दरवाजा खुला।
"इतनी रात कहां कर दी।" अब्बू गुस्से से आगबबूला थे।
"कार्यक्रम ही लंबा खिंचा। क्या करती ?"
"क्या था कार्यक्रम? "
"राम भजन संध्या।" तसल्ली से बैठते हुए बेटी बोली।
"अरे! तुमने गया राम भजन?
"हां हां...फिर पर्स से नोट निकालते हुए वह गिनने लगी, एक दो तीन.....नोटों की चमक से,अब्बू की आंखें चुधिंया गईं, "तू तो नात-ए-पाक कव्वाली गाती थी, फिर राम भजन....?"
वह नोट गिरने में तन्मय थी।
"वाह! पूरे सोलह हजार, इनाम मिलाकर। इतने कम समय में इतने कभी न मिले। हां अब्बू अब बताओ क्या कह रहे थे आप ?"
"यही कि तू तो कुछ और ही गाती थी। फिर अचानक राम भजन.."
"हवा का रुख देखकर पंछी भी परवाज भरते हैं, फिर मैं तो इंसान हूं...हा हा हा....हंसते हुए आंखें नचाकर, "अब्बू आप भी कुछ समझा करो।"
अब अब्बू भी मुस्करा कर प्यार से बोले-"सलमा बेटी अगली भजन संध्या कब है।"
"परसो।"
-सुरेश सौरभ
स्वरचित मौलिक अप्रकाशित
निर्मल नगर लखीमपुर खीरी उत्तर प्रदेश
मो-7860600355
हृदय स्पर्शी रचना सादर
जवाब देंहटाएंहा हा |
जवाब देंहटाएंबहुत खूब।
जवाब देंहटाएंहवा का रुख देखकर पंछी भी परवाज भरते हैं, फिर मैं तो इंसान हूं...
जवाब देंहटाएंवाह!!!
बहुत खूब
जवाब देंहटाएंक्या बात है... बहुत खूब... हवा का रुख देखकर पंछी भी परवाज भरते हैं, फिर मैं तो इंसान हूं..
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