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सोमवार, 30 अगस्त 2021

आज कृष्ण जन्माष्टमी पर एक लघुकथा 'मृत्युदंड' का नेपाली अनुवाद पहिलोपोस्ट पर | लेखक (हिन्दी): डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

 मृत्युदण्ड [लघुकथा सन्दर्भ : कृष्ण जन्माष्टमी]

हजारौं वर्षसम्म नरकको यातना भोगेपछिमात्रै भीष्म र द्रोणाचार्यलाई मुक्ति मिल्यो। छट्पटिँदै दुवै जना नरकको ढोकाबाट बाहिर निस्किनासाथ अगाडि देखे - उभिइरहेका कृष्ण। अचम्म मान्दै भीष्मले सोधे – कन्हैया, तपाईँ यहाँ?


मुसुक्क मुस्काउँदै कृष्णले दुवैलाई ढोगे र भने, 'पितामह- गुरुवर म तपाईँहरु दुवैका लागि आएको हुँ। तपाईँहरुको पापको सजाय पूरा भयो।'


कृष्णको यस्तो भनाईले द्रोणाचार्य विचलित स्वरमा बोले, 'यति धेरै वर्षदेखि हामीले पाप गरेको सुन्दै आयौं। तर यति धेरै अवधि यातना सहनु पर्नेगरी त्यस्तो के पाप गर्‍यौं कन्हैया? के आफ्नो राजाको रक्षा गर्नु पनि… '


'होइन गुरुवर।'


कृष्णले उनलाई बोल्दा बोल्दै रोके।


'केही अरु पापका अतिरिक्त तपाईँ दुवैले एउटा महापाप गर्नुभएको थियो।'


कृष्णले यसो भनिरहँदा भीष्म र द्रोणाचार्य दुवै आश्चर्य भावमा देखिए।


कृष्णले उनीहरुको भाव बुझेरै भने, 'जब त्यत्रो सभामा द्रोपदीको बस्त्र हरण भइरहेको थियो, तपाईँहरु दुवै अग्रज मौन रहनु भयो। उनको शीलको रक्षा गर्नुको साटो चुपो लागेर त्यो अपराध कर्मलाई स्वीकार्नु महापाप थियो।'


सुमधुर शैलीमा कृष्णले बताएपछि भीष्मले टाउको हल्लाउँदै उनका अभिव्यक्तिलाई सहर्ष स्वीकारे। तर, द्रोणाचार्यसँग अझै प्रश्न थियो। उनले सोधे – 'हामीलाई त हाम्रो पापको सजाय मिल्यो। तर हामी दुवैको तपाईँले झुक्याएर हत्या गराउनु भयो। तर तपाईँलाई चाहिँ त्यो अपराधमा ईश्वरले कुनै सजाय दिएनन्। यस्तो किन भयो?'


प्रश्न गम्भीर थियो। कृष्णको अनुहार एकाएक परिवर्तन भयो। त्यो परिवर्तनमा पीडा झल्किन्थ्यो। उनले लामो सास फेरे। आँखा बन्द गरे। उनीहरुको अनुहार हेर्न सकेनन्, अनि फर्किए। पीडा र बेदनासहित उनको बोली फुट्यो।


'तपाईँहरुले जस्तो अपराध गर्नु भएको थियो, अहिले धर्तीमा त्यस्तो अपराध धेरैले गरिरहेका छन्। तर, कुनै पनि बस्त्रहीन द्रोपदीलाई बस्त्र दिन जान म सक्दिनँ।'


कृष्ण द्रोणाचार्य र भीष्मतिर फर्किए। भने, 'गुरुवर-पितामह, के यो दण्ड पर्याप्त छैन? आज पनि तपाईँहरु जस्ता धेरै धर्तीमा जीवित हुनुहुन्छ तर त्यहाँ कृष्ण त मरिसकेको छ नि…'


Source:

https://pahilopost.com/content/20210830112241.html

हिन्दी में मूलकथा 

हज़ारों वर्षों की नारकीय यातनाएं भोगने के बाद भीष्म और द्रोणाचार्य को मुक्ति मिली। दोनों कराहते हुए नर्क के दरवाज़े से बाहर आये ही थे कि सामने कृष्ण को खड़ा देख चौंक उठे, भीष्म ने पूछा, "कन्हैया! पुत्र, तुम यहाँ?"

कृष्ण ने मुस्कुरा कर दोनों के पैर छुए और कहा, "पितामह-गुरुवर आप दोनों को लेने आया हूँ, आप दोनों के पाप का दंड पूर्ण हुआ।"

यह सुनकर द्रोणाचार्य ने विचलित स्वर में कहा, "इतने वर्षों से सुनते आ रहे हैं कि पाप किया, लेकिन ऐसा क्या पाप किया कन्हैया, जो इतनी यातनाओं को सहना पड़ा? क्या अपने राजा की रक्षा करना भी..."

"नहीं गुरुवर।" कृष्ण ने बात काटते हुए कहा, "कुछ अन्य पापों के अतिरिक्त आप दोनों ने एक महापाप किया था। जब भरी सभा में द्रोपदी का वस्त्रहरण हो रहा था, तब आप दोनों अग्रज चुप रहे। स्त्री के शील की रक्षा करने के बजाय चुप रह कर इस कृत्य को स्वीकारना ही महापाप हुआ।"

भीष्म ने सहमति में सिर हिला दिया, लेकिन द्रोणाचार्य ने एक प्रश्न और किया, "हमें तो हमारे पाप का दंड मिल गया, लेकिन हम दोनों की हत्या तुमने छल से करवाई और ईश्वर ने तुम्हें कोई दंड नहीं दिया, ऐसा क्यों?"

सुनते ही कृष्ण के चेहरे पर दर्द आ गया और उन्होंने गहरी सांस भरते हुए अपनी आँखें बंद कर उन दोनों की तरफ अपनी पीठ कर ली फिर भर्राये स्वर में कहा, "जो धर्म की हानि आपने की थी, अब वह धरती पर बहुत व्यक्ति कर रहे हैं, लेकिन किसी वस्त्रहीन द्रोपदी को... वस्त्र देने मैं नहीं जा सकता।"

कृष्ण फिर मुड़े और कहा, "गुरुवर-पितामह, क्या यह दंड पर्याप्त नहीं है कि आप दोनों आज भी बहुत सारे व्यक्तियों में जीवित हैं, लेकिन उनमें कृष्ण मर गया..."

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

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