असहजता' शीर्षक लघुकथाओं का पाठ किया। 

अपने अध्यक्षीय उदबोधन में वरिष्ठ लघुकथाकार डॉ प्रभाकर शर्मा ने रचनाकारों से खूब पढ़ने और फिर कुछ रचने का आव्हान किया। नए कलमकारों ने लघुकथा सम्बन्धी अपनी जिज्ञासाओं का समाधान भी वरिष्ठजनों से करवाया।  संस्था द्वारा नवोदितों को देश के  महत्वपूर्ण लघुकथा संकलन भी भेंट किये गए।

 इस अवसर पर  सभी उपस्थित जनों ने उज्जैन- झालावाड़ रेल लाईन को लेकर संस्था द्वारा चलाए जा रहे  'रेल मंत्री को पत्र लिखो' अभियान के तहत  रेल मंत्री को पोस्ट कार्ड लिखे। प्रारम्भ में अतिथियों का स्वागत संस्था सचिव डॉक्टर संजय नागर , सौरभ मेहता , मोहन तोमर ने किया और अंत में आभार संस्था महासचिव श्री  राजेन्द्र देवधरे 'दर्पण' ने माना। 

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https://www.bkknews.page/2021/12/blog-post_85.html

शनिवार, 25 दिसंबर 2021

आलेख: लघुकथा : प्रवाह और प्रभाव | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

साहित्य में आज लघुकथा अपना एक विशिष्ट स्थान बना चुकी है, क्रिकेट में टेस्ट क्रिकेट फिर वन डे और अब 20-20 की तरह ही साहित्य में भी समय की कमी के कारण पाठक अब छोटी कथाओं को पढने में अधिक रूचि लेते हैं हालाँकि लघुकथा का अर्थ छोटी-कहानी नहीं है, यह कहानी से अलग एक ऐसी विधा है कि जिसमें कोई एक बार डूब गया तो इसका नशा उसे लघुकथाओं से बाहर निकलने नहीं देता। इस लेख में लघुकथा क्या है इसकी कुछ जानकारी दी गयी है।

कल्पना कीजिये कि आप एक प्राकृतिक झरने के पास खड़े हैं, चूँकि यह प्राकृतिक है इसलिए इसका आकार सहज होगा, झरना छोटा भी हो सकता है या बड़ा भी। उस झरने से गिरती हुई पानी की बूँदें धरती को छूकर उछल रही हैं और फिर आपके चेहरे से टकरा रही हैं, आपको झरने के पानी तथा वातावरण के तापमान के अनुसार गर्म-ठंडा महसूस होगा।

एक झरना सागर की तरह विशाल नहीं होता, ना ही नदी जैसे अलग-अलग रास्तों पर चलता है, वह एक ही स्थान पर अपनी बूंदों से अपनी प्रकृति के अनुसार अहसास कराता है। वह गर्म पानी का झरना भी हो सकता है और ठन्डे पानी का भी, वह एक नदी का उद्गम भी हो सकता है और नहीं भी।

इसी प्रकार यदि हम एक लघुकथा की बात करें तो किसी झरने के समान ही लघुकथा ना तो किसी सागर सरीखे उपन्यास की तरह लम्बी होती है और ना ही नदी जैसी कहानी की तरह अलग-अलग पक्षों को समेटे हुए वह अपनी प्रकृति के अनुसार पाठक की चेतना पर कुछ ऐसा अहसास करा देती है, जिससे गंभीर पाठक चिन्तन की ओर उन्मुख हो जाता है। एक उपन्यास में कई घटनाएं होती हैं, कहानी में एक घटना के कई क्षण होते हैं और लघुकथा में एक विशेष क्षण की घटना केंद्र में होती है। एक झरने की तरह ही लघुकथा का आकार सहज होता है कृत्रिम नहीं, उसमें कुछ भी अधिक या कम हो जाये तो कृत्रिमता उत्पन्न हो जाती है। यहाँ हम यह मान सकते हैं कि कहानी के न्यूनतम शब्दों से लघुकथा के शब्द कम हों तो बेहतर।

आज की कम्प्यूटर सभ्यता में जब वार्तालाप में कम से कम शब्दों का प्रयोग हो रहा है, यह स्वाभाविक ही है कि लघुकथा पाठकों के आकर्षण का केंद्र बन रही है। सोशल मीडिया के कई स्त्रोतों द्वारा भी लघुकथाएं, लघु कहानियाँ, लघु बोधकथाएँ आदि बहुधा प्रसारित हो रही हैं। लघुकथा के संवर्धन में किये जा रहे महती कार्य “पड़ाव और पड़ताल” के मुख्य संपादक श्री मधुदीप गुप्ता के अनुसार वर्ष 2020 के बाद का साहित्य युग लघुकथा का युग होगा। इस भविष्यवाणी के पीछे उनका गूढ़ चिन्तन और समय को परखने की क्षमता छिपी हुई है।

लघुकथा का विस्तार और सीमायें

लघुकथा कोई शिक्षक नहीं है ना ही मार्गदर्शक है, वह तो रास्ते में पड़े पत्थरों, टूटी सड़कों और कंटीले झाड़ों को दिखा देती है, उससे बचना कैसे है यह बताना लघुकथा का काम नहीं है। इसका कारण यह माना गया है कि जब किसी समस्या का समाधान बताया जाता है तो लघुकथा में लेखकीय प्रवेश की सम्भावना रहती है। लघुकथा का कार्य है किसी समस्या की तरफ इशारा कर पाठकों के अंतर्मन की चेतना को जागृत करना यह एक बहुत शक्तिशाली हथियार है जो सीधे विचारों पर चोट करता है हालाँकि समकालीन लघुकथाएं बिना अनुशासन भंग किये कई छोटी समस्याओं के समाधान भी बता रही हैं  मैं समझता हूँ कि एक लघुकथाकार यदि किसी छोटी समस्या का समाधान बिना लेखकीय प्रवेश के निष्पक्ष होकर सर्ववर्ग हेतु कहता है तो इसका स्वागत होना चाहिये। हालाँकि इसके विपरीत कोई समस्या छोटी है अथवा बड़ी इसका निर्धारण एक लेखक नहीं कर सकता, यह पाठकों के अनुभवों पर निर्भर करता है। इसलिए यदि कोई समाधान सुझाया जा रहा है तो वह पाठकों के विचारों की विविधता को ध्यान में रखकर सुझाया जाये।

लघुकथा में वातावरण का निर्माण नहीं किया जाता, वरन लघुकथा पढ़ते-पढ़ते ही वातावरण समझ में आ जाता है। प्रेमचन्द की लघुकथा ‘राष्ट्र का सेवक’ में पात्र का नाम इंदिरा और उसके पिता राष्ट्र के सेवक से ही यह समझ में आ जाता है कि वह किनकी बात कर रहे हैं। रचना के अंत में इंदिरा एक नीची जाति के नौजवान से स्वयं के विवाह की बात करती है, जिसे राष्ट्र के सेवक ने भाषण देते समय गले लगाया था, तब राष्ट्र सेवक की आँखों में प्रलय आ जाती है और वह मुंह फेर लेता है। यहाँ प्रेमचन्द ने दो विसंगतियों की तरफ एक साथ इशारा कर दिया, पहला राजनीति में व्याप्त झूठ का और दूसरा जाति भेद का।

अन्य साहित्यकारों की तरह ही लघुकथाकार भी अपने वर्तमान समाज का कुशल चित्रकार होता है जिसके हाथ में कूची के स्थान पर कलम होती है हालाँकि साहित्यकार को न केवल वर्तमान वरन भविष्य के समाज का भी कुशल चित्रकार होना चाहिए। साहित्य के द्वारा समाज का निर्माण होता है, साहित्य समाज के दर्पण के साथ-साथ समाज के लिए दिशा सूचक भी हैअतः समाज में सकारात्मक उर्जा का संचार करना और कर्तव्यबोध कराते हुए  सही दिशा देना भी साहित्यकार का दायित्व है हालाँकि इसका अर्थ यह नहीं है कि केवल सकारात्मक शब्द और हैप्पी एंडिंग ही हो। सकारात्मक चेतना जगाने के लिए लघुकथाकार कई बार कडुवा सच दर्शाते हैं। श्री योगराज प्रभाकर की लघुकथा ‘अपनी अपनी भूख’ के अंत में नौकरानी बुदबुदाती है कि "मेरे बच्चों के सिर पर भी अपने बेटे का हाथ फिरवा दो बीबी जीI", क्योंकि बीबी जी के बेटे को भूख नहीं लगने की बीमारी है। इस रचना में दो माँओं की एक ही प्रकार की तड़प है दोनों अपने बच्चों को भूखा देखकर परेशान हैं, लेकिन परिस्थिति अलग-अलग। नौकरानी की आर्थिक दशा को परिभाषित करती अंतिम पंक्ति पाठकों की चेतना को झकझोरने में पूर्ण सक्षम है।

इसी प्रकार डॉ. अशोक भाटिया की तीसरा चित्र एक ऐसी रचना है जिसके अंत में जब पुत्र कहता है कि पिताजी, इस चित्र की बारी आई तो सब रंग खत्म हो चुके थे।तो पाठकों के हृदय में न केवल संवेदना के भाव आते हैं बल्कि तीन वर्गों के बच्चों में अंतर् करने के लिए चिंतन को मजबूर हो ही जाते हैं।

यदि आपको यह जानना है कि आपके अपने विचार कैसे हैं तो किसी भी विधा में लिखना प्रारंभ कर दीजिये, उस लिखे हुए का अवलोकन कर आप अपने बारे में बहुत अच्छे तरीके से जान सकते हैं।  लेखन में लेखक के निजी विचार उनके अनुभवों और भावनाओं के आधार पर होते ही हैं, लेकिन जब साहित्य में अन्य विचारों का भी लेखक स्वागत करता है तो वह विभिन्न श्रेणी के पाठकों के लिए भी स्वागतयोग्य हो जाता है। लघुकथा एक ऐसी स्त्री की भांति है जो सामने खड़े किसी बीमार और अशक्त बच्चे को अपने आँचल में माँ के समान स्नेह देती है लेकिन अपने जनक को केवल एक उपनाम की तरह अपने साथ रखती है। इसलिए लघुकथा में विशेष सावधानी की आवश्यकता है। ‘लेखकीय प्रवेश’ का अर्थ ‘मैं’ शब्द का लघुकथा में होने या न होने से नहीं है, लघुकथा के किसी अन्य पात्र के जरिये भी लेखकीय प्रवेश हो सकता है और ‘मैं’ शब्द का प्रयोग कर के नहीं भी। यहाँ मैं श्री मधुदीप गुप्ता की एक लघुकथा “तुम इतना चुप क्यों हो दोस्त” को उद्धृत करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ, इस रचना में मुख्य पात्र कॉफ़ी हाउस में बैठा है और दूसरी टेबल पर बैठे हुए व्यक्तियों की बातें सुन रहा है, अंत में एक व्यक्ति जब कुछ कहने की बजाय करने की बात करता है तो मुख्य पात्र की ठंडी हो रही कॉफ़ी में उबाल आ जाता है। बहुत खूबसूरती से इस रचना में एक पात्र “मैं” का सृजन किया गया है, जिसमें लेखकीय प्रवेश बिलकुल नहीं दिखाई देता।

कई बार मानव समाज स्वयं की बेहतरी के प्रश्न भी उत्पन्न करने की क्षमता नहीं रखता है, लघुकथा इसमें सहायक हो सकती है। यह राजा विक्रमादित्य और बेताल के उस किस्से की तरह माना जा सकता है, जिसमें राजा विक्रमादित्य बेताल को कंधे पर लेकर जाता है, बेताल उसे कोई लघु-कहानी सुनाता है और अंत में एक प्रश्न रख देता है, जिसका उत्तर राजा विक्रमादित्य अपने विवेक के अनुसार देता है।

 

पठन योग्य लघुकथा

साहित्य की कोई भी विधा हो बिना पाठकों के ना तो विधा का अस्तित्व है और ना ही लेखक का, लेकिन रचनाकार को पाठकों की रूचि और सोच की दिशा के अनुसार सृजन नहीं करना चाहिये हालाँकि यह लोकप्रियता का एक सस्ता-सुगम मार्ग है और साहित्य में चाटुकारिता भी सदियों से होती आई है, परन्तु सस्ती लोकप्रियता एक लेखक का उद्देश्य नहीं होना चाहिये, इसके आने वाले समय में कई दुष्परिणाम होते हैं।

लघुकथा पठन योग्य हो, इसके लिए लघुकथाकार के सृजन की पूरी प्रक्रिया में काफी परिश्रम करना होता है। लेखकीय दृष्टि लिए कोई भी व्यक्ति किसी भी घटनाक्रम को साधारण तरीके से नहीं देखता वरन उसमें अपने लेखन के लिए संभावनाएं तलाश करता है। लघुकथा पाठक के हृदय में कौंध उत्पन्न करती है, लेकिन उसके सृजन को प्रारंभ करने से पहले लेखक के मस्तिष्क में भी कौंध उत्पन्न होनी चाहिये। स्वयं लेखक को यह स्पष्ट होना चाहिये कि वह लघुकथा क्यों कह रहा/रही है। उद्देश्य स्वयं को स्पष्ट होगा तभी पाठकों को स्पष्ट करने की क्षमता होगी।

लघुकथा का उद्देश्य स्पष्ट होने के बाद लघुकथा का कथानक तैयार करना चाहिये, कथानक किसी यथार्थ घटना पर आधारित तो हो सकता है लेकिन यथार्थ घटना को ज्यों का त्यों लिखने से बचना चाहिये अन्यथा लघुकथा का एक साधारण समाचार बन कर रह जाने का खतरा रहता है। लेखक को अपनी कल्पना शक्ति से ऐसे कथानक का सृजन करना चाहिये, जिसका प्रवाह ऐसा हो जो किसी घटना को प्रारंभ से अंत तक क्रमशः वर्णन करने में सक्षम हो, जो रोचक हो, कम से कम पात्रों को लिए हुए हो और लघुकथा के उद्देश्य को स्पष्ट परिभाषित कर सके। लघुकथाकार लघुकथा की शैली पर भी इसी प्रकार कार्य करते हैं ताकि पढने वाले को उबाऊपन का अनुभव न हो और स्पष्टता बनी रहे। संवाद, वर्णनात्मक, मिश्रित आदि शैलियाँ पाठकों में प्रचलित हैं।

अधिकतर लघुकथाकार लघुकथा का अंत इस तरह से करते हैं कि जो विसंगति अथवा प्रश्न उन्हें पाठकों के समक्ष रखना है, वह अंत में प्रकट होकर पाठकों के हृदय में कौंध जाये और पाठक चिन्तन करने को विवश हो जाये।

लघुकथा का शीर्षक भी लघुकथा को परिभाषित कता हुआ इस तरह से हो कि पाठकों में शीर्षक देखते ही रचना पढने की उत्सुकता जाग जाये। श्री बलराम अग्रवाल की ‘कंधे पर बेताल’, ‘प्यासा पानी’, श्री भागीरथ की ‘धार्मिक होने की घोषणा’, श्री मधुदीप गुप्ता की ‘तुम इतना चुप क्यों हो दोस्त’,  ‘सन्नाटों का प्रकाशपर्व’, डॉ. अशोक भाटिया की क्या मथुरा, क्या द्वारका?’, श्री योगराज प्रभाकर की ‘अधूरी कथा के पात्र’ और ‘भारत भाग्य विधाता’, श्री युगल की ‘पेट का कछुआ’, श्री सतीश दुबे की ‘हमारे आगे हिंदुस्तान’ आदि कई रचनाओं के शीर्षक इस तरह कहे गए हैं कि शीर्षक पर नज़र जाते ही रचना को पढने की उत्सुकता बढ़ जाती है।

लघुकथा में कालखंड

कालखंड लघुकथा में कोई दोष है अथवा नहीं, इस पर विभिन्न विद्वानों के विभिन्न मत है। लघुकथा के कथ्य के क्षण से पहले अथवा बाद के काल में व्यक्ति अथवा घटना का जाना कालखंड बदल जाने की श्रेणी में आता है। कालखंड समस्या से निजात पाने के लिए मैं एक चित्र का उदाहरण दूंगा, यह चित्र आप सभी ने कभी न कभी देखा होगा, जिसमें मानव के विकास क्रम को बताया गया है, चौपाये से विकसित हो दो पैरों पर खड़ा पर थोड़ा झुका हुआ पशु, झुके हुए पशु से सीधा खड़ा हुआ पशु, फिर चेहरे का विकास और अंत में आज का मानव खड़ा हुआ है। लाखों वर्षों को एक ही चित्र में समेट दिया जाना इतना आसान नहीं था, लेकिन चित्रकार ने यह कार्य बखूबी कर दिखाया है इसी प्रकार एक लघुकथाकार भी किसी भी इकहरे पक्ष के कई वर्षों को एक ही लघुकथा में सिमटा सकने का सामर्थ्य रखता है। इसके लिए घटना को सिलसिलेवार बता देना, क्षण विशेष को केंद्र में रख कर एक से अधिक काल को बता देना, फ़्लैश बेक में जाना, किसी डायरी को पढ़ना, किसी केस की फाइल को पढना आदि के द्वारा कालखंड दोष से बचा जा सकता है। श्री भागीरथ की लघुकथा ‘शर्त’ में दो दृश्य हैं, एक सवेरे का और दूसरा शाम का, लेकिन लघुकथा के केंद्र में मज़दूर नेता के अडिग आदर्श हैं। यह रचना अलग-अलग कालखंडों को एक ही रचना में समेट लेने के बेहतरीन उदाहरणों में से एक है।

लघुकथा की भाषा

साहित्यशब्द ‘सहित’ शब्द से उत्पन्न हुआ है सहित अर्थात् हित के साथ, यह हित मानव का हो सकता है, अन्य जीवों का हो सकता है, प्रकृति आदि किसी का भी हो सकता है, लेकिन किसी के अहित से परे रह कर। इसी तरह किसी अन्य भाषा का अहित न कर साहित्य का कार्य मातृभाषा का हित भी है। साहित्य भाषा को ज़िन्दा रखता है, यदि साहित्य की भाषा ही सही नहीं हो तो उस भाषा का पतन निश्चित है। एक साहित्यकार अपने विचारों को भाषा के वस्त्राभूषण पहनाता है, जिससे उसकी कृति की सुंदरता और कुरूपता का आकलन भी किया जा सकता है। मेरा मानना है कि जितना संभव हो हिंदी-लघुकथा हिंदी में ही कही जाये, हालाँकि कई बार संवादों में अन्य देसी-विदेशी भाषाओं का प्रयोग किया जाना आवश्यक हो जाता है, जो कि वर्जित नहीं है। आंचलिक एवं अन्य भाषाओं के प्रयोग से कई बार रचना की सुन्दरता और भी बढ़ जाती है। लेकिन इतना अवश्य हो कि वह भाषा सरल हो और एक हिंदी भाषी को आसानी से समझ में आ जाये। जब भी लघुकथाकार विदेशी भाषा का प्रयोग करें तो मैथिलीशरण गुप्त के यह शब्द एक बार ज़रूर याद कर लें, “हिन्दी उन सभी गुणों से अलंकृत है जिनके बल पर वह विश्व की साहित्यिक भाषाओं की अगली श्रेणी में सभासीन हो सकती है।“

लघुकथा में भाषिक सौन्दर्य प्रतीकों, मुहावरों यहाँ तक कि संवादों को अधूरा छोड़ कर तीन डॉट लगा देने से भी बढ़ाया जा सकता है लघुकथाकार इस बात का विशेष ध्यान देते हैं कि भाषा में अलंकार लगाने पर लघुकथा ना तो शाब्दिक विस्तार पाए और ना ही अस्पष्ट हो जाये। कसावट के साथ रोचकता और सरलता भी रहे ताकि पाठकों को आसानी से ग्राह्य हो सके। लेकिन यह भी सत्य है कि कई अच्छी रचनाएँ सरसरी निगाह से पढने पर जल्दी समझ में नहीं आ सकती

उपसंहार

कैनेडा से प्रकाशित अंतरराष्ट्रीय पत्रिका हिंदी चेतना के अक्टूबर-दिसम्बर 2012 के लघुकथा विशेषांक में परिचर्चा के अंतर्गत श्री श्याम सुंदर अग्रवाल ने लघुकथा विधा के विकास में यह अवरोध बताया था कि “नये लेखक इस विधा में नहीं आ रहे हैं” यह प्रसन्नता का विषय है कि इस अंक को तीन वर्ष भी पूर्ण नहीं हुए थे और लघुकथा के स्थापित लेखकों के सद्प्रयासों से 100 से अधिक नवोदित लघुकथाकार इस विधा में गंभीरता से अपने पैर जमाने लगे।  आज यह संख्या और भी बढ़ गयी है। इसी परिचर्चा में वरिष्ठ लघुकथाकार श्री भागीरथ ने यह चिंता व्यक्त की थी कि लघुकथा के कंटेंट और फॉर्म टाइप्ड हो गए हैं और उनमें ताजगी का अभाव है, यह कहते हुए भी हर्ष का अनुभव हो रहा है कि लगभग सभी वरिष्ठ लघुकथाकार, साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादक और कुछ आलोचक न केवल नवोदित रचनाकारों का मार्गदर्शन कर रहे हैं और उनकी रचनाओं के प्रकाशन का मार्ग सुगम कर रहे हैं वरन कई तरह से प्रोत्साहित भी कर रहे हैं, जिससे नयी ताज़ी रचनाओं का अभाव भी अब नहीं रहा।

लघुकथा विधा में विधा के प्रति गंभीर रचनाकारों, गैर-व्यवसायिक साहित्य को समर्पित प्रकाशकों और गंभीर सम्पादकों का समावेश तो है ही, लेकिन आलोचकों/समीक्षकों और गंभीर पाठकों की कमी अभी भी है। लघु-रचनाओं के प्रति पाठकों का झुकाव होने पर भी लघुकथाओं के पाठकों की संख्या बहुत अधिक नहीं है। लघुकथा के नाम पर परोसी जाने वाली हर रचना के पाठकों को लघुकथा का पाठक कहना भी विधा के लिए उचित नहीं है। ई-पुस्तकों, ऑनलाइन ब्लॉग और पूर्व-प्रकाशित पुस्तकों के डिजिटल अंको को प्रचारित-प्रसारित कर पाठकों की संख्या में वृद्धि की जा सकती है। प्रकाशक भी आलोचकों और समीक्षकों को अपनी पुस्तकों से जोड़ें।

लघुकथा अब साहित्याकाश में किसी सितारे की तरह चमक रही है, इसकी रौशनी अब कितनी और फैलेगी इसका आकलन करना मुश्किल है। लेकिन इसकी किरणों की चमक आश्वस्त करती हैं कि इसमें वर्तमान और भविष्य के वे सभी रंग विद्यमान हैं, जिनसे मिलकर मानव विचार चिन्तन का इन्द्रधनुष बना सकें तथा समाज की दशा और अधिक उन्नत हो सके।

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी