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शुक्रवार, 24 जून 2022

बुधवार, 1 दिसंबर 2021

समकालीन हिन्दी लघुकथा [आलेख] - डॉ. बलराम अग्रवाल | @ sahityashilpi.com

समकालीन लघुकथा यथार्थ के प्रति प्रतिबद्ध है इसलिए राजनैतिक यथार्थ को वह छोड़ नहीं सकती है। राजनीति या धर्म के किसी न किसी महापुरुष को यह कहते हम अक्सर सुनते-पढ़ते रहते हैं कि धर्म को राजनीति के बीच में मत लाओ। गोया कि राजनीति अब जिस तरह का ‘धर्म’ बनकर रह गई है, उसमें ‘नैतिकता’ के लिए कोई गुंजाइश शेष नहीं रह गई है। अगर गौर से देखा जाए तो ‘नैतिक सामाजिकता’ भी राजनीति में अब कहाँ बची है। इसी बात को हम यों भी कह सकते हैं कि सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक स्थितियाँ आज इतनी घुलमिल गई हैं कि उन्हें न तो अलग ही किया जा सकता है और न अलग करके देखा ही जा सकता है। इसलिए समकालीन लघुकथा के यथार्थ में राजनीतिक सन्दर्भ इसके उन्नयन काल यानी कि बीती सदी के आठवें दशक से लगातार चले आ रहे हैं। इक्का-दुक्का प्रयास हो सकता है कि उससे कुछ पहले से भी चले आ रहे हों। यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि भारतीय राजनीति में भी आधारभूत बदलाव की हवा 1967 में कांग्रेस की कमान गाँधीवादी राजनेताओं के हाथ से छिटककर इंदिरावादी राजनेताओं के हाथ में जाने के साथ ही बही थी और कमोबेश उसी दौर में समकालीन लघुकथा ने कथा-साहित्य रूपी माँ के गर्भ में अपने अस्तित्व को बनाना शुरू कर दिया था। 1970 का दशक समाप्त होते-होते जैसे-जैसे तत्कालीन राजनेताओं की अराजक-कारगुजारियों के चलते राजनीति के स्वरूप में परिवर्तन दृष्टिगोचर होता गया, वैसे-वैसे लघुकथा के कथ्यों में भी उसके दर्शन होने लगे।


समकालीन लघुकथा को यदि देश की राजनीतिक स्थितियों के मद्देनजर विश्लेषित किया जाय तो हम देखते हैं कि इसमें अपने समय की प्रत्येक महत्वपूर्ण राजनीतिक घटना अपनी सम्पूर्ण गिरावट और ओछेपन के साथ मौजूद है। ‘यथा राजा तथा प्रजा’ की तर्ज पर गोस्वामी तुलसीदास ने सेटायरिकली कहा है कि ‘जस दूलह तस बनी बराता’। गाँधीवादी राजनेता अपनी मानसिकता में ‘सम्मान्य’ राजनेता थे और समाज में अपने कुछ नैतिक ‘मूल्य’ समझते थे। मूल्यहीनता से लेशमात्र भी सामंजस्य वे नहीं बैठा सकते थे। आज के दौर में सिर्फ ‘सम्मान’, सिर्फ ‘नैतिकता’ या सिर्फ ‘मूल्यवत्ता’ के सहारे आप अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में ससम्मान अपने देश को खड़ा नहीं रख सकते—इस कूटनीतिक यथार्थ को इंदिरा गाँधी ने समझा था और अपने इस आकलन को सबसे पहले उन्होंने देश की राजनीति पर ही लागू किया था। उन्होंने सिर्फ सम्मान, सिर्फ नैतिकता और सिर्फ मूल्यवत्ता की पैरवी करने वाले अपने पिता और पितामह की पीढ़ी के राजनेताओं को आरामगाह में भेज दिया और राजनीति की कमान अपने मजबूत हाथों में ले ली। देश के भीतर कुछेक उच्छृंखलताओं का शिकार वे न हो गई होतीं तो यह मानने में किसी को आपत्ति नहीं होनी चहिए कि अन्तर्राष्ट्रीय कूटनीतिक मंच पर देश की जो स्थिति उनके काल में थी, उनकी हत्या के बाद वह कम से काम आज तक तो पुन: लौटकर नहीं आ पाई है। लेकिन यह भी सच है कि राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में इन्दिराजी का कार्यकाल इने-गिने अवसरों को छोड़कर उद्वेलनकारी ही रहा। आजादी के बाद विभिन्न विसंगतियों से देश का नागरिक-जीवन संभवत: पहली बार रू-ब-रू हुआ। अपने नेताओं के चरित्र में नैतिकता और मूल्यवत्ता संबंधी अनेक प्रकार की अपनी ही मान्यताओं से उसका पहली बार मोहभंग हुआ। सामान्य नागरिक के नाते शासन से अपनी हर उम्मीद को समस्त प्रयत्नों और क्षमताओं के बावजूद उसने छुटभैये राजनेताओं के हाथों लुट जाते देखा और इस नतीजे पर पहुँचा कि देश में सिर्फ दो ताकतें ही उसके जीवन को सुचारु गति दिये रह सकती हैं—राजनीतिक छुटभैये और रिश्वत। समकालीन लघुकथा में इन सामाजिक व राजनीतिक दबावों, मूल्यहीनताओं और विसंगतियों को आसानी से रेखांकित किया जा सकता है। यह दो मान्यताओं के टकराव का भी दौर था, इसलिए समकालीन लघुकथा का रवैया और उसके मुख्य सरोकार वैचारिक भी रहे हैं। सीधे टकराव से अलग, राजनीतिक उत्पीड़नों से बचे रहने की दृष्टि से लघुकथाकार समकालीन स्थितियों, दबावों, संबंधों और दशाओं को उजागर करने हेतु अधिकांशत: पौराणिक कथ्यों, पात्रों, कथाओं, संकेतों आदि को व्यवहार में लाए। लघुकथा उन्नयन के प्रारम्भिक दौर में ऐसे रुझान बहुतायत में देखने को मिलते हैं।


लघुकथा यद्यपि अति प्राचीन कथा-विधा है, तथापि समकालीन रचना-विधा के रूप में उसका अस्तित्व 1970-71 से ही माना जाता है। समकालीन लघुकथा ने अपने प्रारम्भिक स्वरूप में ऊर्ध्व परिवर्तन को स्थान देते हुए विचार-वैभिन्य, कथ्य, भाषा, शिल्प, शैली आदि का कालानुरूप सम्मिश्रण किया। यह अपने युग के रस्मो-रिवाजों को साहित्यिक अभिरुचियों के अनुरूप चित्रित करने तक ही सीमित नहीं रही है। आम जीवन के सुपरिचित रोषों का, वेदनाओं और व्यथाओं का, जीवन को नरक बना डालने वाली रीतियों और रिवाजों का इसमें ईमानदार चित्रण हुआ है। समकालीन लघुकथा में चरित्रों की बुनावट कहानी या उपन्यास में चरित्रों की बुनावट से काफी भिन्न है। कुल मिलाकर इसे यों समझा जा सकता है कि समकालीन लघुकथा में चरित्रों के प्रभावशाली चित्रण की दृष्टि से किया जाने वाला कोई भी विस्तार वांछित नहीं है। यही बात वातावरण के बाह्य रूप के चित्रण, उनके प्रति रुझान, शोक अथवा करुणा के व्यापक प्रदर्शन आदि के संबंध में भी रेखांकनीय है। ये सब बातें इसमें बिम्बों, प्रतीकों, संकेतों और व्यंजनाओं के माध्यम से चित्रित की जाती हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि समकालीन लघुकथा कथा-कथन की अप्रतिम विधा है, इसके प्रत्येक चरण में मौलिकता है। इसमें उगते सूरज की रक्ताभा है तो डूबते सूरज की पीताभा भी है। इसमें भावनाएँ हैं तो संवेदनाएँ भी हैं। वास्तविक जीवन के सार्थक समझे जाने वाले चित्र हैं तो मन के उद्वेलन व प्रकंपन भी हैं। नीतियाँ और चालबाजियाँ हैं तो आदर्श भी हैं। कहीं पर यह दैनन्दिन-जीवन की ऊबड़-खाबड़ धरती पर खड़ी है तो कहीं पर सीधी-सपाट-समतल जमीन के अनचीन्हे संघर्षों के चित्रण में मशगूल है। बस यों समझ लीजिए कि समकालीन लघुकथा निराशा, संकट, चुनौती और संघर्षभरे जीवन में आशा, सद्भाव और सफलता की भावना के साथ आमजन के हाथों में हाथ डाले विद्यमान है। इसमें संकट का यथार्थ-चित्रण है, लेकिन यथार्थ-चित्रण को साहित्य का संकट बनाकर प्रस्तुत करने की कोई जिद नहीं है।


नए विषयों की चौतरफा पकड़ का जैसा गुण समकालीन लघुकथा में है, वह इसे सहज ही समकालीन कथा-साहित्य की कहानी-जैसी सर्व-स्वीकृत विधा जैसी ग्रहणीय विधा बनाता है। इसमें यथार्थ के वे आयाम हैं जो अब तक लगभग अनछुए थे। इसमें ग्रामीण, कस्बाई, नगरीय, महानगरीय हर स्तर के जीवन-रंग हैं। जहाँ एक ओर घर की बेटी परिवार के पोषण के लिए तन बेच रही है, वहीं तन और मन की अतृप्ति को तृप्ति में बदलने का खेल खेलते नव-धनाढ्य भी हैं। फौजी पति के शहीद हो जाने की सूचना पाकर सुहाग-सेज पर उसकी बंदूक के साथ लेट जाने वाली पत्नी है तो अन्तिम इच्छा के तौर पर फाँसी पर चढ़ाए जाते युवक द्वारा नेत्रदान की घोषणा भी है ताकि अन्धी व्यवस्था कुछ देख पाने में सक्षम हो सके।


यह कहना कि समकालीन लघुकथा ने आम-आदमी की उसके सही अर्थों में खोज की है, कोई अतिशयोक्ति न होगी। यह सामाजिक व मनोवैज्ञानिक सच्चाई है कि व्यक्ति-जीवन से परंपरा की रंगत कभी भी धुल नहीं पाती है, उसका कुछ न कुछ अंश सदैव बना रहता है और वही व्यक्ति को उसके अतीत गौरव से जोड़े रखने व नए को अपनाने के प्रति सचेत रहने की समझ प्रदान करता है। यानी कि व्यक्ति-जीवन में परंपरा और आधुनिकता दोनों का समाविष्ट रहना उसी तरह आवश्यक है जिस तरह ऑक्सीजन लेना और कार्बनडाइऑक्साइड को फेफड़ों से बाहर फेंकना। समकालीन लघुकथा में एक ओर हमें परम्परा के दर्शन होते हैं तो दूसरी ओर आधुनिकता के भी दर्शन होते हैं। विषयों और कथ्यों से तौर पर इसने गाँव-गँवार से लेकर इंटरनेट चैट-रूम तक पर अपनी पकड़ बनाई है। इसमें आधुनिकता की ओर दौड़ लगाता मध्य और निम्न-मध्य वर्ग भी है और उससे घबराकर परंपरा की ओर लौटता या वैसा प्रयास करता तथाकथित आधुनिक वर्ग भी है। परंपरा को संस्कृति से जोड़कर देखा जाता है, जबकि संस्कृति एक भिन्न अवयव है। परंपराएँ रूढ़, जड़, व्यर्थ हो सकती हैं, संस्कृति नहीं। परंपरा को बदला भी जा सकता है और नहीं भी; लेकिन संस्कृति के साथ यह सब करना उतना सरल नही।


समकालीन लघुकथा ने परंपराजन्य एवं व्यस्थाजन्य अमानवीय नीतियों-व्यवहारों के प्रति आक्रोश व्यक्त करने के अपने दायित्व का निर्वाह बखूबी किया है और आज भी कर रही है। यह इसलिए भी संभव बना रहा है कि अधिकांश लघुकथाकारों ने आम व्यक्ति का जीवन जिया है। वे बेरोजगारी के त्रास से लेकर जीवन की हर मानसिक व शारीरिक कष्टप्रद स्थिति से गुजरे हैं और आज भी गुजर रहे हैं। उन्होंने हर प्रकार का त्रास झेला है और आज भी झेल रहे हैं। उनकी लेखनी से इसीलिए किसी हद तक भोगा हुआ यथार्थ ही चित्रित होकर सामने आ रहा है। समकालीन लघुकथा में सत्य का विद्रूप चेहरा भी प्रस्तुत करने के सफल प्रयास हुए हैं।

अन्त में, किसी भी ऐसी लघुकथा को समकालीन नहीं कहा जा सकता जो अपने समय के मुहावरे से न सिर्फ टकराने का माद्दा न रखती हो, बल्कि उससे अलग-थलग भी पड़ती हो। वस्तुत: तो समकालीन लघुकथा अपने समय का मुहावरा आप है।

- डॉ. बलराम अग्रवाल 

Original URL: https://www.sahityashilpi.com/2009/11/blog-post_25.html

शनिवार, 22 फ़रवरी 2020

लघुकथा एक ऐसा लाइट हाउस है जो पूरे साहित्य को दिशा प्रदान करता है। | लघुकथा समाचार

पत्रिका समाचार  21 फरवरी 2020

दिल्ली से आए लघुकथाकार बलराम अग्रवाल ने कहा, हम वृद्ध आश्रम की बात करके युवा पीढ़ी को क्या बताना चाहते हैंं? क्या हमारे घर से कोई वृद्ध आश्रम गया है? जब हम अपने अनुभवों को कल्पना के आधार पर ही लिखेंगे तो वह बात गहराई से लोगों तक नहीं पहुंचेगी।


रायपुर द्य फाफाडीह स्थित होटल में राष्ट्रीय लघुकथा का आयोजन किया गया। इसमें डॉ. बलराम अग्रवाल, सुभाष नीरव, गिरीश पंकज,डॉ राजेश श्रीवास्तव, डॉ सुधीर शर्मा, डॉ. मालती बसंत, जया केतकी, साकेत सुमन चतुर्वेदी शामिल हुए। 

संस्था की अध्यक्ष संतोष श्रीवास्तव ने लघुकथा में नारी अस्मिता को लेकर अपनी बात रखते हुए कहा, आज लघुकथा मांग करती है एक ऐसी शक्ति स्वरूपा नारी की जो अपनी अस्मिता और अस्तित्व की रक्षा करती हुई शोषण की शक्तियों से मुठभेड़ करती नजर आए। दिल्ली से आए लघुकथाकार बलराम अग्रवाल ने कहा, हम वृद्ध आश्रम की बात करके युवा पीढ़ी को क्या बताना चाहते हैंं? क्या हमारे घर से कोई वृद्ध आश्रम गया है? जब हम अपने अनुभवों को कल्पना के आधार पर ही लिखेंगे तो वह बात गहराई से लोगों तक नहीं पहुंचेगी। उन्होंने कई लघुकथाओं के उदाहरण देते हुए नारी अस्मिता को लेकर लघुकथाएं लिखना मौजूदा समय की मांग बताया।विशिष्ट अतिथि गिरीश पंकज ने कहा कि लघुकथा एक ऐसा लाइट हाउस है जो पूरे साहित्य को दिशा प्रदान करता है मुख्य अतिथि सुभाष नीरव ने अपने वक्तव्य में लघुकथाओं में नारी अस्मिता को लेकर विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला। संस्था की ओर से विभिन्न विधाओं पर पांच पुरस्कार प्रदान किए गए। 

राधा अवधेश स्मृति पुरस्कार-लक्ष्मी यादव, पुष्पा विश्वनाथ स्मृति पुरस्कार -अजय श्रीवास्तव अजेय,हेमंत स्मृति लघुकथा रत्न सम्मान-कांता राय, पांखुरी लांबा सक्सेना स्मृति पुरस्कार-साधना वैद, द्वारका प्रसाद स्मृति साहित्य गरिमा पुरस्कार-अलका अग्रवाल ममता अहार द्वारा शक्ति स्वरूपा नाटक का एकल मंचन के साथ ही 75 कवियों और लघुकथाकारों की कविता व लघुकथा की प्रस्तुति।तीन सत्रों में आयोजित कार्यक्रम का संचालन क्रमश: नीता श्रीवास्तव, रूपेंद्र राज तिवारी और वर्षा रावल ने किया।

Source:
https://www.patrika.com/raipur-news/el-cuento-es-un-faro-que-da-direccin-a-toda-la-literatura-5803798/

शुक्रवार, 6 सितंबर 2019

लघुकथा को आज नजरअंदाज करना बेमानी है: डॉ बलराम अग्रवाल

श्री लालित्य ललित की फेसबुक पोस्ट से Lalitya Lalit is with Balram Agarwal at Kalidas Academy, Ujjain.September 5 at 6:15 PMUjjain

लघुकथा को आज नजरअंदाज करना बेमानी है: डॉ बलराम अग्रवाल

आज लघुकथा को अब गंभीरता से लिया जाने लगा है।बेहद छोटी मगर असरदार होती है इसकी मारक क्षमता कि कब तीर निकलता है और कब वह लक्ष्य पर पहुंच कर अपना निशाना लगा आता है।जी,हाँ इसका नाम लघुकथा है।

आज राष्ट्रीय पुस्तक न्यास,भारत द्वारा आयोजित उज्जैन पुस्तक मेले में लघुकथा पर एक यादगार गोष्ठी का आयोजन हुआ जिसमें उज्जैन-इंदौर के बेहतरीन मगर राष्ट्रीय स्तर के लघुकथाकारों ने शिरकत की।जिसमें संतोष सुपेकर,राजेन्द्र देवघरे, मीरा जैन,कोमल वाधवानी,आशा गंगा शिरदोनकर ने अपनी लघुकथाओं का पाठ किया।इस मौके पर डॉ बलराम अग्रवाल की पुस्तक "लघुकथा का प्रबल पक्ष" का लोकार्पण भी मंचस्थ अतिथियों द्वारा किया गया।
सत्र की अध्यक्षता दिल्ली से पधारे वरिष्ठ लेखक डॉ बलराम अग्रवाल ने की।सत्र का समन्वय राजेन्द्र नागर ने किया।

कार्यक्रम से पूर्व राष्ट्रीय पुस्तक न्यास,भारत के हिंदी संपादक डॉ ललित किशोर मंडोरा ने न्यास की गतिविधियों से आमन्त्रित लेखकों का परिचय करवाया व आमन्त्रित वक्ताओं को न्यास की ओर से पुस्तकें भेंट की।उन्होंने कहा कि हम अपने अतिथियों का स्वागत पुस्तकों से करते है।
इस मौके पर अध्यक्षता कर रहे लघुकथा के वरिष्ठ हस्ताक्षर डॉ बलराम अग्रवाल ने कहा:
निश्चित ही यह बड़े सौभाग्य की बात है कि अब बड़े प्रकाशन घरानों ने लघुकथा को गम्भीरता से लेना शुरू कर दिया है।बेशक वह राष्ट्रीय पुस्तक न्यास हो या साहित्य अकादेमी हो।ये वह विधा है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
उन्होंने आगे कहा कि "युवा रचनाकारों को न्यास ने कार्यक्रमों में शामिल कर एक बड़ा कार्य किया है।सही मायने में न्यास प्रकाशन और लेखकों के बीच में एक महत्वपूर्ण कड़ी की भूमिका निभा रहा है। लघुकथा सामान्य से कुछ अलग हट कर विधा नहीं है।ये एक गंभीर विधा है जिसे आज पर्याप्त समझा जा रहा है।व्यक्ति समाज से लेता है व समाज को ही लौटाता है।"
इस मौके पर उन्होंने साहिर लुधियानवी का जिक्र करते हुए बात को आगे बढ़ाया।उन्होंने कहा कि "साहित्य मनुष्य के लिए है।हम आजकल अपनी सराउंडिंग भूल गए।जिसे नहीं भूलना चाहिए।आस पास का चित्रण भी हमारी कथाओं में बरबस ही नजर आता है।आसपास का बोध हमारी रचनाओं का केंद्र बिंदु है।"
दृष्टि नाम से अशोक जैन की पत्रिका का जिक्र भी अपने वक्तव्य में किया और साथ ही डॉ बलराम अग्रवाल ने अपनी कुछ लघुकथाओं का पाठ भी किया।
कार्यक्रम के सूत्रधार राजेन्द्र नागर ने कहा कि लघुकथा की ताकत ही यही होती है कि अपने आकार में वह मारक होती है और यही लघुकथा की ताकत भी यही है।
नेत्रहीन लघुकथाकार कोमल वाधवानी ने अपनी सुंदर लघुकथाओं से कार्यक्रम की शुरुआत की।
राजेन्द्र देवघरे ने अपनी लघुकथा"सड़क पर चर्चा " सुनाते हुए उन्होंने कहा कि जीवन में विसंगतियों का होना बेहद लाजिमी है,तभी उनकी लघुकथा सड़क पर चर्चा को देखते ही रह गए कि बारिश के दिनों में आखिर सड़क गई तो कहां!
उनकी अगली रचना 'प्रतिबंध' ने भी श्रोताओं के ध्यान अपनी और आकर्षित किया।
आशा गंगा शिरदोनकर ने अपनी सामयिक रचनाओं को शिक्षा दिवस के संदर्भ में सुनाई।जिसमें नकाबपोश व अन्य रचनाओं ने श्रोताओं को प्रभावित किया।
लघुकथा की नई शैली को विकसित करने में आशा गंगा शिदोंकर ने नया आयाम प्रस्तुत किया है।जिसने आकाशवाणी के कार्यक्रम हवामहल की याद दिला दी।
संतोष सुपेकर ने ओढ़ी हुई बुराई लघुकथा सुना कर हरियाणवी शैली श्रोताओं के सम्मुख रखने का जबरदस्त प्रयास किया।
मीरा जैन ने अपनी कुछ लघुकथाओं का पाठ किया जिसमें समकालीन विषयों को आधार बनाया गया।
उल्लेखनीय साहित्यकारों में इसरार अहमद,दिलीप जैन,विजय सिंह गहलौत,डॉ पुष्पा चौरसिया,नरेंद्र शर्मा,गड़बड़ नागर,पिलकेन्द्र अरोड़ा ,डॉ देवेंद्र जोशी भी कार्यक्रम में नजर आएं।

शनिवार, 18 मई 2019

लेख | पुरानी कथाएँ नए रूप में | रामवृक्ष बेनीपुरी

साहित्य में 'चोरी' और 'रचनाशीलता' पर आलेख फेसबुक समूह "लघुकथा साहित्य Laghukatha Sahitya" में डॉ. बलराम अग्रवाल जी की पोस्ट 


सुप्रसिद्ध साहित्यकार रामवृक्ष बेनीपुरी जी का लेख एक पुरानी पत्रिका में देखने को मिल गया था। लघुकथा में इन दिनों सीधी सेंधमारियाँ बहुत सुनाई दे रही हैं और उस सेंधमारी पर हाय-तौबा स्वाभाविक ही है; लेकिन रामवृक्ष बेनीपुरी जी बता रहे हैं कि साहित्य में कुछ नया रचने के लिए हर सेंधमारी 'चोरी' नहीं है; तथापि सेंधमारी पर अरण्य-रोदन करने वालों की भी कमी नहीं है। साहित्य में 'चोरी' और 'रचनाशीलता' को समझने के लिए इस लेख का अध्ययन आवश्यक है।





- डॉ० बलराम अग्रवाल

Source:
https://www.facebook.com/groups/LaghukathaSahitya/permalink/1288404924666984/

बुधवार, 16 जनवरी 2019

लघुकथा वीडियो

विश्व पुस्तक मेला में यश पब्लिकेशन्स द्वारा आयोजित कार्यक्रम "लघुकथा पाठ" में 
वरिष्ठ लघुकथाकार डॉ. बलराम अग्रवाल का लघुकथा पाठ एवं उनसे बातचीत




गुरुवार, 6 दिसंबर 2018

सन्दीप तोमर (लेखक एवं समीक्षक) द्वारा फेसबुक पर की गयी एक पोस्ट

संदीप तोमर एक अच्छे लेखक ही नहीं बल्कि बढ़िया समीक्षक भी हैं।  आप द्वारा समय-समय पर  लघुकथाकारों को  टिप्स भी दी जाती है। उनकी एक पोस्ट, जो उन्होंने फेसबुक पर शेयर की थी, लघुकथा विधा में अच्छे लेखन का मार्ग प्रशस्त कर सकती है। पोस्ट निम्न है:-

रविवार, 2 दिसंबर 2018

अविराम साहित्यिकी का तीसरा लघुकथा विशेषांक : स्केन प्रति

श्री उमेश मदहोशी  ने डॉ. बलराम अग्रवाल जी के अतिथि संपादन में आये अविराम साहित्यिकी के तीसरे लघुकथा विशेषांक के सम्पूर्ण अंक को स्कैन कर प्रति फेसबुक पर शेयर की है।

इसे निम्न links पर पढ़ा जा सकता है:

पहली पोस्ट (आवरण 01 से पृष्ठ संख्या 45 तक)
https://www.facebook.com/umesh.mahadoshi/posts/2025767640796039

दूसरी पोस्ट (पृष्ठ संख्या 46 से पृष्ठ संख्या 79 तक)
https://www.facebook.com/umesh.mahadoshi/posts/2025780210794782


तीसरी पोस्ट (पृष्ठ संख्या 80 से 112 एवं आवरण 03 तक)
https://www.facebook.com/umesh.mahadoshi/posts/2025791147460355

तीसरी पोस्ट का टेक्स्ट निम्नानुसार है:-

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Umesh Mahadoshi

आद. मित्रो,
अग्रज डॉ. बलराम अग्रवाल के अतिथि संपादन में आये अविराम साहित्यिकी के तीसरे लघुकथा विशेषांक में आपमें से अनेक मित्रों ने सहभागिता की, इसके लिए आप सबका धन्यवाद। सुधी पाठक के रूप में भी आप सबने उत्साह दिखाया, हमारा मनोबल बढ़ाया, यह हमारा सौभाग्य है। लेकिन आपमें से अनेक मित्रों की शिकायत है कि उक्त अंक आपको प्राप्त नहीं हुआ है, मैं सभी शिकायतकर्ता मित्रों से निवेदन करता चला गया कि 02-03 दिसम्बर तक प्रतीक्षा कर लीजिए, न मिलने पर पुनः प्रति भेज दी जायेगी। इस निवेदन और वादा करने की प्रक्रिया में सूची लगातार लम्बी होती जा रही है। मेरे पास पुनःप्रेषण के लिए बामुश्किल 20-22 प्रतियाँ बची हैं। धर्मसंकट यह है कि कितने मित्रों से किए वादे पूरे किए जायें! दूसरी बात- दुबारा भेजने पर भी प्रति नहीं मिली तो...?
समाधान यह निकाला है कि पूरे अंक की स्केन प्रति फेसबुक पर डाल दी जाये। जिन मित्रों की लघुकथाएँ इस अंक में शामिल हैं, वे अपनी भी पढ़ सकते हैं और दूसरों की भी। सूची में संबन्धित रचनाकार की पृष्ठ संख्या देखकर उस पृष्ठ को डाउनलोड करके पड़ा जा सकता है। पोस्ट में अंक के पृष्ठों को अपलोड करने की सीमाओं को ध्यान मे रखते हुए आवरण-01 व 04 तथा पृष्ठ संख्या 01 से पृष्ठ संख्या 45 तक को पहली पोस्ट में, पृष्ठ संख्या 46 से 79 तक दूसरी पोस्ट में तथा पृष्ठ संख्या 80 से आवरण-03 तक को तीसरी पोस्ट में अपलोड किया जा रहा है। 
इस व्यवस्था के साथ बची हुई मुद्रित प्रतियाँ उन रचनाकार मित्रों के लिए सुरक्षित रखी जा रही हैं, जो फेसबुक/इण्टरनेट से नहीं जुड़े हैं। हमारी विवशता को समझते हुए आप सब इस व्यवस्था को स्वीकार करें और जिन मित्रों को मुद्रित प्रति नहीं मिल पाये, हमें क्षमा करें।
-उमेश महादोषी//