यह ब्लॉग खोजें

योगराज प्रभाकर लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
योगराज प्रभाकर लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2019

श्रेष्ठ लघुकथाओं में से एक - 1

सम्माननीय मित्रों,
सादर नमस्कार। 

आज से लघुकथा दुनिया पर एक नई श्रृंखला का प्रारम्भ कर रहे हैं। "श्रेष्ठ लघुकथाओं में से एक" नामक इस श्रृंखला में बेहतर लघुकथाओं में से किसी एक को चुन कर, वह बेहतर क्यों है, इस पर वार्ता करेंगे। हालाँकि मुख्य पोस्ट पर मैं मेरे विचार दूंगा, सभी वरिष्ठजन और मित्र कमेंट में अपने विचार को प्रकट करने हेतु पूर्ण स्वतंत्र हैं।  

इस क्रम को प्रारम्भ करते हुए सर्वप्रथम वरिष्ठ लघुकथाकार और लघुकथा के सशक्त हस्ताक्षर श्री योगराज प्रभाकर की लघुकथा अपनी–अपनी भूख पर चर्चा करते हैं। पहले इस रचना को पढ़ते हैं, 

अपनी–अपनी भूख / योगराज प्रभाकर

पिछले कई दिनों से घर में एक अजीब सी हलचल थी। कभी नन्हे दीपू को डॉक्टर के पास ले जाया जाता तो कभी डॉक्टर उसे देखने घर आ जाता। दीपू स्कूल भी नहीं जा रहा था। घर के सभी सदस्यों के चेहरों से ख़ुशी अचानक गायब हो गई थी। घर की नौकरानी इस सब को चुपचाप देखती रहती। कई बार उसने पूछना भी चाहा  किन्तु दबंग स्वाभाव मालकिन से बात करने की हिम्मत ही नहीं हुई। आज जब फिर दीपू को डॉक्टर के पास ले वापिस घर लाया गया तो मालकिन की आँखों में आँसू थे। रसोई घर के सामने से गुज़र रही मालकिन से नौकरानी ने हिम्मत जुटा कर पूछ ही लिया:
"बीबी जी! क्या हुआ है छोटे बाबू को ?"
"देखती नहीं कितने दिनों से तबीयत ठीक नहीं है उसकी?" मालकिन ने बेहद रूखे स्वर में कहा।
"मगर हुआ क्या है उसको जो ठीक होने का नाम ही नहीं ले रहा?" 
"बहुत भयंकर रोग है!" एक गहरी सांस लेते हुए मालिकन ने कहा ।
"हाय राम! कैसा भयंकर रोग बीबी जी?" नौकरानी पूछे बिना रह न सकी । 
मालकिन ने अपने कमरे की तरफ मुड़ते हुए एक गहरी साँस लेते हुए उत्तर दिया:
"उसको भूख नहीं लगती री।"
मालकिन के जाते ही अपनी फटी हुई धोती से हाथ पोंछती हुई नौकरानी बुदबुदाई:               
"मेरे बच्चों के सिर पर भी अपने बेटे का हाथ फिरवा दो बीबी जी।"

-0-

इस लघुकथा पर मैं अपने अनुसार कुछ बातें कहना चाहूंगा।  कोई भी सुधिजन अपनी राय कमेंट में दे सकते हैं।

लघुकथा का उद्देश्य: ऐसे परिवारों की स्थिति को दर्शाना, जो अपने बच्चों के पेट भरने में भी असमर्थ है और पाठकों को इस तरह के परिवारों के न्यूनतम सरंक्षण (भूखे न रहें) हेतु प्रेरित करना। 

विसंगति: सामाजिक और आर्थिक असमानता एक ऐसा दंश  है, जिसे हटा दिया जाए तो हमारे देश का काफी बेहतर विकास हो सकता है। इस लघुकथा का अंतिम वाक्य इस विसंगति को उभार देने में सक्षम है, जब  माँ रुपी नौकरानी अपनी फटी हुई धोती से हाथ पोंछती हुई बुदबुदाती है, "मेरे बच्चों के सिर पर भी अपने बेटे का हाथ फिरवा दो बीबी जी।"

लाघवतालघुकथा में शब्द ना तो कम हों ना ही अधिक। मैंने इस लघुकथा में अतिरिक्त शब्द नहीं जोड़े क्योंकि यह वैसे ही सुस्पष्ट है लेकिन कुछ शब्दों को हटा कर पढ़ा,  हालाँकि ऐसे (शब्दों को हटा कर) पठन पर हर बार मुझे अधूरी ही प्रतीत हुई। दो उदाहरण देना चाहूंगा:

1. इस लघुकथा में //घर के सभी सदस्यों के चेहरों से ख़ुशी अचानक गायब हो गई थी//  पंक्ति हटा कर मैंने फिर पढ़ा तो जो लघुकथा की पहली पंक्ति है - //पिछले कई दिनों से घर में एक अजीब सी हलचल थीI//वह  ही सार्थक नहीं हो पा रही थी। मेरे अनुसार दोनों पंक्तियाँ मिलकर पूर्ण होती हैं। 

2. इस रचना में मालकिन दबंग स्वभाव की हो ना हो क्या फर्क पड़ता है? फिर यह विचार आया कि यदि मालकिन तेज़ न होती तो अंतिम पंक्ति में मालकिन के जाने के बाद नौकरानी का बुदबुदाना इतना प्रभावी नहीं हो पाता। 

कथानक: लघुकथा दो परिवारों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति दर्शाते हुए दोनों परिवारों की माओं के हृदय में बेटे की भूख की चिंता को दर्शा रही है। जहाँ मालकिन को भूख ना लगने की चिंता है, वहीँ नौकरानी को भूख लगने की। लघुकथा का यह कथानक ना सिर्फ आज के समाज का यथार्थ है वरन हमारा दायित्व क्या हो, यह भी सोचने के लिए मजबूर करता है। 

शिल्प: इस लघुकथा के शिल्प की सच कहूँ तो जितनी तारीफ़ की जाए कम है। यह लघुकथा यों तो मुझे पूरी पसंद आई, लेकिन जो सबसे ज़्यादा अच्छा लगा वो इस रचना का शिल्प ही है। सामान्य से वार्तालाप में विशिष्ट को ढूंढ निकाल कर उभारने का बेहतरीन उदाहरण है पाठक इससे खुदको जुड़ा हुआ पाता है और रचना को प्रवाह के साथ पढ़ते हुए जब अंत तक आता है तो बरबस ही द्रवित हो उठता है। यदि पाठक चिंतन प्रवृत्ति का है तो उसके चिंतन के लिए यह रचना एक हल्का सा झटका उत्पन्न करने में सक्षम है और यदि पाठक सामान्यतः अधिक चिंतन प्रवृत्ति का नहीं है तो भी आह और वाह दोनों ही उसके मुंह से निकल ही जाएगा। 

लघुकथा सृजन के समय लघुकथा के प्रारम्भ और अंत पर बहुत ध्यान देना होता है। रचनाकार का कौशल यों तो शीर्षक पढ़ते ही समझ में आ जाता है लेकिन लघुकथा प्रारम्भ करना और उसे अंत तक लाकर पाठकों को प्रभावित कर देना अच्छे शिल्प की निशानी है। रचना का प्रारंभ इस पंक्ति से हो रहा है कि //पिछले कई दिनों से घर में एक अजीब सी हलचल थी।// जो पढ़ते ही उत्सुकता जगाता है कि आखिर बात क्या है? अंत पर हम चर्चा कर ही चुके हैं। हरिशंकर परसाई ने मुकेश शर्मा द्वारा लिए गए उनके एक साक्षात्कार में कहा था कि, "लघुकथा में कम–से–कम शब्द होने चाहिए। विशेषण–क्रिया–विशेषण नहीं हों और चरम बिन्दु तीखा होना चाहिए।" यह रचना इस सन्दर्भ में कसौटी पर खरी उतरती है। 

लघुकथा का मध्य भाग ऐसा हो जो पाठक को अंत तक ले जाने में सक्षम हो, रचना की कसावट सर्वाधिक इसी भाग में देखी जाती है। कम या अधिक शब्द रचना के पठन को बाधित कर सकते हैं। इस लघुकथा में शब्दों की उत्तम लाघवता पर मैं अपने विचार रख ही चुका हूँ। 


शैली: मिश्रित शैली की इस रचना में विवरण और संवाद दोनों को चुस्त रखा गया है।


भाषा एवं संप्रेषण: इस रचना की भाषा आज के समाज की आम भाषा है जिससे लघुकथा आसानी से समझ में आती है। सम्प्रेषण भी कथानक को चुस्त-दुरुस्त रख रहा है। शब्दावली सटीक है, संवादों के शब्द पात्रों के अनुसार अनुकूल हैं और कम से कम शब्दों का प्रयोग कर स्पष्ट बात कही गयी है। प्रयुक्त  भाषा ने रचना की स्वाभाविकता को बनाये रखा है। यही स्वाभाविकता ही इस रचना की भाषायी गुण भी है। 

लघुकथा का आकार: लघुकथा का आकार इसमें निहित वस्तु का सही-सही प्रतिनिधित्व कर पा रहा है। इससे अधिक होने पर कहीं लघुकथा की कसावट में कमी होने की गुंजाइश भी थी और कम पर मैं अपने विचार पूर्व में रख चुका हूँ। 

शीर्षक: अपनी-अपनी भूख शीर्षक इस रचना के कथानक के मर्म 'सामाजिक एवं आर्थिक असमानता' को दर्शाने में पूरी तरह सफल है। साथ ही यह न सिर्फ कलात्मक है बल्कि पाठक के मस्तिष्क में उत्सुकता जगाने में भी समर्थ है। 

पात्र और चरित्र-चित्रण: इस लघुकथा में पात्रों को इस खूबसूरती से ढाला गया है कि प्रारम्भ में पता ही नहीं चल पाता है कि वास्तविक पात्र तो दो ही हैं। आइये प्रारम्भ से पात्रों की गिनती करते हैं: नन्हा दीपू, डॉक्टर, घर के सभी सदस्य, नौकरानी, मालकिन और नौकरानी के बच्चे। लेखक इनमें से किसी भी अथवा सभी पात्रों को उभार सकते थे लेकिन उन्होंने केवल दो ही पात्रों के संवादों पर रचना का आधार रख दिया और अपनी बात कह डाली।

लघुकथा में दीपू के अतिरिक्त और किसी भी पात्र का नामकरण नहीं हुआ है, इससे यह रचना वैश्विक स्तर पर अनुवाद भी की जा सकती है और वैश्विक स्तर के पाठकों से जुड़ सकती है। पाठकों के समाज से जुड़ने के लिए अनुवाद करते समय दीपू के स्थान छोटा बेटा या जिस भाषा में अनुवाद किया जा रहा है, उस भाषा के वर्ग अनुसार कोई अन्य नाम भी रखा जा सकता है।

डॉ. अशोक भाटिया ने अपने लेख "लघुकथा: लघुता में प्रभुता" में कहा है कि //आप जो भी लिखें, उसका प्रमुख पात्र यदि किसी वर्ग कहा हो तो आपकी रचना का वजन बढ जाएगा। प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी ‘पूस की रात’ का नायक हल्कू एक गरीब किसान है। इसलिए उसकी कथा सारे गरीब किसानों की व्यथा-कथा है। यानी लिखते समय रचना को किसी वर्ग की रचना बना सकें तो उसकी ताकत और असर बहुत बढ जाएंगे।// - यहाँ इस रचना में आप यह बात देख सकते हैं। 

कालखंड: यह लघुकथा अपने पहले अनुच्छेद में //पिछले कई दिनों ... हिम्मत ही नहीं हुई।// तक कथानक को स्पष्ट करते हुए उसके बाद एक ही कालखंड में सृजित की गयी है। रचना एक से अधिक कालखंडों में बँटी हुई नहीं है।

संदेश / सामाजिक महत्व: यह लघुकथा समाज के उस वर्ग की स्थिति को दर्शा रही है, जिसे सरंक्षण की ज़रूरत है। भूख आरक्षण नहीं देखती ना ही सामान्य जनता होने के नाते हम उस हर एक व्यक्ति को आरक्षण दिला सकते हैं,  जिसे हम चाहते हैं, लेकिन हम एक हद तक सरंक्षण तो कर ही  सकते हैं। कम से कम हम से सम्बंधित कोई भूखा ना सोए, इस हेतु प्रयास किये जा सकते हैं और करने भी चाहिएं। मालकिन चाहती तो नौकरानी के बच्चे भूखे न रहते। यहां बात उनके सिर पर हाथ घुमा कर भूख ख़त्म करने वाली नहीं है बल्कि उचित सरंक्षण से जुडी हुई है अन्यथा नौकरानी बुदबुदाती नहीं, शायद मुंह पर कह डालती कि मेरे बच्चे भी कहीं-न-कहीं भूखे रहते हैं। यह सन्देश मुझे इस रचना में निहित लगा। इस आवश्यक सन्देश को देना ही इस रचना का महत्व भी है। 

अनकहा : इस लघुकथा का अंत एक ही पंक्ति में बिना अधिक शब्द कहे बहुत कुछ समझा रहा है। लघुकथा का उद्देश्य, सन्देश एवं सार्थकता भी इस पंक्ति में निहित हैं। 

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी 

पठन योग्य:

हरिशंकर परसाई से मुकेश शर्मा की बातचीत



मेरी इस समझ पर कोई कमी किसी को भी प्रतीत हो तो अपनी राय देने हेतु पूरी तरह स्वतंत्र हैं। कृपया अपनी राय कमेंट में प्रेषित करें। 

गुरुवार, 24 अक्तूबर 2019

UPDATE: लघुकथा-2020: नए लेखकों की नजर में

सम्माननीय,
सादर नमस्कार।

नवोदित लघुकथाकारों के लिए 20 प्रश्न और उनके उत्तरों के प्रकाशन की योजना के लिए एक खुशखबर यह है कि वरिष्ठ लोकप्रिय लघुकथाकार श्री योगराज प्रभाकर जी ने सभी के उत्तर पढ़ कर उन पर एक लेख लिखने की अपनी सहमति दे दी है। 

दूसरी, इस नाम से ISBN भी प्राप्त हो गया है। अभी फिलवक्त  ईबुक प्रकाशन का प्रस्ताव है। 

यदि आप 01 जनवरी 2011 या उसके बाद से लघुकथा लिख रहे हैं तो प्रश्नावली के उत्तर देने की प्रार्थना है। विश्वास है लघुकथा पर शोध हेतु यह योजना कारगर साबित हो सकती है। 

यह प्रश्नावली निम्न लिंक कर क्लिक कर डाउनलोड की जा सकती है:
https://drive.google.com/file/d/1tB-ku31HFotKcQmBsPfngh1cVrmPBFxu/view

योजना की जानकारी हेतु निम्न लिंक पर visit करें: 
लघुकथा-2020: नए लेखकों की नजर में



अपने उत्तर आपके चित्र सहित laghukathaduniya@gmail.com पर 31 अक्टूबर 2019 तक (जिन मित्रों को योजना की जानकारी अभी मिली है, वे 15 नवम्बर 2019 तक) ईमेल करने का कष्ट करें। ईमेल में विषय "लघुकथा-2020: नए लेखकों की नजर में" ही रखें।


विशेष निवेदन :
यदि आप 01 जनवरी 2011 के पूर्व से लघुकथा लिख रहे हैं तो यह सन्देश उपयुक्त रचनाकारों तक प्रसारित करने का निवेदन है।

साभार,

डॉ0 चन्द्रेश कुमार छतलानी
लघुकथा दुनिया
Email: laghukathaduniya@gmail.com
URL: http://laghukathaduniya.blogspot.com

बुधवार, 16 अक्तूबर 2019

‘लघुकथा कलश’ के पांचवें अंक (जनवरी-जून 2020) की सूचना



श्री Yograj Prabhakar सर की फेसबुक वॉल से


आदरणीय साथियो
.
‘लघुकथा कलश’ का पांचवां अंक (जनवरी-जून 2020) ‘राष्ट्रीय एकता महाविशेषांक’ होगा जिस हेतु रचनाएँ आमंत्रित हैं. रचनाकारों से अनुरोध है कि वे प्रदत्त विषय पर अपनी 3 चुनिन्दा लघुकथाएँ प्रेषित करें. लघुकथा के इलावा शोधात्मक आलेख व साक्षात्कार आदि का भी स्वागत है.
.
- केवल ई-मेल द्वारा भेजी गई टंकित रचनाएँ ही स्वीकार्य होंगी.
- रचनाएँ केवल यूनिकोड/मंगल फॉण्ट में ही टंकित करके भेजें.
- पीडीएफ़ अथवा चित्र रूप में भेजी गई रचनाओं पर विचार नहीं किया 
जाएगा.
- अप्रकाशित/अप्रसारित रचनाओं को प्राथमिकता दी जाएगी.
- सोशल मीडिया/ब्लॉग/वेबसाईट पर आ चुकी रचनाएँ प्रकाशित मानी 
जाएँगी.
- रचना के अंत में उसके मौलिक/अप्रकाशित होने सम्बन्धी अवश्य लिखें.
- रचना के अंत में अपना पूरा डाक पता (पिनकोड/फ़ोन नम्बर सहित) 
अवश्य लिखे.
- जो साथी पहली बार रचना भेज रहे हैं वे रचना के साथ अपना छायाचित्र 
भी अवश्य मेल करे.
- रचनाएँ भेजने की अंतिम तिथि 15 नवम्बर 2019 है.
- रचनाएँ yrprabhakar@gmail.com पर भेजी जा सकती हैं.
.
विनीत
योगराज प्रभाकर
संपादक: लघुकथा कलश.
दिनांक: 16 अक्टूबर 2019

बुधवार, 2 अक्तूबर 2019

दो पुस्तकें: लघुकथा रचना-प्रक्रिया तथा पल-पल बदलती ज़िन्दगी’ (पंजाबी लघुकथा संग्रह) | योगराज प्रभाकर



वरिष्ठ लघुकथाकार श्री योगराज प्रभाकर  की फेसबुक पोस्ट से 


Yograj Prabhakar is with Ravi Prabhakar.

(1). पुस्तक का नाम: 
लघुकथा रचना-प्रक्रिया
संपादक: योगराज प्रभाकर
पृष्ठ संख्या: 264
आकार: डिमाई
प्रकाशक: देवशीला पब्लिकेशन, पटियाला. 
अंकित मूल्य: 400 रुपये
-
‘लघुकथा रचना-प्रक्रिया’ का विमोचन दिनांक 6 अक्टूबर को सिरसा के आखिल भारतीय लघुकथा सम्मलेन में होगा. यह पुस्तक लघुकथा रचना-प्रक्रिया से सम्बंधित एक परिचर्चा पर आधारित है जिसमे मुझ द्वारा पूछे गए 20 प्रश्नों पर नई व पुरानी पीढ़ी के निम्नलिखित 55 मर्मज्ञों के विशद उत्तर शामिल किए गए है:
डॉ० अनिल शूर 'आज़ाद, डॉ० अनीता राकेश, डॉ० अशोक भाटिया, श्री अशोक वर्मा, सुश्री आभा सिंह, डॉ० उमेश महादोषी, श्री एकदेव अधिकारी, डॉ० कमल चोपड़ा, श्री कमलेश भारतीय, सुश्री कल्पना भट्ट, डॉ० कुँवर प्रेमिल, श्री कुमार नरेंद्र, कृष्णा वर्मा (कनाडा), श्री खेमकरण सोमन, डॉ० चंद्रेश कुमार छतलानी, डॉ० जगदीश कुलरियाँ, डॉ० जसबीर चावला, श्री तारिक असलम तसनीम, श्री त्रिलोक सिंह ठकुरेला, डॉ० धर्मपाल साहिल, डॉ० ध्रुव कुमार, सुश्री पवित्रा अग्रवाल, डॉ० पुरुषोत्तम दुबे, स० प्रताप सिंह सोढी, डॉ० प्रद्युम्न भल्ला, श्री प्रबोध कुमार गोविल, डॉ० बलराम अग्रवाल, श्री बालकृष्ण गुप्ता 'गुरुजी', प्रो० बी.एल आच्छा, श्री भागीरथ परिहार, श्री मधुदीप, श्री माधव नागदा, श्री मार्टिन जॉन, डॉ० योगेन्द्र शुक्ल, श्री रवि प्रभाकर, श्री राजेन्द्रमोहन बंधु त्रिवेदी, डॉ० राधेश्याम भारतीय, स्व० रामकुमार आत्रेय, डॉ० रामकुमार घोटड़, डॉ० रामनिवास मानव, श्री रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, प्रो० रूप देवगुण, सुश्री विभारानी श्रीवास्तव, डॉ० वीरेन्द्र भारद्वाज, डॉ० शील कौशिक, श्री श्यामसुंदर अग्रवाल, डॉ० श्यामसुन्दर दीप्ति, श्री सतीश राठी, डॉ० सतीशराज पुष्करणा, श्री सिद्धेश्वर, श्री सुकेश साहनी, सुश्री सुदर्शन रत्नाकर, श्री सुभाष नीरव, श्री सूर्यकांत नागर व स० हरभजन खेमकरनी.
लघुकथा प्रेमियों के लिए यह पुस्तक मात्र 300 रूपये में उपलब्ध होगी. पुस्तक प्राप्ति हेतु कृपया पे.टी.एम नम्बर 7340772712 पर भुगतान करके मुझे सूचित करें.
---------
(2). पुस्तक का नाम: 
‘पल-पल बदलती ज़िन्दगी’ (पंजाबी लघुकथा संग्रह) 
मूल लेखक: निरंजन बोहा
हिंदी अनुवाद: योगराज प्रभाकर
पृष्ठ संख्या: 104
आकार: डिमाई
प्रकाशक: देवशीला पब्लिकेशन, पटियाला.
अंकित मूल्य: 150 रुपये
‘पल-पल बदलती ज़िन्दगी’ पंजाबी के मूर्धन्य साहित्यकार निरंजन बोहा द्वारा लघुकथा संग्रह है. इस संग्रह में लेखक की 62 प्रतिनिधि लघुकथाएँ शामिल हैं.
लघुकथा प्रेमियों के लिए यह पुस्तक मात्र 100 रूपये में उपलब्ध होगी. पुस्तक प्राप्ति हेतु कृपया पे.टी.एम नम्बर 7340772712 पर भुगतान करके मुझे सूचित करें.

Source:

रविवार, 22 सितंबर 2019

लघुकथा कलश रचना प्रक्रिया महाविशेषांक | वीरेंद्र वीर मेहता

. . . और आख़िर 24 दिन के लंबे 'संघर्ष' के बाद पोस्ट आफिस के मक्कड़जाल से निकलकर 28 अगस्त को रजिस्टर्ड पोस्ट की गई 'लघुकथा कलश' की प्रति मेरे हाथों में पहुंच ही गई।

'थैंक्स टू इंडिया पोस्ट'. . .

लघुकथा कलश का यह चतुर्थ अंक (जुलाई - दिसंबर 2019) 'रचना-प्रक्रिया, महाविशेषांक' के रूप में प्रस्तुत किया गया है। अपने पूर्व अंकों की तरह आकर्षक साज-सज्जा और बढ़िया क्वालिटी के पेपर पर छपा होने के साथ, अपने प्राकृतिक हरे रंग के खूबसूरत कवर पृष्ठ में पत्रिका सहज ही मन को आकर्षित कर रही है।

अपनी पहली नजर में पत्रिका को देखने में यही अनुभव हो रहा है कि 'रचना-प्रक्रिया' पर आधारित यह अंक अपने अंदर बहुत से गुणीजन लेखकों के लघुकथा से जुड़े अनुभवों को समेटे हुए है। पत्रिका में 360+2 कवर पृष्ठों में 126 नवोदित एवं स्थापित प्रतिष्ठित लघुकथाकारों की करीब 250 लघुकथाओं के साथ उनकी रचना प्रक्रिया एवं चार विशिष्ट लघुकथाकारों की लघुकथाओं सहित उनकी रचना प्रक्रिया को स्थान दिया गया है।
इसके अतिरिक्त छः पुस्तक समीक्षाएं और लघुकथा कलश के पूर्व अंकों से जुड़ी बेहतरीन समीक्षाएं भी इस अंक में शामिल की गई हैं। नेपाली लघुकथाओं की विशेष प्रस्तुति में आठ लघुकथाकारों की लघुकथाएं रचना प्रक्रिया सहित शामिल की गई हैं। अंत में कवर पृष्ठ पर अशोक भाटिया जी के बाल लघुकथा 'बालकांड' की योगराज प्रभाकर जी द्वारा काव्यात्मक समीक्षा भी इस अंक का एक आकर्षण बन गई है। निःसन्देह इतनी विस्तृत सामग्री के पीछे 'कलश परिवार' सहित सभी गुणीजन रचनाकारों की मेहनत का भी बहुत बड़ा योगदान है।

किसी भी पत्र-पत्रिका का संपादकीय उस कृति में सम्मलित किए गए अंशों की बानगी के संदर्भ में उसका सत्य प्रतिबिम्ब ही होता है। पत्रिका का सम्पादकीय "दिल दिआँ गल्लाँ" सहज ही रचना प्रक्रिया अंक की प्रेरणा के साथ उसके अस्तित्व में आने की कथा सामने रखता है। सम्पादकीय न केवल लघुकथाकारों को उनके लेखन के प्रति आश्वस्त करने की कोशिश करता है वरन उन्हें उनकी कमियों के प्रति ध्यानाकर्षित करने के साथ लघुकथा विधा पर और अधिक मंथन करने का आग्रह भी करता है।

"साहित्य सृजन अभिव्यंजना से अभिव्यक्ति तक का सफर है, जब अभिव्यक्ति का कद अभिव्यंजना के कद की बराबरी कर ले तब जाकर कोई कृति एक कलाकृति का रूप धारण करती है।" सम्पादकीय में इन शब्दों में दिए गए मंत्र से अधिक साहित्य साधना की और क्या परिभाषा हो सकती है, जिसे एक साधक को अंगीकार कर लेना चाहिए।

लघुकथा के ढांचे और आकार-प्रकार पर आए दिन होने वाले विवादों पर भी सम्पादकीय दृष्टि अपने चिर-परिचित अंदाज में अपना दृष्टिकोण रखने का प्रयास करती है।

बरहाल पत्रिका के विषय में और अधिक विचार तो संपूर्ण पत्रिका पढ़ने के बाद ही लिखे जा सकते हैं, फिलहाल तो इस अंक में शामिल मेरी दो लघुकथाओं श्राद्ध और जवाब को रचना प्रक्रिया सहित मान देने के लिए 'कलश टीम' को हार्दिक धन्यवाद। साथ ही आद: योगराज प्रभाकर सहित, कलश टीम के सभी वरिष्ठ परामर्शदाताओं और अन्य सभी सहयोगियों के साथ-साथ इसमें शामिल सभी गुणीजन रचनाकारों को भी हार्दिक बधाई सहित इस अंक के लिए सादर शुभकामनाएँ।

//वीर//

पत्रिका प्राप्ति के लिये सम्पर्क सूत्र।
MR. YOGRAJ PRABHAKAR :
+91 98725 68228

MR. RAVI PRABHAKAR
+91 98769 30229

मंगलवार, 17 सितंबर 2019

समीक्षा | लघुकथा कलश रचना प्रक्रिया महाविशेषांक | ज्ञानप्रकाश 'पीयूष'



14 सितंबर हिंदी दिवस के यादगार अवसर पर प्रो. रूप देवगुण के द्वारा लघुकथा कलश का 'रचना-प्रक्रिया महाविशेषांक प्राप्त हुआ। दो दिन तक श्री युवक साहित्य सदन, सिरसा में हिंदी दिवस व पुस्तक लोकार्पण समारोह की बड़ी धूमधाम रही।
आज लघुकथा कलश का रचना -प्रक्रिया महाविशेषांक पढ़ने का सुअवसर मिला। सम्पादकीय और कतिपय लघुकथाएँ पढ़ने के उपरांत निरापद रूप से कहा जा सकता है कि प्रस्तुत अंक बहुत उत्कृष्ट,आकर्षक एवं सुन्दर है। विविध विषय-वस्तुओं व शिल्पादि से सुसज्जित यह अंक पूर्व अंकों से बेहतर है। सुन्दर छपाई , आकर्षक मुख्य आवरण पृष्ठ, वर्तनी की परिशुद्धता,उत्कृष्ट कागज़, वरिष्ठ एवं नवोदित लघुकथाकारों की श्रेष्ठ रचनाओं को बिना भेद-भाव के नाम के वर्णक्रमानुसार अंक में स्थान मिलना आदि विशिष्टताएँ लोकतांत्रिक मूल्यों की जीवंतता की परिचायक हैं और प्रस्तुत अंक की खूबसूरती भी।
श्री योगराज प्रभाकर की श्रमनिष्ठा एवं लग्न का जादू सिर पर चढ़ कर बोल रहा है तथा दूरदृष्टि ,पक्का इरादा और साहित्य-सेवा का विशाल जज़्बा सर्वत्र परिलक्षित हो रहा है।

सम्पादकीय पढ़ने से ही इसकी गुणवत्ता का अंदाजा लगाया जा सकता है।नवोदित लघुकथाकारों के लिए यह संजीवनी के समान है। श्री योगराज प्रभाकर जी 'दिल दियाँ गल्लाँ... में रचना-प्रक्रिया महाविशेषांक के मूल अभिप्रेत पर प्रकाश डालते हुए लिखते हैं, "साहित्य- सृजन अभिव्यंजना से अभिव्यक्ति तक का सफ़र है। जब अभिव्यक्ति का कद अभिव्यंजना के कद की बराबरी कर ले तब जाकर कोई कृति एक कलाकृति का रूप धारण करती है । कृति से कलाकृति बनने का मार्ग अनेक पड़ावों से होकर गुजरता है। वे पड़ाव कौन-कौन से हैं, यही जानने के लिए इस अंक की परिकल्पना की गई थी।"

उक्त मन्तव्य के आधार पर निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि वे अपने मूल अभिप्रेत में पूर्णतया सफल हुए हैं। जिज्ञासा व कौतूहल-वश सम्पादकीय के तुरन्त पश्चात सर्व प्रथम मैंने उनकी 'फक्कड़ उवाच' व 'तापमान' लघुकथाएं पढ़ीं।
अधिकांशतः इनकी लघुकथाएं पात्रानुकूल एवं मनोवैज्ञानिक संवादों से सृजित,संवेदना के रस से अभिसिंचित पाठकों के मन के तारों को झंकृत करती हुई , जिज्ञासा एवं कौतूहल का सृजन करती हैं तथा वांछित प्रभाव डाल कर अपने अभिप्रायः व अभिप्रेत को क्षिप्रता से अभिव्यंजित कर डालती हैं। पढ़ कर बड़ा सुकून मिलता है।
अंक में 126 लघुकथाकारों की रचनाएं , नेपाली- लघुकथाएं ,समीक्षाएं आदि समाविष्ट हैं जिन्हें पढ़ने के लिए मन बड़ा व्यग्र एवं उत्सुक है।
इनमें मेरी भी एक लघुकथा एवं रचना- प्रक्रिया सम्मलित की गई है ,इसके लिए मैं 'प्रभाकर' जी का हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ तथा समस्त रचनाकारों को हार्दिक बधाई अर्पित करता हूँ,जिनकी रचनाएँ इस अंक में प्रकाशित हुई हैं।
आशा करता हूँ भविष्य में इससे भी बेहरत महाविशेषांक पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त होगा।
श्री योगराज प्रभाकर जी की दीर्घायु एवं स्वस्थ जीवन की मंगलमय शुभकामनाएं।

ज्ञानप्रकाश 'पीयूष'
17.09.19.

रविवार, 18 अगस्त 2019

"लघुकथा कलश" के "रचना-प्रक्रिया महाविशेषांक" का विमोचन

श्री योगराज प्रभाकर Yograj Prabhakar की फेसबुक वॉल से 


"लघुकथा कलश" के "रचना-प्रक्रिया महाविशेषांक" का विमोचन आज दिनांक 18 अगस्त 2019 को ओमप्रकाश ग्रेवाल विद्या संस्थान, कुरुक्षेत्र (हरियाणा) के तत्त्वावधान में सर्वश्री रामकुमार आत्रेय, डॉ० अशोक भाटिया, डॉ० राधेश्याम भारतीय, डॉ० अमृतलाल मदान, बलराज सिंह मेहरोत डॉ० ओमप्रकाश करुणेश, रवि प्रभाकर व डॉ० ऊषा लाल के कर कमलों से संपन्न हुआ. इस कार्यक्रम में अन्य लोगों के साथ-साथ उदीयमान लघुकथाकार सतविंद्र राणा, पंकज शर्मा, कुणाल शर्मा, सुश्री अंजलि गुप्ता व मधु गोयल भी शामिल थे.






बुधवार, 12 जून 2019

श्री योगराज प्रभाकर की सात लघुकथाएं और मेरी अभिव्यक्ति | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

Image result for yograj prabhakar
मित्रों और साथियों,

लघुकथा विधा में वरिष्ठ लघुकथाकार श्री योगराज प्रभाकर का एक महत्वपूर्ण स्थान है। आपने कई वर्षों तक लघुकथा की साधना करने के पश्चात स्वयं को इस स्थान पर खड़ा किया है। आज आपकी सात लघुकथाएं जो संगीत के सात शुद्ध स्वरों (सप्तक) की तरह ही लघुकथा के हर सुर का निर्माण करती हैं आपके समक्ष प्रस्तुत हैं। लघुकथा के स्वरों और ताल के अनुशासन को स्वयं में समेटे हुए इन रचनाओं को जितनी ही बार पढ़ा जाये, उनसे कुछ-न-कुछ नया सीखने को ही मिलेगा। हर लघुकथा पर मैंने अपनी अभिव्यक्ति भी दी है, जो केवल प्रतिक्रिया मात्र है।
***********************

प्रथम रचना "अपनी अपनी भूख" संगीत का पहला स्वर - षडज, एक मयूर की भाँती गाता हुआ, हमारे मूलाधार चक्र में समाहित होता, एक ऐसा स्वर है, जिसकी frequency सबसे नीची होती है। गंभीरता इस स्वर से झलकती है। ऐसी ही रचना है यह, जो अंत में माँ से अपने भूखे बच्चे की भूख मिटाने के लिये कहलवाती है। //"मेरे बच्चों के सिर पर भी अपने बेटे का हाथ फिरवा दो बीबी जी I"// यह वाक्य भूख की उतनी गहराई तक उतरने में सक्षम हैं, जितना षडज (स) संगीत की गहराई में। भूख भी तो षडज की तरह ही मानव जीवन का "अचल स्वर" है। आइये पढ़ते हैं।

१- अपनी अपनी भूख (लघुकथा)

पिछले कई दिनों से घर में एक अजीब सी हलचल थीI कभी नन्हे दीपू को डॉक्टर के पास ले जाया जाता तो कभी डॉक्टर उसे देखने घर आ जाताI दीपू स्कूल भी नहीं जा रहा थाI घर के सभी सदस्यों के चेहरों से ख़ुशी अचानक गायब हो गई थीI घर की नौकरानी इस सब को चुपचाप देखती रहतीI कई बार उसने पूछना भी चाहा किन्तु दबंग स्वाभाव मालकिन से बात करने की हिम्मत ही नहीं हुईI आज जब फिर दीपू को डॉक्टर के पास ले वापिस घर लाया गया तो मालकिन की आँखों में आँसू थेI रसोई घर के सामने से गुज़र रही मालकिन से नौकरानी ने हिम्मत जुटा कर पूछ ही लिया:
"बीबी जी! क्या हुआ है छोटे बाबू को ?"
"देखती नहीं कितने दिनों से तबीयत ठीक नहीं है उसकी?" मालकिन ने बेहद रूखे स्वर में कहा I
"मगर हुआ क्या है उसको जो ठीक होने का नाम ही नहीं ले रहा?"
"बहुत भयंकर रोग है!" एक गहरी सांस लेते हुए मालिकन ने कहा I
"हाय राम! कैसा भयंकर रोग बीबी जी?" नौकरानी पूछे बिना रह न सकी I
मालकिन ने अपने कमरे की तरफ मुड़ते हुए एक गहरी साँस लेते हुए उत्तर दिया:
"उसको भूख नहीं लगती रीI"
मालकिन के जाते ही अपनी फटी हुई धोती से हाथ पोंछती हुई नौकरानी बुदबुदाई:
"मेरे बच्चों के सिर पर भी अपने बेटे का हाथ फिरवा दो बीबी जी I"
----------------------------------------



द्वितीय रचना "सदियों के फासले" - संगीत के दूसरे स्वर "ऋषभ" की तरह। रे स्वर स से ज्यादा तीव्र है, चल स्वर है, इसका कोमल स्वरुप भी है और शुद्ध स्वरुप भी। सर की यह रचना भी दो स्वरुप लिए हुए है। जहाँ एक तरफ देश की तरक्की देख क़र नायक का मन खिल उठा, वहीँ दूसरी तरफ गाँव में प्रवेश करते ही जीर्ण शीर्ण सी इमारत को देखकर वह सन्न रह गया। शहर और गाँव के विकास के अंतर को दर्शाती यह रचना तीव्र चोट कर ही जाती है। आइये पढ़ते हैं।

२- "सदियों के फासले" (लघुकथा)

तक़रीबन २० साल विदेश में रहने के बाद आज वह अपने गाँव जा रहा था। देश की तरक्की देख क़र उसका मन खिल उठा था I जहाँ कभी कुछ भी नहीं हुआ करता था वहीँ भव्य इमारतें, सड़क पर दौड़ती तरह तरह की देसी विदेशी गाड़ियाँ, बिजली की रौशनी से चमचमाते बड़े बड़े मॉल और खूबसूरत सड़कें देख देखकर हैरान भी था और बेहद खुश भी। उसने विदेश में जो भारत के विकास और इक्कीसवीं सदी में प्रवेश की बातें पढ़ीं थीं, वह सब उसके सामने थीं। गाडी अब शहर छोड़ चुकी थी, और इसके साथ ही आसपास की तस्वीर भी बदलने लगी थी I अब टूटे-फूटे धूल भरे रास्तों ने पक्की सड़कों की जगह ले ली थी I गाड़ी धूल उडाती हुई उसके गाँव पहुँच गई, गाँव में प्रवेश करते ही जब उसकी नज़र एक जीर्ण शीर्ण सी इमारत पर पडी तो वह सन्न रह गया। यह वही पाठशाला थी जिसमे वह पढ़ा करता था I बिना छत के बरामदे में ज़मीन पर बैठकर पढ़ रहे बच्चे विकास की एक अलग ही तस्वीर पेश कर रहे थे। उसको इस तरह हैरान परेशान देखकर एक बुज़ुर्ग ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा:
"बेटा ! इक्कीसवीं सदी शहरों से बाहर नहीं निकलती।"
.....................................................................


आपकी तृतीय रचना "एक और पड़ाव" भी संगीत के तीसरे स्वर "गंधार" को ही तो दर्शा रही है। "ऋषभ" से थोड़ी अधिक frequency लिये गंधार हमारे "मणिपुर" चक्र को जागृत करता है। स्व-उर्जा को थोड़ा और ऊँचा ले लेता है, और आत्मशक्ति प्रदान करता है, स्वयं को जानने की शक्ति देता है। इसी तरह इस रचना में स्वयं को प्रकृति के करीब पा कर नायक ने जाना कि कर्मयोगी परिवार से दूर जाने का नाम नहीं है, बल्कि स्वयं को और अपने परिवार को जानने का भी नाम है। आइये पढ़ते हैं।

३- एक और पड़ाव

बहुत बरसों के बाद वह स्वयं को को बहुत ही हल्का हल्का महसूस कर रहा था. न तो उसे सुबह जल्दी उठने की चिंता थी, न जिम जाने की हड़बड़ी और न ही अभ्यास सत्र में जाने की फिकर. लगभग ढाई दशक तक अपने खेल के बेताज बादशाह रहे रॉबिन ने जब खेल से सन्यास की घोषणा की थी तो पूरे मीडिया ने उसकी प्रशंसा में कसीदे पढ़े थे. समूचे खेल जगत से शुभकामनायों के संदेश आए थे. कोई उस पर किताब लिखने की बात कर रहा था तो कोई वृत-चित्र बनाने की. उसकी उपलब्धियों पर गोष्ठियाँ की जा रही थीं. किन्तु वह इन सबसे दूर एक शांत पहाड़ी इलाक़े में अपनी पत्नी के साथ छुट्टियाँ मनाने आया हुया था. इस शांत वातावरण में वह भी पक्षियों की भाँति चहचहा रहा था. हर समय खेल, टीम, जीत के दबाव और सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाला रॉबिन प्राकृतिक नज़रों में खो सा गया था.

"देखो नंदा, ये पहाड़ और झरने कितने सुंदर लग रहे हैं."
"अरे ! आप कब से प्रकृति प्रेमी हो गये?"
"शुरू से ही हूँ जानूँ."
"मगर कभी बताया तो नही अपने इस बारे में."
"ज़िंदगी की आपा धापी नें कभी समय ही नही दिया."
जवाब में नंदा केवल मुस्कुरा भर दी, फिर रॉबिन के चेहरे पर गंभीरता पसरती देख उसने उसने कहा :
"क्या सोच रहे हो?"
"सोच रहा हूँ, क्यों न हम भी महानगर छोड़ कर यहीं आकर बस जाएँ?" नंदा का हाथ मजबूती से थामते हुए कहा.
"मगर हम करेंगे क्या यहाँ?" नंदा के चेहरे पर आश्चर्य के भाव उभर आये थे.
"थोड़ी सी ज़मीन ख़रीदेंगे और उस पर फूलों की खेती करेंगे."
"आपको जो चीफ सेलेक्टर की जॉब ऑफर हुई है, उसका क्या होगा?"
"मैं उनको साफ़ मना कर दूँगा?"
"ऐसा सुनहरी मौका हाथ से जाने देंगे? मगर क्यों ?"
नंदा का चेहरा अपने दोनो हाथों में भरते हुए रॉबिन ने जवाब दिया:
"आज पहली बार गौर किया नंदा क़ि तुम कितनी खूबसूरत हो."
----------------------------------------------------------------------


संगीत का चौथा स्वर है "मध्यम", इस स्वर की विशेषता यह है कि, किसी भी गायन की शुरुआत इस स्वर से करना बहुत कठिन है। इसे ढंग से साधने के बाद ही इसकी मधुरता का अहसास होता है। मध्यम स्वर का कोमल स्वरूप नहीं है, केवल तीव्र और शुद्ध स्वरुप है। और यही तो चौथी रचना "अपने अपने सावन" में दर्शाया गया है। कच्चे घर में परिवार सहित बारिश का सामना करता हुआ गायक, सावन के मस्ती भरे गीत नहीं गा पाया। मध्यम स्वर "अनाहत चक्र" से सम्बन्धित है, जिससे सृजनशीलता बढती है और अविवेक समाप्त होता है। इस रचना में भी यही तो है, सृजनशील नायक का विवेक अपने परिवार के कष्टों से दूर नहीं जा पाया। आइये पढ़ते हैं।

४- अपने अपने सावन
.
बारिश थी कि रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। कच्ची छत से पानी की धाराएं निरंतर बह रहीं थीं। टपकते पानी के लिए घर में जगह जगह रखे छोटे बड़े बर्तन भी बार बार भर जाते। उसके बीवी बच्चे एक कोने में दुबके बैठे थे। परेशानी के इसी आलम में कवि सुधाकर टपकती हुई छत के लिए बाजार से प्लास्टिक की तरपाल खरीदने चल पड़ा। चौक पर पहुँचते ही पीछे से किसी ने आवाज़ दी:
"सुधाकर जी, ज़रा रुकिए।" आवाज़ देने वाला उसका एक परिचित लेखक मित्र था।
"जी भाई साहिब, कहिए।"
"अरे भाई कहाँ रहते हैं आजकल? परसों सावन कवि सम्मलेन है। मैं चाहता हूँ कि आप बरसात पर कोई ऐसा फड़कता हुआ गीत पेश करें ताकि लोगबाग मस्ती में झूम उठें।"
सावन और बरसात का नाम सुनते ही घर टपकती हुई छत उसकी आँखों के सामने आ खड़ी हुई, टपकते हुए पानी को संभालने में असमर्थ बर्तन उसे मुँह चिढ़ाने लगे।
"क्या सोच रहे हैं? अरे देश के बड़े बड़े कवियों की मौजूदगी में कवितापाठ करना तो बड़े गर्व की बात है।"
"वो सब तो ठीक है, लेकिन मुझसे झूठ नहीं बोला जाएगा।"
---------------------

भारतीय संगीत में पांचवे स्वर का नाम "पंचम" ही रखा गया है, प्रथम स्वर की तरह इसका भी न तो कोमल स्वरूप है और न ही तीव्र स्वरुप - केवल शुद्ध स्वरुप है। अर्थात यह भी अचल स्वर है। इसका प्राणी है - कोयल और चक्र है "विशुद्ध" चक्र - गले में स्थित। कोयल मीठा बोलती है और आदरणीय सर की इस रचना में प्रोड्यूसर अपने स्क्रिप्ट राइटर को मीठा बोलने ही की शिक्षा दे रहा है, लेकिन उसके बोलने का तरीका कडुवा है। विशुद्ध चक्र का जब जागरण होता है, तब गला खराब हो सकता है, लेकिन अंत में मीठा बोलने की क्षमता आ जाती है। यही बात अंत में स्क्रिप्ट राइटर को भी समझ में भी आ जाती है। इसके अलावा "पंचम" अचल स्वर है, प्रोड्यूसर भी यही कह रहा है, कि कहीं भटकने की ज़रूरत नहीं, जो कहा जाये वही करो। अचल रहो। आइये पढ़ते हैं।


५- जमूरे

स्क्रिप्ट के पन्ने पलटते हुए अचानक प्रोड्यूसर के माथे पर त्योरियाँ पड़ गईं, पास बैठे युवा स्क्रिप्ट राइटर की ओर मुड़ते हुए वह भड़का:
"ये तुम्हारी अक्ल को हो क्या गया है?"
"क्या हुआ सर जी, कोई गलती हो गई क्या?" स्क्रिप्ट राइटर ने आश्चर्य से पूछाI
"अरे इनको शराब पीते हुए क्यों दिखा दिया?"
"सर जो आदमी ऐसी पार्टी में जाएगा वो शराब तो पिएगा ही न?"
"अरे नहीं नहीं, बदलो इस सीन कोI"
"मगर ये तो स्क्रिप्ट की डिमांड हैI"
"गोली मारो स्क्रिप्ट कोI यह सीन फिल्म में नहीं होना चाहिएI"
"लेकिन सर नशे में चूर होकर ही तो इसका असली चेहरा उजागर होगाI"
"जो मैं कहता हूँ वो सुनोI ये पार्टी में आएगा, मगर दारू नहीं सिर्फ पानी पिएगा क्योंकि इसे धार्मिक आदमी दिखाना हैI"
"लेकिन ड्रग्स का धंधा करने वाला आदमी और शराब से परहेज़? ये क्या बात हुई?"
"तुम अभी इस लाइन में नए हो, इसको कहते हैं कहानी में ट्विस्टI"
"अगर ये धार्मिक आदमी है तो फिर उस रेप सीन का क्या होगा?"
"अरे यार तुम ज़रुर कम्पनी का दिवाला पिटवाओगेI खुद भी मरोगे और मुझे भी मरवाओगेI ऐसा कोई सीन फिल्म में नहीं होना चाहिएI"
"तो फिर क्या करें?"
"करना क्या है? कुछ अच्छा सोचोI स्क्रिप्ट राइटर तुम हो या मैं? प्रोड्यूसर ने उसे डांटते हुए कहाI
स्क्रिप्ट राइटर कुछ समझने का प्रयास ही कर रहा था कि प्रोड्यूसर स्क्रिप्ट का एक पन्ना उसके सामने पटकते हुए चिल्लाया:
"और ये क्या है? इसको अपने देश के खिलाफ ज़हर उगलते हुए क्यों दिखाया है?"
"कहानी आगे बढ़ाने लिए यह निहायत ज़रूरी है सर, यही तो पूरी कहानी का सार हैI" उसने समझाने का प्रयास कियाI
"सार वार गया तेल लेने! थोडा समझ से काम लो, यहाँ देश की बजाय इसे पुलिस और प्रशासन के ज़ुल्मों के खिलाफ बोलता हुआ दिखाओ ताकि पब्लिक की सिम्पथी मिलेI" प्रोड्यूसर ने थोड़े नर्म लहजे में उसे समझाते हुए कहाI
"नहीं सर! इस तरह तो इस आदमी की इमेज ही बदल जाएगीI एक माफ़िया डॉन जो विदेश में बैठकर हमारे देश की बर्बादी चाहता है, जो बम धमाके करवा कर सैकड़ों लोगों की जान ले चुका है, उसके लिए पब्लिक सिम्पथी पैदा करना तो सरासर पाप हैI" स्क्रिप्ट राइटर के सब्र का बाँध टूट चुका थाI
उसे यूँ भड़कता देख, अनुभवी और उम्रदराज़ अभिनता जो सारी बातें बहुत गौर से सुन रहा था, उठकर पास आया और उसके कंधे पर हाथ रखते हुए धीमे से बोला:
"राइटर साहिब! हमारी लाइन में एक चीज़ पाप और पुण्य से भी बड़ी होती हैI"
"वो क्या?"
"वो है फाइनेंसI फिल्म बनाने के लिए पुण्य नहीं, पैसा चाहिए होता है पैसा! कुछ समझे?"
"समझने की कोशिश कर रहा हूँ सरI" ठंडी सांस लेते हुए उसने जवाब दियाI
सच्चाई सामने आते ही स्क्रिप्ट राइटर की मुट्ठियाँ बहुत जोर से भिंचने लगीं और वहाँ मौजूद हर आदमी अब उसको माफ़िया डॉन का हमशक्ल दिखाई दे रहा है
------------------------


योगराज प्रभाकर जी सर द्वारा सृजित छठी रचना है "कसक", आदरणीय सुधीजनों, "धैवत" संगीत का छठा स्वर है, जिसका प्राणी घोड़ा है और चक्र है "त्रिनेत्र"। अश्व के पास गति और शक्ति दोनों होती है, यह रचना भी एक ऐसे अश्व के बारे में बता रही है जो गाँव से शहर पलायन कर गया और कमाना शुरू कर दिया। "त्रिनेत्र चक्र" मानसिक विचारों को दूर तक भेज सकता है और सोचने-समझने की बाह्य और आंतरिक शक्ति प्रदान करता है और इस रचना के अंत में यही है, एक समझ विकसित होती है, //बेटियों को याद करते हुए एक ठण्डी आह भरते हुए वह बोली : "हमसे तो वो ही अच्छा है जी।"//। आइये पढ़ते हैं।


६- कसक
.
"ये मिठाई कहाँ से आई जी?" अपने खेत के किनारे चारपाई पर चुपचाप लेटे शून्य को निहारते हुए पति से पूछाI
"अरी, वो गुलाबो का लड़का दे गया था दोपहर को।" उसने चारपाई से उठते हुए उत्तर दियाI
"कौन? वही जो शहर में सब्ज़ी का ठेला लगाता है?"
"हाँ वही! बता रहा था कि अब उसने दुकान खोल ली है, उसकी ख़ुशी में मिठाई बाँट रहा थाI" पति ने मिठाई का डिब्बा उसकी तरफ सरकाते हुए कहाI
"चलो अच्छा हुआI" पत्नी ने चेहरे पर कृत्रिम सी मुस्कुराहट आईI
"वो बता रहा था कि उसने बेटे को भी टैम्पो डलवा दिया है, और बेटी को भी कॉलेज में भर्ती करवा दिया है।"
"अच्छा?"
"हाँ! काफी तरक्की कर गया ये लौंडा शहर जाकरI"
बेमौसम बरसात से उजड़े हुए खेत को निहार, पहाड़ जैसे क़र्ज़ और घर में बैठी दो दो कुँवारी बेटियों को याद करते हुए एक ठण्डी आह भरते हुए वह बोली :
"हमसे तो वो ही अच्छा है जी।"
------------------------------


सातवीं रचना "केक्टस का फूल", और संगीत का सातवाँ स्वर है - निषाद, सबसे तीव्र फ्रीक्वेंसी वाला स्वर, इसके कोमल और शुद्ध स्वरुप हैं, बिलकुल उसी तरह, जिस तरह केक्टस के फूल होते हैं, कांटेदार शुद्ध स्वरुप में और सौन्दर्य में कोमल स्वरूप में। रचना की नायिका भी ऐसी ही हैं, चेहरे-मोहरे से कोमल स्वरुप में है और अंत में अपने सद्चरित्र का प्रमाण देते हुए, जब रिवॉल्वर की धमकी देती है तो शुद्ध स्वरुप में (कांटेदार) हो जाती है। आइये पढ़ते हैं।

७- केक्टस का फूल

पीली साड़ी वाली वह नवयुवती सभी के आकर्षण का केंद्र बनी हुई थी, पार्टी में सभी की निगाहें उसी पर थींI उसकी माँ अपने ज़माने की सफल और खूबसूरत अभिनेत्री थी, किन्तु वह अपनी माँ से भी सुन्दर थी, I और अब वह भी फ़िल्मी दुनिया में प्रवेश करने की कोशिश कर रही थीI उसके एक युवा गीतकार मित्र एक विख्यात प्रोड्यूसर से उसका परिचय करवाते हुए कहा:
"इनसे मिलिए सर, ये नीला हैंI ये विदेश में थीं, वहीँ से अभिनय सीख कर आई हैंI"
"हेलो!" नीला को सर से पाँव तक उसकी सुन्दरता निहारते हुए उसने कहाI
"सर! ये मशहूर अभिनेत्री सखी जी की बेटी हैंI"
"ओहो! तभी मैं कहूँ कि इसकी शक्ल जानी पहचानी सी क्यों लग रही हैI" सखी का नाम सुनते ही उनके चेहरे पर अजीब सी चमक आ गई थीI
"आपको तो नए लोग मसीहा कहते हैं, इन्हें भी चाँस दीजिये न सर?" गीतकार ने प्रार्थना भरे स्वर में कहाI
"हाँ हाँ क्यों नहींI भाई हम तो इनकी मम्मी के फैन हुआ करते थे किसी ज़माने में, इनको चांस नहीं देंगे तो और किसे देंगेI" चेहरे पर कुटिल मुस्कान लाते हुए उसने कहाI "मेरे बंगले पर तो उनका आना जाना लगा ही रहता थाI" दाईं आँख दबाते हुए उसने कहाI
"ठीक है सर, आप लोग बात कीजिए मैं ज़रा दूसरे दोस्तों से मिलकर अभी हाज़िर होता हूँI" यह कहकर वह दूसरी तरफ बढ़ गयाI
"तो मिस नीला! ऐसा करो कल रात मेरे बंगले पर आ जाओ, वहीँ बैठ कर आराम से बातें करेंगेI इसी बहाने और मेरी नई फिल्म की कहानी सुन लेनाI" प्रोड्यूसर अब नीला के बिल्कुल पास आकर बैठ गयाI
"काम की बातें अगर आपके दफ्तर में की जाएँ तो बेहतर नहीं होगा सर?" प्रोड्यूसर से दूर सरकते हुए नीला ने कहाI
नीला का रूखा सा उत्तर सुनकर प्रोड्यूसर अपनी झेंप छुपाते हुए ढिठाई भरे स्वर में बोला:
"हाँ तो मिस नीला! बताइए क्या पियोगी? स्कॉच, रम या शेम्पेन?"
"जी शुक्रिया! मुझे इन चीज़ों का कोई शौक़ नहींI"
"कमाल है, विदेश से रहकर भी इन चीज़ों से दूर हो? तुम्हारी देसी मम्मी तो अपने बैग में हर वक़्त विदेशी शराब रखा करती थीI"
"जी, मुझे मालूम हैI लेकिन क्या आपको मालूम है कि मैं अपने पर्स में क्या रखती हूँ?" सोफे से उठते हुए नीला ने पुछाI
"क्या?"
बाहर जाने वाले दरवाज़े की तरफ बढ़ते हुए नीला ने उत्तर दिया:
"भरी हुई रिवाल्वरI"
शराब का बड़ा सा गिलास हाथ में पकडे हतप्रभ प्रोड्यूसर नीला को जाते हुए देख रहा थाI एक ही साँस में पूरी शराब गले में उड़ेलकर वह बुदबुदाया:
"ये हरगिज़ फ़िल्म लाइन के लायक़ नहीं है, बेअक्ल सालीI"

-0-


मित्रों, ये थीं रचनाएँ। आप सभी जानते ही हैं कि वीणा एक ऐसा वाद्य है, जो माँ सरस्वती का प्रिय है, जिसे स्वयं भगवान शिव ने पार्वती के देवी स्वरूप को समर्पित किया था। इसके तारों को झंकृत करने पर पुरातन कालीन से लेकर आधुनिक काल तक के संगीत बजाये जा सकते हैं। वीणा की सरंचना के आधार पर कुछ और वाद्य यंत्र भी निर्मित किये गये। 

मेरे अनुसार श्री योगराज प्रभाकर सर द्वारा सृजित लघुकथाएं वीणा की झंकार की तरह ही हैं, जो हम सभी के मन-मस्तिष्क को अपने तारों के कम्पन के द्वारा झंकृत कर जाती हैं। उन्हीं तरंगों को मैनें अपने शब्दों में कहने का प्रयास किया है। हालाँकि सच तो यह है कि लघुकथा के "वीणावरदंडमंडितकरा" - योगराज प्रभाकर जी सर की किसी भी रचना के लिये कहना मेरे सामर्थ्य से बाहर है।

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी



बुधवार, 20 फ़रवरी 2019

"लघुकथा कलश" के चौथे अंक (जुलाई-दिसम्बर 2019) हेतु रचनाएँ आमंत्रित

श्री योगराज प्रभाकर जी की फेसबुक वॉल से 

आदरणीय साथिओ
.
"लघुकथा कलश" का चौथा अंक (जुलाई-दिसम्बर 2019) "रचना प्रक्रिया विशेषांक" होगा जिस हेतु रचनाएँ आमंत्रित हैंI आपसे सविनय निवेदन है कि आप अपनी दो चुनिंदा/पसंदीदा लघुकथाएँ भेजेंl इन लघुकथाओं के साथ ही इनकी रचना प्रक्रिया पर एक विस्तृत आलेख भी भेजेंl उस आलेख में इस बात का उल्लेख करें कि लघुकथा का कथानक कैसे सूझाl क्या यह कथानक किसी घटना को देखने/सुनने के बाद सूझा या कि कुछ पढ़ते हुए अथवा किसी विचार से इसकी उत्पत्ति हुईl इसके बाद रचना की प्रथम रूपरेखा क्या बनी तथा रचना पूर्ण होने तक उसमे क्या-क्या परिवर्तन किए गएl शीर्षक के चुनाव पर भी रौशनी डालेंl इसके अतिरिक्त रचना प्रक्रिया से सम्बंधित आलेख,साक्षात्कार, संस्मरण व परिचर्चा आदि का भी स्वागत हैl 
.
- केवल ईमेल द्वारा प्रेषित रचनाएँ ही स्वीकार्य होंगीl
- केवल यूनिकोड फॉण्ट में टंकित रचनाएँ ही स्वीकार्य होंगीl 
- रचनाएँ yrprabhakar@gmail.com पर मेल करेंl
- रचनाएँ भेजने की अंतिम तिथि 31-03-2019 हैl 
.
योगराज प्रभाकर 
संपादक: "लघुकथा कलश"
चलभाष 98725-68228

शनिवार, 9 फ़रवरी 2019

लघुकथा कलश (तृतीय महाविशेषांक) की समीक्षा श्री सतीश राठी द्वारा

श्री योगराज प्रभाकर के संपादन में 'लघुकथा कलश' का तीसरा महाविशेषांक प्रकाशित हो चुका है और तकरीबन सभी लघुकथा पाठकों को प्राप्त भी हो चुका है। मुझे भी पिछले दिनों यह विशेषांक प्राप्त हो गया और इसे पूरा पढ़ने के बाद मुझे यह जरूरी लगा कि इस विशेषांक पर चर्चा जरूरी है।

इस विशेषांक के पहले भाग में डॉ अशोक भाटिया, प्रोफेसर बीएल आच्छा और रवि प्रभाकर ने श्री महेंद्र कुमार, श्री मुकेश शर्मा एवं डॉ कमल चोपड़ा की लघुकथाओं के बहाने समकालीन लघुकथा लेखन पर बातचीत की है। यह इसलिए महत्वपूर्ण कहा जा सकता है कि इसमें एक नया लघुकथाकार दो वरिष्ठ लघुकथाकारों के साथ अपनी लघुकथाओं को लेकर प्रस्तुत हुआ है और यह लघुकथाएं विधा की नई संभावनाओं की और दिशा देने वाली लघुकथाएं हैं जिसके बारे में डॉ अशोक भाटिया ने भी इंगित किया है। लघुकथाओं को देखने के बाद लघुकथाओं को लेकर कोई चिंता नहीं रखना चाहिए। बहुत सारी अच्छी लघुकथाएं विशेषांक में समाहित है। नौ आलेख इसे समृद्ध करते हैं। कल्पना भट्ट का पिता पात्रों को लेकर लिखा गया आलेख, डॉ ध्रुव कुमार का लघुकथा के शीर्षक पर आलेख, लघुकथा की परंपरा और आधुनिकता पर डॉक्टर पुरुषोत्तम दुबे ,लघुकथा के द्वितीय काल परिदृश्य पर डॉ रामकुमार घोटड, लघुकथा के भाषिक प्रयोगों पर श्री रामेश्वर कांबोज, खलील जिब्रान की लघुकथाओं पर डॉक्टर वीरेंद्र कुमार भारद्वाज, लघुकथा के अतीत पर डॉक्टर सतीशराज पुष्करणा और राजेंद्र यादव की लघुकथा पर सुकेश साहनी, इनके साथ में तीन साक्षात्कार जो मुझसे,  डॉ कमल चोपड़ा एवं डॉ श्याम सुंदर दीप्ति से लिए गए हैं, कुछ पुस्तकों की समीक्षा, कुछ गतिविधियों की जानकारी, दिवंगत लघुकथाकारों को श्रद्धांजलि, कुछ गतिविधियों का जिक्र और 177 हिंदी लघुकथाओं के साथ नेपाली, पंजाबी, सिंधी भाषा के विभिन्न लघुकथाकारों की लघुकथाएं इतना सब एकत्र कर प्रस्तुत करने के पीछे भाई योगराज प्रभाकर की कड़ी मेहनत हमारे सामने आती है। ऐसे काम जुनून से ही पूरे होते हैं और वह जुनून इस विशेषांक में दृष्टिगत होता है। पाठक यदि इस विधा को लेकर कोई प्रश्न खड़े करते हैं तो उसका जवाब भी उन्हें इस तरह के विशेषांक में प्राप्त हो जाता है। मैं श्री योगराज प्रभाकर जी की पूरी टीम को विशिष्ट उपलब्धि के लिए बहुत-बहुत बधाई देता हूं। पिछले दोनों अंको से और आगे जाकर यह तीसरा अंक सामने आया है और यह आश्वस्ति देता है कि चौथा अंक और अधिक समृद्ध साहित्य के साथ में हम सबके सामने प्रस्तुत होगा। पुनः बधाई।

- सतीश राठी

मंगलवार, 29 जनवरी 2019

लघुकथा समाचार: अखिल भारतीय प्रगतिशील लघुकथा मंच और बिहार आर्ट थियेटर की ओर से लघुकथा कलश के तृतीय महाविशेषांक का लोकार्पण


Patna News - deepa is working on small stories in bihar

Dainik Bhaskar| Jan 28, 2019 | Patna News

अखिल भारतीय प्रगतिशील लघुकथा मंच और बिहार आर्ट थियेटर की ओर से लघुकथा कलश के तृतीय महाविशेषांक का लोकार्पण रविवार को कालिदास रंगालय में किया गया। इस अवसर पर विचार गोष्ठी भी हुई। वरिष्ठ लघुकथाकार डॉ. सतीश राज पुष्करणा, लघु कथा मंच के महासचिव डॉ. ध्रुव कुमार, बिहार आर्ट थियेटर के सचिव कुमार अनुपम, समीक्षक डॉ. अनिता राकेश व विभा रानी श्रीवास्तव ने लोकार्पण किया।

कार्यक्रम में डॉ. सतीश राज ने कहा कि लघुकथा एक लंबा सफर तय कर बहस के चौराहे से उठकर चर्चा के चौपाल तक आ पहुंची है, लेकिन इस विद्या के लिए अभी बहुत काम बाकी है। ऐसे में लघुकथा कलश का प्रकाशन एक सार्थक प्रयास है। डॉ. ध्रुव कुमार ने लघुकथा कलश के संपादक योगराज प्रभाकर और संपादकीय टीम को बधाई देते हुए कहा कि बिहार में लघुकथा को लेकर गहराई से काम हो रहा है। कुमार अनुपम ने लघुकथा को एक महत्वपूर्ण साहित्यिक विद्या बताया।

कार्यक्रम में डॉ. अनीता राकेश, डॉ. मेहता नागेंद्र, विभा रानी, अनिल रश्मि, प्रभात, सिद्धेश्वर, विदेश्वरी प्रसाद, आलोक चोपड़ा, घनश्याम, पुष्पा ने भी अपने विचार व्यक्त किए।

News Source:
https://www.bhaskar.com/bihar/patna/news/deepa-is-working-on-small-stories-in-bihar-043131-3760435.html


शनिवार, 22 दिसंबर 2018

लघुकथा वीडियो

एक छोटे से चावल के दाने पर गायत्री मन्त्र लिखने का हुनर है लघुकथा
- श्री योगराज प्रभाकर

ओबीओ साहित्योत्सव देहरादून में श्री योगराज प्रभाकर जी लघुकथा संग्रह "गुल्लक" (लेखिका राजेश कुमारी जी) की समीक्षा करते हुए। 




गुरुवार, 6 दिसंबर 2018

सन्दीप तोमर (लेखक एवं समीक्षक) द्वारा फेसबुक पर की गयी एक पोस्ट

संदीप तोमर एक अच्छे लेखक ही नहीं बल्कि बढ़िया समीक्षक भी हैं।  आप द्वारा समय-समय पर  लघुकथाकारों को  टिप्स भी दी जाती है। उनकी एक पोस्ट, जो उन्होंने फेसबुक पर शेयर की थी, लघुकथा विधा में अच्छे लेखन का मार्ग प्रशस्त कर सकती है। पोस्ट निम्न है:-

मंगलवार, 4 दिसंबर 2018

लघुकथा कलश द्वितीय महाविशेषांक की डॉ. पुरुषोत्तम दुबे जी द्वारा समीक्षा

लघुकथा कलश द्वितीय महाविशेषांक :

सौ में से सौ प्राप्तांक ।

' लघुकथा कलश 'द्वितीय महाविशेषांक (जुलाई-दिसंबर 2018 )हिंदी लघुकथा संसार में लघुकथाओं की अनोखी , अछूती और बेमिसाल उपलब्धि की एक अकूत धरोहर लेकर सामने आया है। प्रस्तुत अंक की बेहतरी
लघुकथा के क्षेत्र में अद्यतन उपलब्ध उन तमाम अंकों से शर्त्तिया शर्त्त जितने वाले दावों की मानिंद है जिनका लघुकथाओं के स्थापन्न में महती योगदान गिनाया जाता रहा है।

प्रस्तुत अंक के संपादक योगराज प्रभाकर इस कारण से एक अलहदा किस्म के संपादक करार दिए जा सकते हैं गो कि एक संपादक के नाते उनकी निश्चयात्मक शक्ति न तो किसी असमंजस से बाधित है और न ही उदारता का कोई चोला पहिन कर रचना के मापदंड को दरकिनार कर समझौतापरस्त होकर मूल्यहीन रचनाओं को प्रकाशित करने में उतावलापन दिखाती है।
निष्कर्ष रूप में यह बात फ़क़त 'विशेषांक' के मय कव्हर 364 पेजों पर हाथ फेर कर कोरी हवाईतौर पर नहीं कही गई हैं, प्रत्युत इस बात को शिद्दत के साथ कहने में विशेषांक में समाहित सम्पूर्ण सामग्री से आँखें चार कर के कही गई है। मौजूदा विशेषांक पर ताबड़तोड़ अर्थ में कुछ कहना होता , तो यक़ीनन कब का कह चुका होता। क्योंकि मुझको अंक मिले काफी अरसा बीत चुका है। अंक प्राप्ति के पहले दिन से लेकर अभी-अभी यानी समझिए कल ही अंक को पढ़कर पूर्ण किया है और आज अंक पर लिखने को हुआ हूँ। इसलिए अंक को पचाकर , अंक पर अपनी कैफ़ियत उगल रहा हूँ।

वैसे तो कई-एक लघुकथाकार , जिनको यह अंक प्राप्त हुआ है या जिनकी लघुकथा इस अंक में छपी है , अंक पर उनके त्वरित विचार गाहेबगाहे पढ़ने को मिले भी हैं , लेकिन अपनी बात लिखने में इस बात को लेकर चौकस हूँ कि जो भी अंक पर कहने जा रहा हूँ, वह अंक पर पढ़ी अन्यान्यों की टिप्पणी से सर्वदा अलहदा ही होगी। प्रस्तुत अंक पर किसी के लिखे आयातीत विचारों का लबादा ओढ़कर यहाँ अपनी बात रखना कतई नहीं चाहूँगा, चाहे फिर अंक पर अपना विचार-मत संक्षिप्त ही क्यों न रखूँ ?

श्री योगराज प्रभाकर एक अच्छे ग़ज़लगो हैं और अपनी इसी प्रवृत्ति का दोहन वे प्रस्तुत अंक के संपादकीय की शुरुआत 'अर्ज़ किया है ' के अंदाज़ में मशहूर शायर जनाब जिगर मुरादाबादी के कहे ' शेर ' से करते हैं ; " ये इश्क़ नहीं आसां इतना ही समझ लीजे। एक आग का दरिया है और डूब के जाना है।" वाक़ई योगराज sir आप इस अंक को सजाने,संवारने, निखारने और हमारे बीच लाने में बड़े जटिल पथों से गुजरे हैं, इसकी गवाही खुद आपके संपादकत्व में निकला यह अंक भी दे रहा है और हम भी । यह अंक नहीं था आसां तैयार करने में। कर दिया आपने हम गवाह बने हैं। अपने संपादकीय में अंक के संवर्द्धन में एक बड़ी बेलाग बात संपादक योगराज जी ने कही है , " बिना किसी भेदभाव के सबको साथ लेकर चलने की पूर्व घोषित नीति का अक्षरशः पालन करने का प्रयास इस अंक में भी किया गया है। यह मेरा दृढ़ विश्वास है कि ' सबको साथ लेकर ' चलने की अवधारणा तब पराभूत हो जाती है जब अगड़े -पिछडे तर्ज़ पर रचनाकारों का वर्गीकरण कर दिया जाता है। अतः लघुकथा कलश के प्रवेशांक से ही हमने ऐसी रूढ़ियाँऔर वर्जनाएँ तोडना प्रारम्भ कर दिया था । " यह वक्तव्य सूचित करता है कि संपादक लघुकथा के प्रति आग्रही तो है मगर लघुकथा की शर्तों पर लिखी लघुकथाओं के प्रति।

प्रस्तुत अंक में पठनीय संपादकीय के बावजूद सामयिक लघुकथाकारों की लघुकथाओं पर दृष्टिसम्पन्न आलोचकों के गंभीर विचारों के अलावा लघुकथा के तमामं आयामों,उसका वुजूद,उसका सफरनामा,उसकी बनावट-बुनावट पर लघुकथा के विशिष्ट जानकारों के आलेखों का प्रकाशन , अंक को पायदार बनाने में महत्वपूर्ण है। प्रो बी एल आच्छा, डॉ उमेश मनदोषी, रवि प्रभाकर द्वारा लघुकथाओं की सटीक आलोचना के बरअक्स

डॉ अशोक भाटिया,भगीरथ परिहार,माधव नागदा,मधुदीप,डॉ मिथिलेश दीक्षित, रामेश्वर काम्बोज, डॉ रामकुमार घोटड, डॉ सतीशराज पुष्करणा,पुष्पा जमुआर, डॉ शकुन्तला किरण, डॉ शिखा कौशिक नूतन और अंत में प्रस्तुत अंक पर अंक की परिचयात्मक टिप्पणी के प्रस्तोता नाचीज़ डॉ पुरुषोत्तम दुबे के आलेखों का प्रकाशन हिंदी लघुकथा की समीचीनता के पक्ष में उपयोगी हैं।

लघुकथा पर मुकेश शर्मा द्वारा डॉ इन्दु बाली से तथा डॉ लता अग्रवाल द्वारा शमीम शर्मा से लिये गए साक्षात्कार लघुकथा की दशा,दिशा और संभावनाओं पर केंद्रित होकर लघुकथा में शैली और शिल्प पर भी प्रकाश डालता है। 

इस अंक की खास-उल-खास विशेषता यह है कि अंक में 'शृद्धाञ्जली 'शीर्षक के अधीन उन सभी स्वर्गीय नामचीन लघुकथाकारों की लघुकथाओं का प्रकाशन भी किया गया मिलता है ; जो अपने समय में लघुकथा-जगत में सृजनकर्मी होकर लघुकथा के क्षेत्र के चिरपुरोधा बने हुए हैं। 

अंक में आगे हिन्दी में लघुकथा लिखने वाले 245 लघुकथाकारों का जमावड़ा और आगे के क्रम में बांग्ला, मराठी,निमाड़ी,पंजाबी तथा उर्दू के लघुकथाकारों की लघुकथाएं अपने अलग जज़्बे के साथ पठनीय हैं । 

फिर सामने आता है लघुकथा केंद्रित पुस्तकों की समीक्षा का दौर , तदुपरांत देश के विभिन्न प्रान्तों में आयोजित हुई लघुकथा पर गतिविधियों की रिपोर्ट का प्रकाशन , जो अंक को सम्पूर्ण बनाने में अतिरेक रूप में ज़रूरी -सा दृष्टिगोचर होता है|

बधाई , योगराज प्रभाकर जी ,देश भर के विभिन्न भाषा-भाषी लघुकथाकारों की लघुकथाओं को एक जिल्द में समेटने के सन्दर्भ में। इस बात से सबसे ज़्यादा भला उन लघुकथाकारों को होगा , जो अपनी लघुकथाओं की पृष्ठभूमि में अन्यान्य प्रान्तों के कथानकों को तरज़ीह देना चाहते हैं ,ऐसे लघुकथाकार इस अंक के माध्यम से मराठी, बांग्ला, उर्दू , पंजाबी, निमाड़ी आदि की लघुकथाओं के ' लेखन-प्रचलन ' को नज़दीक से समझकर अपनी लघुकथाओं के कथानकों सृजन में भिन्न-भिन्न भाषाओं की शब्द-सम्पदा गृहीत कर सकते हैं और जिसकी वजह से वे अपनी लघुकथाओं के कथानक की प्रस्तुति मेंअपने वर्णित कथानक को भाषा और विचार की दृष्टि से भारतीय राष्ट्रीयता का रंग दे सकते हैं।

- डॉ. पुरुषोत्तम दुबे
सम्पर्क : 93295 81414
94071 86940

रविवार, 2 दिसंबर 2018

"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-44 (विषय: परिणाम)

ओपन बुक्स ऑनलाइन (openbooksonline.com) द्वारा हर माह के अंत में एक दो दिवसीय ऑनलाइन  लघुकथा गोष्ठी का आयोजन किया जाता है। श्री योगराज प्रभाकर जी के सञ्चालन में देश में लघुकथा की यह प्रथम ऑनलाइन गोष्ठी ,पारस्परिक वार्तालाप से लघुकथा विधा को उन्नत बनाने का उत्तम प्रयास करते हुए, एक वर्कशॉप की तरह हो जाती है, जिसमें केवल विधा ही नहीं बल्कि पोस्ट की गयी लघुकथा के गुणों पर भी चर्चा की जाती है। 

43 सफल गोष्ठियों के पश्चात् पिछले माह नवम्बर 2018 की गोष्ठी को निम्न लिंक पर देखा जा सकता है:


(पूर्व की 43  ऑनलाइन गोष्ठियां भी http://openbooksonline.com पर उपलब्ध हैं)

सोमवार, 13 अगस्त 2018

लघुकथा समाचार (अखिल भारतीय लघुकथा सम्मेलन की रिपोर्ट)

लघुकथा का महाकुंभ
क्षितिज द्वारा आयोजित अखिल भारतीय लघुकथा सम्मेलन 
Lokayat | August 12, 2018 | Indore

कोई भी आयोजन अपने आप में एक सृजन होता है या कहें कि मंच पर दी जा रही किसी शास्त्रीय संगीत की प्रस्तुति से इसकी बखूबी तुलना हो सकती है। कंठ कितना सुरीला था से लेकर वाद्यों के तार कितने सुरों में कसे थे, तबला या मृदंग की संगति हो या पाश्र्व से आती तानपूरे की तान, जब तक सब कुछ सही स्वर-लय में न हो, शुद्ध बेला का राग न चुना गया हो, कलाकारों में रियाज़ का तपा सोना न हो, तब तक मंच धन्य नही होता। इसमें बराबरी से सहयोग चाहिए होता है, गुणी श्रोताओं के हर तिहाई पर ताली बजा देने की बजाय क्लिष्ट और साधनापूर्वक प्राप्त की गई कला की बारीकियों को समझ सकंे। इसी के साथ जब बात साहित्य सम्मेलनों की होती है, तब अमूमन समानांतर सत्र, प्रसिद्ध लेखकों का सेलिब्रिटी अंदाज और कुछ पाने वालों की ओर तारीफें और चूक जाने वालों की ओर से इसे धन फूंकने जैसी उपमाओं का लंबा दौर चलता है। अंग्रेजी से परे जाकर सम्मेलन की बात सोचना, उसमें भी हिन्दी की किसी विधा विशेष पर केन्द्रित सम्मेलन की संकल्पना, तिस पर लघुकथा विधा को लेकर भारत भर के विद्वान, मनीषी, शब्द साधक, लेखक और विद्यार्थियों को जोड़कर उस पर मंथन, चिंतन और पोषण जैसे सुर लगाना वास्तव में किसी अप्रचलित राग को नामचीन मंच पर प्रस्तुत करने का जोखिम उठाने जैसा है , लेकिन वास्तविकता यह है कि इंदौर की प्रसिद्ध संस्था ‘क्षितिज ने न केवल यह अप्रचलित राग गाया-बजाया, इस पर संगति की, अपने साथ पाश्र्व स्वर के रूप में लेखकों, विद्वानों, विचारकों, आलोचकों की पूरी बिरादरी को मंच पर अपनी साधना प्रस्तुति के लिए आमंत्रित किया और सबने श्रवणीय, मधुर, अविस्मरणीय और अभूतपूर्व प्रस्तुतियां दीं। पिछले दिनों क्षितिज द्वारा अखिल भारतीय लघुकथा सम्मेलन आयोजित किया गया। आयोजन की पाश्र्वभूमि में स्पष्ट उद्देश्य था-लघुकथा विधा को लेकर किये जा रहे संस्था के प्रयासों का रेखांकन, लघुकथा बिरादरी को एक छत के नीचे लाकर सार्थक चिंतन करना, जिससे विधा का विकास और पोषण सुनिश्चित किया जा सके, स्थापित रचनाकारों, आलोचकों और चिंतक के प्रति आदर भाव के साथ उनसे मार्गदर्शन पाकर इस विधा के साथ चल रहे लेखकों की नई पौध में ऊर्जा का संचार करना।

लघुकथा स्थापना के लिए भगीरथ के अनथक प्रयास और श्यामसुंदर दीप्ति की आभा काम करती रही
लघुकथा विधा पर इससे पहले भी अनेकानेक आयोजन होते रहे हैं। पंजाबी की पत्रिका ‘मिन्नी द्वारा छब्बीस वर्षों से गरिमामय रूप में किये गये कामों का इस विधा के विकास में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इसके अलावा अनेक संस्थान, समूह और व्यक्तिगत प्रयत्नों का आधार इस विधा की मजबूत इमारत को अपना स्वरूप दे पाने के लिए मौजूद रहा है।

क्षितिज के लघुकथा सम्मेलन को लेकर प्रारंभिक चर्चाओं के दौरान इसे कसावट भरा, अनुशासित, एकरसता से परे और सकारात्मक बनाने का लक्ष्य रहा। इसी के आधार पर पूर्व में सम्मेलनों के साक्षी और आयोजन में सहभागी रहे वरिष्ठों के मार्गदशर्न से यह यात्रा प्रारंभ हो सकी। तय समय में सुनिश्चित कामों को पूरा करते हुए जब आयोजन आकार लेने लगा, तब स्वाभाविक था कि कुछ यक्ष प्रश्न उभरे। इसमें उपस्थिति की सुनिश्चितता से लेकर अर्थ प्रबन्धन और आयोजन पर कूटनीति की आशंकाओं को लेकर भी सुगबुगाहटों का सामना संस्था ने किया, पर जब आप उदार सत्य के साथ होते हैं, तब हवा में छूटने वाले तीर भी आपसे बचकर निकलते हैं। इसी भाव पर ‘क्षितिज लघुकथा लेखकों को परिवार के रूप में मंच पर लाने में सफल रहा।

वरिष्ठ साहित्यकार सतीश राठी और 'मिन्नीÓ के संपादक श्यामसुंदर अग्रवाल की भूमिका भी महत्वपूर्ण
अनेक भावनात्मक, संवेदनशील और विचारात्मक मंथनों से गुणवत्ता जांच करने के बाद इस आयोजन के रूप को अंतिम आकार दिया गया। मेहमानों के साथ प्रतिभागियों को भी बेहतर सुविधा, सम्मान और अपनापन मिल सके, इस पर संस्था के सभी सदस्य एकमत रहे। इस तरह इन्दौर शहर की सांस्कृतिक विरासत को साक्षी मानते हुए अपने ही कुटुंब के किसी मांगलिक कार्य को पूरा करने का जिम्मा अपने-अपने मन में रखते हुए क्षितिज के सदस्य इस आयोजन के लिए तैयार थे।

प्रारंभिक स्वागत, निवास व्यवस्था, आहार आदि के आवश्यक पायदानों को पार करने के बाद माहेश्वरी भवन के मंच से मां सरस्वती के समक्ष जो दीप प्रज्वलित हुआ, उसका उजास दूर-दूर तक फैल गया। आयोजन का शुभारंभ ‘क्षितिज के स्तंभ पुरुष सतीश राठी द्वारा सभी के मध्य सम्मेलन की घोषणा, स्वागत और डॉ. पुरुषोत्तम दुबे को समारोह की कमान थमाकर किया गया। मंच पर श्रीमध्यभारत हिन्दी साहित्य समिति, इन्दौर के प्रधानमंत्री प्रो. सूर्यप्रकाश चतुर्वेदी की अध्यक्षता एवं वरिष्ठ कथाकार बलराम के मुख्य आतिथ्य में बलराम अग्रवाल, बी.एल. आच्छा, सतीशराज पुष्करणा, श्यामसुंदर दीप्ति और सूर्यकांत नागर की उपस्थिति में अत्यंत गरिमामय वातावरण निर्मित हुआ। मंचासीन अतिथियों द्वारा मां सरस्वती की मूर्ति पर माल्यार्पण एवं दीप प्रज्वलन के साथ वर्षा टावरी द्वारा कर्णप्रिय सरस्वती वंदना की गई।

मंचासीन अतिथियों के यथोचित स्वागत के पश्चात मंच पर आयी प्रतिनिधि सृजन स्वरूप पुस्तकें, जिनकी उपस्थिति से उद्घाटन की बेला के भाल पर चटकीला कुमकुम और अक्षत लगाने जैसा सुखद दृश्य सामने आया। इस प्रतिष्ठित मंच से सर्वप्रथम विमोचित की गई स्मारिका ‘क्षितिज सफर पैंतीस बरस का, जिसमें ‘क्षितिज के पैंतीस बरस की यात्रा को संजोया गया है। इस सम्मेलन के प्रभावी और सफल हो जाने से अब यह स्मारिका अधिक उल्लेखनीय जान पड़ती है। इसके पश्चात ‘क्षितिज का ताजा अंक सभी लघुकथा प्रेमियों के समक्ष लोकार्पित किया गया। ‘क्षितिज के इस अंक में सन् 2011 से 2017 के बीच की लघुकथाओं को स्थान मिला है।

इसके पश्चात बलराम अग्रवाल की बहुचर्चित पुस्तक ‘परिंदों के दरमियां के विमोचन का साक्षी यह सभागार बना। उल्लेखनीय है कि इस पुस्तक में शामिल अनेक परिंदे सशरीर कार्यक्रम की शोभा बढ़ा रहे थे। इसके आगे मंच को समृद्ध किया रामकुमार घोटड़ की पुस्तक ‘स्मृति शेष लघुकथाकार ने। यह पुस्तक लघुकथा विधा को समृद्ध कर चुके, लेकिन अब हमारे बीच न रहने वाले लघुकथा लेखकों पर केन्द्रित है। इसके बाद मंच पर आया सभी के कौतुहल का विषय बन चुका लघुकथा टाइम्स। लघुकथा विधा के लिए एक मासिक अखबार का होना अपने आप में गौरव की बात है। कान्ताराय और मालती बसंत इसके संपादन में लंबी पारी खेलें, यह शुभकामना है। अपना प्रकाशन, भोपाल द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘ठहराव में सुख कहां(विजय जोशी), जो विमोचन की कड़ी में अगला मोती रहा। इसके बाद विमोचन हुआ अपनी कृति से सम्मेलन में उपस्थिति दर्ज कराने वाले लेखक जॉन मार्टिन की ‘सब खैरियत है (लघुकथा संग्रह) का। अगली कृति थी बांगला में लघुकथा अनुवाद का एक प्रयोग बनी ‘शिप्रा से गंगा तक (बांग्ला लघुकथा संकलन : संपादक- हीरालाल मिश्र)।

लघुकथा विधा को इन सभी कृतियों से संपन्न करने के पश्चात अब मौका था इस विधा को एक नया स्वरूप देने का, जिसके चलते मंचासीन अतिथियों को आयोजन स्थल के उस विशेष स्थान पर ले जाया गया, जहां पर कलाकार किशोर बागरे एवं युवा लघुकथाकार और कलाकर्मी अनघा जोगलेकर द्वारा सृजित किये गये लघुकथा पोस्टरों की प्रदर्शनी उद्घाटन की बाट जोह रही थी। दीप प्रज्ज्वलन, कलाकारों के स्वागत-सम्मान और बारीकी से पोस्टर प्रदर्शनी का अवलोकन करने और विधा को एक नया आयाम देने के लिए सभी उपस्थित जनों द्वारा कलाकार द्वय का अभिनंदन किया गया। महीनों की मेहनत, लंबी दूरी से इस स्थान तक की पोस्टर यात्रा, सृजन का अलहदा अन्दाज और विधा को लेकर समर्पण बरबस सभी का ध्यान खींच रहे थे।
इसके पश्चात पुस्तक प्रदर्शनी एवं बिक्री का स्टॉल सुसज्जित होकर अपने उद्घाटित होने की प्रतीक्षा में था। इसमें उपस्थित लघुकथा लेखकों और भारत भर के अनेक रचनाकारों की रचनाएं, पुरानी पत्रिकाएं, आयोजन में विमोचित होने वाली कृतियों समेत अनेकानेक पुस्तकें शामिल थीं। अतिथियों द्वारा यहां भी दीप प्रज्ज्वलन करने के साथ इस रचना संसार को अपने प्रिय पाठकों तक पहुंचाने का मार्ग प्रशस्त किया गया।

इस उद्घाटन फेरी के पश्चात जब अतिथियों को मंच की ओर मोड़ा गया, तब वहां पर दृश्य कुछ और ही था। प्रोजेक्टर के साथ एक प्रशस्त स्क्रीन मंच की शोभा बढ़ा रही थी। यह समय था ‘क्षितिज और अनुध्वनि स्टूडियो की साझा दृश्य-श्रव्य प्रस्तुति ‘इन्दौर के क्षितिज पर लघुकथा वृत्तचित्र के प्रदर्शन का। तैंतीस मिनट के इस वृत्तचित्र में इन्दौर शहर, यहां की सांस्कृतिक विरासत, खान-पान व पोशाक संबंधी चलन के साथ ही परंपरा और सामाजिक रीति-रिवाज़ों, आतिथ्य तथा सौम्य स्नेह के माहौल का प्रभाव। लघुकथा विधा और इसके पोषण में शहर की भूमिका को साथ जोड़कर दिखाया गया था। ‘क्षितिज के लगभग सभी मील के पत्थर इसमें शामिल रहे। संस्था की लघुकथा यात्रा और सम्मेलन को लेकर उत्साह इस वृत्तचित्र के द्वारा सभी रचनाकारों तक आसानी से पहुंच रहा था। सदस्यों के अलावा अंतरा करवड़े द्वारा इसके निर्माण, लेखन और पाश्र्व स्वर के रूप में विशेष सहयोग दिया गया, जिसे उचित सराहना मिली।

इसके बाद सम्मेलन के मुख्य अतिथि लोकायत के प्रधान संपादक कथाकार बलराम ने उद्घाटन भाषण में खुशी जाहिर की कि साहित्य अकादेमी और दिल्ली की हिंदी अकादमी द्वारा लघुकथा को विधा की मान्यता देकर कथाकारों से लघुकथा पाठ की शुरुआत कर दी गई है। लघुकथा पाठ हेतु देश भर से प्रमुख लघुकथा लेखकों को आमंत्रित किया जा रहा है, जो लघुकथा की स्वीकार्यता के लिए मील के एक और पत्थर के समान है।
आगे उन्होंने कहा कि प्रेमचंद द्वारा इसे गद्य काव्य और कहानी के बीच की विधा कहा गया तो अज्ञेय ने इसे छोटी कहानी कहा। कुछ लोगों ने लघुकहानी और लघुव्यंग्य का राग भी अलापा, लेकिन अंत में लघुकथा नाम ही बचा। काव्यात्मक और कथात्मक लघुकथा लिखने वाले रचनाकारों की महत्वपूर्ण लघुकथाओं का उल्लेख करते हुए एक ओर बलराम ने चैतन्य त्रिवेदी के लघुकथा संग्रह ‘उल्लास का जिक्र किया तो दूसरी ओर यह भी कहा कि लघुकथा में गद्य और काव्य दोनों का समावेश स्वीकार्य है। लघुकथा लिखने के लिए भी परकाया प्रवेश आवश्यक है। लघुकथा यदि लघुकहानी-छोटी कहानी के रूप में भी आती है, तब भी कोई समस्या नहीं है।

बी.एल. आच्छा, बलराम अग्रवाल और अशोक भाटिया की लघुकथा आलोचना ने बड़ी जिम्मेदारी से खर-पतवार साफ किए तो विचार के महत्वपूर्ण मुद्दे भी उठाए।

नई पीढ़ी में दीपक मशाल, संध्या तिवारी, संतोष सुपेकर, अनघा जोगलेकर और शोभना श्याम की लघुकथा को दूर तक ले जाने की क्षमता पर बलराम ने आश्वस्ति व्यक्त की। साथ ही रमेश बतरा, सतीश दुबे, सुरेश शर्मा, जगदीप कश्यप और कुलदीप जैन आदि की लघुकथाएं पढ़े जाने की आवश्यकता पर जोर दिया। बलराम ने कहा कि लघुकथा को स्थापित किए जाने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वह तो पहले से ही स्थापित है। प्रेमचंद और परसाई जैसे सर्जक इसे पहले ही स्थापित कर चुके हैं। माधवराव सप्रे की ‘एक टोकरी भर मिटटी पहली लघुकथा है, जिसे कुछ लोग हिंदी की पहली कहानी कहते हैं।

बलराम ने बताया कि राजेंद्र यादव लघुकथा को विधा ही नहीं मानते थे, लेकिन उन्होंने भी अंतत: खाकसार के ‘भारतीय लघुकथा कोश की भूमिका लिखी और ‘हंस में लघुकथाओं को स्थान देने लगे। उन्होंनेे लघुकथा लेखकों को अन्य विधाओं की महत्वपूर्ण लेखकों की किताबें पढऩे और उन विधाओं में भी लिखने पर जोर दिया। अन्य विधाओं में स्थापित लेखकों-नरेंद्र कोहली, विष्णु नागर, चित्रा मुद्गल, सतीश दुबे, सुभाष नीरव, असगर वजाहत, सुरेश उनियाल, हरीश नवल, रामेरश्वर काम्बोज हिमांशु, नासिरा शर्मा और दामोदरदत्त दीक्षित आदि ने अन्य विधाओं में भी बहुत कुछ लिखने के साथ अनेक अच्छी लघुकथाएं भी हिंदी पाठकों को दी हैं।

इस अवसर पर अपने अध्यक्षीय संबोधन में श्रीमध्यभारत हिंदी साहित्य समिति के प्रधानमंत्री सूर्यप्रकाश चतुर्वेदी ने कहा कि कोई भी विधा छोटी नहीं होती। इसके रचनाकार ही इसे ऊंचाई तक ले जाते हैं। उन्होंने लघुकथा पर हो रहे अखिल भारतीय सम्मेलन के लिए अपनी शुभकामनाएं देते हुए इसे इंदौर शहर के लिए एक बड़ी उपलब्धि बताया।

प्रसिद्ध आलोचक बी.एल. आच्छा ने कहा कि लम्बे समय से लघुकथा विधा के लिए आवश्यक हो चुका इस प्रकार का आयोजन करने में ‘क्षितिज सफल हुआ है। इस सत्र के दौरान ही इन्दौर से संबद्ध और वर्तमान में अंबाला शहर में कहानी लेखन महाविद्यालय और शुभ तारिका पत्रिका का संपादन कर रही वरिष्ठ लेखिका उर्मि कृष्ण का सन्देश वाचन भी किया गया। इस सफल सत्र के समापन पर सभी मंचासीन अतिथियों को स्मृति चिन्ह से सम्मानित किया गया। आभार वसुधा गाडगिल ने ब्यक्त किया।

इस समय तक सभी आगंतुक लगभग घराती बन चुके थे। सभी लेखक, विद्वान, अतिथि और विचारक आपस में चर्चा करते हुए सहज ही आयोजन का एक भाग हो चले थे। अपनी निवास व्यवस्था से आश्वस्त होकर अब सभी प्रतिभागी वास्तविक तौर पर सम्मेलन से लघुकथा विधा को लेकर सारतत्व ग्रहण करने की स्थिति में आ चुके थे। भोजनावकाश के तुरंत बाद प्रारंभ हुआ नियत प्रथम चर्चा सत्र, जिसका विषय था, लघुकथा, कितनी पारम्परिक, कितनी आधुनिक (भाषा शिल्प, विषयवस्तु और शैली)। सारगर्भित विषय पर उतना ही समृद्ध बीज वक्तव्य प्रस्तुत किया प्रसिद्ध लघुकथा लेखक बलराम अग्रवाल ने।

उनके वक्तव्य का सार यह रहा कि साहित्य में हर विधा का अपना महत्व है। लघुकथा की यात्रा जारी रहनी
चाहिए। लघुकथा एक मजबूत विधा है। वर्तमान समय में लघुकथा विधा का महत्व बढ़ता जा रहा है। लघुकथा तो पूर्व से ही अस्तित्व में थी, लेकिन एक विधा के रूप में इसका विकास 20 वीं सदी में अधिक हुआ। प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, माखनलाल चतुर्वेदी, हरिशंकर परसाई, राजेंद्र यादव जैसे साहित्यकारों ने इस विधा में काम किया। लघुकथा में शीर्षक का बहुत महत्व है। शीर्षक ऐसा होना चाहिए, जो लघुकथा के अंत तक जिज्ञासा बनाए रखे। लघुकथा में शीर्षक एक खूंटी की तरह होता है, जिस पर पूरी लघुकथा लटकी रहती है। लघुकथा विधा हाथ मांजने की नहीं, मंजे हाथों की विधा है। लघुकथा का छोटा होना उसकी कमी नहीं है, बल्कि यह तो लघुकथा की ताकत है। जब तक आप कथाकार नहीं बनेंगे तब तक लघुकथाकार नहीं बन सकते हैं। प्रेमचंद का कहना था कि लघुकथा में कहानी और कथ्य दोनों ही होने चाहिए। कुछ साहित्यकारों का कहना है कि हमें लघुकथा को स्थापित करना है। मेरा मानना है कि लघुकथा तो पहले सेे स्थापित है।

इसके बाद चैतन्य त्रिवेदी ने मंच से अपने विचार साझा करते हुए कहा कि कोई भी विधा छोटी या बड़ी नहीं होती है। समकालीन सच्चाइयों के साथ चलते हुए लघुकथा लिखी जानी चाहिए। लघुकथा के अनेक विधान तय करने की वजह से लघुकथा पूर्ण रूप से विकसित नहीं हो पायी है। रचना की आलोचना किसी भी रचना को नकार नहीं सकती है। लघुकथा को नकारने या स्वीकारने का अधिकार सिर्फ पाठकों को है।

अगले वक्ता के रूप में पुरुषोत्तम दुबे द्वारा विचार व्यक्त किये गये। उनके मतानुसार वर्तमान समय में लघुकथा लेखन के क्षेत्र में लेखकों की संख्या में वृद्धि हुई है, लेकिन गिने-चुने लघुकथाकार ही सटीक और सार्थक लघुकथाएं लिख रहे हैं। परम्परा कभी मरती नहीं है, लेकिन परम्परा भी आधुनिकता के साथ कब तक खड़ी रहेगी? परिवर्तन की प्रक्रिया परम्परा की एक स्थिति है। आधुनिकता तो हर युग में रही है। इसके बाद इस सत्र में आमंत्रित लघुकथाकारों द्वारा लघुकथाओं का वाचन किया गया। कपिल शास्त्री ने ‘पंगत, नयना कानिटकर ने ‘बापू का भात, शोभना श्याम ने ‘इंसानियत का स्वाद, मधूलिका सक्सेना ने ‘अगली पीढ़ी, मधु जैन ने ‘अंतिम पंक्ति, डॉ. लीला मोरे धुलधोए ने ‘श्रवण कुमार, डॉ. मालती बसंत ने ‘भाग्यशाली, कविता वर्मा ने ‘नालायक और अंतरा करवड़े ने ‘शाश्वत का पाठ किया। इन लघुकथाओं की समीक्षा श्यामसुंदर दीप्ति एवं संतोष सुपेकर ने की। इस सत्र का संचालन ज्योति जैन ने किया।

इसके पश्चात आयोजन अपनी परिपक्वता को परिलक्षित कर चुका था और यह स्पष्ट रूप से महसूस किया जा रहा था कि जिस प्रकार से इसकी रूपरेखा तैयार की गई थी और अब तक जिस अनुशासनबद्ध तरीके से संचालन जारी है, इसमें सभी का बिना शर्त सहयोग मिलेगा और आगे चलकर यह तथ्य सत्य सिद्ध हुआ।

पोस्टर प्रदर्शनी और पुस्तक प्रदर्शनी के कार्यकर्ता एक बार फिर से थोड़े व्यस्त हो चले थे और फिर मंच पर वरिष्ठ साहित्यकार ब्रजेश कानूनगो ने समय पर कमान संभाल ली। अगले सत्र का विषय था ‘हिन्दी लघुकथा : बुनावट और प्रयोगशीलता। बीज वक्तव्य में प्रख्यात लघुकथाकार और समीक्षक अशोक भाटिया ने कहा कि लघुकथा के साथ पात्रों की वेशभूषा, चाल-ढाल, भाषा आदि देशकाल और वातावरण के अनुरूप होनी चाहिए। वातावरण और देशकाल का सीमित अंश लेकर ही लघुकथा में गहराई पैदा की जा सकती है। आगे उन्होंने कहा कि संकेतात्मक ढंग से लिखी गयी लघुकथा विशिष्ट प्रभाव उत्पन्न करती हैं। लघुकथाओं में विषय तो वही है आयाम अलग-अलग हो सकते हैं। एक विषय पर अनेक आयामों से लघुकथाएं लिखी जा सकती हैं। नये लघुकथाकारों को अपने अध्ययन का दायरा बढ़ाना होगा। अपने संकट को नहीं पहचान पाना ही सबसे बड़ा संकट हैं। हम घटनाओं की गुलामी करना कब छोड़ेंगे? अपने में सामथ्र्य पैदा करने की आवश्यकता है। लघुकथा में लघुकथा का प्रबंध ही लघुकथा की आत्मा है। कम शब्दों में अधिक कहने की प्रवृत्ति होनी चाहिए।

इसके बाद मंच पर पधारे योगराज प्रभाकर। उन्होंने अपने सारगर्भित वक्तव्य में कहा कि कथ्य व कथा का आपस में गहरा संबंध है। कथ्य के बिना कथा कोरी कल्पना है। कथा कथ्य से गुजऱती है। कथा लेखक का चिंतन होती है, जिसे वह कथ्य के माध्यम से अभिव्यक्त करता है। लघुकथा को नये विषयों और नये दृष्टिकोण की तलाश है। लघुकथा को विषयों की पुनरावृत्ति से बचना चाहिए। लघुकथा में रोचकता होनी चाहिए। इसके बाद सिद्धहस्त लघुकथाकार सीमा जैन ने मंच सम्हाला और विषय को आगे बढ़ाते हुए कहा कि हम मौलिक तो बने रहें, लेकिन साथ में नये-नये प्रयोग भी करते रहें, क्योंकि प्रयोग के बिना जीवन अधूरा है। प्रयोग से ही नदी की नई धारा बनेगी।

विद्वानों द्वारा अपने विचार साझा करने के पश्चात इस सत्र में आमंत्रित लघुकथाकारों द्वारा लघुकथाओं का वाचन किया गया। डॉ. रंजना शर्मा ने ‘ममत्व, सीमा भाटिया ने ‘आईना बोल उठा, कोमल वाधवानी ने ‘खाली थाल, उषा लाल मंगल ने ‘संस्कार, सविता मिश्रा ने ‘श्वास, वर्षा ढोबले ने ‘ढोल, संध्या तिवारी ने ‘चिडिय़ा उड़, मनोज सेवलकर ने ‘नियति और पवन जैन ने ‘वैवाहिक' लघुकथा का पाठ किया। इन लघुकथाओं की समीक्षा अश्विनीकुमार दुबे एवं राजेंद्र वामन द्वारा की गई। इस सत्र को बेहतरीन संचालन से ब्रजेश कानूनगो ने संवारा।
चाय के एक और सत्र के बाद जो आवश्यक था, क्योंकि मौसम करवट बदल रहा था और सत्रों के मध्य अनुशासन के चलते फेसबुक पर ही मित्र के रूप में चेहरा देखने वाले अनेक प्रतिभागी एक-दूसरे से रूबरू भी होना चाह रहे थे। तुरंत कविता वर्मा ने अनुशासनप्रिय लहजे में मंच पर आमद दर्ज की।

इस सत्र का विषय था-लघुकथा आलोचना, मापदंड और अपेक्षाएं। अपने बीज वक्तव्य में प्रसिद्ध लघुकथा आलोचक बी.एल.आच्छा ने विचार व्यक्त किये। उन्होंने ‘लघुकथा आलोचना, मापदंड और अपेक्षाएं विषय पर अपने विचार रखते हुए कहा कि वर्तमान समय में कई बेहतरीन कथाकार श्रेष्ठ लघुकथाएँ लिख रहे हैं। लघुकथा को लाउड होने से बचाने की जरूरत है। आज के समय में लघुकथाकार समाज में आए हर एक बदलाव को अभिव्यक्त करने की कोशिश कर रहा है। वह संकटों को पहचान भी रहा है और अपनी प्रयोगशीलता से वैविध्यपूर्ण ढंग से लघुकथा में अभिव्यक्त कर रहा हैं। समकालीन लघुकथा अपनी लोकप्रियता के शीर्ष पर है।
उन्होंने अपने वक्तव्य में लघुकथाकारों से कहा कि नये विषयों की ओर जाएं और जासूसी करें। जिस शब्द को लघुकथा में लिख रहे हैं, उसकी ताकत क्या है यह पहचाने। वर्तमान समय में हर जगह बाजारीकरण आ गया है, बाजार मनोविज्ञान के रूप में भी सामने आता है, जिसे समझे जाने की आवश्यकता है। सूर्यकांत नागर ने कहा कि जब भी साहित्य का मूल्यांकन हो, उसे विश्वसनीय होना चाहिए। लघुकथा की समीक्षा में प्रशंसा अधिक और आलोचना कम होती है। आलोचना रचना का सफर तय करती है। आलोचक तभी न्याय कर सकता है, जब वह रचनाकार की पीर को समझे। काशीनाथ सिंह का कथन है कि आलोचना भी रचना है। कई लघुकथाएं सांकेतिक और बौद्धिक होती हैं, पर इनमें भी कथानक में प्रासंगिकता होनी चाहिए। कथानक में यथार्थ का होना आवश्यक है।

विषय को आगे बढ़ाते हुए मूर्धन्य लघुकथाकार भगीरथ परिहार ने कहा कि आलोचना अलग-अलग रूपों में होती है। पाठक आलोचना नहीं पढ़ता। रचना सार्थक या निरर्थक है, पाठक ही बता सकता है। आलोचना शोधार्थी के लिए सार्थक है और कुछ हद तक लेखक के आगे होने वाले सृजन के लिए मार्गदर्शन है। लघुकथा एक सुगठित विधा है, वह कसी हुई होनी चाहिए। उसमें अनावश्यक विस्तार नहीं होना चाहिए, क्योंकि यह लघुकथा के सौंदर्य में रुकावट डालता है। लघुकथा में उपसंहार नहीं होना चाहिए और जो घटनाएं ले रहे हैं, वे संक्षिप्त होनी चाहिए। लघुकथा में छोटे वाक्य अधिक आकर्षक होते हैं। लघुकथा में कथ्य सशक्त होना चाहिए और वह अभिव्यंजनात्मक और सटीक हो। लघुकथा की वर्तमान स्थिति ठीक नहीं और आलोचना का अर्थ सबको खुश करना नहीं है।

यह सत्र अत्यंत सारगर्भित, विषयानुरूप और सफल रहा। मौसम की परिस्थिति और समय को देखते हुए तय किया गया कि इस सत्र के लघुकथा वाचन और समीक्षा सत्र को अगले दिन सुबह रखा जाए। इसके बाद मंच पर अवतरित हुआ रंगकर्म को समर्पित समूह ‘पथिक। प्रसिद्ध कथाकार एवं रंगकर्मी नंदकिशोर बर्वे के नेतृत्व में व निदेर्शक श्री सतीश श्रोती के कुशल मार्गदर्शन में कलाकारों द्वारा मंच पर लघुकथा विधा को अभिनय से साकार रूप दिया गया। इस दौरान कलाकारों की तैयारी, विषय चयन, अभिनय में कम से कम वस्तुओं के उपयोग से भी कलाकारों द्वारा आश्चर्यजनक सत्रह प्रस्तुतियां दी गईं। ‘मुखौटे शीर्षक से प्रस्तुत यह कला अभिव्यक्ति रंगकर्म और लघुकथा विधा के मध्य एक सेतु के समान प्रभाव छोड़ गई। व्यावसायिक रंगकर्म के प्रदर्शनों के समान न तो यहां पर नेपथ्य था, न प्रकाश व्यवस्था और न ही मूलभूत सुविधाएं। इसके आगे मौसम की मार के चलते बिजली भी नदारद, परंतु वीडियो कैमरा की बैटरी का प्रकाश भी इन कलाकारों के लिए किसी प्रकाश स्तंभ से कम न था। उन्होंने अपना प्रदर्शन जारी रखा और दर्शकों की वाहवाही लूट ले गये।

प्रथम दिवस अनेकानेक आयोजनों का सम्मिश्र प्रभाव प्रतिभागियों और विद्वानों पर छोडऩे में कामयाब रहा। नाटक प्रदर्शन के पश्चात आयोजन स्थल पर बिजली की आमद के चलते सभी सुस्वादु भोजन के साथ दिन भर के आयोजन, बीते समय के संपर्क और नवीन मित्रता के विविध झूलों पर झूलते, इन्दौर में मानसून की आमद दशार्ती आद्र्र हवाओं का आनंद ले रहे थे।

जहां पोस्टर प्रदर्शनी सभी के लिए बेहतर प्रकाश और रोचकता के कारण फोटो और सेल्फी का अधिकृत स्थान बन चुकी थी, वहीं सभी प्रतिभागी और आमंत्रितों के मध्य मंच सज्जा में उपयोग किये गये मालवी सजावट के मांडणा, सूप, पंखी और जूट के प्रभाव व इसके कारण उत्पन्न हो चुके गरिमामय उत्साह की भी खासी चर्चा रही। अस्सी फुट की जूट की दीवार को जहां पोस्टर प्रदर्शनी के लिये विशेष रूप से तैयार किया गया था, वहीं पुस्तक प्रदर्शनी भी जूट और मांडणा के खूबसूरत संयोजन से दर्शनीय थी। प्रवेश द्वार और मंच की सज्जा विशेष रूप से पर्यावरण मित्र प्रकार के सामान से की गई थी, जिसका पूरा जिम्मा संस्कृतिकर्मी भगिनी द्वय भारती-आरती सरवटे और उनके समूह द्वारा उठाया गया था। इस खुशनुमा वातावरण में, अगले दिन के लिए स्वयं को और बेहतर तरीके से तैयार करने का वादा करते कुछ प्रतिभागी अपने कमरों को चल दिये तो कुछ ने मित्रता सत्र पूरे किये, कहीं सुमधुर गीतों की बानगियां बिखरीं तो कहीं पहले की मित्रता और भी मजबूत हो गई।

सम्मेलन का दूसरा दिन तय कार्यक्रम और समय से पूर्व शुरू किया गया। पूर्व संध्या पर आखिरी सत्र के दौरान लघुकथा वाचन और समीक्षा के सत्र इस समय के लिए तय किये गये थे, प्रतिभागी अनुशासन के साथ मंच पर अपनी प्रस्तुतियां देने को तत्पर दिखे। इस सत्र में कल्पना भट्ट ने ‘धरती पुत्र, अनघा जोगलेकर ने ‘जज्बा, कुमकुम गुप्ता ने ‘फूलों का झरना, सेवा सदन प्रसाद ने ‘बेशर्मी, शेख शहजाद उस्मानी ने ‘भूख की सेल्फी, मधु सक्सेना ने ‘माँ ही तो हैं ना, नीना सोलंकी ने ‘पछतावा, आशा सिन्हा कपूर ने ‘प्रीत पराई, अनन्या गौड़ ने ‘शक्ति और गरिमा संजय दुबे ने ‘घर की मुर्गी लघुकथाओं का पाठ किया, जिनकी समीक्षा मालती बसंत और सतीश राठी ने की। संचालन कविता वर्मा ने किया।

सत्र के पूर्ण होने तक सम्मान सत्र हेतु आमंत्रित अतिथि सभागार में अपना स्थान ग्रहण कर चुके थे। यह वह प्रमुख सत्र था, जिसके इर्द-गिर्द लघुकथा सम्मेलन की संकल्पना को बुना गया था। समय था, लघुकथा को लेकर अपने समर्पण के चलते विधा को विस्तार और विकास देते चुनिंदा सर्जकों का सम्मान।

इस अवसर पर अध्यक्ष के रूप में मंचासीन रहे डॉ. शैलेन्द्र कुमार शर्मा (कुलानुशासक, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन), मुख्य अतिथि के रूप में बलराम (कथाकार और ‘लोकायत के संपादक), विशेष अतिथि के रूप में श्रीराम दवे (कार्यकारी संपादक ‘समावर्तन,उज्जैन) और राकेश शर्मा (संपादक वीणा, इंदौर)। सभी ने मां सरस्वती की मूर्ति पर माल्यार्पण और दीप प्रज्जवलन किया। मां शारदा की वंदना और संपूर्ण आयोजन के लिए शुभाशीर्वाद स्वरूप महेन्द्र पंडित द्वारा स्वस्ति वाचन करते हुए मंचासीन तथा उपस्थित जनों को आशीर्वाद दिया गया।

‘क्षितिज के विविध पदाधिकारियों द्वारा इस दौरान मंचासीन अतिथियों का स्वागत किया गया। इसके पश्चात प्रारंभ हुआ, लघुकथा लेखकों को सम्मानित करने का सिलसिला। प्रमुख सम्मानों से लेकर प्रतिभागी सम्मान तक कार्यक्रम में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सहयोगियों से लेकर व्यवस्थापकों तक, सभी को ‘क्षितिज ने आतिथ्य की छांव में सहेजा।

शुरुआत हुई कार्यक्रम के अध्यक्ष डॉ. शैलेन्द्र कुमार शर्मा द्वारा ‘क्षितिज लघुकथा शिखर सम्मान 2018 बलराम अग्रवाल, दिल्ली को लघुकथा के क्षेत्र में उनके समग्र अवदान के लिए प्रदान किया गया। तालियों की गडग़ड़ाहट के मध्य पुष्पगुच्छ, शाल, अंगवस्त्र, स्मृति चिन्ह, श्रीफल और नकद राशि जब बलराम अग्रवाल को अर्पित की जा रही थी, तब उनके मुखमंडल पर थी विधा की गरिमा और ‘क्षितिज के हर सदस्य के मुख पर थी सौजन्यशीलता। सभी मंचासीन अतिथि भी इस क्षण के साक्षी होकर धन्य हुए।

‘क्षितिज लघुकथा समालोचना सम्मान 2018 आलोचना के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य करने के लिए बी.एल. आच्छा, चेन्नई को प्रदान किया गया। मूलत: उज्जैन के निवासी आच्छा वर्तमान में चेन्नई में निवास करते हैं। उनके प्रत्येक शब्द, कृति और व्यवहार में आज भी यहीं का सोंधापन मिलता है। यही असर उनकी आलोचना और नवीन पीढ़ी को अपनेपन से आगे ले जाने के जज़्बे में दिखाई देता है। अपनी परिपक्वता का परिचय देते हुए अपने मार्गदर्शन का मुक्त हस्त से वितरण पूरे आयोजन के दौरान किया। इस सम्मान के दौरान जाने माने लघुकथाकार स्व. श्री सुरेश शर्मा के परिवार से वर्षा शर्मा द्वारा मंच पर उपस्थिति दर्ज करवाई गई। उल्लेखनीय है कि इस पुरस्कार की नकद राशि का सौजन्य ‘क्षितिज को इसी परिवार से प्राप्त हुआ।

इसके पश्चात तालियों की गडग़ड़ाहट के मध्य कथाकार बलराम (दिल्ली) को ‘क्षितिज लघुकथा विशिष्ट सम्मान और सतीश दुबे की स्मृति में ‘क्षितिज नवलेखन पुरस्कार 2018 भोपाल के युवा लघुकथाकार कपिल शास्त्री को प्रदान किया गया। मंच पर अपनी पत्नी आभा शास्त्री के साथ अपने अनोखे अंदाज में उपस्थित कपिल को नवलेखन पुरस्कार प्रदान किये जाने के दौरान लघुकथाकार स्व. सतीश दुबे के सुपुत्र परेश दुबे मंच पर उपस्थित थे। इस पुरस्कार की नकद राशि उनके परिवार द्वारा प्रदान की गई।

इसी के साथ ‘क्षितिज लघुकथा कला सम्मान संदीप राशिनकर और नंदकिशोर बर्वे को दिया गया। ‘दैनिक भास्कर के पत्रकार रवीन्द्र व्यास को उनके योगदान के लिए ‘क्षितिज साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान-2018 से नवाजा गया। शाल, श्रीफल, प्रशस्ति पत्र और स्मृति चिन्ह से इन विभूतियों को सम्मानित किया गया।
इसके साथ योगराज प्रभाकर, सतीशराज पुष्करणा, भगीरथ परिहार, सुभाष नीरव, अशोक भाटिया, कांता रॉय को ‘लघुकथा विशिष्ट सम्मान दिया गया। अनघा जोगलेकर और किशोर बागरे को उनके बनाये पोस्टर और चित्रकारी के लिए ‘क्षितिज कला सम्मान से सम्मानित किया गया। उल्लेखनीय है कि सम्मान के समय क्षितिज संस्था के सदस्यों द्वारा सम्मानित लघुकथाकारों का परिचय एवं उनके द्वारा साहित्य में किए गये योगदान के लिये अभिनंदन पत्र का वाचन किया गया। सम्मान के समय सभी सहभागियों ने अपने स्थान पर खड़े होकर करतल ध्वनि से सम्मानित अतिथियों का अभिनंदन किया।

इस दौरान सभी सम्मानित लघुकथाकारों और कलाकारों की ओर से प्रातिनिधिक उद्बोधन देते हुए बलराम अग्रवाल ने कहा कि साहित्य का मूल कर्म जिज्ञासा पैदा करना है। परकाया प्रवेश कर लेखक वह कर सकता है, जो वह करना चाहता है। लघुकथा की छोटी काया है, उसमें और संकोचन नहीं हो सकता। लेखन व्यवसाय नहीं, व्यसन है। अग्रवाल के भावुक उद्बोधन की सब लोगों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की। कार्यक्रम के दौरान कुछ और बेहतरीन कृतियां इस मंच से पाठकों के मध्य विमोचन के द्वारा पहुंचीं। इनमें सर्वप्रथम था अनघा जोगलेकर का उपन्यास ‘अश्वत्थामा। अनघा ने इस अवसर पर उपन्यास के पीछे अपनी सोच और अवधारणा को स्पष्ट किया।

श्याम सुन्दर दीप्ति के नेतृत्व वाली पंजाबी पत्रिका ‘मिन्नी का अंक भी पाठकों के मध्य प्रस्तुत किया गया। इसके साथ ही विविध भाषाओं में अपना सुवास फैलाती लघुकथा का एक लघु स्वरूप ‘भाषा सखी के रूप में विमोचित हुआ। इसमें अंतरा करवड़े और वसुधा गाडगिल द्वारा महत्वपूर्ण लघुकथा हस्ताक्षरों की चुनिंदा हिन्दी लघुकथाओं को मराठी अनुवाद के साथ प्रस्तुत किया गया है। इस प्रकार इस आयोजन में बांग्ला, पंजाबी और मराठी भाषा तक लघुकथा का जगमग प्रकाश फैल गया।

इसके पश्चात प्रारंभ हुआ लघुकथाकार प्रतिभागियों, ‘क्षितिज के कार्यकर्ताओं, मूर्धन्य साहित्यकारों और कार्यक्रम के लिए प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष मदद करने वाले विविध का सम्मान। उल्लेखनीय है कि सभी लघुकथाकारों द्वारा इस विशेष अवसर के लिए संक्षिप्त परिचय अग्रिम प्राप्त किये गए थे, ताकि वे भी इस गरिमामय समारोह के दौरान अपनी पहचान सभी के समक्ष बना सकें। इस सत्र में अनेक साहित्यकार और लघुकथाकार उपस्थित थे। इसके अलावा कार्यक्रम में सहयोग हेतु विविध व्यक्तियों का सम्मान इस दौरान किया गया, जिनमें प्रमुख हैं, ललित समतानी, दौलतराम आवतानी और राधेश्याम मन्डोवरा

शैलेन्द्र कुमार शर्मा ने अपने संबोधन में कहा कि लघुकथा को आंदोलनधर्मिता से नव विमर्श तक ले जाने में ‘क्षितिज का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इसके संस्थापक-अध्यक्ष वरिष्ठ कथाकार सतीश राठी ने कई वर्षों पहले खुली आंखों से लघुकथा सर्जकों के संगम का जो सपना देखा था, वह इस अखिल भारतीय लघुकथा सम्मेलन के माध्यम से साकार हुआ। बयान दर्ज करते समय रचनाकार का संवेदनशील होना जरूरी है। जब हम घंटा बजाते हैं तो उसकी गूँज लंबे समय तक रहती है। इसी प्रकार हमारी रचना इस प्रकार की होनी चाहिए कि वह पाठकों के दिल को झिंझोड़कर रख दे और वह उन्हें लंबे समय तक याद रहे। अधिकांश लघुकथाकार मध्य वर्ग से आते हंै। इसलिए उन्हें अपनी सोच का दायरा बढ़ाना होगा। कथाकार भी ईश्वर के समांतर शिल्पी है। कुछ लघुकथाकारों ने प्रयोग किए हैं, पर अब कथाएँ खास पैटर्न पर लिखी जा रही हैं।

फार्मूलाबद्ध लेखन से मुक्त होने की जरूरत पर बल देते हुए शैलेंद्र ने कहा कि समाज में बदलते हुए यथार्थ लेखकों को अपनी प्रयोगधर्मिता में स्थान देना होगा। तभी लघुकथा एक मजबूत विधा के रूप में स्थापित हो सकेगी। लघुकथा में मशीनीकृत संवेदनाओं का चित्रण न हो, बल्कि मानवीय संवेदनाओं का यथार्थ चित्रण हो। लघुकथा में मानवीय संवेदनाओं से जुड़ाव न हो तो उसका प्रभाव ही खत्म हो जाता है।

इस अवसर पर विशेष अतिथि श्रीराम दवे (कार्यकारी संपादक ‘समावर्तन) ने अपने वक्तव्य में कहा कि लघुकथाओं का निष्पक्ष आकलन होना आवश्यक है। इस सदी में लघुकथा विधा और आगे विकास करेगी। इस विधा का भविष्य उज्जवल है।

विशेष अतिथि राकेश शर्मा (संपादक ‘वीणा, इंदौर) ने अपने वक्तव्य में कहा कि इंदौर लघुकथाकारों का शहर है। लिखना आसान काम नहीं है। आजकल नये लेखकों की पठनीयता समाप्त हो रही है। यदि उन्हें सार्थक लघुकथा लिखनी है तो उन्हें अधिक पढऩा होगा।

गरिमामय सम्मान के साथ संपन्न यह सत्र लघुकथा विधा के विकास में एक नवीन पृष्ठ जोड़ गया। विधा को लेकर सम्मान, अनुशासन और प्रबन्धन इस सत्र की खासियत रही। कहीं से भी बधाइयों में कंजूसी नही दिखी, वरिष्ठों द्वारा अपरिमित स्नेह लुटाया गया और उनकी आंखों में आने वाली पीढ़ी को लेकर विश्वास की जो चमक दिख रही थी, वह किसी भी सम्मान से परे है। अन्त में श्री ब्रजेश कानूनगो ने आभार प्रदर्शन किया। सत्र का संचालन अंतरा करवड़े ने किया।

एक बार फिर भोजन का स्नेहिल आमंत्रण सभी को एकत्र चर्चा का अवसर दे गया। अब तक आयोजन अपने चरम पर पहुंच चुका था और इसमें दो राय नहीं कि अब तक यदि सब कुछ अपेक्षित हुआ, तो आगे के सत्र भी इसी राह पर होंगे। एक दिन पहले के वृत्तचित्र का असर था या ‘क्षितिज की महिला मेजबानों द्वारा तय स्वरूप में धारण की गई माहेश्वरी साड़ी, अनेक महिला प्रतिभागी आने वाले सत्र से प्राप्त होने वाली विधा संबंधी जानकारी और इंदौर में खरीदारी, इन दोनो ंपलड़ों में झूल रहे थे। सम्मान प्राप्त शब्द साधकों के आसपास बधाइयां देते शुभचिन्तक और उनके साथ इस क्षण को कैमरे में कैद कर लेने की होड़ के कारण भोजन में हो रहा विलंब भी खला नहीं।

अगले सत्र की संचालिका गरिमा संजय दुबे मंच पर स्थान ग्रहण कर चुकी थीं। इस सत्र का विषय था- ‘लघुकथा लोकप्रियता और गुणवत्ता के बीच अन्तर्सम्बन्ध एवं पाठकों के मध्य सेतु निर्माण। बीज वक्तव्य देते हुए वरिष्ठ कथाकार बलराम ने लघुकथा के विविध आयामों पर अपने दृष्टिकोण से लघुकथाकारों को अवगत कराया कि पहली लघुकथा माधवराव सप्रे की ‘एक टोकरी भर मिट्टी मानी जाती है। हालांकि उस समय इसे लघुकथा का दर्जा नहीं दिया गया था। इसे छोटी कहानी कहा गया था। फिर धीरे-धीरे लघुकथा को मान्यता मिली। आज लघुकथा विधा को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है।

उन्होंने आगे कहा कि नये लघुकथाकारों को बहुत पढऩा होगा। आपके पास भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों की किताबें होंगी तो उन्हें बस छू भर लेने से ही आप तर जाएंगे। कला की साधना से ही आप प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकते हैं। जब तक आपकी रचना कलात्मक ऊंचाइयों को नहीं छूती, तब तक आपको प्रतिष्ठा भले ही मिल जाए, लेकिन उसका कोई अर्थ नहीं है। वीणा के तार तो हमारे ह्रदय से ही निकलते हैं। लघुकथा में सौंदर्य होना चाहिए। सौंदर्य और कला से ही आपकी रचना में निखार आ सकता है। अपने आपमें अपना आलोचक पैदा करें। आलोचना से ही आपका विकास होगा। यदि आप लघुकथा लिखते हैं तो इसे स्वीकारने में शर्म कैसी? लघुकथा लेखन केवल शौक पूर्ति का माध्यम नहीं है। साहित्य पठन-लेखन व्यसन है।

संध्या तिवारी ने अपनी बात रखते हुए कहा कि हमारे समकालीन लघुकथाकार बहुत अच्छा और विविध विषयों पर लिखते हुए संवेदनाओं के जरिये पाठकों से जुड़ रहे हैं। लघुकथाकारों को हीन भावना से ग्रस्त नहीं होना चाहिए। यह लघुकथा का विकास काल है और इन दिनों बेहतरीन लघुकथाएं लिखी जा रही हैं।

दूसरे वक्ता और समीक्षक सतीश राठी ने कहा कि यदि लघुकथा के संप्रेषण में भोथरापन है तो वह पाठकों से सेतु नहीं बना सकती। तुलसी की चौपाइयां अनपढ़ व्यक्ति भी सुनाता है और यही उसकी लोकप्रियता है, गुणवत्ता है, जो पाठकों से उसका संबंध स्थापित करता है। इसके पश्चात लघुकथाकारों द्वारा लघुकथा पाठ किया गया। विजय जोशी शीतांशु ने ‘बोलती खामोशी, सीमा जैन ने ‘इंद्रधनुष, श्यामसुंदर दीप्ति ने ‘ताजी हवा, राजेंद्र वामन काटदरे ने ‘अंधेरे के खिलाफ, जया आर्य ने ‘माँ है ये, ओजेंद्र तिवारी ने ‘श्रम की पुकार, पद्मा राजेंद्र ने ‘मातृधन, भीमराव रामटेके ने ‘नंबर वन, डॉ. अखिलेश शर्मा ने ‘आसमानी साजिश और वसुधा गाडगिल ने ‘फफाका लघुकथा का पाठ किया। इन लघुकथाओं की समीक्षा सतीशराज पुष्करणा एवं ज्योति जैन ने की। सत्र का संचालन गरिमा दुबे ने किया। इस समय तक लघुकथा का यह आयोजन स्थानीय मीडिया में भी अपनी छाप छोड़ चुका था। पहले दिन की रिपोर्ट और आज के दिन के लिये साक्षात्कार आदि के दौर चल रहे थे। चाय और नाश्ते के साथ ही सबकी चर्चाएं आयोजन की विविधता


News Source:
http://www.lokayatindia.com/%E0%A4%B2%E0%A4%98%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A4%A5%E0%A4%BE-%E0%A4%95%E0%A4%BE-%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%82%E0%A4%AD/