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सोमवार, 7 अप्रैल 2025

आलेख: लघुकथा का कविता में रूपांतरण (एक सृजनात्मक अन्वेषण) | डॉ. चंद्रेश कुमार छ्तलानी

"कविता वह दर्पण है, जिसमें लघुकथा की आत्मा को नए अंदाज़ में देखा जा सकता है।"

लघुकथा, साहित्य की वह सूक्ष्म कला है जो एक पल, एक संवाद, या एक अनुभव को इतनी सघनता से पिरोती है कि पाठक के मन में गूँजती रह जाती है। परंतु जब इसी लघुकथा को कविता के रूप में ढाला जाता है, तो यह एक नया जन्म लेती है-शब्दों का संगीत, भावों का नृत्य, और छंदों की लयबद्धता के साथ। यह रूपांतरण केवल शैली का परिवर्तन नहीं, बल्कि कथा के मर्म को हृदय तक पहुँचाने का एक काव्यमय तरीका है।

लघुकथा और कविता: साहित्यिक उड़ान के दो पंख

लघुकथा और कविता, दोनों ही मानवीय भावनाओं के सशक्त माध्यम हैं, पर उनकी अभिव्यक्ति का ढंग भिन्न है:

लघुकथा: लघुकथा को एक वृक्ष मानें तो जड़ें घटना में, तने कथा में, और फल संदेश व चिंतन में कह सकते हैं। 

कविता: कविता सागर की तरह है, जिसकी लहरें भावों की, गहराई अर्थ की, और मोती शब्दों के माने जा सकते हैं।

जब ये दोनों मिलते हैं, तो एक ऐसी सृजनात्मक ऊर्जा जन्म लेती है जो पाठक को सोचने, महसूस करने और रचनात्मकता के नए आयामों से रूबरू कराती है। गद्य से पद्य में रूपांतरण गद्य में निहित उन अनकहे भावों को दर्शा सकता है, जो कि गद्य में दर्शाना लगभग असंभव सा प्रतीत होता है।

पांच चरणों में लघुकथा का काव्यमय जन्म

1. भावों की खोज: कथा की आत्मा को पकड़ें

लघुकथा के मूल भाव एवं विषय, जैसे विसंगति, प्रेम, विषाद, सत्य, निराशा या आशा को पहचानें। ये भाव कविता की नींव होंगे।

2. शब्द:

कविता के लिए ऐसे शब्द चुनें जो भाव को दृश्य और संवेदना में बदल दें।

3. लय और संगीत:

छंद और तुकबंदी से कविता को स्मरणीय बनाएँ। मुक्त छंद या तालबद्ध रचना चुन सकते हैं।

4. संक्षिप्तता:

लघुकथा की सारगर्भिता बनाए रखते हुए, कविता को सघन और प्रभावशाली बनाएँ।

5. पुनर्लेखन:

रचना को जोर से पढ़ें, लय की त्रुटियाँ सुधारें, और भावों की संवेदनशीलता और संप्रेषणीयता बढ़ाएँ।

उदाहरण: यहाँ हम एक लघुकथा का उदाहरण लेकर चर्चा करते हैं,

लघुकथा: मैं जानवर

कई दिनों के बाद अपने पिता के कहने पर वह अपने पिता और माता के साथ नाश्ता करने खाने की मेज पर उनके साथ बैठा था। नाश्ता खत्म होने ही वाला था कि पिता ने उसकी तरफ देखा और आदेश भरे स्वर में कहा, 

"सुनो रोहन, आज मेरी गाड़ी तुम्हें चलानी है।", कहते हुए वह जग में भरे जूस को गिलास में डालने लगे। लेकिन पिता का गिलास पूरा भरता उससे पहले ही उसने अंडे का आखिरी टुकड़ा अपने मुंह में डाला और खड़ा होकर चबाता हुआ वॉशबेसिन की तरफ चल पड़ा।

उसकी माँ भी उसके पीछे-पीछे चली गयी और उसके पास जाकर उसका हाथ पकड़ कर बोली, "डैडी ने कुछ कहा था..."

"हूँ..." उसने अपने होठों को मिलाकर उन्हें खींचते हुए कहा।

"तो उनके लिए वक्त है कि नहीं तेरे पास?" माँ की आँखों में क्रोध उतर आया

और उसके जेहन में कुछ वर्षों पुराना स्वर गूँज उठा, 

"रोहन को समझाओ, मुझे दोस्तों के साथ पार्टी में जाना है और यह साथ खेलने की ज़िद कर रहा है, बेकार का टाइम वेस्ट..."

पुरानी बात याद आते ही उसके चेहरे पर सख्ती आ गयी और वॉशबेसिन का नल खोल कर उसने बहुत सारा पानी अपने चेहरे पर डाल दिया, कुछ पानी उसके कपड़ों पर भी गिर गया।

यह देखकर माँ का पारा सातवें आसमान पर पहुँच गया, वह चिल्ला कर बोली,"ये क्या जानवरों वाली हरकत है?"

उसने वहीँ लटके तौलिये से अपना मुंह पोंछा और माँ की तरफ लाल आँखों से देखते हुए बोला,

"बचपन से तुम्हारा नहीं जानवरों ही का दूध पिया है मम्मा फिर जानवर ही तो बनूँगा और क्या?"

-0-

कविता में रूपांतरण:

भावों की खोज:

कथा में अवहेलना, क्षोभ, कटाक्ष का भाव है। बचपन में की गई उपेक्षा और अब वही उपेक्षा को लौटाने की पीड़ा मुख्य भाव है।

शब्द:

संवादों को छोटे-छोटे, प्रभावी अंशों में ढाला जाए।

चित्रात्मक शब्दों का प्रयोग हो सकता है ("आँखों में उसकी आग समाई", "गुस्से में माँ चिल्लाई")।

लय और संगीत:

मुक्तछंद में आंतरिक प्रवाह के साथ। कथात्मकता बनी रहे, इसके लिए छोटे वाक्यों में भाव व्यक्त किए जा सकते हैं।

संक्षिप्तता:

मूल कथा की आत्मा को बरकरार रखते हुए, कम शब्दों में पूरी रचना कविता में कही जाए।

कविता : मैं जानवर

जूस पीते पिता ने कहा,

"आज गाड़ी तुम चलाना।"

अनसुना कर बेटा उठा,

उसे तो था अंडा चबाना।


माँ ने रोका हाथ पकड़कर,

"डैडी की बात सुनो कभी,

क्या उनके लिए वक्त नहीं है,

बस अपनी धुन में रहते सभी!"


बेटे की यादों में चित्र उभरे,

गूँज उठा सोच में एक पुराना स्वर,

"रोहन को समझाओ ज़रा,

है पार्टी ज़रूरी, रुकूं कैसे मैं घर!"


याद आई बातें, बदला था चेहरा,

नल से पानी उसने तेज़ बहाया,

कुछ गिरा कपड़ों पर उसके,

देख माँ का गुस्सा बढ़ आया।


"क्या यह जानवरों की हरकत?!"

गुस्से में थी माँ चिल्लाई,

बेटे ने तौलिया उठाकर देखा,

आँखों में उसकी आग समाई।


"बचपन से माँ, तुम्हारा नहीं, 

जानवरों का दूध है पिया,

तो जानवर ही बनूँगा ना,

और क्या - और क्या?"

-0-


निष्कर्ष:

लघुकथा का काव्य में रूपांतरण, दो विधाओं का मिलन है- एक ओर लघुकथा की मितभाषिता, दूसरी ओर कविता का संगीत। यह प्रक्रिया पाठक को न सिर्फ कथा के सार से जोड़ती है, बल्कि उसे शब्दों के नृत्य में भी डुबो देती है। जैसे एक ही फूल को अलग-अलग कोण से देखने पर नए रंग दिखते हैं, वैसे ही लघुकथा का काव्य रूप हमें जीवन के सत्यों को देखने की एक नई दृष्टि देता है।

यह रूपांतरण केवल शब्दों का खेल नहीं, बल्कि भावों का पुनर्जन्म है। जब लघुकथा कविता बनती है, तो वह पाठक के मन में अमिट छाप छोड़ सकती है, एक ऐसी छाप जो सोचने पर मजबूर करती है, और महसूस करने को प्रेरित।

-0-


चंद्रेश कुमार छ्तलानी 
9928544749
उदयपुर, राजस्थान

प्रेरणा: 
शेख शहज़ाद उस्मानी जी द्वारा लघुकथा का काव्य रूपांतरण।

मंगलवार, 4 मार्च 2025

लघुकथा का काव्यात्मक रूपांतरण । शेख शहज़ाद उस्मानी

 चन्द्रेश कुमार छतलानी (उदयपुर, राजस्थान) की लघुकथा के काव्यात्मक रूपांतरण का एक प्रयास -

शीर्षक : विधवा धरती

(अन्य शीर्षक सुझाव: कितने बार विधवा?)


रक्तरंजित सुनसान सड़कें थीं, 

तो दर्द से चीखते घर, बस। 

उजड़े शहर थे, तो बसते श्मशान, क़ब्रिस्तान, बस।

बलिवेदियॉं थीं, तो साम्प्रदायिक दंगों की निशानदेहियाॅं, बस।

याद था उसे वह मंजर,

रहा जब वह सात साल का।

स्वतंत्रता संग्राम में उसके पिताजी की शहादत का।

तीन वर्ष बाद ... था देश आज़ाद।

उसने समझा... भारत मॉं को पिताजी का सदा सुहागन का आशीर्वाद।

हालात शहर के देखकर आज उससे रहा नहीं गया। 

कर्फ्यू के बावजूद भी तीन साड़ियाँ  लेकर, बाहर वह निकल गया।

ढलती उम्र में भी किशोरों की तरह... जाने कैसे छुपते-छिपाते...  शहर के एक बड़े  चौराहे पर  पहुँच गया।

जाकर वहॉं उसने पहली साड़ी निकाली, केसरिया रंग वाली... 

और आग  उसमें उसने लगा दी।

फिर... दूसरी साड़ी उसने वहीं निकाली, 

हरे रंग वाली, आग उसमें भी उसने लगा दी।

और तीसरी सफ़ेद वाली साड़ी निकाल ...  उसमें खुद ही अपना मुँह उसने ज्यों ही छिपा लिया।

इक पुलिस दल वहॉं पहुॅंच गया। 

"कर क्या रहा यहॉं?

क्यों आगजनी कर रहा यहॉं?" 

चिल्लाकर इक सिपाही बोला वहॉं।

साड़ी में से चेहरा अपना, ज्यों निकाला उसने।  लाल-सुर्ख आँखों से उसकी... पानी लगा टपकने।

भर्राये स्वर में उसने कहा,"ये मेरी माँ की साड़ियाँ हैं, जो जल रही हैं। अब बस यही बची है, जो कुछ कह रही हो"

सफ़ेद साड़ी दिखा उसने कहा।

"पागल है? यहाँ पूरे शहर में आग लगी है

और तुम्हें माँ की साड़ी की पड़ी है!"

बोला पुलिसवाला, "कौन  है तुम्हारी  माँ ?"

कुर्ते के अन्दर से उसने जो तस्वीर निकाली, पहने साड़ी तिरंगे वाली...

थी वो भारत माँ!

सिर से अपने उसे लगा,

फफकने वह लगा,

"विधवा हो रही है फ़िर से मेरी मॉं,

बचा लो उसे मेरे पिता!"

याद आ गई उसे शहीद पिता की चिता।

(लघुकथा की शैली में रूपांतरण: 

शेख़ शहज़ाद उस्मानी

शिवपुरी (मध्यप्रदेश)

(01-03-2025)

__________________

 मूल रचना इस प्रकार है -


 विधवा धरती

साम्प्रदायिक दंगे पीछे छोड़ गए थे सुनसान रक्तरंजित सड़कें, दर्द से चीखते घर, उजाड़ शहर और बसते हुए श्मशान और कब्रिस्तान। उसे हमेशा से याद था कि उसकी सात वर्ष की आयु में  ही उसके पिताजी स्वतन्त्रता-संग्राम  में शहीद हो गए। उनकी शहादत के तीन वर्ष बाद देश स्वतंत्र हो गया। वह यही समझता था कि पिताजी भारत माँ को सदा सुहागन का आशीर्वाद देकर गए हैं।

शहर के हालात देखकर आज उससे रहा नहीं गया, वह कर्फ्यू के बावजूद भी तीन साड़ियाँ  लेकर बाहर निकल गया, और ढ़लती उम्र में भी किशोरों की तरह जाने कैसे छुपते- छिपाते शहर के एक बड़े चौराहे पर पहुँच गया। वहाँ जाकर उसने पहली साड़ी निकाली, वह केसरिया रंग की थी, उसने उसमें आग लगा दी।

फिर उसने दूसरी साड़ी निकाली, जो हरे रंग की थी,उसने उसमें भी आग लगा दी।

और तीसरी सफ़ेद रंग की साड़ी निकालकर उसमें खुद ही मुँह छिपा लिया।

तब तक पुलिसवाले  दौड़कर पहुँच गये थे। उनमें से एक चिल्लाकर बोला," क्या कर रहा  है? आगजनी कर रहा है?"

उसने चेहरा साड़ी  में से निकाला। उसकी लाल-सुर्ख आँखों से पानी टपक रहा था। भर्राये स्वर में उसने कहा," ये मेरी माँ की साड़ियाँ हैं, जो जल रही हैं। अब बस यही बची है।" उसने सफ़ेद साड़ी दिखाते हुए कहा।

" पागल है? यहाँ पूरे शहर में आग लगी है और तुम माँ की साड़ी को रो रहे हो! कौन  है तुम्हारी माँ?"

उसने कुर्ते के अन्दर से तिरंगे की साड़ी पहने भारत माँ की तस्वीर निकाली और उसे सिर से लगा फफकते हुए कहा,"माँ फिर विधवा हो रही है, उसे बचा लीजिये पिताजी!"

_ चन्द्रेश कुमार छ्तलानी

(उदयपुर, राजस्थान)

सोमवार, 6 जनवरी 2025

मासिक धर्म पर हिंदी साहित्य: एक विमर्श

 हिंदी साहित्य में महिलाओं के जीवन के विभिन्न पहलुओं को अभिव्यक्त करने की परंपरा रही है, लेकिन मासिक धर्म जैसे विषय पर साहित्यिक दृष्टिकोण अपेक्षाकृत कम दिखाई देता है। मासिक धर्म महिलाओं के जीवन का एक प्राकृतिक भाग है, जो लंबे समय से सामाजिक वर्जनाओं, मिथकों और चुप्पी के घेरे में रहा है। यह न केवल महिलाओं की शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ा है, बल्कि उनके सामाजिक और आर्थिक अधिकारों से भी गहराई से संबंधित है।

कुछ लेखिकाओं ने इस विषय पर साहसिक लेखन किए हैं। महादेवी वर्मा, मृदुला गर्ग, और इस्मत चुगताई जैसी लेखिकाओं ने महिलाओं की शारीरिक और मानसिक स्थिति पर आधारित कथाएँ और कविताएँ लिखी हैं। हाल के समय में रचनाकार इस विषय को खुलकर अपनी रचनाओं में स्थान दे रहे हैं, जो समाज में जागरूकता लाने का महत्वपूर्ण कार्य है।

इस विषय पर लेखन समाज में व्याप्त वर्जनाओं और मिथकों को तोड़ने में मदद करता है। साहित्यिक कृतियाँ पाठकों को यह समझने में सक्षम बनाती हैं कि मासिक धर्म कोई अपवित्रता नहीं, बल्कि एक जैविक प्रक्रिया है। इस विषय पर साहित्यिक चर्चा लड़कियों और महिलाओं को उनके स्वास्थ्य और स्वच्छता के प्रति जागरूक करती है। यह उन्हें आत्मविश्वास के साथ समाज में अपनी भूमिका निभाने की प्रेरणा देता है। इनके अलावा इससे जुड़े विषयों पर चर्चा महिलाओं की गरिमा और सामाजिक समानता को स्थापित करने में मदद करती है। यह महिलाओं के प्रति भेदभाव को समाप्त करने का माध्यम बन सकता है।

कई विधाओं में उत्तम रचनाएं देने वाले रचनाकार सुरेश सौरभ इस विषय पर अपना योगदान निम्न लघुकथा से दे रहे हैं:

जूस/ लघुकथा

       "क्या बात मैडम जी! आज लेट कर दिया?"-क्लर्क

        "जरा तबीयत न ठीक थी"-मैडम

        "अरे! क्या हुआ आपको ?"- क्लर्क

         ".......... "

       "ओह! अब आईं, क्या हुआ मैडम जी?-साहब

       "सर! तबीयत न ठीक थी, इसलिए आज लेट हो गई। "

       "क्या हुआ ? "-साहब

         मैडम खामोशी से अपनी सीट की ओर बढ़ गईं। 

         "रामू ऽऽ" मैडम ने चपरासी रामू को आवाज दी। 

          "जी जी ! मैम" रामू आ गया। 

        "जरा एक गिलास अनार का जूस ले आओ, कुछ तबीयत ठीक नहीं, वहीं से लाना जहाँ से लाते हो?"

     क्लर्क की डेस्कटॉप से आंखें हटीं, कीपैड पर नाचती उंगलियाँ ठहरीं।अब उसकी निगाह रामू पर थीं। रामू उन्हें देख मुस्कुराया, तब हल्की हंसी में क्लर्क बोला-"जाओ यार! ले आओ जल्दी! "

     " अभी जाता हूँ सर।"- मैम से पैसे लेकर रामू शरारती मुस्कान लिए आगे बढ़ गया। मैडम ने कनखियों से उसे देखा, फिर दुरदुराते हुए उनकी उंगलियाँ कीपैड पर तेज से, तेजतर हो गईं। डेस्कटॉप थरथराने लगा।

-सुरेश सौरभ

निर्मल नगर लखीमपुर खीरी उत्तर प्रदेश पिन कोड 26 2701 मोबाइल नंबर 7860600355


हिंदी साहित्य में मासिक धर्म पर इस तरह की लघुकथाएं समाज में एक नई दिशा देने का कार्य कर सकती हैं। ऐसा रचनाकर्म महिलाओं के साथ-साथ पुरुषों को भी इस मुद्दे के प्रति संवेदनशील बनाता है और समाज में व्याप्त भ्रांतियों को दूर करने का माध्यम बनता है। साहित्य के माध्यम से इस विषय पर चर्चा करना समय की आवश्यकता है, ताकि आने वाली पीढ़ी मासिक धर्म को एक प्राकृतिक और सामान्य प्रक्रिया के रूप में स्वीकार करे।

- चंद्रेश कुमार छ्तलानी 







रविवार, 8 दिसंबर 2024

पुस्तक समीक्षा | घरों को ढोते लोग | समीक्षक: नृपेन्द्र अभिषेक नृप

वंचित वर्गों का दर्द बयां करता "घरों को ढोते लोग"


साहित्य में लघुकथाओं का महत्व इस बात में है कि वे कम शब्दों में गहरी संवेदनाओं और विचारों को व्यक्त करने में सक्षम होती हैं। लघुकथा का यह गुण सुरेश सौरभ द्वारा संपादित संग्रह “घरों को ढोते लोग” में बखूबी देखने को मिलता है। यह संग्रह समाज के उन हाशिए पर खड़े लोगों की कहानियों को सामने लाता है, जिनकी उपस्थिति हमारे जीवन में तो निरंतर होती है, लेकिन जिनके संघर्ष और जीवन की कठिनाइयों पर हम अक्सर ध्यान नहीं देते। यह संग्रह 65 लघुकथाकारों की 71 लघुकथाओं का संकलन है, जो मजदूरों, किसानों, कामकाजी महिलाओं, और समाज के मेहनतकश तबकों की जिन्दगी को मार्मिकता से उकेरता है।

संग्रह का केंद्रीय विषय समाज के मेहनतकश वर्ग का जीवन और संघर्ष है। इन लघुकथाओं में दैनिक जीवन की कठिनाइयों, आर्थिक संकट, सामाजिक असमानता, और मेहनत के बावजूद मिलने वाली तिरस्कारपूर्ण दृष्टि को प्रभावशाली तरीके से प्रस्तुत किया गया है। ये कहानियां उन लोगों की हैं, जो हमारे घरों, फैक्ट्रियों, खेतों और सड़कों पर काम करके समाज को सुचारू रूप से चलाते हैं, लेकिन जिनके खुद के जीवन में शांति और सम्मान की कमी होती है।

इन लघुकथाओं में ऐसी कहानियों को पेश किया गया है, जो हमें सोचने पर मजबूर करती हैं कि समाज में किस तरह से असमानता व्याप्त है। उदाहरणस्वरूप, एक कहानी में एक घरेलू कामगार की रोजमर्रा की जिंदगी को दिखाया गया है, जिसमें उसकी कड़ी मेहनत के बावजूद उसे उचित सम्मान और वेतन नहीं मिलता। वहीं, दूसरी कहानी में एक किसान के संघर्ष को दिखाया गया है, जो अपने परिवार का पेट पालने के लिए दिन-रात मेहनत करता है, लेकिन बाजार की बेरहम व्यवस्था उसकी मेहनत को नकार देती है।

“घरों को ढोते लोग” भावनात्मक रूप से अत्यधिक संवेदनशील और उद्वेलित करने वाला संग्रह है। प्रत्येक लघुकथा समाज की उस सच्चाई को उजागर करती है, जिसे हम नजरअंदाज करते हैं। यह संग्रह हमारे समाज की उन कमजोरियों और विसंगतियों को भी दिखाता है, जो हमें आत्ममंथन करने पर विवश करती हैं। हर कहानी में एक ऐसी पीड़ा और संघर्ष छिपा है, जो पाठक को उन लोगों के जीवन के साथ एक गहरे स्तर पर जुड़ने का अवसर प्रदान करती है।

इस संग्रह की एक और महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसमें मेहनतकश वर्ग की इच्छाओं, सपनों और मानवीय संवेदनाओं को भी प्रमुखता दी गई है। ये कहानियां केवल कठिनाइयों और दुखों का चित्रण नहीं करतीं, बल्कि यह भी दिखाती हैं कि किस प्रकार ये लोग अपने सपनों को जीने के लिए लगातार संघर्ष करते रहते हैं।

संग्रह की भाषा सरल और सहज है, जो हर पाठक के लिए सुलभ है।  लघुकथाकारों ने जटिल सामाजिक और आर्थिक मुद्दों को आसान और मार्मिक भाषा में प्रस्तुत किया है। उनकी भाषा में सादगी के साथ-साथ एक गहरा प्रभाव भी है, जो पाठक को कथाओं से जोड़ता है। सरल शब्दों के माध्यम से गहरी भावनाओं और विचारों को व्यक्त करना एक चुनौतीपूर्ण कार्य होता है, और इस संग्रह में यह बखूबी किया गया है।

लघुकथाओं का उद्देश्य केवल मनोरंजन नहीं है, बल्कि यह हमारे समाज में व्याप्त असमानता और अन्याय की ओर ध्यान आकर्षित करना है। भाषा की सहजता और कथाओं की गहराई इसे एक ऐसा संग्रह बनाती है, जिसे पढ़ने के बाद पाठक सोचने पर मजबूर हो जाता है।

सुरेश सौरभ ने इस संग्रह को संपादित करके साहित्य की दुनिया में एक महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उन्होंने न केवल एक विविधतापूर्ण लघुकथा संग्रह प्रस्तुत किया है, बल्कि उन आवाजों को मंच प्रदान किया है, जो अक्सर साहित्य में उपेक्षित रहती हैं। यह संग्रह एक प्रयास है उन मेहनतकश लोगों की जिंदगी को सम्मान और पहचान दिलाने का, जो समाज की रीढ़ होते हुए भी अक्सर अनदेखे रह जाते हैं।

संपादक की दृष्टि और उनकी साहित्यिक समझ के कारण यह संग्रह एक बेहतरीन दस्तावेज बन पाया है। उन्होंने समाज के उस वर्ग की आवाज को साहित्य में स्थान दिलाया है, जिसे अक्सर अनसुना कर दिया जाता है। यह न केवल एक साहित्यिक कृति है, बल्कि एक सामाजिक दस्तावेज भी है, जो हमारे समाज की वास्तविकताओं को प्रतिबिंबित करता है।

इस संग्रह की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि यह समाज में संवेदनशीलता और जागरूकता को बढ़ावा देता है। यह उन कहानियों को प्रस्तुत करता है, जिन्हें सुनने और समझने की आवश्यकता है। संग्रह की लघुकथाएं हमें यह सोचने पर मजबूर करती हैं कि हम अपने समाज के कमजोर तबकों के प्रति कितने उदासीन हो गए हैं। यह संग्रह हमारे समाज के उस वर्ग के लिए एक आवाज बनकर उभरता है, जो बिना किसी शिकायत के अपने जीवन की कठिनाइयों को झेलता रहता है।

पाठक को यह संग्रह केवल मनोरंजन के लिए नहीं पढ़ना चाहिए, बल्कि इसे एक आईने के रूप में देखना चाहिए, जो हमारे समाज की सच्चाई को उजागर करता है। यह संग्रह हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि अगर हम एक समानता और सम्मान से भरा समाज चाहते हैं, तो हमें इन मेहनतकश लोगों के संघर्षों और उनकी जरूरतों को समझने और उन्हें सम्मान देने की आवश्यकता है।

“घरों को ढोते लोग” एक ऐसा संग्रह है, जो न केवल साहित्यिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि समाजिक दृष्टि से भी अत्यंत मूल्यवान है। यह हमें हमारे चारों ओर की दुनिया को समझने और उसे बेहतर बनाने के लिए प्रेरित करता है। इस संग्रह की लघुकथाएं न केवल मेहनतकश वर्ग के संघर्षों को उजागर करती हैं, बल्कि यह भी दिखाती हैं कि उनके जीवन में कितना साहस, धैर्य और मानवीयता है।

सुरेश सौरभ ने इस संग्रह के माध्यम से एक ऐसा साहित्यिक योगदान दिया है, जो लंबे समय तक पाठकों के दिलों में बसेगा। यह संग्रह न केवल एक किताब है, बल्कि यह समाज के प्रति हमारी जिम्मेदारियों और हमारी उदासीनता का आईना है। “घरों को ढोते लोग” एक ऐसा साहित्यिक प्रयास है, जिसे न केवल पढ़ा जाना चाहिए, बल्कि इस पर गहन चिंतन भी किया जाना चाहिए।

समीक्षक: नृपेन्द्र अभिषेक नृप
पुस्तक: घरों को ढोते लोग
संपादक: सुरेश सौरभ
प्रकाशन: समृद्ध प्रकाशन, दिल्ली
मूल्य: 245 रुपये
वर्ष-2024

बुधवार, 27 नवंबर 2024

वैश्विक सरोकार की लघुकथाएं | भाग 15 | विषय: जल

सम्माननीय प्रबुद्धजन,

हमारे जीवन का सबसे ज़रूरी हिस्सा कौन सा है? अगर आप सोच रहे हैं कि मोबाइल, इंटरनेट, या चाय—तो रुकिए ज़रा! असली चीज़ है "पानी"। लेकिन आजकल पानी खुद इतनी परेशानी में है कि उसे हमारे सहारे की ज़रूरत है। जीवन का यह मूलभूत संसाधन कमी, प्रदूषण और कुप्रबंधन के कारण वैश्विक चिंता का विषय बनता जा रहा है। चूंकि दुनिया अभूतपूर्व जल संकट का सामना कर रही है, इसलिए इसकी जटिलताओं और इन चुनौतियों को संबोधित करने में हमारी और सभी की भूमिका को समझना पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। प्राचीन सभ्यताएं, जो नदियों के किनारे पनपी थीं, से लेकर आज की आधुनिक चुनौतियों तक जल सदा से ही भारतवर्ष की उन्नति और समृद्धि के केंद्र में रहा है।

अथर्ववेद में जल की स्वच्छता एवं सुरक्षा बनाये रखने के लिए कुछ इस तरह से प्रार्थना की है:

या आपो दिव्या उत वा स्रवन्ति
खनित्रिमा उतवा स्वयं जाः
समुद्रार्था या षुचयः पवकास्।
ता आपो देवीरिह मामवन्तु।।

जल से सम्बन्धित मुख्य वैश्विक मुद्दे

मुझे लगता है कि पानी अगर बोल पाता तो शायद कुछ ऐसा कहता, "मैं हर जगह हूं, फिर भी हर जगह नहीं हूं। कहीं बर्बाद किया जाता हूं, तो कहीं लोग मेरी एक बूंद के लिए तरसते हैं। कितने लोग तो ऐसे भी हैं जिन्हें देखते हुए मुझे लगता है कि, नल चालू तो उनका दिमाग बंद हो जाता है।

उपरोक्त बात पर विचार करते हुए कुछ वैश्विक मुद्दों पर बात करते हैं, जो जल से सम्बंधित हैं।

जल की कमी: वास्तव में दुनिया के 70% हिस्से में पानी है, लेकिन पीने लायक सिर्फ 1%, बाकी तो या तो नमकीन है या खारा। 2 बिलियन से अधिक लोग उच्च जल टेंशन वाले क्षेत्रों में रहते हैं। तेजी से बढ़ती जनसंख्या, शहरीकरण, अपर्याप्त जल संबंधी इन्फ्रास्ट्रक्चर और भूजल के अत्यधिक दोहन से जल की मांग आपूर्ति से ज़्यादा हो रही है और इसने ताजे पानी की कमी को और बढ़ा दिया है।
इसके अलावा, "बॉटल का पानी प्योर है," कहने वाले ये नहीं जानते कि एक लीटर बोतल बनाने में 3 लीटर पानी लगता है। कुल मिलाकर, जो बचा रहे हैं, वही बर्बाद कर रहे हैं।

जल प्रदूषण: औद्योगिक अपशिष्ट, कृषि अपवाह और अनुपचारित सीवेज जल प्रदूषण में प्रमुख योगदानकर्ता हैं, जो जल निकायों को विषाक्त और उपभोग या कृषि के लिए अनुपयुक्त बनाते हैं।

जलवायु परिवर्तन: जलवायु परिवर्तन के कारण वर्षा के पैटर्न में बदलाव, बढ़ते तापमान और पिघलते ग्लेशियरों ने जल चक्रों को बाधित किया है, जिससे सूखा और बाढ़ आ रही है।

जल की स्वच्छता और गुणवत्ता :  हर 10 में से 1 इंसान साफ पानी से दूर है। मतलब, करोड़ों लोग रोज़ पानी के लिए लाइन लगाते हैं, जैसे टिकट के लिए लगाते थे।  वैश्विक प्रयासों के बावजूद, लगभग 771 मिलियन लोगों के पास सुरक्षित पेयजल तक पहुँच नहीं है। यह मुद्दा हाशिए पर पड़े और कम आय वाले समुदायों को असमान रूप से प्रभावित करता है। पानी में कई तरह की गंध और स्वाद पानी की गुणवत्ता को बताते हैं। जैसे कि, सड़े हुए अंडे या सल्फ़र की गंध या स्वाद हाइड्रोजन सल्फ़ाइड की मौजूदगी का संकेत देता है।

सीमा पार जल संघर्ष: नील, सिंधु और मेकांग जैसे देशों के बीच साझा नदियाँ और जल निकाय, प्रतिस्पर्धी माँगों और न्यायसंगत समझौतों की कमी के कारण तनाव के स्रोत रहे हैं। भारत में भी अंतरराज्यीय जल विवाद है, देश  की ज़्यादातर नदियां एक से ज़्यादा राज्यों से होकर बहती हैं, इसलिए हर राज्य अपनी सीमा के अंदर बहने वाली नदियों के पानी का ज़्यादा से ज़्यादा इस्तेमाल करना चाहता है। इससे अंतरराज्यीय जल विवाद पैदा होता है। पानी भी सोचता होगा, "भाई, मुझे शांति से बहने दो, इंसानों!"

जलजनित बीमारियां: दूषित पानी से हैज़ा और टाइफ़ाइड जैसी बीमारियां हो सकती हैं। आंकड़ों के अनुसार भारत में सबसे अधिक स्वास्थ्य समस्याएं जलजनित बीमारियों से आती हैं।

इनके अतिरिक्त, पारिस्थितिक तंत्र के संतुलन और जलवायु परिवर्तन को न्यूनतम करने के लिए भी जल-सरंक्षण की आवश्यकता है।

परिवर्तनकर्ताओं का योगदान

कई विद्वान, शोधकर्ता और वैज्ञानिक यह सुनिश्चित करने के लिए अथक प्रयास कर रहे हैं कि भारत के जल संसाधनों का प्रबंधन आने वाली पीढ़ियों के लिए कुशलतापूर्वक और स्थायी रूप से किया जाए। इनमें से कुछ पर बात करते हैं,

भारत के जलपुरुष - डॉ. राजेंद्र सिंह:

भारत के जलपुरुष के रूप में जाने जाने वाले मेग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित डॉ. राजेंद्र सिंह ने पारंपरिक वर्षा जल संचयन तकनीकों का उपयोग करके राजस्थान में कई नदियों को पुनर्जीवित किया है। उनके जमीनी प्रयासों ने सूखाग्रस्त क्षेत्रों में जल सुरक्षा बहाल की है और वैश्विक स्तर पर इसी तरह की पहल को प्रेरित किया है।

ग्रेटा थनबर्ग:

ग्रेटा थनबर्ग जैसे समर्पित कार्यकर्ता जल संसाधनों की सुरक्षा के लिए जलवायु परिवर्तन को संबोधित करने के महत्व पर जोर देते हैं। उनके प्रयासों ने स्थायी जल नीतियों की आवश्यकता को बढ़ाया है।

स्थानीय समुदाय और गैर सरकारी संगठन: 

मैट डेमन द्वारा सह-स्थापित water.org जैसे संगठन जल और स्वच्छता परियोजनाओं के लिए माइक्रोफाइनेंसिंग पर ध्यान केंद्रित करते हैं, जिससे सभी को सुरक्षित जल तक पहुँच पाए।

वैज्ञानिक और नवप्रवर्तक:

जल शोधन तकनीकों में प्रगति, जैसे कि विलवणीकरण और सौर ऊर्जा से चलने वाले filtration, शुष्क क्षेत्रों में जल की कमी को दूर करने में गेम-चेंजर हैं। कई वैज्ञानिक और नवप्रवर्तक इस कार्य में रत हैं।

जल मुद्दों के समाधान 

1. सरकारों को सख्ती से जल नीतियों को लागू करना चाहिए जो संरक्षण, समान वितरण और प्रदूषण नियंत्रण को प्राथमिकता दें। 

2. वर्षा जल संचयन जैसी स्वदेशी जल प्रबंधन प्रथाओं को कृत्रिम recharge जैसी आधुनिक तकनीकों के साथ मिलाने से भूजल स्तर में वृद्धि हो सकती है। 

3. बड़े स्तर पर लोगों को जल संरक्षण, कुशल उपयोग और प्रदूषण की रोकथाम के बारे में शिक्षित करना दीर्घकालिक परिवर्तन का आधार बन सकता है।

4. अंतर्देशीय और अंतराज्यीय  जल समझौतों को सशक्त करना और जल निकायों में shared governance को बढ़ावा देना झगड़ों को कम कर सकता है।

5. बांध, नहरें और treatment plants जैसे जल infrastructure का विकास, उपलब्धता और पहुंच सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक है।

एक अन्य वास्तविक उदाहरण:

छत्तीसगढ़ के महासमुंद जिले के दूरस्थ वनांचल क्षेत्र में स्थित हरदा गांव में पीने के पानी की समस्या को जल जीवन मिशन के तहत किए गए सफल प्रयासों से उस गांव को “हर घर जल“ गांव के रूप में घोषित कर दिया गया है।

हम क्या करें?

  • ज़रूरत के मुताबिक ही पानी का इस्तेमाल करें। 
  • पानी का रिसाव होने पर उसकी जांच करें और उसे ठीक करें। 
  • नहाने का वक्त थोड़ा कम करें। दाढ़ी बनाते समय या वॉशबेसिन का प्रयोग करते समय, नल पर भी दिमाग लगाएं।
  • कम पानी गरम होने वाले धीमे शॉवर हेड का इस्तेमाल करें। 
  • हर बार टॉयलेट फ्लश करने में 6 लीटर पानी जाता है। इसका समझदारी से प्रयोग करें। कम फ़्लश या दोहरे फ़्लश वाले शौचालय का इस्तेमाल करें। 
  • शौचालय में पानी देने के लिए खारे पानी या बरसाती पानी का इस्तेमाल करें। 
  • पानी की बोतल में बचा पानी फेंकने की बजाय पौधों को सींचने में इस्तेमाल करें। 
  • सब्ज़ियां और फल धोने के पानी से फूलों और सजावटी पौधों को सींचें। 
  • पानी के हौज़ को खुला न छोड़ें। 
  • तालाबों, नदियों, या समुद्र में कूड़ा न फेंकें। 
  • पुरानी तरकीबें अपनाएं, जैसे राजस्थान के जोहड़ और कुवों की परंपरा। 

     .... आदि-आदि

मित्रों, पानी की एक-एक बूंद को संजोना सीखें। कुल मिलाकर पानी का कुशलतापूर्वक उपयोग करें।

जल मुद्दों पर साहित्य सृजन

अनेक पुस्तकें और अध्ययन जल संकट की जटिलताओं पर प्रकाश डालते हैं और समाधान प्रस्तुत करते हैं।

चार्ल्स फिशमैन द्वारा सृजित "The Big Thirst" पुस्तक जल की प्रचुरता और कमी के मध्य विरोधाभास की पड़ताल करती है और इस बात पर प्रकाश डालती है कि हम सभी जल के साथ अपने संबंधों पर कैसे पुनर्विचार कर सकता हैं?

"When the Rivers Run Dry" फ्रेड पीयर्स द्वारा लिखी गई है जो, वैश्विक जल संकट पर एक सम्मोहक कथा, नदियों और जल प्रणालियों पर मानवीय क्रियाओं के प्रभाव को प्रदर्शित करती है।

मौड बार्लो ने "Blue Covenant" शीर्षक से एक पुस्तक लिखी है, जो जल की राजनीति पर एक आवश्यक पुस्तक है। इसमें जल को एक मौलिक मानव अधिकार के रूप में मान्यता देने की वकालत की गई है।

वंदना शिवा द्वारा लिखी गई "Water Wars" पुस्तक जल संसाधनों पर संघर्षों की जांच करती है और टिकाऊ और लोकतांत्रिक प्रबंधन की आवश्यकता पर जोर देती है।

भारत के जलपुरुष जल पर आधारित कई पुस्तकों के रचियता हैं। इनमें विरासत स्वराज यात्रा, बाढ़ व सुखाड़ जैसी पुस्तकें बहुत कुछ स्पष्ट करती हैं।

जल सम्बंधित लघुकथाएं:

खारा पानी / सुकेश साहनी

दाहिने हाथ में शकुनक-दंड [डिवाइनिंग-राड] थामे, धीरे-धीरे कदम बढ़ाते बूढ़े सगुनिया का मन काम में नहीं लग रहा था।इस जमीन पर कदम रखते ही उसकी अनुभवी आँखों ने उन पौधों को खोज लिया था, जो ज़मीन के नीचे मीठे पानी के स्रोत के संकेतक माने जाते हैं। अब बाकी का काम उसे दिखावे के लिए ही करना था। उसकी नज़र लकड़ी के सिरे पर लटकते धागे के गोले से अधिक वहाँ खड़े उन बच्चों की ओर चली जाती थी, जिनके अस्थिपंजर-से शरीरों पर मोटी-मोटी गतिशील आँखें ही उनके जीवित होने का प्रमाण थीं। कोई बड़ा-बूढ़ा ग्रामवासी वहां दिखाई नहीं दे रहा था। जहाँ तक नज़र जाती थी,मुख्यमंत्री के ब्लैक कमांडो फैले हुए थे। प्रशासन ने मुख्यमंत्री की सुरक्षा को दृष्टिगत रखते हुए वहां के वृक्षों को कटवा दिया था।

बड़ी-सी छतरी के नीचे बैठे मुख्यमंत्री उत्सुकता से सगुनिया की कार्यवाही को देख रहे थे। गृह सचिव के अलावा अन्य छोटे-बड़े अफसरों की भीड़ वहाँ मौजूद थी।

काम पूरा होते ही सगुनिया मुख्यमंत्री के नज़दीक आकर खड़ा हो गया।

“तुम्हारी जादुई लकड़ी क्या कहती है।” बूढ़े ने बताया।

सचिव ने खुश होकर मुख्यमंत्री को बधाई दी। मुख्यमंत्री अभी भी संतुष्ट नज़र नहीं आ रहे थे। पिछली दफा फार्म हाउस के लिए ज़मीन का चुनाव करते हुए उन्होंने पूरी सावधानी बरती थी, पानी का रासायनिक विश्लेषण भी कराया था। परीक्षण रिपोर्ट के अनुसार पानी बहुत बढ़िया था, पर फार्म हाउस के बनते-बनते ज़मीन के नीचे का पानी खारा हो गया था। हारकर उनको न्ए सिरे से फार्म हाउस के लिए मीठे पानी वाली ज़मीन की खोज करवानी पड़ रही थी।

“आगे चलकर पानी खारा तो नहीं हो जाएगा?” इस बार मुख्यमंत्री ने बूढ़े से पूछा।

“इसके लिए ज़रूरी है कि आँसुओं की बरसात को रोका जाए।” बूढ़े ने क्षितिज की ओर ताकते हुए धीरे से कहा।

“आँसुओं की बरसात?” सचिव चौंके।

“ऐसा तो कभी नहीं सुना।” मुख्यमंत्री के मुँह से निकला।

“इस बरसात के बारे में जानने के लिए ज़रुरी है कि मुख्यमंत्री जी भी उसी कुँए से पानी पिएँ जिससे कि प्रदेश की जनता पीती है।” कहकर बूढ़े ने शकुनक-दंड अपने कंधे पर रखा और समीपस्थ गाँव की ओर चल दिया।

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- सुकेश साहनी


दशरथ जल / अनिल मकारिया 

पीने लायक पानी के स्त्रोत जब गिने-चुने ही बचे तब उन पर वर्चस्व हेतु दुनिया के कई देश व संगठन एक-दूसरे पर हमला करने लगे। इन हमलों की एक बड़ी वजह यह भी थी कि ऐसे युद्धों से प्रायः पानी वाले प्रदेशों में स्थित एक बड़ी आबादी का सफाया हो जाता जिससे सत्ताधीशों द्वारा पानी का विभाजन बची हुई आबादी के बीच करना आसान होता। जिस गाँव के अधिकतर युवा इस तरह के युद्धों में खेत रहे थे, उसी गाँव के जलाशय से पहरा उठवाकर सत्ताधीशों ने पीने का पानी गाँव वालों में बाँटने का आदेश दे दिया ।

लेकिन जब कोई भी अपने हिस्से का पानी लेने नहीं पहुँचा तब एक पत्रकार ने गाँव की विधवा महिला से इस बाबत पूछताछ की,

" गाँववालों के लिए जलाशय के पानी को बाँटने का आदेश आया है ! क्या आपको पीने का 'मीठा' पानी मिला ?" पत्रकार का जोर 'मीठा' शब्द पर अधिक था।

"नहीं !... हमें अब अनायास ही आँखों से मुँह तक पहुँचते खारे पानी को पीने की आदत पड़ चुकी है।" नमकीन पानी का ज्वार-भाटा अब उस महिला के स्वर में साफ दिख रहा था।

"नदी, तालाब के पानी का स्वाद, खारे पानी से तो बेहतर ही होता है। " पत्रकार कुरेदकर खुशी निकालना चाहती थी ।

"मीठे पानी का स्वाद अब अपनों के खून-सा लगने लगा है।" और महिला का गम था कि कम होने का नाम नहीं ले रहा था ।

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- अनिल मकारिया 


दो बूँदें जल की / अंशु श्री सक्सेना

आज मानसून ने पहली दस्तक दी है । रमा सूखे कपड़े लेकर कमरे में आयी तो देखा उसकी सात वर्षीया पोती इशी, खिड़की से अपने दोनों हाथ बाहर निकाल कर अपनी नन्ही नन्ही हथेलियों के बीच बारिश की बूँदे सहेजने का प्रयास कर रही है । मैं उसे देख कर हँस पड़ी और बोली “ ये क्या कर रही है लाडो ?”

“ पानी की बूँदे सहेज रही हूँ दादी....मेरी टीचर जी ने बताया है कि हमारी धरती से पीने वाला पानी बहुत तेज़ी से ख़त्म हो रहा है....हमारी नदियाँ, तालाब, कुएँ, सब सूख रहे हैं....तो जब हमें भगवान जी पानी देते हैं तो उसको हमें सहेज कर रख लेना चाहिये....हमारी टीचर जी कहती हैं कि जल की दो बूँदे आपके सोने के झुमके से भी ज़्यादा क़ीमती हैं...सच में दादी ?” इशी ने अपनी बालसुलभ चंचलता में मेरे झुमके हिलाते हुए पूछा।

“ हाँ लाडो “ मैंने हँस कर उत्तर दिया और अपने आँगन और बरामदे मेँ रेन वॉटर हारवेस्टिंग के लिये गड्ढे बनवाने के निर्णय ले लिया । 

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- अंशु श्री सक्सेना


पानी / नीना सिन्हा

“रधवा के माई! ओलावृष्टि और बेमौसम की बरसात से सारी फसल खराब हो गई है। क्यों न शहर चलें? दिहाड़ी मज़दूरी मिल जाएगी। साथी ने रहने की जगह खोज रखी है। बच्चों को भूखा कैसे रखें?”

“ठीके है रधवा के बापू! और कुच्छो नहीं सूझ रहा है?”

दोपहर होते-होते सीमित गृहस्थी समेटकर पास के शहर जा पहुँचे। अंधियारा कमरा एक छोटी सी बस्ती में, धूल और गंदगी से भरा हुआ; एक कोने में सामान जमाया, बेटे को कहा कि खाली डिब्बों में कुछ पानी भर लाए, ताकि कमरा धुल सके।

“माँ! इतने सारे डिब्बों में पानी मैं अकेला कैसे ला सकूँगा?”

“तू चल बेटा! तेरी बहन को पीछे से भेजती हूँ, अभी मेरी मदद कर रही है। झाड़ू लगाकर धोने से ही कमरा रात में सोने योग्य होगा।”

वह नल पर गया, सप्लाई का पानी जा चुका था। पता लगा, आधा किलोमीटर दूरी पर एक चापाकल है।

“बच्चे! अगर जरूरी हो चापाकल से ले आओ, नहीं तो शाम को पानी आता है।”किसी ने सलाह दी।

उसने वापस जाकर माँ को बताया और चल पड़ा। रास्ते में नजर एक वाटर पार्क पर पड़ी; एक फव्वारे से पानी तेजी से ऊपर जाकर वापस गिर रहा था। गिरते पानी में कुछ लोग उछल कूद मचा कर नहा रहे थे। ऐसी जगह सिर्फ टीवी पर देखी थी।

गार्ड से पूछा, “चाचा! क्या यहाँ से पानी ले सकता हूँ?”

“नहीं बच्चे! यह मनोरंजन की जगह है, पानी लेने की नहीं?”

“मुझे आधा किलोमीटर पैदल चलना पड़ेगा। मुझे पानी लेने दीजिए।”

“अंदर जाने की फीस ढाई सौ है, दे सकते हो? यहाँ चारों ओर सीसीटीवी कैमरे लगे हैं, गलती होते ही मेरी नौकरी चली जाएगी।”

“जब बस्ती के नल में पानी नहीं आ रहा है, तो यहाँ इतना सारा पानी कैसे आ रहा है?”

“बच्चे! ये अमीर लोगों की जगह है? यहाँ पानी जमा करके रखा जाता है।”

“चाचा! क्या भगवान भी अमीर-गरीब का फर्क करके पानी देते हैं? हमारी बस्ती में नल सूखा है और अमीरों के नल से पानी इतनी तेजी से आ रहा है, क्यों?”

तब तक माँ-बहन पीछे से पहुँच गईं और उसे कानों से खींचकर आगे ले गईं।

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- नीना सिन्हा


निष्कर्षतः, जल वैश्विक रूप से एक साझा संसाधन है और वैश्विक जल चुनौतियों का समाधान करने के लिए सामूहिक जिम्मेदारी की आवश्यकता है। व्यक्तियों, समुदायों, सरकारों और वैश्विक संगठनों को इस महत्वपूर्ण संसाधन को स्थायी रूप से संरक्षित, प्रबंधित और साझा करने के लिए एकजुट होना चाहिए। डॉ. राजेंद्र सिंह जैसे व्यक्तियों के प्रयास हमें याद दिलाते हैं कि बदलाव जमीनी स्तर से शुरू होता है और प्रतिबद्धता व नवाचार के साथ, जल-सुरक्षित भविष्य हासिल किया जा सकता है।

शनिवार, 23 नवंबर 2024

वैश्विक सरोकार की लघुकथाएं | भाग 14 | विषय: न्याय

 इस पोस्ट में एक ऐसा वैश्विक विषय है, जो लघुकथाकारों सहित सभी साहित्यकारों को लेखन हेतु लगातार प्रेरित करता रहा है। यह विषय है - न्याय।

 न्याय सम्बंधित कुछ बातें साहित्य में काफी लिखी गई हैं, इनमें से एक है, न्याय की देवी की मूर्ती की आँखों पर बंधी पट्टी। इस पर तो इतना सृजन हुआ है और चर्चाएँ भी हुई हैं कि अब भारत सरकार ने वह पट्टी आधिकारिक तौर पर हटा ही दी। लेकिन वैश्विक रूप से पट्टी का अर्थ निष्पक्षता है और न्याय उस पट्टी के अलावा भी बहुत सारी अन्य बातों पर निर्भर करता है। जो बातें साहित्यकारों की पसंद हैं, उनमें से एक न्याय में देरी होना भी है। देरी एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। कुल मिलाकर यह कहें कि, न्याय किसी भी सभ्य समाज की आधारशिला है, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। लेकिन यह भी सत्य है कि इस आधारशिला को अक्सर प्रणालीगत असमानताओं से बचने, भ्रष्टाचार न्यून करने और निष्पक्षता सुनिश्चित करने में, कानूनी प्रणालियों की विफलता के कारण, समझौता करना पड़ता है। दुनिया भर में, नस्लीय भेदभाव, लैंगिक असमानता, राजनीतिक उत्पीड़न और न्याय तक पहुँच की कमी जैसे मुद्दे लाखों लोगों को परेशान करते हैं। इन चुनौतियों का समाधान करने के लिए समानता, मानवाधिकारों की सुनिश्चितता के प्रति प्रतिबद्धता तथा सामूहिक कार्रवाई की आवश्यकता है।

न्याय से सम्बंधित प्रमुख वैश्विक मुद्दे

न्याय केवल न्यायालय तक ही सीमित नहीं है। अन्यायालय इनके परिसरों के बाहर भी विद्यमान हैं। इनमें से कुछ पर बात करते हैं।

नस्लीय और जातीय भेदभाव:  नस्लवाद दुनिया भर में समुदायों को प्रभावित करता है। चाहे पुलिस की बर्बरता, संसाधनों तक असमान पहुँच या सांस्कृतिक दमन के रूप में, ये अन्याय विभाजन और असमानता को बनाए रखते हैं।

लैंगिक असमानता: महिलाएँ और LGBTQ+ व्यक्ति अक्सर हिंसा, वेतन अंतर और शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा तक सीमित पहुँच का सामना करते हैं। लैंगिक न्याय एक महत्वपूर्ण वैश्विक मुद्दा बना हुआ है।

आर्थिक असमानता: अमीर और गरीब के बीच की खाई चौड़ी हो गई है, जिससे असमान अवसर और वंचितों के लिए कमियाँ उत्पन्न हो गई हैं। यह भी प्रणालीगत न्याय की मांग करता है।

न्यायिक भ्रष्टाचार: कई क्षेत्रों में, न्यायिक प्रणालियाँ भ्रष्टाचार, देरी और अकुशलता से ग्रस्त हैं, जिससे पीड़ितों को समय पर और निष्पक्ष न्याय नहीं मिल पाता है।

मानवाधिकार उल्लंघन: राजनीतिक और अन्य उत्पीड़न से लेकर जबरन श्रम तक, मानवाधिकारों का हनन एक महत्वपूर्ण चुनौती बना हुआ है। यह एक बड़ा अन्याय है।

पर्यावरण सबंधित न्याय: जलवायु परिवर्तन असमान रूप से कमजोर आबादी को प्रभावित करता है, जिससे अक्सर उन्हें नीतिगत निर्णयों में वांछित मान्यता नहीं मिलती है।

न्याय पर कुछ अच्छे दृष्टिकोण और उद्धरण

महात्मा गांधी:  “प्रेम द्वारा दिया जाने वाला न्याय समर्पण है; कानून द्वारा दिया जाने वाला न्याय दंड है।”

डॉ. बी.आर. अंबेडकर: “न्याय ने हमेशा समानता के विचारों को जन्म दिया है... हर देश में, न्याय की भावना का इस्तेमाल कमजोरों को मजबूत से बचाने के लिए एक हथियार के रूप में किया गया है।”

मार्टिन लूथर किंग जूनियर: “किसी भी जगह का अन्याय हर जगह के न्याय के लिए खतरा है।”

नेल्सन मंडेला: “गरीबी पर काबू पाना दान का इशारा नहीं है, यह न्याय का कार्य है।”

रंगभेद के खिलाफ मंडेला की लड़ाई आर्थिक और सामाजिक समानता के साथ न्याय के प्रतिच्छेदन को उजागर करती है।

न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ (भारत के मुख्य न्यायाधीश): "न्यायपालिका को लोकतंत्र के क्षरण के खिलाफ़ रक्षा की पहली पंक्ति के रूप में खड़ा होना चाहिए।" 

कुछ समाधानपरक बातें

वैश्विक न्याय संबंधी मुद्दों का समाधान कानूनी प्रणालियों को मज़बूत करना: न्यायिक स्वतंत्रता सुनिश्चित करना, लंबित मामलों को कम करना और भ्रष्टाचार से निपटना कानूनी प्रणालियों में विश्वास बहाल करने के लिए महत्वपूर्ण हैं। 

हाशिए पर पड़े समुदायों को सशक्त बनाना: शिक्षा, सकारात्मक कार्यवाही और नीतिगत हस्तक्षेप वंचित समूहों का उत्थान कर सकते हैं, समानता को बढ़ावा दे सकते हैं। 

वैश्विक सहयोग: संयुक्त राष्ट्र और एमनेस्टी इंटरनेशनल जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठनों को मानवाधिकारों का हनन नहीं हो, इस पर कार्यवाही जारी रखना चाहिए और उल्लंघनकर्ताओं की जवाबदेही सुनिश्चित करनी चाहिए।

पुनर्स्थापनात्मक (Restorative) न्याय को बढ़ावा देना: पुनर्स्थापनात्मक न्याय दृष्टिकोण केवल सज़ा देने के बजाय सुलह और उपचार पर ध्यान केंद्रित करते हैं, जो दीर्घकालिक सामाजिक सद्भाव को बढ़ावा देते हैं।

जमीनी स्तर के आंदोलन: समुदाय द्वारा संचालित पहल, जैसे कि महिला समूहों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के नेतृत्व में, स्थानीय न्याय सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। 

कानूनी सुधार: देशों को प्रौद्योगिकी और जलवायु परिवर्तन से संबंधित चुनौतियों सहित उभरती न्याय चुनौतियों का समाधान करने के लिए अपने कानूनों को अनुकूलित करना चाहिए।

न्याय संबंधी मुद्दों पर साहित्य सृजन 

प्लेटो द्वारा लिखित "द रिपब्लिक", न्याय और नैतिकता की एक कालातीत खोज, यह दार्शनिक कार्य शासन में न्याय पर चर्चाओं की नींव रखता है।

माइकल सैंडल की पुस्तक "Justice: What’s the Right Thing to Do?" नैतिक दुविधाओं की पड़ताल करती है, जो आधुनिक समाज में न्याय को समझने के लिए एक रूपरेखा प्रदान करती है।

अपनी पुस्तक "ए थ्योरी ऑफ़ जस्टिस" में जॉन रॉल्स न्याय के विचार को निष्पक्षता के रूप में प्रस्तुत करते हैं और समानता व व्यक्तिगत अधिकारों की सुरक्षा पर जोर देते हैं।

मलाला यूसुफजई द्वारा सृजित "आई एम मलाला" एक संस्मरण है, जो बालिका शिक्षा और उत्पीड़न समाप्त कर सम्मान के साथ जीने के अधिकार की लड़ाई पर आधारित है।

गुरचरण दास अपनी पुस्तक "द डिफिकल्टी ऑफ़ बीइंग गुड" में महाभारत का विश्लेषण करते हुए, न्याय, नैतिकता और मानव व्यवहार की जटिलताओं को उभारते हैं।

न्याय विषय पर लघुकथाएँ

गुलामयुग । बलराम अग्रवाल

गुलाम ने एक रात स्वप्न देखा कि शहजादे ने बादशाह के खिलाफ बगावत करके सत्ता हथिया ली है। उसने अपने दुराचारी बाप को कैदखाने में डाल दिया है तथा उसके लिए दुराचार के साधन जुटाने वाले उसके गुलामों और मंत्रियों को सजा-ए-मौत का हुक्म सुना दिया है।

उस गहन रात में ऐसा भायावह स्वप्न देखकर भीतर से बाहर तक पत्थर वह गुलाम सोते-सोते उछल पड़ा। आव देखा न ताव, राजमहल के गलियारे में से होता हुआ उसी वक्त वह शहजादे के शयन-कक्ष में जा घुसा और अपनी भारी-भरकम तलवार के एक ही वार में उसका सिर धड़ से अलग कर दिया।

सवेरे, दरबार लगने पर, वह इत्मीनान से वहाँ पहुँचा और जोर-जोर से अपना सपना बयान करने के बाद, बादशाह के भावी दुश्मन का कटा सिर उसके कदमों में डाल दिया। गुलाम की इस हिंसक करतूत ने पूरे दरबार को हिलाकर रख दिया। सभी दरबारी जान गए कि अपनी इकलौती सन्तान और राज्य के आगामी वारिस की हत्या के जुर्म में बादशाह इस सिरचढ़े गुलाम को तुरन्त मृत्युदण्ड का हुक्म देगा। गुलाम भी तलवार को मजबूती से थामे, दण्ड के इंतजार में सिर झुकाकर खड़ा हो गया।

शोक-संतप्त बादशाह ने अपने हृदय और आँखों पर काबू रखकर दरबारियों के दहशतभरे चेहरों को देखा। कदमों में पड़े अपने बेटे के कटे सिर पर नजर डाली। मायूसी के साथ गर्दन झुकाकर खड़े अपने मासूम गुलाम को देखा और अन्तत: खूनमखान तलवार थामे उसकी मजबूत मुट्ठी पर अपनी आँखें टिका दीं।

“गुला…ऽ…म!” एकाएक वह चीखा। उसकी सुर्ख-अंगारा आँखें बाहर की ओर उबल पड़ीं। दरबारियों का खून सूख गया। उन्होंने गुलाम के सिर पर मँडराती मौत और तलवार पर उसकी मजबूत पकड़ को स्पष्ट देखा। गुलाम बिना हिले-डुले पूर्ववत खड़ा रहा।

“हमारे खिलाफ…ख्वाब में ही सही…बगावत का ख्याल लाने वाले बेटे को पैदा करने वाली माँ का भी सिर उतार दो।”

यह सुनना था कि साँस रोके बैठे सभी दरबारी अपने-अपने आसनों से खड़े होकर अपने दूरदर्शी बादशाह और उसके स्वामिभक्त गुलाम की जय-जयकार कर उठे। गुलाम उसी समय नंगी तलवार थामे दरबार से बाहर हो गया और तीर की तरह राज्य की गलियों में दाखिल हो गया।

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- बलराम अग्रवाल


निरस्त्र / गीता सिंह

देवताओं की सभा में चर्चा न्याय व्यवस्था कों लेकर हो रही थी, तभी न्याय की देवी ने कहा,

" हे प्रभु स्त्री की इतनी उपेक्षा, दुहाई तो देते हैं कि स्त्री देवी हैं सर्वशक्तिमान हैं।न्याय व्यवस्था को थामें-थामें अब थक गयी हूँ और आँखें भी बंद हैं, जो सबूत है उसी पर न्याय होता हैं। कानून की देवी स्त्री, और कानून अंधा। क्या संयोग है?"

प्रभु ने कहा, "आज तो तुम्हारा मुँह ही बंद कर दिया कुबेर ने ? न्यायकर्त्ता को ही पंगु कर दिया, वो किस बात की सजा दे ? शोषण किया गया ? या वो आंतकी हैं ? या फिर आततायी हैं ? प्रत्येक अपराध की अलग सजा होती हैं ? " इसे कहते हैं निरस्त्र करना?"

कुबेर ने गहरी मुस्कान प्रेषित की!! निःशब्दता व्याप्त चारों तरफ।

"देखा प्रभु, आँखें बंद तो सबूत चाहिए? मुँह बंद तो आवाज चाहिए? मन ही था जो सही बोलता था लेकिन भौतिकता ने मुँह बंद कर दिया अब 'मन' आँखें फाड़े अपनी विवशता पर स्तब्ध हैं? न्याय की परिभाषा न्याय की देवी का बलिदान माँग रही हैं?"

स्तब्धता विहँस रही थी न्याय की शहादत पर। प्रश्नों के भँवर में सभा डूब उतरा रहा था- निःशब्द।

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- गीता सिंह


गवाह / रेखा श्रीवास्तव

अदालत की कार्यवाही चल रही थी , आज के सबसे ज्वलंत मुद्दे सामूहिक दुष्कर्म का मामला था। एक गरीब किसान की बेटी जानवरों के लिए चारा लेने खेत में गई थी और वहीं दंबग का बेटा दोस्तों के साथ शराब पी रहा था। उसके बाद अकेली लड़की के साथ हुआ वह घिनौना काण्ड।

पेशी, बहस, गवाही का सिलसिला महीनों से चल रहा था। अदालत खचाखच भरी होती और लोग वकील के ऊल जलूल प्रश्नों का मजा लेने आते थे। 

वकील की दलील होती कि दुष्कर्म का कोई चश्मदीद गवाह है, जिससे उसके इल्जाम की पुष्टि हो सके। आरोपी तभी साबित हो सकते हैं।

महिला जज बहुत धैर्य से बहस सुन रही थी। एकाएक उसका चेहरा तमतमा गया और वह बोली - "वकील साहब अदालत की मर्यादा ये नहीं कहती कि आप कुछ भी बोलें। ये दुष्कर्म एक जीता जागता अपराध था कोई फिल्म की शूटिंग नहीं कि मजमे के बीच इसको अंजाम दिया जाय। कौन चश्मदीद गवाह होगा वे सारे अपराधी जिन्होंने ये काम किया। पीड़िता को नहीं पता था कि वह जहाँ जा रही है वहाँ दरिंदे बैठे हैं तो साथ में गवाह लेकर चलती।" 

अदालत में सन्नाटा छा गया था और सभी लोग सिर झुकाये रह गये।

"और हाँ कल से ये सुनवाई बंद कमरे में होगी, ताकि आप जैसे वकीलों के द्वारा किया गया मौखिक दुष्कर्म से पीड़िता को इतने लोगों के सामने बार बार जलील न होना पड़े।"

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- रेखा श्रीवास्तव


न्याय / मोहन राजेश





निष्कर्षतः, न्याय एक विशेषाधिकार नहीं बल्कि हर व्यक्ति का अधिकार है, जो सीमाओं और बाधाओं से परे है। न्याय प्राप्त करने के लिए एक बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है जिसमें संस्थानों में सुधार, समुदायों को सशक्त बनाना और समानता और निष्पक्षता की संस्कृति को बढ़ावा देना शामिल है। गांधी, अंबेडकर और मंडेला जैसे नेता हमें मानवता और करुणा में निहित न्याय की परिवर्तनकारी शक्ति की याद दिलाते हैं। साहित्य और वास्तविक दुनिया के प्रयासों से प्रेरणा लेकर, हम एक ऐसी दुनिया बनाने के करीब पहुँच सकते हैं जहाँ सभी के लिए न्याय हो।