देश-विदेश से कथाएं : गिने-चुने शब्दों में दीन-दुनिया की अनगिनत बातें
अगर आपके पास वक्त की कमी है, लेकिन कुछ अच्छा साहित्य पढ़ना चाहते हैं तो आपको ये लघुकथाएं जरूर पढ़नी चाहिए
Satyagrah | 05 मार्च 2017 |
संपादन : अशोक भाटिया
प्रकाशन : साहित्य उपक्रम
कीमत : 80 रुपये
कहने का अंदाज क्या हो, अक्सर खुद बात ही यह तय करती है. कभी कोई बात कविता में कही जाती है, तो कभी कहने के लिए कहानी, उपन्यास, नाटक, निबंध,लेख या फिर लघुकथा का सहारा लिया जाता है. इन विधाओं में लघुकथा को भले ही बाकियों जितना महत्व न मिला हो लेकिन यह साहित्य में आज भी जिंदा है. न सिर्फ भारत बल्कि दुनियाभर के साहित्य में लघुकथा ने अपनी उपस्थिति दर्ज की है.
‘देश-विदेश से कथाएं’ में अशोक भाटिया ने दुनियाभर के 66 लेखकों और 18भाषाओं की बहुत अच्छी लघुकथाएं संकलित की हैं. अंग्रेजी, रूसी, जर्मन, स्पेनिश, जापानी, अरबी, फारसी, चीनी आदि विदेशी भाषाओं की लघुकथाएं इस किताब में शामिल हैं तो वहीं हिन्दी-उर्दू के साथ दूसरी भारतीय भाषाओं की लघुकथाएं भी यहां मिलेंगी.
इन लघुकथाओं में जहां एक तरफ सामाजिक विसंगतियों और नैतिकता पर व्यंग्य है, वहीं दूसरी तरफ मानवीय मूल्यों को समाज में स्थापित करने की तीव्र इच्छा भी है. ऐसी ही बहुत अच्छी अरबी लघुकथा है, ‘पागलखाना’. खलील जिब्रान इस लघुकथा में सभ्य समाज के उन मूल्यों और अपेक्षाओं पर तंज कसते हैं, जिसमें खुद को श्रेष्ठ मानने वाला हर व्यक्ति दूसरे को अपने जैसा बनाने पर अमादा है. खलील जिब्रान तर्कसंगत तरीके से आदर्शां से भरी दुनिया को असली पागलखाना साबित कर देते हैं-
‘उस पागलखाने के बगीचे में एक युवक से मेरी भेंट हो गई... मैं उसकी बगल में ही बेंच पर जा बैठा और उससे पूछा, ‘अरे, तुम यहां कैसे आए?’...‘मेरे शिक्षक और तर्कशास्त्र के अध्यापक, सब के सब इस बात पर आमादा हैं कि वे मुझमें दर्पण की तरह अपना प्रतिबिम्ब देखें. इसलिए मुझे यहां आना पड़ा. यहां मैं अधिक सहज हूं. कम से कम यहां मेरा अपना व्यक्तित्व तो है.’अचानक मेरी ओर घूमकर वह बोला, ‘लेकिन यह बताइए, आप यहां कैसे आए ? क्या आपको भी आपकी शिक्षा और सद्बुद्धि ने यहां आने के लिए प्रेरित किया ?’
मैंने उत्तर दिया, ‘नहीं, मैं तो यहां एक दर्शक के रूप में आया हूं.’ उसने कहा, ‘समझा! आप इस चहारदीवारी के बाहर के विस्तृत पागलखाने के निवासी हैं.’
भारत-पाकिस्तान के प्रमुख प्रगतिशील कथाकार जोगिंदर पाल को इस विधा में खासा ऊंचा मुकाम हासिल है. इस किताब में उनकी दो लघुकथाएं शामिल हैं और दोनों ही दिल को बेहद छूने वाली हैं. ‘जागीरदार’ नाम की लघुकथा का अंत तो सुन्न कर देने वाला है. इसमें एक पिता अपनी 12-13 साल की बेटी के हाथ में एक चिठ्ठी देकर लेखक के पास भेजता है. चिठ्ठी में माली हालत का जिक्र करते हुए, कम से कम पांच रुपये देने की बात लिखी होती है. लेखक पांच रुपये दे देता है. फिर और भी कई बार वह लड़की ऐसी ही चिठ्ठी लेकर आती है, लेकिन अब लेखक उसे दो रुपये देकर भेज देता है. यह घटना कई बार दोहराई जाती है. फिर कई महीनों के बाद एक दिन वह व्यक्ति स्वयं लेखक के पास आता है और कहता है (लघुकथा की पंक्तियां) –
‘इस बार लड़की को चिठ्ठी देकर नहीं भेजा. आप ही हाजिर हो गया हूं. मुझे आपसे यह निवेदन करना है कि... ‘मैंने उसे दो रुपये देने के लिए जेब में हाथ डाला. ‘नहीं, ठहरिए, पहले मेरी विनती सुन लीजिए - मैं अपनी चिठ्ठियों में जो रकम लिखूं, कृपया आप वही भेजा करें.’
मैं उसकी तरफ हैरत और गुस्से से देखने लगा.
‘मेरी बेटी अब पूरी जवान हो चुकी है जनाब. आपको अब तो पूरे ही पैसे चुकाने होंगे.’
इस किताब में शामिल चीनी भाषा की लघुकथा ‘नींद’ पति-पत्नी के रिश्ते की बहुत ही प्यारी कहानी है. इसमें एक पति द्वारा अपनी पत्नी के लिए किए गए त्याग-भाव का छू लेने वाला वर्णन है. लियो टॉल्सटॉय की लघुकथा ‘बोझ’ एक घोड़े के माध्यम से मालिक की झूठी चिंता पर तंज करती है –
‘कुछ फौजियों ने दुश्मन के इलाके पर हमला किया तो एक किसान भागता हुआ खेत में अपने घोड़े के पास गया और उसे पकड़ने की कोशिश करने लगा, पर घोड़ा था कि उसके काबू में ही नहीं आ रहा था.
किसान ने उससे कहा, ‘मूर्ख कहीं के, अगर तुम मेरे हाथ न आये तो दुश्मन के हाथ पड़ जाओगे.’
‘दुश्मन मेरा क्या करेगा ?’ घोड़ा बोला.
‘वह तुम पर बोझ लादेगा और क्या करेगा’
‘तो क्या मैं तुम्हारा बोझ नहीं उठाता?’ घोड़े ने कहा, ‘मुझे क्या फर्क पड़ता है कि में किसका बोझ उठाता हूं.’
इस किताब में अशोक भाटिया ने काफी अच्छी लघुकथाओं को संकलित किया है. अपवाद छोड़कर लगभग सभी अनुवादकों ने अच्छा अनुवाद किया है. अरबी लघुकथाएं ‘पागल खाना’, ‘आजादी’, ‘वह पवित्र नगर; उर्दू भाषा की ‘जागीरदार, ‘नहीं रहमान बाबू; चीनी की ‘नींद’; रूसी की ‘बोझ; जर्मन की ‘कानून के मुहाने पर’; अंग्रेजी की ‘पिछले बीस वर्ष’, ‘ईसा के चित्र’, ‘रंग-भेद’; स्पेनिश की ‘आखिरी स्टेशन’; बांग्ला की ‘नीम का पेड़’; ‘हिंदी की ‘पेट का कछुआ‘, ‘पेट सबके हैं’, ‘बयान’, ‘बिना नाल का घोड़ा’, ‘कपों की कहानी’, ‘कसौटी’, ‘आग’; पंजाबी की ‘भगवान का घर’, ‘प्रताप’; तेलुगु की ‘स्पर्श’, ‘भोज्येषु माता’, ‘टैस्ट’; मलयाली की ‘उपनयन’; मराठी की ‘बकरी’, ‘सत्कार’; गुजराती की ‘विदाई’; कश्मीरी की ‘फाटक’ आदि लघुकथाएं पाठक की सीरत पर असर डालने वाली लगती हैं.
किताब की कीमत इसमें संकलित सामग्री के हिसाब से बहुत कम है. साहित्य उपक्रम इस मामले में साहित्य को समर्पित सच्चा प्रकाशन लगता है जो लोगों की जेब का ख्याल करके उन तक उत्कृष्ट साहित्य को पहुंचाने की दिशा में सराहनीय काम कर रहा है. किताब में सभी लेखकों के बारे में संक्षेप में बताया गया है. इतने सारे लेखकों का परिचय पढ़ना और साथ में उनके कृतित्व की बानगी देखना अपने आप में बेहद रोचक है. विश्व और हिंदी से इतर दूसरी भाषाओं की लघुकथाओं को एक साथ संकलित करना, इस संग्रह को और भी समृद्ध बनाता है. भागादौड़ी की दिनचर्या में पाठकों को साहित्य से जोड़े रखने को ये लघुकथाएं प्रेरित करती हैं. लगता है जैसे कहती हों, ‘हमें आपकी लंबी सिटिंग नहीं चाहिए, कभी भी, कहीं भी...आपका स्वागत है.’
Source:
https://satyagrah.scroll.in/article/105298/book-review-desh-videsh-se-kathayen-ashok-bhatiya
अगर आपके पास वक्त की कमी है, लेकिन कुछ अच्छा साहित्य पढ़ना चाहते हैं तो आपको ये लघुकथाएं जरूर पढ़नी चाहिए
Satyagrah | 05 मार्च 2017 |
संपादन : अशोक भाटिया
प्रकाशन : साहित्य उपक्रम
कीमत : 80 रुपये
कहने का अंदाज क्या हो, अक्सर खुद बात ही यह तय करती है. कभी कोई बात कविता में कही जाती है, तो कभी कहने के लिए कहानी, उपन्यास, नाटक, निबंध,लेख या फिर लघुकथा का सहारा लिया जाता है. इन विधाओं में लघुकथा को भले ही बाकियों जितना महत्व न मिला हो लेकिन यह साहित्य में आज भी जिंदा है. न सिर्फ भारत बल्कि दुनियाभर के साहित्य में लघुकथा ने अपनी उपस्थिति दर्ज की है.
‘देश-विदेश से कथाएं’ में अशोक भाटिया ने दुनियाभर के 66 लेखकों और 18भाषाओं की बहुत अच्छी लघुकथाएं संकलित की हैं. अंग्रेजी, रूसी, जर्मन, स्पेनिश, जापानी, अरबी, फारसी, चीनी आदि विदेशी भाषाओं की लघुकथाएं इस किताब में शामिल हैं तो वहीं हिन्दी-उर्दू के साथ दूसरी भारतीय भाषाओं की लघुकथाएं भी यहां मिलेंगी.
इन लघुकथाओं में जहां एक तरफ सामाजिक विसंगतियों और नैतिकता पर व्यंग्य है, वहीं दूसरी तरफ मानवीय मूल्यों को समाज में स्थापित करने की तीव्र इच्छा भी है. ऐसी ही बहुत अच्छी अरबी लघुकथा है, ‘पागलखाना’. खलील जिब्रान इस लघुकथा में सभ्य समाज के उन मूल्यों और अपेक्षाओं पर तंज कसते हैं, जिसमें खुद को श्रेष्ठ मानने वाला हर व्यक्ति दूसरे को अपने जैसा बनाने पर अमादा है. खलील जिब्रान तर्कसंगत तरीके से आदर्शां से भरी दुनिया को असली पागलखाना साबित कर देते हैं-
‘उस पागलखाने के बगीचे में एक युवक से मेरी भेंट हो गई... मैं उसकी बगल में ही बेंच पर जा बैठा और उससे पूछा, ‘अरे, तुम यहां कैसे आए?’...‘मेरे शिक्षक और तर्कशास्त्र के अध्यापक, सब के सब इस बात पर आमादा हैं कि वे मुझमें दर्पण की तरह अपना प्रतिबिम्ब देखें. इसलिए मुझे यहां आना पड़ा. यहां मैं अधिक सहज हूं. कम से कम यहां मेरा अपना व्यक्तित्व तो है.’अचानक मेरी ओर घूमकर वह बोला, ‘लेकिन यह बताइए, आप यहां कैसे आए ? क्या आपको भी आपकी शिक्षा और सद्बुद्धि ने यहां आने के लिए प्रेरित किया ?’
मैंने उत्तर दिया, ‘नहीं, मैं तो यहां एक दर्शक के रूप में आया हूं.’ उसने कहा, ‘समझा! आप इस चहारदीवारी के बाहर के विस्तृत पागलखाने के निवासी हैं.’
भारत-पाकिस्तान के प्रमुख प्रगतिशील कथाकार जोगिंदर पाल को इस विधा में खासा ऊंचा मुकाम हासिल है. इस किताब में उनकी दो लघुकथाएं शामिल हैं और दोनों ही दिल को बेहद छूने वाली हैं. ‘जागीरदार’ नाम की लघुकथा का अंत तो सुन्न कर देने वाला है. इसमें एक पिता अपनी 12-13 साल की बेटी के हाथ में एक चिठ्ठी देकर लेखक के पास भेजता है. चिठ्ठी में माली हालत का जिक्र करते हुए, कम से कम पांच रुपये देने की बात लिखी होती है. लेखक पांच रुपये दे देता है. फिर और भी कई बार वह लड़की ऐसी ही चिठ्ठी लेकर आती है, लेकिन अब लेखक उसे दो रुपये देकर भेज देता है. यह घटना कई बार दोहराई जाती है. फिर कई महीनों के बाद एक दिन वह व्यक्ति स्वयं लेखक के पास आता है और कहता है (लघुकथा की पंक्तियां) –
‘इस बार लड़की को चिठ्ठी देकर नहीं भेजा. आप ही हाजिर हो गया हूं. मुझे आपसे यह निवेदन करना है कि... ‘मैंने उसे दो रुपये देने के लिए जेब में हाथ डाला. ‘नहीं, ठहरिए, पहले मेरी विनती सुन लीजिए - मैं अपनी चिठ्ठियों में जो रकम लिखूं, कृपया आप वही भेजा करें.’
मैं उसकी तरफ हैरत और गुस्से से देखने लगा.
‘मेरी बेटी अब पूरी जवान हो चुकी है जनाब. आपको अब तो पूरे ही पैसे चुकाने होंगे.’
इस किताब में शामिल चीनी भाषा की लघुकथा ‘नींद’ पति-पत्नी के रिश्ते की बहुत ही प्यारी कहानी है. इसमें एक पति द्वारा अपनी पत्नी के लिए किए गए त्याग-भाव का छू लेने वाला वर्णन है. लियो टॉल्सटॉय की लघुकथा ‘बोझ’ एक घोड़े के माध्यम से मालिक की झूठी चिंता पर तंज करती है –
‘कुछ फौजियों ने दुश्मन के इलाके पर हमला किया तो एक किसान भागता हुआ खेत में अपने घोड़े के पास गया और उसे पकड़ने की कोशिश करने लगा, पर घोड़ा था कि उसके काबू में ही नहीं आ रहा था.
किसान ने उससे कहा, ‘मूर्ख कहीं के, अगर तुम मेरे हाथ न आये तो दुश्मन के हाथ पड़ जाओगे.’
‘दुश्मन मेरा क्या करेगा ?’ घोड़ा बोला.
‘वह तुम पर बोझ लादेगा और क्या करेगा’
‘तो क्या मैं तुम्हारा बोझ नहीं उठाता?’ घोड़े ने कहा, ‘मुझे क्या फर्क पड़ता है कि में किसका बोझ उठाता हूं.’
इस किताब में अशोक भाटिया ने काफी अच्छी लघुकथाओं को संकलित किया है. अपवाद छोड़कर लगभग सभी अनुवादकों ने अच्छा अनुवाद किया है. अरबी लघुकथाएं ‘पागल खाना’, ‘आजादी’, ‘वह पवित्र नगर; उर्दू भाषा की ‘जागीरदार, ‘नहीं रहमान बाबू; चीनी की ‘नींद’; रूसी की ‘बोझ; जर्मन की ‘कानून के मुहाने पर’; अंग्रेजी की ‘पिछले बीस वर्ष’, ‘ईसा के चित्र’, ‘रंग-भेद’; स्पेनिश की ‘आखिरी स्टेशन’; बांग्ला की ‘नीम का पेड़’; ‘हिंदी की ‘पेट का कछुआ‘, ‘पेट सबके हैं’, ‘बयान’, ‘बिना नाल का घोड़ा’, ‘कपों की कहानी’, ‘कसौटी’, ‘आग’; पंजाबी की ‘भगवान का घर’, ‘प्रताप’; तेलुगु की ‘स्पर्श’, ‘भोज्येषु माता’, ‘टैस्ट’; मलयाली की ‘उपनयन’; मराठी की ‘बकरी’, ‘सत्कार’; गुजराती की ‘विदाई’; कश्मीरी की ‘फाटक’ आदि लघुकथाएं पाठक की सीरत पर असर डालने वाली लगती हैं.
किताब की कीमत इसमें संकलित सामग्री के हिसाब से बहुत कम है. साहित्य उपक्रम इस मामले में साहित्य को समर्पित सच्चा प्रकाशन लगता है जो लोगों की जेब का ख्याल करके उन तक उत्कृष्ट साहित्य को पहुंचाने की दिशा में सराहनीय काम कर रहा है. किताब में सभी लेखकों के बारे में संक्षेप में बताया गया है. इतने सारे लेखकों का परिचय पढ़ना और साथ में उनके कृतित्व की बानगी देखना अपने आप में बेहद रोचक है. विश्व और हिंदी से इतर दूसरी भाषाओं की लघुकथाओं को एक साथ संकलित करना, इस संग्रह को और भी समृद्ध बनाता है. भागादौड़ी की दिनचर्या में पाठकों को साहित्य से जोड़े रखने को ये लघुकथाएं प्रेरित करती हैं. लगता है जैसे कहती हों, ‘हमें आपकी लंबी सिटिंग नहीं चाहिए, कभी भी, कहीं भी...आपका स्वागत है.’
Source:
https://satyagrah.scroll.in/article/105298/book-review-desh-videsh-se-kathayen-ashok-bhatiya
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