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सोमवार, 8 जनवरी 2024

नैतिक मूल्यहीनता पर वैश्विक विमर्श की ओर उन्मुख लघुकथाएँ - सुरेश सौरभ

आज हर क्षेत्र में हम बढ़ रहे हैं, किन्तु चरित्र के मामले गिरते जा रहे हैं। आज पढ़े-लिखे ही नित रोज भ्रष्टाचार में संलिप्त दिखाई देते हैं, जो एक रुपया ऊपर से चलता है, नीचे तक आते-आते वह 15 पैसे ही रह जाता है, पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी कभी ऐसा कहते थे। हर क्षेत्र में नैतिक मूल्यों की गिरावट आयी है, फिर चाहे वह शिक्षा का क्षेत्र हो या राजनीति का। शिक्षालयों  में जहाँ देश के भविष्य का निर्माण होता है, वहाँ आज नैतिक मूल्यों में गिरावटें दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं, जो विद्यार्थी जिस विषय में टॉप करता है, वहीं पत्रकारों के सवाल के जवाब में अपना सही विषय नहीं बता पाता है। अनामिका शुक्ला जैसी शिक्षक-शिक्षिकाएँ फर्जी तरीके से करोड़ों का कैसेे गबन कर रहे हैं, यह प्रतिदिन अखबारों में खुलासे हो रहे हैं। ऐसे में भ्रष्ट चरित्रहीन शिक्षक-शिक्षिकाएँ क्या बच्चों को शिक्षा देंगे? यह सवालिया विषय है। आज दशा ये है, जिसे नकल रोकने की जिम्मेदारी दी गई है, वही नकल कराने की तरतीब बताता है, जिसे बिजली चोरी रोकने की जिम्मेदारी दी गई, वही बिजली चोरी के नये तरीके बता रहा है। जिसे  अपराध रोकने की जिम्मेदारी दी गई, वही अपराधियों को बचाने का ठेका लिए बैठा है। माँ-बाप के पास बच्चों के लिए समय नहीं, बच्चे मोबाइल देख-देख कर जवान हो रहे हैं। व्यवसायिकता की आँधी में संयुक्त परिवार टूट रहे हैं। परिवार जैसी संस्था का, संस्कारों का, रोज जनाजा निकल रहा है। नैतिक मूल्यों पर चर्चा कहीं नहीं होती, चर्चा सिर्फ माँ-बाप अपने बच्चों से यही करते है कि कैसे अधिक से अधिक पैसे कमाए जाए, कैसे अमीर बन कर शोहरत हासिल की जाए। युवा लेखक नृपेन्द्र अभिषेक ‘नृप’ की  पुस्तक ’ऊर्जस्वी’ अभी जल्दी ही आयी है, जिसमें वह लिखते हैं-पृथ्वी का सबसे बुद्धिमान प्राणी इंसान होता है। लेकिन इंसान की फितरत होती है कि वह कभी संतुष्ट नहीं होता। उसे जितना प्राप्त हुआ, उससे ज्यादा पाने की चाह में निराश होते रहता है।’’ 

गिरते नैतिक मूल्यों पर वरिष्ठ साहित्यकार गिरीश पंकज जी कहते हैं-
होठों पर मुस्कान सजा कर आए हैं/चंद लुटेरे वेश बना कर आए हैं 

वहीं खीरी के वरिष्ठ कवि नंदी लाल जी कहते हैं।
सभ्यता पर नग्नता के जो कलैंडर टँग गए/प्यार के किस्से सभी  अखबार वाले पूछते,

संजीव जायसवाल ‘संजय’ का बाल कहानी संग्रह ‘सोशल मीडिया का राजकुमार’ तथा राजेन्द्र वर्मा का लघुकथा संग्रह ‘विकल्प’ अभी जल्द ही प्रकाशित हुए हैं, जिनकी लघुकथाओं में गिरते नैतिक-शैक्षिक मूल्यों पर दोनों लेखकों का विशद चिंतन-मनन पाठकों के मन की ग्रंथियों को पर्त दर पर्त खोलने, बहुत कुछ विचार करने को विवश करता है। मेरी पसंद में जो मैंने लघुकथाएँ योगराज प्रभाकर और चित्तरंजन गोप की ली हैं, वह कुछ ऐसी ही चिंतन और चेतना को झंकृत करती हैं। मानवीय संवेदनाओं को संजोती हैं, गिरते सामाजिक मूल्य, चारित्रिक मूल्य पर एक वैश्विक विमर्श पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करतीं हैं। 

आज हम अपने बच्चों को शिक्षित करने और पैसा कमाने के लिए मोटीवेशन की क्लास खूब करा रहे हैं, पर चरित्र की गिरावट और इससे हो रहे प्रतिदिन अपराधों को कैसे रोकें, उनमें संस्कारों का बीजारोपण कैसे करें, यह दीक्षा हम नहीं दे पा रहें हैं। स्त्रियों और पुरूषों को अंधविश्वासों, रूढ़ियों, लिंग भेद और साम्प्रदायिकता से आजादी चाहिए, न कि उन्हें अशिष्ट यौनाचार की। अगर उन्हें प्रगतिशीलता के नाम से यौनाचार की पूरी आजादी दे जायेगी, तो हममें और पशुओं में कोई फर्क नहीं रहेगा और यह आजादी कभी भी व्यसायिक रूप ले सकती है, आपराधिक रूप ले सकती है, यानि काफी हद तक ले भी चुकी है। ऐसा ही विमर्श को, योगराज जी की लघुकथा 'आँच' प्रस्तुत करती है। शिक्षा के मंदिरों में गिरते नैतिक मूल्यों पर डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी की लघुकथाएँ ‘डर के दायरे’ 'मैं टीचर नहीं' आदि भी सार्थक संदेश देती हैं। वहीं अपनी लघुकथाओं को जन-मन की शिराओं तक पहुँचने वाले लघुकथा के कुशल कलाकार सुकेश साहनी की 'नपुसंक' जैसी कई लघुकथाएँ, शिक्षा के मंदिरों में गिरते नैतिक मूल्यों पर गहन  चिन्तन और चेतना को जन-जन तक पहुँचाने में सफल रही हैं। लघुकथा कलश के माध्यम से योगराज प्रभाकर जी, लघुकथाओं को वैश्विक पहचान दिलाने में महती योगदान दे रहे हैं। उनकी अनेक लघुकथाएँ समाज को वह आईना दिखती हैं, जिसे देखने से दिम्भ्रमित समाज को सही रास्ता ही नहीं, सही मंजिल भी मिल सकती है। योगराज जी के बारे में डॉ.  पुरूषोत्तम दूबे लिखते हैं। "पंजाब प्रांत में बहने वाली पाँच नदियों का पवित्र आचमन शिरोधार्य कर पंजाब प्रांत के शहर पटियाला का ‘पंजाबी पुत्तर‘ लघुकथाकार योगराज प्रभाकर हिंदी लघुकथा के क्षेत्र में पंजाब में प्रवाहमान पाँच नदियों का आब अंजुरी में भरकर हिंदी लघुकथा के मस्तक को अभिषिक्त करने आया है। यह एक हिंदीतर प्रांत से, हिंदी लेखन के क्षेत्र में हिंदी की सेवा का भाव लेकर उतरे, इस रचनाकार का भाषागत सौहार्द का मणि-काँचन संयोग जैसा है।’’
योगराज जी की लघुकथा ‘आँच’ आधुनिक शिक्षा के क्षेत्र में आ रही गिरावट को न सिर्फ रेखांकित करती है, बल्कि सुसुप्त हो रही हमारी प्रज्ञा को, मेधा को, चेतना को जाग्रत करने  का सद्कार्य करती है।
चित्तरंजन गोप आज लघुकथा के क्षेत्र मे काफी शोहरत हासिल कर चुके है। अभी तक उनका कोई एकल लघुकथा संग्रह प्रकाशित नहीं हुआ है। अपनी अनोखे कहन, अद्भुत शिल्प और दमदार कथ्य के द्वारा पाठको में देर तक और दूर तक अपनी पहचान बना चुके हैं। आज आदिवादी विमर्श बहुत तेजी से हिन्दी साहित्य में विमर्श का महत्वपूर्ण हिस्सा बनता जा रहा है।मीरा जैन, पूरन सिंह, मार्टिन जॉन, जैसे अनेक लघुकथाकार आदिवासी विमर्श को निरंतर अपनी लघुकथाओं से आगे बढ़ा रहे हैं। आदिवासियों की दुश्वारियों पर, समस्याओ पर तो चर्चा विमर्श बहुत होते रहते हैं, फिर भी उन्हें  सदियों से वह हक-हुकूक नहीं मिल पाये, जिसकी उन्हें आज भी दरकार है। गोप जी आदिवासी क्षेत्र में रहते हैं, जो देखते हैं वह लिखते हैं। यह होना भी चाहिए। लघुकथा ‘एक ठेला स्वप्न’ में अदिवासी विमर्श को उन्होंने नई धार दी है। प्रेमचंद ने एक जगह लिखा है कि जो आप लिखना चाहते हैं, जब तक उसे देखेंगे नहीं महसूस नहीं करेंगे, तब तक आप बेहतरीन नहीं लिख सकते।'
प्रसिद्ध पत्रकार अजय बोकिल लिखते हैं, ‘‘लघुकथा अपने आप में बहुत मारक और पिन पॉइंटेड होती है। वर्णनात्मकता की बजाए संक्षिप्तता, सूक्ष्मता और सांकेतिकता लघुकथा के प्रभावी औजार हैं। अगर इसमें सोद्देश्यता भी जुड़ जाए तो सोने पे सुहागा होता है।’’
निश्चित रूप से आज लघुकथा अपनी इसी गति-मति से, अपने इसी उद्देश्यपूर्ण ढंग से, अपनी मंजिल की ओर सदानीरा गंगा की तरह प्रवाहमान  है। 
बकौल गोप साहित्य का उद्देश्य अन्त्योदय होना चाहिए। हर उस अंतिम व्यक्ति की समस्या तक पहुँचे, जिसकी बात सत्ता, सियासत और उसके पहरूए न सुन रहे हो, न कह रहे हो।
सदियाँ बीत गयीं, आज भी करोड़ों आदिवासी मूलभूत, अधिकारों, सुविधाओं से वंचित हैं। उन्हें उनकी दशा में छोड़ने वाले कहते हैं कि वह अपनी संस्कृति अपनी कला को संजो रहे हैं, इसलिए वह जंगल नहीं छोड़ रहे हैं, अपनी मूल प्रवृत्ति नहीं छोड़ रहे हैं, जबकि सच्चाई यह है कि तमाम समान्तवादी और वर्णवादी व्यवस्थाएँ, ऐसी साजिशें बदस्तूर जारी रखें हैं, जिससे, वह जहाँ हैं वहीं रहें। संविधान ने सबको काम का, शिक्षा का, समानता का अधिकार दिया है। आंबेडकर जी के संविधान से बहुत कुछ बदल रहा है, असमानता की दीवारें धराशायी हो रहीं हैं, पर आज भी करोड़ों आदिवासी घुमन्नू जातियों के आपत्तिजनक,भदेस वीडियो बना कर लोग शोसल मीडिया पर अपलोड कर रहे हैं, जिस कारण अदिवासी समाज कौतूहल और मनोरंजन का विषय बना हुआ है। प्रत्येक संवेदनशील व्यक्ति के लिए यह घोर चिंता और विमर्श का विषय है। दोनों लघुकथाएँ उपर्युक्त, विचारों को भावों को प्रस्तुत कर रहीं हैं। लघुकथा मेरी प्रिय विधा है। अनेक लघुकथाकार बेहतरीन लिख रहे हैं। फिलहाल अपनी पसंद की दो लघुकथाएं प्रस्तुत कर रहा हूँ। 
  
योगराज प्रभाकर

आँच

सस्ते-से होटल का एक छोटा-सा कमरा।
बंद बत्ती जली।
कमरे में एक अधेड़ मर्द, उम्र पचास के आसपास।
एक जवान लड़की, उम्र बीस से अधिक नहीं।
मर्द के ऊपरी भाग पर कोई कपड़ा नहीं और लड़की का निचला भाग वस्त्रहीन।
मर्द के निर्लज्ज चेहरे पर पाशविक संतुष्टि के भाव और लड़की के चेहरे पर निर्लिप्तता और निश्चिंतता की गहरी पर्त।
लड़की को खींचकर अपनी गोद में बिठाते हुए मर्द ने कुछ नोट उसके टॉप में खोंस दिए।
“थैंक्यू!” कहते हुए वह उठी और फर्श पर पड़ी जीन्स उठाकर उसमें धँसने लगी।
मर्द ने इत्मीनान से सिगरेट सुलगाई, और कहा,
“एक बात पूछूँ स्वीटी?”
“बोलो जानू!”
“आज तुम इतना लेट हो गई हो, घर जाकर क्या कहोगी?”
जीन्स का जिपर चढ़ाते हुए लड़की ने बहुत ही बेपरवाही से उत्तर दिया।
“कहना क्या है यार, कह दूँगी कि ट्यूशन से लेट हो गई।”
मर्द के चेहरे पर एक कमीनी-सी मुस्कान फैल गई।
पर अगले ही क्षण ट्यूशन शब्द उसके मस्तिष्क पर हथौड़ा-सा बनकर बरसा। उसकी मुस्कराहट काफूर हो गई. माथे पर पसीने की बूँदें चमकने लगीं। वह तेजी से कमरे के बाहर आया, जलती हुई सिगरेट फर्श पर फेंककर उसे जूते से मसला। बहुत ही बेचैनी से अपनी घड़ी की ओर देखते हुए पत्नी को फोन लगाया और चिंतित-से स्वर में बोला,
“गुड्डी ट्यूशन से लौट आई क्या?”


चित्तरंजन गोप ‘लुकाठी‘

एक ठेला स्वप्न

आज खूब ठूंस-ठूंसकर खाना खा लिया था। पेट भारी हो गया था। इसलिए पलंग पर लेट गया। लेटे-लेटे खिड़की से बाहर का नजारा देखने लगा।
एक फेरीवाला आया था। वह एक बड़े ठेले पर एक ठेला स्वप्न लाया था। उसका साथी माइक पर घोषणा कर रहा था-- ले लो, ले लो ! अच्छे-अच्छे स्वप्न ले लो। चौबीस घंटे पानी-बिजली का स्वप्न। हर घर में ए.सी. का स्वप्न। घर-घर मोटर कार का स्वप्न। ...ले लो भाई, ले लो !
देखते-देखते कॉलोनी वालों की भीड़ लग गई। औरत-मर्द, जवान-बूढ़े सब ठेले के चारों तरफ जमा हो गए। माइक पर घोषणा जारी थी-- ले लो भाइयों, ले लो ! बेटे-बेटियों को अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाने का स्वप्न। उन्हें डॉक्टर-इंजीनियर बनाने का स्वप्न। आई.ए.एस.-आई.पी.एस. बनाने का स्वप्न। हजारों तरह के स्वप्न हैं। अच्छे-अच्छे स्वप्न हैं। ले लो भाइयों, ले लो !
माइक की आवाज बगल के आदिवासी गांव चोड़ईनाला तक पहुंच रही थी। आदिवासी महिला-पुरुषों का एक झुंड दौड़ा-दौड़ा आया। वे ठेले से कुछ दूरी पर खड़े हो गए। एक बूढ़ा जो लाठी के सहारे चल रहा था, सामने आया। उसने फेरीवाले से पूछा, ‘‘ भूखल लोकेकेर खातिर किछु स्वप्न होय कि बाबू? (भूखे लोगों के लिए कोई स्वप्न है?)‘‘
‘नहीं।‘‘ फेरीवाले ने कहा, ‘‘भूखे लोगों के लिए भोजन के दो-चार स्वप्न हैं जो काफी नीचे दबे पड़े हैं। अगली बार जब आऊंगा, ऊपर करके लाऊंगा। तब तक इंतजार कीजिए।‘‘
‘‘इंतजार करैत-करैत त आज उनसत्तइर बछर  (69 वर्ष) उमर भैय गेले। आर कते...?‘‘ कहते-कहते बूढ़े को खांसी आ गई और खांसते-खांसते वह अपने झुंड के पास चला गया। कॉलोनी वाले अपनी-अपनी पसंद के स्वप्न खरीद रहे थे। हो-हुल्लड़, हंसी-ठहाका भी चल रहा था। आदिवासियों ने कुछ देर तक इस नजारे को खड़े-खड़े देखा और अपने गांव की ओर चल दिए। इसी बीच मेरी नींद टूट गई।

-सुरेश  सौरभ
निर्मल नगर लखीमपुर खीरी उत्तर प्रदेश पिन-262701
स्वरचित मौलिक अप्रकाशित। 
मो-7860600355

मंगलवार, 1 फ़रवरी 2022

वरिष्ठ लघुकथाकार योगराज प्रभाकर जी की लघुकथा और रचना की कल्पना भट्ट जी द्वारा समीक्षा

घड़ी की सुईयां / योगराज प्रभाकर


दादा और पोता, टीवी स्क्रीन पर आँखें गड़ाए बैठे थे जहाँ कश्मीर के मुद्दे पर गरमा गर्म  बहस चल रही थीI वक्ताओं का पूरा पैनल बहुत ही जोश में थाI हर कोई एक दूसरे से बढ़ चढ़ कर भारत के विरुद्ध विष वमन कर रहा थाI 
"हिन्दुस्तानी फ़ौज हमारे कश्मीरी भाईओं पर दिन रात जुल्म कर रही हैI" एक वक्ता ने लगभग चिल्लाते हुए कहाI 
"हिंदुस्तान की सरकार बेगुनाह कश्मीरियों का कत्ल कर रही हैI" दूसरे वक्ता ने ऊँचे स्वर में कहाI 
"दिन दिहाड़े हमारी माँ बहनों की इज्ज़त लूटी जा रही हैI" लम्बी दाढ़ी वाले वक्ता का स्वर उभराI 
"हमारी फ़ौज इंडिया की ईंट से ईंट बजा देंगेI" यह एक सेवानिवृत्त सेना अधिकारी का स्वर थाI  
"हम तन मन और धन से अपने जिहादी भाईओं की मदद करेंगेI" लम्बी दाढ़ी वाले मौलाना ने अपना बाजू हवा में लहराते हुए कहाI
"इंशाअल्लाह! बहुत जल्द कश्मीर में हमारा झंडा लहरा रहा होगाI" जलती आग में घी डालती हुई यह आवाज़ एक जिहादी नेता की थीI
"जिस कश्मीर को ये हिन्दुस्तानी अपना सिर कहते हैं, हम इस सिर को धड़ से अलग किये बगैर हम चैन से नहीं बैठेंगेI" दोनों बाहें उठाते हुए यह फतवा लम्बी दाढ़ी वाले मौलाना की तरफ से उछाला गयाI 
इसी बीच दादा और पोते ने एक दूसरे की तरफ देखाI जहाँ नौजवान पोते की मुट्ठियाँ तनी हुईं और माथे पर क्रोध की रेखाएं थीं वहीँ बूढ़े दादा जी के चहरे पर निराशा और ऊब के मिश्रित चिन्ह उभर आए थेI 
अचानक टीवी के सामने से उठते हुए दादा जी ने कहा: "मैं अब सोने जा रहा हूँ बेटाI" 
उन्हें यूँ अचानक उठते हुए देख पोते ने पूछा: "इस मुद्दे पर आपकी क्या राय है दादा जी?" 
दादा जी के चहरे पर एक फीकी सी मुस्कान फैलीI अपनी छड़ी से दीवार पर टंगे मानचित्र की तरफ इशारा करते हुए उन्होंने उत्तर दिया:  "बेअक्ल लोग हैं ये सबI 1971 में बांग्लादेश गंवा दिया था....लगता है अब बलोचिस्तान की  बार ...| 
पोते के चेहरे पर चढ़ी क्रोध की लाली सहसा पीलेपन में परिवर्तित होने लगी, किन्तु टीवी पर बहस अभी भी जारी थीI
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समीक्षा / कल्पना भट्ट (अप्रैल 2018)

‘घड़ी की सुइयां’ आज की ज्वलंत समस्या जिहाद को लेकर कही गयी एक समसामायिक और लोगों को जागृत करने वाली एक लघुकथा है| कश्मीर! भारत का स्वर्ग कहलाता है, पडोसी मुल्क की नज़र हमेशा से कश्मीर की सर ज़मीन पर गढ़ी हुई है, वक़्त बेवक्त सीमापार पर आक्रमण जारी रखता है, और जिहाद के नाम पर लोगों के बीच ज़हर उगलता है| चैन-ओ-अमन में रहना वाला कश्मीर अब डर के साए में रहता है|
 
मीडिया का काम है लोगों तक खबर पहुंचाना और निष्पक्ष चर्चा करवाना और लोगों को समय समय पर जागृत करना| इन दिनों मीडिया का विकास बहुतरी हुआ है, और देश-विदेश की खबरे घर बैठे ही मिल जाती हैं, जहाँ एक तरफ आज के मीडिया ने सरहदों को एक कर दिया है वहीँ दूसरी ओर अपने व्यापार और टी.आर.पी. को बढाने के लिए हर टी.वी. चैनलों में ख़बरों को लेकर होड़ चली है. किस समाचार को कौन कितनी जल्दी और किस रूप में प्रेषित करना है|’ दादा और पोता, टीवी स्क्रीन पर आँखें गड़ाए बैठे थे जहाँ कश्मीर के मुद्दे पर गरमा गर्म  बहस चल रही थीI वक्ताओं का पूरा पैनल बहुत ही जोश में थाI हर कोई एक दूसरे से बढ़ चढ़ कर भारत के विरुद्ध विष वमन कर रहा थाI’ दादा और पोता समाचार देख रहे थे, कश्मीर को लेकर बहस चल रही थी, लोगों से अपनी राय मांगी जा रही थी, वक्ता अपनी अपनी बात रख रहे थे.और भारत के खिलाफ ज़हर उगल रहे थे| अपने ही देश के लोगों के बीच बढ़ रही असुरक्षा की भावना जिहाद की एक वजह रही है, जीहाद का बीज बोने वाले लोग अपनी जड़ों को फैलाने के लिए हर वो सहारा लेना चाहते हैं जिससे वह देश के अमन-ओ-शांति को छिन् सकें| 
किसी भी समाचार को सुनने और देखने में भी फर्क होता है, किसी व्यक्ति के वक्तव्यों को सुन कर भी जोश आता है पर फिर भी व्यक्ति के बोलते वक़्त के हाव भाव दिखाई नहीं देते पर टी.वी. पर तो इंसान चूँकि दिखाई भी देता है, जोश और भी संवेदना जगाने में काफी प्रभावशाली होता है| 

योगराज प्रभाकर जी ने इस गम्भीर विषय को लेकर संवादों के माध्यम  इस समस्या का सजीव चित्रण प्रस्तुत किया है जो काफी प्रभावशाली रहा हैं : “हिन्दुस्तानी फ़ौज हमारे कश्मीरी भाईओं पर दिन रात जुल्म कर रही हैI" एक वक्ता ने लगभग चिल्लाते हुए कहाI "हिंदुस्तान की सरकार बेगुनाह कश्मीरियों का कत्ल कर रही हैI" दूसरे वक्ता ने ऊँचे स्वर में कहाI "दिन दिहाड़े हमारी माँ बहनों की इज्ज़त लूटी जा रही हैI" लम्बी दाढ़ी वाले वक्ता का स्वर उभराI "हमारी फ़ौज इंडिया की ईंट से ईंट बजा देंगेI" यह एक सेवानिवृत्त सेना अधिकारी का स्वर थाI  "हम तन मन और धन से अपने जिहादी भाईओं की मदद करेंगेI" लम्बी दाढ़ी वाले मौलाना ने अपना बाजू हवा में लहराते हुए कहाI "इंशाअल्लाह! बहुत जल्द कश्मीर में हमारा झंडा लहरा रहा होगाI" जलती आग में घी डालती हुई यह आवाज़ एक जिहादी नेता की थीI "जिस कश्मीर को ये हिन्दुस्तानी अपना सिर कहते हैं, हम इस सिर को धड़ से अलग किये बगैर हम चैन से नहीं बैठेंगेI" दोनों बाहें उठाते हुए यह फतवा लम्बी दाढ़ी वाले मौलाना की तरफ से उछाला गयाI’ कश्मीर पर हो रही चर्चा ने तूल पकड़ा है और लोग अपनी बेबाक टिप्पणी दे रहें हैं| 
लोगों की बेबाक टिप्पणियों से जीहाद के नाम से लोगों में फूट डलवाना और अपनी छोटी मानसिकता को बढ़ावा देना है| और इस तरह से मीडिया का ऐसी चर्चाओं को प्रसारित करना उसकी अपनी जिम्मेदारियों पर सवालिया निशान खड़ा करती है| चर्चा का मुख्य विषय एक भाई को दुसरे भाई से अलग करवाने से ज्यादा उनके बीच के फासले को और बढ़ाना है| 
सन १९४७ के में जब देश आज़ाद हुआ, भारत के तब के प्रधानमन्त्री पंडित जवाहरलाल नेहरु और मोहम्मद अली जिन्ना जी के बीच एक संधि हुई थी और भारत दो हिस्सों में विभाजित हो गया था, हिन्दुस्तान और पाकिस्तान| कश्मीर को लेकर तब से अब तक उसके स्वामित्व को लेकर बहस बादस्तूर आज भी जारी है| ऐसे ही १९७१  में कलकत्ता को दो हिस्सों में बाँटा गया, पूर्वी कोलकता जो बांग्लादेश कहलाया और पश्चिम कोलकत्ता भारत के हिस्से में आया, अंग्रेजो ने तीनसो साल भारत पर अपना शाशन चलाया और जाते जाते भी उनकी जो पालिसी रही, ‘डिवाइड एंड रूल’ की उसका एक बीज और बोकर ब्रिटिश हुकूमत ने अपनी मानसिकता से परिचय करवाया है| योगराज प्रभाकर जी की सोच और उनका किसी भी विषय पर गहन अध्यन यह आपकी साहित्यिक रूचि और आपकी बारीक नज़र से परिचय इस कथा के माध्यम से होता है, लघुकथा वस्तुतः  माइक्रोस्कोपिक दृष्टी से अंकुरित होती है, इस कथा के माध्यम से योगराज प्रभाकर जी ने विभाजन के दौरान लोगों के अंदर की कसक और दर्द को बाखूबी दर्शाया है| 

इसी बीच दादा और पोते ने एक दूसरे की तरफ देखाI जहाँ नौजवान पोते की मुट्ठियाँ तनी हुईं और माथे पर क्रोध की रेखाएं थीं वहीँ बूढ़े दादा जी के चहरे पर निराशा और ऊब के मिश्रित चिन्ह उभर आए थेI टी.वी. पर हो रही चर्चा की वजह से दादा और पोते ने एक दुसरे की ओर देखा, वे एक दुसरे की प्रतिक्रिया जानना चाह रहे थे| जवान खून इस चर्चा के चलते विचलित हुआ जब की बूढ़े दादाजी के चेहरे पर निराशा और ऊब के मिश्रित चिन्ह उभर आये, बूढ़े दादा ने विभाजित होने का दर्द सहा था, और इस चर्चा ने उनके घाव पर नमक छिड़क दिया था| योगराज प्रभाकर जी ने दादा और पोते के भाव प्रदर्शित करके विभाजन के दर्द को हरा कर दिया  पाठक को सोचने पर विवश कर दिया, सरहदों के विभाजन में गर दिलों की दूरियाँ भी बढ़ जाए तो आग में घी डालने का काम ही करेगा| युवा वर्ग के सामने जो परोसा जायेगा वही उसे सच लगेगा, और दुश्मन अपनी चाल पर कामयाबी हासिल होगा, ऐसे में गर बुजुर्गों का सही मार्गदर्शन मिल जाए तो उसे अपनी सोच पर सोचने का मौका मिल जाता है| यहाँ घर में बड़े-बुजुर्गों की अहमियत को दर्शाया गया है, आज को बीते हुए कल के अनुभव ही सही दिशा दिखाता है| चाहे वह विभाजन का दर्द हो या किसी अन्य का, घर के बड़े हमेंशा सही मार्गदर्शन देते हैं| 
दादा जी के चेहरे पर के भाव ने पोते को सोचने पर विवश किया:- अचानक टीवी के सामने से उठते हुए दादा जी ने कहा: "मैं अब सोने जा रहा हूँ बेटाI" उन्हें यूँ अचानक उठते हुए देख पोते ने पूछा: "इस मुद्दे पर आपकी क्या राय है दादा जी?" यहाँ दादा जी के मनोभाव को पढ़कर पोते पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव पडा, यहाँ एक दादा और पोते के आत्मीय रिश्ते को योगराज प्रभाकर जी ने बहुत ही सुंदर तरीके से पेश किया है| 
 
दादा जी के चहरे पर एक फीकी सी मुस्कान फैलीI अपनी छड़ी से दीवार पर टंगे मानचित्र की तरफ इशारा करते हुए उन्होंने उत्तर दिया:  "बेअक्ल लोग हैं ये सबI 1971 में बांग्लादेश गंवा दिया था....लगता है अब बलोचिस्तान की  बार ...| समय बदल गया है और आगे बढ़ गया पर फिर वही भूल दोहराने वाले लोगों पर इससे बेहतर वक्तव्य हो ही नहीं सकता | बड़े बुज़ुर्ग अपने बच्चों के कहे और अनकहे को पहचानते हैं और उनकी चिंता स्वाभाविक है, और उनका अपने दिल की बात को साझा करना युवा वर्ग के लिए वरदान साबित होता है तभी तो -जिस पोते का खून खौल रहा था अब:- पोते के चेहरे पर चढ़ी क्रोध की लाली सहसा पीलेपन में परिवर्तित होने लगी, किन्तु टीवी पर बहस अभी भी जारी थीI
पोते को एहसास हो गया था, की चर्चा गलत राह पर ले जा रही है, ज़हर फैलाने से सिर्फ मौत का तांडव होगा पर यह कोई हल नहीं है| 

‘समय की सुइयां’ लघुकथा के माध्यम से योगराज प्रभाकर जी ने एक बेहतरीन सन्देश दिया है | कथा जैसे जैसे बढती जा रही है, उत्सुकता बढती जा रही है यह जानने के लिए आगे क्या होगा? यह एक सधे हुए लेखक के गुण होते हैं जो पाठक को अपनी लेखनी से बाँध सके| शिल्प की दृष्टि से लघुकथा सधी हुई है और बीच में संवादों की वजह से कथा सजीव हो गयी है और पाठक के आगे चलचित्र की तरह चल रही है| भाषा सहज और सरल है जिसने लघुकथा को काफी प्रभावित बना दिया है| समय की सुइयां इस लघुकथा के लिए उत्तम शीर्षक साबित हुआ है| योगराज जी ने इस कथा के माध्यम से एक सशक्त सन्देश देने का प्रयत्न किया है जिसमे वे कामयाब हुए है बीच के संवाद और पात्रों के बीच जल्दी जल्दी बदलाव के चलते कहीं कहीं कथा उलझन पैदा कर रही है पर इसके बावजूद लघुकथा अपनी अमित छाप छोड़ने में सफल रही है| 
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 - कल्पना भट्ट

बुधवार, 10 नवंबर 2021

वरिष्ठ लघुकथाकार श्री योगराज प्रभाकर द्वारा अशोक लव जी के लघुकथा संग्रह की समीक्षा

 तीन सौ साठ डिग्री विश्लेषण करती लघुकथाओं का संग्रह: 'एकांतवास में ज़िंदगी'


लघुकथा आज लोकप्रियता की बुलंदियों को छूने का प्रयास कर रही है। उसे इस स्थान तक पहुँचाने का श्रेय जिन मनीषियों को जाता है, अशोक लव का नाम भी उनमें शामिल है। आज की लघुकथाएँ काफ़ी सीमा तक आदमी के जीवन में का प्रतिनिधित्त्व कर रही हैं। यही कारण है कि लघुकथा जीवन से सीधे जुड़ी हुई है। इसमें जीवन के किसी एक तथ्य को अपनी संपूर्ण संप्रेषणता के साथ उभारा जाता है। जिसका जितना अधिक अनुभव होगा, जितनी अधिक व्यापक दृष्टि होगी, समझ जितनी अधिक विस्तृत होगी, चिंतन-मनन जितना अधिक स्पष्ट होगा तथा शब्दार्थ और वाक्य विधान का जो मितव्ययी एवं निपुण साधक होगा वह उतनी सटीक लघुकथा रच सकता है।

 आज पूरा विश्व एक भयानक महामारी की चपेट में हैं। यह महामारी प्राकृतिक है या मानव-निर्मित, इसका पता तो शायद ही कभी चल पाए। लेकिन इसके चलते उद्योग, व्यापार और रोज़गार की स्थिति बद-से-बदतर हुई। लगता है कि सब कुछ थम-सा गया है। भयंकर आर्थिक मंदी मुँह बाये खड़ी है, यह किस-किस देश की अर्थव्यवस्था को ध्वस्त करेगी, इसका उत्तर तो भविष्य के गर्भ में ही छुपा है। यह स्थिति हमारे देश की लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था की सेहत के लिए क़तई लाभकारी नहीं है।संभवत: द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद इस महामारी में सब से अधिक लोगों ने अपनी जान गँवाई है। विद्वानों के मतानुसार हर काल का साहित्य उस युग की सामाजिक-सांस्कृतिक, राजनैतिक वैधानिक और आर्थिक स्थितियों-परिस्थितियों से निर्लिप्त नहीं रहा है। साहित्य ने युग का प्रतिनिधित्त्व किया है या उसे प्रतिबिंबित, काल-संसर्ग सदैव अपेक्षित प्रभावी रहे हैं- किसी भी विधा के स्वरूप निर्धारण, अपितु यहाँ तक कि उसके अस्तित्त्वनिरूपण में भी युग की महती भूमिका रही है।

वस्तुत: किसी विषय विशेष पर एक पूरा एकल संग्रह तैयार करना जहाँ चुनौतीपूर्ण है वही एक जोखिमभरा कार्य भी है। क्योंकि विविधता का अभाव प्राय: एकरसता और ऊब पैदा कर देता है। किंतु 'एकांतवास में ज़िंदगी' के साथ बिल्कुल नहीं है। इसकी साठ लघुकथाएँ कम-से-कम पचास अलग-अलग विषयों पर आधारित हैं। विषय भी ऐसे जो घर में क़ैद आमजन की व्यथा से लेकर अंतरराष्ट्रीय चिंतन तक को अपने अंदर समोए हुए हैं। इस संग्रह की रचनाओं से गुज़रते हुए मैंने पाया कि अशोक लव सरीखा समर्थ व अनुभवी रचनाकार ही किसी समस्या का तीन सौ साथ डिग्री विश्लेषण करके ही किसी एकल विषय पर भी अद्वितीय प्रस्तुति दे सकता है।

 अशोक लव स्वयं एक प्रखर भाषाविद हैं जो हिंदी व्याकरण पर अनेक ग्रंथ रच चुके हैं। एक सामान्य पाठक लघुकथा के लघु आकार के कारण लघुकथा की ओर आकर्षित होता है, किंतु मेरा मानना है कि लघु अकार के अलावा जो बात पाठकों को अपनी ओर खींचती है, वह है- लघुकथा की आम-फहम भाषा। स्व० जगदीश कश्यप ने कहा था कि अच्छा लेखक वही है जिसे क्लिष्ट शब्दों से परिचय हो परंतु सरल शब्दों में अभिव्यक्ति दे। भाषा-प्रयोग के बारे में प्रेमचंद की लोकप्रियता सर्वविदित है जबकि जयशंकर प्रसाद इसी शुद्ध भाषा प्रयोग के कारण कहानी में उतने सफल नहीं हो सके जितने कि प्रेमचंद। प्रेमचंद ने आम आदमी की भाषा को प्रतिष्ठित किया। ठीक यही बात लघुकथा में लानी चाहिए। आप देखेंगे कि अशोक लव की भाषा एकदम सरल, आमफ़हम, आडम्बरहीन एवं बोलचाल की है, जो आम आदमी को स्वीकार्य हैं। सोद्देश्यता इनकी लघुकथाओं की विशेषता है, साथ ही इसमें शिल्पगत, कथ्यगत, विचारगत, शाब्दिक, भाषिक एवं संवेदनात्मक-गंभीरता, गहनता, तीक्ष्णता, शब्द मितव्ययिता, कलात्मकता कूट-कूटकर भरी हुई है। यही कारण है कि इनकी लघुकथाएँ अत्यंत कम शब्दों में ही अन्तःकरण को झकझोरकर उन्हें मानवीय तथ्यों के प्रति सोचने को बाध्य कर देती हैं। इनकी लघुकथाएँ लघुकथा के मानदंड का पालन करती हैं। इन लघुकथाओं में लघुकथा की प्रत्येक हर कसौटी लघुता, तीक्ष्णता, लाक्षणिकता, प्रतीकात्मकता, कलात्मकता, गहनता और व्यंजना आदि का भली-भाँति निर्वाह किया है, जिसका कथ्य अत्यंत आधुनिक एवं यथार्थपूर्ण है। भाव और शिल्प प्रभावोत्पादक है।

यूँ तो इस संग्रह में एक से बढ़कर एक लघुकथाएँ संग्रहीत हैं; किंतु यहाँ केवल उन लघुकथाओं का उल्लेख करना ही समीचीन होगा जिनका क़द बाकियों से बुलंद है। ‘बड़- बड़ दादी’ कोरोना के चलते लोगों के बदलते हुए स्वभाव की बहुत ही प्यारी-सी बानगी जिसमें हर समय बड-बड करने वाली बूढ़ी दादी अपना कठोर स्वभाव त्यागकर हनुमान चालीसा पढ़ने लगती है। ‘मेरे शहर के बच्चे’ एक अन्य उत्कृष्ट लघुकथा है। जो कोरोना के चलते उद्दंड बच्चों के स्वभाव बदलने और परिवार के एकजुट होने की कथा है। इसी प्रकार ‘आशाएँ’ में लॉकडाउन के चलते समाचारों में मौत की ख़बरें सुन-सुनकर रीतिका के पति सुधीर के ठहाके बंद हो जाते हैं। उपर्युक्त तीनों लघुकथाएँ यथार्थ का सटीक और अर्थगर्भित चित्रण हैं। ‘स्वप्नों पर ग्रहण’ एक भावपूर्ण और मार्मिक लघुकथा है जिसमें कोरोना भयग्रस्त दंपती एक की मृत्यु की सूरत में दूसरे को शादी करने की सलाह देते। ऐसी परिस्थिति किसी का भी दिल चीरने में सक्षम हैं। इसी तरह की एक और लघुकथा ‘स्व-आहुति’ कोरोना महासंकट ने किस तरह आम जनमानस की सोच को प्रभित किया कैसे उनमें असुरक्षा की भावना पैदा की, इसका साक्षात्कार इस रचना में होता है। इस रचना की नायिका रश्मि अपने पति को बाज़ार जाने से रोकती है, और स्वयं सब्ज़ी लेने चलती जाती है। दिमाग़ में यही चल रहा है कि ‘अगर उनको कुछ हो गया तो? यह मानवीय संबंधों की ऊँचाई की पराकाष्ठ नहीं तो और क्या है? कुछ ऐसा ही ‘उपचार’ में देखने को मिलता है जिसमें कोरोना पर इलाज के ख़र्चे की बात सुनकर पति-पत्नी अपनी पति को हिदायत देता है कि यदि वह कोरोनाग्रस्त हो जाए तो उसका इतना महँगा उपचार मत करवाना और वही पैसा भविष्य के लिए अपने लिए रख लेना। ‘और क्या जीना’ में वृद्धों की संवेदनशीलता के दर्शन होते हैं। इस लघुकथा में एक वृद्ध पत्नी एक युवा को संक्रमण से सुरक्षित रखने के लिए अपने पति को बाज़ार भेजने का निर्णय लेती है। इस संग्रह की एक सार्थक लघुकथा है ‘और अलमारी खुली’- लॉकडाउन के चलते अवसाद से बाहर निकालने में पुस्तकें किस प्रकार सहायक हो सकती है, इस लघुकथा में यह संदेश दिया गया है।

हर रचनाकार का कर्तव्य है कि वह अपने अपनी संस्कृति पर गर्व करें और अपने समाज के मूल्यों को अक्षुण रखने का प्रयास करें। अशोक लव को भी अपनी संस्कृति पर गर्व है। जिसकी बानगी उनकी बहुत-सी लघुकथाओं में देखने को मिलेगी। लेकिन यहाँ दो-तीन अति-महत्त्पूर्ण लघुकथाओं का उल्लेख करना ही समीचीन होगा। पहली लघुकथा है ‘संकटमोचन’ इसमें एक महिला की मौत पर उसके सगे संबंधियों ने भी आने समाना कर दिया। लेकिन पड़ोसियों ने पड़ोसी-धर्म क पालन करते हुए उसे सहारा दिया और उसके अंतिम संस्कार में मदद की। यह लघुकथा यथार्थ का सफल चित्रण है। इसके विपरीत ‘कूड़ा बन जाना’ एक तथाकथित विकसित देश की कहानी है जहाँ घरों के आगे ताबूत पड़े हैं, उनको लेने वाला कोई नहीं। परिवारजनों का अपने परिजनों की मृत देहों को लेने से इनकार करना और नगरपालिका द्वारा लावारिसों की तरह उनका अंतिम संस्कार करना दो सभ्यताओं का तुलनात्मक विश्लेषण है। इसी की अगली कड़ी है, ‘न लकड़ी न अग्नि’। यह लघुकथा एक तीर से कई-कई निशाने लगाने में सफल हुई है। इस लघुकथा में अंतिम संस्कार के भारी ख़र्चा के बारे में जानकर लोगों द्वारा अपने मृत परिवारजनों का अंतिम संस्कार नदी किनारे रेत में दबाकर करने की बात हुई है। हम यह भी पढ़ सुन चुके हैं कि सैकड़ों लोग अपने परिजनों की लाशें नदी में बहाने पर भी विवश हुए जोकि स्वाभाविक है कि बेहद दुखद है, किंतु ऐसी विपरीत परिस्थितियों के बावजूद भी विकसित पश्चिमी राष्ट्रों की तरह अपने परिजनों को लावारिस नहीं छोड़ा।

 भारतीय संस्कृति में दया और दान का बहुत महत्त्व है। ‘मात्र रूपा’ इसी विचारधारा का प्रतिनिधित्त्व करती है। जहाँ लॉकडाउन के चलते बंगाल से आए और नॉएडा में फँसे एक परिवार दयाभाव दिखाए हुए एक घर में आश्रय दे-दिया जाता है। इसका दूसरा उदाहरण है ‘भगवान् सुनते हैं’, यह सैकड़ों मील दूर पैदल अपने गाँव लौट रहे थके-हारे और भूखे-प्यासे प्रवासी श्रमिकों की गाथा है। लेकिन कुछ सिख लोग फ़रिश्ते बनकर वहाँ पहुँचते हैं और उन्हें खाना (लंगर) देते हैं। ‘श्रद्धा’ में लॉकडाउन के कारण भुखमरी की कगार तक पहुँचे एक कर्मकांडी पंडित को धनवंती अपने ससुर की बरसी के बहाने भोजन पहुँचाती है। दयाभाव के इससे बड़े उदाहरण और क्या हो सकते हैं?

 कोरोना विषय पर अनेक रचनाएँ मेरी दृष्टि से गुज़री हैं, किंतु वे डॉक्टरों की लापरवाही अथवा भ्रष्टाचार से आगे नहीं जा पाईं और कोई प्रभाव छोड़ने में असफल रहीं। किंतु अशोक लव ने इन कोरोना योद्धाओं का वह पक्ष उजागर किया है, किसे उजागर करना वांछित भी था और अनिवार्य भी। पहली लघुकथा है ‘पश्चाताप’, इसमें कोरोना योद्धा डॉक्टरों पर हुए हमले की कहानी है। जिसमें दिन-रात रोगियों का उपचार कर रहे लोगों की डॉक्टरों के प्रति असंवेदनशीलता को शब्दांकित किया गया है। कोरोना संक्रमितों की सहायता करने गए चिकित्सा दल पर कुछ सिरफिरे हमला कर देते है जिससे डॉ अवधेश घायल हो जाते हैं। हालाँकि हमला करने वाला युवक अंत में उस डॉक्टर से क्षमा भी माँग ल्रता है। ऐसी ही असंवेदनशीलता ‘निर्लज्ज’ में भी रेखांकित की गई है। इसमें रिहायशी सोसाइटी के लोग एक डॉक्टर दंपती पर ही सवाल उठा देते हैं कि क्योंकि वे हर समय कोरोना संक्रमितों के बीच रहते हैं इसलिए सोसाइटी को उनसे ख़तरा है। लेकिन इस लघुकथा का जुझारू डॉक्टर मल्होत्रा उनसे प्रतिप्रश्न करते हुए पूछता है कि हम डॉक्टर लोग तो दिन-रात लोगों की ज़िंदगियाँ बचने में लगे हुए हैं, पर हम पर उँगलियाँ उठाने वाले क्या कर रहे हैं? ‘जीवन स्पंदन’ भी एक बहुत ही भावपूर्ण लघुकथा है। इस में जीवन की आशा गँवा चुके रोगी में अचानक आए जीवन स्पंदन का बहुत ही सारगर्भित चित्रांकन किया गया है। इसमें न केवल रोगी के परिजन ही राहत की साँस लेते हैं बल्कि स्वयं डॉक्टर भी भी सतही भी वही होती है। यह रचना न केवल डॉक्टरों के बल्कि स्वयं लेखक के संवेदनशील व्यक्तित्त्व को भी उजागर करती है। ऐसा नहीं कि लेखक ने चिकित्सा क्षेत्र के नकारात्मक पक्ष पर क़लम न चलाई हो। ‘दो ईमानदार’ कोरोनाकाल में दवाइयों की ब्लैक मार्केटिंग करने वालों की ख़ूब ख़बर ली गई है। लेकिन यहाँ भी डॉक्टरों को भ्रष्टाचार में लिप्त न दिखाकर अशोक लव ने अपने नैतिक कर्तव्य का निर्वाह किया है।

मेरा मानना है कि अभिव्यंजना से अभिव्यक्ति तक का सफ़र जितना लंबा होगा, रचना उतनी ही परिपक्व व प्रभावोत्पादक होगी। क्योंकि किसी कृति को कलाकृति में परिवर्तित करने हेतु यह लंबा सफ़र अनिवार्य है। इसी अलोक में अब मैं बात करना चाहूँगा उन दो लघुकथाओं की जो अपनी बनावट बुनावट और कथानक के विलक्षण ट्रीटमेंट के कारण दीर्घजीवी सिद्ध होंगी। इन श्रेणी में सबसे पहले आती है ‘चलें गाँव’ यह लीक से हटकर एक बेहतरीन लघुकथा है। लॉकडाउन के करण बेकार हो चुके मज़दूर कुणाल के पास अपने गाँव लौट जाने के अलावा और कोई चारा नहीं। अब यहीं से उसके मन में द्वंद्व शुरू हो जाता है कि यदि तो वह कोरोना पीड़ित होकर शहर में ही मर गया तो उसकी लाश का क्या होगा। इससे बेहतर होगा कि वह अपने गाँव जाकर ही मरे। लेकिन फिर उसे अपने घर की ख़राब आर्थिक स्थिति का भी ध्यान आता है। वह जाने के लिए बस में बैठ जाता है। किंतु वह नहीं चाहता कि वह अपने घर वालों पर अतिरिक्त बोझ डाले क्योंकि शहर में कम-से-कम उसे एक समय का भोजन तो सरकार की ओर से उपलब्ध करवाया जा रहा है। किंतु इन सभी बातों के अलावा जो बात इस लघुकथा में अनकही है, वह है कुणाल का जुझारूपन और जीवत। अत: वह इस ऊहापोह को झटकर संघर्ष के इरादे से बस से उतर जाता है। क्योंकि वह घर वालों पर बोझ नहीं बनना चाहता है। वस्तुत: कुणाल ‘सलाम दिल्ली’ का नायक अशरफ़ ही है। केवल परिदृश्य बदला है, न तो परिस्थितियाँ ही बदली हैं और न ही कुणाल उर्फ़ अशरफ़ का संघर्ष और उनके अंदर का जुझारूपन। ऐसी लघुकथा को सौ-सौ सलाम!

 ‘असहाय न्यायालय’ को इस संग्रह का 'हासिल' कहना कोई अतिशयोक्ति न होगी। जिसकी हर पंक्ति सौ-सौ प्रश्नचिह्न खड़े करती है। इस लघुकथा की नायिका जो एक अधिवक्ता है, अपने भाई को अस्पताल में बेड न मिलने के कारण बहुत व्यथित है। उसे विश्वास था कि न्याय-व्यवस्था उसके भाई को बेड और ऑक्सीजन अवश्य उपलब्ध करवा देगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और दुर्भाग्य से उसके भाई की मृत्यु हो गई। वह निराशा में इसे अपनी पराजय मानती है। लेकिन माननीय न्यायाधीश कहते हैं कि- तुम नहीं हारी, हम हारें हैं, हमारा देश हारा है और व्यवस्थ हारी है। कोरोनाकाल में जो कुछ भी हुआ, यह पंक्ति सब कुछ बयान कर देती है। मुझे लगता है कि इस लघुकथा पर आधारित एक सफल टेलीफिल्म बन सकती है।

हिंदी-लघुकथा में सार्वभौमिकता का अभाव इस विधा की एक कमज़ोर कड़ी है। इसका एक कारण है लघुकथाकारों का अप-टू-डेट न होना और दूसरा अपने खोल से बाहर न निकलना। आचार्य जानकीवल्लभ शात्री ने कहा था कि आज के लघुकथाकारों क्या सभी साहित्यकारों को सबसे पहले अप-टू-डेट होना चाहिए। आज विश्व स्तर पर कितनी उथल-पथल मची हुई है। उस स्तर पर देखना चाहिए कि वहाँ के साहित्यकार कितने जागरूक या उत्तेजक, आग उगलते या बर्फ़ीले शब्दों में वाणी दे रहे हैं या उन बातों को लोगों के सामने प्रकट कर रहे हैं। यह देखना-पढ़ना चाहिए। दुनिया हर रोज़ बदल रही है। कल के मित्र राष्ट्र आज शत्रु बन रहे हैं और शत्रु राष्ट्र मित्र। और मज़े की बात यह है कि बाहर से शत्रु दिखने वाले राष्ट्र अपने-अपने स्वार्थ और लाभ के लिए ये आपस में हाथ मिलाने से भी गुरेज़ नहीं करते और अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्रों में भागीदार बनते हैं। केवल एक सचेत और अप-टू-डेट रचनाकार ही इन बातों की तह तक पहुँच सकता है। इस संदर्भ में 'चीनी फोबिया' एक अति-उत्तम लघुकथा है। यह रचना अमेरिका में रहने वाली अनुभूति और उसकी माँ के मध्य हुई फोन वार्ता पर आधारित है। यह रचना कोरोना फैलाने के चीनी षड्यंत्र से पर्दा उठाती है। अनुभूति की माँ को पूरा विश्वास है कि चीन अपने यहाँ हुई मौतों का सही आँकड़ा नहीं बता रहा। विश्व का निष्पक्ष मीडिया बता रहा है कि कोरोना वायरस चीन की वुहान प्रयोगशाला से निकला, यह बात भले ही अफ़वाह मान ली जाए लेकिन धुआँ कभी भी बे वजह नहीं उठता। वैसे इस चीनी षड्यंत्र को आज तक झुठलाया भी तो नहीं गया है। भारतवर्ष चीन के विरुद्ध कुछ भी करने में सक्षम नहीं, कम्युनिस्ट रूस भला चीन के विरुद्ध क्यों बोलेगा? अब ले देकर दुनिया को आशा है कि अमरीका इस मामले में कुछ-न-कुछ अवश्य करेगा। लेकिन पूरा विश्व जानता है कि वुहान लैब को अमरीकी फंडिंग थी। फिर भी अनुभूति की माँ को विश्वास है कि अमेरिका कुछ ज़रूर करेगा और यह बात उसको सुकून देती है। फोन पर अदिति का अपनी माँ को टोकते हुए कहना कि ऐसी बातें फोन पर नहीं किया करते, किस ओर इशारा कर रहा है? क्या अमेरिका को भी अपना पर्दाफ़ाश होने का डर सता रहा है? मुझे लगता है कि ऐसी सार्वभौमिक लघुकथाओं की आज बहुत आवश्यकता है।

 इस संग्रह की मेरी पसंदीदा एक अन्य सार्वभौमिक लघुकथा है, 'देश बचना चाहिए'। यह एक बिल्कुल ही नवीन विषय को लेकर रची गई लघुकथा है जिसमें कथानक की ट्रीटमेंट देखते ही बनती है। ऐसा कथानक शायद ही हिंदी-लघुकथा में इससे पहले कभी प्रयोग किया गया हो। इस लघुकथा के केंद्र में संभवत: संयुक्त राज्य अमेरिका के उपराष्ट्रप्ति व राष्ट्रपति हैं। दोनों के मध्य देशव्यापी लॉकडाउन हटाने के विषय में विचार-विमर्श चल रहा है। विमर्श किसी की लोकतांत्रिक व्यवस्था का अभिन्न अंग होता है। उपराष्ट्रप्ति लॉकडाउन हटाने के पक्ष में नहीं हैं क्योंकि इससे मौतों का आँकड़ा बढ़ने की आशंका है। जबकि राष्ट्रपति लॉकडाउन बढ़ाने के विरुद्ध हैं, उनका मत है कि इससे देश की अर्थव्यवस्था और भी चरमरा जाएगी। दोनों के तर्क अपने-अपने स्थान पर सही लगते हैं। लघुकथा अपनी स्वाभाविक गति से आगे बढ़ती है। उपराष्ट्रपति अपने राष्ट्राध्यक्ष के तर्क से सहमत हो जाते हैं और उन्हें सलाह देते हैं कि वे एक संदेश के माध्यम से लोगों को कोरोना से सुरक्षित रहने संबंधी दिशा-निर्देश दें। लोकतांत्रिक व्यवस्था की सुंदरता देखें कि राष्ट्रपति भी उपराष्ट्रपति के इस सुझाव से सहमत हो जाते हैं। अंत में राष्ट्रपति कहते हैं कि यह स्थिति किसी युद्ध से कम नहीं, यदि देश को बचने के लिए कुछ जानों का बलिदान करना भी पड़ा तो हम तैयार हैं क्योंकि हमें देश बचाना है। इस लघुकथा में भी उपराष्ट्रपति महोदय कोरोना वायरस के पीछे दुश्मन राष्ट्र के षड्यंत्र की ओर इशारा करते हैं। हमारे देश में जिस तरह बिना किसी पूर्वसूचना के लॉकडाउन लागू किया गया और बिना किसी तैयारी के हटाया गया, यह लघुकथा अप्रतयक्ष रूप से उस ओर भी इशारा करती है। कहते हैं कि एक लेखक भगवान की तरह होना चाहिए, जो अपनी रचना में मौजूद तो हो किंतु दिखाई नहीं दे। अशोक लव अपनी रचनाओं में कहते तो सब स्वयं हैं लेकिन बोलते उनके पात्र हैं। यह बात आज की पीढ़ी के लिए सीखने योग्य है। अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर अशोक लव का उच्च-स्तरीय ज्ञान और पैनी दृष्टि इस लघुकथा से परिलक्षित होती है। यदि इस स्तर की लघुकथाएँ हिंदी में लिखी जाने लगें तो हमारी लघुकथा भी विश्व की अन्य लघुकथाओं के साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर चलने में सक्षम हो जाएगी।

बलराम अग्रवाल के अनुसार लघुकथा किसी भी अर्थ में दनदनाती हुइ गोली नहीं है। यह इस प्रकार ‘सर्र’ से आपके सीने के निकट से कभी नहीं गुज़रेगी कि बदहवास से आप देखते ही रह जाएँ। पढ़ते-पढ़ते आप देखेंगे कि यह आपको झकझोर रही है। आपके ज़ेहन में कुछ बोल रही है - धीरे-धीरे आपको अहसास दिलाती है कि एक जंगल है आपके चारों ओर, और आप उसके बाहर निकल आने के लिए बेचैन हो उठते हैं। जंगल के बाहर निकल आने के समस्त निश्चयों-प्रयासों के दौरान लघुकथा आपको अपने सामने खड़ी दिखाई देती है- हर घड़ी-हर लम्हा। इस संग्रह की अधिकांश रचनाएँ उपर्युक्त कथन के निकष पर खरी उतरती हैं। इनकी लघुकथाएँ लघुकथा के मानदंड का पालन करती हैं। इन लघुकथाओं में लघुकथा की प्रत्येक हर कसौटी लघुता, तीक्ष्णता, लाक्षणिकता, प्रतीकात्मकता, कलात्मकता, गहनता और व्यंजना आदि का भली-भाँति निर्वाह किया है, जिसका कथ्य अत्यंत आधुनिक एवं यथार्थपूर्ण है। भाव और शिल्प प्रभावोत्पादक है।

 'सलाम दिल्ली' के प्रकाशन के तीन दशक पश्चात् प्रस्तुत लघुकथा संग्रह 'एकांतवास में ज़िंदगी' का प्रकाश में आना एक शुभ संकेत है। इसका कुछ श्रेय श्री अशोक लव ने हमारी पत्रिका 'लघुकथा कलश' को भी दिया है। बहरहाल, यह संग्रह हिंदी-लघुकथा को और समृद्ध करेगा, ऐसा मेरा विश्वास है। अत: ऐसी कृति का भरपूर स्वागत होना चाहिए।

- समीक्षक: योगराज प्रभाकर

मंगलवार, 21 जनवरी 2020

लेख: लघुकथा लेखन के लिए – माइक्रोस्कोपिक दृष्टि की आवश्यकता | योगराज प्रभाकर


लघुकथा शब्द का निर्माण लघु और कथा से मिलकर हुआ है। अर्थात लघुकथा गद्य की एक ऐसी विधा है जो आकार में लघु है और उसमे कथा तत्व विद्यमान है। अर्थात लघुता ही इसकी मुख्य पहचान है। जिस प्रकार उपन्यास खुली आंखों से देखी गयी घटनाओं का, परिस्थितियों का संग्रह होता है, उसी प्रकार कहानी दूरबीनी दृष्टि से देखी गयी किसी घटना या कई घटनाओं का वर्णन होती है।

इसके विपरीत लघुकथा के लिए माइक्रोस्कोपिक दृष्टि की आवश्यकता पड़ती है। इस क्रम में किसी घटना या किसी परिस्थिति के एक विशेष और महीन से विलक्षण पल को शिल्प तथा कथ्य के लेंसों से कई गुना बड़ा कर एक उभार दिया जाता है। किसी बहुत बड़े घटनाक्रम में से किसी विशेष क्षण को चुनकर उसे हाइलाइट करने का नाम ही लघुकथा है। इसे और आसानी से समझने के लिए शादी के एल्बम का उदाहरण लेना समीचीन होगा।

शादी के एल्बम में उपन्यास की तरह ही कई अध्याय होते है, तिलक का, मेहंदी का, हल्दी का, शगुन, बरात का, फेरे-विदाई एवं रिसेप्शन आदि का। ये सभी अध्याय स्वयं में अलग-अलग कहानियों की तरह स्वतंत्र इकाइयां होते हैं। लेकिन इसी एल्बम के किसी अध्याय में कई लघुकथाएं विद्यमान हो सकती हैं। कई क्षण ऐसे हो सकते हैं जो लघुकथा की मूल भावना के अनुसार होते हैं।

उदहारण के तौर पर खाना खाते हुए किसी व्यक्ति का हास्यास्पद चेहरा, किसी धीर-गंभीर समझे जाने वाले व्यक्ति के ठुमके, किसी नन्हें बच्चे की सुन्दर पोशाक, किसी की निश्छल हंसी, शराब के नशे से मस्त किसी का चेहरा, किसी की उदास भाव-भंगिमा या विदाई के समय दूल्हा पक्ष के किसी व्यक्ति के आंसू। यही वे क्षण हैं जो लघुकथा हैं। लघुकथा उड़ती हुई तितली के परों के रंग देख-गिन लेने की कला का नाम है। स्थूल में सूक्ष्म ढूंढ लेने की कला ही लघुकथा है। भीड़ के शोर-शराबे में भी किसी नन्हें बच्चे की खनखनाती हुई हंसी को साफ साफ सुन लेना लघुकथा है। भूसे के ढेर में से सुई ढूंढ लेने की कला का नाम लघुकथा है।

लघुकथा विसंगतियों की कोख से उत्पन्न होती है। हर घटना या हर समाचार लघुकथा का रूप धारण नहीं कर सकता। किसी विशेष परिस्थिति या घटना को जब लेखक अपनी रचनाशीलता और कल्पना का पुट देकर कलमबंद करता है तब एक लघुकथा का खाका तैयार होता है। लघुकथा एक बेहद नाजुक सी विधा है। एक भी अतिरिक्त वाक्य या शब्द इसकी सुंदरता पर कुठाराघात कर सकता है। उसी तरह ही किसी एक किन्तु अत्यंत महत्वपूर्ण शब्द की कमी इसे विकलांग भी बना सकती है। अत: लघुकथा में केवल वही कहा जाता है, जितने की आवश्यक होती है।

दरअसल लघुकथा किसी बहुत बड़े परिदृश्य में से एक विशेष क्षण को चुरा लेने का नाम है। लघुकथा को अक्सर एक आसान विधा मान लेने की गलती कर ली जाती है, जबकि वास्तविकता बिलकुल इसके विपरीत है। लघुकथा लिखना गद्य साहित्य की किसी भी विधा में लिखने से थोड़ा मुश्किल ही होता है, क्योंकि रचनाकार के पास बहुत ज्यादा शब्द खर्च करने की स्वतंत्रता बिलकुल नहीं होती। शब्द कम होते हैं, लेकिन बात भी पूरी कहनी होती है। और सन्देश भी शीशे की तरह साफ देना होता है। इसलिए एक लघुकथाकार को बेहद सावधान और सजग रहना पड़ता है।

लघुकथाकार अपने आस-पास घटित चीजों को एक माइक्रोस्कोपिक दृष्टि से देखता है और ऐसी चीज उभार कर सामने ले आता है जिसे नंगी आंखों से देखना असंभव होता है। दुर्भाग्य से आजकल लघुकथा के नाम पर समाचार, बतकही, किस्सागोई यहां तक कि चुटकुले भी परोसे जा रहे हैं।


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लघुकथा लेखन के लिए – माइक्रोस्कोपिक दृष्टि की आवश्यकता

शुक्रवार, 3 जनवरी 2020

‘लघुकथा कलश’ के ‘राष्ट्रीय चेतना विशेषांक’ (जनवरी-जून 2020) हेतु घोषणा | योगराज प्रभाकर

आदरणीय साथियो, 
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‘लघुकथा कलश’ के ‘राष्ट्रीय चेतना विशेषांक’ (जनवरी-जून 2020) हेतु भारी संख्या में रचनाएँ प्राप्त हुईं। कतिपय कारणों से हमें 39 रचनाकारों की लगभग 100 लघुकथाएँ निरस्त करनी पड़ीं। इस अंक में कुल 152 रचनाकारों की 250 से ऊपर लघुकथाएँ शामिल की जा रही हैं, चयनित रचनाकारों की लगभग अंतिम सूची इस प्रकार है:
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(हिंदी लघुकथाकार: 139) 
अंकुश्री, अंजू खरबंदा, अंजू निगम, अनघा जोगलेकर, अनिल मकरिया, अनिल शूर ‘आज़ाद’, अनीता रश्मि, अमृतलाल मदान, अयाज़ खान, अर्चना रॉय, अशोक भाटिया, अशोक लव, आभा सिंह, आर.बी भंडारकर, आलोक चोपड़ा, आशीष जौहरी, आशीष दलाल, इंदु गुप्ता, कनक हरलालका, कमल कपूर, कमल चोपड़ा, कमलेश भारतीय, कल्पना भट्ट, कविता वर्मा, किशन लाल शर्मा, कुँवर प्रेमिल, कुसुम जोशी, कुसुम पारीक, कृष्ण चन्द्र महादेविया, गोकुल सोनी, गोविन्द शर्मा, चंद्रा सायता, चंद्रेश कुमार छतलानी, चित्त रंजन गोप, जया आर्य, जानकी वाही, ज्योत्स्ना सिंह, तारिक़ असलम तसनीम, त्रिलोक सिंह ठकुरेला, दिनेशनंदन तिवारी, दिव्या शर्मा, धर्मपाल साहिल, ध्रुव कुमार, नंदलाल भारती, नयना (आरती) कानिटकर, पंकज शर्मा, पदम गोधा, पम्मी सिंह ‘तृप्ति’, पवन शर्मा, पवित्रा अग्रवाल, पुरुषोत्तम दुबे, पूजा अग्निहोत्री, पूनम सिंह, प्रताप सिंह सोढ़ी, प्रदीप कुमार शर्मा, प्रदीप शशांक, प्रेरणा गुप्ता, बलराम अग्रवाल, बालकृष्ण गुप्ता ‘गुरुजी’, भगवती प्रसाद द्विवेदी, भगवान प्रखर वैद्य, भगीरथ, मधु जैन, मधुकांत, मधुदीप, मनन कुमार सिंह, मनीष कुमार पाटीदार, मनोज सेवलकर, मनोरमा जैन पाखी, महिमा श्रीवास्तव वर्मा, महेंद्र कुमार, महेश दर्पण, माधव नागदा, मार्टिन जॉन, मिन्नी मिश्रा, मीनू खरे, मुकेश शर्मा, मुरलीधर वैष्णव, मेघा राठी, मोहम्मद आरिफ़, योगराज प्रभाकर, योगेन्द्रनाथ शुक्ल, रजनीश दीक्षित, रतन चंद रत्नेश, रतन राठौड़, रवि प्रभाकर, रशीद गौरी, राजकमल सक्सेना, राजेन्द्र वामन काटदरे, राजेश शॉ, राधेश्याम भारतीय, राम करन, राम मूरत राही, रामकुमार घोटड़, रामनिवास मानव, रामेश्वर काम्बोज हिमांशु, रूप देवगुण, रूपल उपाध्याय, लज्जाराम राघव, लाजपत राय गर्ग, वंदना गुप्ता, वसुधा गाडगिळ, विजयानंद विजय, विनोद कुमार विक्की, विभा रानी श्रीवास्तव, वीरेंद्र भारद्वाज, शराफ़त अली खान, शिखा कौशिक ‘नूतन’, शील कौशिक, शेख़ शहज़ाद उस्मानी, श्यामसुंदर दीप्ति, श्रुत कीर्ति अग्रवाल, संगीता गांधी, संगीता गोविल, संतोष सुपेकर, संध्या तिवारी, सतीशराज पुष्करणा, सत्या शर्मा कीर्ति, सविता इंद्र गुप्ता, सारिका भूषण, सिमर सदोष, सिराज फ़ारूक़ी, सीमा वर्मा, सीमा सिंह, सुकेश साहनी, सुदर्शन रत्नाकर, सुधीर द्विवेदी, सुनीता मिश्रा, सुनील गज्जानी, सुरिन्दर कौर ‘नीलम’, सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा, सुरेश बाबू मिश्रा, सुरेश सौरभ, सैली बलजीत, सोमा सुर, स्नेह गोस्वामी, हरभगवान चावला, हेमंत उपाध्याय.
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(विशिष्ट रचनाकार 4) : मधुदीप: समीक्षक रवि प्रभाकर, तारिक़ असलम तसनीम: समीक्षक सतीशराज पुष्करणा, सुरिंदर कैले: समीक्षक अशोक भाटिया, मार्टिन जॉन: समीक्षक पुरुषोत्तम दुबे.
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(विशिष्ट भाषा: पंजाबी, कुल लघुकथाकार: 13) 
करमजीत नडाला, कुलविन्द्र कौशल, तृप्त भट्टी, निरंजन बोहा, परगट सिंह जंबर, प्रदीप कौड़ा, बलदेव सिंह खैहरा, रघबीर सिंह मेहमी, विवेक कोट ईसे खान, सतिपाल खुल्लर, सुरिंदर कैले (विशिष्ट रचनाकार), हरप्रीत राणा, हरभजन खेमकरनी. समीक्षक: खेमकरण सोमन.
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इसके इलावा बहुत से आलेख, लघुकथा संग्रहों की समीक्षा, विभिन्न लघुकथा आयोजनों की रिपोर्ट्स तथा ‘लघुकथा कलश’ के ‘रचना-प्रक्रिया विशेषांक’ पर प्राप्त कुछ चुनिंदा पाठकीय प्रतिक्रियाएँ भी इस अंक में शामिल की जा रही हैंi यह अंक सम्भवत: फरवरी-2020 में प्रकाशित होगा। 
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विनीत
योगराज प्रभाकर
संपादक: लघुकथा कलश

मंगलवार, 12 नवंबर 2019

पंजाबी लघुकथा "नवीं गल्ल" | कुलविंदर कौशल | नई बात | हिंदी अनुवाद: योगराज प्रभाकर

वरिष्ठ लघुकथाकार श्री योगराज प्रभाकर (Yograj Prabhakar) की फेसबुक पोस्ट 

(कुलविंदर कौशल की पंजाबी लघुकथा "नवीं गल्ल" जो वर्ष 2017 में प्रकाशित उनके पंजाबी लघुकथा संग्रह "सूली लटके पल" से ली गई है.) 

नई बात / कुलविंदर कौशल / हिंदी अनुवाद: योगराज प्रभाकर

“बापू, पूरी पंचायत भी आ चुकी है, अब कर दो बँटवारा." बचन सिंह के बड़े बेटे ने रूखे-से स्वर में कहा.
“हाँ हाँ बापू! कर दो बँटवारा, अब हम साथ नहीं रह पाएँगे." छोटे बेटे ने भी उसी लहज़े में कहा.
“सुनो बचन सिंह, ये कोई नई बात तो है नहीं. अगर बच्चों में निभना बंद हो जाए तो उन्हें अलग-अलग कर देना ही बेहतर होता है. तुम सिर्फ़ ये बताओ कि तुम किस बेटे के साथ रहोगे, फिर हम जायदाद का बँटवारा कर देंगे." सरपंच ने बचन सिंह के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा.
“अरे सरपंच जी, बापू का क्या है. छह महीने मेरे यहाँ रहेंगे और छह महीने छोटे के यहाँ।"
"लो भाई, बचन सिंह का फ़ैसला तो हो गया, आओ अब करें बँटवारा।" सरपंच ने कुर्सी पर व्यवस्थित होते हुए कहा.
बचन सिंह जो काफ़ी देर से नज़रें झुकाए हुए सबकुछ सुन रहा था, अचानक उठ खड़ा हुआ और गरजते हुए बोला, 
“क्या फ़ैसला हो गया? फ़ैसला तो मैं सुनाता हूँ. इन दोनों लड़कों को निकालो घर से. बारी-बारी ये छह-छह महीने के लिए मेरे पास रहें और बाक़ी छह महीने अपना इंतज़ाम कहीं और करें.घर का मालिक मैं हूँ.... मैं."
दोनों बेटों के साथ-साथ पंचायत वालों के के मुँह खुले-के-खुले रह गए जैसे सचमुच कोई नई बात हो गई हो.
-0-

 इस रचना पर आधारित पंजाबी टेलेफिल्म 



गुरुवार, 7 नवंबर 2019

डॉ. सतीशराज पुष्करणा की लघुकथा 'दिखावा' 17 भाषाओँ में | कल्पना भट्ट


आदरणीया कल्पना भट्ट जी (Kalpana Bhatt) की फेसबुक पोस्ट से 

दिशा प्रकाशन से प्रकाशित आदरणीय मधुदीप गुप्ता जी के संपादन में 
पड़ाव और पड़ताल खण्ड 22 "डॉ सतीशराज पुष्करणा की 66 लघुकथाएँ और उनकी पड़ताल" से

मूल लघुकथा



दिखावा
एक कॉफ़ी हाउस के बाहर बरामदे में लगी मेज-कुर्सियों पर बैठे कुछ युवक कॉफ़ी पीने के साथ-साथ कुछ ऊँचे स्वर में किसी विषय पर बहस भी कर रहे थे| बाहर मेन रोड पर एक भिखारी हाथ में कटोरा लिए भीख के उद्देश्य से खड़ा था| उन युवकों में से एक युवक, जो कुर्ता-पैजामा पहने था,एक सफारी सूट पहने युवक से कहने लगा, “तुम पूंजीपति लोग गरीबों को देखना पसंद नहीं करते हो|” जबकि इन्हीं गरीबों की वजह से तुम लोग इस ठाठ-बाट से रहते हो| वरना...|”

“देखो! तुम गलत समझ रहे हो| बात ऐसी नहीं है|”

“तो फिर”
“यदि वाकई ऐसी बात है, तो सामने भीख माँग रहे भिखारी को जाकर गले लगाकर दिखाओ|”
“उसे मैं भीख तो दे सकता हूँ, किन्तु इस गंदे भिखारी को अपने गले किसी कीमत पर नहीं लगा सकता| तुम चाहो तो जाकर उससे गले मिलो| या...”
इतना सुनते ही वह कुर्ताधारी युवक लपककर उस भिखारी कि ओर बढ़ गया और जाते ही उसे अपनी बाँहों में भरकर गले से लगा लिया|
इस प्रकार युवक को अपने गले लगते देख पहले तो भिखारी कुछ घबराया, किन्तु फिर कुछ सँभलते हुए बोला, “ बाबु! पेट गले लगाने से नहीं रोटी से भरता है... और रोटी के लिए पैसा चाहिए|”
डॉ. सतीशराज पुष्करणा

2) 

सादर धन्यवाद आदरणीय योगराज प्रभाकर सर! आपने इस लघुकथा का पंजाबी और उर्दू में भावानुवाद कर के भेजा | नमन आपको | दिनांक 4 नवम्बर, 2019 

(ਪੰਜਾਬੀ ਅਨੁਵਾਦ)
ਮਿੰਨੀ ਕਹਾਣੀ: ਦਿਖਾਵਾ
(ਡਾ. ਸਤੀਸ਼ਰਾਜ ਪੁਸ਼ਕਰਣਾ)

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ਇੱਕ ਕਾਫ਼ੀ ਹਾਊਸ ਦੇ ਬਾਹਰ ਵਰਾਂਡੇ ਵਿਚ ਪਏ ਕੁਰਸੀ-ਮੇਜ਼ਾਂ ਤੇ ਬੈਠੇ ਕੁਝ ਨੌਜਵਾਨ ਕਾਫੀ ਪੀਂਦਿਆਂ ਹੋਇਆਂ ਕਿਸੇ ਮੁੱਦੇ ਤੇ ਉੱਚੀ-ਉੱਚੀ ਬਹਿਸ ਵੀ ਕਰ ਰਹੇ ਸਨ. ਬਾਹਰ ਸੜਕ 'ਤੇ ਇੱਕ ਮੰਗਤਾ ਹੱਥ 'ਚ ਕੌਲਾ ਫੜੀ ਭੀਖ ਮੰਗਣ ਲਈ ਖਲੋਤਾ ਸੀ. ਉਨ੍ਹਾਂ 'ਚੋਂ ਇੱਕ ਨੌਜਵਾਨ ਜਿਸਨੇ ਕੁਰਤਾ-ਪਜਾਮਾ ਪਾਇਆ ਹੋਇਆ ਸੀ, ਇੱਕ ਸਫ਼ਾਰੀ ਸੂਟ ਵਾਲੇ ਨੌਜਵਾਨ ਨੂੰ ਕਹਿਣ ਲੱਗਾ,
"ਤੁਸੀਂ ਸਰਮਾਏਦਾਰ ਲੋਕ ਗਰੀਬਾਂ ਨੂੰ ਦੇਖਣਾ ਵੀ ਪਸੰਦ ਨਹੀਂ ਕਰਦੇ। ਹਾਲਾਂਕਿ ਇਨ੍ਹਾਂ ਗਰੀਬਾਂ ਦੀ ਵਜ੍ਹਾ ਤੋਂ ਹੀ ਤੁਸੀਂ ਐਨੇ ਠਾਠ-ਬਾਠ ਨਾਲ ਰਹਿੰਦੇ ਹੋ."
"ਦੇਖ, ਤੂੰ ਗ਼ਲਤ ਸਮਝ ਰਿਹੈਂ। ਅਜਿਹੀ ਕੋਈ ਗੱਲ ਨਹੀਂ ਹੈਂ.."
"ਤੇ ਫੇਰ...? ਜੇਕਰ ਅਜਿਹੀ ਕੋਈ ਗੱਲ ਨਹੀਂ ਤਾਂ ਭੀਖ ਮੰਗ ਰਹੇ ਮੰਗਤੇ ਨੂੰ ਗਲ ਲਾ ਕੇ ਵਿਖਾ।"
"ਮੈਂ ਉਸਨੂੰ ਭੀਖ ਤਾਂ ਦੇ ਸਕਦਾਂ, ਪਰ ਇਸ ਗੰਦੇ ਮੰਗਤੇ ਨੂੰ ਕਿਸੀ ਕੀਮਤ ਤੇ ਗੱਲ ਨਹੀਂ ਲਾ ਸਕਦਾ। ਤੂੰ ਚਾਹੇਂ ਤਾਂ ਉਸਨੂੰ ਗਲ ਲਾ ਸਕਦੈਂ .. ਜਾਂ..."
ਇਹ ਸੁਣਦਿਆਂ ਹੀ ਕੁਰਤੇ ਵਾਲਾ ਨੌਜਵਾਨ ਮੰਗਤੇ ਵੱਲ ਵਧਿਆ ਅਤੇ ਉਸਨੂੰ ਗਲਵੱਕੜੀ ਪਾ ਲਈ. 
ਨੌਜਵਾਨ ਨੂੰ ਇੰਝ ਗਲਵੱਕੜੀ ਪਾਉਂਦਿਆਂ ਵੇਖ ਪਹਿਲਾਂ ਤਾਂ ਮੰਗਤਾ ਕੁਝ ਘਾਬਰ ਜਿਹਾ ਗਿਆ, ਫੇਰ ਕੁਝ ਸੰਭਲਦਿਆਂ ਹੋਇਆਂ ਬੋਲਿਆ, 
"ਬਾਊ ਜੀ, ਢਿੱਡ ਗਲਵੱਕੜੀ ਨਾਲ ਨੀ, ਰੋਟੀ ਨਾਲ ਭਰਦਾ ਹੈ... 'ਤੇ ਰੋਟੀ ਲਈ ਪੈਸੇ ਚਾਹੀਦੇ ਹੁੰਦੇ ਨੇ."
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(اردو ترجمہ)
3)
افسانچہ :دکھاوا
(ڈاکٹرستیش راج پشکرنا)
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ایک کوفی
ہاؤس کے باہر پڑے کرسی-میزوں پر بیٹھے چند نوجوان کافی پیتے ہوئے کسی موجو پر اونچی آواز میں بحس بھی کر رہے تھے . باہر سڈک پر ایک فقیر ہاتھ میں کاسہ پکڑے خیرات مانگنے کی غرض سے کھڈا تھا. انمیں سے ایک نوجوان جو کرتے-پیجاے میں ملبوص تھا، ایک سفارے سوٹ والے نوجوان سے بولا،
"تم سرمایادار لوگ مفلسوں کو دیکھنا بھی پسند نہیں کرتے ہو. تاہم ان مفلسوں کی وجہ سے ہی تم لوگ اتنے ٹھاٹھ-باٹ کی زندگی بسر کر رہے ہو."
" دیکھو،تم غلت سمجھ رہے ہو. ایسی کوئی بات نہیں ہے."
"تو پھر..؟ اگر ایسی کوئی بات نہیں ہے تو اس فقیر کو گلے سے لگاکر دکھاؤ ."
"میں اسکو خیرات تو دے سکتا ہوں، پر اس غلیز فقیر کو گلے نہیں لگا سکتا. تم چاہو تو اسے گلے لگا سکتے ہو...یا..."
یہ سنتے ہی کرتے والا نوجوان فقیر کی جانب بڑھا اور اسکو گلے لگا لیا. نوجوان کو یوں گلے سے لگاتے دیکھ فقیر پہلے تو کچھ گھبرایا، پھر خود کو سمھلتے ہوئے بولا،
بابو! پیٹ گلے لگانے سے نہیں روٹی سے بھرتا ہے، اور روٹی کے لئے پیسہ درکار ہوتا ہے."
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4) 
Pretense (Laghuktha) English 3rd nov, 2019 

Outside a Coffee-House, some of the youth were seated on the chairs and tables thus so arranged in the lobby. Along with having some coffee, they were arguing on some topic in a loud voice. A beggar with an intention to get some Alms, was standing outside on the main road, carrying a bowl in his hand. A young men in kurta-pajama angrily said to another young men who was in Safari suit, “ You Aristocrats! You don’t even like to look at the poor, although it is because of them only that you are able to have a luxurious life.”
“Noway ! This is not true. You are taking it wrongly.”
“Oh yeah! Really!”
“ If you really say so , then why don’t you go to that beggar and embrace him.”
“I will surely offer him Alms, but no any circumstances can embrace him. Instead if you so feel, you are free to do so. Else…”
As soon as he had finished saying this, the young men in kurta-pajama moved forward towards the beggar and immediately took him into his arms.
Astonished with such a sudden act of the youth, the beggar at first felt a bit hesitant, but then he gathered some confidence and said, “ Sir, One cannot fill his stomach by embracing anyone, rather only food can satisfy his hunger, and for this Money is must,”

Originally written by Dr. Satish Raj Pushkarna

Translated by Kalpana Bhatt
Dated: 3rd Nov, 2019

5) 
નાટક (લઘુકથા) ગુજરાતી

એક કોફી હોઉસે ની બહાર ની પોર્ચ માં સજાવેલ, કુર્સી અને ટેબલો ઉપર અમુક નવ-યુવક બેસેલ હતા તેઓ કોફી પીતાં-પીતાં કોઈ મુદ્દા પર જોર-જોર થી ચર્ચા કરી રહ્યા હતા,.બહાર મેન રોડ પર ભીખ મેળવાના ઉદ્દેશ્ય થી એક ભિખારી પોતાના હાથ માં એક વાટકો લઇને ઉભો હતો. તેમાં થી એક નવ-યુવક જેણે કુર્તા-પજામા પેહરેલ હતાં એ સફારી પેહરેલ એક બીજા નવ-યુવક ને કહ્યું," તમે પૂંજીપતિ લોકો! તમને તો ગરીબો તરફ જોવુંએ ન ગમે, જયારે આ ગરીબો ની મારફતજ તમે આવી જાહો-જલાલી માં રહી શકો છો. અન્યથા તો.."
"જો ભાઈ! આવું કયીંજ નથી, આ ધારણા તારી તદ્દન ખોટી છે."
"અચ્છા!"
"જો તું તારી વાત પર કાયમ છો તો સામે ઉભેલ ભિખારી ને આલિંગન કરીને દેખાડ ."
"એને હૂં નાણા આપી શકું, પરંતુ આવા ગંદા ભિખારી ને કોઈ પણ પરિસ્થિતિ માં આલિંગન તો ન જ કરી શકું. તારી ઈચ્છા હોય તો તું કરી આવ. અથવા તો..."
આ સાંભળતાંજ કુર્તા પેહરેલ નવ-યુવક લપકી ને એ ભિખારી પાસે ગયો અને એને પોતાના હૃદય થી લગાડી લીધું.
આવા પ્રકારતી આલિંગન થયેલ ભિખારી પેહલા તો થોડો ઘભ્રાયો, પણ થોડાજ ક્ષણોમાં એણે સ્વયમ ને સાંભળી લીધું અને એને કહ્યું, " સાહેબ , આલિંગન કરીને કોઈ દિવસ પેટ ભરાતું નથી, એની માટે રોટલો જોઈએ, અને રોટલા માટે નાણા જોઈએ."

મૂળ લઘુકથાકાર : દર. સતીશ રાજ પુષ્કરણા
અનુવાદ : કલ્પના ભટ્ટ
ભોપાલ

6) 
दिखावा (बृज भाषा)

एक कॉफी हॉउस के बाहर के बरामदा में कछु छोराएं वहाँ बिछी कुर्सी-टेबल पर बैठे हते। कॉफी पीते भये अमुक मुद्दा पे उनकी जोर-जोर सूं बहस भी चल रही हतीँ। बाहर मुख्य सड़क पे, भीख माँगवे काजे एक भिखमंगो हाथ में कटोरा लिये खड़ो हतो। कुर्ता-पजामा पहने भए एक छोरा ने सूट-बूट पहने भए छोरा सु कहन लग्यो," तुम्हारे जैसे पैसा वाले लोग, तुमलोग गरीबन कु देखनो भी पसन्द नही करो हो, जबकी इन्हींकी वजह सूं तुम सबरे इत्ते ठाठ-बाट सूं रह सकत हो। अन्यथा तो.."
"देखो! जे बात तो तुम्हारी बिलकुल जूठी है, ऐसो कछु नहीं है।"
"अच्छो! तो फिर।"
"जो तू साँची कह रह्यो है तो जा वा भिखमंगे कू गले लगाय आ। नहीं तो..."
"मैं वाकु पैसा भीख में दे सकूँ, पर वाकु गले तो कभी भी नहीं लगा सकूँगो। तेरी इच्छा होय तो तू ही लगा ले वाकू अपने गले।"
ये सुनते ही वो कृता वालो छोरा उठ्यो और लपकके वा भिखारी कू गले लगा लियो।
या प्रकार सूं गले लगावतो देख पहले तो वो भिखारी तनिक डर गयो पर कछु देर बाद वाने खुद कु संभलयों और वा कुर्ता वाले छोरा सूं कह्यी," बाबू! ऐसे गले लगावे सूं पेट कोइको पेट नहीँ भरे, वाके लिये रोटी चहिये, और रोटी के लानी पैसा चहिये।"
अनुवाद : कल्पना भट्ट

7 ) 
दिखावा (लघुकथा) (ढोंग)---दिनांक : ५ नोव्हेंबर २०१९ 

कॉफी-हाऊसच्या बाहेर लागलेल्या टेबल आणि खुर्च्यांवर काही तरुण कॉफी घेत मोठ्याने कुठल्या तरी विषयांवर वादविवाद करत होते. बाहेरच एक भिकारी हातात वाडगा धरुन भीक मागत उभा होता. त्या तरुणां मधे एक तरुण ज्याने साधारण कुर्ता पायजामा घातला होता, एक कोट-पेंट घातलेल्या दुस-या तरुणाला म्हणाला " तुम्ही भांडवलदार ह्या गरीब लोकांकडे पहाणे देखिल पसंत करत नाही." खरं तर तुम्ही ह्या लोकां मुळेच थाटात राहाता.
" हे बघ! ही तुझी चुकीची समजूत आहे."
"तर मग"
"जर तू खरा आहेस तर एक काम कर, त्या समोरच्या भिका-याला एक घट्ट मिठी मारुन दाखव."
"नाही! मी त्याला भीक घालिन पण कोणत्या ही परिस्थितीत मिठी ..अशक्य आहे हे. अरे! असे कर तूच घे ना त्याला मिठीत.."
हे ऐकता क्षणी कुर्ता-पायजामामधील तरुण धावत त्या भिकारी कडे गेला आणी आपले बाहू पसरून त्याला मिठीत घेतले.
एक क्षण तर तो भिकारी घाबरलाच, पण लगेच स्वत:ला सावरत म्हणाला.." बाबू! पोट मिठीत घेतल्याने नाही तर भाकरी च्या तुकड्याने भरत.. त्या करिता पैसा लागतो.
मूळ रचनाकार: डॉ सतीश राज पुष्करणा
अनुवाद: नयना(आरती)कानिटकर

8)

दिखावा(लघुकथा) दिनांक ५ नवम्बर २०१९
मगही अनुवाद- अभिलाषा सिंह (पटना)
एगो कॉफी हाउस के बाहर ओसारा में लगल मेज कुर्सियन पर बइठल कुछ युवक सब कॉफी पिये के साथे -साथे तनी जोर -जोर अवाज में कौनों विषय पर बहसो कर राहलखिन हल। बाहर में रोडबा पर एगो भिखारी हाथ में कटोरा ले के भीख ला खड़ा हलय। ऊ युवकवन में से एगो जे कुरता पैजामा पहिनले हलय ,ऊ सफारी-सूट पहनले युवकबा से कहे लगलै "तोहनी पूंजीपति लोग सब गरीबन के देखेला न चाहहु, जबकी इहे गरीबन के चलते तोहनी ई ठाट -बाट से रह हो,नैय त.…....
"देख अ!तू गलत समझ रहल ह ,बात अइसन नय है"
"त फेर?"अगर सच में अइसन बात नैय है त सामने भीख माँग रहल भिखारी के जाके गला से लगाके देखाब त।"
"ओकरा हम भीख तो दे सकलिओ ह,लेकिन ई घिनाएल
भिखरिया के अप्पन गला से कौनो कीमत पर नैय लगा सकलिओ ह।तू चाह ह त जाके ओकरा से गला मिल ल।"
एतना सुनते ही ऊ कुरता वाला युवक लपकके ऊ भिखारी दने बढ़ गेलै ।जैते ही ओकरा अप्पन
बाजू में भरके गले से लगा लेलकै।
ऊ युवकवा के ऐसे अप्पन गला से लगते देख के पहिले तो भिखरिया तनी घबरा गेलै,बाकी फेर तनी सँभलते कहलकै-"बाबू,पेटबा तो गला लगाबे से नैय, रोटी से भरतय ......आ रोटी लागी त पैसा चाही न।

9) 

मैथली भाषा

पड़ाव आ पड़ताल खण्ड 22
डॉ सतीशराज पुष्करणाक 66 लघुकथा आ हुनक पड़ताल सँ
लघुकथा क्रमांक -2 पेज 48
अभ्यासक्रम -०१ डॉ. सतीशराज पुष्करणा जीक लघुकथा सभ पर
दिखावा (लघुकथा)

एकटा कॉफ़ी हाउसक बाहर बरंडा मे लागल मेज-कुर्सी पर बैसल किछ युवक कॉफ़ी पीलाक संग-संग किछ ऊँच स्वर मे कोनो विषय पर बहस सेहो क' रहल छलाह। बाहर मेन रोड पर एकटा भिखमंगा हाथ मे कटोरा लेने भीखक उद्देश्य सँ ठाड़ छल| ओहि युवक सभ मे सँ एकटा युवक, जे कुर्ता-पैजामा पहिरने छला,एक सफारी सूट पहिरने युवक सँ कह' लागल, “तु पूंजीपति सभ गरीब-गुरबा केँ' देखनाय पसंद नहि करैत छ'|” जखन कि यैह गरीबक कारणेँ तु सभ एहि ठाठ-बाट सँ रहै छैं| नहि त'...|”
“देख! तु गलत बुझि रहल छैं | बात ऐहन नहि छैक|”
“तखन फेर”
“जौं सही मे एहन बात अछि, त' सोझा मे भीख माँगि रहल भिखमंगा केँ जा क' गरदनि सँ लगा क' देखा”
“ओकरा हम भीख त' द' सकैत छी, मुदा एहि मैल भिखारी केँ अपन गरदनि सँ कोनो कीमत पर नहि लगा सकै छी| तु चाहै छैं त' जा केँ ओकरा गरदनि सँ लगा| या...”
एतेक सुनिते कुर्ताधारी युवक लपकि क' ओहि भिखमंगा दिस बढि गेल आ जाइते ओकरा अपन बाँहि मे भरि गरदनि सँ लगा लेलक|
एहि तरहें युवक केँ अपन गरदनि लागैत देख पहिने त' भिखारी किछ डरा गेल, मुदा फेर किछ सम्हरैत बाजल, “ बाबु! पेट गरदनि लगेला सँ नहि रोटी सँ भरैत अछि... आ रोटी कलेल पाय चाही|”

डॉ. सतीशराज पुष्करणा
Originally written by Dr. Satish Raj Pushkarna
Translated by Shri Shivam Jha in Maithali

१०) 

भारत की एक और बोली है कच्छी जिसकी लिपि गुजराती ही होती है, इस भाषा में भी यह मेरा प्रथम प्रयास है

દેખાવો (લઘુકથા)
હકડે કોફી હોઉસ જી બાર જી લોબી મેં કુર્સી-ટેબલ સરખા ગોઠવાયેલા વા, હેન મત્થે અમુક યુવાન કોફી પીંધે-પીંધે અમુક વિષય તે વદડે અવાઝ
માં ચર્ચા કર્ધા વા. બાર મેન રોડ તે હકડો ભિખારી પોતેજે હથ મેં હકડો વાટકો પકડી ને ભીક મન્ગેલાય ઉભો વો. હેન મળે યુવાનો મેં હકડો સાધારણ જબ્ભે-પય્જામે વો ,હેનજી સામે હકડો પૈસા વાળો યુવાન સફારી મેં વો, પેલ્લો ગુસ્સે થી બોલ્યો,' આયીં મળે પૈસા વાળા ગરીબ સામે નેરેલાય કડે પણ તૈયાર નાથા થિયો, આયીં મળે ભૂલી વનોતા કે ગરીબ જેજ લીધે આયી મળે ઠાઠ થી રયી શકો તા.હી ન હોત તો...'
'ના, હેડો નાય, તું જે વિચારેતો ઈ તદ્દન ખોટો આય.'
'સચ્ચે! તો પછી કેડો આય?'
'જો તું સચ્ચો અયીયે તો હુડા વનીને ઉ ભિખારી કે બચ્ચી ભરીને અચ.'
'નેર , આઉ હેનકે ભીખ ડયી સકા, પણ હેટલે ગંદે ભિખારી કે બચ્ચી ન ભરી શકા.તું છુટ્ટો અયીએ, તોકે કરનું હોય તો કરી અચ, મૂંજી છૂટ આય, નયીતો..'
હેટલો સુણી ને જબ્ભો વાળો યુવાન ઉઠ્યો અને હેન ભિખારી પાસે વનીને બચ્ચી ભરયી.
એકદમ ઓચિંતો હેડો નેરીને ઉ ભિખારી પેલા તો થોડો ધારજી વ્યો પણ પછી પોતે કે સંભાળી ગણયી, અને બોલ્યો,' ભા, બચ્ચી ભરીને પેટ ના ભરાય, હેન લાય ખાધે જો ખપ્પે, રોટલા ખપ્પન, અને ખાદેલાય, પૈહ્યા ખપ્પન.'

મૂળ લેખક : ડોક્ટર. સતીશ રાજ પુષ્કરના
અનુવાદ; કલ્પના ભટ્ટ

11) 
दिनांक 5 नवम्बर 2019
* मूल लेखक डा.सतीश राज पुष्करणा
भोजपुरी अनुवाद नीतू सुदीप्ति 'नित्या'

'देखावा'

एगो कॉफी हॉउस के बहरी बरमदा में लागल टेबुल -कुरसी प बइठल कुछ नौजवान युवक कॉफी पीये के जवरे कुछु तेज आवाज में कवनो विषय प बहस करत रहन जा ।
बहरी सड़क प एगो भिखारी हाथ में कटोरा लेले भीख मांगे खातिर खाड़ रहे ।
ओह युवक में से एगो युवक जवन कुरता - पैजामा पहिनले रहे एगो सफारी सूट पहिनले युवक से कहल, "तू पूंजीपति लोग गरीबन के देखल तनिको ना पसन करेल जा । जबकि इहे गरीब लोग के चलते तू लोग एतना ठाठ - बाट से रहेल । ना त ...।"
"देख s, तू गलत समुझत बाड़ s । बात अइसन नइखे ।"
" त फिरू ।"
" जदी सच में अइसन बात बा, त सोझा भीख मांगत ऊ भिखारी के जाके गला लगा के देखाव s।"
"हम ओकरा के भीख दे सकत बानी, बाकिर एह गंदा भिखारी के अपना गला कवनो कीमत प नइखी लगा सकत । तू चाहत बाड़ s त जाके ओकरा गला मिल ल s । भा ...।
एतना सुनते ऊ कुरता पहिनल युवक लपक के ओह भिखारी के ओर बढ़ल आ जाते ही ओकरा के आपन बाँहि में भरि के गला से लगा लेलस ।
एह तरह युवक के अपना गला लगते देख पहिले त भिखारी कुछु घबराइल, बाकिर फेनु कुछु समहरते बोलल, "बाबू, पेट गला लागे से ना रोटी से भरेला ...। आ रोटी खातिर पइसा चाहीं ।"

12. 
in malyalam dated 5th nov 2019
കാണിക്കുക
ഒരു കോഫി ഹൗസിന് പുറത്ത്, വരാന്തയിലെ മേശക്കസേരയിൽ ഇരിക്കുന്ന ചില യുവാക്കൾ കാപ്പി കുടിക്കുന്നതിനൊപ്പം ചില വിഷയങ്ങളിൽ ഉച്ചത്തിലുള്ള ശബ്ദത്തിൽ തർക്കിച്ചുകൊണ്ടിരുന്നു. മെയിൻ റോഡിന് പുറത്ത്, ഭിക്ഷാടനത്തിനായി ഒരു ഭിക്ഷക്കാരൻ കയ്യിൽ ഒരു പാത്രവുമായി നിന്നു. കുർത്ത-പൈജാമ ധരിച്ച ഒരു യുവാവ് സഫാരി സ്യൂട്ട് ധരിച്ച യുവാവിനോട് പറഞ്ഞു, "മുതലാളിത്ത ജനങ്ങളേ നിങ്ങൾ ദരിദ്രരെ കാണാൻ ഇഷ്ടപ്പെടുന്നില്ല." ആകുക അല്ലെങ്കിൽ… ”
"നോക്കൂ! നിങ്ങൾ അത് തെറ്റായി മനസ്സിലാക്കുന്നു. ഇത് അങ്ങനെയല്ല. "
"പിന്നെ"
"ശരിക്കും അങ്ങനെയാണെങ്കിൽ, പോയി ഭിക്ഷക്കാരൻ നിങ്ങളുടെ മുൻപിൽ യാചിക്കുന്നത് കാണിക്കുക."
"എനിക്ക് അദ്ദേഹത്തിന് ദാനം നൽകാം, പക്ഷേ ഈ വൃത്തികെട്ട ഭിക്ഷക്കാരനെ എനിക്ക് എന്ത് വിലകൊടുത്തും സ്വീകരിക്കാൻ കഴിയില്ല. നിങ്ങൾക്ക് വേണമെങ്കിൽ പോയി അവനെ കെട്ടിപ്പിടിക്കുക. അല്ലെങ്കിൽ… ”
ഇതുകേട്ട കുർത്തയുമായി യുവാവ് ഭിക്ഷക്കാരന്റെ അടുത്തേക്ക് ഓടിക്കയറി കൈകളിൽ നിറച്ച് പോകുമ്പോൾ കെട്ടിപ്പിടിച്ചു.
അങ്ങനെ, യുവാവ് അവനെ കെട്ടിപ്പിടിക്കുന്നത് ആദ്യം കണ്ടപ്പോൾ യാചകന് അല്പം പരിഭ്രാന്തി വന്നു, പക്ഷേ അയാൾ "ബാബു! ആലിംഗനം അല്ല, ആമാശയം അപ്പം നിറയ്ക്കുന്നു ... ബ്രെഡിന് പണം ആവശ്യമാണ്.

13)
in Kannada dated 5th Nov 2019

ಪ್ರದರ್ಶಿಸಿ
ಕಾಫಿ ಮನೆಯ ಹೊರಗೆ, ವರಾಂಡಾದಲ್ಲಿ ಟೇಬಲ್-ಚೇರ್ಗಳ ಮೇಲೆ ಕುಳಿತಿದ್ದ ಕೆಲವು ಯುವಕರು ಕಾಫಿ ಕುಡಿಯುವುದರ ಜೊತೆಗೆ ಕೆಲವು ವಿಷಯದ ಬಗ್ಗೆ ದೊಡ್ಡ ಧ್ವನಿಯಲ್ಲಿ ವಾದಿಸುತ್ತಿದ್ದರು. ಮುಖ್ಯ ರಸ್ತೆಯ ಹೊರಗೆ, ಭಿಕ್ಷುಕನ ಉದ್ದೇಶಕ್ಕಾಗಿ ಭಿಕ್ಷುಕನು ಕೈಯಲ್ಲಿ ಬಟ್ಟಲಿನೊಂದಿಗೆ ನಿಂತನು. ಕುರ್ತಾ-ಪೈಜಾಮ ಧರಿಸಿದ ಯುವಕರೊಬ್ಬರು, ಸಫಾರಿ ಸೂಟ್ ಧರಿಸಿದ ಯುವಕನಿಗೆ, "ನೀವು ಬೂರ್ಜ್ವಾಸಿ ಬಡವರನ್ನು ನೋಡಲು ಇಷ್ಟಪಡುವುದಿಲ್ಲ" ಎಂದು ಹೇಳಿದರು. ಆದರೆ ಈ ಬಡ ಜನರ ಕಾರಣದಿಂದಾಗಿ ನೀವು ಈ ಚಿಕ್ ರೀತಿಯಲ್ಲಿ ವಾಸಿಸುತ್ತಿದ್ದೀರಿ ಬಿ ಇಲ್ಲದಿದ್ದರೆ… ”
"ನೋಡಿ! ನೀವು ಅದನ್ನು ತಪ್ಪಾಗಿ ಪಡೆಯುತ್ತಿದ್ದೀರಿ. ಈ ರೀತಿಯಾಗಿಲ್ಲ. "
"ನಂತರ"
"ಅದು ನಿಜವಾಗಿದ್ದರೆ, ಹೋಗಿ ಭಿಕ್ಷುಕ ಭಿಕ್ಷಾಟನೆಯನ್ನು ನಿಮ್ಮ ಮುಂದೆ ತೋರಿಸಿ."
"ನಾನು ಅವನಿಗೆ ಭಿಕ್ಷೆ ನೀಡಬಲ್ಲೆ, ಆದರೆ ಈ ಕೊಳಕು ಭಿಕ್ಷುಕನನ್ನು ನಾನು ಯಾವುದೇ ವೆಚ್ಚದಲ್ಲಿ ಸ್ವೀಕರಿಸಲು ಸಾಧ್ಯವಿಲ್ಲ. ನಿಮಗೆ ಬೇಕಾದರೆ, ಹೋಗಿ ಅವನನ್ನು ತಬ್ಬಿಕೊಳ್ಳಿ. ಅಥವಾ… ”
ಇದನ್ನು ಕೇಳಿದ ಕುರ್ತಾ ಹೊಂದಿದ್ದ ಯುವಕ ಭಿಕ್ಷುಕನ ಕಡೆಗೆ ಧಾವಿಸಿ ಅದನ್ನು ತನ್ನ ತೋಳುಗಳಲ್ಲಿ ತುಂಬಿಸಿ ಅವನು ಹೋಗುತ್ತಿದ್ದಂತೆ ತಬ್ಬಿಕೊಂಡನು.
ಹೀಗೆ, ಮೊದಲು ಯುವಕನು ಅವನನ್ನು ತಬ್ಬಿಕೊಳ್ಳುವುದನ್ನು ನೋಡಿದ ಭಿಕ್ಷುಕನಿಗೆ ಸ್ವಲ್ಪ ಬೇಸರವಾಯಿತು, ಆದರೆ ನಂತರ ಅವನು "ಬಾಬು! ಹೊಟ್ಟೆಯು ಬ್ರೆಡ್ನಿಂದ ತುಂಬುತ್ತದೆ, ತಬ್ಬಿಕೊಳ್ಳುವುದರಿಂದ ಅಲ್ಲ ... ಮತ್ತು ಬ್ರೆಡ್ಗೆ ಹಣದ ಅಗತ್ಯವಿದೆ. "

14 
in Tamil

காட்டு
ஒரு காபி ஹவுஸுக்கு வெளியே, வராண்டாவில் மேஜை நாற்காலிகளில் அமர்ந்திருந்த சில இளைஞர்கள் காபி குடித்துக்கொண்டிருந்தார்கள், அதே போல் ஏதோ ஒரு தலைப்பில் உரத்த குரலில் வாதிட்டனர். பிரதான சாலையில் வெளியே, ஒரு பிச்சைக்காரன் பிச்சை எடுக்கும் நோக்கத்திற்காக கையில் ஒரு கிண்ணத்துடன் நின்றான். குர்தா-பைஜாமா அணிந்திருந்த இளைஞர்களில் ஒருவர், சஃபாரி சூட் அணிந்த இளைஞரிடம், "நீங்கள் முதலாளித்துவ மக்கள் ஏழைகளைப் பார்க்க விரும்பவில்லை" என்று கூறினார். உள்ளன | இல்லையென்றால்… ”
"பாருங்கள்! நீங்கள் அதை தவறாகப் பெறுகிறீர்கள். இது அப்படி இல்லை. "
"பின்னர்"
"உண்மையில் அப்படி இருந்தால், போய் பிச்சைக்காரன் உங்கள் முன் பிச்சை எடுப்பதைக் காட்டு."
"நான் அவருக்கு பிச்சை கொடுக்க முடியும், ஆனால் இந்த அழுக்கு பிச்சைக்காரனை எந்த விலையிலும் என்னால் தழுவ முடியாது. நீங்கள் விரும்பினால், சென்று அவரை அணைத்துக்கொள்ளுங்கள். அல்லது… ”
இதைக் கேட்டதும், குர்தாவுடன் வந்த இளைஞன் பிச்சைக்காரனை நோக்கி விரைந்து வந்து அதை தன் கைகளில் நிரப்பி அவன் போகும்போது கட்டிப்பிடித்தான்.
இவ்வாறு, முதலில் அந்த இளைஞன் அவரைக் கட்டிப்பிடிப்பதைப் பார்த்ததும், பிச்சைக்காரன் கொஞ்சம் பதற்றமடைந்தான், ஆனால் பின்னர் அவன், “பாபு! கட்டிப்பிடிப்பதன் மூலம் அல்ல, வயிற்றை ரொட்டியால் நிரப்புகிறது ... மேலும் ரொட்டிக்கு பணம் தேவைப்படுகிறது

15)
In Telugu

చూపించు

ఒక కాఫీ హౌస్ వెలుపల, వరండాలోని టేబుల్-కుర్చీలపై కూర్చున్న కొంతమంది యువకులు కాఫీ తాగుతూ, కొన్ని అంశాలపై పెద్ద గొంతులో వాదిస్తున్నారు. ప్రధాన రహదారి వెలుపల, యాచించే ఉద్దేశ్యంతో ఒక బిచ్చగాడు చేతిలో ఒక గిన్నెతో నిలబడ్డాడు. కుర్తా-పైజామా ధరించిన యువకులలో ఒకరు సఫారీ సూట్ ధరించిన యువకుడితో, "మీరు బూర్జువా పేదలను చూడటం ఇష్టం లేదు" అని అన్నారు. అయితే ఈ పేద ప్రజల కారణంగా మీరు ఈ చిక్ పద్ధతిలో నివసించారు ఉన్నాయి | లేకపోతే… ”
"చూడండి! మీరు తప్పు చేస్తున్నారు. ఇది అలా కాదు. "
"అప్పుడు"
"అది నిజంగా అలా అయితే, వెళ్లి మీ ముందు బిచ్చగాడు యాచించడాన్ని చూపించు."
"నేను అతనికి భిక్ష ఇవ్వగలను, కాని నేను ఈ మురికి బిచ్చగాడిని ఏ ధరనైనా స్వీకరించలేను. మీకు కావాలంటే, వెళ్లి అతన్ని కౌగిలించుకోండి. లేదా… ”
ఇది విన్న కుర్తాతో ఉన్న యువకుడు బిచ్చగాడి వైపు పరుగెత్తుకుంటూ చేతుల్లో నింపి వెళ్ళేటప్పుడు కౌగిలించుకున్నాడు.
ఆ విధంగా, మొదట ఆ యువకుడు తనను కౌగిలించుకోవడం చూసి, బిచ్చగాడు కొంచెం భయపడ్డాడు, కాని అప్పుడు అతను "బాబు! కడుపు రొట్టెతో నింపుతుంది, కౌగిలించుకోవడం ద్వారా కాదు ... రొట్టెకి డబ్బు అవసరం. "

16) 
दिखावा लघुकथा (हरियाणवी) 


एक बै दो छोरे एक ढ़ाबे पै चाय पीण लाग रे थे अर जोर जोर त बहस कर रे थे। अर ढ़ाबे के साम्ही ही एक भीख मांगल आळा खड़ा था। बिचारा भीख की आस में था। 
उन दोनों छोरां ने उस भिखारी को देख्या अर आपस में कहण लागे... 
एक छोरा जो सादा-भोला दिख्ये था अपणे कपड़े लत्ते ते वो बोल्या दूसरे छोरे ते जो अपटूडेट बण रह्या था सूट-बूट पहण के - के भाई तम बड़े लोग(यानी पींस्यां आळे लोग) ते इन गरीब आदमियां ने देख के कति राज्जी कोन्या जबकि ये ही गरीब लोग थारे कारखाने में काम करके तमने बड़े साहब बणावं हैं। 
उसकी बात सुणके वो सूट-बूट आळा छोरा बोल्या - दखे भाई इसी बात ना से। 
त फैर किसी बात सै भाई - कुड़ता पजामे आळा छोरा बोल्या .. जै इसी बात ना सै त उस भिखारी कै जा के गले मिल के दिखा। 
सूट-बूट आळा बोल्या- भाई देख, मैं उसने भीख दे सकूं हूं पर इन गंदे कपड़्यां में अपने गले ना ला सकता। तनै गले मिलना से तो जा कै मिल ले भाई। 
इतणी सुणते ही कुड़ते-पजामे आळा छोरा भाजकै उस भिखारी कै गले लाग्या। भिखारी पहलां तै थोड़ा डरग्या फैर बोल्या - ओ बाबू जी.. गले मिलकै म्हारा पेट कोन्या भरैगा, पेट भरण तईं पईसा चाहिए सै। 

डॉ़ सतीशराज पुष्करणा जी ( लिखने वाले) 
हरियाणवी में रूपांतरित करण आळी प्रवीन मलिक बेबे

17)

बंगला अनुवाद
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একটি কাফী হাউসের বারান্দার আগে রাখা কুর্সি আর টেবিলে বোসে অনেক যুবক জোর জোর করে কিছু টপিক উওপর চর্চা করছিলেন।
হঠাৎ বাইরে মেন রোড উপরের একটি ভিখারী হাথে বাটি নিয়ে ভিক্ষার উদেশায় দাড়িয়ে ছিলো।
সেই যুবককে মধায় এক যুবক কুর্তা পায়জামা পড়ে ছিলো, এক সাফারী সুট পড়া যুবক কে বলে,", তোর মতন ক্যাপিটালিস্ট লোগ গরীব জন কে দেখতে চাও না "।
তোমরা এই গরীব লোকের জন্য হী খুব আরাম করে থাকো বর্না,,,, ।
অন্ন বন্দু বলেন "দেখো! তুমি আমাকে ভুল বুঝছো। ইমানী কিছু ব্যাপার নয়"।
"তো"
"যদি কোনো কোথায় নেই, তো সামনে দাঁড়িয়ে ভিখারী কে হাক করতে পারেন।
না আমি কোনও কোস্ট গলা লাগতে পারবো কিন্তু যদি তুমি চাও তুম ওকে হাক কর যা,,,"
হঠাৎ উর কথা সুনে কুর্তা পায়জামা পড়ে জে যুবক টি ছিলো সে ঊঠ জয়ে আর ভিখারীর কাছে যায় আর ওকে ধরে নিয়ে নিজের আলিঙ্গন পাশে বন্ধে রাখে । কুর্তা পড়ে যুবক কে আলিঙ্গন করতে দেখে ভিখারী ভয় পেয়ে গেল আর মুখ সমলিয় বলে,",

বাবু! আমার পেট গলা জড়িয়ে লাগলে ভরবে না,,, আমকে রুটি জন্য পৌয়েশা চাই।"

संजू शरण (पटना)