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सोमवार, 22 मई 2023

समीक्षा : हाल-ए-वक्त | कमल कपूर

समय की नब्ज़ को पहचानती कृति…हाल-ए-वक्त


   डॉ चंद्रेश कुमार जी को मैं सुविज्ञ लघुकथा-पुरोधाओं  की क़तार में आगे-आगे खड़ा पाती हूँ सदा। मेरा यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि सही मायने में लघुकथा कैसे लिखी जाती है… यह चंद्रेश जी से सीखा जा सकता है। बानगी के तौर पर उनका नव लघुकथा-संग्रह ‘ हाल-ए-वक़्त ‘ सामने है ।सौम्य एवं शीर्षकानुकूल नयनाभिराम आवरण-पृष्ठ से सुसज्जित पुस्तक के मात्र 90 पृष्ठों पर क़रीने से टंकी एक कम 80 लघुकथाएँ…समय की नब्ज़ को कसकर थामे हुए हैं । समाज के विविध क्षेत्रों से कथानक उठाकर सुलेख ने , सलीक़े से ये कथाएँ बुनी हैं…कुछ इस तरह कि हर कथा का अंदाज़ निराला है और मिज़ाज जुदा और पंच मारक भी तथा प्रहारक भी ।



 सर्वप्रथम सुलेखक ने 'लेखकीय वक्तव्य' के अंतर्गत समय की महत्ता पर प्रकाश डाला है। रहीम जी के एक अनमोल दोहे का दृष्टांत देते हुए  समझाया है कि  समय लाभ सम लाभ नाहिं, समय चूक नाहिं चूक।

कृति के शीर्षक से संग्रह में कोई कथा नहीं है। वस्तुतः संग्रह की प्रत्येक कथा ‘ हाल-ए-वक़्त ‘  ही तो कह रही है…सरल, सहज एवं सरस भाषा-शैली में। दरअसल प्रस्तुत कृति एक समाज-यात्रा है, जो ‘देशबंदी' से शुभारंभित होकर ‘कोई तो मरा है‘ पर समाप्त होती है। बीच में 77 मोड़ हैं, जो बहुत-बहुत कुछ समझाते और सिखाते हैं । इनमें व्यवस्था के प्रति चिंता भी है और चिंतन भी। किसान द्वारा क्षुब्ध होकर की गई खेतीबंदी कैसे देशबंदी का रूप ले लेती है…स्वयं पढ़ें । ’कोई तो मरा है‘ माँसाहारी-वर्ग पर वार करती है तो ‘ माँ के सौदागर ‘  गौहत्या के वास्तविक कारणों की अजब किंतु सच्ची कहानी बयां करती है।’ मार्गदर्शक ‘ स्वार्थी नेताओं की अवसरवादिता पर कटाक्ष करती है और ‘ मेरी याद ‘ … अति मार्मिक… अपनी गुमशुदगी की खबर खोजते हताश-निराश वृद्ध की व्यथा कथा सुनाती सी। ‘बच्चा नहीं‘ कथा अनकही में बहुत कुछ कह जाती है सिर्फ़ इतना कहकर,” उसका बच्चा किन्नर हुआ है…।”



   ‘ सोयी हुई सृष्टि ‘ सुलेखक के यथार्थ में कल्पना रस घोलने का सुंदर प्रयास है…इसे पढ़कर चंद्रेश जी की कलम को नमन करने को जी चाहता है । ईलाज, धर्म-प्रदूषण, गरीब सोच,एक बिखरता टुकड़ा , कटती हुई हवा ,अन्नदाता एवं इतिहास गवाह है भी अति सराहनीय सुपठनीय कथाएँ हैं किन्तु ‘अस्वीकृत मृत्यु‘ को मैं कृति की सर्वश्रेष्ठ लघुकथा कहूँगी , जो बलात्कार को तीनों लोकों का जघन्यता गुनाह ठहराती है..; इतना कि इसके गुनाहगार को नर्क भी स्वीकार नहीं करता और कीड़े-मकौड़े तक भी उसके पास नहीं फटकते । इस लघुकथा के तो पोस्टर बनने चाहिए और पाठ्यक्रम में भी इसे शामिल करना चाहिए ।


   कुल मिलाकर ‘हाल-ए-वक्त ‘ एक सुंदर-संग्रहणीय संग्रह है, जो शोधार्थियों के लिए भी अति उपयोगी सिद्ध होगा ।

अंततः  सुलेखक को मन-प्राण से बधाई तथा उनके उज्ज्वल भविष्य के लिये अतिशय मंगल कामनाएँ ।इति!


- कमल कपूर 

अध्यक्ष: नारी अभिव्यक्ति मंच ‘ पहचान ‘

2144/9

फ़रीदाबाद 121006

हरियाणा

बुधवार, 14 दिसंबर 2022

पुस्तक समीक्षा | अपकेन्द्रीय बल | लेखक: संतोष सुपेकर | समीक्षक: दिव्या राकेश शर्मा

संवेदना को हौले-हौले से जगाती कथाएँ


"सुपेकर उन लघुकथाकारों में से हैं जो लघुकथा-सृजन का रास्ता अपनी वैचारिक शक्ति के बूते एक अन्वेषी के रूप में खुद खोजते हैं।किसी का अनुगामी होकर चलना उनके रचानात्मक स्वभाव में नहीं हैं।"

आदरणीय संतोष सुपेकर जी के लिए यह उदगार आदरणीय डॉ. पुरुषोत्तम दूबे सर के हैं। उनकी इस बात से मैं भी पूरी तरह सहमत हूँ। हम सुपेकर सर की रचनाओं को विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में अक्सर पढ़ते रहते हैं। उनकी रचनाशीलता व लघुकथा के प्रति समर्पण भी उनकी साहित्यिक कर्मठता को दिखाता है।वैचारिक शक्ति का एक उदाहरण सुपेकर जी के नये लघुकथा संग्रह 'अपकेन्द्रीय बल' में आपको मिलेगा।यह उनका छठा लघुकथा संग्रह है जो एचआई पब्लिकेशन से प्रकाशित हुआ है।

'अपकेन्द्रीय बल' में संकलित कथाओं के बारें में आदरणीय योगराज सर लिखते हैं कि,

"इस संग्रह से गुजरते हुए मैंने पाया कि संतोष सुपेकर की लघुकथाएँ हमारे जीवन की विसंगतियों का बहुत ही बारीकी से अन्वेषण करती हैं।यथार्थ से सजी इन लघुकथाओं में जीवन की श्वेत श्याम फोटोग्राफी है।"

कथाओं में निहित मूल भाव और उद्देश्य का सार योगराज सर ने अपने इस वक्तव्य में दिया है। जो भी पाठक संतोष सुपेकर जी की लघुकथाओं से परिचित है वह इस बात से सहमत होगा कि संतोष सुपेकर जी की लघुकथाएँ यथार्थ का आईना हैं।

इन कथाओं में कोई कृत्रिमता नहीं है बल्कि स्वभाविक भाव लिए उन बिन्दुओं पर चोट है जिन बिन्दुओं की डार्क स्याही से हम बचकर निकल जाने की कोशिश करते हैं। कथाओं के पात्र हमारे इर्दगिर्द ही हैं जिन्हें आप रोज देखते हो और आगे बढ़ जाते हो।

सबसे पहले मैं इस संग्रह की लघुकथा विवश प्रस्ताव का जिक्र करूंगी। यह कथा भले ही लेखक के दिमाग की कल्पना हो, लेकिन पात्र सच्चे हैं और मैं व्यक्तिगत ऐसे पात्रों को देख चुकी हूं जिन्होंने लेखन को अपनी आत्मा बना लिया है। एक बेबस वरिष्ठ लेखक जिसने जीवन में लेखन से सम्मान तो पाया किन्तु धन नहीं कमा सके। धन तो जीवन में सम्मान से बढ़कर होता है! इसलिए लेखक के घरवालों को अब लेखक का लिखना पसंद नहीं। लेखन को बचाने के लिए वरिष्ठ लेखक अपनी जमापूंजी को ऐसे व्यक्ति के हाथों सौंप देता है जो संस्था द्वारा लेखकों को सम्मान देने का.काम करता है।

"इसमें से तीन हजार आपकी संस्था के सहायतार्थ रख लीजिए और…दो हजार मेरा सम्मान कार्यक्रम कर मुझे दे देना ताकि मेरे घरवाले मुझे लेखन करने दें।"

इस संवाद को पढ़कर इस कथा के मूल से आप परिचित हो गए होंगे।

लेखक ने लेखन में समाज की उस विसंगति को जो कि लेखको की आत्मपीड़ा बनकर आर्तनाद कर रही है। इस कथा के माध्यम से बड़ी मार्मिकता से उभारा है। डिसेंडिंग ऑर्डर शीर्षक से क्रमशः एक और दो कथाएँ हैं, दोनों ही उम्दा हैं। मुहर,अपार्टमेंट, संकुचन,स्थाई कसक,जुड़ाव, फायर,जैसी कथाएँ मनोवैज्ञानिक अवलोकन पर आधारित हैं।

सुपेकर जी ने सरकारी कार्यालयों और सरकारी कर्मचारियों को लेकर अनेक कथाएँ लिखी हैं।इन कथाओं में व्यवस्था और उसमें शामिल भ्रष्टाचार अपने नग्न रुप में सामने आ रहा है।

संग्रह की कथाओं में प्रवाह है और ठहराव भी।भाषा सहज सुगम है और पात्रानुकूल है।

इन कथाओं के पात्र कभी अपने रोग से लड़ते हुए विजेता होने का सपना देखते हैं तो कभी सच रिश्तों की चुगली कर बतियाते हैं।

हताशा का लावा अच्छा शीर्षक है कथा भी जानदार। कथाओं की डोर सख्त कील से बंधी लेकिन अपने ऊपर ढेरों आशाएं टाँगे यह डोर संवेदना को हौले-हौले से झिंझोड़ कर जगा रही है।

सात रहती दूरियाँ ऐसे ही आपको खंरोच कर निकल जाती है, तो रास्ते का पत्थर टक से आपके दिल पर जाकर लगता है। इस कथा को पढ़कर एक बार अपने मन को ज़रूर टटोलना होगा कि कहीं कभी हमने भी ऐसा तो न कहा या किया था!

सुपेकर जी रचनाधर्मिता के साथ एक और धर्म बहुत स्पष्टता से निभा रहे हैं और वह है साहित्यकारों के हृदय की पीड़ा उनके जीवन में आने वाली दिक्कतों को संजीदगी के साथ समाज और व्यवस्था के सामने रखना। उन्होंने अनेक कथाओं में लेखन जगत की विसंगतियों को उभारा है जैसा कि मैं पहले लिख ही चुकी हूँ।

चाल ,साजिशें और गिरगिट की तरह रंग बदलते पात्रों में एक पात्र लखन दादा भी है, जो राकेश की बारात का स्वागत इसलिए करता है क्योंकि अब उसे पार्षद के इलेक्शन के लिए गरीब राकेश की बस्ती के वोट चाहिएं।

उस रक्त स्नान के खिलाफ इंसानियत के बचने की कथा है।

'अपकेन्द्रीय बल' संग्रह की शीर्षक कथा समाजिक असमानता के तानेबाने और सोच व ज़रूरत पर लिखी गई कथा है। सेठ छगनलाल और सेवक मंगल की आवश्कताओं का अपकेन्द्रीय बल जो कि बेहतरीन कथा बन पड़ी है।

जाति धर्म एक ऐसा विषय जो बेहद संवेदनशील विषय है और अक्सर झगड़े की वजह भी बनता है। संग्रह की प्रथम लघुकथा 'इस बार' में चार दोस्तों के बीच अपने धर्म और जाति के विवाद के बीच उपजी बहस में अचानक सभी सच को देख खामोश हो जाते हैं और अपने ऊपर शर्मिंदा होने लगते हैं।

लघुकथाओं को समझने के लिए पाठकों को उपन्यास को समझने से ज्यादा धैर्य व श्रम की आवश्यकता होती है।अमूमन यह धारणा है कि लघुकथाएं उपन्यास के सामने महत्व नहीं रखती जबकि ऐसा नहीं है क्योंकि एक लघुकथा जो चंद वाक्यों में लिखी जाती है वह हज़ारों शब्दों में लिखे गए उपन्यास से ज्यादा लम्बी कहानी को समेटे होती है, जिसका उद्देश्य समाज की चेतना को जाग्रत करना होता है।

इस संग्रह में भी आपको ऐसी ही कथाएं पढ़ने को मिलेंगी।

संग्रह के लिए आदरणीय सुपेकर सर को बधाई व शुभकामनाएं।

- दिव्या शर्मा

बुधवार, 13 अप्रैल 2022

हाल-ए-वक़्त लघुकथा संग्रह का विमोचन

 श्री मुरारीबापू द्वारा प्रारम्भ किए गए साहित्य के प्रतिष्ठित काग सम्मान समर्पण समारोह में मैग्सेसे सम्मान से सम्मानित वाटरमैन श्री राजेन्द्र सिंह साहिब, अध्यात्म चेतना कंकू जी आई, जनार्दन राय नागर राजस्थान विद्यापीठ के सम्माननीय कुलाधिपति महोदय प्रो. बलवंत राय जानी साहिब, जनार्दन राय नागर राजस्थान विद्यापीठ के सम्माननीय कुलपति महोदय प्रो. कर्नल एस. एस. सारंगदेवोत साहिब संग श्री काग सम्मान प्राप्त वरिष्ठ साहित्यकार श्री महेंद्र भाणावत जी, कुलप्रमुख महोदय श्री बी.एल. गुर्जर साहिब व कुलसचिव डॉ. हेमशंकर दाधीच जी साहिब द्वारा हाल-ए-वक़्त लघुकथा संग्रह का विमोचन हुआ।



बुधवार, 30 मार्च 2022

हिंदी लघुकथा संग्रह हेतु रचनाएँ आमंत्रित

 आदरणीय सुधीजनों,

जनार्दन राय नागर राजस्थान विद्यापीठ, उदयपुर द्वारा साहित्य प्रकाशन योजना के तहत एक सांझा हिंदी लघुकथा संग्रह हेतु रचनाएँ आमंत्रित हैं। शायद प्रथम बार किसी उच्च शिक्षा अकादमिक संस्थान ने इस तरह के कार्य का बीड़ा उठाया है और यह भी सोचा गया है कि यदि प्राप्त रचनाएं स्तरीय होंगी तो इस संग्रह को विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में भी शामिल किया जा सकता है (हिन्दी विभाग व अकादमिक काउन्सिल की स्वीकृति के पश्चात).

इस संग्रह में भाग लेने हेतु कृपया निम्न बिन्दुओं पर ध्यान दें:

1. इस संग्रह में शामिल होने हेतु कोई शुल्क नहीं है। अप्रकाशित/अप्रसारित की शर्त नहीं है। लघुकथा की गुणवत्ता के अनुसार ही चयन किया जाएगा। लघुकथाओं प्रकाशन हेतु फिलहाल किसी प्रकार के मानदेय की व्यवस्था नहीं है।

2. लघुकथाएं भेजने की अंतिम तिथि 30 अप्रेल 2022 है।

3. लघुकथा की शब्द सीमा निर्धारित नहीं की गई है, फिर भी अधिकतम 600-700 शब्दों की हो तो बेहतर।

4. अपनी बेहतरीन लघुकथाएं (कम से कम एक व अधिकतम पंद्रह) निम्न गूगल फॉर्म द्वारा भेजें:

https://forms.gle/P9xcrq8izKVnTnfe9


यदि किसी कारणवश गूगल फॉर्म भरने में कठिनाई हो तो निम्न इमेल पर भी भेजी जा सकती हैं: laghukatha@jrnrvu.edu.in

5. यदि ईमेल से रचनाएं भेज रहे हैं तो

अ) इमेल का विषय : "विद्यापीठ लघुकथा संग्रह 2022 में प्रकाशन हेतु”  रखें.

ब) रचनाकार का परिचय जिसमें निम्नलिखित सूचनाएं हों:

लघुकथाकार का पूरा नाम: 

लिंग: महिला / पुरुष

ईमेल आईडी:

फोन नंबर (WhatsApp):

संप्रति / वर्तमान पदनाम, संगठन:

डाक का पूर्ण पता (पिनकोड सहित):

राज्य:

देश:

शिक्षा:

संक्षिप्त साहित्यिक परिचय:

लघुकथा लेखन कब से कर रहे हैं (केवल वर्ष बताइए).

ईमेल में अपना पासपोर्ट साइज़ चित्र भी संलग्न करें.

अपनी बेहतरीन मौलिक-स्वरचित (कम से कम एक और अधिकतम पंद्रह) लघुकथाएँ यूनिकोड फ़ॉन्ट में टाइप कर, वर्ड फ़ाइल में भेजें और उस फाइल को अपने नाम (अंग्रेजी में) से सेव करें। 

हर लघुकथा एक भिन्न पृष्ठ पर हो। 


स) निम्न घोषणाएं अति आवश्यक है:


(i) मैं यह घोषणा करता / करती हूँ कि मेरे द्वारा भेजी गयीं रचना(एं) मौलिक और मेरे द्वारा स्वरचित हैं। किसी भी प्रकार के कॉपीराइट विवाद से मुक्त है। किसी भी कॉपीराइट विवाद हेतु मैं स्वयं ही जिम्मेदार होउंगा/होऊँगी। मैं जनार्दन राय नागर राजस्थान विद्यापीठ, उदयपुर को यह अधिकार देता / देती हूँ कि इस/इन लघुकथा(ओं) का प्रयोग विश्वविश्वविद्यालय द्वारा प्रस्तावित लघुकथा संग्रह में कर सकते हैं।


(ii) सम्पादकीय मंडल व जनार्दन राय नागर राजस्थान विद्यापीठ की अधिकृतियों द्वारा इस संग्रह के सम्बन्ध में की गई मेरी लघुकथाओं का चयन मुझे मान्य होगा तथा मैं ऊपर दर्शाए गए सभी नियमों का पालन करूंगा / करूंगी।


हस्ताक्षर के लिए अपना नाम लिखिए


7. लघुकथा भेजने के बाद (चाहे फॉर्म या इमेल से) कृपया निम्न लिंक पर क्लिक कर whatsapp समूह से जुड़ जाएँ. संग्रह की आगामी जानकारियाँ वहां पोस्ट की जाएंगी:

https://chat.whatsapp.com/CpQ2zBRQfZNDdkLjacnUtB


8. सम्पादक तो अपना कार्य करेंगे ही, लेकिन लेखकगण भी कोशिश कर कृपया मानक वर्तनी का ही उपयोग करें। इस हेतु आप केंद्रीय हिंदी निदेशालय के नियम देख सकते हैं।

9. रचनाओं के किसी सन्देश में मानव मूल्यों, समुदायों, स्त्री के प्रति अवमानना न हो।

10. बिनावजह अथवा ठेस पहुंचा रहे जातिसूचक व राजनीतिक नामों का उपयोग न करें।

11. रचना में किसी भी व्यक्ति विशेष, समुदाय, वर्ग, धर्म, प्रदेश, देश आदि के प्रति अनावश्यक नकारात्मक अभिव्यक्ति या अनावश्यक आलोचना न हो। कोई विसंगति दर्शाने में आलोचना हो रही हो तो उसे दिया जा सकता है।

12. लघुकथाओं का चयन सम्पादकीय मंडल द्वारा किया जाएगा।


किसी भी अन्य सूचना के लिए कृपया संपर्क करें :

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

मोबाईल : +91 - 928544749 (WhatsApp)

सादर,


बुधवार, 16 मार्च 2022

समीक्षा | लघुकथा-संग्रह " ब्रीफ़केस" | लेखक: नेतराम भारती | हिन्दी दैनिक समाचार- पत्र "इंदौर समाचार" में प्रकाशित | समीक्षाकार: डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी





पुस्तक: ब्रीफ़केस (लघुकथा- संग्रह )

लघुकथाकार : नेतराम भारती

प्रकाशक : अयन प्रकाशन, दिल्ली

पृष्ठ :160

मूल्य : 315/-


समकालीन संवेदनाओं के ओजपूर्ण कथन

- डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी 


नेल्सन मंडेला ने कहा था कि, "यदि आप किसी व्यक्ति से उस भाषा में बात करते हैं जो वो समझता है तो बात उसके दिमाग में जाती है, लेकिन यदि आप उससे उसकी अपनी भाषा में बात करते हैं तो बात सीधे उसके दिल तक जाती है।" साहित्य भी इसी प्रकार के दृष्टिकोण से निर्मित किया जाता है और साहित्य की एक विधा - लघुकथा चूँकि न्यूनतम शब्दों में अपने पाठकों को दीर्घ सन्देश दे पाती है। अतः ऐसा वातावरण, जो मानवीय संवेदनाओं और समकालीन विसंगतियों को दिल तक उतार पाए, का निर्माण करने में लघुकथा का दायित्व अन्य गद्य विधाओं से अधिक स्वतः ही हो जाता है।

हिन्दी शिक्षक, गद्य व पद्य दोनों ही की विभिन्न विधाओं में समान रूप से सक्रिय युवा लेखक श्री नेतराम भारती के लघुकथा संग्रह 'ब्रीफ़केस' में भी सामयिक भाषा व समकालीन विषय, जो सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक यथार्थ की पृष्ठभूमि से जुड़े हैं, की एक सौ एक रचनाएं संगृहीत हैं। लघुकथा लघु और कथा की मर्यादाओं के साथ-साथ जिस क्षण विशेष की बात कर रही होती है, वह, पूरी रचना में हाथों से फिसलना नहीं चाहिए अन्यथा लघुकथा के भटक जाने का खतरा होता है। नेतराम भारती की लघुकथाएं इन दृष्टिकोणों से आश्वस्त करती हैं, इनके अतिरिक्त उनकी कलम किसी नोटों से भरे ब्रीफ़केस से ऊपर उठी दिखाई देती है। इस संग्रह की ‘ब्रीफ़केस’ लघुकथा इसी विचार पर केन्द्रित है। जमील मज़हरी का एक शे'र है,

 "जलाने वाले जलाते ही हैं चराग़ आख़िर, 

ये क्या कहा कि हवा तेज़ है ज़माने की।" 

इस संग्रह की एक अन्य लघुकथा 'रसीदी टिकट' भी भोगवादिता और भाववादिता के अंतर को दर्शाती एक ऐसी रचना है जो चरागों को रोशन करने का पैगाम दे रही है। लघुकथा 'सदमा' के मध्य की यह पंक्ति //वे ही अगर जीवित होती तो, पिताजी के जाने का इतना दुःख नहीं होता।//, न केवल उत्सुकता बढ़ाती है बल्कि रचना का अंत आते-आते यह पञ्चलाइन भी बन जाती है। संस्कृत में एक श्लोक है - "भूमे:गरीयसी माता,स्वर्गात उच्चतर:पिता।" अर्थात भूमि से श्रेष्ठ माता है, स्वर्ग से ऊंचे पिता हैं। रचना 'नये पिता' भारतवर्ष की इसी संस्कृति को उद्घाटित कर रही है। 'फ़रिश्ता' की बात करें तो यह नारी सशक्तिकरण की उन रचनाओं में से एक है जिनका विषय समकालीन व उत्कृष्ट है। 'इडियट को थैंक्स' मित्रता का सन्देश दे रही है और 'आख़िरी पतंग' पिता-पुत्र के प्रेम का। 'पत्नी ने कहा था' का अंत मार्मिक है और निष्ठपूर्ण आचरण का द्योतक है। 'बुज़ुर्ग का चुंबन' प्रवासी भारतीयों का प्रतिनिधित्व करती एक रचना है, जिन्होंने अपने स्वदेश को देखा भी नहीं है। 'शब्दहीन अभिव्यक्ति' में कुत्तों के एक युगल के मध्य प्रेम की अद्भुत अभिव्यक्ति है। 'मैडम सिल्विया' में संवादों की लम्बाई रचना को थोडा उबाऊ ज़रूर कर रही है, परन्तु रचना का शीर्षक व प्रारम्भ उत्सुकता बढ़ाने वाला है। 'कान और मुँह' एक अनछुए विषय पर कही गई रचना है। 'बेड नंबर 118' मेडिक्लेम इंश्योरेंस के प्रति हस्पताल के लालच से परिचय करवाती है तो 'ऑनलाइन - ऑफलाइन' आभासी और भौतिक रिश्तों में अंतर को दर्शाती है। 'एक सत्य यह भी' एक पूर्ण रचना है, इसका शिल्प और अधिक उत्तम होने की सम्भावना है। 'संवेदना की वेदना' वास्तविक वेदना पर हावी टीवी सीरियल की स्क्रिप्टिड वेदना को बहुत अच्छे तरीके से दर्शा रही है। 'सफ़ेद कोठी' अपने संघर्ष के दिनों को न भूलने की सलाह देती हुई है। 'मुहिम' पद से हटाने की रणनीति बताती है। 'क्रॉकरी या जीवन' अपने जीवन काल में स्वअर्जित वस्तुओं के उपभोग का सन्देश दे रही है तो 'यूज एंड थ्रो' लिव-इन-रिलेशनशिप के कटु सत्य को दर्शा रही है। 'गाँधारी काश! तू मना कर देती' एक बेहतरीन शीर्षक की बेमेल विवाह से मना करने की राह दिखाती रचना है। 'अफ़सोस' मृत्यु के समय मनुष्य का अन्तिम वेदोक्त का कर्तव्य अर्थात्

 "वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तंशरीरम्। ओ३म् क्रतो स्मर क्लिबे स्मर कृतंस्मर।।" 

को याद दिला रही है। 'औज़ार...' लघुकथा सत्य को कहने का साहस और 'टायर-पंचर' परेशानी में मदद करने का सन्देश दे रही है।

लेखक की कई रचनाओं में किसी न किसी पात्र का नाम 'दिवाकर' है। पढ़ने-लिखने और प्रश्न करने वाले व्यक्ति की बुद्धि के बारे में कहा गया है कि "दिवाकरकिरणैः नलिनी, दलं इव विस्तारिता बुद्धिः॥" अर्थात वह बुद्धि ऐसे बढ़ती है जैसे कि 'दिवाकर' की किरणों से कमल की पंखुड़ियाँ। इस पुस्तक रुपी रचनाकर्म में भी समाज में सनातन नैतिक मूल्यों को सुदृढ़ बनाने हेतु जिस निष्ठा और समर्पण से सन्देश दीप्तिमान किया गया है वह प्रज्ञा संवृद्धि करता है। अधिकतर रचनाएं सौहार्दपूर्ण सकारात्मक दृष्टिकोण से कही गई हैं। शिल्प उत्तम है और जिस बात की भूरी-भूरी सराहना की जानी चाहिए वह है श्री भारती द्वारा विषय की गूढ़ अध्ययनशीलता और उस अध्ययन को कलमबद्ध करने की क्षमता। कहीं-कहीं जैसे,'शब्दहीन अभिव्यक्ति' में 'भाई सहाब' आदि को छोड़कर वर्तनी की त्रुटियाँ नहीं हैं। भाषा आम बोलचाल की है। कुछ रचनाओं के शीर्षक उत्तम होने की संभावना रखते हैं। समग्रतः, प्रबुद्ध सोच के पश्चात समकालीन मानवीय संवेदनाओं, चिन्तन हेतु आवश्यक विषयों से ओतप्रोत लघुकथाओं का यह संग्रह पठनीय व संग्रहणीय है।


- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

अध्यक्ष, राजस्थान इकाई, विश्व भाषा अकादमी

ब्लॉगर, लघुकथा दुनिया ब्लॉग

सहायक आचार्य (कम्प्यूटर विज्ञान)

बुधवार, 2 मार्च 2022

लघुकथा संग्रह "हाल-ए-वक्त"

गुरुजनों व वरिष्ठजनों के आशीर्वाद व सभी सम्बन्धी-मित्रों के स्नेह के फलस्वरूप राजस्थान साहित्य अकादमी के आर्थिक सहयोग से मेरा लघुकथा संग्रह "हाल-ए-वक्त" प्रकाशित हुआ। 

कुछ दिनों पूर्व अकादमी में वांछित प्रतियां भी जमा हो गईं।

संग्रह में भूमिका प्रो. (कर्नल) एस.एस. सारंगदेवोत (माननीय कुलपति, राजस्थान विद्यापीठ) व फ्लैप मेटर श्री त्रिलोक सिंह ठकुरेला (वरिष्ठ साहित्यकार) द्वारा लिखा गया है। आप दोनों का विशेष आभार। 






सोमवार, 14 फ़रवरी 2022

लीला तिवानी जी के ई-लघुकथा संग्रह

साहित्य की दुनिया में जाना-पहचाना नाम लीला तिवानी जी का है. हिंदी में एम.ए., एम.एड. कर वे कई वर्षों तक हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड हुई हैं। उनके दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत हुए हैं। वे हिंदी-सिंधी भाषा में विभिन्न विधाओं में लेखन करती हैं तथा अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी जी लघुकथाएं भी लिखती हैं और उन्होंने लगभग 900 लघुकथाएं लिखी हैं. उनके 16 लघुकथा संग्रहों में से कुछ की ई-पुस्तकें भी बनी हुई हैं. ये पुस्तकें उन्होंने लघुकथा दुनिया के पाठकों के लिए उपलब्ध करवाने की सहज ही स्वीकृति प्रदान की है. 

लीला तिवानी जी के लघुकथा संग्रहों की ये ई-पुस्तकें निम्नानुसार हैं:


मैं सृष्टि हूं

https://issuu.com/shiprajan/docs/_e0_a4_b2_e0_a4_98_e0_a5_81_e0_a4_9


रश्मियों का राग दरबारी

https://issuu.com/shiprajan/docs/_e0_a4_b2_e0_a4_98_e0_a5_81_e0_a4_9_d121c67e0a26b9


रिश्तों की सहेज

https://issuu.com/shiprajan/docs/rishton_ki_sahej


उत्सव

https://issuu.com/shiprajan/docs/utsav


इतिहास का दोहरान

https://issuu.com/shiprajan/docs/itihas_ka_dohran


बुधवार, 10 नवंबर 2021

वरिष्ठ लघुकथाकार श्री योगराज प्रभाकर द्वारा अशोक लव जी के लघुकथा संग्रह की समीक्षा

 तीन सौ साठ डिग्री विश्लेषण करती लघुकथाओं का संग्रह: 'एकांतवास में ज़िंदगी'


लघुकथा आज लोकप्रियता की बुलंदियों को छूने का प्रयास कर रही है। उसे इस स्थान तक पहुँचाने का श्रेय जिन मनीषियों को जाता है, अशोक लव का नाम भी उनमें शामिल है। आज की लघुकथाएँ काफ़ी सीमा तक आदमी के जीवन में का प्रतिनिधित्त्व कर रही हैं। यही कारण है कि लघुकथा जीवन से सीधे जुड़ी हुई है। इसमें जीवन के किसी एक तथ्य को अपनी संपूर्ण संप्रेषणता के साथ उभारा जाता है। जिसका जितना अधिक अनुभव होगा, जितनी अधिक व्यापक दृष्टि होगी, समझ जितनी अधिक विस्तृत होगी, चिंतन-मनन जितना अधिक स्पष्ट होगा तथा शब्दार्थ और वाक्य विधान का जो मितव्ययी एवं निपुण साधक होगा वह उतनी सटीक लघुकथा रच सकता है।

 आज पूरा विश्व एक भयानक महामारी की चपेट में हैं। यह महामारी प्राकृतिक है या मानव-निर्मित, इसका पता तो शायद ही कभी चल पाए। लेकिन इसके चलते उद्योग, व्यापार और रोज़गार की स्थिति बद-से-बदतर हुई। लगता है कि सब कुछ थम-सा गया है। भयंकर आर्थिक मंदी मुँह बाये खड़ी है, यह किस-किस देश की अर्थव्यवस्था को ध्वस्त करेगी, इसका उत्तर तो भविष्य के गर्भ में ही छुपा है। यह स्थिति हमारे देश की लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था की सेहत के लिए क़तई लाभकारी नहीं है।संभवत: द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद इस महामारी में सब से अधिक लोगों ने अपनी जान गँवाई है। विद्वानों के मतानुसार हर काल का साहित्य उस युग की सामाजिक-सांस्कृतिक, राजनैतिक वैधानिक और आर्थिक स्थितियों-परिस्थितियों से निर्लिप्त नहीं रहा है। साहित्य ने युग का प्रतिनिधित्त्व किया है या उसे प्रतिबिंबित, काल-संसर्ग सदैव अपेक्षित प्रभावी रहे हैं- किसी भी विधा के स्वरूप निर्धारण, अपितु यहाँ तक कि उसके अस्तित्त्वनिरूपण में भी युग की महती भूमिका रही है।

वस्तुत: किसी विषय विशेष पर एक पूरा एकल संग्रह तैयार करना जहाँ चुनौतीपूर्ण है वही एक जोखिमभरा कार्य भी है। क्योंकि विविधता का अभाव प्राय: एकरसता और ऊब पैदा कर देता है। किंतु 'एकांतवास में ज़िंदगी' के साथ बिल्कुल नहीं है। इसकी साठ लघुकथाएँ कम-से-कम पचास अलग-अलग विषयों पर आधारित हैं। विषय भी ऐसे जो घर में क़ैद आमजन की व्यथा से लेकर अंतरराष्ट्रीय चिंतन तक को अपने अंदर समोए हुए हैं। इस संग्रह की रचनाओं से गुज़रते हुए मैंने पाया कि अशोक लव सरीखा समर्थ व अनुभवी रचनाकार ही किसी समस्या का तीन सौ साथ डिग्री विश्लेषण करके ही किसी एकल विषय पर भी अद्वितीय प्रस्तुति दे सकता है।

 अशोक लव स्वयं एक प्रखर भाषाविद हैं जो हिंदी व्याकरण पर अनेक ग्रंथ रच चुके हैं। एक सामान्य पाठक लघुकथा के लघु आकार के कारण लघुकथा की ओर आकर्षित होता है, किंतु मेरा मानना है कि लघु अकार के अलावा जो बात पाठकों को अपनी ओर खींचती है, वह है- लघुकथा की आम-फहम भाषा। स्व० जगदीश कश्यप ने कहा था कि अच्छा लेखक वही है जिसे क्लिष्ट शब्दों से परिचय हो परंतु सरल शब्दों में अभिव्यक्ति दे। भाषा-प्रयोग के बारे में प्रेमचंद की लोकप्रियता सर्वविदित है जबकि जयशंकर प्रसाद इसी शुद्ध भाषा प्रयोग के कारण कहानी में उतने सफल नहीं हो सके जितने कि प्रेमचंद। प्रेमचंद ने आम आदमी की भाषा को प्रतिष्ठित किया। ठीक यही बात लघुकथा में लानी चाहिए। आप देखेंगे कि अशोक लव की भाषा एकदम सरल, आमफ़हम, आडम्बरहीन एवं बोलचाल की है, जो आम आदमी को स्वीकार्य हैं। सोद्देश्यता इनकी लघुकथाओं की विशेषता है, साथ ही इसमें शिल्पगत, कथ्यगत, विचारगत, शाब्दिक, भाषिक एवं संवेदनात्मक-गंभीरता, गहनता, तीक्ष्णता, शब्द मितव्ययिता, कलात्मकता कूट-कूटकर भरी हुई है। यही कारण है कि इनकी लघुकथाएँ अत्यंत कम शब्दों में ही अन्तःकरण को झकझोरकर उन्हें मानवीय तथ्यों के प्रति सोचने को बाध्य कर देती हैं। इनकी लघुकथाएँ लघुकथा के मानदंड का पालन करती हैं। इन लघुकथाओं में लघुकथा की प्रत्येक हर कसौटी लघुता, तीक्ष्णता, लाक्षणिकता, प्रतीकात्मकता, कलात्मकता, गहनता और व्यंजना आदि का भली-भाँति निर्वाह किया है, जिसका कथ्य अत्यंत आधुनिक एवं यथार्थपूर्ण है। भाव और शिल्प प्रभावोत्पादक है।

यूँ तो इस संग्रह में एक से बढ़कर एक लघुकथाएँ संग्रहीत हैं; किंतु यहाँ केवल उन लघुकथाओं का उल्लेख करना ही समीचीन होगा जिनका क़द बाकियों से बुलंद है। ‘बड़- बड़ दादी’ कोरोना के चलते लोगों के बदलते हुए स्वभाव की बहुत ही प्यारी-सी बानगी जिसमें हर समय बड-बड करने वाली बूढ़ी दादी अपना कठोर स्वभाव त्यागकर हनुमान चालीसा पढ़ने लगती है। ‘मेरे शहर के बच्चे’ एक अन्य उत्कृष्ट लघुकथा है। जो कोरोना के चलते उद्दंड बच्चों के स्वभाव बदलने और परिवार के एकजुट होने की कथा है। इसी प्रकार ‘आशाएँ’ में लॉकडाउन के चलते समाचारों में मौत की ख़बरें सुन-सुनकर रीतिका के पति सुधीर के ठहाके बंद हो जाते हैं। उपर्युक्त तीनों लघुकथाएँ यथार्थ का सटीक और अर्थगर्भित चित्रण हैं। ‘स्वप्नों पर ग्रहण’ एक भावपूर्ण और मार्मिक लघुकथा है जिसमें कोरोना भयग्रस्त दंपती एक की मृत्यु की सूरत में दूसरे को शादी करने की सलाह देते। ऐसी परिस्थिति किसी का भी दिल चीरने में सक्षम हैं। इसी तरह की एक और लघुकथा ‘स्व-आहुति’ कोरोना महासंकट ने किस तरह आम जनमानस की सोच को प्रभित किया कैसे उनमें असुरक्षा की भावना पैदा की, इसका साक्षात्कार इस रचना में होता है। इस रचना की नायिका रश्मि अपने पति को बाज़ार जाने से रोकती है, और स्वयं सब्ज़ी लेने चलती जाती है। दिमाग़ में यही चल रहा है कि ‘अगर उनको कुछ हो गया तो? यह मानवीय संबंधों की ऊँचाई की पराकाष्ठ नहीं तो और क्या है? कुछ ऐसा ही ‘उपचार’ में देखने को मिलता है जिसमें कोरोना पर इलाज के ख़र्चे की बात सुनकर पति-पत्नी अपनी पति को हिदायत देता है कि यदि वह कोरोनाग्रस्त हो जाए तो उसका इतना महँगा उपचार मत करवाना और वही पैसा भविष्य के लिए अपने लिए रख लेना। ‘और क्या जीना’ में वृद्धों की संवेदनशीलता के दर्शन होते हैं। इस लघुकथा में एक वृद्ध पत्नी एक युवा को संक्रमण से सुरक्षित रखने के लिए अपने पति को बाज़ार भेजने का निर्णय लेती है। इस संग्रह की एक सार्थक लघुकथा है ‘और अलमारी खुली’- लॉकडाउन के चलते अवसाद से बाहर निकालने में पुस्तकें किस प्रकार सहायक हो सकती है, इस लघुकथा में यह संदेश दिया गया है।

हर रचनाकार का कर्तव्य है कि वह अपने अपनी संस्कृति पर गर्व करें और अपने समाज के मूल्यों को अक्षुण रखने का प्रयास करें। अशोक लव को भी अपनी संस्कृति पर गर्व है। जिसकी बानगी उनकी बहुत-सी लघुकथाओं में देखने को मिलेगी। लेकिन यहाँ दो-तीन अति-महत्त्पूर्ण लघुकथाओं का उल्लेख करना ही समीचीन होगा। पहली लघुकथा है ‘संकटमोचन’ इसमें एक महिला की मौत पर उसके सगे संबंधियों ने भी आने समाना कर दिया। लेकिन पड़ोसियों ने पड़ोसी-धर्म क पालन करते हुए उसे सहारा दिया और उसके अंतिम संस्कार में मदद की। यह लघुकथा यथार्थ का सफल चित्रण है। इसके विपरीत ‘कूड़ा बन जाना’ एक तथाकथित विकसित देश की कहानी है जहाँ घरों के आगे ताबूत पड़े हैं, उनको लेने वाला कोई नहीं। परिवारजनों का अपने परिजनों की मृत देहों को लेने से इनकार करना और नगरपालिका द्वारा लावारिसों की तरह उनका अंतिम संस्कार करना दो सभ्यताओं का तुलनात्मक विश्लेषण है। इसी की अगली कड़ी है, ‘न लकड़ी न अग्नि’। यह लघुकथा एक तीर से कई-कई निशाने लगाने में सफल हुई है। इस लघुकथा में अंतिम संस्कार के भारी ख़र्चा के बारे में जानकर लोगों द्वारा अपने मृत परिवारजनों का अंतिम संस्कार नदी किनारे रेत में दबाकर करने की बात हुई है। हम यह भी पढ़ सुन चुके हैं कि सैकड़ों लोग अपने परिजनों की लाशें नदी में बहाने पर भी विवश हुए जोकि स्वाभाविक है कि बेहद दुखद है, किंतु ऐसी विपरीत परिस्थितियों के बावजूद भी विकसित पश्चिमी राष्ट्रों की तरह अपने परिजनों को लावारिस नहीं छोड़ा।

 भारतीय संस्कृति में दया और दान का बहुत महत्त्व है। ‘मात्र रूपा’ इसी विचारधारा का प्रतिनिधित्त्व करती है। जहाँ लॉकडाउन के चलते बंगाल से आए और नॉएडा में फँसे एक परिवार दयाभाव दिखाए हुए एक घर में आश्रय दे-दिया जाता है। इसका दूसरा उदाहरण है ‘भगवान् सुनते हैं’, यह सैकड़ों मील दूर पैदल अपने गाँव लौट रहे थके-हारे और भूखे-प्यासे प्रवासी श्रमिकों की गाथा है। लेकिन कुछ सिख लोग फ़रिश्ते बनकर वहाँ पहुँचते हैं और उन्हें खाना (लंगर) देते हैं। ‘श्रद्धा’ में लॉकडाउन के कारण भुखमरी की कगार तक पहुँचे एक कर्मकांडी पंडित को धनवंती अपने ससुर की बरसी के बहाने भोजन पहुँचाती है। दयाभाव के इससे बड़े उदाहरण और क्या हो सकते हैं?

 कोरोना विषय पर अनेक रचनाएँ मेरी दृष्टि से गुज़री हैं, किंतु वे डॉक्टरों की लापरवाही अथवा भ्रष्टाचार से आगे नहीं जा पाईं और कोई प्रभाव छोड़ने में असफल रहीं। किंतु अशोक लव ने इन कोरोना योद्धाओं का वह पक्ष उजागर किया है, किसे उजागर करना वांछित भी था और अनिवार्य भी। पहली लघुकथा है ‘पश्चाताप’, इसमें कोरोना योद्धा डॉक्टरों पर हुए हमले की कहानी है। जिसमें दिन-रात रोगियों का उपचार कर रहे लोगों की डॉक्टरों के प्रति असंवेदनशीलता को शब्दांकित किया गया है। कोरोना संक्रमितों की सहायता करने गए चिकित्सा दल पर कुछ सिरफिरे हमला कर देते है जिससे डॉ अवधेश घायल हो जाते हैं। हालाँकि हमला करने वाला युवक अंत में उस डॉक्टर से क्षमा भी माँग ल्रता है। ऐसी ही असंवेदनशीलता ‘निर्लज्ज’ में भी रेखांकित की गई है। इसमें रिहायशी सोसाइटी के लोग एक डॉक्टर दंपती पर ही सवाल उठा देते हैं कि क्योंकि वे हर समय कोरोना संक्रमितों के बीच रहते हैं इसलिए सोसाइटी को उनसे ख़तरा है। लेकिन इस लघुकथा का जुझारू डॉक्टर मल्होत्रा उनसे प्रतिप्रश्न करते हुए पूछता है कि हम डॉक्टर लोग तो दिन-रात लोगों की ज़िंदगियाँ बचने में लगे हुए हैं, पर हम पर उँगलियाँ उठाने वाले क्या कर रहे हैं? ‘जीवन स्पंदन’ भी एक बहुत ही भावपूर्ण लघुकथा है। इस में जीवन की आशा गँवा चुके रोगी में अचानक आए जीवन स्पंदन का बहुत ही सारगर्भित चित्रांकन किया गया है। इसमें न केवल रोगी के परिजन ही राहत की साँस लेते हैं बल्कि स्वयं डॉक्टर भी भी सतही भी वही होती है। यह रचना न केवल डॉक्टरों के बल्कि स्वयं लेखक के संवेदनशील व्यक्तित्त्व को भी उजागर करती है। ऐसा नहीं कि लेखक ने चिकित्सा क्षेत्र के नकारात्मक पक्ष पर क़लम न चलाई हो। ‘दो ईमानदार’ कोरोनाकाल में दवाइयों की ब्लैक मार्केटिंग करने वालों की ख़ूब ख़बर ली गई है। लेकिन यहाँ भी डॉक्टरों को भ्रष्टाचार में लिप्त न दिखाकर अशोक लव ने अपने नैतिक कर्तव्य का निर्वाह किया है।

मेरा मानना है कि अभिव्यंजना से अभिव्यक्ति तक का सफ़र जितना लंबा होगा, रचना उतनी ही परिपक्व व प्रभावोत्पादक होगी। क्योंकि किसी कृति को कलाकृति में परिवर्तित करने हेतु यह लंबा सफ़र अनिवार्य है। इसी अलोक में अब मैं बात करना चाहूँगा उन दो लघुकथाओं की जो अपनी बनावट बुनावट और कथानक के विलक्षण ट्रीटमेंट के कारण दीर्घजीवी सिद्ध होंगी। इन श्रेणी में सबसे पहले आती है ‘चलें गाँव’ यह लीक से हटकर एक बेहतरीन लघुकथा है। लॉकडाउन के करण बेकार हो चुके मज़दूर कुणाल के पास अपने गाँव लौट जाने के अलावा और कोई चारा नहीं। अब यहीं से उसके मन में द्वंद्व शुरू हो जाता है कि यदि तो वह कोरोना पीड़ित होकर शहर में ही मर गया तो उसकी लाश का क्या होगा। इससे बेहतर होगा कि वह अपने गाँव जाकर ही मरे। लेकिन फिर उसे अपने घर की ख़राब आर्थिक स्थिति का भी ध्यान आता है। वह जाने के लिए बस में बैठ जाता है। किंतु वह नहीं चाहता कि वह अपने घर वालों पर अतिरिक्त बोझ डाले क्योंकि शहर में कम-से-कम उसे एक समय का भोजन तो सरकार की ओर से उपलब्ध करवाया जा रहा है। किंतु इन सभी बातों के अलावा जो बात इस लघुकथा में अनकही है, वह है कुणाल का जुझारूपन और जीवत। अत: वह इस ऊहापोह को झटकर संघर्ष के इरादे से बस से उतर जाता है। क्योंकि वह घर वालों पर बोझ नहीं बनना चाहता है। वस्तुत: कुणाल ‘सलाम दिल्ली’ का नायक अशरफ़ ही है। केवल परिदृश्य बदला है, न तो परिस्थितियाँ ही बदली हैं और न ही कुणाल उर्फ़ अशरफ़ का संघर्ष और उनके अंदर का जुझारूपन। ऐसी लघुकथा को सौ-सौ सलाम!

 ‘असहाय न्यायालय’ को इस संग्रह का 'हासिल' कहना कोई अतिशयोक्ति न होगी। जिसकी हर पंक्ति सौ-सौ प्रश्नचिह्न खड़े करती है। इस लघुकथा की नायिका जो एक अधिवक्ता है, अपने भाई को अस्पताल में बेड न मिलने के कारण बहुत व्यथित है। उसे विश्वास था कि न्याय-व्यवस्था उसके भाई को बेड और ऑक्सीजन अवश्य उपलब्ध करवा देगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और दुर्भाग्य से उसके भाई की मृत्यु हो गई। वह निराशा में इसे अपनी पराजय मानती है। लेकिन माननीय न्यायाधीश कहते हैं कि- तुम नहीं हारी, हम हारें हैं, हमारा देश हारा है और व्यवस्थ हारी है। कोरोनाकाल में जो कुछ भी हुआ, यह पंक्ति सब कुछ बयान कर देती है। मुझे लगता है कि इस लघुकथा पर आधारित एक सफल टेलीफिल्म बन सकती है।

हिंदी-लघुकथा में सार्वभौमिकता का अभाव इस विधा की एक कमज़ोर कड़ी है। इसका एक कारण है लघुकथाकारों का अप-टू-डेट न होना और दूसरा अपने खोल से बाहर न निकलना। आचार्य जानकीवल्लभ शात्री ने कहा था कि आज के लघुकथाकारों क्या सभी साहित्यकारों को सबसे पहले अप-टू-डेट होना चाहिए। आज विश्व स्तर पर कितनी उथल-पथल मची हुई है। उस स्तर पर देखना चाहिए कि वहाँ के साहित्यकार कितने जागरूक या उत्तेजक, आग उगलते या बर्फ़ीले शब्दों में वाणी दे रहे हैं या उन बातों को लोगों के सामने प्रकट कर रहे हैं। यह देखना-पढ़ना चाहिए। दुनिया हर रोज़ बदल रही है। कल के मित्र राष्ट्र आज शत्रु बन रहे हैं और शत्रु राष्ट्र मित्र। और मज़े की बात यह है कि बाहर से शत्रु दिखने वाले राष्ट्र अपने-अपने स्वार्थ और लाभ के लिए ये आपस में हाथ मिलाने से भी गुरेज़ नहीं करते और अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्रों में भागीदार बनते हैं। केवल एक सचेत और अप-टू-डेट रचनाकार ही इन बातों की तह तक पहुँच सकता है। इस संदर्भ में 'चीनी फोबिया' एक अति-उत्तम लघुकथा है। यह रचना अमेरिका में रहने वाली अनुभूति और उसकी माँ के मध्य हुई फोन वार्ता पर आधारित है। यह रचना कोरोना फैलाने के चीनी षड्यंत्र से पर्दा उठाती है। अनुभूति की माँ को पूरा विश्वास है कि चीन अपने यहाँ हुई मौतों का सही आँकड़ा नहीं बता रहा। विश्व का निष्पक्ष मीडिया बता रहा है कि कोरोना वायरस चीन की वुहान प्रयोगशाला से निकला, यह बात भले ही अफ़वाह मान ली जाए लेकिन धुआँ कभी भी बे वजह नहीं उठता। वैसे इस चीनी षड्यंत्र को आज तक झुठलाया भी तो नहीं गया है। भारतवर्ष चीन के विरुद्ध कुछ भी करने में सक्षम नहीं, कम्युनिस्ट रूस भला चीन के विरुद्ध क्यों बोलेगा? अब ले देकर दुनिया को आशा है कि अमरीका इस मामले में कुछ-न-कुछ अवश्य करेगा। लेकिन पूरा विश्व जानता है कि वुहान लैब को अमरीकी फंडिंग थी। फिर भी अनुभूति की माँ को विश्वास है कि अमेरिका कुछ ज़रूर करेगा और यह बात उसको सुकून देती है। फोन पर अदिति का अपनी माँ को टोकते हुए कहना कि ऐसी बातें फोन पर नहीं किया करते, किस ओर इशारा कर रहा है? क्या अमेरिका को भी अपना पर्दाफ़ाश होने का डर सता रहा है? मुझे लगता है कि ऐसी सार्वभौमिक लघुकथाओं की आज बहुत आवश्यकता है।

 इस संग्रह की मेरी पसंदीदा एक अन्य सार्वभौमिक लघुकथा है, 'देश बचना चाहिए'। यह एक बिल्कुल ही नवीन विषय को लेकर रची गई लघुकथा है जिसमें कथानक की ट्रीटमेंट देखते ही बनती है। ऐसा कथानक शायद ही हिंदी-लघुकथा में इससे पहले कभी प्रयोग किया गया हो। इस लघुकथा के केंद्र में संभवत: संयुक्त राज्य अमेरिका के उपराष्ट्रप्ति व राष्ट्रपति हैं। दोनों के मध्य देशव्यापी लॉकडाउन हटाने के विषय में विचार-विमर्श चल रहा है। विमर्श किसी की लोकतांत्रिक व्यवस्था का अभिन्न अंग होता है। उपराष्ट्रप्ति लॉकडाउन हटाने के पक्ष में नहीं हैं क्योंकि इससे मौतों का आँकड़ा बढ़ने की आशंका है। जबकि राष्ट्रपति लॉकडाउन बढ़ाने के विरुद्ध हैं, उनका मत है कि इससे देश की अर्थव्यवस्था और भी चरमरा जाएगी। दोनों के तर्क अपने-अपने स्थान पर सही लगते हैं। लघुकथा अपनी स्वाभाविक गति से आगे बढ़ती है। उपराष्ट्रपति अपने राष्ट्राध्यक्ष के तर्क से सहमत हो जाते हैं और उन्हें सलाह देते हैं कि वे एक संदेश के माध्यम से लोगों को कोरोना से सुरक्षित रहने संबंधी दिशा-निर्देश दें। लोकतांत्रिक व्यवस्था की सुंदरता देखें कि राष्ट्रपति भी उपराष्ट्रपति के इस सुझाव से सहमत हो जाते हैं। अंत में राष्ट्रपति कहते हैं कि यह स्थिति किसी युद्ध से कम नहीं, यदि देश को बचने के लिए कुछ जानों का बलिदान करना भी पड़ा तो हम तैयार हैं क्योंकि हमें देश बचाना है। इस लघुकथा में भी उपराष्ट्रपति महोदय कोरोना वायरस के पीछे दुश्मन राष्ट्र के षड्यंत्र की ओर इशारा करते हैं। हमारे देश में जिस तरह बिना किसी पूर्वसूचना के लॉकडाउन लागू किया गया और बिना किसी तैयारी के हटाया गया, यह लघुकथा अप्रतयक्ष रूप से उस ओर भी इशारा करती है। कहते हैं कि एक लेखक भगवान की तरह होना चाहिए, जो अपनी रचना में मौजूद तो हो किंतु दिखाई नहीं दे। अशोक लव अपनी रचनाओं में कहते तो सब स्वयं हैं लेकिन बोलते उनके पात्र हैं। यह बात आज की पीढ़ी के लिए सीखने योग्य है। अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर अशोक लव का उच्च-स्तरीय ज्ञान और पैनी दृष्टि इस लघुकथा से परिलक्षित होती है। यदि इस स्तर की लघुकथाएँ हिंदी में लिखी जाने लगें तो हमारी लघुकथा भी विश्व की अन्य लघुकथाओं के साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर चलने में सक्षम हो जाएगी।

बलराम अग्रवाल के अनुसार लघुकथा किसी भी अर्थ में दनदनाती हुइ गोली नहीं है। यह इस प्रकार ‘सर्र’ से आपके सीने के निकट से कभी नहीं गुज़रेगी कि बदहवास से आप देखते ही रह जाएँ। पढ़ते-पढ़ते आप देखेंगे कि यह आपको झकझोर रही है। आपके ज़ेहन में कुछ बोल रही है - धीरे-धीरे आपको अहसास दिलाती है कि एक जंगल है आपके चारों ओर, और आप उसके बाहर निकल आने के लिए बेचैन हो उठते हैं। जंगल के बाहर निकल आने के समस्त निश्चयों-प्रयासों के दौरान लघुकथा आपको अपने सामने खड़ी दिखाई देती है- हर घड़ी-हर लम्हा। इस संग्रह की अधिकांश रचनाएँ उपर्युक्त कथन के निकष पर खरी उतरती हैं। इनकी लघुकथाएँ लघुकथा के मानदंड का पालन करती हैं। इन लघुकथाओं में लघुकथा की प्रत्येक हर कसौटी लघुता, तीक्ष्णता, लाक्षणिकता, प्रतीकात्मकता, कलात्मकता, गहनता और व्यंजना आदि का भली-भाँति निर्वाह किया है, जिसका कथ्य अत्यंत आधुनिक एवं यथार्थपूर्ण है। भाव और शिल्प प्रभावोत्पादक है।

 'सलाम दिल्ली' के प्रकाशन के तीन दशक पश्चात् प्रस्तुत लघुकथा संग्रह 'एकांतवास में ज़िंदगी' का प्रकाश में आना एक शुभ संकेत है। इसका कुछ श्रेय श्री अशोक लव ने हमारी पत्रिका 'लघुकथा कलश' को भी दिया है। बहरहाल, यह संग्रह हिंदी-लघुकथा को और समृद्ध करेगा, ऐसा मेरा विश्वास है। अत: ऐसी कृति का भरपूर स्वागत होना चाहिए।

- समीक्षक: योगराज प्रभाकर

सोमवार, 8 नवंबर 2021

समीक्षा: लघुकथा संग्रह: ज़िंदा मैं | लेखक: अशोक जैन | समीक्षक: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

लघुकथा की सहजता का ध्वजावाहक: ज़िंदा मैं

भगवान श्रीराम ने वनवास के कई वर्ष पंचवटी में व्यतीत किए थे। पंचवटी अर्थात पांच वृक्ष। ये पांच पेड़ थे - पीपल, बरगद, आँवला, बेल तथा अशोक। इन पर एक शोध के बाद वैज्ञानिकों ने पाया कि इन पाँचों के आस-पास रहने से बीमारियों की आशंका कम हो जाती है और शरीर की प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ती है। आज कोरोना और अन्य कई संक्रमणों के बीच में जीवित रह रहे हम सभी के लिए इन पांच वृक्षों में से एक के नाम वाले लेखक-कवि-सम्पादक श्री 'अशोक' जैन का लघुकथा संग्रह  "ज़िंदा मैं" का आवरण पृष्ठ मेरे अनुसार प्रकृति और जलवायु के सरंक्षण का प्रतिनिधित्व करता हुआ इसी बात को इंगित करता है कि उचित रहन-सहन हेतु वृक्षों द्वारा प्रदान की जा रही ऊर्जा का सही दिशा में उपयोग होना चाहिए। यह किताब खोलने से पहले ही मुझे इसके आवरण चित्र ने मुझे यों प्रभावित किया। वृक्षों की कटाई की आँधियों के बीच कोई 'बूढा बरगद' (इस संग्रह की एक रचना) अपनी हिलती जड़ों के बावजूद आज भी सरंक्षण देता है और कोई नन्ही कोंपल इस परम्परा की संवाहक बन जाती है। इस संग्रह की भूमिका उदीयमान व प्रभावोत्पादक रचनाओं  के लेखक श्री वीरेंदर 'वीर' मेहता ने लिखी है, जो संग्रह का सही-सही प्रतिनिधित्व कर रही है। एक उदीयमान रचनाकार से भूमिका लिखवाने का यह प्रयोग मुझ सहित कई नवोदितों को ऊर्जावान करने में सक्षम है।

भारतवर्ष के इतिहास में उदारता, प्रेम, भय, स्वाभाविकता, सहजता, गरिमा, उन्नति, लक्ष्मी, सरस्वती, स्वास्थ्य, विज्ञान आदि गुण श्रेष्ठतम स्तर पर हैं। ऐसा ही पुरातन साहित्य भी है। इतिहास और पुरातन साहित्य हमें हिम्मत प्रदान करता है, लेकिन जब हम अपने समय का हाल देखते हैं तो उपरोक्त गुणों को तलाशने में ही हाथ-पैर फूल जाते हैं। साहित्य का दायित्व तब बढ़ ही जाता है। महाकवि जयशंकर प्रसाद की कामायनी के मनु की तरह, “विस्मृति का अवसाद घेर ले, नीरवता बस चुप कर दे।” 41 लघुकथाओं के इस संग्रह "ज़िंदा मैं" में भी उपरोक्त गुणों को समय के साथ विस्मृत नहीं होने देने की रचनाएं निहित हैं। यह साहित्य का धर्म भी है ताकि साहित्य सनातन के साथ सतत बना रहे लेकिन सतही न हो। इस संग्रह की भी अधिकतर लघुकथाएं सहज हैं। शून्य को शून्य रहने तक भय नहीं रहता है लेकिन जब वह किसी संख्या के पीछे लग जाता है तो उसका मूल्य तो बढ़ता ही है, मूल्यवान के दिल में किसी भी शून्य के हटने का डर भी बैठ जाता है और वह स्वयं के प्रति भी सजग हो उठता है। संग्रह की पहली रचना 'डर' भी इसी प्रकार के एक भय का प्रतिनिधित्व कर रही है। 'मुक्ति-मार्ग' एक ऐसी रचना है जो सतही तौर पर पढी ही नहीं जा सकती, यदि कोई ऐसे पढ़ता भी है तो वह अच्छा पाठक नहीं हो सकता। 'गिरगिट' यों तो कथनी-करनी के अंतर जैसे विषय पर आधारित है, लेकिन यह भी सत्य है कि अतीत की इस कथा का वर्तमान से कई जगह गहरा सम्बन्ध है। कुछ लघुकथाओं में पात्रों के नाम समयानूकूल नहीं हैं जैसे, 'हरी बाबू', 'हरखू'। हालांकि ये लघुकथाएं समाज के विभिन्न वर्गों की परिस्थितियों का उचित वर्णन कर रही हैं।

कुछ लघुकथाओं में प्रतीकों का इस तरह प्रयोग किया गया है, जो विभिन्न पाठकों में भिन्न-भिन्न विचारों को उत्पन्न कर सकते हैं, उदाहरणस्वरूप, 'टूटने के बाद' व 'दाना पानी'। पुस्तक की शीर्षक रचना मैं-बड़ा के भाव, अहंकार, भोगवादी संस्कृति, पारिवारिक बिखराव के साथ-साथ स्वाभिमान जैसे गुणों-अवगुणों की नुमाइंदगी करती है। इसी प्रकार 'आरपार' में लालटेन को लेकर, 'खुसर-पुसर' में चित्र के द्वारा, 'बोध' में कदमताल व 'माहौल' में  बादलों के जरिए संवेदनाओं को दर्शाया गया है, जो इन रचनाओं को उच्च स्तर पर ले जाता है। 'जेबकतरा' इस संग्रह की श्रेष्ठतम रचनाओं में से एक है, एक गोल्ड मेडलिस्ट परिस्थितिवश जेबकतरा बन अपने ही शिक्षक की जेब काट लेता है, उसकी मानसिकता का अच्छा मनोवैज्ञानिक वर्णन किया गया है। 'पोस्टर' भी ऐसी रचना है जो एक से अधिक संवेदनाओं की ओर संकेत कर रही है। कुछ लघुकथाओं जैसे 'गिरगिट' में कहीं-कहीं लेखकीय प्रवेश भी दिखाई दिया। अधिकतर लघुकथाएँ सामयिक हैं जैसे 'मौकापरस्त'। ज़्यादातर रचनाओं की भाषा चुस्त है, लाघवता विद्यमान है, शिल्प और शैली भी अच्छी व सहज है। कथ्य का निर्वाह भी बेहतर तरीके से किया गया है और सबसे बड़ी बात अधिकतर रचनाएं पठनीय हैं। अशोक जैन जी की कलम कई मुद्दों पर बराबर स्याही बिखेरने की कूवत रखती है। अतः यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि लघुकथा संग्रह "ज़िंदा मैं" साहित्य के सन्मार्ग पर पंचवटी की तरह ऐसे वृक्षों का न केवल बीजारोपण कर रहा है, बल्कि उन वृक्षों के लिए खाद-पानी भी है, जिनसे लघुकथाएँ खुलकर श्वास ले सकती हैं।
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- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
928544749
chandresh.chhatlani@gmail.com
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लघुकथा संग्रह: ज़िंदा मैं
लेखक: अशोक जैन
प्रकाशक: अमोघ प्रकाशन,गुरूग्राम
मूल्य: ₹80/-

शनिवार, 6 नवंबर 2021

लघुकथा संग्रह: कितना-कुछ अनकहा | लेखिका: कनक हरलालका | समीक्षा: डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी




"जब व्यक्ति व समाज की विसंगतियों से भरी कोई समस्या हृदय पर आघात कर उसका समाधान खोजने के लिए विवश कर देती है तो कलम स्वतः ही अपने उद्गार प्रकट करने के लिए विवश हो उठती है।"

- कनक हरलालका (अपने लघुकथा संग्रह के लेखकीय वक्तव्य में)

कनक हरलालका जी न केवल एक समर्थ लघुकथाकारा हैं बल्कि एक अच्छी कवयित्री भी हैं। दो विधाओं में महारथ हासिल करने से पहले किसी भी व्यक्ति को  शब्दों का धनी होना होता ही है, जो प्रतिभा श्रीमती हरलालका में विद्यमान है।

लघुकथा विधा में यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि लघुकथा विसंगतियों की कोख से जन्म लेती हैं। अपने प्रथम लघुकथा संग्रह में हरलालका कहती हैं कि, "विसंगतियाँ मुझे हमेशा से व्यथित करती रही हैं, इसीलिए मैंने विभिन्न विषयों को अपनी लघुकथाओं का माध्यम बनाया है। धरती के प्राय: सभी रंगो को मैंने इन लघुकथाओं में उतारने की कोशिश की है।"

आज का साहित्यकार नैतिक, राजनैतिक दर्शन के मूल्यों को दर्शाने से पिंड छुड़ाता दिखाई नहीं देता वरन इन्हें दर्शा कर अपनी रचनाओं के सौन्दर्य में वृद्धि करता है। इस संग्रह में भी इसी तरह की सत्तासी लघुकथाएं संग्रहित हैं। पहली लघुकथा 'प्यास' से लेकर अंतिम लघुकथा 'भेड़िया आया' कुछ न कुछ प्रभाव ज़रूर छोड़ जाती है। किसी रचना की भाषा तो किसी का शिल्प, कथ्य, विषय, संवेदना और/या शीर्षक प्रभावोत्पादक हैं। लघुकथाओं में मानव सम्बन्धी मूल्यों की वृद्धि का भाव यदि विद्यमान हो तो न केवल रचना उत्तम बल्कि कालजयी बनने का सामर्थ्य भी रखती हैं। इस संग्रह की 'गांधी को किसने मारा' भी एक ऐसी रचना है जो गांधी जी के आदर्श और मूल्यों के ह्वास को दर्शा रही है। 'इनसोर' लघुकथा का शीर्षक कलात्मक और उत्सुकता पैदा करने वाला है। इसी प्रकार 'वयसन्धि', 'कठपुतलियाँ', 'दरकन', 'पुनर्जीवी', 'असूर्यम्पश्या', आदि लघुकथाओं के शीर्षक भी उत्तम हैं।

मज़दूरों के इन्श्योरेंस पर आधारित लघुकथा 'इनसोर' की यह पंक्ति झकझोर देती है कि //"साहब... भूख से मरने पर भी इनसोर का रुपिया मिलेगा क्या...?"// लघुकथा 'सगाई की अंगूठी' का अनकहा आकर्षित करता है। 'वयसन्धि' की भाषा और यह पंक्ति कि // गरीबों की लड़कियां  बचपन से सीधे बड़ी हो जाती हैं// प्रभावित करती है। जहाँ “भीड़” की पंचलाइन उद्वेलित करती है वहीं 'अनुदान' का विषय और उसका निर्वाह काफी बढ़िया है। 'दरकन' लघुकथा का सौन्दर्य इस बात में है कि हर पंक्ति में नायिका विद्यमान होकर भी कहीं नहीं है। पुराने विषय की होकर भी इस रचना का शिल्प महत्वपूर्ण है। 'जंगली', 'उन्होंने कहा था', 'भेड़िया आया' व 'एकलव्य' भी प्रभावित करती रचनाएं हैं। कहीं-कहीं उपदेशात्मकता ज़रूर प्रतीत हुई, जिसे कम किया जा सकता था।

नैतिक, सामजिक, राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक आदि मानवीय मूल्यों के संक्रमण को दर्शाती इस संग्रह की अधिकतर रचनाएं पैनी हैं, परिपक्व हैं और अपनी बात बिना किसी लाग-लपेट के कहने में समर्थ हैं। समग्रतः यह संग्रह न केवल पठनीय बल्कि संग्रहणीय भी है।

-०-


- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

chandresh.chhatlani@gmail.com

9928544749


लघुकथा संग्रह: कितना-कुछ अनकहा

लेखिका: कनक हरलालका

प्रकाशन : दिशा प्रकाशन, दिल्ली

मूल्य : ₹३००

पृष्ठ : १२०

सोमवार, 4 अक्तूबर 2021

मेरी नजर में | लघुकथा संग्रह ‘फिर वही पहली रात’ | संग्रह लेखक: कीर्तिशेष श्री विजय ‘विभोर’ | समीक्षक: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

"साहित्य का कर्तव्य केवल ज्ञान देना नहीं है, परंतु एक नया वातावरण प्रदान करना भी है।" अपने इन शब्दों द्वारा डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन क्या कहना चाह रहे हैं यह तो स्पष्ट है, साथ ही इस वाक्य पर थोड़े से मनन के पश्चात् समझ में आता है कि यह पंक्ति एक भाव यह भी रखती है कि साहित्य का कार्य छोटी से बड़ी किसी भी समस्या के ताले की चाबी बनना हो न हो वर्तमान युग के अनुसार एक ऐसा वातावरण तैयार करना है ही, जो हमारे मन-मस्तिष्क के द्वार खटखटाने में सक्षम हो। चूँकि लघुकथा सीमित शब्दों में अपने पाठकों को दीर्घ सन्देश देने में भी सक्षम है, अतः ऐसे वातावरण का निर्माण करने में लघुकथा का दायित्व अन्य गद्य विधाओं से अधिक स्वतः ही हो जाता है।

उपरोक्त कथन को मूर्तिमंत करते लघुकथा के कर्म, चरित्र और मूल वस्तु से परिचय कराता, सुरुचिपूर्ण, सकारात्मक, सार्थक और प्रेरणास्पद लेखन का एक उदाहरण है श्री विजय ‘विभोर’ का लघुकथा संग्रह 'फिर वही पहली रात'। मानवीय चेतना के शुद्ध रूप के दर्शन करने को प्रोत्साहित करती श्री विभोर की लघुकथाएं स्पष्ट सन्देश प्रदान करने में समर्थ हैं। मौजूदा समय का मूलभूत अनिवार्य मंथन भी इन रचनाओं में सहज भावों के माध्यम से परिलक्षित होता है। उदाहरणस्वरूप पति-पत्नी के सम्बन्ध विच्छेद की बढ़ती घटनाओं कम करने का प्रयास करती लघुकथा ‘आदत’, मानवीय प्रेम का सन्देश देती 'कनागत, ‘मजबूरी’, आदि रचनाओं में चेतना जागरण, नैतिक मूल्य, मानवता, नारी-स्वातंत्र्य, सामाजिक दशा, कर्तव्य परायणता और मानवीय उदात्तता जैसे बहुआयामी और समसामयिक विषयों पर लेखक ने बड़ी प्रवीणता-कुशलता से सृजन किया है।

लेखन ऐसा होना चाहिए जो न सिर्फ काल की वर्तमानता को दर्शाये बल्कि आने वाली शताब्दी तक की चुनौतियों पर खरा उतरने वाला हो। आदमीयत की गायब होती परिपूर्णता को शब्दों से उभार सके तथा सच व झूठ के टुकड़ों में बंटे हुए मनुष्य को आत्मिक चेतना तक का अनुभव करवा सके। अष्टछाप के प्रसिद्ध कवि कुम्भनदास को एक बार अकबर ने फतेहपुर सीकरी आमंत्रित किया था, कुम्भनदास ने उस आमंत्रण को अस्वीकार करते हुए कहा कि "सन्तन को कहा सीकरी सों काम।" सच्चे साहित्यकार संत की तरह होते हैं। ज़्यादातर इतिहासकारों ने शासकों की अयोग्यता को भी जय-जयकार में बदला है लेकिन अधिकतर साहित्यकारों ने नहीं। इस संग्रह की ‘जीवन जीर्णोद्धार’, ‘अन्नदाता’, ‘फैसले’, ‘बदलाव’ जैसी रचनाएँ साहित्यकार के इस धर्म का पालन करती हैं। लेखन सम्बन्धी विसंगतियां उठाती इस संग्रह की 'कुल्हड़ में हुल्लड़' भी एक विचारणीय रचना है।

पुरातन साहित्य में दर्शाया गया है कि वाराणसी के निवासी शौच करने भी 'उस पार' जाते थे। गंगा में नहाते समय अपने कपडे घाट पर निचोड़ते थे, नदी में नहीं। पौराणिक युगीन साहित्य में यह भी कहा गया कि “नमामी गंगे तव पाद पंकजं सुरासुरैर्वदित दिव्यरूपम्। भुक्ति चमुक्ति च ददासि नित्यं भावनसारेण सदानराणाय् ।।“ ऐसे विचार पढ़ने पर यह सोच स्वतः ही जन्म लेती है कि साहित्यकारों के कहे पर यदि देश चलता तो शायद गंगा कभी प्रदूषित होती ही नहीं और विस्तृत सोचें तो केवल जल प्रदूषण ही नहीं, कितनी ही और विडंबनाओं से बचा जा सकता था। प्रस्तुत संग्रह में भी 'बस ख्याल रखना', 'मेला', ‘निजात’, ‘प्रश्न’ जैसी रचनाएं साहित्यकारों की स्थिति दर्शा रही हैं, जो एक महत्वपूर्ण विषय है।

लघुकथा के बारे में एक मत है कि यह तुरत-फुरत पढ़ सकने वाली विधा है। लेकिन जिसका सृजन विपुल समय लेता है, उसे अल्प समय में पढ़ने के बाद पाठकगण हृदयंगम कर अपना महती समय चिंतन में खर्च न करें तो मेरे अनुसार हो सकता है कि वह रचना प्रभावी शिल्प की हो, लेकिन उद्देश्य पूर्णता की दृष्टि से अप्रभावी ही है। ‘फिर वही पहली रात’ की रचनाएं इस दृष्टि से निराश नहीं करतीं, वरन कुछ रचनाएँ ऐसी भी हैं जो नव-विचार उत्पन्न करती हैं। अधिकतर लघुकथाओं के कथानक समसामयिक हैं, सहज ग्राह्य एवं ओजस्वी भाषा शैली है। शीर्षक से लेकर अंतिम पंक्ति तक में लेखक का अटूट परिश्रम झलकता है।

समग्रतः, प्रभावशाली मानवीय संवेदनाओं, उन्नत चिन्तन, आवश्यक सारभूत विषयों को आत्मसात करती जीवंत लघुकथाओं से परिपूर्ण विजय 'विभोर' जी की विवेकी, गूढ़ और प्रबुद्ध सोच का प्रतिफल यह संग्रह पठनीय-संग्रहणीय सिद्ध होगा। बहुत-बहुत बधाइयां व मंगल कामनाएं।

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

रविवार, 3 मई 2020

समीक्षाः गुलाबी फूलों वाले कप (लघुकथा संग्रह ) | लघुकथाकार : डॉ.श्याम सुंदर दीप्ति | समीक्षाकारः डॉ.शील कौशिक


समीक्ष्य कृति:गुलाबी फूलों वाले कप (लघुकथा-संग्रह) 
लघुकथाकार : डॉ.श्याम सुंदर दीप्ति 
प्रकाशक: राही प्रकाशन, दिल्ली 

मूल्य: ₹395 पृष्ठ संख्या: 148
समीक्षाकारः डॉ.शील कौशिक

परिवेश व अनुभव की सान पर रचित श्रेष्ठ लघुकथाएं

डॉ. श्यामसुंदर दीप्ति पंजाबी व हिंदी लघुकथा के प्रमुख आधार स्तंभ रहे हैं। सन 1986 से अपना लघुकथा का सफर शुरू करने वाले डॉक्टर श्यामसुंदर दीप्ति स्वयं मानते हैं कि शुरुआत के तीन-चार दशकों के बाद लघुकथा में कई पड़ाव आए और उन्होंने खुद अपने लेखन में एक विकास होते महसूस किया। वर्तमान में विषय की नवीनता व प्रस्तुतीकरण में प्रयोग जहां एक ओर लघुकथा के विकास व समृद्धि के द्योतक हैं वहीं दूसरी ओर बड़ी संख्या में रातों-रात लघुकथा के नाम पर कुछ भी लिखकर लघुकथाकार बनने का लोभ संवरण नहीं करने वाले लघुकथा विधा के साथ खिलवाड़ करते नजर आते हैं। फिर भी वर्तमान समय को लघुकथा का स्वर्णिम युग कहा जा सकता है क्योंकि विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर लघुकथाओं का प्रकाशन एवं सोशल साइट्स पर रचनाकारों की सक्रियता देखकर लघुकथा की लोकप्रियता का अहसास होता है। उपन्यास और कहानियां नेपथ्य में जा रही हैं और लघुकथा प्रबलता और प्रभावशीलता के साथ सम्मुख आ रही है। लघुकथा में तीव्र गति से समाज में आए बदलाव को रेखांकित और प्रतिबिंबित करने की अद्भुत क्षमता है।
डॉ. श्याम सुंदर दीप्ति

डॉ श्याम सुंदर दीप्ति का सद्य:प्रकाशित लघुकथा संग्रह 'गुलाबी फूलों वाले कप' उनकी तीसरी लघुकथा की एकल कृति है। इससे पूर्व 'गैर हाजिर रिश्ता' उनकी चर्चित एवं प्रशंसित लघुकथा की पुस्तक है जिसे मैंने भी पढ़ा और सराहा है। मेडिकल प्रोफेशन व मनोविज्ञान की मास्टर डिग्री होने के कारण डॉ. साहब ने अनेक ज्ञान की पुस्तकें भी लिखी हैं। जहां तक लघुकथा का संबंध है डॉ दीप्ति देशभर में अग्रणीय व समर्पित हस्ताक्षर हैं। उन्होंने पंजाबी में लघुकथा को 'मिनी कहानी' के रूप में स्थापित कर 'मिन्नी त्रैमासिक' लघुकथा पत्रिका व 'जुगनूआं दे अंग-संग' के माध्यम से इसके विकास और संवर्द्धन में निरंतर अपना महती योगदान दिया है। उन्होंने रचनात्मक अवदान के साथ- साथ संपादन भी किया व अनेक कार्यशालाओं का आयोजन करके लघुकथा को समृद्ध किया है।
भूमंडलीकरण, आर्थिक भागदौड़ में मनुष्य अपनी आत्मा की आवाज सुनना भूल गया है। जीवन के शाश्वत मूल्यों को विस्मृत कर अर्थ उपार्जन में कौशल बढ़ाने में लगा है। वर्तमान परिवेश को डॉ. दीप्ति ने अपनी विभिन्न लघुकथाओं में व्यक्त किया है।

वृद्धावस्था में अकेलेपन से जूझते व उनकी लाचारी को 'दीवारें'और 'अधर में लटके' लघुकथाओं में देखा जा सकता है। संग्रह की प्रथम लघुकथा 'अधर में लटके' एक वृद्ध की कथा है जो परिस्थितियों के आगे समर्पण करने में ही अपनी भलाई समझता है। वह बेटे की स्थिति के साथ-साथ स्वयं की युवावस्था को व अपने त्याग का भी स्मरण करता है, जब उसने आगे पढ़ने की अपनी इच्छा को मार कर पिता के कहे अनुसार क्लर्क की नौकरी ज्वाइन कर ली थी। वह कहता है, " अपनी दो सांसों के बारे में क्या फिक्र करना । ठीक ही तो है मेरे बारे में सोचेंगे तो आप अधर में लटक जाएंगे।"
इन बुजुर्गों की आदत है बोलते रहने की, ऐसे रहने की, ऐसे करने की, जैसे वाक्य प्रत्येक घर में सुनने को मिल जाते हैं। जस्सी बेटे के दोस्त कश्मीरा को बुजुर्ग इस वाक्यांश से अपनी स्थिति स्पष्ट कर देता है लघुकथा 'दीवारें' में।
"हां बेटा! घर में पंखे-पुंखे सब हैं। पर कुदरत का कोई मुकाबला नहीं। एक बात और बेटा, आता- जाता व्यक्ति रुक जाता है। दो बातें सुन जाता है, दो सुना जाता है। अंदर तो बेटा दीवारों को ही झांकते रहते हैं।"
वंचित वर्ग चाहे वह किसान हो, मजदूर हो या फिर निम्न जाति का, डॉक्टर दीप्ति जी के लघुकथाओं के सदैव सरोकार रहे हैं। आज भी ग्रामीण परिवेश में जात-पात का भेदभाव देखा जा सकता है । लघुकथा 'हिम्मत' में बीरे को अपने सहपाठियों से मजबी जात का होने के कारण क्या कुछ नहीं सुनना पड़ता। ऐसे में हतोत्साहित बीरे को शिंदे कहता है कि मेरा बापू बस एक ही बात बोलता है- देख इसीलिए तो पढ़ाई करनी है कि जलालत के माहौल से बाहर निकल सकें। यही एक रास्ता है।" वास्तव में शिक्षा ही किसी भी क्रांति का मूल मंत्र है।
डॉ.शील कौशिक

यह विडंबना ही कहीं जाएगी कि कन्या जन्म को लेकर पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही स्त्रियों की सोच आज भी हटने का नाम ही नहीं ले रही है। 'उदासी का सफर' लघुकथा में राघवी के दूसरी संतान बेटी होने पर उसकी सास की मुस्कुराहट गायब हो जाती है। वह उसे सहर्ष ही रागिनी की बहन रिंपी जो कि नि:संतान है को देने के लिए तैयार हो जाती है। उधर राघवी नवजात कन्या को जब दादी की गोद में डालती है तो वह गुस्से में बोली, " अगर बच्चा गोद ही लेना था तो लड़की ही क्यों ?"
'कविता का चेहरा' व 'कहानी नहीं बनी' लघुकथाओं में डॉ दीप्ति द्वारा नया प्रयोग देखने को मिलता है। इस तरह के प्रयोग लघुकथा के विकास में संजीवनी का कार्य करते हैं। वर्षा ऋतु के मौसम का घूंट-घूंट रसपान करते हुए कवि के मन में कविता लिखने का वातावरण बनने, कविता के रूपवान होने, कविता पर निखार आने लगता है कि तभी सीवर के गंदे पानी के भभके के साथ-साथ प्रेमा की प्रताड़ना का अमानवीय दृश्य देखकर कविता रूठ कर वापस लौट जाती है। लघुकथा एक गहरा संदेश पीछे छोड़ जाती है कि मानवीय सरोकारों के बिना कुछ भी लिखना व्यर्थ है। लघुकथा में दृश्यात्मकता इस लघुकथा को ऊंचाई प्रदान करती है।
किसी को रोजी-रोटी कमाने के योग्य बनाना सबसे बड़ा पुण्य है। फटे पुराने कपड़ों व बेकार की कतरनों से बच्चों द्वारा वाल हैंगिंग, पायदान, कुशन आदि बनवा कर उनका भविष्य संवारने वाले रामकुमार के प्रति अनुभवी बच्चा आत्मविश्वास के साथ अपनी कृतज्ञता निरीक्षण करने वाले सीनियर सिटीजन के समक्ष इस प्रकार प्रकट करता है, " हम कतरनें ही तो थे, इन सर ने हमें सलीके से सिर ऊंचा करके चलना सिखाया और अपने पर गर्व करने योग्य बनाया है।"
वर्तमान समय की त्रासदी ही कही जाएगी की सभ्य कहे जाने वाले लोग एकाकीपन से इस कदर त्रस्त हैं कि रॉन्ग नंबर लग जाने पर दोनों तरफ से सुकून की अनुभूति होती है लघुकथा 'करवट' में । प्रत्युत्तर में वरिष्ठ नागरिक कहता है, 'चलो! चाहे रॉन्ग नंबर था... हां, अगर मन उदास हो तो किसी हमदर्द का समझ कर मिला सकते हो।" लघुकथा में लेखक की दूरदृष्टि व सजगता परिलक्षित होती है।
एक नितांत अछूते विषय पर लघुकथा है 'खोखा'। सभ्याचार और दिखावे की दुनिया से दूर खोखे पर मनोहर को जो आत्मीयता मिलती है, वह अपने बेटे के घर से भी न मिली। अंत में वह निर्णय कर संतुष्टि से सोया - 'जैसे उसे बाकी जिंदगी की खुशी के पल गुजारने का ठिकाना मिल गया हो।'
बाल मनोविज्ञान पर आधारित डॉ श्याम सुंदर दीप्ति का एक पूरा लघुकथा-संग्रह 'बालमन की लघुकथाएं' आ चुका है। प्रस्तुत संग्रह की 'बैड गर्ल' व' 'गुब्बारा' इनकी बाल मनोविज्ञान पर बहुत अच्छी लघुकथाएं हैं। बालमन कितना सरल और सहज होता है। 'गुब्बारा' में बेटी द्वारा रोज-रोज गुब्बारा मांगने पर पिता समझाते हैं कि गुब्बारा अच्छा नहीं होता, एक मिनट में ही फट जाता है। परंतु जैसे ही उसने गुब्बारे वाले की आवाज सुनी तो स्वयं के कदमों पर ब्रेक लगा कर पिता को देख कर बोली, "गुब्बारा अच्छा नहीं होता ना। भाई रोज ही आ जाता है। मैं उसे कह आऊं कि वह चला जाए।" परंतु मम्मी के पास रसोई में जाकर कहने लगी, " मम्मी जी, मुझे गुब्बारा ले दो ना।"
पुस्तक शीर्ष लघुकथा 'गुलाबी फूलों वाले कप' विवेचन योग्य एक प्यारी सी प्रौढ़ वय की यथार्थ के धरातल पर बुनी प्रेम कथा है। बढ़ती उम्र के साथ प्रेम और भी गहरा और प्रोढ़ हो जाता है। इसी तरह की एक और लघुकथा है 'दिनचर्या'। इसमें पति-पत्नी परस्पर छोटी से छोटी बात को बिना कहे समझ कर, छोटी-छोटी तकलीफों को छिटक कर, हंसकर जीवन बिताने में प्रयासरत हैं। संदेशपरक व वापस दिनचर्या में लौटने की सहज बिंबधर्मी लघुकथा है यह। लघुकथा में अनुभूति की तीव्रता देखते ही बनती है।
परिपक्व सोच दर्शाती एक बेहतरीन लघुकथा है 'नाइटी'। लघुकथा में मां प्रभा के मन की बात जानकर बेटी संकोच में पड़ी अपनी मां को अपनी पसंद को अपनाने का ग्रीन सिगनल नाइटी गिफ्ट करके देती है और अपनी मां को द्वंद से बाहर निकाल देती है। हमें पुरातन लीक से हटकर समय की चाल को समझ कर प्रगतिशील व आधुनिक विचारों को मानने से गुरेज नहीं करना चाहिए।
आर्थिक भागदौड़ में लगे अभिभावकों को सचेत करती लघुकथा है 'मिलन', जिसमें एकाकीपन और उपेक्षा के चलते बेटा नशे की गिरफ्त में आ जाता है। सामाजिक सरोकार की यह लघुकथा समाज को चिंतन बीज थमाती है।
'रिश्ता' डॉ. श्यामसुंदर दीप्ति की एक और बेहतरीन लघुकथा है, जिसमें निहाल सिंह ड्राइवर को अपने गांव के पास बस रोक देने के लिए जात का सहारा लेता है, फिर वीर बनके रोकने के लिए कहता है और अंत में जब वह कहता है कि आदमी ही आदमी के काम आता है, तब ड्राइवर बस रोक देता है। कंडक्टर के चिल्लाने पर ड्राइवर कहता है, " कोई नहीं, कोई नहीं, एक नया रिश्ता निकल आया था।" वास्तव में इंसानियत का रिश्ता ही सबसे अहम रिश्ता होता है।
'सफेद कमीज' लघुकथा में लघुकथाकार ने यह कहकर कि दाग रहित सफेद कमीज अफसर व नेता की पहचान होती है, सहज ही व्यंग्य का तीर चला दिया है।
डॉ श्याम सुंदर दीप्ति ने यथार्थ को गहरे में अनुभूत कर इस प्रकार लगभग सभी प्रचलित व विस्मृत विषयों पर अपनी कलम चलाई है। 'ताजा हवा' (किन्नरों पर), 'सहेली'( प्रकृति) वृद्धावस्था पर ' दीवारें' व 'अधर में लटके' आदि। सभी लघुकथाएं संवेदना की कसौटी पर खरी उतरती व मन को झिंझोड़ कर विचलन पैदा करने वाली हैं।
उन्होंने अपनी लघुकथाओं में संवादात्मक शैली के अतिरिक्त अन्य शैलियों का भी प्रयोग किया है जैसे आत्मकथात्मक शैली में 'प्रशंसा' डायरी शैली में 'खुशगवार मौसम'। कुछ लघुकथाओं में कथानक में समूचे परिवेश को लाने की जद में अनावश्यक विस्तार भी मालूम देता है जैसे 'धन्यवाद' लघुकथा में।
निष्कर्षत: डॉ. श्याम सुंदर दीप्ति की लघुकथाओं में एक भिन्न शिल्प विन्यास देखने को मिलता है। इनकी लघुकथाएं वर्तमान समय का प्रतिनिधित्व करती हैं। ये वैश्वीकरण युग की बदली हुई मानसिकता को यथार्थ के साथ अवगत करा कर सामाजिक ,आर्थिक व राजनीतिक विसंगतियों पर चोट करती हैं। अधिकतर लघुकथाओं में परिवेश व पंजाबी भाषा का समुचित प्रभाव है जो स्वाभाविकता का आग्रह है। डॉ श्याम सुंदर दीप्ति लघुकथा के रचना विधान व बारीकियों से न केवल भली-भांति परिचित हैं बल्कि नवागतों के लिए नई पगडंडी बनाते मालूम पड़ते हैं। अधिकतर लघुकथाओं के शीर्षक लघुकथा का ही हिस्सा मालूम पड़ते हैं और लघुकथा की अर्थवत्ता को बढ़ाते हैं। अंत में मैं उन्हें विविधता भरे 'गुलाबी फूलों वाले कप' लघुकथा-संग्रह के अस्तित्व में आने पर साधुवाद कहती हूं । मेरा ध्रुव विश्वास है यह संग्रह लघुकथा जगत में अवश्य चर्चित होगा।
शुभाकांक्षी
डॉ.शील कौशिक

बुधवार, 1 अप्रैल 2020

लघुकथा संग्रह : लम्हे | आयोजक: प्राची डिजिटल पब्लिकेशन्स | सह-आयोजक: लघुकथा दुनिया


'लम्हे' लघुकथा संग्रह का उद्देश्य

‘लम्हें’ लघुकथा संग्रह के लिए आयोजित प्रतियोगिता का उद्देश्य लघुकथा लेखन के क्षेत्र में नये व पुराने साहित्यकारों को प्रोत्साहित करना है। लघुकथा विधा के लेखकों को सम्मानित करने के साथ ही उनके साक्षात्कार को प्रकाशित कर दुनिया को लघुकथा लेखकों से परिचित कराना है। हमारा प्रयास लघुकथा विधाके उत्थान के लिए छोटा सा सहयोग है।


'लम्हे' लघुकथा संग्रह में शामिल होने के लिए नियम व शर्ते

✔ लम्हे’ लघुकथा संग्रह में प्रकाशन हेतु किसी भी प्रकार का कोई शुल्क नहीं है।

✔ लम्हे’ लघुकथा संग्रह के लिए आयोजित प्रतियोगिता में कोई भी लेखक, ब्लॉगर व साहित्यकार प्रतिभाग कर सकता है।

✔ ‘लम्हे’ लघुकथा संग्रह के लिए भेजी जानी वाली लघुकथा किसी भी विषय पर लिखी जा सकती है। (एक प्रतिभागी अधिकतम 4 प्रविष्टियां भेज सकता है)।

✔ ‘लम्हे’ लघुकथा संग्रह के लिए लघुकथा भेजने से पूर्व ध्यान दें कि उनकी भेजी गई रचना अन्य कहीं भी अर्थात किसी भी वेब पत्रिका या प्रिन्ट पत्रिका या समाचार पत्र में प्रकाशित न हो।

✔ हमारी संपादकीय टीम द्वारा संबधित लेखक व साहित्यकार द्वारा भेजी गई रचना अन्य कहीं भी प्रकाशित पाए जाने पर संपादकीय टीम उसे संग्रह में शामिल नहीं करेगी और न दुबारा उस लेखक पर विचार करेगी।

✔ निर्णायक मंडल द्वारा ‘लम्हे’ लघुकथा संग्रह के लिए प्राप्त किसी भी लेखक की निरस्त रचना पर पुनः विचार नहीं किया जायेगा और प्राची डिजिटल पब्लिकेशन किसी भी निर्णय के लिए स्वतंत्र होगा।

✔ लघुकथा सर्वथा मौलिक एवं अप्रकाशित होनी चाहिए। इस सन्दर्भ में होने वाले किसी भी वाद-विवाद के लिए केवल लेखक जिम्मेवार होगा।

✔ ‘लम्हे’ लघुकथा संग्रह का प्रकाशन प्रतिभा खोज एवं लघुकथा लेखन प्रोत्साहन हेतु आयोजित स्पर्द्धा है, अत: प्राची डिजिटल पब्लिकेशन लेखक को रॉयल्टी देने के लिए बाध्य नहीं है।

✔ अंतिम तिथिः इंतज़ार करिए

कैसे प्रतिभाग करें

✔ सर्वप्रथम लेखक स्वयं को iBlogger में पंजीकृत करें।

✔ Dashboard पर लॉगइन कर New Post कंपोज करें और Category में Lamhe चयनित करें। यदि आप पोस्ट करते समय Lamhe कैटेगरी का चयन नहीं करते हैं, तो आपकी रचना पर कोई विचार नहीं किया जायेगा।




लेखक काे पुरस्कार स्वरूप मिलने वाले अन्य लाभ


  • ‘लम्हे’ लघुकथा संग्रह के लिए चुनी गई श्रेष्ठ लघुकथाओं को स्थान दिया जायेगा और चयनित लेखकों का साक्षात्कार वेब पोर्टल indiBooks.in में प्रकाशित किया जायेगा। यदि लेखक ब्लॉगर है, तो iBlogger में भी साक्षात्कार प्रकाशित किया जायेगा।
  • लम्हे’ लघुकथा संग्रह की ई-बुक सभी प्रतिभागियों को नि:शुल्क उपलब्ध करायी जायेगी। साथ ही देश-विदेश के सभी ई-बुक स्टोर पर पाठकों के लिए नि:शुल्क उपलब्ध कराई जायेगी। वहीं, ‘लम्हें’ लघुकथा संग्रह का पेपरबैक संस्करण भी प्रकाशित किया जायेगा, जिसे सम्मानित प्रतिभागियो को नि:शुल्क उपलब्ध कराने के लिए प्राची डिजिटल पब्लिकेशन बाध्य नहीं है, लेकिन यदि लेखक पेपरबैक प्रतियां प्राप्त करना चाहते है, तो उन्हे 40% छूट पर उपलब्ध कराई जायेगी।
  • प्राची डिजिटल पब्लिकेशन की ओर से लेखक व साहित्यकार को ‘लम्हे’ लघुकथा संग्रह में प्रतिभाग करने के लिए प्रमाण-पत्र प्रदान किया जायेगा।
  • लेखक यदि भविष्य में कोई भी पुस्तक प्रकाशित कराना चाहता है, तो प्राची डिजिटल पब्लिकेशन की ओर से उसे किसी भी प्रीमियम सेल्फ पब्लिशिंग योजना में 20 प्रतिशत की छूट प्रदान की जायेगी।

या

  • 100 पृष्ठों की कविता, कहानी या गज़ल की किताब मात्र 6,000/- रूपये देकर प्रकाशित करा सकता है। जिसमे लेखक को 20 लेखकीय प्रतियां, पुस्तक की डिजाइन, ISBN, अमेजन, फ्लिपकार्ट, स्नेपडील पर पुस्तक की उपलब्धता एवं Unlimited Inventory Management की सुविधा दी जायेगी।


Source: https://www.iblogger.prachidigital.in/lamhe/

रविवार, 23 फ़रवरी 2020

समीक्षा: लघुकथा संग्रह | आप बीती कुछ जग बीती | लेखक: डॉ. अशोक चतुर्वेदी | समीक्षक: डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा

लघुकथा संग्रह : 
आप बीती कुछ जग बीती
लघुकथाकार : डॉ. अशोक चतुर्वेदी
प्रकाशक : शारदा ऑफसेट प्रा.लि., रायपुर
प्रकाशन वर्ष : 2019
संस्करण : प्रथम
पृष्ठ संख्या : 80
मूल्य : 100

जीवन के विभिन्न रंगों को अपने में समेटे डॉ. अशोक चतुर्वेदी जी की छप्पन लघुकथाओं का एक अनूठा संगम है, यह पुस्तक- 'आप बीती कुछ जग बीती'। इसकी हर कथा संक्षिप्त, मनोरंजक, सार्थक एवं इंसानी स्वभाव के उज्ज्वल पक्ष की पक्षधर है, जो सुधी पाठकों के अंतर्मन को भले-बुरे का एहसास कराती हुई जीवन पथ पर आगे बढ़ने के लिए मार्ग-प्रशस्त करती है। बस ज़रूरत है, तो सिर्फ़ पठन के साथ मनन करते हुए सकारात्मक सोच के साथ उसे अपने व्यवहार में लाने की। 'आप बीती कुछ जग बीती' संग्रह की लघुकथाओं से गुजरते हुए मैंने पाया कि इसमें से अधिकतर लघुकथाएँ भावनात्मक और मानवीय संवेदनाओं से ओतप्रोत हैं। लेखक डॉ. अशोक चतुर्वेदी छत्तीसगढ़ राज्य के एक वरिष्ठ अधिकारी हैं, जिन्होंने अपने लगभग दो दशक के दीर्घ प्रशासनिक जीवन में गाँव के अंतिम छोर पर स्थित व्यक्ति से सीधा संपर्क रखा और उनके सुख-दुःख में बहुत
ही आत्मीयता से जुड़ाव रखा।
लघुकथा गद्य साहित्य में अभिव्यक्ति की वह नवीनतम और लोकप्रिय विधा है, जो आकार में छोटी है, परन्तु अपनी पूरी बात कम से कम शब्दों में कहने में पूरी तरह से सक्षम है। यह कवि बिहारीलाल के दोहों की तरह 'देखन में छोटन लगे, घाव करे गंभीर' को चरितार्थ करती है। लेखक डॉ. अशोक चतुर्वेदी जी ने अपनी बात इसी विधा में कहने का सफल प्रयास किया है। डॉ. अशोक चतुर्वेदी जी ने अपनी लघुकथाओं में जीवन के हर क्षेत्र में व्याप्त सामाजिक विद्रूपताओं के अलावा उच्च अधिकारियों द्वारा आम आदमी के शोषण, भ्रष्टाचार, जुगाड़, कथनी- करनी भेद, उच्च वर्ग की सम्पन्नता तथा निम्न वर्ग के संघर्षमय जीवन का बहुत ही सीधे, सरल तथा सजीव रूप से सुन्दर चित्रण किया है। इनके पात्र कहीं भी हवाई या काल्पनिक नहीं, बल्कि अपने आसपास के ही प्रतीत हो रहे हैं। चतुर्वेदी जी की लघुकथाएँ कमोबेश रूप से यथार्थ के बहुआयामी पक्षों को संकेत करती हैं, जिनमें व्यंग्य की व्यंजना तथा अर्थ की दूरगामी व्यंजना का समावेश इस प्रकार होता है कि वहखुले अंत की ओर संकेत करती हैं।
डॉ. अशोक चतुर्वेदी जी ने अपनी लघुकथाओं के लिए विषय का चयन अपने परिवेश से ही किया है। उनकी लघुकथाएँ जिस शिद्दत के साथ आज के यथार्थ को एक रचनात्मक संदर्भ देती हैं, वह उनके सुदीर्घ अनुभव, ज्ञान एवं संवेदना के उचित समायोजन का प्रतिफल प्रतीत होता है। शासकीय सेवा में एक वरिष्ठ पद पर कार्य करते होते हुए भी शासन-प्रशासन की अव्यवस्था एवं विद्रूपताओं को बिना किसी लाग-लपेट के कथा का आधार बनाना लेखक डॉ. अशोक चतुर्वेदी के साहस एवं सामाजिक सरोकारों के प्रति जवाबदेही और स्पष्टवादिता का परिचायक है। यथा, 'जनअदालत' में उन्होंने लिखा है- ''आज फिर शांत बस्तर की खूबसूरत वादियों में, शासन के द्वारा किए जा रहे विकास कार्यों की प्रशंसा करने वाले एक उत्साही नौजवान को मुखबीरी के नाम पर 'जन- अदालत' लगाकर नक्सलियों द्वारा मौत की सजा दी गई। पहले उसकी ऊँगलियों के नाखून निकाल दिए गए फिर ऊँगलियाँ काट दी गईं और कठोर यातना के बाद एक वीभत्स मौत।'' पुलिस अधिकारियों के द्वारा प्रभावशाली एवं साधारण आदमी के एक ही प्रकार के प्रकरण में अपनाए जाने वाले दोहरे व्यवहार, नक्सल प्रभावित क्षेत्रों मंे आयोजित जन अदालत, गौ-सेवा, अदालती कार्यवाही में देरी, उच्चाधिकारियों के कथनी-करनी में भेद और दोहरे चरित्र पर आधारित अनेक लघुकथाएँ, बहुत ही अच्छी बन पड़ी हैं।
इस संग्रह से गुजरते वक्त मुझे कहीं भी अजीब-सा नहीं लगा। सभी लघुकथाएँ सहज, सरल और जीवन्त लगीं, जिन्हें पढ़ना अपने आप में एक अलग अनुभव प्राप्त करना है। संग्रह की लघुकथाएँ पाठकों के समक्ष कई बड़े प्रश्न भी उठाती हैं। मूर्तिपूजा, जीवहत्या, ईश्वर-अल्लाह, दामिनी: एक प्रश्न, बच्चे का भविष्य, अल्पसंख्यक, आरक्षण, महिला आरक्षण, अमीर कौन गरीब कौन में उठाए गए सवाल ऐसे हैं, जहाँ आकर पाठक बहुत कुछ सोचने पर विवश हो जाता है। यहाँ लेखक ने स्वयं इनके उत्तर नहीं दिए हैं, बल्कि पाठकों के समक्ष ही प्रश्न रख दिए हैं। अब पाठकों को ही उनके उत्तर तलाशने होंगे। यथा- ''क्या हत्या और दंगे ईश्वर या अल्लाह की मर्जी से होते हैं?'' ''प्रश्न बड़ा गंभीर है। कौन है ज़्यादा महत्त्वपूर्ण? शरीर या आत्मा?'' ''पर संसद, मंत्रिमंडल एवं विधानसभाओं में यह प्रावधान कब लागू होगा ? होगा भी कभी?'' यूँ तो सीमित कलेवर वाली लघुकथा में परिवेश के चित्रण की ज्यादा संभावना नहीं रहती,परंतु चतुर्वेदी जी ने अपनी कई लघुकथाओं में बहुत ही सुंदर रूप में परिवेश का चित्रण कर दिया है।
जैसे- बढ़ता ड्राईंगरूम: घटते मानवीय रिश्ते, फ्लैट, मकान, ट्रेन की सीटी के मायने, कब्रिस्तान का सच, स्वतंत्रता क्या है ?, अपहरण, इकलौता, एक नन्ही-सी जान, आँसू, तकदीर का फ़साना। विचारों के प्रवाह, संवेदना की गहराई एवं संवादों की मार्मिकता के कारण डॉ. अशोक चतुर्वेदी की कई लघुकथाएँ बहुत ही अच्छी बन पड़ी हैं। विषयों की विविधता इस बात का सूचक है कि लेखक की नजर हर संवेदना पर टिकी है और उन्होंने हर अनुभूति को शब्दों में पिरोने का प्रयास किया है। संग्रह की लघुकथाओं में उनके मानवीय मूल्यों की झलक दिखाई देती है, जिन्हें पठनोपरांत इनकी सम्प्रेषणीयता पाठक के अंतर्मन की गहराई तक उतर जाती है। यथा- ''सात-आठ वर्षीय बड़े बेटे द्वारा अपनी मृत माँ एवं दुग्धपान करते अनुज को अविरल निहारते रहने की पीड़ा, वेदना।'' डॉ. अशोक चतुर्वेदी जी की लघुकथाएँ पारिवारिक जीवन के बदलते हुए रूपों को सामने लाती हैं, जहाँ रिश्तों में खुरदुरापन ही नहीं वीरानापन भी पसर रहा है। यथा- ''घर में साल में कभी-कभार कोई मेहमान या रिश्तेदार एक-दो दिन के लिए आते हैं।'' एक अन्य लघुकथा में उन्होंने लिखा है- ''एक भाई ने अपने सगे भाई को ही गोली मार दी, पैत्रिक सम्पत्ति हथियाने के लिए।'' चतुर्वेदी जी की अनेक लघुकथाओं में जहाँ भावनात्मक रिश्तों की ज़मीन दरक रही है, वहीं उसके उजले अध्याय भी हैं। यथा- 'मदर्स डे' शीर्षक लघुकथा की ये पंक्तियाँ, ''मेरी माँ के लिए है। मेरे पास सिर्फ़ तीस रुपए हैं। क्या इतने में देंगे ?'' एक अन्य लघुकथा 'इकलौता' में उन्होंने लिखा है- ''बेटा, हम तुझे ज़्यादा चाहते हैं, क्योंकि हम तो दो हैं और तू एक ही है।''


डॉ. अशोक चतुर्वेदी जी की लघुकथाएँ भ्रष्ट सरकारी तंत्र, राजनीतिक कुचक्र और उनमें फँसे एक आम आदमी की पीड़ा की सार्थक अभिव्यक्ति है। ''घटना को बीते कई साल बीत गए। विभाग द्वारा अभी आत्महत्या के लिए प्रेरित करने वाले कारणों एवं जिम्मेदारियों का निर्धारण किया जा रहा है।'' इसी प्रकार एक अन्य लघुकथा में उन्होंने लिखा है- ''अ-सरदार जी बड़े ही विनम्र स्वभाव के थे और भ्रष्ट भी। चाटुकारिता के गुण उनमें कूट-कूट कर भरे थे, जो आज के युग में हर मर्ज की
दवा है।'' डॉ. अशोक चतुर्वेदी जी की लघुकथाएँ वर्तमान सामाजिक एवं राजनीतिक व्यवस्था में फैले हुए दिखावटी सत्य के ऊपरी आवरण को भेदकर अंदरूनी वास्तविकताओं को चित्रित करती हुई प्रतीत हो रही हैं। उन्होंने अपनी लघुकथाओं के माध्यम से समाज में व्याप्त मूल्यहीनता, मानवाधिकारों के हनन, बाह्याडंबर, आर्थिक सामाजिक, राजनैतिक, एवं नैतिक विडम्बनाओं पर सीधे-सीधे प्रहार करते हैं। ये लघुकथाएँ जहाँ मानवीय मूल्यों के ह्रास का चित्रण करती हैं, वहीं पाठकों को नए सिरे सेसोचने पर विवश भी कर देती हैं।
डॉ. अशोक चतुर्वेदी जी की भाषा काफी लचीली है, जिसमें वे बातचीत के अंदाज में ही अपनी बात कहते चले गए हैं। सामान्य शब्दों के साथ-साथ उन्होंने कहीं-कहीं भारी भरकम शब्दों का भी प्रयोग किया है, जिनका पर्याय आम बोलचाल के शब्दों में भी उपलब्ध है। यथा- कमोडधारी समाज, विकलित, दुर्दांत, सेवा-सुश्रुशा, मुखबीरी, अ-सरदार आदि। 'आप बीती कुछ जग बीती' की एक और खास बात, जिसका उल्लेख किए बिना बात अधूरी ही रहेगी, वह है- इसकी सुन्दर चित्रकारी। सामान्यतः लघुकथा संकलनों में चित्रों का समावेश नहीं के बराबर होता है, परंतु इस पुस्तक में डॉ. अशोक चतुर्वेदी जी की कल्पना को खूबसूरत चित्रों के माध्यम से जीवन्त बना दिया है- युवा चित्रकार राजेन्द्र सिंह ठाकुर ने। यदि हम यूँ कहें कि चित्रों ने पुस्तक की खूबसूरती में चार चाँद लगा दिए हैं, तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। 'आप बीती कुछ जग बीती' अशोक जी की पहली लघुकथा संग्रह है। यदि हम इस संग्रह की लघुकथाओं को लघुकथा की कसौटी पर कसें, तो संभव है कि कई लघुकथाएँ पूरी तरह से खरी नहीं उतरेंगी। इसे लेखक ने अपने आत्मकथ्य में स्वयं स्वीकार भी किया है, परंतु लेखक की प्रस्तुतीकरण एवं भाव-प्रवणता ऐसी है कि इन्हें पढ़कर हमें सहज ही आभास हो जाता है कि उनमें लेखन की अपार क्षमता है। 'आप बीती कुछ जग बीती' न तो पूरी तरह से कहानी संग्रह है, न आत्मकथ्य और न ही लघुकथा संग्रह। इसे एक नई विधा के रूप में देखा जा सकता है, जो आत्मकथ्य शैली में कहानी की रवानगी से शुरू होकर लघुकथा के कलेवर में हमारे समक्ष प्रस्तुत होती है। आशा ही नहीं, मुझे पूरा विश्वास है कि ये सहज, सरल एवं सारगर्भित लघुकथाएँ निश्चित रूप से सुधी पाठकों के मानस पटल पर अपना प्रभाव छोड़ने में कामयाब होंगी और लोगों में खंडित हो रहे मानवीय मूल्यों के प्रति आस्था जगेगी।

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