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सोमवार, 22 अप्रैल 2019

शकुंतला कपूर स्मृति अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता 2019 में द्वितीय स्थान विजेता लघुकथा | लघुकथाकारा: अनघा जोगलेकर


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जिंदगी का सफर

"ये क्या हो गया मेरी फूल-सी बच्ची को। मैंने तो अभी इसकी विदाई के सपने सजाना शुरू ही किया था। क्या पता था कि इसे इस तरह हमेशा के लिए विदा...." माँ फूट-फूटकर रो रही थी। पिताजी उन्हें ढांढस बंधा रहे थे।
मुझे ब्लड केंसर हो गया था लेकिन मैंने कीमोथेरेपी करवाने से इंकार कर दिया था। मैं तिल-तिलकर मरते हुए जीना नही चाहती थी। ऐसी स्थिति में मेरे पास मात्र छः महीने का समय बचा था जिसे मैं जी भर कर जी लेना चाहती थी।

माँ जब मेरे कमरे में चाय का कप लेकर पहुँचीं तो उनकी आँखों की लाली देख मैं 'आनंद' फ़िल्म की स्टाइल में बोली, "माँss, जिंदगी बड़ी होनी चाहिए, लम्बी नही। मौत तो एक पल है बाबुमौशाय....." और मैं जोर का ठहाका लगाकर हँस पड़ी।।

मेरी नौटंखी देख माँ भी मुस्कुरा दीं लेकिन वे अपनी आँख में आई पानी की लकीर न छुपा सकीं। उन्होंने दो-तीन बार पलकें झपकायीं फिर बोलीं, "आज मौसम बहुत अच्छा है। चल, झील के किनारे चलकर बैठते हैं।" इतना कह उन्होंने मुझे शॉल ओढाई और हम निकल पड़े।

झील किनारे लगे फूलों को देख माँ फिर उदास हो उठीं। बोलीं, "इन फूलों की जिंदगी भी कितनी छोटी होती है न!"

"हाँ माँ, लेकिन इस थोड़े से समय मे भी ये दुनिया को कितना कुछ दे जाते हैं। अपनी खुशबू, अपना पराग, अपने बीज....," इतना कह मैं यकायक माँ की ओर पलटी। मेरी आँखों में चमक थी, "माँ, मेरे जाने के बाद मेरा शरीर मेडिकल कॉलेज को दान कर देना। हो सकता है मेरी देह पर कुछ नए प्रयोग कर वे इस जानलेवा कैंसर का इलाज ढूंढ सकें।"

मेरी बात सुन एक पल को तो माँ कांप गई फिर मेरे सर पर हाथ फेरते हुए बोलीं, "इसका इलाज मिले-न-मिले मेरी बच्ची....लेकिन जब वे तेरे दिल को छुयेंगे न.....तो जीवन जीने की कला जरूर सीख जायेंगे।" इतना कह माँ ने अपना सर मेरे कांधे पर टिका दिया। मेरी बांह माँ के आँसुओं से भीगती चली गई।
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©अनघा जोगलेकर

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