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मंगलवार, 31 मार्च 2020

लघुकथा वीडियो: अदृश्य जीत | लेखन व वाचन डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी





लघुकथा: अदृश्य जीत | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

जंगल के अंदर उस खुले स्थान पर जानवरों की भारी भीड़ जमा थी। जंगल के राजा शेर ने कई वर्षों बाद आज फिर खरगोश और कछुए की दौड़ का आयोजन किया था।




पिछली बार से कुछ अलग यह दौड़, जानवरों के झुण्ड के बीच में सौ मीटर की पगडंडी में ही संपन्न होनी थी। दोनों प्रतिभागी पगडंडी के एक सिरे पर खड़े हुए थे। दौड़ प्रारंभ होने से पहले कछुए ने खरगोश की तरफ देखा, खरगोश उसे देख कर ऐसे मुस्कुरा दिया, मानों कह रहा हो, "सौ मीटर की दौड़ में मैं सो जाऊँगा क्या?"


और कुछ ही क्षणों में दौड़ प्रारंभ हो गयी।

खरगोश एक ही फर्लांग में बहुत आगे निकल गया और कछुआ अपनी धीमी चाल के कारण उससे बहुत पीछे रह गया।

लगभग पचास मीटर दौड़ने के बाद खरगोश रुक गया, और चुपचाप खड़ा हो गया।

कछुआ धीरे-धीरे चलता हुआ, खरगोश तक पहुंचा। खरगोश ने कोई हरकत नहीं की। कछुआ उससे आगे निकल कर सौ मीटर की पगडंडी को भी पार कर गया, लेकिन खरगोश वहीँ खड़ा रहा।

कछुए के जीतते ही चारों तरफ शोर मच गया, जंगल के जानवरों ने यह तो नहीं सोचा कि खरगोश क्यों खड़ा रह गया और वे सभी चिल्ला-चिल्ला कर कछुए को बधाई देने लगे।

कछुए ने पीछे मुड़ कर खरगोश की तरफ देखा, जो अभी भी पगडंडी के मध्य में ही खड़ा हुआ था। उसे देख खरगोश फिर मुस्कुरा दिया, वह सोच रहा था,
"यह कोई जीवन की दौड़ नहीं है, जिसमें जीतना ज़रूरी हो। खरगोश की वास्तविक गति कछुए के सामने बताई नहीं जाती।"

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
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रविवार, 29 मार्च 2020

लघुकथा वीडियो: क्या क्यूँ कैसे @ लघु कथा संग्रह | लेखन: अशोक भाटिया | वाचन: सृजनउत्सव



अशोक भाटिया करनाल से हैं। हिन्दी में एसोसिएट प्रोफेसर रह चुके हैं, आजकल लेखन और सामाजिक कार्यों में सक्रिय हैं। आपकी कविता, आलोचना, बाल साहित्य, व्यंग्य, लघु कथा जैसे विषयों पर 13 मौलिक और 15 संपादित पुस्तकें आ चुकी हैं। उनके लघुकथा संग्रह 'क्या क्यूँ कैसे' से लीजिए कुछ लघुकथाएँ सुनिए..


शनिवार, 28 मार्च 2020

लघुकथा वीडियो: पापिन। लेखिका: डिम्पल गौड़ । वाचन: डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी



सड़क किनारे रोज ही दिख जाती थी वह। फ़टे पुराने मैले कुचैले कपड़े। बुशर्ट और घाघरा। हाँ! बस यही तो पहनावा था उसका।
उलझे केश जिनमें बरसों से कभी कंघी न हुई।

उसके विचित्र हाव-भाव पागल घोषित करने के लिए काफी थे। कभी जोरों से हँसने लगती, कभी सिर पकड़ कर रोने लगती।
लोगों के मुँह से उसके बारे में यही सुनने को मिलता -"पगली है पगली! जाने कहाँ से आ गई यहाँ।" उसका खाने का तरीका भी होता एकदम जानवरों सरीखा!

कई बार मन में विचार आता इसे महिला सरंक्षण केंद्र पहुँचा दूँ। पति को उसके बारे में कहती। अक्सर यही जवाब मिलता "क्या यार ! एक तुम ही हो समाज सेविका यहाँ ! पुलिस वाले, समाज- सेवक सब उसे देख किस तरह इग्नोर करते हैं ! दुनिया में ऐसे हज़ारों मिल जाएँगे। आख़िर किसे-किसे सही जगह पहुँचाओगी तुम! " ये सब सुनकर बस चुप सी लगा जाती।

कई दिन बीत गए थे। अब पगली नज़र न आती। मन ही मन सोचती-चलो किसी भले मानस उसे महिला सरंक्षण केंद्र पहुँचा दिया होगा।

आज शाम चौराहे पर कुछ लोग इकठ्ठा थे। मुझे भी उत्सुकता हुई ! क्योंकि मैं भी ठहरी भीड़ का हिस्सा!

अचानक सामने कूड़े के ढेर के समीप ही वह पगली नज़र आई ! उसे देख हतप्रभ थी ! दिमाग सुन्न हो गया था।

संज्ञा शून्य खड़ी थी कि मेरे करीब खड़े महाशय की आवाज़ कानों से टकराई- "जाने किसका पाप लिए घूम रही है पापिन ! "

- डिम्पल गौड़, अहमदाबाद