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शुक्रवार, 22 मार्च 2019

पुस्तक समीक्षा: आधुनिक हिंदी लघुकथा : आधार एवं विश्लेषण | रूप देवगुण | समीक्षाकार: दिलबागसिंह विर्क








लघुकथा विधा पर विचार करती महत्वपूर्ण कृति

पुस्तक - आधुनिक हिंदी लघुकथा : आधार एवं विश्लेषण
लेखक - रूप देवगुण
प्रकाशन - सुकीर्ति प्रकाशन, कैथल
पृष्ठ - 216
कीमत - 450 / - ( सजिल्द )

लघुकथा विधा के रूप में कब शुरू हुई, प्रथम लघुकथा कौन-सी है, लघुकथा का विकास क्रम क्या है और इसके प्रमुख तत्व कौन से हैं, यह प्रश्न अभी तक अनुत्तरित हैं । अलग-अलग विद्वानों के मत अलग-अलग हैं, लेकिन इन प्रश्नों के उत्तर ढूँढने के प्रयास जारी हैं । रूप देवगुण जी की कृति " आधुनिक हिंदी लघुकथा : आधार एवं विश्लेषण " इसी दिशा में किया गया महत्त्वपूर्ण प्रयास है, जिसे पढ़कर इन प्रश्नों के उत्तर ढूँढने में शोधार्थियों को काफ़ी मदद मिलेगी ।

इस कृति में रूप देवगुण ने पत्रात्मक साक्षात्कार को आधार बनाया है । इसके लिए उन्होंने 61 लघुकथाकारों का साक्षात्कार पत्रों के माध्यम से लिया है, जिनमें एक तरफ वे स्थापित लघुकथाकार हैं, जो वर्षों से इस क्षेत्र में काम कर रहे हैं, जैसे - मधुदीप, मधुकांत, डॉ. बलराम अग्रवाल, डॉ. शील कौशिक, डॉ. रामनिवास मानव, डॉ. प्रद्युम्न भल्ला, सुरेश जांगिड, अमृतलाल मदान, घमंडीलाल अग्रवाल, श्याम सखा श्याम, नरेंद्र गौड़ आदि  तो दूसरी तरफ हरीश सेठी जैसे कुछ नई पीढ़ी के लघुकथाकार भी हैं । लघुकथाकारों से उनकी प्रथम लघुकथा, प्रथम प्रकाशित लघुकथा, लघुकथा संकलनों में हिस्सेदारी, एकल लघुकथा संग्रह, लघुकथा और लघुकथा-संग्रह पर मिले पुरस्कार, सम्मान, लघुकथाओं के मंचन, लघुकथाकारों के साक्षात्कारों या अपने साक्षात्कार, शोध, पत्रिकाओं के प्रकाशन, अनुवाद, आलेख के प्रकाशन आदि से संबंधित प्रश्न पूछे गए हैं । इन प्रश्नों के उत्तर को उन्होंने आधार सामग्री के रूप में लेते हुए इनके विश्लेष्ण से लघुकथा के क्षेत्र में योगदान देने वाले लघुकथाकारों, पत्रिकाओं और संस्थाओं संबंधी प्रामाणिक सामग्री उपलब्ध करवाई है।

लघुकथा के प्रारम्भ के बारे में वे लिखते हैं कि इसका वास्तविक प्रारम्भ आठवें दशक से माना जाता है लेकिन उनका मानना है कि इससे पूर्व में प्रेमचन्द और जयशंकर प्रसाद की कहानियों का शोध करके इनमें लघुकथा के तत्वों को देखा जाना चाहिए । इस प्रकार वे लघुकथा का प्रारम्भ चौथे-पांचवें दशक से देखते हुए शोधार्थियों को इस विषय पर शोध करने को कहते हैं।

लघुकथा के स्वरूप के बारे में भी वे अपना मत रखते हैं -
" आधुनिक हिंदी लघुकथा में लघुता, एक घटना, कसाव, मारक व प्रभावशाली अंत का होना अनिवार्य है तथा ऐसी लघुकथा में कालदोष भी नहीं होना चाहिए । आधुनिक हिंदी लघुकथा में भाषा-शैली का भी अलग स्वरूप है । आज की लघुकथा के विषय भी समाज, परिवार तथा समसामयिक वातावरण के खोजे जाते हैं । इसके पात्र केवल मनुष्य होते हैं, पशु-पक्षी, वृक्ष आदि ।"

संक्षेप में, यह लघुकथा से संबंधित एक महत्त्वपूर्ण कृति हैं जिसमें न सिर्फ लघुकथाकारों के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ मिलती हैं, अपितु लघुकथा के क्षेत्र में हो रहे विभिन्न आयोजनों का भी पता चलता है । लघुकथा को शोध का विषय बनाने वालों के लिए तो यह कृति विशेष रूप से लाभदायक सिद्ध होगी ।

- दिलबागसिंह विर्क

Source:
http://dsvirk.blogspot.com/2017/07/blog-post.html

बुधवार, 20 मार्च 2019

पुस्तक समीक्षा । आशा की किरणें । सत्यप्रकाश भारद्वाज । समीक्षाकार: दिलबागसिंह विर्क



अपार आशाएं जगाता लघुकथा-संग्रह

लघुकथा-संग्रह - आशा की किरणें
लघुकथाकार - सत्यप्रकाश भारद्वाज
प्रकाशन -  अंशिका पब्लिकेशन
कीमत - 150 /-
पृष्ठ - 96 ( पेपरबैक )

साहित्य में लघु विधाओं को देखकर इन्हें लिखना जितना आसान लगता हैं, वास्तव में उन्हें लिखना उतना ही कठिन होता है क्योंकि इनमें गागर में सागर भरना होता है, जिसके लिए विशेष महारत की आवश्यकता होती है । आजकल लघुकथाएँ भी काफ़ी मात्रा में लिखी जा रही हैं लेकिन लघुकथाएँ चुटकला बनने से बचें और वे मात्र सपाट बयानी न हों इसके लिए लघुकथाकार का सजग होना बेहद जरूरी है । यूँ तो जीवन का हर विषय लघुकथा में समेटा जा सकता है, लेकिन विषय को लघुकथा का रूप देना ही लघुकथाकार के लिए चुनौती होती है । लघुकथा-संग्रह “ आशा की किरणें ” पढ़ते हुए यह अहसास होता है कि सत्यप्रकाश भारद्वाज जी ने इस चुनौती का सामना सफलतापूर्वक किया है । इस संग्रह में 83 लघुकथाएं है जो जीवन के विभन्न पहलुओं को समेटे हुए हैं ।

पुस्तक के शीर्षक के अनुसार आशावादी दृष्टिकोण प्रमुख रहा है, लेकिन यथार्थ का भी प्रस्तुतिकरण हुआ है । व्यंग्य की प्रचुरता है तो भाव प्रधान लघुकथाएं भी हैं । लेखक ने आदर्शवाद के प्रस्तुतिकरण में कही-कहीं अतिवादी दृष्टिकोण भी अपनाया है, लेकिन ये सब स्वस्थ समाज की कल्पना करती लघुकथाएं हैं । ‘एयर-टिकट’ और ‘सार्थक’ लघुकथाएं आदर्श पुत्र को दिखाती हैं, तो ‘बहू नहीं बेटी’ आदर्श बहू की लघुकथा है । ‘फिर से’ लघुकथा में बच्चे के कारण तलाक होते-होते बच जाता है । ‘दूरियाँ’ लघुकथा में पत्नी पति को उसके गाँव लेकर जाती है, जो सामान्य स्थितियों के विपरीत है, और यही लेखक का आशावाद है । ‘सवेरा’ भी इसी सोच के अंतर्गत लिखी गई है । बच्चा भीख मांगने की बजाए अपने बाबा को सम्मानपूर्वक जीना सिखाता है । ‘इंसानियत’ लघुकथा में देवेन दुर्घटना का शिकार हुए बच्चे को बचाता है । ‘युग-परिवर्तन’ में लड़की को लेकर दादी की सोच बदलती है । ‘अपना धरातल’ में पत्नी से प्रेरणा पाकर पति आत्मनिर्भर बनता है । ‘अपना-अपना ईमान’ लघुकथा में पत्नी पति को अपने ईमान से डोलने नहीं देती । ‘परिश्रम का फल’ लघुकथा में मेहनती विकास का सफल होना और नकलची सुरेंद्र और राकेश का फ्लाईंग स्क्वैड द्वारा पकड़ा जाना आदर्शवाद की स्थापना करता है । ‘नई भोर’ में बस्ती में स्कूल खुलवाकर और बच्चों के माध्यम से नई भोर आने का सपना देखा गया है । ‘भगवान आए’ लघुकथा में मीनू का पिता पिंकी की पढ़ाई की जिम्मेदारी भी लेता है और पिंकी के पिता के ईलाज की व्यवस्था भी करता है । ‘नया जीवन’ में आत्महत्या करने जा रही मालती को बुजुर्ग न सिर्फ बचाता है, अपितु बेटी की तरह अपनाता है । ‘संकल्प’ अच्छे लोगों को शक की नजर से देखने की बात करती लघुकथा है लेकिन इसका सच्चे इन्सान पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । ‘भ्रष्टाचार के नए कीर्तिमान’ ईमानदार व्यक्ति के राजनीति में आकर भ्रष्ट होने की बात तो करती है, लेकिन प्रजा का सबक सिखा देना आशावादी दृष्टिकोण है । ‘लोकतंत्र’ का अंत भी इसी सोच को दर्शाता है । ‘सशक्तिकरण’ का विषय भी राजनीति है । शान्ति भ्रष्ट धर्मसिंह को प्रधान पद से उतरवाकर कार्यवाहक प्रधान के रूप में हालात बदल देती है । औरत कमजोर नहीं । ‘उत्तरदायित्व’ लघुकथा में शंकुतला परिवार का उत्तरदायित्व उठाती है । औरत को अन्याय का विरोध करते और जीतते भी दिखाया गया है । ‘पसीने का मोल’ और ‘नया इतिहास’ इस प्रकार की लघुकथाएं हैं । पुरुष भी ‘आत्मसम्मान’ में अन्याय का विरोध करके जीतता है । धार्मिक सहिष्णुता को लेकर भी लेखक ने ‘ईश्वर का दूत’ और ‘राशिद भाई’ जैसी लघुकथाएं लिखी हैं ।

विधुर जीवन को दिखाती तीन लघुकथाएं है – ‘उसका संग’, ‘पराया हुआ गाँव’ और ‘अश्रुकण’ । तीनों लघुकथाओं में पत्नी के महत्त्व को दर्शाया गया है । प्रतीक के रूप में पशु-पक्षियों को लेकर मानवता पर तंज कसा गया है । इस कड़ी में ‘अंतर’, ‘आदमी की परिभाषा’, ‘आदमी जैसा’ और ‘विषैला’ लघुकथाएं आती हैं । व्यंग्य का प्रयोग अनेक लघुकथाओं में हुआ है । ‘वास्तविकता’ तथाकथित विकास पर व्यंग्य है, ‘सहानुभूति’ पत्रकारों की संवेदनशून्यता पर व्यंग्य है, ‘समझदारी’ में अधिकारियों को ख़ुश करके बच निकलने की बात है, ‘दानवता’ सती प्रथा को लेकर पुलिस और आदमियत पर व्यंग्य करती है । ‘सुरक्षा’ में पुलिस की निष्क्रियता पर व्यंग्य है । ’नए दौर का श्रीगणेश’ में पुलिस को लुटेरा दिखाया गया है । ‘नरभक्षी’ भी पुलिस का ऐसा ही रूप दिखाती है । ‘समय बहुत खराब है’ एक तरफ भक्षक पुलिस को दिखाती है तो दूसरी तरफ गुंडे में मानवीयता दिखाती है । ‘किसे सुनाएं’ नाकों पर होने वाले भ्रष्टाचार को दिखाती है । ‘समाज सेवा हो ली’ भी भ्रष्टाचार को विषय बनाती है । कमीशनखोरी को लेकर भी लघुकथाएं कही गई हैं । ‘वाह, विकास कार्य’, ‘लुटेरे’ इसी प्रकार की लघुकथाएं हैं । ‘नया उग्रवाद’ में पुलिस से मिलीभगत करके उग्रवाद के नाम पर निजी दुश्मनियाँ निकाली जाती हैं । ‘व्यवसाय’ लघुकथा में राजनीति को व्यवसाय कहा गया है, ‘ठहाके’ लघुकथा में दंगों के पीछे नेताओं के हाथ को दिखाती है तो ‘उनको किसी ने नहीं देखा’ नेताओं के दोगलेपन को दिखाती है । ‘स्वतन्त्रता का मूल्य’ में स्वंत्रता सेनानी देश के नेताओं के व्यवहार को देखकर आहत होता है ।

‘जोंक’ और ‘नकली चेहरा’ रिश्तों के सच को ब्यान करती लघुकथाएं हैं । ‘घर’ में मुखिया परिवार की अपेक्षाओं का बोझ ढोता है । ‘प्रेरणा’ में अपने व्यवहार का सन्तान पर प्रभाव दिखाया गया है । ‘उपेक्षा’ में पिता बच्चों के व्यवहार की उपेक्षा करने की बात पत्नी को कहता है, लेकिन वह ख़ुद भी उपेक्षा नहीं कर पाता । ‘अपनी-अपनी श्रद्धा’ पुजारियों की लूट और ‘सुफल’ मन्दिरों में जाती विशेष के लोगों के निषेध को विषय बनाती है । ‘विडम्बना’ लघुकथा दहशतगर्दों का कोई दीन-ईमान नहीं होता, बात को सत्य सिद्ध करती है । ‘जुनून’ में दंगों में स्त्री की अस्मिता को लूटने को विषय बनाया गया है । ‘भीख की लूट’ भिखारिन के प्रति समाज की घटिया मानसिकता को दिखाती है । ‘ममता’ में स्तनपान को लेकर लघुकथा कही गई लेकिन महिला कल्याण समिति में स्तनपान न करवाने की बात अस्वाभाविक लगती है । ‘सत्ता का नशा’ भी अतिशयोक्तिपूर्ण विषय है । यही कमी ‘भाग्यशाली’, ‘दुर्भाग्य’ और ‘पवित्र-अपवित्र’ लघुकथाओं में दिखती है ।

‘यह सिलसिला जारी रहेगा’ दहेज को लेकर संवादात्मक लघुकथा है, जिसका कोई निष्कर्ष लेखक नहीं निकालता । लेखक ने इसी शैली में ‘द्वंद्व’ लघुकथा लिखी है जिसमें सत्य-असत्य का वाद-विवाद है । ‘मर्यादा’ में लेखक पहरावे को छेड़छाड़ का कारण बताता है, ‘परोपकार’ में बच्चों के जन्म को लेकर अनपढ़ और गरीब परिवारों की सोच दिखाई गई है, ‘भ्रष्ट व्यवस्था’ में दिखाया गया है कि ईमानदार अधिकारियों को काम नहीं करने दिया जाता । ‘पराए लोग’ गरीबों के प्रति समाज की उपेक्षा को दिखाती है, तो ‘धुएँ का अंबार’ दिल्ली जैसे शहर में ग्रामीण व्यक्ति के असफल होने की बात करती है । ‘धर्म-अधर्म’ में दिखावे की धार्मिकता और पश्चाताप को दिखाया गया है । ‘कर्त्तव्यबोध’ में गुरु का पतित होने से बचना, ‘शहद में डूबे शब्द’ में दहेज़ को लेकर लड़की का खरा-खरा जवाब, ‘बंटवारा’ में लालची बेटे का वर्णन है । ‘कब्जा’ लघुकथा में जमीन पर कब्जा लेने के लिए झुग्गियों को जला दिया जाता है, ‘उनका खुदा’ जेहाद को विषय बनाती है । ‘स्थानांतरण’ में माँ और पत्नी के कटाक्ष हैं, ‘पत्र’ में पत्र के माध्यम से दोस्त की और पूर्व में अपनी दशा का चित्रण है । ‘विकास’ विज्ञान के अच्छे और बुरे पहलू को दिखाती है, ‘रोटी का स्वाद’ भूखे के लिए रोटी का महत्त्व दिखाती है तो ‘बिरादरी’ में बेटी का गैर बिरादरी के युवक से प्रेम का पिता पर प्रभाव दिखाया है ।

विषय को लेकर यहाँ इन लघुकथाओं में पर्याप्त विविधता है, वहीं इनके शिल्प में भी पर्याप्त विविधता है । लघुकथा का अंत अति महत्त्वपूर्ण होता है । लेखक ने कई लघुकथाओं में पंच लाइन का प्रयोग किया है तो कई लघुकथाओं को पाठकों के ऊपर छोड़ा है । कुछ में लेखकीय टिप्पणी भी मिलती है । एक-दो लघुकथाओं को छोड़कर संवाद छोटे, चुटीले और स्वाभाविक हैं । वर्णन और चित्रण के लिए लघुकथाओं में गुंजाइश कम ही होती है लेकिन लेखक ने इनका भी समुचित प्रयोग किया है । वर्तमान में लघुकथा को एक ही समय में कहे जाने की बात कही जाती है, ऐसे में कुछ लघुकथाएं समय दोष से ग्रसित कही जा सकती हैं, लेकिन यह दोष अखरता नहीं बल्कि यह कुछ लघुकथाओं की मांग लगता है । संक्षेप में, सत्यप्रकाश भारद्वाज का लघुकथा-संग्रह “ आशा की किरणें ” अपार आशाएं जगाता है ।

- दिलबागसिंह विर्क 

साभार:
https://dsvirk.blogspot.com

मंगलवार, 19 मार्च 2019

पुस्तक समीक्षा । दिव्याँग जगत की 101 लघुकथाएँ । डॉ. राजकुमार निजात । समीक्षाकार: दिलबागसिंह विर्क



समाज में दिव्यांगों की दशा और दिशा का चित्रण करता लघुकथा-संग्रह

लघुकथा-संग्रह – दिव्याँग जगत की 101 लघुकथाएँ
लेखक – राजकुमार निजात
प्रकाशक – एस.एन.पब्लिकेशन
पृष्ठ – 136
कीमत – 400 /- ( सजिल्द )

अनेकता जहां भारतीय समाज की विशेषता है वहीं भेदभाव का होना इसके माथे पर कलंक जैसा है । भारतीय समाज में जाति, आर्थिकता के आधार पर ऊँच-नीच तो है ही, शारीरिक व मानसिक सक्षमता के आधार पर भी वर्ग हैं । निशक्तजन दिव्यांग कहलाते हैं। कई बार समाज दिव्यांगों के प्रति सामान्यजन जैसा व्यवहार नहीं करता । कहीं इनके प्रति घृणा है, तो कहीं सहानुभूति जबकि बहुधा दिव्यांग इन दोनों को नहीं चाहता । वो चाहता है कि उसे सामान्य पुरुष-स्त्री जैसा सम्मान दिया जाए । राजकुमार निजात जी ने समाज के दिव्यांगों के प्रति नजरिए का बड़ी बारीकी से विश्लेषण करते हुए ‘ दिव्यांग जगत की 101 लघुकथाएँ ’ नामक लघुकथा-संग्रह का सृजन किया है । इस संग्रह में समाज में दिव्यांगों की स्थिति का वर्णन तो है ही, दिव्यांगों के नजरिए से समाज को भी देखा गया है । दिव्यांगों की मनोस्थिति को भी समझा गया है । कुछ दिव्यांग अपनी दिव्यांगता के कारण हीनभावना के शिकार हो जाते हैं, जबकि कुछ अपने हौसले से दिव्यांगता पर विजय पा लेते हैं । लेखक ने इन सभी स्थितियों को लघुकथाओं की कथावस्तु में पिरोया है ।

दिव्यांगता कोई गुनाह नहीं लेकिन कई बार दिव्यांग ख़ुद तो कभी उनके माँ-बाप भी इसे शाप मान बैठते हैं । विष्णु की माँ विष्णु को पिछले जन्म का दंड मानती है, हालंकि उसकी ममता उसे तुरंत संभाल लेती है । ‘ दुनियावाले ’ लघुकथा बड़ी सटीकता से समाज की सोच को दिखाती है । दिव्यांग को यहाँ भिखारी समझ लिया जाता है । समाज को इस बात का भी डर सताता रहता है कि दिव्यांग की सन्तान भी दिव्यांग न हो जाए जबकि शारीरिक दिव्यांगता के मामले में ऐसा होने का कोई कारण नहीं होता । लेखक ने ‘ आगमन ’ लघुकथा में इस सोच को निर्मूल साबित किया है । नेताओं की दिव्यांगों के प्रति दोहरी सोच को ‘ पर्दाफाश ’ लघुकथा में दिखाया गया है । ‘ उसका दर्द ’ लघुकथा दिव्यांगों के दर्द को न समझने का चित्रण करती है । अन्य दिवसों की तरह दिव्यांग दिवस की महज औपचारिकता की जाती है । ‘ दिखावे ’ लघुकथा भी बड़े लोगों की दिखावे की प्रवृति को दिखाती है, दिव्यांगों से उनकी सहानुभूति नहीं होती । ‘ सम्पूर्ण दिव्यांगता ’ में सरकारी भ्रष्टतन्त्र की दिव्यांग के प्रति असंवेदनशीलता को दिखाया गया है । ‘ आधी टिकट ’ लघुकथा सरकार की सोच पर व्यंग्य करती है ।

समाज कई बार भेदभाव करता है तो कई बार लापरवाही । दिव्यांगों, विशेषकर मानसिक दिव्यांगों को विशेष देखभाल की जरूरत होती है । ‘ निरंतर ’ लघुकथा दिव्यांग बच्चों पर माँ-बाप के विशेष ध्यान की बात करती है लेकिन लेखक ने लापरवाही को दिखाती हुई लघुकथाओं का भी सृजन किया है । मानसिक रूप से कमजोर व अस्वस्थ कपिला को उसकी माँ अकेले स्कूल भेज देती है । एक माँ खिलौने बेचने भेज देती है तो करुणा की मां रेलवे स्टेशन पर बेटी को पीछे छोड़ आती है । ‘ उसकी बेटी ’ नामक इस लघुकथा में लेखक बड़ा महत्त्वपूर्ण संदेश भी देता है कि मानसिक दिव्यांग के गले में पहचान-पत्र डाला जाना चाहिए । लेखक ने इन लापरवाहियों को बड़े हादसे में बदलते नहीं दिखाया क्योंकि समाज में अच्छे लोग भी हैं । अच्छे-बुरे दोनों प्रकार के लोगों को ‘ लकवा ’ लघुकथा में बड़ी खूबसूरती से दिखाया गया है । नया चेयरमैन गीता को स्कूल से सिर्फ इसलिए निकाल देता है, क्योंकि वह दिव्यांग है लेकिन अभिभावक इसका विरोध करते हैं । समाज के अच्छे रूप को लेखक ने अनेक जगहों पर दिखाया है । ‘ भीतर से ’ लघुकथा दिखाती है कि कैसे दिव्यांग बच्चे के भीतर स्वस्थ बच्चे को पैदा किया जा सकता है । दिव्यांगों को काम करने देना चाहिए क्योंकि उन्हें काम से रोकना उनमें तनाव पैदा करता है, हीनता की ग्रन्थि को उत्पन्न करता है । उत्तर की माँ भी उसे काम करने से रोकती है, जिससे वह तनावग्रस्त होता है और इस तनाव से उसे मुक्ति तभी मिलती है जब वह चुपके से काम कर देता है । ‘ जवाब ’ लघुकथा के आवारा और आज़ाद बच्चे भी यही संदेश देते है कि दिव्यांगों को खेलने दिया जाना चाहिए ।
                     दिव्यांगों को सामन्यत: माँ-बाप का विशेष स्नेह मिलता है । लेखक ने इसे भी लघुकथाओं का विषय बनाया है । ‘ लबालब दामन ’ लघुकथा में दामिनी अपने बेटे से प्रेमपूर्वक व्यवहार करती है । व्यापक को उसके पिता छोटे बच्चों वाली पींग से झूला झुलाते हैं । माँ-बाप के अतिरिक्त समाज के अन्य लोग भी उनकी ख़ुशी के लिए और उनको आगे बढने की प्ररेणा देने के लिए कार्य करते हैं । मिंटू गोपाल की मदद से टॉप स्वीप झूले पर फिसल पाता है ।

समाज के बहुत से लोग दिव्यांगों की सेवा के लिए अपना जीवन अर्पित कर देते हैं, लेखक ने उन पर भी कलम चलाई है । डॉ. विराट दिव्यांगों की सेवा के लिए अमेरिका की प्रैक्टिस छोड़कर भारत आ जाता है । डॉ. दीप्ति सप्ताह में एक पोलियो केस का ऑप्रेशन मुफ्त करती है । डॉ. परमेश्वर दिव्यांग भाग्यलक्ष्मी से शादी करने को तैयार हो जाते हैं । समाज के साथ-साथ सरकार भी दिव्यांगों के लिए मुफ्त पास और नौकरी की व्यवस्था करती है ।

समाज के साथ-साथ दिव्यांगों की सोच और जीवन-शैली को भी इस संग्रह में दिखाया गया है । दिव्यांग होने से मानवीय गुणों में परिवर्तन नहीं आते । लेखक ने अनेक लघुकथाओं के माध्यम से दिव्यांगों में मौजूद गुणों को दिखाया है । ‘ संजीवनी ’ लघुकथा बताती है कि दिव्यांग रेवती में सेवाभाव बरकरार रहता है । ‘ समर्पित ’ लघुकथा में बताया गया है कि दिव्यांगता से समर्पण में कमी नहीं आती । दिव्यांग होने का अर्थ यह नहीं कि वे अपने कर्त्तव्य में कोताही बरतेंगे । ‘ गुहार ’ लघुकथा उनकी कर्त्तव्यनिष्ठ को दिखाती है । ‘ दिल से ’ लघुकथा में कैटरिंग वाले का कथन बहुत कुछ कहता है –
“ तुम जैसे लोग दिल से काम करते हैं । बाकी लोग तो काम के लिए काम करते हैं ।” ( पृ. – 101 )
‘ चौकसी ’ लघुकथा उनकी सतर्कता को दिखाती है । वे सबके लिए प्रार्थना करते हैं । ‘ प्रार्थना ’ लघुकथा इसी उदारता को दिखाती है । दिव्यांग कुलदीप अपने लिए मांग न करके भगवान से प्रार्थना करता है कि धर्मान्धों को सद्बुद्धि दे । दिव्यांग भी सामान्य आदमी की तरह अन्याय का विरोध करते हैं । ‘ महाकाल ’ लघुकथा में गूंगा-बहरा कर्मचारी लड़की की इज्जत लुटने से बचाता है । दिव्यांग किन्नर अन्य किन्नरों की मदद से बदमाश के चंगुल से एक दिव्यांग की जवान बहन को बचाता है । ‘ बाहुपाश ’ लघुकथा में मानसिक दिव्यांग लक्ष्मण बड़े भाई से अपनी माँ को बचाता है । दिव्यांग निवेश सर्वजन हिताय की सोच रखता है । वह अपने पिता से पूछता है कि क्या मछलियाँ भी दिव्यांग होती है और उसका प्रश्न करना उसके पिता को मछलियाँ पकड़कर बेचने की बजाए नाव बनाकर बेचने का व्यवसाय शुरू करवा देता है । एक दिव्यांग, व्यक्ति में ही नहीं पौधों की अपूर्णता पर भी द्रवित हो उठता है, यह इन्द्रानी के माध्यम से दिखाया गया है । जब कोई दिव्यांग अपनी दिव्यांगता की आड़ में समाज पर झूठा दोषारोपण करता है तो दिव्यांग ही उसकी गलतफहमी दूर करता है । शारीरिक दिव्यांग सिर्फ शरीर से दिव्यांग हैं, उनकी सोच स्वस्थ है । ‘ भरपाई ’ लघुकथा में दिव्यांग बच्चे की प्रोढ़ सोच को दिखाया गया है । ‘ न्याय दृष्टि ’ लघुकथा में दिव्यांग अपनी दिव्यांगता के लिए किसी को दोषी नहीं मानता है, न माता-पिता को, न ईश्वर को । ‘ ऑफर ’ लघुकथा में शत-प्रतिशत दिव्यांग दो घंटे की देर को स्वीकार कर लेता है लेकिन वह अपने लिए आरक्षित सीट पर बैठे कैंसर मरीज को नहीं उठाना चाहता । गणेश दिव्यांग होकर भी भीतर से स्वस्थ है, तभी वह ख़ुद को मिल सकने वाली नौकरी उस युवक के लिए छोड़ देता है, जिसकी माँ दिव्यांग है और जिसके कंधों पर पाँच बहनों की जिम्मेदारी है । ऐसे दिव्यांगों का भी वर्णन है जो दिव्यांगता समाप्त हो जाने पर बस पास का प्रयोग नहीं करते । सरकारी नौकरी को इसलिए ठुकरा देते हैं कि वे इसे ख़ुद के बूते से हासिल करना चाहते हैं । वे यह नहीं चाहते कि कोई उन्हें दिव्यांग कहे –
“ लेकिन मुझे कोई लंगड़ा नहीं कहेगा । मैं पाँव से दिव्यांग ज़रूर हूँ मगर काम से लंगड़ा नहीं हूँ ।” ( पृ. – 33 )
उनमें आत्मसम्मान की भावना भी होती है । ‘ पलटवार ’ लघुकथा में दिव्यांग उन दबंगों के हाथ से पुरस्कार लेने से इंकार करता है, जिन्होंने उन्हें दिव्यांग बनाया है ।

अपनों का प्यार बड़ा महत्त्वपूर्ण है । कुबड़ा विनोद पोते का साथ पाकर अपना दर्द भुला देता है । वह अकेला भी नहीं चल पाता है, लेकिन पोते को पीठ पर बैठाकर चलता है । वे भाईचारे को भी महत्त्व देते हैं –
“ यदि हमने प्यार और भाईचारा खो दिया तो फिर हमारे पास शेष बचेगा भी क्या ? हम विशेष हैं इस संसार में । हम भीतर से स्वस्थ हैं, लेकिन अंगों से स्वस्थ नहीं हैं ।” ( पृ. – 49 )
हौसले और दृढ़ संकल्प को भी लेखक ने दिखाया है । बौने कद की शिल्पा अपने दृढ़ संकल्प से डॉक्टर बनती है । निधि को अपनी वर्किंग एनर्जी पर विश्वास है । दिव्यांग गणेश गुड लक नहीं गुड चैलेंज कहलवाना पसंद करता है । सचिन वैज्ञानिक बनकर अपनी दिव्यांगता जैसी दिव्यांगता को समाप्त करना चाहता है । विजय का हौसला उसके अनेक हाथ पैदा कर देता है । ‘ खिलाड़ी ’ लघुकथा में दिव्यांग बच्चे का खिलौने बेचकर खेलने की बात करना उसके जीवट का प्रमाण है । मेघा दिव्यांग है और मेहनत से सर्जन बनती है । वह पोलियो से लड़ने की शपथ लेती है । गणेश भी हिम्मत से काम लेता है, भले ही इसका कारण भूख है । ‘ नई परिभाषा ’ लघुकथा में दिव्यांग तैरकर न सिर्फ अपनी जान बचाता है, अपितु वह एक अन्य दिव्यांग की भी जान बचाता है ।

हिम्मत के लिए किसी-न-किसी प्ररेणा का होना आवश्यक है । लेखक ने समाज में व्याप्त उन घटनाओं और पात्रों को उभारा है जो दिव्यांगों के प्ररेणा स्रोत बनते हैं । ‘ फुल स्पीड ’ लघुकथा में दिव्यांग फिल्म के इस संवाद से प्ररेणा लेता है –
“ पाँव नहीं तो क्या हुआ, दोनों हाथ तो सलामत हैं ।” ( पृ. – 92 )
‘ मंजिल की ओर ’ लघुकथा में दिव्यांग प्रो. द्विवेदी परिंदे से प्ररेणा लेकर कहते हैं –
“ कभी थक जाओ कभी चोट खाकर गिर पड़ो या कभी जख्मी हो भी जाओ तो किसी मदद की ओर मत देखना, बस, जैसे-तैसे चल पड़ना । चल पड़ोगे तो दौड़ने की ताकत भी आ जाएगी । हमें मदद की ओर नहीं मंजिल की ओर देखना चाहिए ।” ( पृ. – 124 )
मीनू नामक बच्चा दूसरे बच्चों को देख हौसला करता है और हाथ से तिपहिया साइकिल चला लेता है । माँ भी उसे सहयोग देती है । ‘ दौड़ ’ लघुकथा में नदी का पानी विजयेन्द्र को पुन: तैरने की प्ररेणा देता है । दिव्यांगों की खेल प्रतियोगिताएँ भी इस दिशा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं । ‘ सितारों से भी आगे ’ इसी संदेश को प्रस्तुत करती है ।

दिव्यांग समझते हैं कि उनके लिए सुविधाओं से जरूरी है उनकी सोच । ‘ समस्या ’ लघुकथा में दिव्यांग अधिवेशन का स्वागताध्यक्ष कहता है –
“ मकान हमारी बड़ी समस्या नहीं है । हमारी समस्या तो अपनी स्थिति है । हम कामना करें कि हमें भीतर से ऊर्जा मिलती रहे ताकि हमें इस स्थिति से लड़ने की ताकत मिले ।” ( पृ. – 93 )
नकारात्मक सोच से बचने की बात की गई है ‘ आत्मबल ’ लघुकथा में –
“ आत्मबल हमारी सबसे बड़ी दवाई है । हमारे लिए नेगेटिव सोचना जीवन को कमजोर बनाना है ।”  ( पृ. – 46 )

नकारात्मकता पर कई बार चाहकर भी विजय नहीं पाई जा सकती । दिव्यांगों में इसके पाये जाने के आसार रहते हैं, इसलिए लेखक ने इस पहलू को भी छुआ है । लेखक ने उन्हें उनकी हीनभावना के साथ छोड़ा नहीं, अपितु किसी-न-किसी पात्र के माध्यम से इससे बाहर निकाला है । दिव्यांग दिनेश में हीनभावना है, लेकिन महिमा उसकी हीनभावना को दूर करती है । सार्थक हीनभावना का शिकार है कि उससे शादी कौन करेगा, लेकिन उसके गुरु एक दिव्यांग लड़की जो कंप्यूटर में दक्ष है, से उसकी शादी करवा देते है, इससे उसके जीवन को सुपथ मिलता है ।

लेखक ने इस संग्रह में मानसिक और शारीरिक सभी प्रकार के दिव्यांगों को लिया है । शारीरिक दिव्यांगों में बौनापन, हाथ, पैर, कान, नाक, आँख, गूंगा-बहरा आदि सभी प्रकार के हैं । उनके दिव्यांग होने के कारणों का भी वर्णन है । कुछ जन्मजात हैं तो कुछ अन्य कारणों से दिव्यांग हुए हैं । इनमें सुभाष का हाथ चारा मशीन में आने के कारण कट जाता है । विनोद रीढ़ की हड्डी के रोग के कारण कुबड़ा हो जाता है । सचिन ए.एम.सी बीमारी से ग्रस्त है । राधिका रेलवे क्रासिंग पर रेल की चपेट में आ जाती है । ‘ पलटवार ’ में दबंग स्वस्थ व्यक्ति के हाथ काट देते हैं । ‘ उसकी रौशनी ’ लघुकथा में दिव्यांगता का जल्दबाजी के कारण हुई दुर्घटना है । दंगाई भीड़ में कुचला जाना, वैन में आग लगना, डॉक्टर की लापरवाही आदि अन्य अनेक कारण हैं ।

साहित्य समाज का प्रतिबिम्ब ही नहीं होता, अपितु मार्गदर्शक भी होता है । इस लघुकथा-संग्रह को देखकर कहा जा सकता है कि लेखक इस कसौटी पर खरा उतरा है । समाज में दिव्यांगता के जितने दृश्य हो सकते हैं, लगभग उन सभी का वर्णन इस संग्रह में मिलता है । लेखक ने कोरे यथार्थ को बयां करने में विश्वास नहीं रखा, अपितु अनेक जगहों पर आदर्शवादी अंत भी किया है जो समाज को राह दिखाता है, यही इस संग्रह की विशेषता है और यही लेखक की कामयाबी है ।

- दिलबागसिंह विर्क

साभार:
https://dsvirk.blogspot.com

सोमवार, 18 मार्च 2019

पुस्तक समीक्षा । हौंसलों की लघुकथाएँ । डॉ. राजकुमार निजात । समीक्षाकार: दिलबागसिंह विर्क



दिव्यांगों के जीवट को दिखाती हुई लघुकथाएँ

पुस्तक - हौंसलों की लघुकथाएँ
संपादक – राजकुमार निजात
प्रकाशन – धर्मदीप प्रकाशन
पृष्ठ - 144
कीमत – 450 /- ( सजिल्द )

साहित्य का उद्देश्य है, कि वह दबे-कुचलों की आवाज बने । सामान्यत: दिव्यांग-जन समाज की उपेक्षा का शिकार होते आए हैं । ऐसे में साहित्यकार का कर्त्तव्य है, कि वह उनको साहित्य का विषय बनाकर उनकी स्थिति में सुधार लाने का प्रयास करे । ऐसा ही प्रयास किया है, डॉ. राजकुमार निजात ने संपादित कृति “हौसलों की लघुकथाएं” द्वारा । यह कृति तीन भागों में विभक्त है । पहले भाग में आलेख हैं, दूसरे भाग में लघुकथाएँ हैं और तीसरे भाग में लघुकथाकारों का परिचय दिया गया है ।

आलेख खंड में पांच आलेख हैं । राजकुमार निजात ने अपने आलेख ‘दिव्यांग जन साहित्य में इस संकलन की यात्रा’ के द्वारा इस संकलन की स्थिति को स्पष्ट किया है । वे दिव्यांग जन के प्रति साहित्यकार के कर्त्तव्य के बारे में लिखते हैं –
“मैं समझता हूँ, दिव्यांग जन की पीड़ा को साहित्यकार अपने लेखन के माध्यम से अभिव्यक्त करें तो यह एक नई साहित्यधारा की पहल होगी ।” ( पृ. – 17 )
डॉ. सतीशराज पुष्करणा अपने आलेख ‘हिंदी लघुकथाओं में दिव्यांगता का चित्रण’ में दिव्यांग जन को लेकर साहित्य में हुए कार्य का वर्णन करते हैं । वे दृढ इच्छाशक्ति पर भरोसा करते हुए लिखते हैं –
“यदि कोई व्यक्ति जीवन में कुछ करना चाहता है, तो वह अपने आत्मबल एवं इच्छाशक्ति के बल पर कर गुजरता है । दिव्यांगता ऐसी स्थिति में आड़े नहीं आती ।” ( पृ. - 21)
डॉ. पुष्पा जमुआर अपने आलेख “दिव्यांगता के प्रति सामाजिक चेतना की दशा और दिशा” में दिव्यांगता पर लिखती हैं –
“दिव्यांगता को तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है । शारीरिक दिव्यांगता, मानसिक दिव्यांगता और आध्यात्मिक दिव्यांगता । शारीरिक दिव्यांगता भी दो कारणों से होती है । प्राकृतिक और अप्राकृतिक ।” ( पृ. - 28 )
इस आलेख में वे विश्व और भारत में दिव्यांग-जन के लिए हुए कार्यों का उल्लेख करती हैं । डॉ. अमरनाथ चौधरी ‘अब्ज’ अपने आलेख “समाज की विकलांग सोच को बदलना जरूरी” में लिखते हैं-
“इतिहास में दिव्यांगों द्वारा किए गए कार्यों की गाथा अनेक रूपों में है । आवश्यकता है अवसर प्रदान करने की ।” ( पृ. – 37 )
वे सूरदास, मिल्टन, रूज वेल्ट के उदाहरण देते हैं । सयुंक्त राष्ट्र संघ के कार्यों और विभिन्न राज्य सरकारों के नजरिये का वर्णन करते हैं । डॉ. प्रद्युम्न भल्ला अपने आलेख “बढ़ रहा लघुकथा के कथ्यों का दायरा” में लघुकथा के बदलते विषयों का वर्णन करते हैं । वे लिखते हैं –
“पिछले कुछेक वर्षों से दिव्यांगता को लेकर भी लघुकथाकारों ने अनेक रचनाएं लिखी हैं ।” ( पृ. – 46 )

पुस्तक के दूसरे भाग में 26 लघुकथाकारों की 105 लघुकथाएं हैं, जिनमें डॉ. अमरनाथ चौधरी ‘अब्ज’, पारस दासोत, डॉ. मधुकांत, डॉ. राजकुमार निजात की दस-दस लघुकथाएं हैं । हरनाम शर्मा की छह; डॉ. प्रद्युम्न भल्ला, डॉ. रामकुमार घोटड, लक्ष्मी रूपल, डॉ. सतीशराज पुष्करणा, सतीश राठी की पाँच-पाँच लघुकथाएँ हैं । आलोक भारती, प्रतापसिंह सोढ़ी, पुष्पलता कश्यप की तीन-तीन; डॉ. कुंवर प्रेमिल, ज्योति जैन, पुष्पा जमुआर, बी.एल. आच्छा, डॉ. भगवानसिंह भास्कर, डॉ. मिथिलेश कुमारी, डॉ. योगेन्द्रनाथ शुक्ला, राजेन्द्र मोहन त्रिवेदी बन्धु, संतोष श्रीवास्तव, संतोष सुपेकर, सूर्यकांत नागर, सुरेश शर्मा की दो-दो लघुकथाएँ और मंगत कुलजिंद की एक लघुकथा है ।

डॉ अब्ज की लघुकथाओं का पात्र ईश्वर में आस्था व विश्वास से जीवन की संजीवनी पाता है, दिव्यांग होकर भी अनुशासित और समय का पाबन्द है, कडक है, स्वाभिमानी है, उर्जावान है, शिष्य का पूजनीय है । एक पात्र कहता है –
“स्वाभिमानी स्वाभिमानी होता है, चाहे वह दिव्यांग ही क्यों न हो ।” ( पृ. – 54 )
वे गणतन्त्र दिवस के भीतर अपाहिज को रेंगता भी दिखाते हैं ।

आलोक भारती मंदबुद्धि को पढाने का रास्ता बताते हैं, दिव्यांग होने का कारण बताते हैं और दिव्यांग को देखकर आतंकवादी तक को दया आ जाती है । कुंअर प्रेमिल की लघुकथाएँ संकेतात्मक हैं और स्वस्थ लोगों की विकलांग सोच को दिखाती हैं । ज्योति जैन भी दहेज लोभी को ही विकलांग कहती है और उसकी पात्र पायल दिव्यांग से शादी करने को तैयार है । मैडम जब स्वस्थ थी, तब दिव्यांगों को मंच पर बुलाने से परहेज करती थी, अब खुद वह इसको भुगत रही है । प्रतापसिंह सोढ़ी दिव्यांग यात्री के हौसले और मानवता को दिखाते हैं, जिससे अन्य यात्री शर्मसार हो उठते हैं । रिंग रोड चौराहे पर हुई दुर्घटना के समय भी दिव्यांग की ललकार लोगों को फर्ज अदा करने के लिए उकसाती है । दिव्यांग की पत्नी पति का प्रेम पाकर खुद को खुशनसीब समझती है ।

डॉ. प्रद्युम्न भल्ला उस दिव्यांग सोच से बचना चाहते हैं, जिसके कारण औलाद माँ-बाप को त्याग देती है । दिवाकर जिन्दादिली से कहता है –
“नहीं...अपंगता शरीर में नहीं सोच में होती है...मेरी सोच स्वस्थ है ।” ( पृ. – 66 )
ऐसी ही स्वस्थ सोच का पात्र भीख लेने से इंकार कर देता है । अधिकारियों की दिव्यांग दिवस के नाम पर मौज मस्ती को भी दिखाया गया है ।

पारस दासोत का दिव्यांग पात्र खुद को बेचारा और दिव्यांग नहीं मानता । एक सूरदास दूसरे सूरदास को खुद को अँधा न कहने का सबक सिखाता है । मिलकर कहानी बनाने की बात कहता है । एक दिव्यांग दूसरे दिव्यांग को कंधे से कंधा मिलाकर चलने को कहता है । दिव्यांग औरत के प्रति समाज की बुरी दृष्टि को दिखाया है और दिव्यांग औरत का स्वाभिमान भी । डॉक्टर फूल के माध्यम से दिव्यांग हुए बच्चे को हौसला देता है । पुष्पलता कश्यप विकलांगता सर्टिफिकेट बनाने के भ्रष्टाचार को उजागर करती है । उसका विकलांग पात्र स्वाभिमानी है और हमदर्दी नहीं चाहता । विधवा और प्रेम विवाह को न मानने वाले चाचा जी को वे विकलांग मानती हैं । डॉ. पुष्पा जमुआर दिव्यांगों की वीरता को दिखाती है । बी.एल.आच्छा झूठा दिव्यांग सर्टिफिकेट बनाने और बनवाने को लघुकथा का विषय बनाते हैं, विकलांग यात्री की सहृदयता को दिखाकर सकलांग यात्रियों की विकलांगता को दिखाते हैं । डॉ. भगवानसिंह भास्कर दिव्यांग जनसेवक की सेवा भावना को दिखाते हैं, दिव्यांग अपनी हिम्मत से अध्यापक बनता है और अन्य दिव्यांगों के लिए प्रेरणा स्रोत बनता है ।

मधुकांत अपनी लघुकथाओं में दिव्यांगों की हिम्मत की बात करते हैं, उनकी बहादुरी को दिखाते हैं । दिव्यांग रक्तदान देकर समाज की उदारता से उऋण होता है । वे दिव्यांग बनाए जाने की बात उठाते हैं, दिव्यांग कुतिया अपने बच्चों के प्रति चिंतित है । बच्चा आँख पर पट्टी बांधकर सूरदास की पीड़ा को समझ जाता है, रेआंश लंगड़ी चिड़िया की पीड़ा को महसूस करता है । डॉ. अंजना दिव्यांग बच्ची को काम देने के साथ पढने के लिए कहती है । डॉ. मिथिलेश कुमारी मिश्र अपनी लघुकथाओं में ऐसे साहसिक कदम की बात करती हैं, जिसमें स्वस्थ लड़की अंधे से शादी करने को तैयार है । एक पिता की ख़ुशी की सीमा नहीं रहती जब बेकार हाथों वाला बेटा पैर में पैन फंसाकर लिखना शुरू करता है । मंगत कुलजिंद अपनी एकमात्र लघुकथा में दिव्यांग के माध्यम से लंगर व्यवस्था का हाल दिखाते हैं । डॉ. योगेन्द्रनाथ शुक्ल दिव्यांगों के प्रति आमजन के पूर्वाग्रहों को दिखाते हुए सूरदास के स्वाभिमान को दिखाते हैं । दिव्यांग अपनी दिव्यांगता के कारण शातिर औरत से बच जाता है ।

राजकुमार निजात अपनी लघुकथाओं में हिम्मती और स्वाभिमानी दिव्यांगों का चित्रण करते हैं । दिव्यांग पात्र उस मेहमान से सम्मान लेने से इंकार कर देता है जो उसको दिव्यांग बनाए जाने के वक्त चुप था । उसके पात्र को लंगड़ा कहलवाना गवारा नहीं –
“लेकिन मुझे कोई लंगड़ा नहीं कहेगा । मैं पाँव से दिव्यांग जरूर हूँ, मगर काम से लंगड़ा नहीं हूँ ।” ( पृ. – 98 )
उनके पात्र ईमानदार और कर्मठ हैं, वे मिलजुल कर रहने में विश्वास रखते हैं । दिव्यांग बच्चों के प्रति माँ के स्नेह को दिखाया गया है । राजेंद्र मोहन त्रिवेदी बन्धु इलाहाबाद से कन्याकुमारी पहुंचकर थोक विक्रेता बने दिव्यांग के जीवट को दिखाते हैं । अंधा लंगड़े के स्वाभिमान को जगाता है । डॉ. रामकुमार घोटड उन दिव्यांगों का चित्रण करते हैं जो दूसरों के लिए अपनी जिंदगी दांव पर लगा देते हैं । नेत्रदान जैसा महादान करने को तैयार हैं । दिव्यांग मिलकर धंधा करने का मन बनाते हैं । लेखक ने दिव्यांगों में हीन भावना को भी दिखाया हैं और उसे दिव्यांग के माध्यम से ही दूर करवाया है । लक्ष्मी रूपल समाज की दकियानूस सोच को भी दिखाती है और दयालु लोगों को भी । डॉ. सतीशराज पुष्करणा समाज के सहयोगी रवैये को दिखता है । दिव्यांग पात्र दूसरे दिव्यांग को देखकर आत्मविश्वास हासिल करता है । उनके पात्र स्वाभिमानी हैं, आत्मविश्वास से भरे हैं । एक पात्र कहता है –
“बाबू ! मुझे सहानुभूति नहीं, श्रम और ईमान का पैसा चाहिए ।” ( पृ. – 119 )

सतीश राठी दिव्यांग की बेबसी को दिखाते हैं । रिश्ते स्वार्थी हैं । वे विकलांगता को संकेत रूप में भी प्रस्तुत करते हैं । संतोष श्रीवास्तव आशा को दिखाती हैं, साथ ही वे अन्याय का विरोध न करने को अपंगता कहती हैं । संतोष सुपेकर का दिव्यांग पात्र खुद को बेचारा नहीं कहलवाना चाहता । वहीं वे समाज के दोहरे चेहरे को उजागर करते हैं । सूर्यकांत नागर की लघुकथाएँ संकेतात्मक हैं । सुरेश शर्मा दिव्यांग सैनिक की खुद्दारी को दिखाते हैं । हरनाम शर्मा अपनी लघुकथाओं में दिव्यांगों के लिए आरक्षित सीट पर यात्रा करने वाले को मानसिक दिव्यांग कहते हैं । दिव्यांग पिता का सच छुपाने वाले पात्र से दूसरा पात्र दूरी बना लेता है । वे पद्मश्री तारानाथ की कथा कहते हैं । रोशन अली के माध्यम से गाय का प्रसंग उठाते हैं ।

विषयों के आधार पर कहा जा सकता है, कि अधिकाँश लघुकथाएँ दिव्यांगों के जीवट को दिखाती हुई लघुकथाएँ हैं । दिव्यांगता के कारणों का जिक्र है । समाज का नजरिया दिखाया गया है । स्वस्थ समाज की दिव्यांगता को दिखाती लघुकथाएँ भी हैं । शैली के दृष्टिकोण से अलग-अलग लघुकथाकारों ने अलग-अलग शैली को अपनाया है । संवाद की प्रधानता है । अनेक लघुकथाओं में पात्रों का नामकरण नहीं किया गया । संकेतात्मक लघुकथाएँ भी हैं ।

संक्षेप में, राजकुमार निजात जी के कुशल संपादन में यह दिव्यांगों के जीवट को दिखाता उत्कृष्ट लघुकथा-संग्रह है, जिसके लिए संपादक और लेखक बधाई के पात्र हैं ।

- दिलबागसिंह विर्क

साभार:
https://dsvirk.blogspot.com

रविवार, 17 मार्च 2019

पुस्तक समीक्षा । हरियाणा की बाल-लघुकथा । डॉ. राजकुमार निजात । समीक्षाकार: दिलबागसिंह विर्क



बालमन के विविध पहलुओं को उद्घाटित करता लघुकथा-संग्रह

लघुकथा-संग्रह - हरियाणा की बल लघुकथाएँ
संपादक - डॉ. राजकुमार निजात
प्रकाशक - एस.एन.पब्लिकेशन
पृष्ठ - 176
कीमत - 550 / - ( सजिल्द )

बच्चों को ईश्वर का रूप कहा जाता है, क्योंकि वे बड़े भोले और साफ़-दिल होते हैं । बालमन को समझने के लिए बड़ी पारखी नजर की जरूरत होती है । “हरियाणा की बाल-लघुकथा ” एक ऐसा लघुकथा-संग्रह है, जिसमें एक-दो नहीं, अपितु ऐसे बाईस पारखी लघुकथाकार शामिल हैं, जिन्होंने बालमन का बड़ी बारीकी से विश्लेषण किया है और बड़ी सटीकता से इसको ब्यान किया है । इन लघुकथाकारों का संबंध भले ही हरियाणा से है, लेकिन इनकी ख्याति वहां तक फैली हुई है, जहाँ तक लघुकथा की ख्याति है । इन लब्धप्रतिष्ठ लघुकथाकारों को एक विषय पर एक साथ लाने का महत्ती कार्य किया है राजकुमार निजात जी ने ।

इस संग्रह को तीन भागों में बांटा गया है । प्रथम खंड में 21 लघुकथाकारों की  लघुकथाएं हैं, दूसरे खंड में संपादक राजकुमार निजात की चालीस लघुकथाएँ हैं । तीसरे खंड में सभी लघुकथाकारों का परिचय है । पहला और दूसरा खंड दो संकलनों का आभास देता है, क्योंकि दोनों की भूमिका अलग-अलग है । पहले खंड से पूर्व राजकुमार निजात का संपादकीय और माधवराज सप्रे का आलेख है, जबकि दूसरे खंड से पूर्व हरनाम शर्मा का आलेख है ।

प्रथम खंड में 21 लघुकथाकारों की 92 लघुकथाएं हैं, जिनमे 22 प्रो. अशोक भाटिया जी की हैं । डॉ. मधुकांत जी 9, प्रो. रूप देवगुण, डॉ. घमंडीलाल अग्रवाल, डॉ. शील कौशिक और नवलसिंह की 5-5 लघुकथाएँ, डॉ. कृष्णलता यादव और डॉ. आरती बंसल की 4-4, प्रो. जितेन्द्र सूद, प्रो. इंदिरा खुराना, हरनाम शर्मा, डॉ. मुक्ता, डॉ. कमलेश भारतीय, डॉ. उषा लाल, सुरेखा शर्मा और डॉ. अनिलकुमार गोयल सवेरा जी की 3-3, डॉ. रामनिवास मानव, सत्यप्रकाश भारद्वाज, डॉ. अनिल शूर आज़ाद और रघुविन्द्र यादव की 2-2 और डॉ. सुरेन्द्र गुप्त जी की एक लघुकथा शामिल है ।

प्रो. जितेन्द्र सूद ने समाज के बालमन पर पड़ते हुए प्रभाव को रेखांकित करते हुए ‘यह गीत न गाना’ और ‘मैं फिर यह न देखूँ’ लघुकथाएँ लिखी हैं । दहेज़ के कारण जलाई जाने वाली दुल्हनों की बात सुनकर गुडिया कह उठती है –
“मैं कभी दुल्हन नहीं बनूंगी, दादी ।” ( पृ. – 38 )

इसी प्रकार पुवी जीवहत्या को देख दहल जाती है । बंतो भेड़िया बने पिता की हवस की शिकार पात्रा है, लेकिन वह छोटी बहन संतो को बचा लेती है । तीनों लघुकथाएँ मार्मिक अंत लिए हुए हैं । आकार में लघु होते भी लेखक इनमें वातावरण चित्रण करने में सफल रहता है –
“पिंजौर का बाग़ प्रकृति और मानव द्वारा निर्मित मनोहर रंगशाला है ।” ( पृ. -39 )
वह महत्त्वपूर्ण सूक्तियां भी कहता है, यथा –
“व्यक्ति कहीं भी चला जाए, उसका घर-परिवार उसे निरंतर पुकारता रहता है।” ( पृ. - 40 )

डॉ. सुरेन्द्र गुप्त की एकमात्र लघुकथा ‘माँ...मैंने ही खाए थे काजू’ आत्मकथात्मक शैली में लिखी गई है, हालाँकि इसमें मैं पात्र का नामकरण नहीं है, लेकिन यह बालमन को बड़ी बखूबी से ब्यान करती है । जिस काम पर प्रतिबन्ध हो, बच्चे उस काम को करने के लिए लालायित रहते हैं, फिर बात जब खान-पीन की हो, तो यह प्रवृति बढ़ जाती है । मैं पात्र भी चोरी से काजू खाता है, लेकिन भाई को पिटते देख सच उगल देता है । वास्तव में बच्चे ऐसे ही तो होते हैं ।

प्रो. इंदिरा खुराना की लघुकथाएँ बताती हैं, कि बच्चे स्टेट्स नहीं देखते, प्यार देखते हैं । ‘स्टेट्स का फर्क’ और ‘इंसानी पिल्ला’, दोनों लघुकथाओं में बच्चा माँ को आईना दिखाता है । ‘सामाजिक सरोकार’ में बच्चा मजबूरीवश बैग चुराता है, जो समाज के कुरूप चेहरे को दिखाता है । इस लघुकथा का अंत आदर्शात्मक है ।

प्रो. रूप देवगुण की लघुकथाएँ बच्चों के प्रेमिल स्वभाव को भी दिखाती हैं और हालातों का सटीक चित्रण भी करती हैं । पुलिया दादी से दरवाजा खुलवा लेती है, जबकि अब्बू अपनी जेब खर्ची से चाची के लिए सूट, चूडियां आदि लाने की बात करता है । बच्चे जब प्यार करते हैं तो वह आदमी-जानवर का फर्क नहीं जानते । रिशु का यह कहना –
“ले तो आओगे नया पिल्ला पर वह टफी तो नहीं होगा ।”  ( पृ. – 50 )
यहाँ रिशु का टफी के प्रति प्रेम दिखाता है, वहीं बालमन का सजीव चित्र भी प्रस्तुत करता है । ‘नदारद’ लघुकथा बताती है, कि पिता का साया सिर से उठ जाने के बाद बच्चे कैसे परिपक्व हो जाते हैं । ‘तो दिशु ऐसे कहता’ घर के बंटवारे का बालमन पर प्रभाव रेखांकित करती हुई लघुकथा है ।

मधुकांत जिन्न और सैंटा क्लॉज़ जैसे पात्रों के माध्यम से बच्चों पर होमवर्क का बोझ और माँ की फ़िक्र को दिखाते हैं । सैंटा क्लॉज़ का कथानक ईमानदार लकडहारे से प्रभावित लगता है जबकि ईदी का कथानक प्रेमचन्द की कहानी ईदगाह से । ईदी लघुकथा में साबिया ईदी के दस रूपये खाने पर न खर्च कर भाई के लिए खिलौना खरीदती है । गांधी लघुकथा अपना काम स्वयं करने और सफाई का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए भंगी शब्द की नई परिभाषा भी गढ़ती है –
“भंगी तो गंदगी फैलाने वाला होता है ।” ( पृ. – 54 )
सफाई विषय को लेकर ही एक अन्य लघुकथा ‘विद्या-मन्दिर’ है । बालक का तर्क पिता को अनुत्तरित कर देता है । मेरा विद्यालय और मेरा अध्यापक निबन्ध लिखवाकर लेखक ने आदर्श और वास्तविकता के अंतर को दिखाया है । वहीँ प्यासा बचपन की अध्यापिका आदर्श अध्यापिका है । बच्चे प्यार न मिलने के कारण ही स्कूल से घबराते हैं, इस संदेश को लेखक ने बड़ी सरलता से बयाँ किया है । ‘प्यासा बचपन’ लघुकथा आत्मकथात्मक शैली की लघुकथा है, लेकिन इसमें मैं पात्र का नामकरण नहीं किया गया । पारो छोटे मुंह से बड़ी बात करके दादी को हैरान कर देती है ।

हरनाम शर्मा की लघुकथाएँ बच्चों के भीतर मौजूद संवेदना को उद्घाटित करती हैं । नेहा गाय का दर्द नहीं देख पाती, जबकि सेठ का पोता उस मजदूर को पानी पिलाता है जिसकी उसका दादा उपेक्षा करता है । ‘आदमी और आदमी’ लघुकथा का अंत इस व्यंग्योक्ति से किया गया है –
“साहब, कुछ देर के लिए आप ही आदमी हो जाते ।” ( पृ. – 62 )
‘अधिकार’ लघुकथा में जहाँ बालक की मासूमियत दिखाई गई है, वहीं एक बुजुर्ग की भलमनसाहत भी दिखाई है । लघुकथा का आरंभ भी बड़ा आकर्षक है –
“अति प्रतिष्ठित बस्ती की वह अति सुंदर बाल-वाटिका थी । तरू-पल्लवों की ताज़गी तथा विभिन्न पुष्पों की सुगंध से युक्त मंद समीर धीरे-धीरे बह रही थी ।” ( पृ. – 60 )

डॉ. मुक्ता की लघुकथा ‘गुफ्तगू’ दुनियादारी का सच दिखाती लघुकथा है, लेकिन थोड़ी कम विश्वसनीय है, क्योंकि चोर कभी चोरी की वस्तु लौटाने नहीं जाता और लौटाने वाले को ही चोर समझने वाले कम ही होंगे । ‘सीमा रेखा’ लघुकथा में बच्चे के मन में उठते प्रश्न को उठाया गया है –
“जब भगवान ने सबको एक समान बनाया है तो यह अमीर-गरीब की सीमा रेखा क्यों ?” ( पृ. – 64 )
तीसरी लघुकथा में मैं पात्र की बेटी गरीब बच्चों को देखकर प्रश्न उठाती है । तीनों लघुकथाएँ गरीब वर्ग के बच्चों से संबंधित हैं और उनकी मजबूरियों का सटीक चित्रण करती हैं ।

कमलेश भारतीय की लघुकथा ‘कसक’ पिता से दूर रहते बच्चे की कसक को बड़ी सटीकता से ब्यान करती है । ‘स्वाभिमान’ लघुकथा बच्चे के स्वाभिमान को दिखाती है, जो काम करके कमाता है, मदद लेना उसे स्वीकार्य नहीं । ‘चुभन’ लघुकथा बाल सुलभ ईर्ष्या को दिखाती है ।

बच्चों को हमेशा ये लगता है कि दूसरे को ज्यादा हिस्सा दिया गया है और उन्हें कम, यही दिखाया है रामनिवास मानव ने अपनी लघुकथा ‘कथनी-करनी’ में, जबकि दूसरी लघुकथा में मैं पात्र बच्चों को खेलते देखकर महसूस करता है कि सृष्टि का नियंता भी कोई बच्चा ही है । लेखक ने बच्चों के तोतले शब्दों का प्रयोग कर भाषा को सजीव बनाया है ।

बच्चों को अक्सर उनके लिंग के अनुसार कार्य बांटे जाते हैं, लेकिन आजकल के बच्चे इस भेदभाव से ऊपर उठकर सब कार्य करना चाहते हैं, उन्हें सब कार्य करने भी चाहिए । घमंडीलाल अग्रवाल की लघुकथा ‘जीने के लिए’ यही संदेश देती है । ‘गति और क्षति’ लघुकथा में लेखक ने गिलहरी के माध्यम से महत्त्वपूर्ण संदेश दिया है –
“आवश्यकता से अधिक खाद्य-पदार्थ ग्रहण करना अथवा नष्ट करना बुरी बात होती है ।” ( पृ. -72 )
‘योजना’ लघुकथा योजनाबद्ध तरीके से पढाई करने का उपदेश देती है, ‘निश्चय’ लघुकथा में चिड़िया के माध्यम से निरर्थक घूमने-फिरने को व्यर्थ बताया गया है । ‘उपहास’ लघुकथा में गुलाब को नकचढ़ा दिखाया गया है । सभी लघुकथाओं के अंत में सीख दी गई है, यथा –
“दूसरों का उपहास करना हमेशा हानिकारक होता है ।” ( पृ. -74 )

प्रो. अशोक भाटिया की इस संग्रह में 22 लघुकथाएँ हैं और एक को छोड़कर शेष सभी शीर्षक विहीन हैं । लेखक ने प्रतीकात्मक शैली को अपनाया है । ये लघुकथाएँ तीन भागों में हैं । पहले भाग में सपना और सात लघुकथाएँ हैं । पहली लघुकथा में एक तरफ चिड़िया है, एक तरफ बच्चा है । दोनों के क्रियाकलाप और बच्चे की आकांक्षा बच्चों पर पढ़ाई के बोझ का ब्यान करती है । भव्या, मिंकू, रिंकू, चिंटू, सुशील, छोटे के क्रियाकलाप से बच्चों के मन को समझने का प्रयास किया गया है । लेखक के सभी पात्र तोतले हैं अर्थात उनकी आयु छोटी है । लेखक ने बच्चे और माँ की बात करने की बजाए बच्चे और उसकी चाची की बात की है, जो लुप्त हो रहे सांझे परिवारों के दौर में बड़ी संकेतात्मक बात है । दूसरी सात लघुकथाओं में बच्चों में माँ-बाप के दूसरे बच्चे या खिलौने से प्यार करने पर उत्पन्न होने वाले ईर्ष्या भाव को दिखाया है । वे प्यार के बदले प्यार देते हैं । बच्चे चालाक भी होते हैं । तीसरी सात लघुकथाओं में दूसरे भाग से बड़े बच्चों की लघुकथाएँ हैं । इसमें ज्यादातर बच्चे स्कूल जाने वाले हैं और पढ़ाई इन लघुकथाओं का विषय है । बच्चे मासूम भी हैं और उनकी हाजिर जवाबी और तेज तर्रारी सामने वाले को शर्मिंदा भी करती है । बच्चों को शिशुवस्था में दिखाया डर देर तक कायम रहता है । लेखक ने उसी प्रकार की खिचड़ी भाषा का प्रयोग किया है, जैसी कि बच्चे करते हैं –
“मेरा होम-वर्क बिलकुल ठीक था । यह नया होमवर्क ‘रब’ कर दो ।” ( पृ. – 87 )
लेखक ने लघुकथाओं के अंत में बच्चे की बात का दूसरे पर प्रभाव भी दिखाया है और बच्चे पर भी । कुछ अंत कथा का निचोड़ भी हैं, यथा –
“वह दुनिया का सबसे सुंदर, सबसे सुगन्धित फूल था ।” ( पृ. – 83 )

उषालाल की लघुकथाएँ बताती हैं कि बच्चे भोले भी होते हैं और बात को मन पर भी लगा लेते हैं । ऋषभ भोले बच्चों का प्रतिनिधित्व करता है, तो गगन पिता की बात को दिल पर लगाकर दृढ निश्चय करता है और सफल होता है । मुग्धा के माध्यम से लेखिका बताती है कि बच्चे जो सुनते हैं, वही कह देते हैं ।

सत्यप्रकाश भारद्वाज की लघुकथा ‘सवेरा’ स्वाभिमानी बालक की कथा है, जो न सिर्फ खुद भीख मांगने का काम छोड़ता है, अपितु अपने बाबा से भी यह काम छुडवा लेता है । ‘विषैला’ लघुकथा में मच्छर मारने के प्रसंग को लेकर लेखक व्यंग्य कसता है –
“तो क्या आदमी मच्छर से भी विषैला है ।” ( पृ. – 93 )

डॉ. कृष्णलता यादव पक्षियों के माध्यम से मानवता का संदेश देती हैं, खरबूजों के माध्यम से नकलीपन से बचने का संदेश देती हैं । सतीश का बेटा नैतिक शिक्षा की पुस्तक के माध्यम से पिता को सीधी राह पर लाता है, जबकि अखिल के कृत्य उसके बेटे को भी अच्छे कृत्य करने का इरादा देते हैं ।

सुरेखा शर्मा पूजा के नाम पर होते ढोंग को दिखाती हैं । शिवा एक परोपकारी बालक है । रानी मास्टरनी जी की सलाह पर पटाखे न चलाने की बात करती है, लेकिन कहानी की पहली पंक्ति में वह पटाखे खरीदना चाहती है, इस प्रकार कथ्य विरोधाभासी है ।

डॉ. शील कौशिक ने दो बच्चियों के माध्यम से बुजुर्गों को वृद्धाश्रम में छोड़े जाने के उन पर पड़ने वाले प्रभाव को दिखाया है, वहीं दो बहनों के माध्यम से बच्चों की निश्च्छलता को दिखाया है । टिंकू अपनी मासूमियत के कारण परीक्षा में वो नहीं लिखता जो उसे याद करवाया गया है, अपितु वो लिखता है जो घर में होता है । इस लघुकथा के माध्यम से लेखिका ने कामकाजी महिलाओं की विवशता भी दिखाई है । नए स्कूल में परायापन महसूस करना, एक सामान्य बात है; लेखिका ने इसे ‘मुझसे दोस्ती करोगी’ में दिखाया है, साथ ही संदेश दिया है कि बच्चे सहजता से दोस्त बन जाते हैं । दादी-पोती लघुकथा भी पोती की मासूमियतता को दिखाती है ।

डॉ. अनिलकुमार गोयल ‘सवेरा’ जी की लघुकथाएँ स्कूल पर केन्द्रित हैं । पहली दो लघुकथाएँ सफाई पर हैं, जबकि तीसरी लघुकथा में पतंग उड़ाने के माध्यम से दोस्ती का संदेश दिया गया है ।

डॉ. अनिल शूर आज़ाद ने बाल मनोविज्ञान पर आधारित ‘डर’ लघुकथा लिखी है तो ‘डंडा’ लघुकथा घर के माहौल का बच्चे पर प्रभाव दिखाती है । रघुविन्द्र यादव अपनी लघुकथाओं में बच्चों के भोलेपन के साथ उनकी अच्छाई को उद्घाटित करते हैं ।

डॉ. आरती बंसल की लघुकथाओं में दो तरह के अमीर लोगों का वर्णन है । पहले जो कुत्तों को तो गुलगुले खिला सकते हैं, मगर गरीब बच्चों को नहीं । दूसरी तरफ ऐसी मालकिन भी है जो नौकरानी की बेटी को स्कूल दाखिल करवाती है । रिभव उन बच्चों का प्रतिनिधि है, जो सच्ची बात मुंह पर कह देते हैं । लेखिका ने बातूनी बालकों के पालन-पोषण की विधि भी बताई है । आदिक अच्छे संस्कारों वाला बालक है, जो दूसरों को भी प्रेरित करता है ।

नवलसिंह बच्चों की पारखी नज़र को ‘बड़ी सीख’ लघुकथा में दिखाते हैं । ‘रात और सपने’ लघुकथा में बच्चों के नए-नए सवाल पूछने की प्रवृति को दिखाया गया है । अन्य लघुकथाएँ बताती हैं, कि बच्चे बड़ों से हमदर्दी भी रखते हैं और प्यार भी करते हैं । उनका मन साफ़ होता है ।

पुस्तक का दूसरा भाग डॉ. राजकुमार निजात जी लघुकथाओं पर केन्द्रित है । इसमें ओस नामक लड़की पात्र को लेकर 40 लघुकथाएँ लिखी गई हैं । पिता-बेटी का संवाद कथा को कहने का सशक्त माध्यम बना है । ये सभी लघुकथाएँ यहाँ अलग-अलग वजूद रखती हैं, वहीं समग्र रूप से ओस के विविध पहलुओं को दिखाती हुई एक लघु आख्यान का आभास भी देती हैं । ओस को चार साल से सात वर्ष तक दिखाया गया है । लेखक लिखता है –
“ओस बहुत छोटी है । चार साल की नन्हीं बच्ची । वह तो सुबह की ओस की भांति एक नन्हीं ओस है ।” ( पृ. – 132 )
ओस की अध्यापिका कहती है –
“ओस जो कुछ भी करती है, वह भीतर से स्वाभाविक रूप से ही करती है । वह विलक्षण है । वह जहां भी जाती है, सब कुछ जगमग-जगमग हो जाता है ।” ( पृ. – 144 )
लेखक ने ओस के चरित्र के विभिन्न पहलुओं को उजागर किया गया है । वह बहुत अच्छी चित्रकार है । वह हर देखी, सुनी चीज का चित्र बना देती है, जिसमें बादल, वर्षा, कार्टून, पहाड़, बारिश आदि के चित्र हैं । वह कविता भी लिख लेती है । वह आशावादी है । वह जो देखती है, वही करना चाहती है । वह सबकी दोस्त है, सब उसके दोस्त हैं । पुरानी बातों को याद रखती है और उन्हें नए सन्दर्भों के साथ जोड़ लेती है । वह अपना काम खुद करने में विश्वास रखती है और दूसरों की मदद भी करती है । वह दयालु है । दोस्त को बीमार देखकर विचलित हो उठती है । वह दूसरों के दर्द को समझती है –
“मुझे लगा, उसने मेरे दर्द को अपने भीतर तक महसूस किया, मेरी ही तरह ।” ( पृ. – 136 )
बाल भिखारी उसकी मन:स्थिति को झिंझोड़ देता है । गणेश की गर्दन काटने के कारण वह भगवान शिव से नाराज है । उसका दया भाव कुत्ते के लिए भी है । वह चिड़ियों से बातें करती है । स्कूल वह पैदल ही जाना पसंद करती है । वह और उसके दोस्त टोली बनाकर स्कूल जाते हैं । स्कूल उसका नया संसार है । वह सबक जल्दी सीखती है और सीखी हुई बातें दूसरों को भी बताती है । वह जिज्ञासु है, प्रश्न पूछती रहती है । जहाँ का अर्थ समझकर ‘सारे जहाँ से अच्छा गीत’ को बड़े विश्वास के साथ गाती है । वह रावण को मारना चाहती है । आसमान में सैर करना चाहती है, पहाड़ देखना चाहती है, नदियों में नहाना चाहती है । उसके पापा उसे कहते हैं कि वह फूल जैसी है, उसके चेहरे पर सारे फूलों के रंग उतर आए हैं । लेखक को लगता है कि वह पिछले जन्म में फूल रही होगी । उसके पिता जी उसे ईमानदार, जिम्मेदार और सच्चा नागरिक बनाना चाहते हैं । वे उसे कुछ सच बताते हैं तो कुछ सच छुपा भी लेते हैं ताकि बालमन को कुरूप दुनिया न दिखे । एक बेटी जैसे तोहफे लेकर खुश होती है, वैसे ही पिता तोहफे देकर खुश होते हैं । पिता जी बेटी से प्रेरणा भी लेते हैं कि एकांत बाहर नहीं मिलता, अपितु यह मन की स्थिति है ।

लेखक ने ओस के माध्यम से यह बताया है कि बच्चे भरपूर खाते, खेलते, पढ़ते हैं अर्थात भरपूर जीते हैं । बच्चे गिरने पर कब रोते हैं, कब नहीं रोते इस मनोविज्ञान को उद्घाटित किया गया है । लेखक ने अनेक जगहों पर काव्यात्मक भाषा का प्रयोग किया है –
“उसने कमल के फूलों को जी भरकर निहारा और फिर आसमान की और देखकर कमल हो उठी ।” ( पृ. – 150 )

संक्षेप में, यह संकलन बालकों को समझने का एक अनूठा प्रयास है । बाल मन की विविध स्थितियों को विभिन्न लेखकों ने अलग-अलग नजरिये से देखा है । इस संग्रह से गुजरते समय बालकों के विविध रूप आँखों के सामने तैरने लगते हैं, जो इस संग्रह की सफलता का सूचक है । डॉ. निजात जी इस संग्रह के संपादन के लिए बधाई के पात्र हैं ।

- दिलबागसिंह विर्क

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http://dsvirk.blogspot.com/2019/01/blog-post.html