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सोमवार, 31 जुलाई 2023

तूणीर में तीर: मधुकांत की लघुकथाएँ | कल्पना भट्ट



पुस्तक का शीर्षक: तूणीर (लघुकथा सँग्रह)

लेखक: डॉ. मधुकान्त

प्रकाशक: अयन प्रकाशन

प्रथम संस्करण : 2019 

मूल्य : 240 रुपये 

पृष्ठ: 128






हिन्दी लघुकथा जगत् में डॉ. मधुकान्त एक जाने-माने हस्ताक्षर हैं। आप रक्तदान हेतु भी जाने जाते हैं। 

आपने अपनी भूमिका में 'तरकश' नामक आपके प्रथम लघुकथा सँग्रह, जो वर्ष 1984 में प्रकाशित हुआ था, का उल्लेख किया है। परंतु मेरे लिये आपका प्रस्तुत लघुकथा सँग्रह 'तूणीर' द्वारा ही आपकी लेखनी से परिचय हुआ है, जिसे कहने में मैं बिल्कुल संकोच नहीं करूँगी।

डॉ. सतीशराज पुष्करणा ने अपने आलेख 'हिन्दी लघुकथा की रचना-प्रविधि' में लिखा है कि ' कथा को अन्य विधाओं की अपेक्षाकृत लघुकथा बहुत क्षिप्र होती है और वह अपने गन्तव्य तक यथासम्भव शीघ्र पहुँचती है। 

प्रस्तुत सँग्रह में कुल 91 लघुकथाएँ प्रकाशित हैं जिनको मैंने इन शीर्षकों में विभाजित किया है।

1. राजीनीति पर आधारित लघुकथाएँ :- इस विषय पर आपकी लघुकथाओं में ' 'वोट की राजनीति'- इस में वोट डालने की परंपरा को अपने संविधानिक अधिकार से अधिक एक औपचारिक निभाते हुए लोगों का चित्रांकन है।  'पहचान'- इस लघुकथा में वोट माँगने जाने वाले नेताओं का चित्रण है, जो चुनाव  के बाद अगर जीत जाते हैं तब उसके बाद वह कहीं दिखाई नहीं देते। ऐसे में ज़मीनी तौर पर कोई आम गरीब नागरिक उस नेता को फिर चाहे वह प्रधानमंत्री ही क्यों न हों वह अगर उनको न पहचान पाने की बात करते हुए अपनी झोपड़ी के भीतर चला जाये तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। यहाँ प्रधानमंत्री  का उल्लेख है जिनके लिये उनके सहयोगी 'ताकतवर देश के ये प्रधनमंत्री' करके सम्बोधन हैं  वहीं उस गरीब व्यक्ति के लिये  वह 'दो हड्डी' का है का सम्बोधन है। यहाँ सहयोगी उनकी चापलूसी एवं उनकी पदवी को अहमियत देता नज़र आ रहा है वहीं दो हड्डी के सम्बोधन में वह कमज़ोर और निर्जन नेता प्रतीत होता है । 'निर्मल गाँव'- इस लघुकथा में कथानायक सरपंच सरकार से मेल-जोल बढ़ाकर आदि देकर वह अपने गाँव को 'निर्मल गाँव' घोषित करवा लेता है और फंड्स भी ले लेता है।  परन्तु एक मास में उसको अपने गाँव को स्वच्छ बनाना था और वह नहीं बना पाया था। इस हेतु वह गाँव के सभी घरों में शौचालय बनाने का बीड़ा उठाता है।  लोगों को पंचायत घर में बुलाता है, बी.डी.ओ  भी वहाँ बैठे होते हैं।  ऐसे में वह एक ग्रामीण भीमन को बुलाकर पूछता है, "तुम्हारे घर में अभी तक शौचालय नहीं बना?" जिसपर वह उत्तर देता है, "कहाँ सरकार...दो वर्ष से फसल चौपट हो रही है। खाने के लाले पड़े हैं, पखाना कैसे बनेगा?" इसपर सरपंच उसको विश्वास में लेने के इरादे से कहता है, "अरे सरकार तुमको पच्चीस हज़ार का चैक देगी शौचालय बनवाने के लिये परंतु तुमको अपने हिस्से का पाँच हज़ार जमा करवाना पड़ेगा।" 

"सरकार, हम पाँच हज़ार कहाँ से लावें...?"

"सरकार पिछली स्किम में पकड़ा था, अभी तक उसका ब्याज भी चुकता नहीं हुआ।" 

इन सँवादों से सरकारी स्किम और उसको अमल पर लाने हेतु जिस तरह से ग्रामीणों को बहलाया-फुसलाया जाता है और इसकी आड़ में वह लोग जिस तरह से कर्ज़ के दलदल में फँसते और धँसते नज़र आते हैं का बहुत ही करीने से दर्शाया गया है। 

इसके बाद के सँवादों को भी देखें-

"सोचो, घर में शौचालय बन गया तो काम किसे आएगा...?"  

"मालूम नहीं।"

"अरे भीमा, क्या गंवारों वाली बात करते हो। इतना भी नहीं जानते शौचालय तुम्हारे घर में बनेगा तो तुम्हारे ही काम आएगा।"

सरपंच अपना कपट का जाल बिछाने में कहीं पीछे नहीं हटता और वह पहले से भी अधिक कसा हुआ जाल बिछाने के लिये प्रयास करता है ताकि सरकारी कागज़ों पर उसके कार्यो को सफल माना जाए और अगले चुनाव में भी वह अपनी कुर्सी को पा सके। 

परंतु इस बार कथानायक भीमा सरपंच के झाँसे में नहीं आता और उसको मुँह तोड़ जवाब देता है, "सरपंच जी, कुछ खाने को होगा तभी तो काम आएगा।" इन शब्दों को उगल कर वह कमरे से बाहर आ जाता है। 

इस आखरी सँवाद में ग्रामीण लोगों की न सिर्फ दयनीय स्थिति दिखाई पड़ती है अपितु वह सरकारी महकमें से सचेत और जागरूक होता जा रहा है का परिचय भी करवाता हुआ प्रतीत होता है। 

 ईमानदार राजनीति':- इस लघुकथा के माध्यम से लेखक ने यह कहने का प्रयास किया है कि राजनीति में आने वालों की छवि इस हद तक बिगड़ी हुई है कि अगर इस महकमें में कोई नेता  ईमानदारी से अपना कार्य करने का प्रयास करता है तब उसके अपने परिवार वालों के चेहरों पर उदासी छा जाती है। इस लघुकथा के माध्यम से लेखक जिस उद्देश्य के साथ चले हैं वह पूर्णतः उसमें सफल होते हैं।  'वोट किसे दूँ':- पत्र शैली में लिखी गयी एक सुंदर लघुकथा हुई है जिसमें  चुनावी मतदान में खड़े प्रत्यायशी के लिये एक आम नागरिक की क्या राय है और वह प्रत्याशियों के बारे में किस तरह से सोचता है और उनके प्रति उसकी उदासीनता और पीड़ा को कथानायक जिस तरह से अपने मित्र को पत्र द्वारा बताता है का सहज और सुंदर व्याख्या दिखाई देती है। 'सीमाएँ चल उठी':-  अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर लिखी इस लघुकथा में काले देश और गोरे देश को प्रतीक बनाकर यह चित्रांकित किया गया है कि कैसे विकसित देश किसी विकाशील देश को अपने को हथियारों से लेस होकर  सुरक्षित हो जाने के  अपने झाँसे में ले लेता है और  उनको हथियार दे देते हैं और उदारता से यह कहते हैं कि पैसा आराम से लौटा देना।  वह इतने चिंतित दिखाई पड़ते हैं  कि लगने लगता है कि सच में वह अपना हितैषी है परंतु जब वह बिल्कुल ऐसा ही पड़ोसी देश के लिये भी करता है तब उस देश की कुटिल राजनीति का पर्दाफाश होता है परंतु इस बीच दोनों विकासशील देशों के मध्य सीमाओं को लेकर युध्द हो जाता है। और विकसित देश पुनः जीत जाता है और वह न सिर्फ अपनी देश के लिये विदेशी मुद्रा हासिल कर अपने को पहले से और समृद्ध करता है परंतु वह खुद को और भी मजबूत कर लेता है। और विकासशील देशों की अर्थ व्यवस्था लथड़ती हुई नजर आती है। इस गम्भीर विषय पर कलम चलाकर लेखक ने अपना लेखकीय कौशल का बाखूबी परिचय दिया है। और इसका शीर्षक 'सीमाएँ चल उठी' कथानक के अनुरूप है। 'वोट बिकेंगे नहीं':- इस लघुकथा में वोट को न बेचने की बात पर जोर दिया गया है।'परछाई':- यह लघुकथा राजनीति भ्रष्टाचार पर निर्धारित है। जब सभी अपनी-अपनी ज़िम्मेदारी छोड़कर सिर्फ अपना हित सोचेंगे तो देश का क्या होगा?  साथ ही कभी किसी भ्रष्ट व्यक्ति का आमना-सामना अपनी ही परछाई से हो जाए तो उस व्यक्ति का भयभीत होना कितना स्वाभाविक होता है। इसका बहुत सुंदर चित्र इस लघुकथा में दृष्टिगोचर होता है। 'अंगूठे'- यह लघुकथा वोट की खरीद पर आधारित है कि किस तरह एक भ्रष्ट नेता अपनी ताकत को बढ़ाने के उद्देश्य से अँगूठे यानी कि अनपढ़ लोगों के मतों को खरीद लेता है , और किसी को शराब, किसी को नोट, किसीको आश्वासन देकर वह भारी मतों से चुनाव जीत जाता है। और सत्ता मिल जाने के जनून में वह इतना खो जाता है कि वह अपने खरीदे हुए अँगूठों से अधिक खून निकालने लग जाता है, और यदा-कदा कोई ऊँचे स्वर में बोलता हुआ नजर आता है तब वह उनको कटवाकर ज़मीन में दबवा देता है। परिणाम स्वरूप एक ही वर्ष में ही उसकी जमीन में अनेक नाखून वाले अँगूठे अँकुरित हो जाते है, जिसके लिये वह तैयार नही होने के कारण उनको देखकर वह डरा-डरा-सा रहने लगता है। इस लघुकथा का विषय नया नहीं है परंतु इसके प्रत्तिकात्मक प्रस्तुतिकरण के कारण यह एक बेहतरीन लघुकथा की श्रेणी में खड़ी मिलती है। 

 'मलाईमार':- एक ऐसा मौकापरस्त व्यक्ति जो अवसर देखकर बार-बार पार्टी बदल लेता है। ऐसे लोगों को अंत में हार का ही सामना करना पड़ जाता है और वह व्यक्ति ये कहता सुनाई दे जाता है, "सच तो यही है कि जनता अब समझदार हो गयी है।" यही वाक्य इस लघुकथा का अंतिम वाक्य है जो इस लघुकथा के मर्म को दर्शा रहा है और इस लघुकथा के उद्देश्य को भी परिलक्षित कर रहा है। यह एक सुंदर लघुकथा है और इसके प्रतीकात्मक शीर्षक के कारण और रोचक बन गयी है।

 'राजनीति का प्रभाव',:- राजनीति के क्षेत्र में सफलता हासिल हो जाने के उपरांत वह व्यक्ति इतना खास हो जाता है कि उसका प्रभाव डॉक्टर, व्यापारी, या कोई प्रशासनिक अधिकारी क्यों न हों सभी पर पड़ता है और अपना काम करवाने की इच्छा से सभी उसके मुँह की ओर ताकते हुए नज़र आते है।  इसी कथ्य को इस लघुकथा के माध्यम से उकेरा गया है।

'प्रजातन्त्र':- यह एक मानवेत्तर लघुकथा है । एक जंगल में प्रजातंत्र की घोषणा करी जाती है , और यहाँ के संविधान के अनुसार प्रत्येक पाँच वर्ष के बाद जंगल में प्रधान का चुनाव होने लगता है। यहाँ जंगल के हिंसक प्राणी जैसे शेर, बाघ और चीता को पात्र बनाया गया है ।अब अगर इस लघुकथा की चर्चा करें तो जंगल में प्रथम बार शेर, फिर बाघ और फिर चीते को सिंहासन सौंप दिया जाता है। राजपाट चलाने के लिये नव नियुक्त प्रधान (चीता) जब पूर्व प्रधानों से गुप्त मन्त्रणा करने जाता है तब 

शेर समझाता है -आपको पाँच वर्ष तक शासन करना है। पहले दो वर्ष हमें गालियाँ निकालते रहो। आवश्यकता पड़े तो आरामदायक जेल में भी डाल देना...जनता खुश होगी। 

बाघ कहता है- डिवाइड एण्ड रूल...जातियों में बांट दो परन्तु बात एकता की करो। उद्घाटन करते रहो परन्तु सबको उलझाए रखो और पाँचवे वर्ष में शेर समझाता है -जनता के दुःख दर्द को सुनो । झूठे आश्वासन दो, खजाना खोल दो। आप जीत गए तो फिर मज़े करो, यदि नहीं तो हम जीत जायेंगे। हम तुमको और तुम्हारे परिवार को तनिक कष्ट नहीं देंगे। पक्का वादा। 

राजनैतिक दाँव-पेंचों को समझकर चीता पूर्णतः आश्वस्त हो जाता है। 

राजनीति में अगर कोई सदस्य नया आता है तो उसको उसके वरिष्ठ कुछ इसी तरह से राजनीति दाँव-पेच सिखाते हैं और समय-समय पर उसके साथ होने का दिखावा करते हुए अपनी ही तरह छल-कपट वाली राजनीति सिखाते और करवाते हैं। यह लघुकथा इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखकर लिखी गयी है जो अच्छी बन पड़ी है। 

2.हरियाणा में साहित्य एवं रक्तदान के क्षेत्र में मधुकांत जी अपनी अलग पहचान रखते हैं। रक्तदान को लेकर आप हमेंशा कहते है कि इससे बड़ा दान दुनिया में कोई नहीं । आप समय-समय पर न सिर्फ रक्त का दान करते हैं अपितु दूसरों को भी इसके लिये प्रेरित करते है और ऐसा ही प्रयास आपने लघुकथा लेखन के माध्यम से भी किया है। रक्तदान सम्बंधित आपके दो एकल सँग्रह एड्स का भूत (सन्-2015 ई.)में धर्मदीप प्रकाशन, दिल्ली एवं दूसरा एकल सँग्रह 'रक्तमंजरी' (सन्-2019) में पारूल प्रकाशन , न. दिल्ली से प्रकाशित हुआ। 'लाल चुटकी' नामक आपका लघुकथा संकलन (सन्-2018) में  इंटकचुवल फाउन्डेशन , रोहतक से प्रकाशित हुआ। अब प्रस्तुत लघुकथा सँग्रह ' तूणीर' में प्रकाशित आपकी रक्तदान पर आधारित लघुकथाओं की चर्चा करें तो  विषय पर आपकी लघुकथाओं में 'फरिश्ता'- इस लघुकथा में रक्त के दान हेतु एक रक्तदाता एक रोगी कि जिसको वह अपना रक्त दान में देता है और उसकी जान बचाता है को प्रेरित करता दिखाई पड़ता है।  'लम्बी मुस्कान'- इस लघुकथा में एक युवा रक्तदान को लेकर उसकी माँ के भीतर के भय को निकालने में सफल हो जाता है और उनको रक्तदान के महत्त्व को भी समझा देता है जिससे उसकी माँ कह उठती है, "सचमुच बेटा, आज तूने बहुत बड़ा काम किया है। आज मैं समझ गयी मेरा बेटा बचपन को छोड़कर जवान हो गया है।" ...और माँ प्यार से अपने बेटे की पीठ थपथपाने लगती है। 'लाल कविता' :-  इस लघुकथा में पूरे सप्ताह प्रकाशनार्थ आयी कविताओं को पढ़कर वह कोने में रखता जाता है और एक-एक कर कुड़ेदानी में फैंक देता है। फिर कुछ दिन उस कवि की कोई कविता न आने पर वह बेचैन हो जाता है और कुछ दिनों में उस कवि को भूल जाता है, परंतु फिर एक दिन रक्तदान दिवस पर उसी कवि की इसी विषय पर एक सुंदर सी कविता उसके पास आती है जिसके लिफाफे के ऊपर लाल स्याही से लिखा होता है- रक्तदान दिवस पर विशेष और कविता के शीर्षक के स्थान पर गुलाब का सुंदर चित्र बना होता है। वह इस कविता को पढ़ता ही है तभी अचानक फोन की घण्टी बजती है और कविता छूट जाती है। सामने वाला उसको यह सूचना देता है, "भाई कमलकांत, अभी-अभी मनोज का एक्सीडेंट हो गया । वह मैडिकल में है। खून बहुत निकल गया। डॉक्टर ने कहा है तुरंत खून चाहिए, तुम कुछ करो...' अपने किसी परिचित या घर वाले को अगर रक्त की आवश्यकता पड़ जाती है तब इस दान का असली अर्थ का पता चलता है और आँखे खुल जाती हैं। ऐसा ही कुछ कथानायक के साथ होता है। और वह कुछ करने का आश्वासन देकर  फोन को  रख देता है। तब उसको एहसास होता है कि इस कवि का सम्बन्ध अवश्य ही कुछ रक्तदाताओं से होगा...कविता भी बहुमूल्य लगने लगती है और वह अपने भांजे को रक्त दिलवाने के लिये कविता उठाकर कवि का फोन नम्बर तलाशने लगता है।  यह एक साधारण कथ्य है परंतु यह अपने उद्देश्य को सम्प्रेषित करती है और रक्तदान महादान है का संदेश देती है। इसके अतिरिक्त इसी विषय आपकी  पुरस्कार', 'रक्तदानी बेटा', 'मच्छर का अंत', 'अपना खून', 'अपना दान', 'वैलेनटाइन डे', 'जानी अनजानी', 'रक्त दलाल', 'चिट्ठी' इत्यादि शामिल हैं जो किसी न किसी तरह से रक्तदान को बढ़ावा देती है। 

3.वस्तुतः इक्कीसवीं सदी महिला सदी है। वर्ष 2001 महिला सशक्तिकरण वर्ष के रूप में मनाया गया। 

इसमें महिलाओं की क्षमताओं और कौशल का विकास करके उन्हें अधिक सशक्त बनाने तथा समग्र समाज को महिलाओं की स्थिति और भूमिका के संबंध में जागरूक बनाने के प्रयास किये गए। महिला सशक्तिकरण हेतु वर्ष 2001 में 

प्रथम बार प्रथम बार ''राष्ट्रीय महिला उत्थान नीति''बनाई गई जिससे देश में महिलाओं के लिये विभिन्न क्षेत्रों में उत्थानऔर समुचित विकास की आधारभूत विशेषताए निर्धारित किया जाना संभव हो सके। इसमें आर्थिक सामाजिक,सांस्कृतिक सभी क्षेत्रों में पुरूषों के साथ समान आधार पर महिलाओं द्वारा समस्त मानवाधिकारों तथा मौलिक स्वतंत्रताओं का सैद्धान्तिक तथा 

वस्तुतः उपभोग पर तथा इन क्षेत्रों में 

महिलाओं की भागीदारी व निर्णय स्तर तक 

समान पहुँच पर बल दिया गया है।

आज देखने में आया है कि महिलाओं ने 

स्वयं के अनुभव के आधार पर, अपनी मेहनत और आत्मविश्वास के आधार   पर अपने लिए नई मंजिलें ,नये रास्तों का निर्माण किया है। और अपने को पहले से कहीं ज्यादा सशक्त और दृढ़ बना लिया है। कहते हैं न की साहित्य समाज का आईना होती है और साहित्यकार समाज और साहित्य को अपने कलम से सजाता है और अपने पाठकों तक अपनी बात को पहुँचाता है। इस कार्य मे मधुकांत जी भी पीछे नहीं हैं और आपने इस लघुकथा सँग्रह में कुछेक लघुकथाएँ लिखीं हैं जो .21 वीं सदी की  महिलाओं को चित्रांकित करती हैं इस श्रेणी में  'अपना अपना घर':- इस लघुकथा की मुख्य नायिका सरिता राजन नामक व्यक्ति से प्यार करती है और दोनों विवाह सूत्र में बंध जाने के इच्छुक हैं । परंतु विवाह के पूर्व सरिता राजन से कहती है कि चूँकि वह माँ की इकलौती सन्तान है और पापा भी इस दुनिया में नहीं हैं, इसलिये शादी के बाद आपको मेरे साथ मेरी माँ के घर मे रहना होगा।" इस पर राजन की असहमति हो जाती है और दोनों के बीच गम्भीर चर्चा होती है और राजन उसको अपने समाज की पुरखों से चली आ रही परंपरा जिसमें एक लडक़ी को शादी के बाद अपने ससुराल में रहने की बात करता है परंतु सरिता इस बात को नहीं मानती है और वह कहती है, "राजन, जब आप मेरे लिए अपने परिवार को नहीं छोड़ सकते तो मैं आपके लिए अपनी माँ को कैसे अकेली छोड़ दूँ? फिर समझ लो हमारी शादी नहीं हो सकती..." और गुड बॉय कहकर वह वहाँ से उठकर चली जाती है और राजन उसके कठोर निर्णय के सामने उसको रोकने की हिम्मत नहीं जुटा पाता।

यहाँ लेखक ने सरिता के चरित्र से एक शसक्त महिला का चरित्रचित्रण किया है जो प्रशंसनीय है।  

, 'प्रथम':- इस लघुकथा की नायिका अलका  भी सरिता की तरह शसक्त है और शादी के पहले प्रथम परिचय के समय, निर्णायक बातचीत करने से पूर्व लड़का-लड़की के मध्य एकांत में चल रही बातचीत को रेखांकित करती है। लड़का उसको पूछता है, "एक बात सच-सच बताइए, आपका किसी लड़के से लव-अफेयर है....?" अलका इस प्रश्न से चौंक जाती है और इसके प्रत्युत्तर में वह यही प्रश्न लड़के से पूछती है । लड़के का पुरुष अहम जाग जाता है और वह कहता है, "अपने होने वाले पति से ऐसा सवाल पूछने का आपका कोई अधिकार नहीं..."अलका के क्यों पूछने पर वह कहता है, "क्योंकि तुम्हें पसन्द करने मैं आया हूँ।" इसपर अलका कहती है, "देखिए जनाब, पसन्द और नापसंद पर मेरा भी बराबर अधिकार है। आप मेरे सवाल का जवाब नहीं देना चाहते तो मैं भी आपसे कोई सम्बंध नहीं जोड़ सकती।" और अलका वहाँ से उठ जाती है। इन दोनों लघुकथाओं में सँवाद सहज और स्वाभाविक तरह से कथानक को आगे बढ़ाते है  और उसकी रोचकता को बरकरार रखते हुए निर्णायक यानी कि चरम तक पहुँचाते हैं। 'नई सदी' एवं 'अनसुना', लघुकथाओं में बेबाक, उद्दण्ड और दबंग लड़कियों को केंद्रित करके लिखी गयी लघुकथाएँ हैं जिसमें वे लोग लड़को को इस कदर छेड़ती हैं जिसके चलते वह उनसे आतंकित हो जाते हैं और लड़का वहाँ से अपना सर झुकाए चला जाता है परंतु वे उपहास करते हुए नहीं रुकती ।

'सगाई':- इस लघुकथा मे लड़के को देखने लड़की और उसके घरवाले आते हैं और वे लड़के से वो सब पूछते हैं जो आमतौर पर लड़के वाले सगाई से पहले  लड़की से पूछते हैं। लड़की नौकरी पेशा है और उसकी पहले भी शादी हो चुकी होती है और वह अपने पति को इसलिये छोड़ देती आ

है और डाइवोर्स ले लेती है क्योंकि उसको लगता है कि वह दकियानूसी है । वह महिला अपने पिता से कहती है कि वह इस पुरुष को एक हफ्ते के ट्रायल पर रखेगी और उसके बाद ही शादी करने का निर्णय लेगी ।  इसके कथानक के सच में होने की सम्भवना समाज मे कितनी है यह एक शोध का विषय है ।  'अर्थबल':- इस लघुकथा में पति-पत्नी दोनों ही नौकरी पेशा हैं परंतु पत्नी अपने कैरियर और नौकरी को लेकर इतनी सजग है कि वह अपने पति से कह देती है कि बच्चे के लिये वह अपनी नौकरी नहीं छोड़ सकेगी परंतु पति को अगर उनके बच्चे की चिंता हो तो वह नौकरी छोड़कर घर में रहकर अपने बेटे की देखभाल कर सकता है। अर्थबल शीर्षक कथानक के अनुरूप सटीक है। 

'आरक्षण'-, महिलाओं के आरक्षण के चलते देश के अधिकांश मुख्य पदों पर महिलाओं की नियुक्ति होने पर पुरुष वर्ग की चिंता और उनके बीच बढ़ रही बेरोजगारी पर केंद्रित यह लघुकथा अच्छी बन पड़ी है जो किसी भी आरक्षण के दुष्परिणाम को रेखांकित कर रही है । आरक्षण जैसे गम्भीर विषय पर समाज को और भी सजग और चिंतन मनन करने की आवश्यकता है ।  इसी उद्देश्य को परिलक्षित कर रही है यह लघुकथा।  'आभूषणों में क़ैद'- वर्तमान में नारी अपने को आभूषणों में लदी हुई नहीं देखना चाहती अपितु वह शक्तिशाली बनकर अपने पाँवों पर खड़ा होना चाहती हैं। यही बात इस लघुकथा में कही गयी है।  

प्रस्तुत सँग्रह में प्रकाशित में लेखक ने .मोनोविज्ञान पर आधारित लघुकथाओं की चर्चा करते हुए सर्वप्रथम इस श्रेणी की 'मन का आतंक'  लघुकथा का अवलोकन करते हैं। यह एक प्रयोगात्मक लघुकथा है जो एकालाप शैली में  लिखी गई। इस लघुकथा में एक ही पात्र है जो बोल रहा है और एक पात्र अपरोक्ष रूप से अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहा है। इस लघुकथा का इकलौता पात्र एक पत्नी है जो अपनी मन की पीड़ा और डर के परतों को खोल रही है। इसमें एक पत्नी के मनोविज्ञान को बहुत ही करीने से दर्शाया गया है। इस लघुकथा को देखें- अचानक उसकी नज़र द्वार पर चली गयी। 

"आप इस समय?क्या ऑफिस जल्दी छूट गया? आप कुछ बोलते क्यों नहीं? नाराज़ हो क्या...?"

....वह कॉलेज में मेरे साथ पढ़ता था....नहीं नहीं, ऐसा कुछ नहीं हुआ....सच तुम्हारी कसम....अचानक सड़क पर मिल गया....औपचारिकतावश चाय के लिए टोक दिया था....हाँ.... हाँ.... कॉलेज की कुछ बातें हुईं थीं.... बस और कुछ नहीं, बिल्कुल भी नहीं....फिर कभी मिला तो कन्नी काट जाऊँगी, ....बोलो अब तो खुश हो न आप...."

पत्नी का कॉलेज के समय का कोई दोस्त जिसको वह इतने वर्षों बाद मिली परंतु यह बात अब तक उसने अपने पति से छिपाई थी जो आज उसने कहा दिया। परंतु उसने देखा कि तेज हवा से द्वार का पर्दा हिल रहा था।

'अरे यहाँ तो कोई नहीं आया...फिर मैं किससे बातें कर रही थी?' उसने अपने माथे को छुआ तो चौंक गयी, सचमुच माथा पसीने से गीला था। 

एक पत्नी की आत्मग्लानि जो माथे से पसीना बन बह रही थी । यह इस सँग्रह की उत्कृष्ट लघुकथा है। इसके इसी प्रस्तुतिकरण के कारण यह पाठकों के हृदय को छू लेगी ऐसा मेरा पूर्ण विश्वास है।

 'तपन':- 'एक व्यक्ति जो नियमित समाचार सुनता तो है परंतु वह सिर्फ सुनता ही है और दूसरे रूप में देखें तो जब कुदरत अपना कहर बरसाती है तब वह प्रलय जैसी स्थिति उत्पन्न कर देती है और इंसान सुनते हुए भी समझते हुए भी कुछ नही कर पाता। ऐसा ही कुछ इस लघुकथा के नायक के साथ होता है जो प्रथम दिन समाचार में सुनता है कि पड़ोसी देश मे भयंकर तूफान आया और सैंकड़ों लोग मारे गए तथा हज़ारों बेघर हो गए। 

जब दूसरे देश की बात थी तब उसने इस समाचार को आसपास बाँटने का कार्य किया एक तमाशबीन की तरह। दूसरे दिन उसने सुना कि तूफान उसके देश की सीमाओं में प्रवेश कर लिया है, तीसरे दिन  तूफान  उसके राज्य में मंडराने लगा, तब वह चिंता में डूब गया  उसी रात तूफान का शोर उसे गाँव की सीमा पर सुनाई पड़ने लगा और वह आपने छप्पर को मजबूत करने लगा पर बहुत देर हो चुकी थी, सुबह-सुबह तूफान बहुत तेज हुआ और उसके घर के छप्पर को उखाड़ कर ले गया। प्रतीकात्मक शैली में लिखी इस लघुकथा में छिपा संदेश कि हर व्यक्ति को दूर की सोच कर ही अपने जीवन में कार्य करना चाहिये क्योंकि मुसीबत कभी कहकर नहीं आती। यह एक अच्छी लघुकथा है और इसका शीर्षक तपन में प्रतिकात्मक है जो कथानक के अनुरूप है कि और अपने में जीवन की तपन को दर्शा रहा है।

 ', 'माहत्मा का सच' :- धर्म का  प्रचार एवं मनुष्य को नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाले बाबाओं का अपना योगदान है । यह भी अपने आप में एक व्यवसाय-सा बन गया है और इन लोगों के आडम्बर के चर्चे आम बात है। ऐसे में अगर कोई महात्मा इस लघुकथा के नायक की तरह  यह शपत ले ले कि आज जो कहूँगा सच कहूँगा और सच के अलावा कुछ नहीं कहूँगा तब उनके अनुयायीओं की प्रतिक्रिया शायद ऐसी ही हो जैसा कि लेखक ने इस लघुकथा में वर्णन की है। कथानायक पहले तो अपने भक्तों के सामने बाबा क्यों बना इसके पीछे यह कारण बताते हैं कि प्यार में धोखा मिला और बाद में यह भी बताते हैं कि नेताओं के काले धन को सफेद करवाने का माध्यम हैं।  उनके भक्तों को पहले तो आश्चर्य हुआ परंतु फिर उनकी समझ में आ गया कि उनके  स्वामी सत्यवादी, विनम्र एवं निर्दोष हैं। इसके बाद इनके यहाँ भीड़ बढ़ने लगी। कुल मिलाकर यह बहुत ही साधारण सी लघुकथा है । 

'उबाल' :- घरेलू हिंसा पर आधारित इस लघुकथा में नायिका पत्नी अपने पति की कमीज पर क्रोध निकालकर उसको ज़ोर से पीटना शुरू कर देती है जिस कारण वो वहाँ से फट जाती है पर उसको तनिक भी पश्चाताप नही होता। पुरुष-प्रधान समाज में पत्नी के हालातों को दर्शाती एक साधारण-सी लघुकथा है। दूर के ढोल'- इस लघुकथा के माध्यम से लेखक ने यह समझाने का प्रयास किया है कि आजकल  भक्त प्रह्लाद जैसा पुत्र कोई नहीं बनता । 

'अवस्था के बिम्ब':- यह भी एक प्रयोगात्मक लघुकथा है जिसमें तीन दृश्य दिखाए गए हैं।   लगभग 18 वर्ष का जोड़ा, पार्क के कोने वाले बैंच पर एक दूसरे को आँखों में आँखें डाले, एक दूसरे से सटकर मौन बैठा था। 

उसी पार्क में लगभग 35 वर्ष का युगल पार्क की छतरी के नीचे, साथ-साथ बैठा, बतिया रहा था। 

पार्क की दीवार की ओट में 75 वर्ष का, एक दूसरे पर आश्रित जोड़ा आमने सामने बैठा धूप सेक रहा था। 

इस लघुकथा के अंतिम वाक्य में इसका सार है पार्क के बीच में खड़ा आश्चर्यचकित बालक तीनों जोड़ों को देखकर घबरा रहा है। 

बच्चे को समझ नहीं आता कि आगे जाकर उसको क्या और कैसे रहना है क्योंकि सब अपने-अपने हिसाब से रहते हैं बिना यह सोचे कि बच्चों के भविष्य का क्या होगा? 

 'विस्तार':- इस लघुकथा में बेटा-बहू के कहने पर अपनी माँ को अनाथाश्रम छोड़ आता है परंतु जब घर के काम-काज करने में वह थकने लगती है तो वह अपने पति को पुनः उनको घर लिवाने के लिए भेज देती है । वह माफ़ी माँगते हुए जब उनको घर आने को कहता है तब एक स्वाभिमानी माँ यह कहती है, "माफी किस बात की? तुमने तो यहाँ भेजकर मुझपर उपकार ही किया है। वहाँ तो मैं केवल तुम्हारी माँ थी, परन्तु यहाँ तो तीस बच्चों की माँ हूँ। आश्रम के स्वामी जी तथा सभी सेवक मुझे भरपूर सम्मान देते हैं। अब तो यह आश्रम ही मुझको अपना घर लगने लगा है।" 

इसका अंतिम वाक्य बेहद सुंदर बन पड़ा है- सारे पासे असफल होते देख बेटा उदास हो गया। परंतु कमरे की खिड़कियों से झाँकती नन्हीं-नन्हीं आँखों में चमक भर गयी। माँ को बच्चों का प्यार और तीस बच्चों को माँ का प्यार मिल जाता है। इस लघुकथा का अंत जिस तरह हुआ है उस कारण यह लघुकथा सुंदर बन पड़ी है। 

'डरे-डरे संरक्षक':- इस लघुकथा के माध्यम से लेखक ने वर्तमान में बच्चों की बदलती मानसिकता को लेकर चिंता व्यक्त की है। कानून ने बच्चों को स्कूल में मारने-पीटने पर रोक लगाई है और अगर वह उनके अभिभावकों को उनकी शिकायत करते हैं तब वे यह कहते हुए मिलते हैं कि अगर उन्होंने उसको डाँटा या मारा और इकलौता बेटा घर से भाग जाएगा...। ये कैसा डर है जो लगभग हर संरक्षक के हृदय में घर कर गया है । यह एक गम्भीर विषय है जिसपर समाज को भी गम्भीरता से सोचना समझना होगा और बच्चों के मानसिकता को समझते हुए उनको सही दिशा दिखाना होगी। 

'पहली लड़ाई' :- एक डरपोक व्यक्ति जब पहली बार पतंग उड़ाता है तब उसकी पतंग कट जाती है परंतु उसको यह सन्तोष हो जाता है कि उसने अपनी पहली लड़ाई इस पतंग के माध्यम से लड़ी और वह दूसरी पतंग को उड़ाने के लिये चला जाता है।  इस लघुकथा के माध्यम से लेखक ने यह समझाने का प्रयास किया है कि व्यक्ति का डर और उस डर से लड़ने की क्षमता दोनों ही उसके भीतर होती है। बस उसको उन चीजों को समझना होता है और अपने डर पर प्रयास करके विजय हासिल करना होता है। 'पत्रों का संघर्ष':- इस लघुकथा में पत्रों के माध्यम से लेखक ने पत्रिका के प्रकाशक को जहाँ उसको प्रकाश में लाने हेतु पैसों की आवश्यकता पड़ती है और इसके लिये वह अपने मित्र को लिखने में भी नहीं हिचकता कि क्योंकि उसके पास राशि नहीं है सो हो सकता है वह इस पत्रिका को न ला सके ऐसे में अगर वह मित्र उसको अपनी परेशानी बताते हुए कुछ राशि को उसके बैंक के खाते में डाल दी है कि सूचना देता है तब प्रकाशक का आश्चर्यचकित होना और उसको उसके पत्रों की इबारत अक्षरतः दिखाई देने लगती है जो बहुत ही स्वाभाविक है। ऐसा ही दृश्य इस लघुकथा में चित्रांकित किया गया है। इसके अतिरिक्त  'डी. एन. ए.:- सँवाद शैली में लिखी गयी इस लघुकथा में एक मंत्री के किसी महिला से अनैतिक सम्बन्ध और फलस्वरूप जब वह महिला वर्षों बाद उसको सम्पर्क करती है और यह बताती है कि उसका बेटा जवान हो गया है और पिता का नाम चाहता है। ऐसे में मंत्री जब उसको हड़का देता है तब वह महिला कहती है कि वह बच्चे का का डी. एन.ए टेस्ट करवा सकती है। तब वह मंत्री डर जाता है और उसके घर पहुँचने की बात करता है। उस मंत्री को एहसास हो जाता है कि जवानी में की गई गलती को दबाना कितना कठिन होता है। यहाँ इसी भाव को लिखकर लेखक ने इस लघुकथा का अंत किया है। 


5. भ्रष्टाचार पर आधारित लघुकथाएँ की बात करें प्रस्तुत सँग्रह में 'संस्कार' 'इज्जत के लिए', 'खोज', 'अंधा बांटे रेवड़ी', इत्यादि  रचनाएँ शामिल हैं। संस्कार लघुकथा  नौकरी में आरक्षण पर आधारित है जिसमें सुयोग व्यक्ति को कई बार उसके योग्य नौकरी नहीं मिल पाती और वह अपने से कम योग्य व्यक्ति के अंडर काम करने पर मजबूर हो जाता है। इज्जत के लिये :- चिकित्सा विभाग में डॉक्टर द्वारा भ्रष्टाचार किए जाने पर प्रकाश डाला गया है। मरीज और उसके घर वाले किस हद तक मजबूर हो जाते हैं कि गरीब व्यक्ति को अपने परिजन जो मृत्युशैया पर लेटा है जिसका बचना असंभव है उसको वह डॉक्टर को दिखाने के लिये कर्ज भी लेता है समाज के डर से कि कहीं समाज यह न कहे कि जानबूझकर उसने अपने माता या पिता का इलाज नहीं करवाया और ऐसे में अगर कोई झोलाछाप डॉक्टर जो मरीज को  इंजेक्शन लगाता है परंतु वह देखता है कि सिरिंज में खून निकलकर भर रहा है। पर लोक-लाज के मारे वह उससे कहता तो कुछ नही पर उसको समझने में यह देर नहीं लगती कि यह डॉक्टर अनाड़ी है। ऐसे डॉक्टर कई जगह नज़र आ जाते हैं जो मरीजों के जीवन से खेल जाते हैं। यह एक गम्भीर समस्या है जिसका निदान होना अति आवश्यक है।

खोज:- पुलिस भ्रष्टाचार पर आधारित इस लघुकथा में आधी रात को डाकू किसी गाँव में लूटपाट कर दो हत्या कर देते हैं और गाँव से तीन-चार किलोमीटर दूर चले जाते हैं। तब बस्ती में भारी जूतों की आवाज़ ठपठपाने लगती है। वे लोग सवाल पूछ-पूछकर चले जाते हैं और दूसरे दिन शाम को डी. एस. पी. ग्रामीण लोगों को एकत्रित करके बताते हैं, "आपको यह जानकर खुशी होगी कि डाकुओं की बंदूक से निकले दो कारतूस हमने बरामद कर लिए हैं...अब जल्दी ही डाकुओं की पहचान कर ली जाएगी...

इसका अंतिम वाक्य आमजन के बीच पुलिस प्रशासन के प्रति निराशा दर्शा रही है कि किस कदर इन लोगों ने अपनी छवि बिगाड़ कर रखी है- एक सप्ताह बीत गया, धीरे-धीरे लोगों की आँखें धुँधलाने लगीं। 'अँधा बांटे रेवड़ी'- किसी भी तरह के पुरस्कार बांटने में भी किस तरह से राजनीति होती है और आयोजकों का प्रयास रहता है कि ऐसे में जब लिस्ट बनती है तो नेता यह चाहता है कि अपनी जाति और क्षेत्र का कोई व्यक्ति हो तो उसको लिस्ट में सर्वप्रथम होना चाहिए।


6.अन्यान्य विषयों पर आधारित लघुकथाएँ:- 'नाम की महिमा' जो कि सम्पदान व्यवसाय पर आधारित है जिसमें यह दर्शाया गया है कि इस व्यवसाय में एक नामी रचनाकार की रचना को स्थान मिल जाता है फिर चाहे उस रचना में कोई दम न हो परंतु जब यह पता चल जाता है कि वह रचना किसी साधारण लेखक ने लिखी है तब उस रचना को कचरे की टोकरी में फैंक दिया जाता है।, 

 'आजादी' :- इस लघुकथा में लेखक ने यह सन्देश देने का सद्प्रयास किया है कि अमीर होना सुख को पाना नहीं और न ही उसकी खर्च करने की क्षमताओं को देखकर उसकी आजादी का अनुमान लगाया जा सकता है क्योंकि वह अपने नौकरों के आधीन हो जाता है वहीं एक गरीब व्यक्ति जो खुले आसमान के नीचे सोता है परंतु वह जहाँ चाहे जब चाहे आना-जाना कर सकता है और वह स्वतंत्रता से अपने निर्णय ले सकता है। यही सच्ची आज़ादी होती है।  यह लघुकथा थोड़ी उपदेशात्मक हो गयी है। , 'प्रशिक्षण':- वर्तमान शिक्षा नीति और उसके बाद उत्पन्न होती बेरोजगारी की समस्या को लेकर व्यंग्य है कि इससे बेहतर है कि राजनीति के मैदान में उतार देना आसान होता है । 'सभ्रान्त नागरिक' :- सड़क दुर्घटना पर आधारित इस लघुकथा में देश के एक जागरूक नागरिक का चित्रण है जो दुर्घटना के होते ही पुलिस स्टेशन में इसकी सूचना देता है और अस्पताल भी ले जाता है। पुलिस जहाँ रिपोर्ट लिखवाने की खाना-पूर्ति करती दिखाई पड़ती है और उस भले इंसान को बे वजह परेशान करती है। ऐसे में अस्पताल से अगर डॉक्टर यह कह देता है कि क्योंकि पेशंट को समय पर अस्पताल में भर्ती करवाया गया उसकी जान बच गयी है। तब एक सम्भ्रान्त नागरिक की परेशानियों का मीठा फल मिल जाता है और उसकी चिंता मिट जाती है। इस लघुकथा में किसी अस्पताल में बिना पुलिस की जानकारी या रिपोर्ट किये उसका इलाज शुरू कर देने वाली घटना पर विश्वास कर पाना मेरे लिये थोड़ा मुश्किल हो रहा है। 

, 'बातूनी' :- यह लघुकथा विद्यार्थी जीवन पर आधारित है जिसमें एक बच्चा अपने दोस्तों के मध्य गपशप करके अपना समय बर्बाद करता है और उसकी माँ उसको पढ़ाई करने को कहती है। 'सुनो कहानी', बदलाव' (फंतासी):- ये दोनों लघुकथाएँ फंतासी शैली में लिखी गयी हैं।  सुनो कहानी में एक सुंदर सी लड़की जिसका विवाह एक राजा के साथ होता है परंतु वह उसके महल में अपने सुख-दुःख को किसी से बांट नही पाती क्योंकि ऐसा ही आदेश राजा ने दिया था। और आखिर में वह मर जाती है। इस लघुकथा में मनुष्य सामाजिक प्राणी है जिसको अपने सुख-दुःख बांटने के लिए किसी व्यक्ति की आवश्यकता पड़ती है । फिर वह चाहे बड़े से महल में ही क्यों न रहता हो पर जब उसके भीतर अकेलापन घर कर लेता है और ऐसे में उसके पास किसी को न पाकर वह दम तोड़ देता है जो बहुत ही स्वाभाविक है।

 'अपनी-अपनी ज़मीन' :-भूख पर आधारित इस लघुकथा में लेखक का यह उद्देश्य परिलक्षित हुआ है  कि भूख हर व्यक्ति को लगती है और यह जात-पात नहीं देखती ।अपने अपने रिश्ते' :अंतर जातीय विवाह पर आधारित है । 

, 'सहारा':- इस लघुकथा में कामकाजी बहू के पक्ष में खड़ी एक सास दिखाई देती है जो अभी-अभी काम से घर लौटी है और उसका पति चाय की फरमाइश कर देता है। ऐसे में सास अपने बेटे को टोक देती है और स्वयं चाय बनाने हेतु खड़ी हो जाती है। बेटी जब उसको टोकती है तब वह कह देती है कि बहू से जब नौकरी करवाना है तो घर में उसका हाथ बंटवाने की ज़िम्मेदारी घर के हर सदस्य की बन जाती है। परिवार में प्रेम-भाव बढ़ाने के उद्देश्य से लिखी गई यह एक सुंदर लघुकथा है।  'मेरा वृक्ष' :- यह लघुकथा पर्यावरण संरक्षण के महत्त्व को बढ़ाती लघुकथा है। जिसमें  एक भाई के पब्लिक पार्क के चित्र को बनाता है। जिसको रंगों से सजाता है और एक कोने में वट वृक्ष को खड़ा कर देता है। उसका छोटा भाई जलन के मारे अपनी कलम निकाल लेता है और वृक्ष पर काटा लगा देता है। दोनों भाइयों में बहस हो जाती है, और शिकायत माँ तक पहुँच जाती है। वह कुछ कह पाए उसके पहले ही बड़ा भाई कहता है, "अम्मा, इस पागल को इतना भी ज्ञान नहीं कि पेड़ो की शीतल छाया और ऑक्सिजन हमको मिलती है, सरकार को नहीं, इसलिए ये वृक्ष हमारे हैं..."

और छोटे भाई को अपनी गलती का एहसास हो जाता  है और अपनी गलती मान लेता है और बड़े भाई का क्रोध शांत हो जाता है। बाल-सुलभ आधारित यह एक सुंदर लघुकथा हुई है।

, 'फिर एक बार':-  शरणार्थी का दर्द को उकेरती यह एक अच्छी लघुकथा है। एक व्यक्ति जो पाकिस्तान से अपना देश समझकर अपने देश आ जाता है, उसको एक बार तब लूटा गया जब दस वर्षों तक उसको लोग पाकिस्तानी ....शरणार्थी कहते रहे, अगले बीस वर्ष पंजाबी कहकर दंश देते रहे , अब लोगों को इनके शरीर से हरियाणवी मिट्टी की गंध आने लगती है... फिर एक बार सारी गंध सूख जाती है... वह जूतों को बेचने वाला एक व्यापारी होता है जिसकी दूकान को लूट लिया जाता है। वह चिंतित हो जाता है कि वह कैसे चुकाएगा थोक व्यपारी की उधार और कहाँ से भरेगा बैंक की किश्त! यह एक मार्मिक लघुकथा है जो सहज ही हृदय को छू जाती है।, 'सपना' :- इस लघुकथा में  एक पत्रकार को राम राज्य का  सपना आता है और वह एक लेख लिखता है परंतु लोग उसका कहीं उपहास न उड़ाएँ इस डर से वह  अपने लेख को एक फ़ाइल में रख देता है और धीरे-धीरे वह उसमें दबता चला जाता है और पत्रकार लेख को प्रकाशित करवाने हेतु उपयुक्त समय की प्रतीक्षा करता है। साहित्य की स्थिति को दिखाती यह एक गम्भीर रचना है ।

  'अतिथि देवो भव' मातृ दक्षिणा :- इस लघुकथा में विदेशियों की मदद करता हुआ एक किसान दिखाई देता है जो उनकी गाड़ी के पंक्चर हुए पहिये को निकालकर डिग्गी से दूसरा पहिया निकालकर लगा देता है और उनके द्वारा बख्शीश की राशि को न लेकर भारतीय संस्कृति का परिचय देता है। 'ऊँचा तिरंगा':- यह बाल मनोविज्ञान पर आधारित एक सुंदर लघुकथा है।  स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर एक मोहल्ले के  बच्चों में बहस छिड़ जाती है कि कल देखते हैं सबसे ऊँचा झण्डा कौन फहराएगा। सब बच्चें अपनी अपनी बात रखते हैं ऐसे में एक बच्चा जिसका घर बहुत नीचा होता है और जो पाइप भी नहीं ला सकता वह चिंतित हो जाता है और रात एक बजे उसको एक ख्याल सूझता है और वह चुपचाप अपने मकान की छत पर आ जाता है।  मुंटी में से अपनी चरखड़ी और तिरंगे वाली पतंग निकाल लेता है और आकाश में पतंग उड़ाने लगता है। स्वतंत्रता दिवस की शीतल हवा उसके मन को मस्त और पुलकित कर देती है। पतंग को आकाश में चढ़ाकर वह आसपास के सभी मकानों की और देखता है औए कह उठता है, "हाँ मेरी पतंग सबसे ऊँची है।"  यह सोचकर वह सुबह होने की प्रतीक्षा करने लगता है।  जहाँ चाह वहाँ राह के मुहावरे को परिभाषित करती यह अपने सोए आत्मविश्वास को जगाने वाली एक सार्थक  लघुकथा है।

 , 'कन्या पूजन' :- एक दाई जो कन्याओं को गर्भ में मरवाती देती थी को कान्याओं की महत्ता तब समझ में आती है जब दुर्गाष्टमी के पूजन करने के बाद सात कान्याओं को एकत्रित करने के लिये मोहल्ले में निकलती है परंतु उसको सिर्फ पाँच ही कन्याएँ मिल पाती हैं।  दो थाली बच जाने से वह उन दोनों थालियों को लेकर मन्दिर चली जाती है। जब वहाँ दूसरी महिलाओं के साथ चर्चा चलती है तब वह कहती है कि वह दाई इसलिये बनी थी क्योंकि यह उसकी सास की इच्छा थी पर जब पूजन की बात आई तो यह उसके संस्कारो की बात थी जिसमें वह हार गई सो शपत खाती है कि आगे से वह कान्याओं की हत्या किसी के भी गर्भ में न करेगी न करवाएगी। यहाँ पूजन के बाद लड़कियों का न मिल पाने की स्थिति एकदम से आ जाये यह बात थोड़ी खटक रही है। 

 'बोहनी' :- गरीब व्यक्ति के लिये अपने सामान की बिक्री से हो रही बोहनी कितनी महत्त्वपूर्ण होती है यह बात अनुभवी आँखों की आवश्यकता होती है जैसा इस लघुकथा के नायक ज्ञानरंज को होता है जब वह एक मैली- कुचैली लड़की रंग-बिरंगी बॉल बेच रही थी और उसकी बोहनी करवाने की मिन्नते कर रही थी। वह जब बॉल को देखता है तब चाइना मेड होने के कारण एक बार तो खरीदने के लिये इनकार कर देता है पर जब वह उस बच्ची के मुरझाए चेहरे की पीड़ा को देखता है तो एक गेंद खरीदकर उसकी बोहनी करवा देता है।  बच्ची के चेहरे पर मुस्कान आ जाती है। यह व्यक्ति के कोमल भावना को दर्शाती हुई प्यारी सी लघुकथा है। भविष्य की चिंता' :- साहनुभूति पाकर अपने लिए खाना माँगने के लिये ज़ोर-ज़ोर से रोने वाले भिखारी को एक दिन अचानक से भविष्य की चिंता सताने लगती है कि अगर किसी दिन किसी को पता चल गया और खाना देना बंद कर दिया तो...और वह बावला भिखारी और तेज रोने लग जाता है।  विद्यासागर अभी ज़िंदा है- इस लघुकथा के माध्यम से लेखक ने यह कहने का सद्प्रयास किया है कि व्यक्ति तो मर जाता है परंतु उसके द्वारा किया गया काम उसकी मृत्यु के बाद भी याद किया जाता है और उस व्यक्ति को अपने कार्यों के लिये जाना-पहचाना और जीवंत रखता है। 

इन लघुकथाओं के विषयों में नयापन नहीं है परंतु भाषा सहज और स्वाभाविक है। आपके इस संग्रह के शीर्षक 'तूणीर' की बात करें तो इसका सामान्य अर्थ तरकश यानी कि तीर रखने वाला पात्र जो सामान्यतः काँधे पर लटकाया जाता है। आपकी लघुकथाओं को पढ़कर यह कहना गलत न होगा कि आपकी लेखनी से निकली कुछ  बेहतरीन लघुकथाएँ तीर की तरह पाठकों के ह्रदय को  चीरकर उसमें वास करेंगी । मुख्य पृष्ठ आकर्षक लगा। 

कुल मिलाकर मैं यह कहने में अपने को बहुत ही सहज पा रही हूँ कि प्रस्तुत सँग्रह पठनीय है और पाठकों को इसकी लघुकथाएँ पसन्द आएँगी।  मधुकांत जी के 'तूणीर' नामक इस एकल लघुकथा सँग्रह को पढ़ते हुए जितना मैं समझ पायी हूँ उस अनुसार अपने विचारों को रखने का विनम्र प्रयास किया है । अब इसमें मैं कितना सफ़ल हो पाई हूँ इसका निर्णय मैं आप सभी सुधिपाठकों पर छोड़ती हूँ।


- कल्पना भट्ट

स्थान:- ठाणे(मुम्बई)


मंगलवार, 29 नवंबर 2022

पुस्तक समीक्षा | तूणीर (लघुकथा सँग्रह) | लेखक: डॉ. मधुकान्त | समीक्षक: कल्पना भट्ट

पुस्तक का नाम: तूणीर (लघुकथा सँग्रह)

लेखक: डॉ मधुकान्त

प्रकाशक: अयन प्रकाशन

प्रथम संस्करण : 2019 

मूल्य : 240 रुपये 

पृष्ठ: 128


तूणीर में तीर: मधुकांत  की लघुकथाएँ

हिन्दी लघुकथा जगत् में डॉ मधुकान्त जी एक जाने-माने हस्ताक्षर हैं। आप रक्तदान हेतु भी जाने जाते हैं। 

आपने अपनी भूमिका में 'तरकश' नामक आपके प्रथम लघुकथा सँग्रह जो वर्ष 1984 में प्रकाशित हुआ था का उल्लेख किया है। परंतु मेरे लिये आपका प्रस्तुत लघुकथा सँग्रह 'तूणीर' से ही आपकी लेखनी से परिचय हुआ है, इसको कहने में मैं बिल्कुल संकोच नहीं करूँगी।

डॉ. सतीशराज पुष्करणा ने अपने आलेख 'हिन्दी लघुकथा की रचना-प्रविधि' में लिखा है कि ' कथा को अन्य विधाओं की अपेक्षाकृत लघुकथा बहुत क्षिप्र होती है और वह अपने गन्तव्य तक यथासम्भव शीघ्र पहुँचती है। 

प्रस्तुत सँग्रह में कुल 91 लघुकथाएँ प्रकाशित हैं जिनको मैंने इन शीर्षकों में विभाजित किया है।

1. राजीनीति पर आधारित लघुकथाएँ :- इस विषय पर आपकी लघुकथाओं में ' 'वोट की राजनीति'- इस में वोट डालने की परंपरा को अपने संविधानिक अधिकार से अधिक एक औपचारिक निभाते हुए लोगों का चित्रांकन है।  'पहचान'- इस लघुकथा में वोट माँगने जाने वाले नेताओं का चित्रण है, जो चुनाव  के बाद अगर जीत जाते हैं तब उसके बाद वह कहीं दिखाई नहीं देते। ऐसे में ज़मीनी तौर पर कोई आम गरीब नागरिक उस नेता को फिर चाहे वह प्रधानमंत्री ही क्यों न हों वह अगर उनको न पहचान पाने की बात करते हुए अपनी झोपड़ी के भीतर चला जाये तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। यहाँ प्रधानमंत्री  का उल्लेख है जिनके लिये उनके सहयोगी 'ताकतवर देश के ये प्रधनमंत्री' करके सम्बोधन हैं  वहीं उस गरीब व्यक्ति के लिये  वह 'दो हड्डी' का है का सम्बोधन है। यहाँ सहयोगी उनकी चापलूसी एवं उनकी पदवी को अहमियत देता नज़र आ रहा है वहीं दो हड्डी के सम्बोधन में वह कमज़ोर और निर्जन नेता प्रतीत होता है । 'निर्मल गाँव'- इस लघुकथा में कथानायक सरपंच सरकार से मेल-जोल बढ़ाकर आदि देकर वह अपने गाँव को 'निर्मल गाँव' घोषित करवा लेता है और फंड्स भी ले लेता है।  परन्तु एक मास में उसको अपने गाँव को स्वच्छ बनाना था और वह नहीं बना पाया था। इस हेतु वह गाँव के सभी घरों में शौचालय बनाने का बीड़ा उठाता है।  लोगों को पंचायत घर में बुलाता है, बी.डी.ओ  भी वहाँ बैठे होते हैं।  ऐसे में वह एक ग्रामीण भीमन को बुलाकर पूछता है, "तुम्हारे घर में अभी तक शौचालय नहीं बना?" जिसपर वह उत्तर देता है, "कहाँ सरकार...दो वर्ष से फसल चौपट हो रही है। खाने के लाले पड़े हैं, पखाना कैसे बनेगा?" इसपर सरपंच उसको विश्वास में लेने के इरादे से कहता है, "अरे सरकार तुमको पच्चीस हज़ार का चैक देगी शौचालय बनवाने के लिये परंतु तुमको अपने हिस्से का पाँच हज़ार जमा करवाना पड़ेगा।" 

"सरकार, हम पाँच हज़ार कहाँ से लावें...?"

"सरकार पिछली स्किम में पकड़ा था, अभी तक उसका ब्याज भी चुकता नहीं हुआ।" 

इन सँवादों से सरकारी स्किम और उसको अमल पर लाने हेतु जिस तरह से ग्रामीणों को बहलाया-फुसलाया जाता है और इसकी आड़ में वह लोग जिस तरह से कर्ज़ के दलदल में फँसते और धँसते नज़र आते हैं का बहुत ही करीने से दर्शाया गया है। 

इसके बाद के सँवादों को भी देखें-

"सोचो, घर में शौचालय बन गया तो काम किसे आएगा...?"  

"मालूम नहीं।"

"अरे भीमा, क्या गंवारों वाली बात करते हो। इतना भी नहीं जानते शौचालय तुम्हारे घर में बनेगा तो तुम्हारे ही काम आएगा।"

सरपंच अपना कपट का जाल बिछाने में कहीं पीछे नहीं हटता और वह पहले से भी अधिक कसा हुआ जाल बिछाने के लिये प्रयास करता है ताकि सरकारी कागज़ों पर उसके कार्यो को सफल माना जाए और अगले चुनाव में भी वह अपनी कुर्सी को पा सके। 

परंतु इस बार कथानायक भीमा सरपंच के झाँसे में नहीं आता और उसको मुँह तोड़ जवाब देता है, "सरपंच जी, कुछ खाने को होगा तभी तो काम आएगा।" इन शब्दों को उगल कर वह कमरे से बाहर आ जाता है। 

इस आखरी सँवाद में ग्रामीण लोगों की न सिर्फ दयनीय स्थिति दिखाई पड़ती है अपितु वह सरकारी महकमें से सचेत और जागरूक होता जा रहा है का परिचय भी करवाता हुआ प्रतीत होता है। 

 ईमानदार राजनीति':- इस लघुकथा के माध्यम से लेखक ने यह कहने का प्रयास किया है कि राजनीति में आने वालों की छवि इस हद तक बिगड़ी हुई है कि अगर इस महकमें में कोई नेता  ईमानदारी से अपना कार्य करने का प्रयास करता है तब उसके अपने परिवार वालों के चेहरों पर उदासी छा जाती है। इस लघुकथा के माध्यम से लेखक जिस उद्देश्य के साथ चले हैं वह पूर्णतः उसमें सफल होते हैं।  'वोट किसे दूँ':- पत्र शैली में लिखी गयी एक सुंदर लघुकथा हुई है जिसमें  चुनावी मतदान में खड़े प्रत्यायशी के लिये एक आम नागरिक की क्या राय है और वह प्रत्याशियों के बारे में किस तरह से सोचता है और उनके प्रति उसकी उदासीनता और पीड़ा को कथानायक जिस तरह से अपने मित्र को पत्र द्वारा बताता है का सहज और सुंदर व्याख्या दिखाई देती है। 'सीमाएँ चल उठी':-  अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर लिखी इस लघुकथा में काले देश और गोरे देश को प्रतीक बनाकर यह चित्रांकित किया गया है कि कैसे विकसित देश किसी विकाशील देश को अपने को हथियारों से लेस होकर  सुरक्षित हो जाने के  अपने झाँसे में ले लेता है और  उनको हथियार दे देते हैं और उदारता से यह कहते हैं कि पैसा आराम से लौटा देना।  वह इतने चिंतित दिखाई पड़ते हैं  कि लगने लगता है कि सच में वह अपना हितैषी है परंतु जब वह बिल्कुल ऐसा ही पड़ोसी देश के लिये भी करता है तब उस देश की कुटिल राजनीति का पर्दाफाश होता है परंतु इस बीच दोनों विकासशील देशों के मध्य सीमाओं को लेकर युध्द हो जाता है। और विकसित देश पुनः जीत जाता है और वह न सिर्फ अपनी देश के लिये विदेशी मुद्रा हासिल कर अपने को पहले से और समृद्ध करता है परंतु वह खुद को और भी मजबूत कर लेता है। और विकासशील देशों की अर्थ व्यवस्था लथड़ती हुई नजर आती है। इस गम्भीर विषय पर कलम चलाकर लेखक ने अपना लेखकीय कौशल का बाखूबी परिचय दिया है। और इसका शीर्षक 'सीमाएँ चल उठी' कथानक के अनुरूप है। 'वोट बिकेंगे नहीं':- इस लघुकथा में वोट को न बेचने की बात पर जोर दिया गया है।'परछाई':- यह लघुकथा राजनीति भ्रष्टाचार पर निर्धारित है। जब सभी अपनी-अपनी ज़िम्मेदारी छोड़कर सिर्फ अपना हित सोचेंगे तो देश का क्या होगा?  साथ ही कभी किसी भ्रष्ट व्यक्ति का आमना-सामना अपनी ही परछाई से हो जाए तो उस व्यक्ति का भयभीत होना कितना स्वाभाविक होता है। इसका बहुत सुंदर चित्र इस लघुकथा में दृष्टिगोचर होता है। 'अंगूठे'- यह लघुकथा वोट की खरीद पर आधारित है कि किस तरह एक भ्रष्ट नेता अपनी ताकत को बढ़ाने के उद्देश्य से अँगूठे यानी कि अनपढ़ लोगों के मतों को खरीद लेता है , और किसी को शराब, किसी को नोट, किसीको आश्वासन देकर वह भारी मतों से चुनाव जीत जाता है। और सत्ता मिल जाने के जनून में वह इतना खो जाता है कि वह अपने खरीदे हुए अँगूठों से अधिक खून निकालने लग जाता है, और यदा-कदा कोई ऊँचे स्वर में बोलता हुआ नजर आता है तब वह उनको कटवाकर ज़मीन में दबवा देता है। परिणाम स्वरूप एक ही वर्ष में ही उसकी जमीन में अनेक नाखून वाले अँगूठे अँकुरित हो जाते है, जिसके लिये वह तैयार नही होने के कारण उनको देखकर वह डरा-डरा-सा रहने लगता है। इस लघुकथा का विषय नया नहीं है परंतु इसके प्रत्तिकात्मक प्रस्तुतिकरण के कारण यह एक बेहतरीन लघुकथा की श्रेणी में खड़ी मिलती है। 

 'मलाईमार':- एक ऐसा मौकापरस्त व्यक्ति जो अवसर देखकर बार-बार पार्टी बदल लेता है। ऐसे लोगों को अंत में हार का ही सामना करना पड़ जाता है और वह व्यक्ति ये कहता सुनाई दे जाता है, "सच तो यही है कि जनता अब समझदार हो गयी है।" यही वाक्य इस लघुकथा का अंतिम वाक्य है जो इस लघुकथा के मर्म को दर्शा रहा है और इस लघुकथा के उद्देश्य को भी परिलक्षित कर रहा है। यह एक सुंदर लघुकथा है और इसके प्रतीकात्मक शीर्षक के कारण और रोचक बन गयी है।

 'राजनीति का प्रभाव',:- राजनीति के क्षेत्र में सफलता हासिल हो जाने के उपरांत वह व्यक्ति इतना खास हो जाता है कि उसका प्रभाव डॉक्टर, व्यापारी, या कोई प्रशासनिक अधिकारी क्यों न हों सभी पर पड़ता है और अपना काम करवाने की इच्छा से सभी उसके मुँह की ओर ताकते हुए नज़र आते है।  इसी कथ्य को इस लघुकथा के माध्यम से उकेरा गया है।

'प्रजातन्त्र':- यह एक मानवेत्तर लघुकथा है । एक जंगल में प्रजातंत्र की घोषणा करी जाती है , और यहाँ के संविधान के अनुसार प्रत्येक पाँच वर्ष के बाद जंगल में प्रधान का चुनाव होने लगता है। यहाँ जंगल के हिंसक प्राणी जैसे शेर, बाघ और चीता को पात्र बनाया गया है ।अब अगर इस लघुकथा की चर्चा करें तो जंगल में प्रथम बार शेर, फिर बाघ और फिर चीते को सिंहासन सौंप दिया जाता है। राजपाट चलाने के लिये नव नियुक्त प्रधान (चीता) जब पूर्व प्रधानों से गुप्त मन्त्रणा करने जाता है तब 

शेर समझाता है -आपको पाँच वर्ष तक शासन करना है। पहले दो वर्ष हमें गालियाँ निकालते रहो। आवश्यकता पड़े तो आरामदायक जेल में भी डाल देना...जनता खुश होगी। 

बाघ कहता है- डिवाइड एण्ड रूल...जातियों में बांट दो परन्तु बात एकता की करो। उद्घाटन करते रहो परन्तु सबको उलझाए रखो और पाँचवे वर्ष में शेर समझाता है -जनता के दुःख दर्द को सुनो । झूठे आश्वासन दो, खजाना खोल दो। आप जीत गए तो फिर मज़े करो, यदि नहीं तो हम जीत जायेंगे। हम तुमको और तुम्हारे परिवार को तनिक कष्ट नहीं देंगे। पक्का वादा। 

राजनैतिक दाँव-पेंचों को समझकर चीता पूर्णतः आश्वस्त हो जाता है। 

राजनीति में अगर कोई सदस्य नया आता है तो उसको उसके वरिष्ठ कुछ इसी तरह से राजनीति दाँव-पेच सिखाते हैं और समय-समय पर उसके साथ होने का दिखावा करते हुए अपनी ही तरह छल-कपट वाली राजनीति सिखाते और करवाते हैं। यह लघुकथा इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखकर लिखी गयी है जो अच्छी बन पड़ी है। 

2.हरियाणा में साहित्य एवं रक्तदान के क्षेत्र में मधुकांत जी अपनी अलग पहचान रखते हैं। रक्तदान को लेकर आप हमेंशा कहते है कि इससे बड़ा दान दुनिया में कोई नहीं । आप समय-समय पर न सिर्फ रक्त का दान करते हैं अपितु दूसरों को भी इसके लिये प्रेरित करते है और ऐसा ही प्रयास आपने लघुकथा लेखन के माध्यम से भी किया है। रक्तदान सम्बंधित आपके दो एकल सँग्रह एड्स का भूत (सन्-2015 ई.)में धर्मदीप प्रकाशन, दिल्ली एवं दूसरा एकल सँग्रह 'रक्तमंजरी' (सन्-2019) में पारूल प्रकाशन , न. दिल्ली से प्रकाशित हुआ। 'लाल चुटकी' नामक आपका लघुकथा संकलन (सन्-2018) में  इंटकचुवल फाउन्डेशन , रोहतक से प्रकाशित हुआ। अब प्रस्तुत लघुकथा सँग्रह ' तूणीर' में प्रकाशित आपकी रक्तदान पर आधारित लघुकथाओं की चर्चा करें तो  विषय पर आपकी लघुकथाओं में 'फरिश्ता'- इस लघुकथा में रक्त के दान हेतु एक रक्तदाता एक रोगी कि जिसको वह अपना रक्त दान में देता है और उसकी जान बचाता है को प्रेरित करता दिखाई पड़ता है।  'लम्बी मुस्कान'- इस लघुकथा में एक युवा रक्तदान को लेकर उसकी माँ के भीतर के भय को निकालने में सफल हो जाता है और उनको रक्तदान के महत्त्व को भी समझा देता है जिससे उसकी माँ कह उठती है, "सचमुच बेटा, आज तूने बहुत बड़ा काम किया है। आज मैं समझ गयी मेरा बेटा बचपन को छोड़कर जवान हो गया है।" ...और माँ प्यार से अपने बेटे की पीठ थपथपाने लगती है। 'लाल कविता' :-  इस लघुकथा में पूरे सप्ताह प्रकाशनार्थ आयी कविताओं को पढ़कर वह कोने में रखता जाता है और एक-एक कर कुड़ेदानी में फैंक देता है। फिर कुछ दिन उस कवि की कोई कविता न आने पर वह बेचैन हो जाता है और कुछ दिनों में उस कवि को भूल जाता है, परंतु फिर एक दिन रक्तदान दिवस पर उसी कवि की इसी विषय पर एक सुंदर सी कविता उसके पास आती है जिसके लिफाफे के ऊपर लाल स्याही से लिखा होता है- रक्तदान दिवस पर विशेष और कविता के शीर्षक के स्थान पर गुलाब का सुंदर चित्र बना होता है। वह इस कविता को पढ़ता ही है तभी अचानक फोन की घण्टी बजती है और कविता छूट जाती है। सामने वाला उसको यह सूचना देता है, "भाई कमलकांत, अभी-अभी मनोज का एक्सीडेंट हो गया । वह मैडिकल में है। खून बहुत निकल गया। डॉक्टर ने कहा है तुरंत खून चाहिए, तुम कुछ करो...' अपने किसी परिचित या घर वाले को अगर रक्त की आवश्यकता पड़ जाती है तब इस दान का असली अर्थ का पता चलता है और आँखे खुल जाती हैं। ऐसा ही कुछ कथानायक के साथ होता है। और वह कुछ करने का आश्वासन देकर  फोन को  रख देता है। तब उसको एहसास होता है कि इस कवि का सम्बन्ध अवश्य ही कुछ रक्तदाताओं से होगा...कविता भी बहुमूल्य लगने लगती है और वह अपने भांजे को रक्त दिलवाने के लिये कविता उठाकर कवि का फोन नम्बर तलाशने लगता है।  यह एक साधारण कथ्य है परंतु यह अपने उद्देश्य को सम्प्रेषित करती है और रक्तदान महादान है का संदेश देती है। इसके अतिरिक्त इसी विषय आपकी  पुरस्कार', 'रक्तदानी बेटा', 'मच्छर का अंत', 'अपना खून', 'अपना दान', 'वैलेनटाइन डे', 'जानी अनजानी', 'रक्त दलाल', 'चिट्ठी' इत्यादि शामिल हैं जो किसी न किसी तरह से रक्तदान को बढ़ावा देती है। 

3.वस्तुतः इक्कीसवीं सदी महिला सदी है। वर्ष 2001 महिला सशक्तिकरण वर्ष के रूप में मनाया गया। 

इसमें महिलाओं की क्षमताओं और कौशल का विकास करके उन्हें अधिक सशक्त बनाने तथा समग्र समाज को महिलाओं की स्थिति और भूमिका के संबंध में जागरूक बनाने के प्रयास किये गए। महिला सशक्तिकरण हेतु वर्ष 2001 में 

प्रथम बार प्रथम बार ''राष्ट्रीय महिला उत्थान नीति''बनाई गई जिससे देश में महिलाओं के लिये विभिन्न क्षेत्रों में उत्थानऔर समुचित विकास की आधारभूत विशेषताए निर्धारित किया जाना संभव हो सके। इसमें आर्थिक सामाजिक,सांस्कृतिक सभी क्षेत्रों में पुरूषों के साथ समान आधार पर महिलाओं द्वारा समस्त मानवाधिकारों तथा मौलिक स्वतंत्रताओं का सैद्धान्तिक तथा 

वस्तुतः उपभोग पर तथा इन क्षेत्रों में 

महिलाओं की भागीदारी व निर्णय स्तर तक 

समान पहुँच पर बल दिया गया है।

आज देखने में आया है कि महिलाओं ने 

स्वयं के अनुभव के आधार पर, अपनी मेहनत और आत्मविश्वास के आधार   पर अपने लिए नई मंजिलें ,नये रास्तों का निर्माण किया है। और अपने को पहले से कहीं ज्यादा सशक्त और दृढ़ बना लिया है। कहते हैं न की साहित्य समाज का आईना होती है और साहित्यकार समाज और साहित्य को अपने कलम से सजाता है और अपने पाठकों तक अपनी बात को पहुँचाता है। इस कार्य मे मधुकांत जी भी पीछे नहीं हैं और आपने इस लघुकथा सँग्रह में कुछेक लघुकथाएँ लिखीं हैं जो .21 वीं सदी की  महिलाओं को चित्रांकित करती हैं इस श्रेणी में  'अपना अपना घर':- इस लघुकथा की मुख्य नायिका सरिता राजन नामक व्यक्ति से प्यार करती है और दोनों विवाह सूत्र में बंध जाने के इच्छुक हैं । परंतु विवाह के पूर्व सरिता राजन से कहती है कि चूँकि वह माँ की इकलौती सन्तान है और पापा भी इस दुनिया में नहीं हैं, इसलिये शादी के बाद आपको मेरे साथ मेरी माँ के घर मे रहना होगा।" इस पर राजन की असहमति हो जाती है और दोनों के बीच गम्भीर चर्चा होती है और राजन उसको अपने समाज की पुरखों से चली आ रही परंपरा जिसमें एक लडक़ी को शादी के बाद अपने ससुराल में रहने की बात करता है परंतु सरिता इस बात को नहीं मानती है और वह कहती है, "राजन, जब आप मेरे लिए अपने परिवार को नहीं छोड़ सकते तो मैं आपके लिए अपनी माँ को कैसे अकेली छोड़ दूँ? फिर समझ लो हमारी शादी नहीं हो सकती..." और गुड बॉय कहकर वह वहाँ से उठकर चली जाती है और राजन उसके कठोर निर्णय के सामने उसको रोकने की हिम्मत नहीं जुटा पाता।

यहाँ लेखक ने सरिता के चरित्र से एक शसक्त महिला का चरित्रचित्रण किया है जो प्रशंसनीय है।  

'प्रथम':- इस लघुकथा की नायिका अलका  भी सरिता की तरह शसक्त है और शादी के पहले प्रथम परिचय के समय, निर्णायक बातचीत करने से पूर्व लड़का-लड़की के मध्य एकांत में चल रही बातचीत को रेखांकित करती है। लड़का उसको पूछता है, "एक बात सच-सच बताइए, आपका किसी लड़के से लव-अफेयर है....?" अलका इस प्रश्न से चौंक जाती है और इसके प्रत्युत्तर में वह यही प्रश्न लड़के से पूछती है । लड़के का पुरुष अहम जाग जाता है और वह कहता है, "अपने होने वाले पति से ऐसा सवाल पूछने का आपका कोई अधिकार नहीं..."अलका के क्यों पूछने पर वह कहता है, "क्योंकि तुम्हें पसन्द करने मैं आया हूँ।" इसपर अलका कहती है, "देखिए जनाब, पसन्द और नापसंद पर मेरा भी बराबर अधिकार है। आप मेरे सवाल का जवाब नहीं देना चाहते तो मैं भी आपसे कोई सम्बंध नहीं जोड़ सकती।" और अलका वहाँ से उठ जाती है। इन दोनों लघुकथाओं में सँवाद सहज और स्वाभाविक तरह से कथानक को आगे बढ़ाते है  और उसकी रोचकता को बरकरार रखते हुए निर्णायक यानी कि चरम तक पहुँचाते हैं। 'नई सदी' एवं 'अनसुना', लघुकथाओं में बेबाक, उद्दण्ड और दबंग लड़कियों को केंद्रित करके लिखी गयी लघुकथाएँ हैं जिसमें वे लोग लड़को को इस कदर छेड़ती हैं जिसके चलते वह उनसे आतंकित हो जाते हैं और लड़का वहाँ से अपना सर झुकाए चला जाता है परंतु वे उपहास करते हुए नहीं रुकती ।

'सगाई':- इस लघुकथा मे लड़के को देखने लड़की और उसके घरवाले आते हैं और वे लड़के से वो सब पूछते हैं जो आमतौर पर लड़के वाले सगाई से पहले  लड़की से पूछते हैं। लड़की नौकरी पेशा है और उसकी पहले भी शादी हो चुकी होती है और वह अपने पति को इसलिये छोड़ देती आ

है और डाइवोर्स ले लेती है क्योंकि उसको लगता है कि वह दकियानूसी है । वह महिला अपने पिता से कहती है कि वह इस पुरुष को एक हफ्ते के ट्रायल पर रखेगी और उसके बाद ही शादी करने का निर्णय लेगी ।  इसके कथानक के सच में होने की सम्भवना समाज मे कितनी है यह एक शोध का विषय है ।  'अर्थबल':- इस लघुकथा में पति-पत्नी दोनों ही नौकरी पेशा हैं परंतु पत्नी अपने कैरियर और नौकरी को लेकर इतनी सजग है कि वह अपने पति से कह देती है कि बच्चे के लिये वह अपनी नौकरी नहीं छोड़ सकेगी परंतु पति को अगर उनके बच्चे की चिंता हो तो वह नौकरी छोड़कर घर में रहकर अपने बेटे की देखभाल कर सकता है। अर्थबल शीर्षक कथानक के अनुरूप सटीक है। 

'आरक्षण'-, महिलाओं के आरक्षण के चलते देश के अधिकांश मुख्य पदों पर महिलाओं की नियुक्ति होने पर पुरुष वर्ग की चिंता और उनके बीच बढ़ रही बेरोजगारी पर केंद्रित यह लघुकथा अच्छी बन पड़ी है जो किसी भी आरक्षण के दुष्परिणाम को रेखांकित कर रही है । आरक्षण जैसे गम्भीर विषय पर समाज को और भी सजग और चिंतन मनन करने की आवश्यकता है ।  इसी उद्देश्य को परिलक्षित कर रही है यह लघुकथा।  'आभूषणों में क़ैद'- वर्तमान में नारी अपने को आभूषणों में लदी हुई नहीं देखना चाहती अपितु वह शक्तिशाली बनकर अपने पाँवों पर खड़ा होना चाहती हैं। यही बात इस लघुकथा में कही गयी है।  

प्रस्तुत सँग्रह में प्रकाशित में लेखक ने .मोनोविज्ञान पर आधारित लघुकथाओं की चर्चा करते हुए सर्वप्रथम इस श्रेणी की 'मन का आतंक'  लघुकथा का अवलोकन करते हैं। यह एक प्रयोगात्मक लघुकथा है जो एकालाप शैली में  लिखी गई। इस लघुकथा में एक ही पात्र है जो बोल रहा है और एक पात्र अपरोक्ष रूप से अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहा है। इस लघुकथा का इकलौता पात्र एक पत्नी है जो अपनी मन की पीड़ा और डर के परतों को खोल रही है। इसमें एक पत्नी के मनोविज्ञान को बहुत ही करीने से दर्शाया गया है। इस लघुकथा को देखें- अचानक उसकी नज़र द्वार पर चली गयी। 

"आप इस समय?क्या ऑफिस जल्दी छूट गया? आप कुछ बोलते क्यों नहीं? नाराज़ हो क्या...?"

....वह कॉलेज में मेरे साथ पढ़ता था....नहीं नहीं, ऐसा कुछ नहीं हुआ....सच तुम्हारी कसम....अचानक सड़क पर मिल गया....औपचारिकतावश चाय के लिए टोक दिया था....हाँ.... हाँ.... कॉलेज की कुछ बातें हुईं थीं.... बस और कुछ नहीं, बिल्कुल भी नहीं....फिर कभी मिला तो कन्नी काट जाऊँगी, ....बोलो अब तो खुश हो न आप...."

पत्नी का कॉलेज के समय का कोई दोस्त जिसको वह इतने वर्षों बाद मिली परंतु यह बात अब तक उसने अपने पति से छिपाई थी जो आज उसने कहा दिया। परंतु उसने देखा कि तेज हवा से द्वार का पर्दा हिल रहा था।

'अरे यहाँ तो कोई नहीं आया...फिर मैं किससे बातें कर रही थी?' उसने अपने माथे को छुआ तो चौंक गयी, सचमुच माथा पसीने से गीला था। 

एक पत्नी की आत्मग्लानि जो माथे से पसीना बन बह रही थी । यह इस सँग्रह की उत्कृष्ट लघुकथा है। इसके इसी प्रस्तुतिकरण के कारण यह पाठकों के हृदय को छू लेगी ऐसा मेरा पूर्ण विश्वास है।

 'तपन':- 'एक व्यक्ति जो नियमित समाचार सुनता तो है परंतु वह सिर्फ सुनता ही है और दूसरे रूप में देखें तो जब कुदरत अपना कहर बरसाती है तब वह प्रलय जैसी स्थिति उत्पन्न कर देती है और इंसान सुनते हुए भी समझते हुए भी कुछ नही कर पाता। ऐसा ही कुछ इस लघुकथा के नायक के साथ होता है जो प्रथम दिन समाचार में सुनता है कि पड़ोसी देश मे भयंकर तूफान आया और सैंकड़ों लोग मारे गए तथा हज़ारों बेघर हो गए। 

जब दूसरे देश की बात थी तब उसने इस समाचार को आसपास बाँटने का कार्य किया एक तमाशबीन की तरह। दूसरे दिन उसने सुना कि तूफान उसके देश की सीमाओं में प्रवेश कर लिया है, तीसरे दिन  तूफान  उसके राज्य में मंडराने लगा, तब वह चिंता में डूब गया  उसी रात तूफान का शोर उसे गाँव की सीमा पर सुनाई पड़ने लगा और वह आपने छप्पर को मजबूत करने लगा पर बहुत देर हो चुकी थी, सुबह-सुबह तूफान बहुत तेज हुआ और उसके घर के छप्पर को उखाड़ कर ले गया। प्रतीकात्मक शैली में लिखी इस लघुकथा में छिपा संदेश कि हर व्यक्ति को दूर की सोच कर ही अपने जीवन में कार्य करना चाहिये क्योंकि मुसीबत कभी कहकर नहीं आती। यह एक अच्छी लघुकथा है और इसका शीर्षक तपन में प्रतिकात्मक है जो कथानक के अनुरूप है कि और अपने में जीवन की तपन को दर्शा रहा है।

'महात्मा का सच' :- धर्म का  प्रचार एवं मनुष्य को नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाले बाबाओं का अपना योगदान है । यह भी अपने आप में एक व्यवसाय-सा बन गया है और इन लोगों के आडम्बर के चर्चे आम बात है। ऐसे में अगर कोई महात्मा इस लघुकथा के नायक की तरह  यह शपत ले ले कि आज जो कहूँगा सच कहूँगा और सच के अलावा कुछ नहीं कहूँगा तब उनके अनुयायीओं की प्रतिक्रिया शायद ऐसी ही हो जैसा कि लेखक ने इस लघुकथा में वर्णन की है। कथानायक पहले तो अपने भक्तों के सामने बाबा क्यों बना इसके पीछे यह कारण बताते हैं कि प्यार में धोखा मिला और बाद में यह भी बताते हैं कि नेताओं के काले धन को सफेद करवाने का माध्यम हैं।  उनके भक्तों को पहले तो आश्चर्य हुआ परंतु फिर उनकी समझ में आ गया कि उनके  स्वामी सत्यवादी, विनम्र एवं निर्दोष हैं। इसके बाद इनके यहाँ भीड़ बढ़ने लगी। कुल मिलाकर यह बहुत ही साधारण सी लघुकथा है । 

'उबाल' :- घरेलू हिंसा पर आधारित इस लघुकथा में नायिका पत्नी अपने पति की कमीज पर क्रोध निकालकर उसको ज़ोर से पीटना शुरू कर देती है जिस कारण वो वहाँ से फट जाती है पर उसको तनिक भी पश्चाताप नही होता। पुरुष-प्रधान समाज में पत्नी के हालातों को दर्शाती एक साधारण-सी लघुकथा है। दूर के ढोल'- इस लघुकथा के माध्यम से लेखक ने यह समझाने का प्रयास किया है कि आजकल  भक्त प्रह्लाद जैसा पुत्र कोई नहीं बनता । 

'अवस्था के बिम्ब':- यह भी एक प्रयोगात्मक लघुकथा है जिसमें तीन दृश्य दिखाए गए हैं।   लगभग 18 वर्ष का जोड़ा, पार्क के कोने वाले बैंच पर एक दूसरे को आँखों में आँखें डाले, एक दूसरे से सटकर मौन बैठा था। 

उसी पार्क में लगभग 35 वर्ष का युगल पार्क की छतरी के नीचे, साथ-साथ बैठा, बतिया रहा था। 

पार्क की दीवार की ओट में 75 वर्ष का, एक दूसरे पर आश्रित जोड़ा आमने सामने बैठा धूप सेक रहा था। 

इस लघुकथा के अंतिम वाक्य में इसका सार है पार्क के बीच में खड़ा आश्चर्यचकित बालक तीनों जोड़ों को देखकर घबरा रहा है। 

बच्चे को समझ नहीं आता कि आगे जाकर उसको क्या और कैसे रहना है क्योंकि सब अपने-अपने हिसाब से रहते हैं बिना यह सोचे कि बच्चों के भविष्य का क्या होगा? 

 'विस्तार':- इस लघुकथा में बेटा-बहू के कहने पर अपनी माँ को अनाथाश्रम छोड़ आता है परंतु जब घर के काम-काज करने में वह थकने लगती है तो वह अपने पति को पुनः उनको घर लिवाने के लिए भेज देती है । वह माफ़ी माँगते हुए जब उनको घर आने को कहता है तब एक स्वाभिमानी माँ यह कहती है, "माफी किस बात की? तुमने तो यहाँ भेजकर मुझपर उपकार ही किया है। वहाँ तो मैं केवल तुम्हारी माँ थी, परन्तु यहाँ तो तीस बच्चों की माँ हूँ। आश्रम के स्वामी जी तथा सभी सेवक मुझे भरपूर सम्मान देते हैं। अब तो यह आश्रम ही मुझको अपना घर लगने लगा है।" 

इसका अंतिम वाक्य बेहद सुंदर बन पड़ा है- सारे पासे असफल होते देख बेटा उदास हो गया। परंतु कमरे की खिड़कियों से झाँकती नन्हीं-नन्हीं आँखों में चमक भर गयी। माँ को बच्चों का प्यार और तीस बच्चों को माँ का प्यार मिल जाता है। इस लघुकथा का अंत जिस तरह हुआ है उस कारण यह लघुकथा सुंदर बन पड़ी है। 

'डरे-डरे संरक्षक':- इस लघुकथा के माध्यम से लेखक ने वर्तमान में बच्चों की बदलती मानसिकता को लेकर चिंता व्यक्त की है। कानून ने बच्चों को स्कूल में मारने-पीटने पर रोक लगाई है और अगर वह उनके अभिभावकों को उनकी शिकायत करते हैं तब वे यह कहते हुए मिलते हैं कि अगर उन्होंने उसको डाँटा या मारा और इकलौता बेटा घर से भाग जाएगा...। ये कैसा डर है जो लगभग हर संरक्षक के हृदय में घर कर गया है । यह एक गम्भीर विषय है जिसपर समाज को भी गम्भीरता से सोचना समझना होगा और बच्चों के मानसिकता को समझते हुए उनको सही दिशा दिखाना होगी। 

'पहली लड़ाई' :- एक डरपोक व्यक्ति जब पहली बार पतंग उड़ाता है तब उसकी पतंग कट जाती है परंतु उसको यह सन्तोष हो जाता है कि उसने अपनी पहली लड़ाई इस पतंग के माध्यम से लड़ी और वह दूसरी पतंग को उड़ाने के लिये चला जाता है।  इस लघुकथा के माध्यम से लेखक ने यह समझाने का प्रयास किया है कि व्यक्ति का डर और उस डर से लड़ने की क्षमता दोनों ही उसके भीतर होती है। बस उसको उन चीजों को समझना होता है और अपने डर पर प्रयास करके विजय हासिल करना होता है। 'पत्रों का संघर्ष':- इस लघुकथा में पत्रों के माध्यम से लेखक ने पत्रिका के प्रकाशक को जहाँ उसको प्रकाश में लाने हेतु पैसों की आवश्यकता पड़ती है और इसके लिये वह अपने मित्र को लिखने में भी नहीं हिचकता कि क्योंकि उसके पास राशि नहीं है सो हो सकता है वह इस पत्रिका को न ला सके ऐसे में अगर वह मित्र उसको अपनी परेशानी बताते हुए कुछ राशि को उसके बैंक के खाते में डाल दी है कि सूचना देता है तब प्रकाशक का आश्चर्यचकित होना और उसको उसके पत्रों की इबारत अक्षरतः दिखाई देने लगती है जो बहुत ही स्वाभाविक है। ऐसा ही दृश्य इस लघुकथा में चित्रांकित किया गया है। इसके अतिरिक्त  'डी. एन. ए.:- सँवाद शैली में लिखी गयी इस लघुकथा में एक मंत्री के किसी महिला से अनैतिक सम्बन्ध और फलस्वरूप जब वह महिला वर्षों बाद उसको सम्पर्क करती है और यह बताती है कि उसका बेटा जवान हो गया है और पिता का नाम चाहता है। ऐसे में मंत्री जब उसको हड़का देता है तब वह महिला कहती है कि वह बच्चे का का डी. एन.ए टेस्ट करवा सकती है। तब वह मंत्री डर जाता है और उसके घर पहुँचने की बात करता है। उस मंत्री को एहसास हो जाता है कि जवानी में की गई गलती को दबाना कितना कठिन होता है। यहाँ इसी भाव को लिखकर लेखक ने इस लघुकथा का अंत किया है। 


5. भ्रष्टाचार पर आधारित लघुकथाएँ की बात करें प्रस्तुत सँग्रह में 'संस्कार' 'इज्जत के लिए', 'खोज', 'अंधा बांटे रेवड़ी', इत्यादि  रचनाएँ शामिल हैं। संस्कार लघुकथा  नौकरी में आरक्षण पर आधारित है जिसमें सुयोग व्यक्ति को कई बार उसके योग्य नौकरी नहीं मिल पाती और वह अपने से कम योग्य व्यक्ति के अंडर काम करने पर मजबूर हो जाता है। इज्जत के लिये :- चिकित्सा विभाग में डॉक्टर द्वारा भ्रष्टाचार किए जाने पर प्रकाश डाला गया है। मरीज और उसके घर वाले किस हद तक मजबूर हो जाते हैं कि गरीब व्यक्ति को अपने परिजन जो मृत्युशैया पर लेटा है जिसका बचना असंभव है उसको वह डॉक्टर को दिखाने के लिये कर्ज भी लेता है समाज के डर से कि कहीं समाज यह न कहे कि जानबूझकर उसने अपने माता या पिता का इलाज नहीं करवाया और ऐसे में अगर कोई झोलाछाप डॉक्टर जो मरीज को  इंजेक्शन लगाता है परंतु वह देखता है कि सिरिंज में खून निकलकर भर रहा है। पर लोक-लाज के मारे वह उससे कहता तो कुछ नही पर उसको समझने में यह देर नहीं लगती कि यह डॉक्टर अनाड़ी है। ऐसे डॉक्टर कई जगह नज़र आ जाते हैं जो मरीजों के जीवन से खेल जाते हैं। यह एक गम्भीर समस्या है जिसका निदान होना अति आवश्यक है।

खोज:- पुलिस भ्रष्टाचार पर आधारित इस लघुकथा में आधी रात को डाकू किसी गाँव में लूटपाट कर दो हत्या कर देते हैं और गाँव से तीन-चार किलोमीटर दूर चले जाते हैं। तब बस्ती में भारी जूतों की आवाज़ ठपठपाने लगती है। वे लोग सवाल पूछ-पूछकर चले जाते हैं और दूसरे दिन शाम को डी. एस. पी. ग्रामीण लोगों को एकत्रित करके बताते हैं, "आपको यह जानकर खुशी होगी कि डाकुओं की बंदूक से निकले दो कारतूस हमने बरामद कर लिए हैं...अब जल्दी ही डाकुओं की पहचान कर ली जाएगी...

इसका अंतिम वाक्य आमजन के बीच पुलिस प्रशासन के प्रति निराशा दर्शा रही है कि किस कदर इन लोगों ने अपनी छवि बिगाड़ कर रखी है- एक सप्ताह बीत गया, धीरे-धीरे लोगों की आँखें धुँधलाने लगीं। 'अँधा बांटे रेवड़ी'- किसी भी तरह के पुरस्कार बांटने में भी किस तरह से राजनीति होती है और आयोजकों का प्रयास रहता है कि ऐसे में जब लिस्ट बनती है तो नेता यह चाहता है कि अपनी जाति और क्षेत्र का कोई व्यक्ति हो तो उसको लिस्ट में सर्वप्रथम होना चाहिए।


6.अन्यान्य विषयों पर आधारित लघुकथाएँ:- 'नाम की महिमा' जो कि सम्पदान व्यवसाय पर आधारित है जिसमें यह दर्शाया गया है कि इस व्यवसाय में एक नामी रचनाकार की रचना को स्थान मिल जाता है फिर चाहे उस रचना में कोई दम न हो परंतु जब यह पता चल जाता है कि वह रचना किसी साधारण लेखक ने लिखी है तब उस रचना को कचरे की टोकरी में फैंक दिया जाता है।, 

 'आजादी' :- इस लघुकथा में लेखक ने यह सन्देश देने का सद्प्रयास किया है कि अमीर होना सुख को पाना नहीं और न ही उसकी खर्च करने की क्षमताओं को देखकर उसकी आजादी का अनुमान लगाया जा सकता है क्योंकि वह अपने नौकरों के आधीन हो जाता है वहीं एक गरीब व्यक्ति जो खुले आसमान के नीचे सोता है परंतु वह जहाँ चाहे जब चाहे आना-जाना कर सकता है और वह स्वतंत्रता से अपने निर्णय ले सकता है। यही सच्ची आज़ादी होती है।  यह लघुकथा थोड़ी उपदेशात्मक हो गयी है। , 'प्रशिक्षण':- वर्तमान शिक्षा नीति और उसके बाद उत्पन्न होती बेरोजगारी की समस्या को लेकर व्यंग्य है कि इससे बेहतर है कि राजनीति के मैदान में उतार देना आसान होता है । 'सभ्रान्त नागरिक' :- सड़क दुर्घटना पर आधारित इस लघुकथा में देश के एक जागरूक नागरिक का चित्रण है जो दुर्घटना के होते ही पुलिस स्टेशन में इसकी सूचना देता है और अस्पताल भी ले जाता है। पुलिस जहाँ रिपोर्ट लिखवाने की खाना-पूर्ति करती दिखाई पड़ती है और उस भले इंसान को बे वजह परेशान करती है। ऐसे में अस्पताल से अगर डॉक्टर यह कह देता है कि क्योंकि पेशंट को समय पर अस्पताल में भर्ती करवाया गया उसकी जान बच गयी है। तब एक सम्भ्रान्त नागरिक की परेशानियों का मीठा फल मिल जाता है और उसकी चिंता मिट जाती है। इस लघुकथा में किसी अस्पताल में बिना पुलिस की जानकारी या रिपोर्ट किये उसका इलाज शुरू कर देने वाली घटना पर विश्वास कर पाना मेरे लिये थोड़ा मुश्किल हो रहा है। 

, 'बातूनी' :- यह लघुकथा विद्यार्थी जीवन पर आधारित है जिसमें एक बच्चा अपने दोस्तों के मध्य गपशप करके अपना समय बर्बाद करता है और उसकी माँ उसको पढ़ाई करने को कहती है। 'सुनो कहानी', बदलाव' (फंतासी):- ये दोनों लघुकथाएँ फंतासी शैली में लिखी गयी हैं।  सुनो कहानी में एक सुंदर सी लड़की जिसका विवाह एक राजा के साथ होता है परंतु वह उसके महल में अपने सुख-दुःख को किसी से बांट नही पाती क्योंकि ऐसा ही आदेश राजा ने दिया था। और आखिर में वह मर जाती है। इस लघुकथा में मनुष्य सामाजिक प्राणी है जिसको अपने सुख-दुःख बांटने के लिए किसी व्यक्ति की आवश्यकता पड़ती है । फिर वह चाहे बड़े से महल में ही क्यों न रहता हो पर जब उसके भीतर अकेलापन घर कर लेता है और ऐसे में उसके पास किसी को न पाकर वह दम तोड़ देता है जो बहुत ही स्वाभाविक है।

 'अपनी-अपनी ज़मीन' :-भूख पर आधारित इस लघुकथा में लेखक का यह उद्देश्य परिलक्षित हुआ है  कि भूख हर व्यक्ति को लगती है और यह जात-पात नहीं देखती ।अपने अपने रिश्ते' :अंतर जातीय विवाह पर आधारित है । 

, 'सहारा':- इस लघुकथा में कामकाजी बहू के पक्ष में खड़ी एक सास दिखाई देती है जो अभी-अभी काम से घर लौटी है और उसका पति चाय की फरमाइश कर देता है। ऐसे में सास अपने बेटे को टोक देती है और स्वयं चाय बनाने हेतु खड़ी हो जाती है। बेटी जब उसको टोकती है तब वह कह देती है कि बहू से जब नौकरी करवाना है तो घर में उसका हाथ बंटवाने की ज़िम्मेदारी घर के हर सदस्य की बन जाती है। परिवार में प्रेम-भाव बढ़ाने के उद्देश्य से लिखी गई यह एक सुंदर लघुकथा है।  'मेरा वृक्ष' :- यह लघुकथा पर्यावरण संरक्षण के महत्त्व को बढ़ाती लघुकथा है। जिसमें  एक भाई के पब्लिक पार्क के चित्र को बनाता है। जिसको रंगों से सजाता है और एक कोने में वट वृक्ष को खड़ा कर देता है। उसका छोटा भाई जलन के मारे अपनी कलम निकाल लेता है और वृक्ष पर काटा लगा देता है। दोनों भाइयों में बहस हो जाती है, और शिकायत माँ तक पहुँच जाती है। वह कुछ कह पाए उसके पहले ही बड़ा भाई कहता है, "अम्मा, इस पागल को इतना भी ज्ञान नहीं कि पेड़ो की शीतल छाया और ऑक्सिजन हमको मिलती है, सरकार को नहीं, इसलिए ये वृक्ष हमारे हैं..."

और छोटे भाई को अपनी गलती का एहसास हो जाता  है और अपनी गलती मान लेता है और बड़े भाई का क्रोध शांत हो जाता है। बाल-सुलभ आधारित यह एक सुंदर लघुकथा हुई है।

, 'फिर एक बार':-  शरणार्थी का दर्द को उकेरती यह एक अच्छी लघुकथा है। एक व्यक्ति जो पाकिस्तान से अपना देश समझकर अपने देश आ जाता है, उसको एक बार तब लूटा गया जब दस वर्षों तक उसको लोग पाकिस्तानी ....शरणार्थी कहते रहे, अगले बीस वर्ष पंजाबी कहकर दंश देते रहे , अब लोगों को इनके शरीर से हरियाणवी मिट्टी की गंध आने लगती है... फिर एक बार सारी गंध सूख जाती है... वह जूतों को बेचने वाला एक व्यापारी होता है जिसकी दूकान को लूट लिया जाता है। वह चिंतित हो जाता है कि वह कैसे चुकाएगा थोक व्यपारी की उधार और कहाँ से भरेगा बैंक की किश्त! यह एक मार्मिक लघुकथा है जो सहज ही हृदय को छू जाती है।, 'सपना' :- इस लघुकथा में  एक पत्रकार को राम राज्य का  सपना आता है और वह एक लेख लिखता है परंतु लोग उसका कहीं उपहास न उड़ाएँ इस डर से वह  अपने लेख को एक फ़ाइल में रख देता है और धीरे-धीरे वह उसमें दबता चला जाता है और पत्रकार लेख को प्रकाशित करवाने हेतु उपयुक्त समय की प्रतीक्षा करता है। साहित्य की स्थिति को दिखाती यह एक गम्भीर रचना है ।

  'अतिथि देवो भव' मातृ दक्षिणा :- इस लघुकथा में विदेशियों की मदद करता हुआ एक किसान दिखाई देता है जो उनकी गाड़ी के पंक्चर हुए पहिये को निकालकर डिग्गी से दूसरा पहिया निकालकर लगा देता है और उनके द्वारा बख्शीश की राशि को न लेकर भारतीय संस्कृति का परिचय देता है। 'ऊँचा तिरंगा':- यह बाल मनोविज्ञान पर आधारित एक सुंदर लघुकथा है।  स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर एक मोहल्ले के  बच्चों में बहस छिड़ जाती है कि कल देखते हैं सबसे ऊँचा झण्डा कौन फहराएगा। सब बच्चें अपनी अपनी बात रखते हैं ऐसे में एक बच्चा जिसका घर बहुत नीचा होता है और जो पाइप भी नहीं ला सकता वह चिंतित हो जाता है और रात एक बजे उसको एक ख्याल सूझता है और वह चुपचाप अपने मकान की छत पर आ जाता है।  मुंटी में से अपनी चरखड़ी और तिरंगे वाली पतंग निकाल लेता है और आकाश में पतंग उड़ाने लगता है। स्वतंत्रता दिवस की शीतल हवा उसके मन को मस्त और पुलकित कर देती है। पतंग को आकाश में चढ़ाकर वह आसपास के सभी मकानों की और देखता है औए कह उठता है, "हाँ मेरी पतंग सबसे ऊँची है।"  यह सोचकर वह सुबह होने की प्रतीक्षा करने लगता है।  जहाँ चाह वहाँ राह के मुहावरे को परिभाषित करती यह अपने सोए आत्मविश्वास को जगाने वाली एक सार्थक  लघुकथा है।

 , 'कन्या पूजन' :- एक दाई जो कन्याओं को गर्भ में मरवाती देती थी को कान्याओं की महत्ता तब समझ में आती है जब दुर्गाष्टमी के पूजन करने के बाद सात कान्याओं को एकत्रित करने के लिये मोहल्ले में निकलती है परंतु उसको सिर्फ पाँच ही कन्याएँ मिल पाती हैं।  दो थाली बच जाने से वह उन दोनों थालियों को लेकर मन्दिर चली जाती है। जब वहाँ दूसरी महिलाओं के साथ चर्चा चलती है तब वह कहती है कि वह दाई इसलिये बनी थी क्योंकि यह उसकी सास की इच्छा थी पर जब पूजन की बात आई तो यह उसके संस्कारो की बात थी जिसमें वह हार गई सो शपत खाती है कि आगे से वह कान्याओं की हत्या किसी के भी गर्भ में न करेगी न करवाएगी। यहाँ पूजन के बाद लड़कियों का न मिल पाने की स्थिति एकदम से आ जाये यह बात थोड़ी खटक रही है। 

 'बोहनी' :- गरीब व्यक्ति के लिये अपने सामान की बिक्री से हो रही बोहनी कितनी महत्त्वपूर्ण होती है यह बात अनुभवी आँखों की आवश्यकता होती है जैसा इस लघुकथा के नायक ज्ञानरंज को होता है जब वह एक मैली- कुचैली लड़की रंग-बिरंगी बॉल बेच रही थी और उसकी बोहनी करवाने की मिन्नते कर रही थी। वह जब बॉल को देखता है तब चाइना मेड होने के कारण एक बार तो खरीदने के लिये इनकार कर देता है पर जब वह उस बच्ची के मुरझाए चेहरे की पीड़ा को देखता है तो एक गेंद खरीदकर उसकी बोहनी करवा देता है।  बच्ची के चेहरे पर मुस्कान आ जाती है। यह व्यक्ति के कोमल भावना को दर्शाती हुई प्यारी सी लघुकथा है। भविष्य की चिंता' :- साहनुभूति पाकर अपने लिए खाना माँगने के लिये ज़ोर-ज़ोर से रोने वाले भिखारी को एक दिन अचानक से भविष्य की चिंता सताने लगती है कि अगर किसी दिन किसी को पता चल गया और खाना देना बंद कर दिया तो...और वह बावला भिखारी और तेज रोने लग जाता है।  विद्यासागर अभी ज़िंदा है- इस लघुकथा के माध्यम से लेखक ने यह कहने का सद्प्रयास किया है कि व्यक्ति तो मर जाता है परंतु उसके द्वारा किया गया काम उसकी मृत्यु के बाद भी याद किया जाता है और उस व्यक्ति को अपने कार्यों के लिये जाना-पहचाना और जीवंत रखता है। 

इन लघुकथाओं के विषयों में नयापन नहीं है परंतु भाषा सहज और स्वाभाविक है। आपके इस संग्रह के शीर्षक 'तूणीर' की बात करें तो इसका सामान्य अर्थ तरकश यानी कि तीर रखने वाला पात्र जो सामान्यतः काँधे पर लटकाया जाता है। आपकी लघुकथाओं को पढ़कर यह कहना गलत न होगा कि आपकी लेखनी से निकली कुछ  बेहतरीन लघुकथाएँ तीर की तरह पाठकों के ह्रदय को  चीरकर उसमें वास करेंगी । मुख्य पृष्ठ आकर्षक लगा। 

कुल मिलाकर मैं यह कहने में अपने को बहुत ही सहज पा रही हूँ कि प्रस्तुत सँग्रह पठनीय है और पाठकों को इसकी लघुकथाएँ पसन्द आएँगी।  मधुकांत जी के 'तूणीर' नामक इस एकल लघुकथा सँग्रह को पढ़ते हुए जितना मैं समझ पायी हूँ उस अनुसार अपने विचारों को रखने का विनम्र प्रयास किया है । अब इसमें मैं कितना सफ़ल हो पाई हूँ इसका निर्णय मैं आप सभी सुधिपाठकों पर छोड़ती हूँ।


- कल्पना भट्ट


गुरुवार, 19 मई 2022

संवेदना जागृत करती लघुकथाओं का संग्रह ‘छूटा हुआ सामान’: लेखिका डॉ.शील कौशिक | समीक्षक: कल्पना भट्ट



 पुस्तक का नाम: छूटा हुआ सामान (लघुकथा संग्रह) 

लेखिका: डॉ.शील कौशिक 

प्रकाशक: देवशीला पब्लिकेशन, पटियाला, पंजाब-१४७००१

प्रथम संस्करण: २०२१

मूल्य: २५० रुपये 




संवेदना जागृत करती लघुकथाओं का संग्रह ‘छूटा हुआ सामान’: लेखिका डॉ.शील कौशिक 

हिन्दी-लघुकथा के क्षेत्र में डॉ.शील कौशिक को किसी परिचय की आवश्यकता नहीं है | हिन्दी-साहित्य जगत् में आपकी कुल ३२ पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं जिसमें से २२ मौलिक, ६ सम्पादित, ३ अनुदित एवं आप पर एक पुस्तक प्रकाशित हुई हैं| ‘छूटा हुआ सामान’ आपका चौथा लघुकथा-संग्रह है जिसमें कुल ७४ लघुकथाएँ संगृहीत हुई हैं| 

प्रस्तुत संग्रह में अधिकाँश लघुकथाएँ संवेदना जागृत करती हुई हैं| इस संग्रह में आपने विभिन्न विषयों पर कलम चलाई है जिसमें से सेवानिवृति, किन्नर, पारिवारिक पृष्ठभूमि पर आधारित लघुकथाओं के साथ-साथ मालिक एवं नौकर, पडोसी प्रेम पर आधारित, दोस्ती पर आधारित, बाल-मन पर केन्द्रित लघुकथाएँ, संवेदना जागृत करती हुई लघुकथाएँ, इत्यादि विषय शामिल हैं| 

सर्वप्रथम संवेदना जागृत करती हुई लघुकथाओं की चर्चा करें तो इस शीर्षक के अंतर्गत, ‘जाति के पार’,’माँ का मरना’,’छूटा हुआ सामान’, ‘बोल न मुन्ना’ इत्यादि लघुकथाएँ हैं जिसमें से ‘छूटा हुआ सामान’ इस संग्रह की सर्वश्रेष्ठ लघुकथा है जिसका विषय लिक से हटकर है| इस लघुकथा में एक बेटी तनुजा विवाह के उपरान्त पहली बार मायके आती है और वह हर उस जगह जाती है जहाँ-जहाँ विवाह के पहले जाया करती थी और बाज़ार से वो सामान खरीदती है जिसको वह खरीदा करती थी| तनुजा की माँ उसको अपना सामान समेट ने को कहती है परन्तु तनुजा बार-बार घर के बाहर चली जाती है जिसपर उसकी माँ उसको डाँट कर कहती है, “तेरे पाँव में टिकाव न है, यहाँ-वहाँ उड़ती फिर रही है छोरी|” 

फिर उसके मासूम से चेहरे को देखकर माँ की आँखे नम हो जाती हैं व् भर्राए स्वर में कहती हैं, “कितनी बार कहा है तुझे, अपना सामान समेट ले बेटा|”

इसपर तनुजा यह कहते हुए, “माँ सुबह से छूटा हुआ सामान ही तो बटोर रही हूँ|” फफक-फफककर रो पड़ती है और माँ के गले में झूल जाती है| यह लघुकथा पाठकों के हृदयतल को स्पर्श करेगी ऐसा मुझे पूर्ण विश्वास है| यह लघुकथा प्रस्तुत संग्रह की प्रतिनिधि रचना भी है जिसको लेखिका ने बहुत ही मनोभाव से प्रस्तुत किया है दूसरे शब्दों में यह कहना कि इस सम्पूर्ण संग्रह की आत्मा इस एक लघुकथा में बस गयी है तो अतोशयोक्ति न होगी| जाति-वाद की बात करें तो वर्तमान समय में भी ऐसे संकीर्ण सोच वाले लोग समाज में प्रत्यक्ष हो जाते हैं जो जाति-पाती को मानकर अपने को सर्वश्रेष्ठ समझते हैं और दलित वर्ग को निम्न समझकर उनका तिरस्कार करते हैं| इसी विषय पर आधारित ‘जाति के पार’ अपने उद्देश्य को संप्रेषित करती है| ‘माँ का मरना’ एक मार्मिक लघुकथा है जिसके संवाद ह्रदय को स्पर्श कर जाते हैं| ‘बोल न मुन्ना’ का कथानक सुन्दर है जो एक वयोवृद्ध की मनोदशा को चित्रांकित करता है जो अपने बेटे से उपेक्षित होता आ रहा है| ‘बेटी का हिस्सा’ बेटी और बेटों में फर्क करने वालो हेतु सन्देश प्रेषित करता है कि बेटों के मुकाबले बेटियाँ अपने घर और परिवार के प्रति ज्यादा सजग एवं ममत्व रखती है | और बेटी के हिस्से में घर के संस्कार और भावनात्मक बंधन आता है जिसको वह ह्रदय से निभाती है | इसी से मिलती-झूलती एक और लघुकथा को देखा-परखा जा सकता है जो ‘एक ही बेटा’ शीर्षक से प्रेषित हुई है| इस लघुकथा में एक पिता के दो पुत्र होने के बावजूद सिर्फ छोटा बेटा उनके पद-चिह्नों पर चलता है परन्तु पिता के मरणोपरांत किसी मंच के द्वारा सम्मान मिलना होता है परन्तु यहाँ बड़ा बेटा जाने की इच्छा जताता है और चला भी जाता है | परन्तु लोग उसको पहचान नहीं पाते और कहते हैं, “अरे! हमने तो सोचा उनका एक ही बेटा है|” इस अन्तिम वाक्य ने हजारों ऐसे गालों पर चांटे रसीद दिए से प्रतीत होता है जो नाम कमाने के खातीर अपने पूर्वजों को सीढी बनाकर चलने में भी शर्मिंदगी का एहसास नहीं कर पाता | यह लघुकथा अपने अन्तिम वाक्य के कारण सुन्दर बन पड़ी है|  

‘सच तो यही है’ पुरुष-प्रधान सोच को उजागर करती एक बेहतरीन लघुकथा है जिसमें पति के सामने जब पत्नी महिलाओं की उपलब्धियों को गिनवाती है और उनकी सफलता का गुणगान कर समाज में स्त्री-पुरुष समानता को लेकर अपना पक्ष रखने का प्रयास करती है, परन्तु पति का पुरुष मन उसकी बातों से आहत् होता है और उसके अहम् को ठेस लगती है और वह अपनी पत्नी को बाहुपाश में लेकर कहता है, “हाँ यार! कह तो तुम ठीक रही हो|” और उसको बेडरूम में ले जाता है और अपनी विकृत सोच को प्रदर्शित कर अपनी पत्नी के साथ जबरदस्ती कर अपने मन-मष्तिष्क में अटका गुबार दाग देता है और कुटिल मुस्कान फैंकते हुए कहता है, “हाँ, तो क्या कह रही थी तुम! महिलाओं का बराबरी का बखान...वो तो बहुत दूर की कौड़ी है, पहले तुम ‘योअर बॉडी इज़ योअर ओन’ का तो एहसास कर लो|” यह इस लघुकथा का चरम संवाद है जिसने इस लघुकथा को उत्कृष्टता की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया है और इस लघुकथा का अन्तिम वाक्य जो इस लघुकथा के उद्देश्य को सिद्ध करता है को भी अवलोकित किया जा सकता है, ‘समानता का काँटा मुँह चिढाने लगा, तिलमिला उठी सुनंदा|’ इसका नकारत्मक अंत पढ़कर पाठक के मन में वर्तमान समाज में स्त्री को समान अधिकारों के दंभ भरने वालों पर कई सवाल खड़े करती है|

वर्तमान समय में संवेदनाएँ समाज से विलुप्त-सी हो गयी हैं | स्वार्थ ने हर घर-परिवार ने डेरा-सा डाल दिया है| अगर घर में कोई सेवानिवृत हो गया है तो उसकी दुर्दशा और उसको हीन समझकर उसको तिर्रस्कृत कर उनके साथ बदसलूकी करना अथवा अपने घर के छोटे-मोटे काम करवाना यह आम बात हो गयी है| इसी मुद्दे को लेकर लेखिका चिंतित दिखाई पड़ती है और अपने लेखकीय धर्म का पालन करते हुए सेवानिवृत विषय को आधार बनाकर आपने इस संग्रह में कुछ बहुत ही सुन्दर लघुकथाएँ प्रेषित की है जिसमें ‘सेवानिवृत्ति’, ‘बोझिल कंधे’, ‘तब और अब’ जैसी अच्छी और सार्थक लघुकथाएँ प्रेषित हुई हैं| 

लघुकथा ‘पर्त-दर-पर्त’ प्रस्तुत संग्रह की एक और उत्कृष्ट लघुकथा है जिसमें सोने के पिंजरे में क़ैद मंजू की मनोदशा बहुत ही करीने से चित्रांकन किया गया है| एक ऐसा घर जिसमें आधुनिक यंत्र मौजूद हैं जिसका उपयोग वह घर में काम करने वालों पर निगरानी करने के लिए एवं अपनी सहेली के सामने दिखावा करने के लिए इस्तमाल करती है | 

सोने के पिंजरे में बंद कथानायिका की मनोदशा इस संवाद से समझी जा सकती है, “भगवान् ने मुझे सब सुख दिए हैं मधु! रुपया-पैसा नौकर-चाकर, बस एक सेहत नहीं दी| मेरा ब्लड प्रेशर काबू में नहीं रहता, जब मर्जी शूट हो जाता है, ऊपर से शुगर की बिमारी...कभी-कभी तो डिप्रेशन में चली जाती हूँ| 

यहाँ कथानायिका के दर्द का एहसास होता है कि भौतिक सुख होते हुए भी वह अपने-आप में स्वस्थ नहीं है का एहसास करवाती है | यह इस लघुकथा संग्रह की एक उत्कृष्ट रचनाओं में से एक है| 

‘आश्वस्ति’ एक मनोवैज्ञानिक लघुकथा है जिसमें पति-पत्नी के प्रगाढ़ प्रेम को न सिर्फ उजागर करता है अपितु उन माता-पिता के दर्द का भी एहसास करवाने में सफल होती है जिनके बच्चे अन्य प्रदेशों में खा-कमा रहे हैं और बुढ़ापे में उनको अकेला कर देती है | इस लघुकथा में यह दर्शाया गया है कि घर में सन्नाटे को तोड़ने हेतु कुछ न कुछ बोलना कितना आवश्यक होता है| यही इस लघुकथा का उद्देश्य है | 

‘आत्मसम्मान’ लघुकथा में यह दर्शाया गया है  कि काम करने वाली बाइयों में भी अपने आत्मसम्मान होता है जिसका हनन होता देख वह अपनी मालकीन के आगे आक्रोश से विद्रोह दर्ज करवाती हुई नज़र आती है| यह एक अच्छी लघुकथा है | जो यह सन्देश संप्रेषित करती है कि आत्मसम्मान के लिए लड़ना प्रत्येक व्यक्ति का अधिकार होता है फिर भले ही वह एक ऐसी स्त्री हो जो घरों में काम करने वाली बाई ही क्यों न हो| 

‘गाली’ लघुकथा में किन्नर समाज द्वारा नारी के सम्मान के लिए आवाज़ उठाई गयी है और घर में बेटी के जन्म पर उदासीन होने वालों को इस बात का एहसास करवाती हुई प्रतीत होती है कि बेटा और बेटी समान होते हैं| यह किन्नर समाज के उदार ह्रदय की सोच को उजागर करती एक अच्छी लघुकथा है| 

इस संग्रह में कुछ ऐसी लघुकथाएँ भी हैं जिसमें लेखिका ने समाज को किस तरह से होना चाहिए यानी की आदर्श समाज को चित्रांकित करने का प्रयास किया है | ऐसी लघुकथाएँ उत्तम कहलाती है जब लेखक अपने लघुकथाओं के माध्यम से पाठकों के ह्रदय में आदर्श स्थापित करवाने में मददगार होती हैं| डॉ.शील कौशिक ने इस तरह की लघुकथाओं को लिखकर न सिर्फ अपना लेखकीय कौशल को दर्शाया है अपितु आपने एक लेखक होने का धर्म भी निभाया है| ‘ज़िद अच्छी है’ लघुकथा इसमें से एक है जिसमें श्राद्ध पक्ष में नए भवन की शुरुआत करने की घटना को दर्शाया गया है | इस लघुकथा के माध्यम से लेखिका ने यह दर्शाने का प्रयत्न किया है कि श्राद्ध पक्ष में बीती-पीढ़ी को गौरव देने व पुनः स्मरण करने के दिन होते हैं तो ये अशुभ कैसे हो सकते है? और बड़े हमारा अहित कैसे होने दे सकते हैं? वे तो आशीर्वाद ही देंगे, हमारी ख़ुशी में खुश होंगे...|” और इस हेतु कथानायक जिद करता है और ठेकेदार से कहता है, “सोच लो भाई! तुम्हारी मर्जी है! अगर तुम काम शुरू करना नहीं चाहते, तो मैं किसी और से बात करूँ...|”  इस ज़िद के आगे ठेकेदार झूक जाता है और कहता है, “यह ज़िद अच्छी है बाबूजी! काश ऐसी ज़िद...”

‘श्राध्दो में अपने साथ-साथ कई मजदूरों की रोज़ी-रोटी सुनिश्चित देख ठेकेदार विनम्रता से हाथ जोड़ देता है|’ इस अन्तिम वाक्य में लघुकथा का मर्म छिपा है जिस कारण यह लघुकथा अच्छी बन पड़ी है| 

‘कमजोर कलाई’, ‘बहन की शादी’ जैसी लघुकथाओं को लिखकर लेखिका ने यह साबित कर दिया है कि वह ऐसी युवा पीढ़ी के लिए भी चिंतित हैं जो ड्रग्स लेते हैं और इसके चलते वह गुमराह हो जाते हैं परन्तु उनको राह पर लाने हेतु परिवार का साथ होना अति आवश्यक होता है और अगर उनको सच्चे हृदय से उनकी जिम्मेदारियों का एहसास करवाया जाए तो वह सही राह पर आ सकते हैं| ऐसी सम्भावना को जगाना भी लेखिका के समाज के प्रति अपनी चिंता जताने का एक सफल प्रयास है जो न सिर्फ इस तरह की गंभीर समस्या को उजागर करती हैं अपितु इस समस्या से निकलने हेतु मार्ग भी दिखा रही हैं| 

प्रस्तुत संग्रह में लेखिका ने हर उम्र के लोगों पर कलम चलाई है जिसमें बच्चे भी शामिल हैं| बाल-मन पर आधारित लघुकथाओ में ‘खोते जा रहे पल’ जैसी सुन्दर और बाल मनोविज्ञान पर आधारित के बेहतरीन प्रस्तुति है जिसमें एक नौ वर्षीय बच्ची स्वरा के जन्मदिन के लिए वह स्वयं ही पड़ोस की सहेलियों के साथ तैयारियों में जुट जाती है और अपने कमरे को सुन्दर ढंग से सजा लेती है| उसकी मम्मी ने खूब सारा खाने का सामान जैसे पिज़्ज़ा, चाउमिन, चॉकलेट, तरह-तरह के चिप्स के पैकेट्स और जूस आदि बाज़ार से मँगवा देती हैं | वह अपनी बेटी की पसंद-नापसंद को नज़रंदाज़ कर मोबाइल में व्यस्त हो जाती हैं और उसको यह बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा था कि स्वरा उसको बार-बार सबके बीच लेकर आ रही थी| 

शाम होते-होते स्वरा उपहारों को खोलकर बैठ जाती है और देखती है कि उसकी मम्मी मोबाइल में फेसबुक पर जन्मदिन की चुन-चुनकर फ़ोटोज़ पोस्ट करने में व्यस्त हैं और जब वह पापा को अपने उपहार दिखाने का प्रयास करती है तब वह यह कहकर टाल देते हैं, “बेटा! मुझे सुबह ऑफिस के काम से जल्दी चंडीगढ़ जाना है|” 

स्वरा उदास हो जाती है और कुछ देर बाद उपहारों के बीच बैठे-बैठे ही सो जाती है| 

अपने ही मम्मी-पापा से उपेक्षित हो एक बच्चे की क्या मनोदशा हो जाती है का बहुत ही सुन्दर चित्रांकन इस लघुकथा के माध्यम से किया गया है| 

प्रस्तुत लघुकथा-संग्रह में लेखिका ने विभिन्न विषयों पर कलम चलाई है| एक से बढ़कर एक लघुकथाएँ प्रस्तुत की गयी हैं जो ज़मीन से जुडी हुई प्रत्यक्ष होती हैं| पात्रों का चयन, भाषा-शैली भी कथानक के अनुरूप है| कुल मिलाकार इस लघुकथा संग्रह को पढने के उपरान्त मैं इस निष्कर्ष पर पहुँची हूँ कि यह संग्रह पाठकों के ह्रदय में अपना स्थान बनाने में सफल होगा | मैं लेखिका को इस बेहतरीन लघुकथा संग्रह हेतु बधाई प्रेषित करती हूँ और भविष्य में भी आपकी लेखनी को पाठकों के मध्य पहुँचाने हेतु शुभकामनाएँ प्रेषित करती हूँ|

- कल्पना भट्ट


सोमवार, 7 फ़रवरी 2022

सकारात्मकता का सुदर्शी सन्देश देती लघुकथाएँ | कल्पना भट्ट

पड़ाव और पड़ताल खंड ३० | ६६ लघुकथाकारों की ६६ लघुकथाएँ और उनकी पड़ताल   

- कल्पना भट्ट



वर्तमान में लघुकथा ने जो हिन्दी-साहित्य-जगत् में जो स्थान पाया है, उसमें बहुतेरे लघुकथाकारों का योगदान रहा है, फिर वो चाहे वरिष्ठ हों या कनिष्ठ या फिर मेरे समकालीन ही क्यों न हों | अतीव हर्ष के साथ मैं यह कहना चाहती हूँ कि ‘पड़ाव और पड़ताल खण्ड ३०’ में ६६ लघुकथाकारों की ६६ लघुकथाएँ प्रकाशित हुई हैं| प्रस्तुत संकलन में जहाँ डॉ.सतीश दुबे डॉ.सतीशराज पुष्करणा, मधुदीप, डॉ.कमल चोपड़ा, मधुकान्त, बलराम अग्रवाल, सुभाष नीरव, माधव नागदा, कुमार नरेन्द्र, कृष्ण मनु, योगराज प्रभाकर, प्रो.बी.एल.आच्छा, डॉ.रामकुमार घोटड़, मुकेश शर्मा, विभा रश्मि, रामकुमार आत्रेय, हरनाम शर्मा, अशोक वर्मा, जैसे वरिष्ठ लघुकथाकारों की रचनाएँ प्रकाशित हैं जो इन्होने सन् २०११ के उपरांत लिखी हैं, और शेष सभी ४९ लघुकथाकार ऐसे हैं जिन्होंने सन् २०११ से इस विधा में पदार्पण किया है |


 इन ६६ लघुकथाओं के अध्ययनोप्रांत इनको चार भागों में विभक्त किया जा सकता है :

१.     पारिवारिक लघुकथाएँ

२.     सामाजिक लघुकथाएँ

३.     वैचारिक लघुकथाएँ

४.     अन्यान्य लघुकथाएँ

१.     पारिवारिक लघुकथाएँ : पारिवारिक लघुकथाओं से मेरा तात्पर्य यह है कि ऐसी लघुकथाएँ जिनके कथानक परिवार के इर्द-गिर्द घूम रहे हैं, उनको मैंने इस श्रेणी में रखा है | ऐसी लघुकथाओं में ‘दहशत’ ‘प्यार’, ‘अपनी-अपनी दुआ’, ‘प्रेम’, ‘झोंपड़ी का दरवाजा’, ‘खबर’, ‘आलू-टमाटर की सब्जी’ ‘सेहरा’, ‘पिछले पहर का दर्द’, ‘मुस्कुराहटवाली चादर’, ‘आ चल ना’, ‘लाइक एण्ड कमेन्ट्स’, ‘कुछ अनकहा’ , ‘डर’, ‘दो कोणोंवाला त्रिभुज’, ‘नई माँ’, ‘विछोह’, ‘रुक सत्तो’, ‘पापा’, ‘अधूरा-सा’, ‘खुलती गिरहें’, ‘दाद’ और ‘वह जो नहीं कहा’ का शुमार किया है | ‘अनिता ललित ’ की लघुकथा ‘दहशत’ वर्तमान शिक्षा-प्रणाली एवं परिणाम-उन्मुख की समस्या पर आधारित एक सुन्दर लघुकथा है| वर्तमान समय में हर माता-पिता अपने बच्चे से नब्बे प्रतिशत के ऊपर अंक लाने हेतु अपेक्षा करते हैं, और युवा विद्यार्थी भी बेहतर से बेहतर अंक लाने हेतु प्रयासरत्त रहते हैं, परन्तु वांछित परिणाम न मिल पाने के कारण  जहाँ अभिभावक अपने बच्चों को डाँट-फटकार देते हैं, वहीँ वर्तमान की संवेदनशील युवा-पीढ़ी आत्महत्या जैसे कुकृत्य कर अपनी इहलीला समाप्त कर लेती है | वहीँ अगर बच्चे समझदार हों, जैसे इस लघुकथा में कथा-नायक का बेटा रिंकू, तो यह पूरे परिवार के लिए एक सुखद अनुभूति होती है | ऐसा ही सकारात्मक अंत देकर इस लघुकथा के उद्देश्य को सार्थक करने का लेखक ने सद्प्रयास किया है | बच्चों के गलत कदम उठाने के डर से दहशत में आ-जाते माता-पिता को अगर उनके बच्चों से ऐसा संतोषजनक उत्तर मिल जाता है जैसा कि इस लघुकथा के कथा-नायक रवि के बेटे रिंकू ने दिया, “बुरा? किस बात का बुरा?” हैरानी से रिंकू ने पापा की तरफ देखते हुए पूछा जो नज़रें चुरा रहे थे| उसने उनकी डरी-सहमी आँखों में झाँका और आगे बढ़कर उनके गले लगकर बोला, “आय एम सॉरी पापा! आपका बेटा हूँ, कुछ गलत नहीं करूँगा| मुझ पर भरोसा कीजिये |” ऐसा संतोषजनक उत्तर मिलने पर प्रत्येक अभिभावक की यही प्रतिक्रिया होगी जैसा कि रवि की हुई, ‘अब रवि ने अपनी डबडबाई आँखों को रिंकू से छिपाने की कोशिश नहीं की और उसे अपनी बाँहों में कस लिया|’ यह एक सुन्दर मनोवैज्ञानिक लघुकथा सिद्ध होती है, जिसमें समस्या के साथ-साथ समाधान देने का दायित्व भी लेखक ने अपनाया है जो प्रशंसनीय है| इस लघुकथा का कथानक, भाषा-शैली एवं शीर्षक उत्कृष्ट हैं| ‘अनुराग शर्मा’ की लघुकथा ‘प्यार’ एक भावपूर्ण लघुकथा है जिसमें पत्नी के गैर-मर्दों के साथ हँस-हँस के बात करने वाली पत्नी और अपने ही पति,  यानी कि कथा-नायक हरिया की उपेक्षा करने वाली पत्नी से भी हरिया के निश्छल प्रेम को देखा जा सकता है| इस लघुकथा की भाषा-शैली स्वाभाविक है जिससे यह लघुकथा पाठक के ह्रदय को स्पर्श कर जाती है| ‘अरुणकुमार गुप्ता’ की लघुकथा पति-पत्नी के आपस में परस्पर प्रेम और समर्पण की भावनाओं को दर्शाती एक सुन्दर लघुकथा है| ‘अशोक यादव’ की लघुकथा ‘प्रेम’ एक ऐसे विदुर वृद्ध को केंद्र में रखकर लिखी गयी है, जो अपने बेटे-बहू के होते हुए भी खुद को अकेला महसूस करता  है | उसकी मन:स्थिति को उसकी बहू समझ जाती है और वह अपने स्वसुर से कहती है, “बाबूजी ! जो घटना था, वह घट गया| माँ वापिस नहीं आने वाली, अपना ख्याल रखो|” तो बाबूजी फूट-फूटकर रोने लगते हैं| “बेटा ! तुम्हारे लिए वह एक घटना थी, मगर मैंने तो अपना साथी खो दिया है| मुझे तो घर की साँकल,कमरे की इस खूँटी, मेरे कुर्ते के बटन और सभी चीजों में वह दिखाई देती है| मैंने अपना ख्याल रखा ही कब, मेरा ख्याल भी तो वह ही रखती थी |” यह संवाद हाल ही में दिवंगत हुई पत्नी के पति के भावनात्मक पहलु को उजागर तो करता है, परन्तु इस दु:खद स्थिति में कोई व्यक्ति इतना सहज होकर इतना कुछ एक साथ ही बोल जाए, अस्वाभाविक-सा प्रतीत होता है | परन्तु इसके भावनातमक अंत, ‘बाबूजी फिर अपनी कुर्सी झुलाने लगते हैं और शारदा(उनकी बहू) उस प्रेम को समझने में लग जाती है जो उसे विगत पच्चीस सालों में दिखाई ही नहीं दिया|’ यह समापन वाक्य लघुकथा को प्रभावशाली बना देता है| ‘आशा शर्मा’ की लघुकथा ‘झोंपड़ी का दरवाज़ा’, इस शीर्षक से ही लघुकथा के परिवेश का अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस लघुकथा का परिवेश झुग्गी-झोंपड़ी से होगा और है भी | झुग्गी-बस्ती में रहने वालों का सुन्दर चित्रण किया गया है, कि कैसे पत्नी अपने शराबी पति से परेशान तो होती है क्योंकि शराब के नशे में पति गाली-गलोज एवं मारपीट करता है, परन्तु पत्नी सब कुछ सहने को तैयार हो जाती है, पति को अगर कुछ हो जाए तो वह उसको बचाने का प्रयास करती है| इस लघुकथा में कथा-नायिका का पति भी इसी श्रेणी का है जो एक शराबी व्यक्ति है, और पत्नी को मारता-पीटता रहता है| कथा-नायिका उससे परेशान तो है, परन्तु वह उसे त्यागने की बजाय, यह सोचती है कि मेरा पति मेरी झोंपड़ी का दरवाज़ा है अन्यथा बिना दरवाज़े के कोई भी घर एक आम रास्ता बन जाता है|  झुग्गी-बस्ती में रहने वाली महिलाओं की पीड़ा और असुरक्षा की भावनाओं का बहुत ही सुन्दर चित्रण किया गया है| ‘कनक हरलालका’ की लघुकथा ‘खबर’, एक फौजी, जिसको  छुट्टियाँ नहीं मिल पातीं, उसके इंतज़ार में पत्नी की मानसिक पीड़ा को बहुत ही करीने से चित्रित किया गया है| यह एक मनोवैज्ञानिक लघुकथा है| इसके शीर्षक पर लेखिका को पुनः विचार करना चाहिए|

‘कल्पना मिश्र’ की लघुकथा ‘आलू-टमाटर की सब्जी’ बेटे-बहू से उपेक्षित एक पिता की दुर्दशा और उनकी विवशता को उजागर करती सुन्दर लघुकथा है| वह अपने ही घर में भूख से तड़पते हुए मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, उसके कुछ समय पहले ही वह अपनी बेटी से आलू-टमाटर की सब्जी खाने की इच्छा व्यक्त करता है पर उसको खाने से पूर्व ही उसकी मृत्यु हो जाती है| बाबूजी की तेरहवीं के दिन तरह-तरह के पकवान देखकर बेटी की आँखों से आँसू बह निकलते हैं | कानों में बाबूजी के आखिरी शब्द गूँज रहे थे...’आलू-टमाटर की सब्जी, रोटी...|’ इस हृदयस्पर्शी अंत ने इस लघुकथा को उत्कृष्ट बना दिया है| इसका शीर्षक कथानक के अनुरूप है |‘कृष्णचन्द्र महादेविया’ की लघुकथा ‘पिछले पहर का दर्द’ बुजुर्गों की पीड़ा को दर्शाती एक श्रेष्ठ लघुकथा है| इसमें माता-पिता एक-एक महीने की बारी में अपने तीन बेटों के बीच बाँट दिए गए हैं| ३० दिन तो उनको भोजन मिल जाता है परन्तु ३१ वें दिन उनको भूखा रहना पड़ता है| क्या यह विश्वसनीय है? किन्तु इसका भावनात्मक शीर्षक लघुकथा के अनुरूप है| ‘नीता सैनी’ की लघुकथा ‘मुस्कुराहटवाली चादर’ दो सहेलियों के मध्य का वार्त्तालाप है जिसमें कथा-नायिका रानो के पति की मृत्यु के पश्चात उसका पुनर्विवाह हो जाता है, उससे मिलने उसकी सहेली जब आती है तब वह उसकी कुशल-क्षेम जानने की इच्छा जताती है और रानो यह तो कहती है कि , उसका दूसरा पति उसको बहुत प्यार करता है अतः  उसके समक्ष उसको खुश होने का अभिनय करना पड़ता है, ताकि वो उदास न हो जाएँ|  रोते-रोते वह कहती है, “ वो(पूर्व पति) तो एक ही बार मरा लेकिन मैं तो रोज ही मरती हूँ| तिस पर कुछ लोग पीछे खुसर-फुसर करते हैं कि इसका क्या गया, इसको तो नया खसम मिल गया |” यह एक मर्मस्पर्शी लघुकथा है जिसमें समाज के संकीर्ण सोच को करीने से उकेरा गया है | इसका शीर्षक भी सटीक है जो लघुकथा को उत्कृष्टता प्रदान करता है | ‘नीलिमा शर्मा निविया’ की लघुकथा ‘आ चल ना’ में बढ़ती-उम्र के बावजूद पति-पत्नी के परस्पर प्रेम में कहीं कमी नहीं आती है | इस विषय को लेखिका ने बहुत सुन्दर ढंग से सुशिल्पित करते हुए उसे प्रत्येक दृष्टि से श्रेष्ठ बनाने हेतु सफल प्रयास किया है | ‘प्रदीपकुमार शर्मा’ की लघुकथा ‘लाइक एण्ड कमेण्ट्स’ में वर्तमान में बढ़ रही संवेदनहीनता का सुन्दर चित्रण किया गया है| मोबाइल संस्कृति ने अधिकांश परिवारों  में अपना जाल फैला रखा है एवं उन्हें अपना गुलाम बना रखा है| साथ ही सोशल साइट्स पर स्टेट्स अपडेट करना मानो फेशन- सा बन गया है| फिर चाहे अपने पिता की मौत ही क्यों न हो, और चिता ही क्यों न जल रही हो| इस बात की पुष्टि इन पंक्तियों से मिल जाती है, “उधर पिता की चिता जल रही थी, इधर शंकरलाल संतुष्ट हो गया था क्योंकि घंटेभर में ही नौ सौ लाइक्स और पाँच सौ कमेंट्स आ चुके थे|” विषय सुन्दर होने के बावजूद सटीक शिल्प न मिलने के कारण यह लघुकथा वांछित प्रभाव नहीं छोड़ पायी | ‘महिमा वर्मा’ की लघुकथा ‘कुछ अनकहा’ में उन पति-पत्नी के लिए सन्देश है जो तलाक तक पहुँच जाते हैं, जिसका मुख्य कारण एक-दूसरे की नापसंद को न जानना होता है| पति-पत्नी के बीच उत्पन्न होती तनावपूर्ण स्थितियों का समाधान प्रदान करती और अपने सटीक शिल्प के कारण यह एक बेहतरीन लघुकथा बन गयी है| ‘महेश शर्मा’ की लघुकथा ‘डर’ में बुज़ुर्ग दंपत्ति को अपने  भीतर बाल-बच्चों से अवहेलना का डर सताता है| इस अवहेलना से बचने हेतु बुज़ुर्ग महिला अपने पति को ही टोकती रहती है | घर के बुजुर्गों को अपने ही घर में मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना से गुज़रना पड़ रहा है| पाश्चात्य  संस्कृति का प्रभाव कहें या संयुक्त परिवारों का विलोप होना, इसका प्रमुख कारण है, और वर्तमान में आपाधापी की जीवन-शैली इसका एक अन्यन्य कारण है| जो भी हो... ऐसे में उनका इस प्रकार  का डर स्वाभाविक ही है अतः उससे बचने हेतु  इस लघुकथा की नायिका जिस प्रकार से अपने पति को बात-बात पर  टोकती है कि कहीं उनका बेटा-बहू उसके पति को न टोक दें जिसे वह सह न पाएगी | इस लघुकथा का उद्देश्य पाठक को विचार-विमर्श हेतु प्रेरित करता  है | ‘रामकुमार आत्रेय’ की लघुकथा ‘दो कोणोंवाला त्रिभुज’ पारिवारिक सास-बहू के मध्य कलह पर आधारित है जिसमें माँ का बेटा, और पत्नी का पति इन दोनों के मध्य सुलह करवाने की बजाय वहाँ से पलायन कर जाता है और त्रिभुज का तीसरा कोण शेष दो कोणों को जोड़कर रख पाने में असफल हो जाता है| इसका प्रतीकात्मक एवं कलात्मक शीर्षक प्रभावशाली एवं लघुकथा की भाषा-शैली स्वाभाविक है| ‘विभा रश्मि’ की लघुकथा ‘नई माँ’ सौतेली माँ की छवि को बदलने हेतु एक बेहतरीन प्रयास है, जिसमें सौतेली माँ का सकारात्मक चित्रण किया गया है, यह अलग बात है कि समाज में इसकी सम्भावना कितनी हो सकती है!  यह बताने का सद्प्रयास किया गया है कि माँ तो सिर्फ माँ होती है| इस लघुकथा पर अभी और कार्य वांछित था मुझे ऐसा लगता है | ‘शशि बंसल’ की लघुकथा ‘विछोह’ एक मनोवैज्ञानिक लघुकथा है जिसमें एक माँ अपने  बेटे के घर से बाहर जाने पर खीज जाती है, जो क्रोध नहीं अपितु अपने बच्चे से विछोह का दर्द खीज बनकर उत्पन्न होता है | न चाहते हुए भी वह चिढ़चिढ़ी हो जाती है जो उसके स्वाभाव में आ जाता है जिसका बड़े होने पर भी बेटे को तो कोई अन्तर नहीं पड़ता किन्तु हाल ही में आई हुई बहू उनके इस बर्ताव को समझ नहीं पाती | वह इसका कारण जानने हेतु अपने पति से पूछती है तो कथानायक बेटा शिव कहता है, “मतलब माँ बनोगी तब समझ जाओगी|” माँ के बहुत ही संवेदनशील और स्वाभाविक व्यवहार  का उत्कृष्ट और प्रभावशाली चित्रण इस लघुकथा के माध्यम से हुआ है जो प्रशंसनीय है |


‘शोभना श्याम’ की लघुकथा ‘रुक सत्तो!’ भी एक मनोवैज्ञानिक लघुकथा है | इस लघुकथा की कथा-नायिका अपनों से प्यार न मिल पाने के कारण अन्य  में अपनापन तलाशती है | कथा-नायिका के बच्चे छुट्टियों में उसके पास आने का वादा करते हैं परन्तु किसी कारणवश वे नहीं आ पाते | कथा-नायिका जो सामान उनके लिए लेकर आई थी, सब अपनी नौकरानी को दे देती है, और इस तरह वह अपनी नौकरानी में ही अपनेपन को तलाशती है | इस लघुकथा के संवाद, भाषा-शैली, कथानक एवं शीर्षक प्रभावशाली बन पड़े हैं जिससे यह लघुकथा उत्कृष्ट बन गयी है | ‘संजीव आहूजा’ की लघुकथा ‘पापा’...से अविश्वसनीय कथानक के कारण सहमती नहीं बन पा रही है| ‘सत्या शर्मा ‘कीर्ति’ की लघुकथा ‘अधूरा-सा’ भी एक मनोवैज्ञानिक लघुकथा है जिसमें कथानायिका अपने अकेलेपन से जूझ रही है| बच्चे विदेश जाकर बस गए हैं, और पति अक्सर टूर पर रहते हैं| जब बच्चे कहते थे उनके साथ चलने को तब कथानायिका को अपने ही घर में शांति से रहने की इच्छा होती थी, समय व्यतीत हो जाने के बाद जब वह घर पर बिलकुल अकेली  रहने हेतु पर विवश हो जाती है, तो उसको वही शांति अखरने लगती है| एक अकेली नारी के मनोभावों  का बेहतरीन विश्लेषण इस लघुकथा में दृष्टिगोचर हो रहा है | ‘सविता मिश्रा ‘अक्षजा’ की लघुकथा ‘खुलती गिरहें’ सास-बहू के मध्य की गिरहें खोलती हुई एक उत्कृष्ट लघुकथा है| इसके संवाद  स्वाभाविक और प्रभावशाली बन गए है, विषय पुराना होने के बावजूद इसका प्रस्तुतीकरण प्रभावशाली बन पड़ा है| इस सुशिल्पित लघुकथा शीर्षक भी कथानक के अनुरूप है | ‘सारिका भूषण’ की लघुकथा ‘दाद’ घर में सब कुछ होने के बावजूद अकेलेपन की जो पीड़ा है, अपनत्व के न होने की जो टीस है, इसी  पृष्ठभूमि पर लिखी गयी आत्मकथात्मक शैली में एक विवाहित बेटी ने अपनी माँ को पत्र में अपनी व्यथा को सटीक अभिव्यक्ति प्रदान की अपने सटीक शिल्प के कारण यह एक श्रेष्ठ लघुकथा बन गयी है | ‘स्नेह गोस्वामी’ की लघुकथा ‘वह जो नहीं कहा गया’ डायरी शिल्प में लिखी गयी एक सुन्दर लघुकथा है जिसमें कथानायिका का कोई नाम तो नहीं है, किन्तु एक पत्नी जो अपने पति से कुछ कह नहीं पाती वह अपने मन के उद्वेग को डायरी में लिखकर अभिव्यक्त कर रही है| इस लघुकथा में कालत्व दोष है | यह  वाक्य दृष्टव्य है : “तुमसे पूरी तरह न जुड़ पाने के बावजूद तुम्हारे बिना नींद नहीं आ रही है|” यह नायिका की प्रेमाभिव्यक्ति में विरोधाभास उत्पन्न कर रहा है , इस वाक्य को न भी लिखती तो कथानक में कोई अन्तर नहीं पड़ता, ऐसा मेरा मत है | परन्तु इसका विषयवस्तु और शिल्प सटीक हैं जो लघुकथा के मर्म तक पहुँचाने में पर्याप्त सहायक होते हैं |

२.     सामाजिक लघुकथाएँ : सामाजिक लघुकथाओं से मेरा तात्पर्य ऐसी लघुकथाओं से हैं जो सामाजिक सरोकार से सम्बंधित हैं , ऐसी लघुकथाओं को मैंने इस श्रेणी में रखा है जो इस प्रकार हैं :- ‘लकीरें’, ‘न्योछावर’, ‘मंडी में रामदीन’, ‘उसका ज़िक्र क्यों नहीं करते’, ‘सामना’, ‘नीरव प्रतिध्वनि’, ‘सिन्दूर का सामर्थ्य’, ‘जादू’, ‘सहमा हुआ सच’, ‘रेनकोट’, ‘आधे घन्टे की कीमत’, ‘संगमरमरी आतिथ्य’, ‘बड़े सपने’, ‘नमिता सिंह’, ‘कुणसी जात बताऊँ’, ‘बछडू’, ‘दोजख की आग’, ‘मर्दगाथा’, ‘ऑटोमैन के आँसू’, ‘देवदूत’, ‘माँ और बेटा’, ‘खेल’, ‘डंकवाली मधुमक्खी’, ‘सीढ़ियाँ’, ‘तृप्ति’, ‘मन का उजाला’, ‘बाँध’ और ‘दर्द’ ये लघुकथाएँ इस श्रेणी में रखी गयी हैं |  उषा अग्रवाल ‘पारस’ की लघुकथा ‘लकीरें’ से कथानक की अस्वाभाविकता के कारण सहमति नहीं बन पा रही है | कपिल शास्त्री की लघुकथा ‘न्योछावर’ से भी अस्वाभाविकता का शिकार होने के कारण सहमति नहीं बन पा रही है |  डॉ.कमल चोपड़ा की लघुकथा ‘मण्डी में रामदीन’ एक श्रेष्ठतम लघुकथा है, जिसमें व्यापारियों द्वारा किसानों के हो रहे शोषण का अत्यंत स्वाभाविक एवं सटीक चित्रांकन किया गया है| इस लघुकथा में नायक जब मण्ड़ी में अपना सामान बेचने जाता है, वहाँ उसे बहुत ही कम दाम पर सामान बेचने हेतु विवश कर दिया जाता है, अंततः वह स्वयं को लुटा हुआ महसूस करता  हैं| और इतना ही नहीं, उसपर अवांछित खर्च भी लाद दिया जाता है, और उसके खाली हाथ किसी तरह घर लौटने हेतु विवश कर दिया जाता है|  इस लघुकथा के संवाद सटीक एवं पात्रों के चरित्रानुकूल है, जिससे मण्डी का सजीव चित्रण उभर कर आया है| कुणाल शर्मा की लघुकथा ‘उसका जिक्र क्यों नहीं करते’ संवाद शिल्प में लिखी हुई एक अत्युत्तम लघुकथा है जिसका विषय उन नवयुवकों और नवयुवतिओं पर आधारित है जो घर से भाग जाते हैं और लोगों की चर्चा का विषय बन जाते हैं जैसा कि इस लघुकथा के चार लोगों के बीच वार्त्तालाप  के द्वारा चित्रित किया गया है| ऐसे में अधिकांश लोग लड़की को ही दोषी मानते हैं| इस लघुकथा के अंत में चौथा व्यक्ति कहता है, “तो भाई, लड़के के बारे में भी कुछ बोलो, उसका जिक्र क्यों नहीं करते...?” इसका शीर्षक अपेक्षाकृत बड़ा तो है पर सटीक है | कृष्ण मनु की लघुकथा ‘सामना’ नारीसशक्तीकरण को बल देती लघुकथा है| इस लघुकथा की  विषयवस्तु और भाषा-शैली सर्वथा लघुकथा के विषयानुकूल है | चंद्रेशकुमार छतलानी की लघुकथा ‘नीरव प्रतिध्वनि’ अपने प्रतीकात्मक शिल्प एवं सटीक भाषा-शैली के कारण उत्कृष्टता के शिखर पर पहुँच जाती है | इस लघुकथा का परिवेश सर्कस है जिसमें एक जोकर और एक निशानेबाज का खेल चल रहा है, और जोकर उस निशानेबाज से कहता है कि वह उससे भी बड़ा निशानेबाज है | निशानेबाज के पूछने पर जोकर अपनी कमीज के अन्दर हाथ डालकर एक छोटी थाली निकाल लेता है, इसपर निशानेबाज हँस देता है, लेकिन जोकर उस थाली को दर्शकों को दिखाकर कहता है, “मेरा निशाना देखना चाहते हो...देखो...” कहकर वह उस थाली को ऊपर हवा में उछाल देता है और बहुत फुर्ती से अपनी जेब से एक रिवॉल्वर निकालकर उड़ती थाली पर निशाना लगा देता है | यहाँ थाली उसके भूखे बच्चों के पेट का प्रतीक प्रतीत हो रही है | इस लघुकथा के प्रतीकात्मक शीर्षक ने  इस लघुकथा को अपेक्षाकृत और अधिक श्रेष्ठ बनाया है | चित्तरंजन गोप की लघुकथा  ‘सिन्दूर का सामर्थ्य’ लघुकथा के अविश्वसनीय कथानक के कारण से सहमति नहीं बन पा रही है | जयेन्द्र वर्मा की लघुकथा ‘जादू’ भी अविश्वसनीयता के कारण से सहमति नहीं हो पा रही है एवं संवादों की वजह से, एक बच्चे के मुख से बड़ी-बड़ी बातें कहलवाई गयी हैं जो पूर्णतः अस्वाभाविक है|  जानकी बिष्ट वाही की लघुकथा ‘सहमा हुआ सच’ अपने सटीक शिल्प के कारण श्रेष्ठता की शिखर पर पहुँची है| दीपक मशाल की लघुकथा ‘रेनकोट’ के माध्यम से जो सन्देश प्रेषित हुआ है कि समयानुसार व्यक्ति को स्वयं को बदलना चाहिए, तात्पर्य यह है, कि अपनी पसंद-नापसंद को स्वयं पर हावी नहीं होने देना चाहिए| इस लघुकथा का शिल्प, कथावस्तु, भाषा-शैली, बनावट एवं बुनावट एवं इसका शीर्षक सभी श्रेष्ठ हैं| बलराम अग्रवाल की लघुकथा ‘आधे घण्टे की कीमत’ एक मनोवैज्ञानिक लघुकथा है| इस लघुकथा का कथानायक इसलिए आत्महत्या कर लेता है कि उसकी बातों को कोई सुनने को तैयार नहीं होता| वह अपने  स्यूसायिड नोट में लिखता है, “सुनने की अपनों को भी फुर्सत नहीं | जीना बेकार है|” तात्पर्य यह है कि कुछ लोग अत्यंत भावुक एवं संवेदनशील होते हैं और  ऐसे लोग अपने दिल की बात अपनों से कहने हेतु लालायित होते हैं, ऐसे में यदि उनकी बातें न सुने तो वे आहत हो जाते हैं और आत्महत्या जैसा घृणित कु-कृत्य कर बैठते हैं| इस लघुकथा का शिल्प, कथावस्तु, शीर्षक, संवाद, भाषा-शैली एवं उद्देश्य सार्थक है और लेखक के प्रस्तुतीकरण में इनका लेखकीय-कौशल दृष्टिगोचर होता है| बी.एल.आच्छा की लघुकथा ‘संगमरमरी आतिथ्य’ दो मित्रों के मध्य का वार्त्तालाप है जिसमे एक मित्र अपने घर की और स्वयं की शेखी बखानता है परन्तु घर आने वाले मेहमान को चाय तक नहीं पिलाता है| बड़े घर को खरीदने से कोई बड़ा व्यक्ति नहीं बन जाता जब तक उसमें आतिथ्य-संस्कार न हों| अपने को शो-ऑफ करने से कुछ भी हासिल नहीं होता | इस लघुकथा का कथानक, शिल्प, भाषा-शैली, उद्देश्य एवं शीर्षक  सटीक हैं, अतः यह लघुकथा श्रेष्ठता के पायदान पर खरी उतर रही है| मधुकांत की लघुकथा ‘बड़े सपने’ में यह बताने का सफल प्रयास किया है कि दृढ़ संकल्प और परिश्रम से बड़े से बड़ा सपना भी साकार हो सकता है | इसी उद्देश्य को दर्शाती यह एक उत्कृष्ट  लघुकथा है |सटीक भाषा-शैली, पात्रों के चरित्रानुकूल कथोपकथन एवं शीर्षक इस लघुकथा के अनुरूप हैं | मधुदीप की लघुकथा ‘नमिता सिंह’ एक प्रयोगवादी लघुकथा है, जिसमें नारीसशक्तीकरण को बल दिया गया है| नमिता सिंह जो कि कथा-नायिका है, एक सशक्त नारी है, जो प्रत्येक संघर्ष में स्वयं को सिद्ध करती हुई आगे बढती है| एक सशक्त स्त्री का चित्रण इस लघुकथा में किया गया है| नमिता सिंह न सिर्फ बहादुर है, सजग है अपितु वह स्वाभिमानी और ज़िम्मेदार भी है| नमिता सिंह को देखने जब लड़के वाले आते हैं तब वह कहती है, “आप और मैं दोनों ही अपने माता-पिता के प्रति अपना दायित्व पूरा करेंगे | मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं है | हाँ, मैं इतना अवश्य चाहूँगी कि आप मुझे भी मेरे माता-पिता का दायित्व निर्वाह  करने की स्वीकृति देंगे|” नमिता सिंह के कहने के साथ ही अब वे निगाहें बाहर जाने के दरवाजे पर अटक गयी | इस तरह से प्रयोग करके मधुदीप ने अपने श्रेष्ठ लेखकीय-कौशल का परिचय दिया है, जो प्रत्येक दृष्टि से  प्रशंसनीय है | माधव नागदा की लघुकथा ‘कुणसी जात बताऊँ’ एक पुराने कथानक पर नया प्रस्तुतीकरण है, जो इस लघुकथा को प्रभावशाली बना देता है| जात-पात पर लिखी गयी इस लघुकथा के संवाद पात्रानुसार है, जो प्रभावशाली बन पड़े हैं| इस लघुकथा में कथा-नायिका एक पनहारिन है| इस लघुकथा के माध्यम से लेखक यह सन्देश देना चाहता है  कि समाज में जात-पात को दरनिकार कर देना चाहिए व स्त्री की भी कोई जात नहीं होती है, वह भी एक मनुष्य है और उसको भी वही सब कुछ मिलना चाहिए जो समाज पुरुषों को देता है | प्रतीकात्मक शैली में लिखी मृणाल आशुतोष की लघुकथा ‘बछड़ू’ पाठकों पर अपनी अमिट छाप छोड़ती है| दहेज़ से खरीदे गए दूल्हे की स्थिति खरीदे गए बछड़े जैसी ही होती है, विषय पुराना होने के बावजूद इस लघुकथा का प्रस्तुतीकरण प्रभावशाली है| भाषा-शैली, कथानक, शीर्षक सभी कथानुरूप और सटीक हैं| राजेन्द्रकुमार गौड़ की लघुकथा ‘दोजख की आग’ उन गुमराह लोगों पर आधारित लघुकथा है जिनको बरगलाकर आतंकवादी बना दिया जाता है| यह एक ऐसी समस्या और ऐसा कलंक है जिसकी वजह से जाने कितने घर बर्बाद होते हैं| इस लघुकथा में जहाँ समस्या का चित्रण किया गया है, वहीँ समस्या के समाधान हेतु संकेत भी प्रत्यक्ष है| इसका कथानक और भाषा-शैली सटीक है | रामकुमार घोटड़ की लघुकथा ‘मर्दगाथा’ संवाद-शैली में लिखी गयी है | इस लघुकथा में पुरुषप्रधान समाज के उस चित्र को उभारने का प्रयास किया गया है जहाँ विवाहोपरांत एक पुरुष तो किसी विवाहित स्त्री से रिश्ता जोड़ सकता है परन्तु अपनी स्त्री को किसी परपुरुष के साथ नही देख सकता | इस लघुकथा का विषय पुराना है और यह लघुकथा वांछित प्रभाव छोड़ने में असमर्थ रही है |  रोहित शर्मा की लघुकथा ‘ऑटोमैन के आँसू’ में लेखक ने फंतासी का सहारा लिया है और एक संवेदनशील कम्पूटरायिज्ड व्यक्ति का निर्माण कर यह संप्रेषित करने का प्रयास किया गया है कि वर्तमान में मानव संवेदनहीन बनता जा रहा है| इस लघुकथा का विषय नया न होने के बावजूद अपने श्रेष्ठ प्रस्तुतीकरण के कारण यह लघुकथा ध्यान आकर्षित करती है |  |

लकी राजीव की लघुकथा ‘देवदूत’ एक सकारत्मक सन्देश देती हुई लघुकथा है जो लोग निराशा के काले बादलों में घिरे रहते हैं और आत्महत्या जैसा कु-कृत्य करने हेतु  मन बना लेते हैं ऐसे में यदि कोई  उनको आशा की एक किरण दिखा दे  कि दुनिया में अकेले वही नहीं जो दु:खी हैं अपितु और लोग भी  दुःख के पहाड़ के नीचे दबे हुए हैं तब उनको एहसास होता है कि उन्हें अपने जीवन में संघर्ष करना होगा, और सटीक रास्ते तलाशने होंगे | इसी पृष्ठभूमि पर आधारित इस लघुकथा की कथानायिका जो आत्महत्या करने वाली होती है कि उसी समय एक सेल्स वुमन उसके घर आती है और बातों ही बातों में वह अपना दुखड़ा सुनाती है, जिससे कथानायिका को एहसास हो जाता है कि आत्महत्या करना किसी भी समस्या का हल नहीं है और तब वह जीवन के सकारात्मक पहलु को देखती है | इस लघुकथा के माध्यम से जो सन्देश संप्रेषित हो रहा है वो समाजोत्थानिक है जो इस लघुकथा को साहित्यिकता प्रदान करता है |  

शील कौशिक की लघुकथा ‘खेल’ अंधविश्वास और रुढ़िवाद को दर्शाती एक श्रेष्ठ लघुकथा है | जिसमें पंडितजी अपनी बेटी को देवी रूप बनाकर निःसंतान दंपत्ति को आशीर्वाद दिलवाने का कार्य करते हैं, और उसके कोमल मन को अपनी इच्छाओं की बलि चढ़ा देते हैं | इसका शीर्षक कथानुरूप है, और भाषा-शैली भी सटीक है | शोभा रस्तोगी की लघुकथा ‘डंकवाली मधुमक्खी’ प्रतीकात्मक लघुकथा है, जिसमें एक माँ की चिंता और परेशानी को डंकवाली मधुमक्खी का प्रतीक बनाया गया है| जब नायिका की युवा बेटी देर से घर पहुँचती है, परन्तु जब तक वह घर नहीं आ जाती तब तक माँ के अन्तः संघर्ष को बहुत ही करीने से चित्रित किया गया है| यही इस लघुकथा की बड़ी विशेषता है जो इस लघुकथा को श्रेष्ठता की श्रेणी में ला खड़ा करती है | सविता इन्द्र गुप्ता की लघुकथा ‘सीढ़ियाँ’ एक ऐसी अति-महत्त्वाकांक्षी महिला पर आधारिक लघुकथा है जो लोगों को सीढ़ी बनाकर आगे बढ़ती है और बढ़ती ही जाती है और बीमार हो जाती है| वह डॉक्टर से कहती है वह उसे हर हाल में बचा ले, उसके पास धन-दौलत की कोई कमी नहीं | परन्तु वह स्वयं को मृत्यु के निकट पाती है | अपने सटीक प्रतिपादन के कारण यह लघुकथा श्रेष्ठ बन गयी है | सीमा जैन की लघुकथा ‘तृप्ति’ में अमीर घर की एक महिला की छोटी मानसिकता को आधार बनाकर लिखी हुई एक उत्कृष्ट लघुकथा है,   जिसमें कथानायिका मेमसाहब की बेटी उसके घर काम करने वाली बाई की बेटी के लिए कपड़े निकालकर देती है, परन्तु कथानायिका उनको एक बार देखने के बहाने सब कपड़े वापिस लेकर रख लेती है | कामवाली की आशाओं पर पानी फिर जाता है और वह दु:खी हो जाती है| परन्तु मेमसाहब की बेटी उसके दुःख को भाँप लेती है और उसको अपने जीन्स-टॉप देने को तैयार हो जाती है| कंजूस मेमसाहब की उदार बेटी की उदारता देखकर नौकरानी का मन तृप्त हो जाता है|इस लघुकथा की भाषा-शैली एवं शीर्षक आदि लघुकथा के अनुरूप हैं | सीमा सिंह की लघुकथा ‘मन का उजाला’ में कथानायक के स्वपन में ‘भुखमरी’ एवं ‘गरीबी’ स्त्री रूप में दो बहने आती हैं, उनको पूछने पर वे  कहती हैं, “हमने इस घर में निराशा और कायरता को आते देखा था...तो चुपके से हम भी घुस आये|” कथानायक की पत्नी के देहांत और व्यावसायिक पार्टनर के हाथों धोखा खाने के बाद वह निराशा की स्थिति में पहुँच जाता है | दोनों बहनों द्वारा उसके बच्चों को अपने साथ ले जाते हुए वह देखता है तो घबरा जाता है और जब उठता है तो भोर का उजाला परदे से छनकर कमरे में आता देख वह अपनी जेब में रातभर से रखी ज़हर की पुड़िया सिंक में बहा देता है| इस लघुकथा का विषय, भाषा-शैली, संवादों का प्रवाह एवं शीर्षक सब ही अनुकूल हैं | सुधीर द्विवेदी की लघुकथा ‘बाँध’ में दो पीढ़ियों के बीच सोच के फर्क को अग्रज पीढ़ी को एक बाँध का सहारा लेना चाहिए ताकि सोच के मध्य की खाई को भरा जा सके| इसी उद्देश्य से लिखी हुई यह लघुकथा अपनी सार्थकता सिद्ध करती  है| इस श्रेणी की  अन्तिम लघुकथा सुभाष नीरव की ‘दर्द’ है| प्रत्येक व्यक्ति का दर्द उम्र के साथ बढ़ता जाता है| इसी को दर्शाने हेतु लिखी गयी इस लघुकथा में कथानायक स्वयं को आईने में देखता है और उसको आभास होता है कि वर्तमान में वह उसका मजाक उड़ा रहा है| यहाँ आईना अपरोक्ष रूप से दर्शाया गया है| यह एक उत्कृष्ट लघुकथा है जिसमें व्यक्ति के भीतर के द्वन्द को आईने को  माध्यम बनाकर एक पात्र के रूप में प्रस्तुत किया गया है| लघुकथा का प्रतिपादन प्रशंसनीय है और शीर्षक भी सटीक है | 

३.     वैचारिक लघुकथाएँ : ऐसी लघुकथाएँ जिनके कथानक कुछ सोचने हेतु  विवश कर दें , ऐसी लघुकथाओं को मैंने इस श्रेणी के शामिल किया है | इनमें  ‘उसकी पींग’, ‘सिक्सटी प्लस’, ‘कठपुतली’, ‘लिहाज’ ‘प्रतिशोध’, ‘संवेदना’, ‘आईनेवाला डिसूजा’, ‘पड़ाव’, ‘रिश्तों की भाषा’, ‘शहर की रफ़्तार’, ‘मोक्ष-श्लोक’, ‘चिड़िया उड़’ और ‘गाय-माँ’ का शुमार किया है |  

  अशोक वर्मा की लघुकथा ‘उसकी पींग’ लघुकथा में कथानायक एक पार्क में अपने पोते को झूला झुलाता है, वहीँ एक गरीब बच्चा भी आता है और उसको झूले को पींग डालने को कहता है| परन्तु कथानायक उसकी गरीबी को देखते हुए उसकी बातों को अनसुनी कर देता है | गरीब बच्चा पुनः प्रयास करके झूले पर चढ़ जाता है और हवा से बातें करते हुए आनंदित हो उठता है| वह झूले पर से गिर न जाए अब यह चिंता उसको सताती है परन्तु वह चलते झूले से कूद कर मिट्टी में गिर जाता है और हँसते हुए वहाँ से चला जाता है| कथानायक को लगता है जैसे वह गरीब बच्चा उसकी अमीरी का उपहास करके चला गया है | इस कथानक के द्वारा लेखक अमीर लोगों की गरीबों के प्रति हीनभावना  पर विचारनीय प्रश्न खड़ा कर रहा है | उषा भदौरिया की लघुकथा ‘सिक्सटी प्लस’ का कथानक उन बुजुर्गों के इर्द-गिर्द घूम रहा है जो अपने परिवारवालों से उपेक्षित हो जाते हैं, ऐसे में इस कथा के बुज़ुर्ग अपना एक व्हाट्सअप ग्रुप बना लेते हैं और एक दूसरे की कुशल-क्षेम लेते रहते हैं और अगर कोई ग्रुप में नहीं आ पाता तो उसकी खोज-खबर लेने उसके घर पहुँच जाते हैं, और जरूरत पड़ने पर उसको अस्पताल पहुँचा देते हैं | ऐसा ही कुछ इस लघुकथा की कथानायिका के साथ हुआ जो एक बुज़ुर्ग  महिला है जिसका बेटा उसको देखने अस्पताल आता है, क्योंकि माँ को माइनर स्ट्रोक आता है, पूछताछ करने के बाद इस सिक्सटी प्लस व्हाट्सअप ग्रुप का पता चलता है, बेटा माँ से आधे घंटे की दूरी पर रहता है परन्तु बेटा व्यस्तता का बहाना बनाता है, “ पर माँ ने उसे कभी नहीं बताया |” कथानायिका के साथी उसको उसकी लापरवाही का आईना दिखाकर उसको आशीर्वाद देकर चले जाते हैं| यह एक सुलझी हुई, समाज को  आईना दिखानेवाली  एक सुन्दर लघुकथा है| स्वाभाविक भाषा-शैली, प्रवाहमयी संवादों से यह लघुकथा उत्कृष्टता के पायदान पर खड़ी मिलती है |

बड़ी विनम्रता से कहना चाहती हूँ कि अगली लघुकथा ‘कठपुतली’ इन पंक्तियों की लेखिका की है |  इस लघुकथा के विषय में मैं क्या कहूँ ? इस लघुकथा पर डॉ.ध्रुव कुमार ने इसके शीर्षक को प्रतीकात्मक कहा है जो अपनी सार्थकता को गहराई तक जाकर सिद्ध करता है | वह कहते हैं, “ यह लघुकथा शनैः –शनैः घनी एवं सुष्ठु बुनावट के साथ क्रमशः विकास पाती है और क्षिप्रता के साथ अपने गंतव्य पर पहुँचकर पाठकों को संवेदना से भर देती है|” रूप देवगुण के अनुसार– “यह लघुकथा उद्देश्यपूर्ण, रोचक तथा सार्थक है |”

कुमार गौरव की लघुकथा ‘लिहाज’ उन भटके हुवे युवा वर्ग पर आधारित लघुकथा है जो सिगरेट फूँकने में नहीं झिझकते परन्तु अपने बड़ों की मर्यादा रखते हैं और उनसे अपनी आदात को छिपाने का प्रयास करते हैं| यह दो पीढ़ियों की आपस की समझ-बूझ पर आधारित एक श्रेष्ठ लघुकथा है | दिव्या राकेश शर्मा की लघुकथा ‘प्रतिशोध’ के माध्यम से लेखिका ने यह सन्देश देने का सद्प्रयास किया है कि ‘प्रतिशोध’ लेना किसी भी समस्या का समाधान नहीं है| महाभारत के पात्र अश्वत्थामा को प्रतीक बनाकर अत्मत्काथात्मक शैली में लिखी गयी  एक श्रेष्ठ लघुकथा है| इसकी भाषा-शैली कथ्य के अनुरूप है | नंदकिशोर बर्वे की लघुकथा ‘संवेदना’  पुराणों के पात्रों के माध्यम से वर्तमान के संवेदनहीन सरकारी यंत्र को चित्रित करती एक अच्छी लघुकथा है | मुकेश शर्मा की लघुकथा ‘आइनेवाला डिसूजा’ , में आईने को बिम्ब बनाकर लेखक ने इस सत्यता को चित्रित करने का सद्प्रयास किया है कि, ‘सुख के सब साथी, दुःख में न कोय’ | इसका प्रस्तुतीकरण प्रशंसनीय है , लेखक को इसके शीर्षक पर पुनः विचार करना चाहिए ऐसा मेरा मत है | योगराज प्रभाकर की लघुकथा ‘पड़ाव’ पति-पत्नी के बीच सच्चे प्रेम को दर्शाती एक संवेदनशील लघुकथा है | इस लघुकथा का शिल्प तथा संवाद की भाषा-शैली ने इस लघुकथा के कथ्य को उत्कृष्टता प्रदान की है | इसका शीर्षक भी कथा के अनुरूप है | विरेन्दर ‘वीर’ मेहता की लघुकथा ‘रिश्तों की भाषा’ संवाद-शैली में लिखी गयी एक उत्कृष्ट लघुकथा है जिसमें लेखक यह बताना चाह रहा है कि दैहिक प्रेम क्षणिक होता है परन्तु आत्मिक प्रेम सच्चा होता है और सफल भी | इसका शीर्षक भी कथ्य के अनुरूप है | सतीशराज पुष्करणा की लघुकथा ‘शहर की रफ़्तार’ में लेखक ने यह चित्रित करने का सद्प्रयास किया है कि गाँव से जब कोई व्यक्ति पहली बार किसी शहर आता है तो यहाँ के कोलाहल में वह यहाँ आने का कारण तक  भूल जाता है, और संवेदनहीन लोगों के मध्य आकर अपने गाँव के लोगों के निश्छल प्रेम को कहीं खो देता है और इसी शहरी जीवन में प्रताड़ित हो जाता है| इस लघुकथा का कथ्य, भाषा-शैली सभी उत्तम हैं और शीर्षक भी कथा के अनुरूप है | सतीश दुबे की लघुकथा ‘मोक्ष-श्लोक’ आध्यात्मिक विषय पर लिखी गयी एक दुरूह रचना है जिसमें पति-पत्नी के मध्य शरीर और आत्मा को लेकर वार्त्तालाप हो रहा है कि इन्सान की मृत्यु के पश्चात् उसकी आत्मा भी संग जायेगी अगर पति-पत्नी के बीच आध्यातिक प्रेम हो तब| यह एक मिथ्या बात है| इस लघुकथा के कथ्य से पूर्ण रूप-से मेरी सहमति नहीं बन पा रही है| संध्या तिवारी की लघुकथा ‘चिड़िया उड़’ में लेखिका ने माँ के वात्सल्य भाव को चित्रित करने का सुन्दर सद्प्रयास किया है कि माँ की आँखों में प्यार की जितनी गहराई होती है वह अन्य कहीं नहीं मिल सकती | ‘चिड़िया उड़’ बच्चों के एक खेल को प्रतीक बनाकर लेखिका ने माँ के प्यार को सर्वाधिक  उत्कृष्ट बतलाया है जो लेखिका के लेखन-कौशल को प्रदर्शित कर रहा है | हरनाम शर्मा की लघुकथा ‘गाय-माँ’ के माध्यम से लेखक ने समाज के उस वर्ग पर करारा प्रहार किया है जो गाय को माँ तो कहता है परन्तु वह सिर्फ इसलिए कि गाय एक उपयोगी प्राणी है, वरना उसकी देखभाल करने में वह कतराता है |  इसका कथानक, भाषा-शैली लघुकथा के अनुरूप हैं और इस कथा को उत्कृष्टता प्रदान करने में सहायक बने हैं | इसका शीर्षक भी सटीक है|


४.     अन्यान्य लघुकथाएँ : अध्य्यनोपरांत इस पुस्तक में सम्मिलित सभी लघुकथाओं में दो लघुकथाएँ ऐसी लगीं जो  व्यंग्यात्मक एवं मनोवैज्ञानिक हैं| ऐसी लघुकथाओं को मैंने इस श्रेणी में लिया है| ‘भीड़तन्त्र’ और ‘दोजख की आग’ |

तेजवीर सिंह ‘तेज’ की लघुकथा ‘भीड़तन्त्र’ व्यंग्यात्मक लघुकथा है जिसमें सरकार और पुलिसिया विभाग की कार्यप्रणाली और उनकी पदवी का दुरूपयोग करने  वालों  पर करारा व्यंग्य किया गया है | इसका विषय नया नहीं है,  परन्तु संवाद कथानुरूप हैं और शीर्षक भी | राजेन्द्रकुमार गौड़ की लघुकथा ‘दोजख की आग’ आतंकवाद को आधार बनाकर लिखी हुई है, जिसमें  लोगों को भरमाकर आतंकवादी बना दिया जाता है और गुमराह कर दिया जाता है| पर जब उनकी आँख खुलती है तब तक बहुत देर हो जाती है |

अब मैं पड़ाव और पड़ताल खण्ड ३० में धरोहर स्तम्भ के अंतर्गत मलयालम भाषी हिन्दी लघुकथाकार एन. उन्नी की उन ग्यारह लघुकथाओं पर संक्षेप में चर्चा करना चाहूँगी | वे लघुकथाएँ क्रमशः इस प्रकार हैं- ‘कबूतरों से भी खतरा है’, ‘सर्कस’, ‘दूध का रंग’, ‘मरीज’, ‘तलाश’, ‘तबाही’, ‘वाह री दाढ़’, ‘सपनों में रावण’, ‘राम-राज्य’ और ‘पागल’|

एन. उन्नी की सभी लघुकथाओं को गहराई से अध्ययन करने के पश्चात् जहाँ तक मैं समझ पायी हूँ, ये सभी लघुकथाएँ वैचारिक हैं  जो पठनोप्रांत चिंतन-मनन हेतु किसी भी संवेदनशील पाठक को विवश कर देती हैं|  इनकी पहली लघुकथा ‘कबूतरों से भी खतरा है’ में परतंत्रता से स्वतंत्रता की राह दिखाती लघुकथा कबूतरों को प्रतीक बनाकर लिखी गयी श्रेष्ठ रचना है| इसे लघुकथा माने या न माने यह विचार का विषय है |  कारण यह लघुकथा कालत्व दोष की शिकार है| दूसरी लघुकथा ‘सर्कस’ है जिसमें बन्धुवा मजदूरों को स्वतंत्रता की राह दिखाती तथा समुचित अधिकार के प्रति सतर्क करती है, निश्चित रूप से एक श्रेष्ठ लघुकथा है| ‘दूध का रंग’ लघुकथा में सरकारी विद्यालयों की पढ़ाई एवं छात्र-छात्राओं के स्तर को संप्रेषित करने का प्रशंसनीय प्रयास किया गया है, किन्तु यदि इसके आरंभिक भाग को क्षिप्र कर दिया जाए और कालत्व दोष से इसे मुक्त कर दिया जाए तो यह लघुकथा प्रशंसा की पात्र बन सकती है| इनकी चौथी लघुकथा दुरूह है किन्तु गहरे पानी पैठने पर बल देती इस लघुकथा में व्यावसायियों की स्वार्थपरकता पर गंभीरता से विचार किया गया है कि इस वर्ग को किसी के दुःख-दर्द से कोई सरोकार नहीं है उन्हें तो मात्र और मात्र अपने लाभ से मतलब है| पाँचवीं लघुकथा में यह सुन्दर विचार अभिव्यक्त किया गया है कि सच्चाई की राह पर चलने वाले कभी गद्दी की चिन्ता नहीं करते | वे जीवन-पर्यन्त इस हेतु संघर्ष करते ही रहते हैं| छठी लघुकथा में दवा के धंधे पर प्रहार किया गया है कि दवा में मिलावट के कारण नायक की पत्नी उसे संतान का मुँह दिखाये बिना इसी मिलावट के कारण दिवंगत हो जाती है| सातवीं लघुकथा ‘वाह री दाढ़’ में दाढ़ को प्रतीक बनाकर यह सन्देश संप्रेषित करने का प्रयास किया गया है कि व्यक्ति को मात्र सुनना ही नहीं, अपितु देश की समस्याओं पर पढ़ना एवं उस पर चिंतन-मनन भी करना चाहिए| यह भी एक दुरूह लघुकथा है  जो गंभीरता से कई बार पढ़ने एवं स्वयं पर विचार करने की माँग करती है| आठवीं लघुकथा व्यवसायियों के सोच को प्रत्यक्ष करती है कि यह वर्ग मात्र अपने स्वार्थ एवं अधिकाधिक धन कमाने में विश्वास करता है| उनके इस सोच से गरीबों पर क्या दुष्प्रभाव पड़ेगा इससे उन्हें कोई वास्ता नहीं है | इनकी नौवीं लघुकथा ‘सपनों में रावण’ है जिसमें रावण को प्रतीक बनाकर भ्रष्टाचारियों के सोच को उजागर किया गया है| तात्पर्य यह है कि  हमारे देश में वर्तमान नेताओं के चरित्र की पोल खोलते हुए यह स्पष्ट करने का सफल प्रयास किया गया है कि ये लोग जनता का हित करने की अपेक्षा उन्हें धोखा देते हैं, ठगते हैं और स्वयं राजसी आनंद उठाते हैं और जनता को ‘राम-राज्य’ के स्वप्न दिखाते हैं|

इनकी अन्तिम लघुकथा ‘पागल’ में दो बहनों में उत्पन्न ईर्ष्याभाव को प्रत्यक्ष करते हुए यह स्पष्ट करने का सद्प्रयास है कि जब कोई व्यक्ति किसी निकटतम व्यक्ति को प्रगति की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए देखता है, तो वह उससे ईर्ष्या करने लगता है|

कुल मिलाकर मैं उन्नी की लघुकथाओं के विषय में यह कहना चाहूँगी कि इनमें कथात्मक रचनाएँ श्रेष्ठ हैं, जिन्हें विचार करने की दृष्टि से पढ़ा जाना चाहिए, किन्तु यदि हम वर्तमान हिन्दी-लघुकथा की बात करें तो इनकी अधिकाँश लघुकथाएँ कालत्व दोष की शिकार हैं  जिनपर विद्वानों को गहराई तक जाकर विचार करना चाहिए |

अब यदि पड़ाव और पड़ताल के ३० वें खण्ड में प्रकाशित लघुकथाओं पर सामूहिक रूप-से निष्कर्ष निकालें तो कतिपय अपवादों को छोड़कर प्रायः सभी लघुकथाएँ उत्कृष्ट हैं जो आने वाली पीढ़ी को श्रेष्ठता के उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत की जा सकेंगी | अतः अपने अन्य खण्डों की भाँति ही यह तीसवाँ खण्ड भी न मात्र उपयोगी है, अपितु प्रत्येक लघुकथाकार के पास होने की आवश्यकता पर भी बल देता है|

- कल्पना भट्ट

श्री द्वारकाधीश मंदिर

चौक बाज़ार, भोपाल-४६२००१

मो:-9424473377