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बुधवार, 25 दिसंबर 2019

सुकेश साहनी की लघुकथाएँ नहीं पढ़नी चाहिए... | रवि प्रभाकर

सुकेश साहनी जी का लघुकथा संग्रह ‘साइबरमैन‘ और भगीरथ परिहार जी रचित ‘कथाशिल्पी सुकेश साहनी की सृजन-संचेतना‘ का परिचय रवि प्रभाकर जी ने अलग ही अंदाज में दिया है। रवि जी अपनी विस्तृत समीक्षा के लिए जाने जाते हैं, अपने अनूठे अंदाज से उन्होंने इन पुस्तकों को पढ़ने के लिए प्रेरित किया है। आइये पढ़ते हैं:

सुकेश साहनी की लघुकथाएँ नहीं पढ़नी चाहिए... | रवि प्रभाकर 

दिनांक 6 दिसंबर को आदरणीय सुकेश साहनी जी द्वारा भेजी पुस्तकें ‘साइबरमैन‘ और भगीरथ परिहार रचित ‘कथाशिल्पी सुकेश साहनी की सृजन-संचेतना‘ प्राप्त हुईं। अपरिहार्य कारणों के चलते घर से बाहर जाना पड़ा और 4-5 दिन पुस्तक पढ़ने का सौभाग्य नहीं मिला। मुझे याद है जब सातवीं या आठवीं कक्षा में था तब पिताजी ने नया लाल रंग का ‘जैंकी‘ साइकिल दिलवाया था। रात आठ बजे साइकल मिला था, सुबह तक इंतज़ार करना भारी हो गया था कि कब सुबह हो और कब साईकल   चलाऊं। लगभग साढ़े तीन दशक बाद वही बेचैनी और रोमांच महसूस हुआ जब ‘साइबरमैन‘ घर थी और मैं उसे पढ़ नहीं पा रहा था। ख़ुदा ख़ुदा करके दिन निकले और मैं घर वापिस आया। ‘अथ उलूक कथा‘ (प्रकाशन मार्च 1987) से लेकर ‘चिड़िया‘ (साहनी जी की नवीनतम कृति) तक सभी लघुकथाएँ और प्रो. बी.एल. आच्छा द्वारा लिखित ‘लघुकथा के धरातल और शिल्प की नवोन्मेषी ललक‘ पढ़ते-पढ़ते एक सप्ताह कैसे निकला पता ही नहीं चला। इन लघुकथाओं का ख़ुमार अभी तक है। ‘साइबरमैन‘ पढ़ने के बाद जो विचार सबसे पहले मन में आया वो है ‘सुकेश साहनी की लघुकथाएँ नहीं पढ़नी चाहिए।‘ क्योंकि साहनी जी को पढ़ने के बाद कोई सतही लघुकथाएँ पचा नहीं सकता। इन लघुकथाओं को पढ़ते-पढ़ते आप मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला। भाषायी आडम्बर से कोसों दूर, शिल्प के प्रति कोई विशेष आग्रह नहीं और सबसे बड़ी बात- इन लघुकथाओं के शीर्षक, कमाल! कमाल! कमाल! पृष्ठ 90 पर प्रकाशित ‘मरुस्थल‘ पढ़ने के बाद दिल से एक आह निकलने के साथ-साथ निकला ‘सुकेश साहनी जिन्दाबाद‘। 21 वर्ष पूर्व प्रकाशित लघुकथा ‘राजपथ‘ (प्रकाशन ‘हंस‘ अक्तूबर 98) पढ़कर कोई नहीं कह सकता कि ये आज के हालात पर लिखी नवीनतम लघुकथा है। यानी आज भी प्रासंगिक है। पृष्ठ 20 पर अंकित ‘ओएसिस‘ को पढ़कर समझ में आ जाता है कि लघुकथा सरीखी विधा में शीर्षक का क्या महत्त्व है। इस संकलन में 50 लघुकथाएँ शामिल है, जिन्हें पढ़ना अपने आपमें एक सीख है। सुकेश साहनी लघुकथा का ‘स्कूल‘ नहीं अपितु विश्वविद्यालय हैं। भगवान आपको दीर्घायु और आपकी कलम को बल बख़्शे।

हिन्दी साहित्य निकेतन, 16, साहित्य विहार, बिजनौर (उ.प्र.) द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक का मूल्य मात्र 250 रुपये है। हर लघुकथा अनुरागी के पास यह पुस्तक होनी ही चाहिए।

प्रस्तुत हैं इस संकलन में प्रकाशित दो लघुकथाएँ:

राजपथ
प्रजा बेहाल थी। दैवीय आपदाओं के साथ साथ अत्याचार, कुव्यवस्था एवं भूख से सैकड़ों लोग रोज़ मर रहे थे, पर राजा के कान पर तक नहीं रेंग रही थी। अंततः जनता राजा के ख़िलाफ़ सड़कों पर उतर आई। राजा और उसके मंत्रियों के पुतले फूंकती, 'मुर्दाबाद! मुर्दाबाद!!' के नारे लगाती उग्र भीड़ राजमहल की ओर बढ़ रही थी। राजमार्ग को रौंदते क़दमों की धमक से राजमहल की दीवारें सूखे पत्ते-सी काँप रही थीं। ऐसा लग रहा था कि भीड़ आज राजमहल की ईंट से ईंट बजा देगी।
तभी अप्रत्याशित बात हुई। गगनभेदी विस्फोट से एकबारगी भीड़ के कान बहरे हो गए, आँखें चौंधिया गईं। कई विमान आकाश को चीरते चले गए, ख़तरे का सायरन बजने लगा। राजा के सिपहसालार पड़ोसी देश द्वारा एकाएक आक्रमण कर दिए जाने की घोषणा के साथ लोगों को सुरक्षित स्थानों में छिप जाने के निर्देश देने लगे।
भीड़ में भगदड़ मच गई। राजमार्ग के आसपास खुदी खाइयों में शरण लेते हुए लोग हैरान थे कि अचानक इतनी खाइयाँ कहाँ से प्रकट हो गईं।
सामान्य स्थिति की घोषणा होते ही लोग खाइयों से बाहर आ गए। उनके चेहरे देशभक्ति की भावना से दमक रहे थे, बाँहें फड़क रही थीं। अब वे सब देश के लिए मर-मिटने को तैयार थे। राष्ट्रहित में उन्होंने राजा के ख़िलाफ़ अभियान स्थगित कर दिया था। देशप्रेम के नारे लगाते वे सब घरों को लौटने लगे थे।
राजमहल की दीवारें पहले की तरह स्थिर हो गई थीं। रातोंरात राजमार्ग के इर्द-गिर्द खाइयाँ खोदनेवालों को राजा द्वारा पुरस्कृत किया जा रहा था।
(हंस, अक्टूबर 98)

मरुस्थल
'जमना, तू क्या कहना चाह रही है?' 'मौसी, जे जो गिराहक आया है, इसे किसी और के संग मत भेजियो।'
'जमना, जे तू के रई हय? इत्ती पुरानी होके। हमारे लिए किसी एक गिराक से आशनाई ठीक नई।'
'अरे मौसी, तू मुझे गलत समझ रई है। मैं कोई बच्ची तो नहीं, तू किसी बात की चिंता कर। पर इसे मैं ही बिठाऊँगी।'
'वजह भी तो जानूँ?'
'वो बात जे है कि...कि...' एकाएक जमना का पीला चेहरा और फीका हो गया, आँखें झुक गईं, 'इसकी शक्ल मेरे सुरगवाली मरद से बहुत मिलती है। जब इसे बिठाती हूँ, तो थोड़ी देर के वास्ते ऐसा लगे है, जैसे मैं धंधे में नहीं अपने मरद के साथ घर में हूँ।'
'पर...पर...आज तो वह तेरे साथ बैठनाई नहीं चाह रिया, उसे तो बारह-चौदह साल की चइए।' 
(कथादेश, जनवरी 2019)




मंगलवार, 17 दिसंबर 2019

समीक्षा : लघुकथा कलश का चौथा अंक | महेंद्र कुमार

कई लोगों ने अपनी रचना प्रक्रिया में अपनी लघुकथा को प्राप्त हुए पुरस्कारों का भी वर्णन किया है जो पूर्णतः अनुचित है। इसी प्रकार कुछ लोग अपनी रचना प्रक्रिया में इस पर भी गर्व करते हुए पाए गए कि उन्होंने अपनी लघुकथा पर किसी से भी विचार-विमर्श नहीं किया है। मुझे नहीं लगता कि इसमें गर्व करने जैसी कोई भी चीज़ है।
महेंद्र कुमार (इस समीक्षा से)

लघुकथा को पूर्णतः समर्पित अर्द्धवार्षिक पत्रिका लघुकथा कलश का चौथा अंक (जुलाई-दिसम्बर 2019) इस मआनी में अनूठा है कि इसमें लघुकथाओं के साथ-साथ उनके बनने की कहानियाँ भी दी गयी हैं जिनसे अक्सर पाठक अनजान ही रह जाता है। रचना प्रक्रिया पर आधारित यह अंक जैसे ही मेरे हाथ में आया मैं इसे पढ़ गया, तीन दिनों के अन्दर। फिर पाठकीय प्रतिक्रिया देने में इतनी देर क्यों? अल्जीरियाई दार्शनिक अलबैर् कामू ने कभी कहा था, "हर कलाकार के हृदय की गहराइयों में कहीं एक दरिया बहता है और जब तक वह जीता है अपने इसी दरिया के पानी से प्यास बुझाता है। जब भी उसका यह दरिया सूखता है, तब हम उसके लेखन की धरती में उभरती हुई दरारों को समझ पाते हैं।" मैं एक लेखक तो नहीं पर एक पाठक ज़रूर हूँ और दरिया सिर्फ़ लेखकों का ही नहीं बल्कि पाठकों के हृदय का भी सूखता है। कई बार इसी वजह से वो पाठकीय प्रतिक्रिया तक नहीं दे पाता। वैसे ये दरिया सूखता ही क्यों है? और इससे जो दरारें उभर कर आती हैं वो कितनी गहरी होती हैं? शायद ऐसे ही सवालों को समझने के लिए जीवनियाँ लिखी जाती हैं। कई बार इस दरिया में पानी वापस आ जाता है तो कई बार नहीं भी आ पाता। कितना आता है, सवाल यह भी है। ख़ैर, पूर्व अंकों की भांति इस रचना प्रक्रिया विशेषांक में भी प्रचुर सामग्री मौजूद है जो आपके हृदय में बहने वाले दरिया में पानी की मात्रा को बढ़ाएगी ही। उदाहरण के लिए, पत्रिका में शामिल सामग्री की एक संक्षिप्त सूची इस प्रकार है :

(1) 04 विशिष्ट लघुकथाकार (जसबीर चावला, प्रताप सिंह सोढ़ी, रूप देवगुण व हरभजन खेमकरणी) और उनकी रचना प्रक्रिया।
(2) 06 पुस्तकों (मेरी प्रिय लघुकथाएँ - प्रताप सिंह सोढ़ी, माटी कहे कुम्हार से - डॉ. चंद्रा सायता, गुलाबी छाया नीले रंग - आशीष दलाल, किन्नर समाज की लघुकथाएँ - डॉ. रामकुमार घोटड़, डॉ. लता अग्रवाल, कितना कारावास - मुरलीधर वैष्णव, सब ख़ैरियत है - मार्टिन जॉन) की समीक्षाएँ क्रमशः प्रो. बी.एल. आच्छा, अंतरा करवड़े, रजनीश दीक्षित, कल्पना भट्ट, प्रो. बी.एल. आच्छा और रवि प्रभाकर द्वारा।
(3) लघुकथा कलश के तृतीय अंक की समीक्षाएँ – मृणाल आशुतोष, कल्पना भट्ट, दिव्य राकेश शर्मा, लाजपत राय गर्ग, डॉ. नीरज सुधांशु और डॉ. ध्रुव कुमार द्वारा।
(4) 126 लेखकों की लघुकथाएँ और उनकी रचना प्रक्रिया।
(5) 08 नेपाली लेखकों – खेमराज पोखरेल, टीकाराम रेगमी, नारायण प्रसाद निरौला, राजन सिलवाल, राजू क्षेत्री 'अपूरो', रामकुमार पण्डित क्षत्री, रामहरि पौड्याल तथा लक्ष्मण अर्याल – की रचना प्रक्रिया सहित कुल नौ लघुकथाएँ।


इस पत्रिका का जो स्तम्भ मैं सबसे पहले पढ़ता हूँ वो इसका सम्पादकीय है और इसकी वजह हैं इसके सम्पादक योगराज प्रभाकर। इन्होंने न केवल मुझे लघुकथा का ककहरा सिखाया है बल्कि प्रोत्साहित भी किया है। पर सम्पादकीय पढ़ने की वजह यह नहीं है बल्कि यह है कि ये बेहद सरल भाषा में अपनी बात कहते हैं और वो भी पूरी साफ़गोई से। यह साफ़गोई ही है जो कई बार लोगों को पसन्द नहीं आती। इस पर हफ़ीज़ मेरठी का एक शे'र है जो मुझे याद आ रहा है, रात को रात कह दिया मैंने, सुनते ही बौखला गयी दुनिया।

सम्पादकीय से तीन महत्त्वपूर्ण बातें उभर कर आती हैं जो क्रमशः शिल्प, कथानक और शीर्षक से सम्बन्धित हैं :

1. सत्य घटना और लघुकथा में अन्तर होता है और ये अन्तर उतना ही होता है जितना कि एक मकड़ी और उसके जाले में। इस बात को आप इस अंक की कई रचना प्रक्रियाओं में महसूस कर सकते हैं जहाँ लघुकथा लघुकथा कम और घटना ज़ियादा प्रतीत होती है। इसके पीछे का प्रमुख कारण यह है कि लोग इस पर तो ध्यान देते हैं कि उन्हें 'क्या कहना है', मगर इस पर नहीं कि 'कैसे कहना है'। मधुदीप गुप्ता के शब्दों में, "किसी भी घटना को तुरन्त लिख देना पत्रकारिता की श्रेणी में आता है और वह सृजनात्मक लेखन नहीं होता।" सृजनात्मक लेखन के लिए कल्पनाशीलता अहम है। यह कल्पनाशीलता ही है जो किसी मिट्टी को अलग-अलग रूप दे कर बाज़ार को समृद्ध करती है।

2. दूसरी महत्त्वपूर्ण बात 'क्या कहना है' से सम्बन्धित है। निश्चित तौर पर लोग कथानक चयन पर ध्यान देते हैं पर कई बार वो आत्म-मोह से ग्रसित भी हो जाते हैं जिसकी वजह से उनकी रचनाएँ उनके जीवन-अनुभवों के आस-पास तक ही सीमित हो कर रह जाती हैं। हाँ, अगर किसी के अनुभवों का फ़लक विस्तृत हो तो यह बुरा नहीं है पर अक्सर ऐसा होता नहीं। वैसे तो यह बात पुरुष और महिला दोनों लघुकथाकारों पर समान रूप से लागू होती है पर सम्पादक ने यहाँ पर महिला लघुकथाकारों को विशेष रूप से इंगित किया है। उन्हीं के शब्दों में, "मैं महिला लघुकथाकारों से करबद्ध प्रार्थना करना चाहूँगा कि भगवान के लिए! अब भिंडी-तोरई, आलू-मेथी, तड़का-छौंक, चाय-पकौड़े, सास-बहू, ननद-जेठानी आदि से बाहर निकलें। लघुकथा इन विषयों से कहीं आगे पहुँच चुकी है, अतः वे भी अब रसोई की दुनिया से बाहर झाँकना शुरू करें।" ऊपर मैंने जिस साफ़गोई की बात की है आप उसे साफ़-साफ़ यहाँ पर देख सकते हैं। सम्पादकीय का शीर्षक 'दिल दिआँ गल्लाँ' इस अर्थ में बिल्कुल सटीक है। फ़िलहाल मैं सम्पादक की इस बात से ख़ुद को सहमत होने से नहीं रोक पा रहा हूँ कारण यह है कि मैंने स्वयं अधिकांश (सभी नहीं और इनमें से कुछ इस अंक में शामिल भी हैं) महिला लघुकथाकारों की रचनाएँ इन्हीं विषयों पर केन्द्रित देखी हैं। सम्पादक की इस बात को कई लोगों ने अन्यथा ले लिया जो सर्वथा अनुचित है। भावनाओं के ज्वार में बह कर यह कहना कि बिना रसोई के किसी का काम ही नहीं चल सकता इसलिए हम इसी पर लिखेंगे से कई गुना बेहतर है कि हम अपनी बात तार्किक रूप से ठोस तथ्यों के आधार पर कहें। यहाँ पर मैं अरुंधति रॉय का नाम लेना चाहूँगा जिनसे न सिर्फ़ महिला बल्कि पुरुष लघुकथाकार भी बहुत कुछ सीख सकते हैं।

3. सम्पादकीय से उभर कर आने वाली तीसरी महत्त्वपूर्ण बात शीर्षक चयन से सम्बन्धित है। वैसे इस मामले में मेरा हाथ भी तंग ही है। शीर्षक की बात चली है तो मैं ये बताना चाहूँगा कि इस अंक में तीन लघुकथाएँ एक ही शीर्षक (बोहनी) से मौजूद हैं जो निश्चित रूप से उस चिन्ता को बल देती हैं जो सम्पादकीय में व्यक्त की गयी है। शीर्षक सम्बन्धी कुछ महत्त्वपूर्ण बातें हमें विभिन्न रचना प्रक्रियाओं में भी देखने को मिल जाती हैं जैसे शीर्षक का चयन कब करना चाहिए, लिखने से पहले या लिखने के बाद? कुछ लोग शीर्षक पर लघुकथा लिखने से पहले ही विचार कर लेते हैं जैसे अरुण धर्मावत और नीना छिब्बर वहीं कुछ लोग लघुकथा लिखने के बाद शीर्षक पर विचार करते हैं जैसे कि चंद्रेश कुमार छतलानी।

यूँ तो लगभग सभी की लघुकथाएँ और उनकी रचना प्रक्रिया पठनीय हैं फिर भी अशोक भाटिया, बलराम अग्रवाल, मधुदीप गुप्ता, माधव नागदा, योगराज प्रभाकर, रवि प्रभाकर, रामेश्वर कम्बोज 'हिमांशु', सतीशराज पुष्करणा, सुकेश साहनी और सूर्यकांत नागर की रचना प्रक्रिया विशेष दर्शनीय हैं। यदि पुस्तक समीक्षाओं की बात की जाए तो मुझे रवि प्रभाकर की समीक्षा ने विशेष प्रभावित किया। योगराज प्रभाकर द्वारा अशोक भाटिया की पुस्तक 'बालकांड' की काव्यात्मक समीक्षा अलग होने के कारण विशिष्ट लगी।

पत्रिका को पढ़ने के क्रम में मैं जब मुकेश शर्मा की लघुकथाएँ पढ़ रहा था तो एक चीज़ मुझे खटकी और वो था उनकी दोनों लघुकथाओं में एक ही वाक्य का अक्षरशः प्रयोग – "अँधा क्या चाहे, दो आँखें।" यह कोई बड़ा दोष नहीं है पर मुझे लगता है कि इससे बचा जा सकता था। बाकी हल्के-फुल्के अन्दाज़ में लिखी गयीं उनकी दोनों लघुकथाएँ मज़ेदार हैं। 'दिल की दुनिया' में अक्सर लोगों के 'प्यार का एकाउण्ट' क्लोज़ हो जाता है भले उस खाते में कितना ही एमाउण्ट क्यों न हो। रही बात जन धन खाते वालों की तो उन्हें इससे दूर ही रहना चाहिए। इसी प्रकार, रामनिवास 'मानव' जहाँ एक ओर अपनी लघुकथा 'टॉलरेन्स' की रचना प्रक्रिया में यह कहते हैं कि "हमने कोई फ़िल्म देखी थी, शायद किसी क्रान्तिकारी पर आधारित 'शहीद' फ़िल्म थी।" वहीं अपनी लघुकथा में यह भी लिखते हैं कि "भगत सिंह के साथ दुर्व्यवहार किया जाता है।" ऐसा कैसा हो सकता है कि आपको लघुकथा में तो नाम पता हो किन्तु रचना प्रक्रिया में आप नाम भूल जाएँ? निश्चित ही यह टंकण त्रुटी है पर इस स्तर पर थोड़ी सावधानी बरतनी चाहिए।

लेखकों की रचना प्रक्रिया से कई बातें निकल कर आती हैं। जैसे लघुकथा कथानक आते ही लिख लेना चाहिए या उसे काग़ज़ पर तब उतारना चाहिए जब वो पूरी तरह मस्तिष्क में पक जाए? तारिक़ असलम तस्नीम पहली तरह के लेखक हैं। वो न सिर्फ़ किसी रचना के सृजन से पहले ही उसके आरम्भ से अन्त तक की रूपरेखा सुनिश्चित करने को गैरज़रूरी मानते हैं बल्कि यह भी कहते हैं कि यदि ऐसा होता है तो वह रचना सकारात्मक कम आत्माभिव्यक्ति अधिक सिद्ध होगी। निरंजण बोहा दूसरे तरीके के समर्थक हैं। उन्हीं के शब्दों में, "मैं सदैव लघुकथा के लिए कोई विषय सूझने और उसे काग़ज़ पर उतारने के मध्य एक उचित अन्तराल अवश्य रखता हूँ।" इस दूसरी क़तार में रवि प्रभाकर भी आते हैं। यही कारण है कि उन्होंने लघुकथा को दीर्घ साधना कहा है।

लघुकथा क्या है? इसे समझाने के लिए कई परिभाषाएँ दी जाती हैं। एक ऐसी ही परिभाषा मनु मनस्वी ने भी दी है। उनके अनुसार, "लघुकथा हाइकु की भांति हो, संक्षिप्ततम और पूर्ण, जिसमें कोई भी ऐसा शब्द न आए, जिसके बिना भी बात कही जा सकती हो।" हाइकु जापानी कविता की एक विधा है जिसमें संक्षिप्तता का विशेष ध्यान रखा गया है। संक्षिप्तता की यही ख़ूबी लघुकथा में भी पायी जाती है। पर लघुकथा में सबकुछ लघु नहीं होता। अक्षय तूणीर की इस बात से मैं भी पूरी तरह सहमत हूँ कि लघुकथा का आकार तो लघु हो सकता है किन्तु चिन्तन नहीं। अगर चिन्तन को ही लघुकथा का केन्द्रीय तत्त्व कहा जाए तो गलत नहीं होगा। निरंजण बोहा के शब्दों में, "लघुकथा लिखते हुए मैं सबसे अधिक महत्त्व 'विचार' को देता हूँ, अतः मैं अपनी उन्हीं लघुकथाओं को सफल मानता हूँ जिनमें निहित विचार अथवा दर्शन का मानवोत्थान में कोई योगदान हो।" छोटी चीज़ों को तुच्छ समझना हमारे समाज की ख़ास विशेषता रही है। यही कारण है कि बहुतेरे पाठक लघुकथा में 'लघु' शब्द पर विशेष ज़ोर देते हुए इसे साहित्य की एक छोटी विधा मान लेने की भूल कर बैठते हैं। कुछ लघुकथाकारों द्वारा स्वयं को लघुकथाकार न कहलवाने की इच्छा के पीछे का प्रमुख कारण भी यही है।

जितना ज़रूरी लघुकथा का प्रभावशाली अन्त करना होता है उतना ही ज़रूरी उसकी अच्छी शुरुआत करना भी है। लघुकथा की शुरुआत कहाँ से करनी चाहिए और कहाँ पर उसका अन्त, इसका एक अच्छा उदाहरण है मिर्ज़ा हाफ़िज़ बेग़ की लघुकथा 'बोहनी' और उसकी रचना प्रक्रिया। लिखने के बाद लिखे हुए को प्रकाशित करवाने की बारी आती है जहाँ अक्सर नवोदित जल्दबाज़ी कर बैठते हैं। उन्हें चेतावनी देते हुए रामेश्वर कम्बोज 'हिमांशु' कहते हैं कि "अगम्भीर लेखक लिखते ही लघुकथा को कहीं-न-कहीं भेजकर मुक्ति पाना चाहता है। उसमें अपनी ही रचना को दुबारा पढ़ने का धैर्य नहीं है, जबकि अपनी रचना से दुबारा गुज़रना सधे हुए लेखक के लिए ज़रूरी है।" इसी तरह वो लोग जिन्हें लगता है कि उनकी हर रचना कालजयी होती है को सविता इन्द्र गुप्ता की बात याद रखनी चाहिए। वो कहती हैं, "एक मुकम्मल लघुकथा लिखना सम्भव कहाँ होता है? लेखकों की सारी उम्र बीत जाती है, तब वे दो-तीन कालजयी और सात-आठ मुकम्मल लघुकथाएँ रचने में सफल हो पाते हैं।"

कई लोगों ने अपनी रचना प्रक्रिया में अपनी लघुकथा को प्राप्त हुए पुरस्कारों का भी वर्णन किया है जो पूर्णतः अनुचित है। इसी प्रकार कुछ लोग अपनी रचना प्रक्रिया में इस पर भी गर्व करते हुए पाए गए कि उन्होंने अपनी लघुकथा पर किसी से भी विचार-विमर्श नहीं किया है। मुझे नहीं लगता कि इसमें गर्व करने जैसी कोई भी चीज़ है। अगर आप कहानियाँ लिखते हों और आपके पास विचार-विमर्श के लिए मंटो मौजूद हों, तो? क्या आप उनसे चर्चा-परिचर्चा नहीं करेंगे? हमें यह याद रखना चाहिए कि जितना गौरवपूर्ण किसी से विचार-विमर्श न करना है उससे कहीं ज़ियादा दुर्भाग्यपूर्ण है किसी ऐसे का अपने आस-पास न होना जिसके साथ हम साहित्यिक और बौद्धिक चर्चा कर सकें। किसी भी क़िले को बिना किसी मदद के अकेले फ़तह करना अच्छी बात है पर उसका डंका हमें ख़ुद नहीं पीटना चाहिए।

इस अंक में नाचीज़ की भी दो लघुकथाएँ और उनकी रचना प्रक्रिया शामिल हैं। कई लोगों को लगता है कि मैं बहुत कठिन लिखता हूँ। यह स्थिति किसी भी लेखक के लिए गर्व की बात नहीं है जब तक कि वो ग़ालिब न हो। वो लोग जिन्हें ऐसा लगता है कि मैं कठिन लिखता हूँ से अनुरोध है कि वो इन दोनों लघुकथाओं के साथ उनकी रचना प्रक्रिया को पढ़ कर अपने अमूल्य मत से अवगत कराएँ जिससे कि अपेक्षित सुधार किया जा सके। ये दोनों लघुकथाएँ और उनकी रचना प्रक्रिया इस पोस्ट (Facebook Post: https://www.facebook.com/idrmkr/posts/2630671406979322) में संलग्न हैं। अपनी बात मैं ख़ुद को उस शे'र से अलग करते हुए ख़त्म करना चाहूँगा जो ग़ालिब ने अपने लेखन में मआनी न होने पर कहा था, न सताइश की तमन्ना न सिले की परवा, गर नहीं है मिरे अशआर में मअ'नी न सही।

- महेंद्र कुमार 

मंगलवार, 17 सितंबर 2019

समीक्षा | लघुकथा कलश रचना प्रक्रिया महाविशेषांक | ज्ञानप्रकाश 'पीयूष'



14 सितंबर हिंदी दिवस के यादगार अवसर पर प्रो. रूप देवगुण के द्वारा लघुकथा कलश का 'रचना-प्रक्रिया महाविशेषांक प्राप्त हुआ। दो दिन तक श्री युवक साहित्य सदन, सिरसा में हिंदी दिवस व पुस्तक लोकार्पण समारोह की बड़ी धूमधाम रही।
आज लघुकथा कलश का रचना -प्रक्रिया महाविशेषांक पढ़ने का सुअवसर मिला। सम्पादकीय और कतिपय लघुकथाएँ पढ़ने के उपरांत निरापद रूप से कहा जा सकता है कि प्रस्तुत अंक बहुत उत्कृष्ट,आकर्षक एवं सुन्दर है। विविध विषय-वस्तुओं व शिल्पादि से सुसज्जित यह अंक पूर्व अंकों से बेहतर है। सुन्दर छपाई , आकर्षक मुख्य आवरण पृष्ठ, वर्तनी की परिशुद्धता,उत्कृष्ट कागज़, वरिष्ठ एवं नवोदित लघुकथाकारों की श्रेष्ठ रचनाओं को बिना भेद-भाव के नाम के वर्णक्रमानुसार अंक में स्थान मिलना आदि विशिष्टताएँ लोकतांत्रिक मूल्यों की जीवंतता की परिचायक हैं और प्रस्तुत अंक की खूबसूरती भी।
श्री योगराज प्रभाकर की श्रमनिष्ठा एवं लग्न का जादू सिर पर चढ़ कर बोल रहा है तथा दूरदृष्टि ,पक्का इरादा और साहित्य-सेवा का विशाल जज़्बा सर्वत्र परिलक्षित हो रहा है।

सम्पादकीय पढ़ने से ही इसकी गुणवत्ता का अंदाजा लगाया जा सकता है।नवोदित लघुकथाकारों के लिए यह संजीवनी के समान है। श्री योगराज प्रभाकर जी 'दिल दियाँ गल्लाँ... में रचना-प्रक्रिया महाविशेषांक के मूल अभिप्रेत पर प्रकाश डालते हुए लिखते हैं, "साहित्य- सृजन अभिव्यंजना से अभिव्यक्ति तक का सफ़र है। जब अभिव्यक्ति का कद अभिव्यंजना के कद की बराबरी कर ले तब जाकर कोई कृति एक कलाकृति का रूप धारण करती है । कृति से कलाकृति बनने का मार्ग अनेक पड़ावों से होकर गुजरता है। वे पड़ाव कौन-कौन से हैं, यही जानने के लिए इस अंक की परिकल्पना की गई थी।"

उक्त मन्तव्य के आधार पर निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि वे अपने मूल अभिप्रेत में पूर्णतया सफल हुए हैं। जिज्ञासा व कौतूहल-वश सम्पादकीय के तुरन्त पश्चात सर्व प्रथम मैंने उनकी 'फक्कड़ उवाच' व 'तापमान' लघुकथाएं पढ़ीं।
अधिकांशतः इनकी लघुकथाएं पात्रानुकूल एवं मनोवैज्ञानिक संवादों से सृजित,संवेदना के रस से अभिसिंचित पाठकों के मन के तारों को झंकृत करती हुई , जिज्ञासा एवं कौतूहल का सृजन करती हैं तथा वांछित प्रभाव डाल कर अपने अभिप्रायः व अभिप्रेत को क्षिप्रता से अभिव्यंजित कर डालती हैं। पढ़ कर बड़ा सुकून मिलता है।
अंक में 126 लघुकथाकारों की रचनाएं , नेपाली- लघुकथाएं ,समीक्षाएं आदि समाविष्ट हैं जिन्हें पढ़ने के लिए मन बड़ा व्यग्र एवं उत्सुक है।
इनमें मेरी भी एक लघुकथा एवं रचना- प्रक्रिया सम्मलित की गई है ,इसके लिए मैं 'प्रभाकर' जी का हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ तथा समस्त रचनाकारों को हार्दिक बधाई अर्पित करता हूँ,जिनकी रचनाएँ इस अंक में प्रकाशित हुई हैं।
आशा करता हूँ भविष्य में इससे भी बेहरत महाविशेषांक पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त होगा।
श्री योगराज प्रभाकर जी की दीर्घायु एवं स्वस्थ जीवन की मंगलमय शुभकामनाएं।

ज्ञानप्रकाश 'पीयूष'
17.09.19.

शनिवार, 13 जुलाई 2019

लघुकथा 'दंगे की जड़' पर रजनीश दीक्षित जी की समीक्षा

रजनीश दीक्षित जी की समीक्षा
लघुकथा - दंगे की जड़
लेखक: चंद्रेश_छतलानी_जी
शब्द_संख्या - 236

मैंने बचपन में एक बड़ी ताई जी के बारे में सुना था कि उनको अक्सर लोगों से झगड़ने की आदत थी। लोगों से किस बात पर झगड़ा करना है, उनके लिए कारण ढूंढना कोई बड़ी बात नहीं थी। एक बार की बात है कि कुछ लड़के गली में गुल्ली-डंडा खेल रहे थे। अचानक एक लड़के ने गुल्ली को बहुत दूर तक पहुंचा दिया। बस ताई जी ने लड़कों को आड़े हांथों ले लिया। बोलीं, "खेलना बंद करो"। जब लड़कों ने कारण पूछा तो बोलीं, "अगर मेरी बेटी आज ससुराल से घर आ रही होती तो उसको चोट लग सकती थी।" बेचारे लड़के अपना सिर खुजलाते अपने घरों की ओर चले गए। लड़कों को पता था कि यदि बहस में पड़े तो दंगे जैसे हालात हो सकते हैं।
...आज हमारे देश में ऐसी ताइयों की कमी थोड़े ही है। इस स्वभाव के लोगों को राजनीति में स्वर्णिम अवसर भी प्राप्त हो रहे हैं। आखिर इसी की तो कमाई खा रहे हैं लोग। सुना है अंग्रेजों ने हमारा देश 1947 में छोड़ दिया था लेकिन अफसोस तो इस बात का है कि जाते-जाते वे हमें "फूट डालो और राज करो" का मंत्र सिखा कर गए। इसका अनुसरण करने में फ़ायदे ही फायदे जो हैं। इसके लिए नेताओं को कुछ खास करना भी नहीं है। पांच साल सत्ता का सुख भोगिये और चुनाव से पहले धर्म-जाति के नाम पर शिगूफे छोड़िए, बहुत संभावना है कि अगली सरकार आपकी ही बने। हाँ, यह उनकी दक्षता पर निर्भर करता है कि किसने कितनी बेशर्मी से इस मंत्र का प्रयोग किया। 'जीता वही सिकंदर' वाली बात तो सही है लेकिन जो हार गए वह भी कोई दूध के धुले नहीं हैं। उन्होंने भी आजकल बगुला भगत वाला चोला पहना हुआ है।
मैंने एक पंडित जी के बारे में सुना है कि वे बड़े ही धार्मिक और पाक साफ व्यक्ति हैं। वह केवल बुधवार को ही मांस-मछली खाते हैं, बाकी सब दिन प्याज भी नहीं। लेकिन बुधवार को भी इस बात का पूरा ध्यान रखते हैं कि जब मांस-मछली का सेवन करते हैं तो जनेऊ को उतार देते हैं और बाद में अच्छी तरह से हाथ धोने के बाद ही जनेऊ पहनते हैं। इन्हें संभवतः अपने धर्म की अच्छाईयों के बारे में न भी पता हो लेकिन दूसरे धर्मों में क्या बुराइयां हैं, इन्हें सब पता है। यह हाल केवल या किसी एक धर्म के तथाकथित ठेकेदारों के नहीं हैं। कमोवेश यही हाल सब जगह है। इस तरह के पाखंडियों का क्या कहिये? आश्चर्य की बात तो यह है कि ऐसे पाखंडी लोगों के बड़े-बड़े आश्रम हैं, मठ हैं, इज्जत है, पैसा है और भक्तों की बड़ी भीड़ भी है। अब ऐसे ही चरित्र वालों को जगह मिल गयी है राजनीति में। वर्तमान समय में राजनीति में धर्म है या धर्म में राजनीति, यह पता लगाना बहुत ही मुश्किल है क्योंकि इनका गठजोड़ रसगुल्ले और चाशनी जैसा हो गया है। खैर...
यह बात किसी के भी गले नहीं उतरेगी कि आखिर रावण के पुतले को आग लगाने वाला सिर्फ आतंकवादी इसलिए करार दिया गया क्योंकि वह किसी और धर्म का है। सुना है कि आतंकी का कोई धर्म नहीं होता तो फिर बुराई खत्म करने वाले का धर्म कैसे निश्चित हो गया। और वैसे भी जब रावण बुराई का प्रतीक है तो फिर उसका धर्म कैसे निश्चित हो गया? और इस तर्ज पर यह जरूरी क्यों है कि आप उसे किसी धर्म का माने? और जो बुरा व्यक्ति जब आपके धर्म का है ही नहीं तो फिर उसे किस धर्म के व्यक्ति ने मारा? इस प्रश्न का औचित्य ही क्या रह जाता है? लेकिन नहीं, साहब। ये तो ठहरे राजनेता। इन्हें तो मसले बनाने ही बनाने हैं। कैसे भी हो, इनके मतलब सिद्ध होने चाहिए।
वैसे भी आजकल रावण दहन के प्रतीकात्मक प्रदर्शनों का कोई महत्व नहीं रह गया है उल्टे अनजाने ही सही वायु प्रदूषण का कारण बनता है सो अलग। क्योंकि जिनके करकमलों द्वारा इस कार्य को अंजाम दिया जाता है, उनके अंदर कई गुना बड़ा रावण (अपवादों को छोड़कर) दबा पड़ा है। रावण का चरित्र तो कम से कम ऐसा था कि उसने सीता को हरण करने के बाद भी कभी भी जबरन कोई गलत आचरण नहीं किया और वह इस आस में था कि एकदिन वह उसे स्वीकार करेंगी लेकिन क्या आजकल के धर्म या राजनीति के ठेकेदारों से ऐसी कोई उम्मीद की जा सकती है? शायद नहीं।
....तो फिर क्या आपत्ति है? और यह जानने की भी आवश्यकता क्या है कि रावण को किसने जलाया? क्या यह काफी नहीं है कि रावण जला दिया गया? यह जरूर काफी होगा उस सामान्य जनमानस के लिए जिसे बुराईयों से असल में नफरत है। लेकिन ये ठहरे नेता। इन्हें तो मजा ही तबतक नहीं आता जबतक समाज में जाति-धर्म के नाम पर तड़का न लगे। आदमी की खुशबू आयी नहीं कि सियार रोने लगे जंगल में, टपकने लगी लार। माना कि पुलिस ने उस तथाकथित आतंकवादी को पकड़ भी लिया है तो यह तो पुलिसकर्मियों की जिम्मेदारी है कि वे अपनी तरफ से तफ्तीश करें और जो कानूनन ठीक हो, उसके हिसाब से सजा मिले। लेकिन....फिर वही। यही तो राजनीति का चारा है। इतिहास गवाह है कि कितने ही अनावश्यक दंगे इन राजनैतिक दलों ने अपने लाभ के लिए कराए हैं। लेकिन...इनका अपना जमीर इनका खुद ही साथ नहीं देता है। ये तो अपने खुद के कर्मो से अंदर ही अंदर इतने भयभीत हैं कि इनकी इतनी भी हिम्मत नहीं है कि ये किसी पाक-साफ आदमी से नजर मिलाकर बात भी कर सकें। आखिर साधारण और सरल आदमी को मंदबुद्धि भी इसीलिए कहा जाता है क्योंकि उसके अंदर छल और प्रपंच नहीं होता। लेकिन बुराई को पहचानना किसी स्कूल में नहीं सिखाया जाता। उसके लिए हमारा समाज ही बहुत है। तभी तो उस मंदबुद्धि के बालक ने बुराई के प्रतीक रावण के पुतले को जला डाला था। जब वह मंदबुद्धि ही था तो संभव है कि उसे अपने धर्म का भी न पता हो लेकिन अच्छाई और बुराई का ज्ञान किसी भी धर्म के व्यक्ति को हो ही जाता है। इसके लिए किसी खास बुद्धिमत्ता की आवश्यकता नहीं है। उसने रावण को जला डाला और छोड़ दिया अनुत्तरित प्रश्न, इस स्वीकरोक्ति के साथ कि "हाँ, मैंने ही जलाया है रावण को। क्या मैं, राम नहीं बन सकता?"
यह ऐसा यक्ष प्रश्न है कि अगर इसका उत्तर खोज लिया है तो "दंगे की जड़ों" का अपने आप ही सर्वनाश हो जाये।
मैं चंद्रेश छतलानी जी को पुनः एक अच्छी लघुकथा के लिए बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ।
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लघुकथा: दंगे की जड़ / डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

आखिर उस आतंकवादी को पकड़ ही लिया गया, जिसने दूसरे धर्म का होकर भी रावण दहन के दिन रावण को आग लगा दी थी। उस कृत्य के कुछ ही घंटो बाद पूरे शहर में दंगे भड़क उठे थे।

आतंकवादी के पकड़ा जाने का पता चलते ही पुलिस स्टेशन में कुछ राजनीतिक दलों के नेता अपने दल-बल सहित आ गये, एक कह रहा था कि उस आतंकवादी को हमारे हवाले करो, हम उसे जनता को सौंप कर सज़ा देंगे तो दूसरा उसे न्यायालय द्वारा कड़ी सजा देने पक्षधर था, वहीँ तीसरा उस आतंकवादी से बात करने को उत्सुक था।

शहर के दंगे ख़त्म होने की स्थिति में थे, लेकिन राजनीतिक दलों के यह रुख देखकर पुलिस ने फिर से दंगे फैलने के डर से न्यायालय द्वारा उस आतंकवादी को दूसरे शहर में भेजने का आदेश करवा दिया और उसके मुंह पर कपड़ा बाँध, छिपा कर बाहर निकालने का प्रयत्न कर ही रहे थे कि एक राजनीतिक दल के लोगों ने उन्हें पकड़ लिया।

उनका नेता भागता हुआ आया, और उस आतंकवादी से चिल्ला कर पूछा, "क्यों बे! रावण तूने ही जलाया था?" कहते हुए उसने उसके मुंह से कपड़ा हटा दिया।

कपड़ा हटते ही उसने देखा, लगभग बारह-तेरह वर्ष का एक लड़का उसके समक्ष था, जो चेहरे से ही मंदबुद्धि लग रहा था। वह लड़का आँखें और मुंह टेड़े कर अपने चेहरे के सामने हाथ की अंगुलियाँ घुमाते हुए हकलाते हुए बोला,
"हाँ...! मैनें जलाया है... रावन को, क्यों...क्या मैं... राम नहीं बन सकता?"
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शनिवार, 8 जून 2019

आलेख: लघुकथा समीक्षा भाग-1 | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

हमारे देश में बहुत सारे शिक्षण संस्थान हैं। उनमें से कई संस्थान विशिष्ट भी हैं जैसे केंद्रीय विद्यालय, आईआईटी, एनआईटी, आईआईएम, आईआईआईटी, आदि। इन संस्थानों के अतिरिक्त कई संस्थाएं भी हैं जो अति विशिष्ट की श्रेणी में आती हैं उनके नामों का उल्लेख करें तो आई-ट्रिपल-ई, सीएसआई, आईएमएस, आदि। हालांकि अभी मुझे जो बात कहनी है उसके मद्देनजर श्रेणियाँ अभी खत्म नहीं हुई। इनके आगे कई सरकारी संस्थान हैं यथा डीएसटी, आईसीएसएसआर, आईसीएआर, एआईसीटीआई आदि-आदि। इन सभी पर नियंत्रण के लिए भी यूजीसी है, बोर्ड्स हैं और सबसे ऊपर मानव संसाधन विकास मंत्रालय है। यह वर्गीकरण मैंने अनुक्रम में नहीं किया है लेकिन फिर भी एक बात जो सबसे ज़रूरी है कि इतनी विशाल सरंचना और बुद्धिजीवियों से भरपूर हजारों समितियों के बावजूद भी हमारे देश के विश्वविद्यालय दुनिया के प्रथम 200 में भी स्थान नहीं रखते। (Source: https://www.timeshighereducation.com/student/best-universities/best-universities-world)। यह हमारी शिक्षा नीति की विफलता है या फिर हमारी अपनी, यह जानना भी ज़रूरी है। मैंने कितने ही आचार्यों को देखा है कि पीएचडी शोध ग्रंथ का मूल्यांकन करते समय केवल उसकी अनुक्रमणिका को ही पढ़ कर विवरण बना लेते हैं। यह दुख का विषय है कि ईमानदारी की कमी है, जिससे हम वैश्विक स्तर पर पिछड़ रहे हैं। साथ ही यह भी दुख का विषय है कि बहुत सारी साहित्यिक समीक्षाएं भी अनुक्रमणिका को देख कर लिख लेने का सामर्थ्य भी कितने ही साहित्य के आचार्यों में है। एक पत्रिका की समीक्षा लिखने से पूर्व उस पत्रिका को पूरा पढ़ना फिर समझना और आत्मसात करना आवश्यक है लेकिन कई बार समीक्षाएं पढ़ कर ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ भी ईमानदारी की कमी है - लिखना जो ज़रूरी है। "लघुकथा कलश" नामक एक पत्रिका की समीक्षा करते समय ‘विभा रानी श्रीवास्तव’ जी के शब्दों मे, "लघुकथा-कलश के तीसरे महाविशेषांक का अध्ययन करने में मुझे लगभग तीन माह से अधिक का समय लगा।" मेरे अनुसार भी इतना धैर्य, संयम और इच्छा शक्ति होनी चाहिए, तब जाकर समीक्षा में सत्य का तड़का और तथ्यों के मसाले का सही अनुपात आ सकता है। एक लघुकथा लिखने में कई जितने समय की आवश्यकता होती है उसे पढ़ कर समीक्षा करने के लिए कितने अध्ययन की आवश्यकता होगी? मेरे अनुसार यह एक विचारणीय प्रश्न है। हाँ! हम हमारी पाठकीय प्रतिक्रिया तो तुरंत दे सकते हैं।

क्रमशः

शुक्रवार, 7 जून 2019

परिंदों को मिलेगी मंज़िल यक़ीनन | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

समीक्षा: परिंदे पत्रिका "लघुकथा विशेषांक"


पत्रिका : परिंदे (लघुकथा केन्द्रित अंक) फरवरी-मार्च'19
अतिथि सम्पादक : कृष्ण मनु
संपादक : डॉ. शिवदान सिंह भदौरिया
79-ए, दिलशाद गार्डन, नियर पोस्ट ऑफिस,
दिल्ली- 110095,
पृष्ठ संख्या: 114
मल्य- 40/-

वैसे तो हर विधा को समय के साथ संवर्धन की आवश्यकता होती है, लेकिन लघुकथा एक ऐसी क्षमतावान विधा बन कर उभर सकती है जो स्वयं ही समाज की आवश्यकता बन जाये, इसलिए इसका विकास एक अतिरिक्त एकाग्रता मांगता है। हालांकि इस हेतु न केवल नए प्रयोग करना बल्कि इसकी बुनियादी पवित्रता का सरंक्षण भी ज़रूरी है। विधा के विकास के साथ-साथ बढ़ रहे गुटों की संख्या, आपसी खींचतान में साहित्य से इतर मर्यादा तोड़ते वार्तालाप आदि लघुकथा विधा के संवर्धन हेतु चल रहे यज्ञ की अग्नि में पानी डालने के समान हैं

कुछ ऐसी ही चिंता वरिष्ठ लघुकथाकार कृष्ण मनु जी व्यक्त करते हैं अपने आलेख "तभी नई सदी में दस्तक देगी लघुकथा" में जो उन्होने बतौर अतिथि संपादक लिखा है परिंदे पत्रिका के "लघुकथा विशेषांक" में। अपने ग्यारहवें वर्ष में प्रवेश करती हुई परिंदे पत्रिका ने साहित्य की सड़कों पर लगातार बढ़ रहे लघुकथाओं के छायादार वृक्षों द्वारा अन्याय-विसंगति आदि की तपाती हुई धूप में भी प्रज्ज्वलित चाँदनी का एहसास करा पाने की क्षमता को समझ कर इस विशेषांक का संकल्प लिया होगा और उसे मूर्त रूप भी दे दिया और यही संदेश मैंने पत्रिका के आवरण पृष्ठ से भी पाया है।

अपने आलेख में कृष्ण मनु जी ने कुछ बातें और भी ऐसी कही हैं, उदाहरणस्वरूप, "विषय का चयन न केवल सावधानी पूर्वक होना चाहिए बल्कि जो भी विषय चुना हो चाहे वह पुराना ही क्यों न हो उस पर ईमानदारी से प्रस्तुतीकरण में नयापन हो - कथ्य में ताज़गी हो।", "लघुकथा के मूल लाक्षणिक गुणों को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए।", आदि।

यहाँ मैं एक श्लोक उद्धृत करना चाहूँगा,
“स्वभावो नोपदेशेन शक्यते कर्तुमन्यथा।
सुतप्तमपि पानीयं पुनर्गच्छति शीतताम्॥
अर्थात किसी व्यक्ति को आप चाहे कितनी ही सलाह दे दो किन्तु उसका मूल स्वभाव नहीं बदलता ठीक उसी तरह जैसे ठन्डे पानी को उबालने पर तो वह गर्म हो जाता है लेकिन बाद में वह पुनः ठंडा हो जाता है।“

यही बात लघुकथा पर भी लागू होती है और इस पत्रिका के अतिथि संपादक के लेख के अनुसार भी लघुकथा के मूल गुणों को सदैव लघुकथा में होना चाहिए अर्थात प्रयोग तो हों लेकिन मूलभूत गुणों से छेड़खानी ना की जाये, पानी को उबालेंगे तो वह गरम होकर ठंडा होने की प्रकृति तो रखता ही है लेकिन यदि पानी में नमक मिला देंगे तो वह खारा ही होगा जिसे पुनः प्रकृति प्रदत्त पानी बनाने के लिए मशीनों का सहारा लेना होगा हालांकि उसके बाद भी प्राकृतिक बात तो नहीं रहती। शब्दों के मूल में जाने की कोशिश करें तो अपनी यह बात श्री मनु ने कहीं-कहीं लेखन की विफलता को देखते हुए ही कही है, जिसे लघुकथाकारों को संग्यान में लेना चाहिए।

1970 से 2015 के मध्य अपने लघुकथा लेखन को प्रारम्भ करने वाले 63 लघुकथाकारों की प्रथम लघुकथा और एक अन्य अद्यतन लघुकथा (2018 की) से सुसज्जित परिंदे पत्रिका के इस अंक में प्रमुख संपादक डॉ. शिवदान सिंह भदौरिया जी स्वच्छता पर अपने संपादकीय में न केवल देश में स्वच्छता की आवश्यकता पर बल दिया है बल्कि जागरूक करते हुए कुछ समाधान भी सुझाए हैं। हालांकि उन्होने लघुकथा पर बात नहीं की है लेकिन फिर भी स्वच्छता पर ही जो कुछ उन्होने लिखा है, उस पर लघुकथा सृजन हेतु विषय प्राप्त हो सकते हैं।

पत्रिका के प्रारम्भ में अनिल तिवारी जी द्वारा लिए गए दो साक्षात्कार हैं - पहला श्री बलराम का और दूसरा श्री राम अवतार बैरवा का। दोनों ही साक्षात्कार पठन योग्य हैं और चिंतन-मनन योग्य भी।

सभी लघुकथाओं से पूर्व लघुकथाकार का परिचय दिया गया है, जिसमें एक प्रश्न मुझे बहुत महत्वपूर्ण प्रतीत हुआ - "लघुकथा आपकी प्रिय विधा क्यों है?" यह प्रश्न लघुकथा पर शोध कर रहे शोधार्थियों के लिए निःसन्देह उपयोगी है और यह प्रश्न पत्रिका के इस अंक का महत्व भी बढ़ा रहा है।

इस पत्रिका में दो तरह की लघुकथाएं देने का उद्देश्य मेरे अनुसार यह जानना है कि लघुकथा विधा में एक ही साहित्यकार के लेखन में कितना परिवर्तन आया है? केवल नवोदित ही नहीं बल्कि वरिष्ठ लघुकथाकारों में से भी कुछ लेखक जो चार-पाँच पंक्तियों में लघुकथा कहते थे, समय के साथ वे न केवल शब्दों की संख्या बढ़ा कर भी कथाओं की लाघवता का अनुरक्षण कर पाये बल्कि अपने कहे को और भी स्पष्ट कर पाने में समर्थ हुए हालांकि इसके विपरीत कुछ रचनाकार ऐसे भी हैं जो लघुकथा के अनुसार अधिक शब्दों में लिखते हुए कम (अर्थाव लाघव) की तरफ उन्मुख हुए। कुल मिलाकर यह स्पष्ट है कि सामान्यतः परिपक्वता बढ़ी है और बढ़नी चाहिए भी।

एक और विशिष्ट बात जो मुझे प्रथम और अद्यतन लघुकथाओं को पढ़ते हुए प्रतीत हुई, वह यह कि समय के साथ लघुकथाकारों ने शीर्षक पर भी सोचना प्रारम्भ कर दिया है जो कि लघुकथा लेखन में हो रहे परिष्करण का परिचायक है।

पत्रिका की छ्पाई गुणवत्तापूर्ण है, लघुकथाओं में भाषाई त्रुटियाँ भी कम हैं जो कि सफल और गंभीर सम्पादन की निशानी है। कुल मिलाकर यह एक संग्रहणीय अंक है और मैं आश्वस्त हूँ कि साहित्य, संस्कृति एवं विचार के इस द्वेमासिक के परिंदों को मिलेगी मंज़िल यक़ीनन, ये फैले हुए उनके पर बोलते हैं

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

शुक्रवार, 24 मई 2019

समीक्षा | परिंदे पत्रिका लघुकथा विशेषांक | समीक्षक: भगवती प्रसाद द्विवेदी


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पत्रिका : परिंदे (लघुकथा केन्द्रित अंक) फरवरी-मार्च'19 अ. सम्पादक : कृष्ण मनु
सं. : डॉ.शिवदान सिंह भदौरिया
79ए, दिलशाद गार्डन, नियर पोस्ट ऑफिस,
दिल्ली- 110095,
पृष्ठ संख्या : 116
मल्य- 40/-


लघुकथा अंक की प्रयोगधर्मिता 

क्षण मात्र की कथात्मक अभिव्यक्ति की अत्यंत प्रभावी विधा लघुकथा की लोकप्रियता और पठनीयता का आलम यह है कि आये दिन पत्रिकाओं के विधा केन्द्रित विशेषांक प्रकाशित होते रहते हैं पर अधिकतर विशेषांक संख्याबल और परिमाणात्मक दृष्टि से भले ही भारी भरकम प्रतीत होते हों, किंतु उनमें कोई नयापन नजर नहीं आता। इन सबसे उलट, जब कोई विधा केन्द्रित अंक बनी-बनाई लीक से अलग हटकर प्रकाशित होती है तो उसकी चर्चा लाजिमी हो जाती है।

ऐसा ही, लघुकथा पर केन्द्रित एक अंक प्रकाशित हुआ है साहित्य, संस्कृति एवं विचार की द्वैमासिक पत्रिका परिन्दे का , जो ग्यारहवें वर्ष के प्रथमांक(फरवरी-मार्च '2019) के रुप में आया है। लब्धप्रतिष्ठ लघुकथाकार कृष्ण मनु के अतिथि सम्पादन में छपे इस अंक में एक तरफ वैसे वरिष्ठतम रचनाकार हैं जो लघुकथा लेखन के पांच दशक पूरे कर चुके हैं, वहीं दूसरी ओर वैसी प्रतिभायें हैं जो पिछले पांच वर्षों से इस विधा में सृजनशील हैं। हर लघुकथाकार की पहली लघुकथा, प्रकाशन वर्ष तथा पत्रिका के नामोल्लेख के साथ प्रकाशित की गयी है। साथ ही , वर्ष 2018 में रची एक अद्यतन लघुकथा भी।

विशेषांक में शामिल हरेक लघुकथाकार के परिचय के साथ कुछ सवाल भी पूछे गये हैं, जैसे- अबतक कितनी लघुकथाएं लिखीं, पत्र-पत्रिकाओं के नाम जिनमें उनका प्रकाशन हुआ, लघुकथा लिखना कब से शुरु किया , लघुकथा आपकी प्रिय विधा क्यों है, लघुकथा के क्षेत्र में उपलब्धियां आदि।सन् 1970 से लघुकथा लिखते आ रहे 'विश्व लघुकथा कोश' के सम्पादक बलराम ने अपने साक्षात्कार में कहा है कि #कविता की जगह ले सकती है #लघुकथा। वरिष्ठ लेखक राम अवतार बैरवा का भी मानना है कि उज्ज्वल है लघुकथा का भविष्य। मगर अतिथि सम्पादक ने तल्ख हकीकत का बयान करते हुए लिखा है-' लघुकथा की पहचान बनाये रखनी है तो लिखते समय विषय का चयन सावधानी से करने की जरूरत। है।यहाँ एक बात रेखांकित करने योग्य है कि लघुकथा के प्रति पनप रही उपेक्षा का कारण लघुकथा लेखन में विषयों की आवृति से अधिक स्तरहीनता है। लघुकथा की तकनीक जाने बिना, लघुकथा के विषय में अल्प जानकारी रखते हुए दनादन सीधी सपाट लघुकथा लिखते जाना ही लघुकथा के प्रति ऊब का कारण बनता जा रहा है। विषय पुराने हों, लेकिन प्रस्तुति में नयापन, बुनावट में निपुणता, भाषा में कसावट और कथ्य में ताजगी हो तो पाठक के ऊबने/नकारने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता।'

लघुकथाओं के चयन एवं सम्पादन में अतिथि सम्पादक की सतर्कता व पारखी दृष्टि स्पष्टतः परिलक्षित होती है। यही वजह है कि तिरसठ लघुकथाकारों की एक सौ छब्बीस लघुकथाओं के इस संचयन में ज्यादातर रचनायें अपनी छाप छोड़ने में काफी हद तक कामयाब हैं। लघुकथाकार की पहली लघुकथा भी उतनी ही प्रभावी है, जितनी आज की। यहाँ लघुकथाकारों की एक ही साथ तीन पीढ़ियां अपनी दमदार मौजूदगी का अहसास कराती हैं। आज के युगधर्म का आईना है यह संचयन। महिला लघुकथाकारों ने भी घर-आंगन की चहारदीवारी से बाहर निकलकर सामाजिक विसंगतियों , विद्रूपताओं को अपने कथ्य का विषय बनाया है। और ऐसी रचनाओं में आभा सिंह, डाॅ. आशा 'पुष्प', मंजु शर्मा, डाॅ. लता अग्रवाल, माला वर्मा, कृष्णलता यादव, डाॅ. शैल चंद्रा, इन्जी आशा शर्मा, कनक हरलालका, सविता मिश्रा 'अक्षजा', डाॅ.संध्या तिवारी आदि की लघुकथाएं प्रभावी बन पड़ी हैं।

अपने अनूठे कथ्य व शिल्प की मार्फत मानवीय संवेदना को झकझोरने वाले लघुकथाकारों में प्रमुख हैं- बलराम, कमलेश भारतीय, डाॅ.कमल चोपड़ा, कृष्ण मनु, अशोक भाटिया, सतीश राठी, अतुल मोहन प्रसाद, अंकुश्री, गोविन्द शर्मा, शराफत अली खान, कुंवर प्रेमिल, पवन शर्मा, डाॅ.रामकुमार घोटड़, संदीप तोमर आदि

अंक में खटकने वाली बात है भाषा-व्याकरण तथा प्रुफ की अशुद्धियां -ठीक सुस्वादु खीर में कंकड़ की तरह बतौर बानगी इन पंक्तियों के लेखक का जन्म वर्ष 1955 के बजाय 1995 मुद्रित है। जैसा कि सम्पादकीय में जिक्र है, इस विशेषांक के पुस्तकाकार प्रकाशन की भी योजना है। अतः पुस्तक प्रकाशन के पूर्व अशुद्धियों का शोधन-परिमार्जन अपेक्षित है।

विश्वास है, साहित्य, संस्कृति एवं विचार के स्तर पर 'परिंदे' की यह लघुकथा-केन्द्रित उड़ान सुधी पाठकों को कभी चमत्कृत करेगी, कभी अभिभूत करेगी तो कभी अंतर्मन को आईना भी दिखाएगी।

अतिथि संपादक कृष्ण मनु के साथ ही 'परिंदे' के सम्पादक डॉ. शिवदान सिंह भदौरिया तथा कार्यकारी सम्पादक ठाकुर प्रसाद चौबे भी बधाई के पात्र हैं।

समीक्षक- भगवती प्रसाद द्विवेदी
सम्पर्क : 9430600958

मंगलवार, 12 मार्च 2019

समीक्षा ब्लेसिंग: | मनोज कुमार | समीक्षाकार: परशुराम राय


रचनाकार के अन्दर धधकती संवेदना को पाठक के पास और पाठक की अनुभूति की गरमी को रचनाकार के पास पहुँचाना आँच का उद्धेश्य है। आँच के इस अंक में लघुकथा विधा पर विचार किया गया है। आँच के इस अंक के लिए लिया गया है- मनोज कुमार की लघुकथा ‘ब्लेसिंग’।

लघुकथा कथा-साहित्य की अर्वाचीनतम विधा है। लघुकथा का साहित्यशास्त्रीय विवेचन कम ही देखने को मिलता है। कहानी विधा के अंगों की तरह इसके भी अंग समान है, यथा कथावस्तु, पात्र, संवाद, संदेश आदि। इसकी कथावस्तु की भी चार अवस्थाएँ होती हैं- प्रारम्भ, विकास, चरमोत्कर्ष और अन्त। सीमित पात्रों की उपस्थिति, उनके चरित्र का मूल्यांकन या चरित्र-चित्रण कहानी की भाँति ही है। संवाद का पैनापन और संदेश की मुखरता आदि बिल्कुल कहानी-साहित्य की तरह ही हैं। तो अब विचारणीय प्रश्न यह है कि कहानी से लघुकथा को अलग कैसे किया जाय अथवा आधुनिकता के नाम का टीका लगाकर इति श्री कर दी जाय।

जहाँ तक साहित्यविदों से बातचीत हुई है और मैंने समझा है, उसके अनुसार कहानी और लघुकथा में केवल अन्तर काल का है, अर्थात् जो अन्तर कहानी और उपन्यास में है, वही अन्तर लघुकथा और कहानी में है। कहानी की अपेक्षा उपन्यास में घटनाओं की बहुलता होती है, और यह मुख्य पात्र के जीवन के आदि से अन्त तक की प्रमुख घटनाओं के तान-बाने से बना होता है। जब कि कहानी में जीवन की एक घटना और उससे जुड़े तारों को उपन्यास की अपेक्षाकृत कम पात्रों के माध्यम से अभीप्सित संदेश दिया जाता है। वैसे ही, लघुकथा में एक क्षणिक घटना के द्वारा कहानी की अपेक्षा काफी कम समय की घटना को पैने और पात्रानुकूल संवाद द्वारा सीमित और उचित पात्रों के माध्यम से संदेश सम्प्रेषित करना होता है।

आँच के इस भाग में इस ब्लाग पर प्रकाशित ‘ब्लेसिंग’ नामक लघुकथा पर समीक्षात्मक चर्चा की गयी है। यदि उपर्युक्त दूसरे अनुच्छेद में वर्णित को लघुकथा के लिए यार्ड स्टिक मान लें तो ‘ब्लेसिंग’ एक आदर्श लघुकथा है। जो कार्यालय में अधिकारी और उसी कार्यालय के मातहत कर्मचारी के बीच 15 मिनट से आधे घंटे के बीच हुई बातचीत के दौरान समाप्त हो जाती है।

‘ब्लेसिंग’ की भाषा बड़ी ही स्वाभाविक और पात्रों के अनुकूल है। हिन्दी और मिश्रित भाषा के संवाद है जैसे कि आजकल कार्यालयों में सुनने को मिलते हैं।

लघुकथा के लिया चुना गया परिवेश कोई बहुत खास नहीं है, बहुत सामान्य है। अधिकारी अपने कार्यलय में बैठे हुए फाइलों को निपटा रहा है। इसी बीच उसका एक अधीनस्थ कर्मचारी उसके कार्यलय में प्रवेश करता है, जिसे देखते ही अधिकारी बोल पड़ता है- ‘क्या बात है? आपके ट्रांसफर के बारे में मुझे कुछ नहीं सुनना है।’ यहीं से कथानक का प्रारंभ होता है। इतना सुनते ही कर्मचारी बताता है कि वह ट्रांसफर के बारे मे बात करने नहीं, बल्कि उनकी कार (खटारा) बीस हजार रूपये में खरीद कर, उसमें अपने पिता को कोलकाता शहर घुमाने के लिए उनकी ब्लेसिंग लेने आया है। यहीं से कथानक विकास की ओर अग्रसर होता है। थोड़ी बातचीत गाड़ी की कंडीशन के बारे में होती है और अन्त में बात पट जाती है। अधिकारी भी समझता है कि कबाड़ी के यहाँ किलो के भाव बिकने वाली केवल शो पीस बनी खटारा गाड़ी के बीस हजार रूपये मिल रहे हैं, बहुत हैं। कर्मचारी वस्तुपरक है। पांच हजार की भी न बिकने वाली गाड़ी की कीमत बीस हजार उसने यों ही नही लगाई है। अन्ततः वह अपने मन्तव्य में सफल होता है, वांछित ब्लेसिंग पाकर। बॉस खुश होकर उससे कहता है कि जाते समय ट्रांसफर वाली फाइल भिजवा दे। यहीं कथानक चरमोत्कर्ष पर भी पहुँचता है और पाठक को चमकृत करता हुआ यहीं अन्त भी हो जाता है।

इसे पढ़कर लगा है कि किसी बड़े ही मजे हुए लघुकथाकार के द्वारा लिखी गयी लघुकथा है। खटारा गाड़ी खरीदकर ट्रांसफर की ब्लेसिंग लेना और गाड़ी बेचकर ट्रांसफर की ब्लेसिंग देना व्यंजित करती ब्लेसिंग्स लघुकथा शब्द-संयम, समय-संयम, घटना-संयम, संवाद-संयम और पात्र-संयम समेटे पाठक को चमत्कृत करने का शॉक देकर आनन्दित करती है। ब्लेसिंग वास्तव में पाठक के लिए भी ब्लेसिंग है।

इस लघुकथा में कथानक का उत्कर्ष और अन्त अंतिम एक वाक्य में होने से एक प्रेरणा मिली, लघुकथा को पुनः परिभाषित करने की और कहानी से अलग करने की कि कथानक के उत्कर्ष और अन्त का एक बिन्दु होना लघुकथा के आवश्यक अंग के रूप में लिया जाय।

- परशुराम राय

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लघुकथा: ब्लेसिंग | मनोज कुमार


“में आई कम-इन सर?”

“यस कम इन।”

“गुड मार्निंग सर।”

“मार्निंग”

“कैन आई सिट सर?”

“ओह यस-यस प्लीज ।..................अरे तुम ? अगर तुम अपने ट्रांसफर की बात करने आए हो, तो सॉरी, तुम जा सकते हो।”

“नहीं सर मैं तो...आपके...........।”

“देखो तुम जब से इस नौकरी में हो, यहीं, इसी मुख्यालय में ही काम करते रहे हो। तुम्हारे कैरियर के भले के लिए तुम्हें अन्य कार्यालय में भी काम करना चाहिए। और गोविन्दपुर में जो हमारा नया ऑफिस खुला है , उसके लिए हमें एक अनुभवी स्टाफ की आवश्यकता थी। हमें तुमसे बेहतर कोई नहीं लगा।”

“सर मैं तो इस विषय पर बात ही नहीं करने आया। मैं तो उसी दिन समझ गया था जिस दिन ट्रांसफर ऑर्डर निकला था – कि आपने जो भी किया है मेरी भलाई के लिए ही किया है। मैं तो कुछ और ही बात करने आया हूँ।”

“ओ.के. देन ... बोलो...............।”

“सर वो,.............थोड़ा लाल बत्ती जला देते । कोई बीच में न आ जाए। ”

“देखो तुम घूम-फिर कर कहीं ट्रांसफर वाली बात तो नहीं करोगे। ”

“नहीं सर। बिल्कुल नहीं। कुछ पर्सनल है सर।”

“क्या?”

“सर मेरे पिता जी काफी बूढ़े हो गए हैं। उनकी इच्छा थी कि मैं एक गाड़ी खरीदूँ और उन्हें उस गाड़ी में इस पूरे महानगर में घुमाऊँ।”

“तो इसमें मैं तुम्हारी क्या मदद कर सकता हूँ ?”

“सर ! बस आपकी ब्लेसिंग चाहिए। आप तो इसी महीने के अन्त में सेवानिवृत होकर चले जाएंगे। सुना है आपके पास एक गाड़ी है।”

“हां है तो। वो 80 मॉडल गाड़ी हमेशा गराज में पड़ी रहती है।”

“सर उसे .....आप ............।”

“अरे बेवकूफ वो तुम्हारे किस काम आएगी। पिछले चार सालों में उसकी झाड़-पोछ भी नहीं की गई है। उसे तो कोई पांच हजार में भी नहीं खरीदेगा। उससे ज़्यादा तो उसे मुझे अपने होमटाउन ले जाने का भाड़ा लग जाएगा। मैं तो उसे यहीं छोड़................।”

“सर मैं खरीदूंगा सर। आप बीस हजार में उसे मुझे बेच दीजिए।”

“पर...................लेकिन .......गराज..........नहीं ...नहीं।”

“सर। प्जीज सर। नई गाड़ी तो मेरी औकात के बाहर है। कम से कम इससे मैं अपने माता-पिता का सपना उनके प्राण-पेखरू उड़ने के पहले पूरा तो कर लूंगा।”

“यू आर टू सेंटिमेंटल टूवार्डस योर पैरेंट्स। आई शुड रिस्पेक्ट इट। ओ.के. ... डन। आज से, नहीं-नहीं अभी से गाड़ी तुम्हारी।”

“थैंक्यू सर।... पर एक प्रॉब्लम है सर।”

“क्या?”

“आपकों तो मालूम है कि मैं गाड़ी चलाना ठीक से नहीं जानता। नया-नया सीखा हूं। अब मेरे घर, माधोपुर से तो इस ऑफिस तक का रास्ता बड़ा ठीक-ठाक है, भीड़-भाड़ भी नहीं रहती, किसी तरह आ जाऊंगा। पर सर आप तो जानते ही हैं कि गोविन्दपुर का रास्ता....................... वहां तो शायद मैं इस कार को नहीं ले जा पाऊँगा।”

“दैट्स ट्रू। ब्लडी दैट एरिया इज भेरी बैड। पूरा रास्ता टूटा-फूटा है। उस पर से भीड़ भाड़, .... यू हैव ए प्वाईंट।...............मिस जुली.......जरा इस्टेब्लिशमेंट के बड़ा बाबू को ट्रांसफर ऑर्डर वाली फाईल के साथ बुलाइए।”

“थैंक्यू सर। गुड डे सर।”

Source:
http://manojiofs.blogspot.com/2010/02/blog-post_11.html

सोमवार, 4 मार्च 2019

समीक्षा: "लघुकथा वृत्त" का जनवरी 2019 अंक | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

लघुकथा का इकलौता मासिक समाचार पत्र "लघुकथा वृत्त" का जनवरी 2019 का अंक कल प्राप्त हुआ। एक पंक्ति में कहूँ तो यह अंक लघुकथा संबंधी बहुत सी विशिष्ट एवं महत्वपूर्ण चीज़ें समेटे हुए है। गणित के अनुसार किसी भी वृत्त की परिधि और उसके व्यास के अनुपात के बराबर जो संख्या होती है, उसका शुद्ध मान कभी भी ज्ञात नहीं किया जा सकता। इस अपरिमित संख्या को π  (पाई) कहा गया, जो 22/7 के बराबर होता है। आप सोच रहे होंगे कि कहाँ साहित्य और कहाँ गणित? लेकिन वृत्त तो है ही गणितीय शब्द। इसके अलावा जब पहली बार लघुकथा वृत्त का नाम पढ़ा था, तब पढ़ते ही दिमाग में सबसे पहले "वृत्त" ही गूंजा और उस वक्त वरिष्ठ लघुकथाकार श्री योगराज प्रभाकर द्वारा कही गयी एक बात भी याद आई थी कि "लघुकथा लेखक की दृष्टि 360 डिग्री की होनी चाहिए।" चूंकि वृत्त भी तो विभिन्न भागों से मिलकर 360 डिग्री का ही होता है। लघुकथा वृत्त भी लघुकथा के विभिन्न तत्व, समाचार, लेख, देसी-विदेशी लघुकथाएं आदि को एक साथ रखते हुए 360 डिग्री का समाचार पत्र है। यह तो खैर एक बात हुई, दूसरी बात है वृत्त की परिधि, π आदि की। परिधि का अर्थ है एक वृत्त का पूरा चक्कर लगाने पर जितनी दूरी हम तय करते हैं। इसके द्वारा हम वृत्त के बाहरी स्वरूप को जान पाते हैं। इसे समाचार पत्र से जोड़ें तो, किसी भी समाचार पत्र को पढ़ने के दो तरीके होते हैं, एक तो उसकी हेडलाइन्स को पढ़ लेना और दूसरे समाचारों, लेखों, संपादकीय आदि को पूरा पढ़ना। लघुकथा वृत्त के इस अंक की परिधि अर्थात हेडलाइन्स में आर्य स्मृति साहित्य सम्मान, रचनाकार डॉट ऑर्ग द्वारा आयोजित लघुकथा प्रतियोगिता, संपादकीय, इंडो-नेपाल लघुकथा सम्मेलन, लघुकथा शोध केंद्र द्वारा आयोजित लघुकथा गोष्ठी, डॉ. अशोक भाटिया और श्रीमती कांता रॉय को मिला सम्मान, मध्य प्रदेश की लघुकथाएं, धरोहर रूपी लघुकथाएं, विशिष्ट लघुकथा परिंदे में ज्योत्सना सिंह, लघुकथाएं विदेश से, श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय द्वारा लिखित "कलयुग का बेटा" पर आधारित फिल्म की शूटिंग पूर्ण, डॉ. उपमा शर्मा की दो पसंदीदा लघुकथाएं, मॉरीशस में लघुकथाएं, आंचलिक लघुकथाएं, स्व. श्री पारस दासोत द्वारा कहा गया लघुकथा का महत्व, वरिष्ठ लघुकथाकार डॉ. बलराम अग्रवाल का साक्षात्कार, वरिष्ठ लघुकथाकार डॉ. अशोक भाटिया कृत "परिंदे पूछते हैं" पुस्तक की श्री बद्री सिंह भाटिया द्वारा समीक्षा, डॉ. अशोक भाटिया द्वारा "समग्र" लघुकथा विशेषांक की समीक्षा, अखिल भारतीय लघुकथा सम्मेलन (सिरसा) का प्रतिवेदन, श्री त्रिलोक सिंह ठकुरेला कृत समसामयिक हिन्दी लघुकथा की सुश्री भूपिंदर कौर द्वारा समीक्षा, श्री सदाशिव कौतुक कृत "संकल्प और सपने" की डॉ. विनीता राहुरिका द्वारा समीक्षा, सुश्री सुधा भार्गव कृत "टकराती रेत" पुस्तक की श्रीमती कांता रॉय द्वारा समीक्षा सहित कई अन्य समाचार और लेख मौजूद हैं।

निःसन्देह इस वृत्त की परिधि रोचक है – महत्वपूर्ण भी है, लेकिन केवल परिधि को ज्ञात करना ही वृत्त का उद्देश्य नहीं क्योंकि जिस किसी भी कारण से कोई भी वृत्त बनाया जाता है उसके पूर्ण क्षेत्रफल को मापना बहुत ज़रूरी है, तब कहीं जाकर वृत्त की संपूर्णता जान सकते हैं। क्षेत्रफल ज्ञात करने के लिए वृत्त की त्रिज्या, व्यास को भी मापने की जरूरत होती है जिसके लिए आपको वृत्त के केंद्र बिन्दु तक जाना होगा। इस लघुकथा वृत्त को पूरा पढ़ने हेतु आपको इसके केंद्र बिन्दु इसकी प्रधान संपादक श्रीमती कांता रॉय से संपर्क करना होगा। आपकी सुविधा के लिए उनका ईमेल आईडी बता देता हूँ - roy.kanta69@gmail.com

अब यदि बात करें π (पाई) की, जो कि साहित्य को गणित से जोड़ देती है। वैसे तो लघुकथाकार का कार्य ही पाई-पाई के हिसाब अर्थात लघुत्तम के महत्व को उभार कर दर्शाना है, π का यह आधारभूत मानक साहित्य के विकास की तरह ही अपरिमित है और लघुकथा में नित नए हो रहे प्रयोगों को इंगित कर रहा है। शायद इसे ही ध्यान में रखते हुए अपने संपादकीय में श्रीमती कांता रॉय ने कहा भी है कि "साहित्य नए दृष्टिकोण देते हुए जीवन मूल्यों का सृजन करता है।" तथा "नव निर्माण और नव चेतना जागृत करना भी लघुकथा लेखन का एक उद्देश्य हो।"

यह समाचार पत्र मासिक है अर्थात वर्ष में 12 बार आप इसका लुत्फ उठा सकते हैं। एक (वृत्तनुमा) घड़ी के 30-30 डिग्री के 12 अंश इसे 360 डिग्री का पूर्णत्व प्रदान करते हैं। यानी कि वर्ष के बारह अंकों में पाठक यह उम्मीद रख सकते हैं कि लघुकथा के लगभग सभी मुख्य भागों को सम्मिलित करने का प्रयास किया जाएगा। उम्मीद यह भी है कि लघुकथा वृत्त के अगले 330 डिग्री के अंक भी 30 डिग्री के इसी अंक की तरह ही रोचक होंगे।


- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

सोमवार, 11 फ़रवरी 2019

दृष्टि पत्रिका के मानवेतर लघुकथा अंक की समीक्षा

हिमाचल प्रदेश से प्रकाशित लोकप्रिय समाचार पत्र दिव्य हिमाचल के रविवार अंक में दृष्टि के मानवेतर लघुकथा अंक की समीक्षा। 



Source:

रविवार, 10 फ़रवरी 2019

लघुकथा संग्रह "सहोदरी लघुकथा 2" की समीक्षा अंकु श्री जी द्वारा

मोटे-मोटे उपन्यास और लंबी-लंबी कहानियां पढ़ने के लिये समय निकाल पाना सबके लिये संभव नहीं है। बेषक इसमें समय अधिक लगता है। कुछ ऐसे ही दौर से गुजरते हुए पाठकों के लिये लघुकथा विधा का विकास और विस्तार हुआ। वस्तुतः लघुकथा-लेखन कोई सोची-समझी व्यवस्था नहीं, एक स्वतःस्फूर्त प्रक्रिया थी। वैसे तो यह बहुत पुरानी विधा है, मगर उन्नीस सौ अस्सी के दषक में लघुकथा-लेखन में बहुत तेजी आयी। इस विधा की दर्जनों स्वतंत्र पत्रिकाओं का प्रकाषन शुरू हुआ. लघुकथा के सैकड़ों संकलन छप चुके हैं। यही नहीं, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में भी लघुकथा को स्थान मिलने लगा और आज भी मिल रहा है। वर्ष 2018 में एक बहुंत ही उम्दा लघुंकथा संकलन हाथ में आया है, जिसका नाम है ‘सहोदरी लघुकथा-2’।
‘भाषा सहोदरी-हिंदी’ द्वारा प्रकाषित इस पुस्तक में उन्हत्तर लघुकथाकारों की करीब तीन सौ लघुकथाएं संकलित हैं, जो विभिन्न विषयों को समेटे हुए हैं। प्रायः ऐसा देखने में आता है कि लघुकथा संकलनों में कई-कई आलेख छपे होते हैं। मगर प्रस्तुत संकलन में सिर्फ लघुकथाएं छपी हैं, जो इसकी विषिष्टता लगी, क्योंकि आलेखों से संकलन भर जाने के कारण अच्छे लघुकथाकारों को भी समेटना कठिन हो जाता है। 304 पृष्ठों के इस संकलन का गेटअप बहुत आकर्षक और बाइन्डिंग काफी मजबूत है।
उन्हत्तर लघुकथाकारों की करीब तीन सौ लघुंकथाओं को एक साथ पढ़ना अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि है। इसमें लघुकथाकारों ने अनेक विषयों पर अपनी कलम चलायी है। लघुकथा की विषेषता है कम शब्दों में किसी बात को रोचकपूर्वक कह देना। यह सभी जानते हैं कि अपने ही हाथ की पांचों अंगुलियां बराबर नहीं होतीं। संकलन की तीन सौ लघुकथाओं में भिन्नता तो रहेंगी ही। इनमें से कुछ लघुकथाएं जुबान पर चढ़ कर बोलती-सी लगती हैं।
‘भाषा सहोदरी-हिंदी’ का छठा अंतर्राष्ट्रीय महाधिवेषन के यादगार अवसर पर 24 और 25 अक्तूबर, 2018 को ‘हंसराज काॅलेज’, दिल्ली में पधारे सैकड़ों साहित्यकार और साहित्य-प्रेमी इस संकलन के लोकार्पण समारोह के साक्षी बने।
प्रस्तुत संकलन की अनेक लघुकथाएं बहुत अच्छी हैं, जबकि कुछ बेशक नव-लेखन के प्रमाण हैं। इस संकलन को पढ़ने से एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात स्पष्ट होती है कि पुराने लेखकों की भी सभी रचनाएं अच्छी नहीं होतीं। एक-दो लघुकथाएं ऐसी भी हैं, जिनके लेखक को विष्वास नहीं है कि पाठक उसे समझ पायेंगे और इसलिये उन्होंने लघुकथा के अंत में ‘नोट’ लिख दिया है। एक लेखिका द्वारा अपनी लघुकथाओं के अंत में ‘सीख’ दी गयी है, जैसे वह पुरानी बालकथा लिख रही हों। कुछ लेखकों द्वारा अपनी लघुकथा के शीर्षक इन्भर्टेड काॅमा में दिये गये हैं और कुछ ने शीर्षक के बाद - - (डैश-डैश) लगा दिया है। एक लेखक ने अपनी हर लघुकथा के अंत में - - (डैश-डैश) लगा दिया है, जिससे लगता है कि लेखक और कुछ कहना चाहता है और कह नहीं पाया है, जिसे पाठक स्वयं संमझ ले। आमूद-पठन में थोड़ी कमी झलकती है। ऐसा लगता है कि इन बातों की ओर संपादकीय दृष्टि नहीं पड़ पायी है। बेषक संकलन की लघुकथाएं हर साहित्यकार का प्रतिनिधित्व कर रही हैं। संकलन की कुछ अच्छी लघुकथाओं और उसके लेखक का वर्णन आवष्यक लगता है, जो निम्नवत है,
‘अपना-अपना हिन्दुस्तान’ और ‘गांव की धूल’ (अंकुश्री), ‘आहट’ (अनु पाण्डेय), शेरनी (अपर्णा गुप्ता), ‘स्त्रीत्व’ और ‘बदलते दृष्टिकोण’ (डा0 उपमा शर्मा), ‘श्रेय’ (ऋचा वर्मा), ‘खामोषी बोलती है’ (कामिनी गोलवलकर), ‘आग’ (गुंजन खण्डेलवाल), ‘बरसात’ और ‘षिकायत का स्पर्ष’ (पंकज जोषी), ‘छोटू’ (पम्पी सडाना), ‘फैसला’ (पूनम आनंद), ‘जुर्माना’ (मनमोहन भाटिया), ‘जिन्दगी’ और ‘एक संघर्ष नया’ (मनीषा जोबन देसाई), ‘निर्णय’, ‘इंसानियत’ और ‘पावन बंधन’ (मणिबेन द्विवेदी), ‘चिट्ठी-पत्तरी’, ‘पत्थर पर दूब’ और ‘होड़’ (मिनी मिश्रा), ‘टंगटुट्टा’ और ‘हेल्मेट’ (मृणाल आषुतोष), ‘अहसास’, ‘पहचान’, ‘बहराना साहिब‘, ‘आवष्यकता’ और ‘मोतियाबिन्द’ (लीला कृपलानी), ‘श्रवण कुमार’ (डा0 लीला मोरे), ‘भरोसा’ (वन्दना पुणतांबेकर), ‘दोहरा मापदंड’ (संजय कुमार ‘संज’), ‘आश्रम’ और ‘बस’ (सौरभ वाचस्पति ‘रेणु’), ‘बदलती नजरें’, ‘अच्छा हुआ’ और ‘स्पष्टीकरण’ (संतोष सुपेकर), ‘रिमोट वाली गुड़िया’, ‘डिलीट एकाउन्ट्स’ और ‘अनोखी चमक’ (सुरेष बाबू मिश्रा), ‘जख्म’ (सतीेष खनगवाल), ‘निपुणता’, ‘योग्यता’, ‘तीर्थाटन’ और ‘अस्थि के फूल’ (संजय पठाडे ‘षेष’), ‘वृद्धा आश्रम’ और ‘विदुषी’ (सुधा मोदी), ‘भलाई का जमाना’, ‘चोरी’ और ‘एहसास’ (सदानंद कविष्वर), ‘परीक्षा की चिंता’ और ‘हिम्मत’ (सीमा भाटिया), ‘पापा’ और ‘उत्साहवर्द्धन’ (संजीव आहूजा), ‘मुस्कान’ और ‘अनदेखा’ (सागरिका राय), ‘जाल’ और ‘नुस्खा’ (सविता इन्द्र गुप्ता)। यह एक संक्षिप्त सूची है, जिसे अंतिम नहीं माना जा सकता।
लेखक को आसपास की घटनाओं, अध्ययन और विचारों से बहुत सारे कथ्य मिल जाते हैं। उसके आधार पर कथानक का ताना-बाना बुन कर लेखक द्वारा कथा या लघुकथा लिखी जाती है। कथानक और षिल्प के अनुसार कथा अच्छी या साधारण बन जाती है। कुछ रचनाएं साधारण से भी निम्न बन कर रह जाती हैं। इस संकलन में भी कुछ लघुकथाओं के कथ्य अच्छा होते हुए भी कमजोर कथानक और षिल्प के कारण वे अच्छे ढ़ंग से पल्लवित-पुष्पित नहीं हो पायी हैं। शब्दों की मितव्ययिता लघुकथा की महत्वपूर्ण शर्त है। संकलन से गुजरते हुए कहीं-कहीं ऐसा प्रतीत होता है कि मन में आने वाले हर शब्द को कागज पर उतारने के लिये कलम को स्वतंत्र छोड़ देने से लघुकथा खराब हो जाती है।
कुछ लघुकथाओं में भूमिका देकर उसे समझाने का प्रयास किया गया है। कुछ लघुकथाओं के अंत में उपसंहार के तौर पर लेखक द्वारा अपना मत अंकित कर दिया गया है, जो उपदेषात्मक लग रहा है। कहीं-कहीं चलती हुई लघुकथा के बीच में अचानक लेखक ‘‘मैं’’ के रूप में प्रकट हो गया है। कुछ लघुकथाएं घटना प्रधान होती हैं, जिनमें कथात्मकता के अभाव के कारण वे साहित्य नहीं रह कर समाचार लगने लगती हैं। लघुकथाओं के ऐसे उदाहरण भी इस संकलन में हैं। इस संकलन की मुख्य विषेषता इसकी विविधता है।
कथाकार जब सीधी नज़र से देखता है तो उसे गहरी और विस्तृत बातें दिखाई देती हैं, जिससे कहानी का सृजन होता है। मगर उसी बात को तिरछी नज़र से देखने पर उसमें गहराई तो रहती है लेकिन विस्तार का अभाव हो जाता है, जिससे लघुकथा का सृजन होता है। किसी कृति के वास्तविक समीक्षक पाठक होते हैं। इसलिये संकलन मंगा कर पढ़ने पर ही इसमें प्रकाषित तीन सौ लघुकथाओं का एक साथ मजा मिल पायेगा और आज लिखी जा रही लघुकथाओं की भी सही जानकारी मिल सकेगी।
- अंकु श्री

प्रेस काॅलोनी, सिदरौल
नामकुम,रांची-834010
मो0 8809972549

शनिवार, 9 फ़रवरी 2019

लघुकथा कलश (तृतीय महाविशेषांक) की समीक्षा श्री सतीश राठी द्वारा

श्री योगराज प्रभाकर के संपादन में 'लघुकथा कलश' का तीसरा महाविशेषांक प्रकाशित हो चुका है और तकरीबन सभी लघुकथा पाठकों को प्राप्त भी हो चुका है। मुझे भी पिछले दिनों यह विशेषांक प्राप्त हो गया और इसे पूरा पढ़ने के बाद मुझे यह जरूरी लगा कि इस विशेषांक पर चर्चा जरूरी है।

इस विशेषांक के पहले भाग में डॉ अशोक भाटिया, प्रोफेसर बीएल आच्छा और रवि प्रभाकर ने श्री महेंद्र कुमार, श्री मुकेश शर्मा एवं डॉ कमल चोपड़ा की लघुकथाओं के बहाने समकालीन लघुकथा लेखन पर बातचीत की है। यह इसलिए महत्वपूर्ण कहा जा सकता है कि इसमें एक नया लघुकथाकार दो वरिष्ठ लघुकथाकारों के साथ अपनी लघुकथाओं को लेकर प्रस्तुत हुआ है और यह लघुकथाएं विधा की नई संभावनाओं की और दिशा देने वाली लघुकथाएं हैं जिसके बारे में डॉ अशोक भाटिया ने भी इंगित किया है। लघुकथाओं को देखने के बाद लघुकथाओं को लेकर कोई चिंता नहीं रखना चाहिए। बहुत सारी अच्छी लघुकथाएं विशेषांक में समाहित है। नौ आलेख इसे समृद्ध करते हैं। कल्पना भट्ट का पिता पात्रों को लेकर लिखा गया आलेख, डॉ ध्रुव कुमार का लघुकथा के शीर्षक पर आलेख, लघुकथा की परंपरा और आधुनिकता पर डॉक्टर पुरुषोत्तम दुबे ,लघुकथा के द्वितीय काल परिदृश्य पर डॉ रामकुमार घोटड, लघुकथा के भाषिक प्रयोगों पर श्री रामेश्वर कांबोज, खलील जिब्रान की लघुकथाओं पर डॉक्टर वीरेंद्र कुमार भारद्वाज, लघुकथा के अतीत पर डॉक्टर सतीशराज पुष्करणा और राजेंद्र यादव की लघुकथा पर सुकेश साहनी, इनके साथ में तीन साक्षात्कार जो मुझसे,  डॉ कमल चोपड़ा एवं डॉ श्याम सुंदर दीप्ति से लिए गए हैं, कुछ पुस्तकों की समीक्षा, कुछ गतिविधियों की जानकारी, दिवंगत लघुकथाकारों को श्रद्धांजलि, कुछ गतिविधियों का जिक्र और 177 हिंदी लघुकथाओं के साथ नेपाली, पंजाबी, सिंधी भाषा के विभिन्न लघुकथाकारों की लघुकथाएं इतना सब एकत्र कर प्रस्तुत करने के पीछे भाई योगराज प्रभाकर की कड़ी मेहनत हमारे सामने आती है। ऐसे काम जुनून से ही पूरे होते हैं और वह जुनून इस विशेषांक में दृष्टिगत होता है। पाठक यदि इस विधा को लेकर कोई प्रश्न खड़े करते हैं तो उसका जवाब भी उन्हें इस तरह के विशेषांक में प्राप्त हो जाता है। मैं श्री योगराज प्रभाकर जी की पूरी टीम को विशिष्ट उपलब्धि के लिए बहुत-बहुत बधाई देता हूं। पिछले दोनों अंको से और आगे जाकर यह तीसरा अंक सामने आया है और यह आश्वस्ति देता है कि चौथा अंक और अधिक समृद्ध साहित्य के साथ में हम सबके सामने प्रस्तुत होगा। पुनः बधाई।

- सतीश राठी

रविवार, 3 फ़रवरी 2019

लघुकथा संग्रह "श्रंखला" की समीक्षा - ओमप्रकाश क्षत्रिय 'प्रकाश'

मारक क्षमता से युक्त लघुकथाओं का  गुल्दस्ता

पुस्तक- श्रंखला (लघुकथा संग्रह)
कथाकार- तेजवीर सिंह 'तेज'

समीक्षक- ओमप्रकाश क्षत्रिय 'प्रकाश'
पृष्ठसंख्या-176
मूल्य -रुपये 300/-
प्रकाशक- देवशीला पब्लिकेशन 
पटियाला (पंजाब) 98769 30229

समीक्षा 

मारक क्षमता लघुकथा की पहचान है । यह जितनी छोटी हो कर अपना तीक्ष्ण भाव छोड़ती है उतनी उम्दा होती है। ततैया के डंकसी चुभने वाली लघुकथाएं स्मृति में गहरे उतर जाती है । ऐसी लघु कथाएं की कालजई होती है।

लघुकथा की लघुता इसकी दूसरी विशेषता है। यह कम समय में पढ़ी जाती है। मगर लिखने में चिंतन-मनन और अधिक समय लेती है । भागम-भाग भरी जिंदगी में सभी के पास समय की कमी है इसलिए हर कोई कहानी-उपन्यास को पढ़ना छोड़ कर लघुकथा की ओर आकर्षित हो रहा है। इसी वजह से आधुनिक समय में इस का बोलबाला हैं ।

इसी से आकर्षित होकर के कई नए-पुराने कथाकारों ने लघुकथा को अपने लेखन में सहज रुप से अपनाया है। इन्हीं नए कथाकारों में से तेजवीर सिंह 'तेज' एक नए कथाकार है जो इसकी मारक क्षमता के कारण इस ओर आकर्षित हुए । इन्होंने लघुकथा-लेखन को जुनून की तरह अपने जीवन में अपनाया है । इसी एकमात्र विधा में अपना लेखन करने लगे हैं। इसी साधना के फल स्वरुप इन का प्रथम लघुकथा संग्रह शृंखला आपके सम्मुख प्रस्तुत है।

शृंखला बिटिया की स्मृति को समर्पित इस संग्रह की अधिकांश कथाएं जीवन में घटित-घटना, उसमें घुली पीड़ा, संवेदना, विसंगतियों और विद्रूपताओं को अपने लेखन का विषय बनाया है । इनकी अधिकांश लघुकथाएं संवाद शैली में लिखी गई है जो बहुत ही सरल सहज और मारक क्षमता युक्त हैं।

संग्रहित श्रंखला लघुकथा की अधिकांश लघुकथाएं की भाषा सरल और सहज है । आम बोलचाल की भाषा में अभिव्यक्त लघुकथाएं अंत में मारक बन पड़ी है ।वाक्य छोटे हैं । भाषा-प्रवाहमय है । अंत में उद्देश्य और समाहित होता चला गया है।

संवाद शैली में लिखी गई लघुकथाएं बहुत ही शानदार बनी है । इन में कथाओं का सहज प्रवेश हुआ है । संवाद से लघुकथाओं में की मारक क्षमता पैदा हुई है ।

इस संग्रह में 140 लघुकथाएं संग्रहित की गई है । इनमें से मन की बात , सबसे बड़ा दुख, ईद का तोहफा, एमबीए बहू, दर्द की गठरी, दरारे, गुदगुदी, लालकिला, अंगारे, गॉडफादर, इंसानी फितरत, बोझ, बस्ता, भयंकर भूल, नासूर, वापसी, हिंदी के अखबार, पलायन, खुशियों की चाबी, वेलेंटाइन डे, आदि लघुकथाएं बहुत उम्दा बनी है।

सबसे बड़ा दुख -लघुकथा की नायिका को अपना वैधव्य से अपने ससुर का पुत्र-शोक कहीं बड़ा दृष्टिगोचर होता है। इस अन्तर्द्वन्द्व को वह गहरे तक महसूस करती है । वही दर्द की गठरी -एक छोटी व मारक क्षमता युक्त लघुकथा है। यह एक वृद्धा की वेदना को बखूबी उजागर करती है।

मन की बात- की नायिका पलायनवादी वृति को छोड़कर त्याग की और अग्रसर होती है, नायिका की कथा है । यह इसे मार्मिक ढंग से व्यक्त करने में सक्षम है ।अंगारे- लघुकथा धार्मिक उन्माद का विरोध को मार्मिक ढंग से उजागर करने में सफल रही है।

खुशियों की चाबी- में टूटते परिवार को प्रभावशाली ढंग से व्यक्त किया गया है । वहीं भयंकर भूल- में नायिका के हृदय की पीड़ा को मार्मिक ढंग से उकेरा गया है ।
कुल मिलाकर अधिकांश मार्मिक, हृदयग्राही और संवेदना से युक्त बढ़िया बन पड़ी है। कुछ लघुकथाएं कहानी के अधिक समीप प्रतीत होती है । मगर उनमें कथातत्व विद्यमान है।
संग्रह साफ-सुथरे ढंग से अच्छे कागज और साजसज्जा से युक्त प्रकाशित हुआ है। 176 पृष्ठ का मूल्य ₹ 300 है। जो वाजिब हैं ।
लघुकथा के क्षेत्र में इस संग्रह का दिल खोल कर स्वागत किया जाएगा ऐसी आशा की जा सकती है।

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ओमप्रकाश क्षत्रिय 'प्रकाश' ,
पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़
जिला -नीमच (मध्यप्रदेश)
पिनकोड- 458226
9424079675