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सोमवार, 28 फ़रवरी 2022

मेरी एक लघुकथा राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर | मानव-मूल्य

 

मानव-मूल्य / डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

वह चित्रकार अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति को निहार रहा था। चित्र में गांधीजी के तीनों बंदरों  को विकासवाद के सिद्दांत के अनुसार बढ़ते क्रम में मानव बनाकर दिखाया गया था।
उसके एक मित्र ने कक्ष में प्रवेश किया और चित्रकार को उस चित्र को निहारते देख उत्सुकता से पूछा, “यह क्या बनाया है?”
चित्रकार ने मित्र का मुस्कुरा कर स्वागत किया फिर ठंडे, गर्वमिश्रित और दार्शनिक स्वर में उत्तर दिया, “इस तस्वीर में ये तीनों प्रकृति के साथ विकास करते हुए बंदर से इंसान बन गये हैं, अब इनमें इंसानों जैसी बुद्धि आ गयी है। ‘कहाँ’ चुप रहना है, ‘क्या’ नहीं सुनना है और ‘क्या’ नहीं देखना है, यह समझ आ गयी है। अच्छाई और बुराई की परख – पूर्वज बंदरों को ‘इस अदरक’ का स्वाद कहाँ मालूम था?”
आँखें बंद कर कहते हुए चित्रकार की आवाज़ में बात के अंत तक दार्शनिकता और बढ़ गयी थी।
“ओह! लेकिन तस्वीर में इन इंसानों की जेब कहाँ है?” मित्र की आवाज़ में आत्मविश्वास था।
चित्रकार हौले से चौंका, थोड़ी सी गर्दन घुमा कर अपने मित्र की तरफ देखा और पूछा, “क्यों…? जेब किसलिए?”
मित्र ने उत्तर दिया,
“ये केवल तभी बुरा नहीं देखेंगे, बुरा नहीं कहेंगे और बुरा नहीं सुनेगे जब इनकी जेबें भरी रहेंगी। इंसान हैं बंदर नहीं…”
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- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
उदयपुर (राजस्थान)
9928544749
chandresh.chhatlani@gmail.com




शनिवार, 26 फ़रवरी 2022

जनलोक इंडिया टाइम्स में मेरी एक लघुकथा | सब्ज़ी मेकर

 

at janlokindiatimes.com (URL पर जाने हेतु क्लिक/टैप करें)

इस दीपावली वह पहली बार अकेली खाना बना रही थी। सब्ज़ी बिगड़ जाने के डर से मध्यम आंच पर कड़ाही में रखे तेल की गर्माहट के साथ उसके हृदय की गति भी बढ रही थी। उसी समय मिक्सर-ग्राइंडर जैसी आवाज़ निकालते हुए मिनी स्कूटर पर सवार उसके छोटे भाई ने रसोई में आकर उसकी तंद्रा भंग की। वह उसे देखकर नाक-मुंह सिकोड़कर चिल्लाया, "ममा... दीदी बना रही है... मैं नहीं खाऊंगा आज खाना!"

सुनते ही वह खीज गयी और तीखे स्वर में बोली, "चुप कर पोल्यूशन मेकर, शाम को पूरे घर में पटाखों का धुँआ करेगा..."

उसकी बात पूरी सुनने से पहले ही भाई स्कूटर दौड़ाता रसोई से बाहर चला गया और बाहर बैठी माँ का स्वर अंदर आया, "दीदी को परेशान मत कर, पापा आने वाले हैं, आते ही उन्हें खाना खिलाना है।"

लेकिन तब तक वही हो गया था जिसका उसे डर था, ध्यान बंटने से सब्ज़ी थोड़ी जल गयी थी। घबराहट के मारे उसके हाथ में पकड़ा हुई मिर्ची का डिब्बा भी सब्ज़ी में गिर गया। वह और घबरा गयी, उसकी आँखों से आँसूं बहते हुए एक के ऊपर एक अतिक्रमण करने लगे और वह सिर पर हाथ रखकर बैठ गयी। 

उसी मुद्रा में कुछ देर बैठे रहने के बाद उसने देखा कि  खिड़की के बाहर खड़ा उसका भाई उसे देखकर मुंह बना रहा था। वह उठी और खिड़की बंद करने लगी, लेकिन उसके भाई ने एक पैकेट उसके सामने कर दिया। उसने चौंक कर पूछा, "क्या है?"

भाई धीरे से बोला, "पनीर की सब्ज़ी है, सामने के होटल से लाया हूँ।"

उसने हैरानी से पूछा, "क्यूँ लाया? रूपये कहाँ से आये?"

भाई ने उत्तर दिया, "क्रैकर्स के रुपयों से... थोड़ा पोल्यूशन कम करूंगा... और क्यूँ लाया!"
अंतिम तीन शब्दों पर जोर देते हुए वह हँसने लगा।
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- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

बुधवार, 23 फ़रवरी 2022

लघुकथा संग्रह समीक्षा | कितना-कुछ अनकहा | समीक्षक: अनिल मकारिया | लेखिका: कनक हरलालका

विचारक बन पाना आसान बात नहीं है और वो भी साहित्य में, जहां आपके समक्ष कई महारथी सितारे सदृश चमक रहे हों। ऐसे में अपने विचारों में ताज़गी और नयापन ही आपकी कलम को प्रकाशित कर सकते हैं। अनिल मकारिया से मेरी पहचान यों तो एक अच्छे लघुकथाकार के रूप में हुई थी लेकिन कुछ ही समय में उनकी समीक्षा करने की शैली में एक ऐसी ताज़गी का अनुभव हुआ जिससे मैं प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाया। कनक हरलालका के लघुकथा संग्रह 'कितना-कुछ अनकहा' की समीक्षा आपने चार भागों में की है और लगभग सभी रचनाओं पर अपनी बात रखी है। इस तरह की समीक्षा, मैं मानता हूँ कि, सभी के समक्ष आनी चाहिए। समीक्षा के चारों भाग यहाँ भी प्रस्तुत हैं:

लघुकथा संग्रह: कितना-कुछ अनकहा

समीक्षक: अनिल मकारिया

लेखिका: कनक हरलालका

प्रकाशन : दिशा प्रकाशन, दिल्ली

मूल्य : ₹३००

पृष्ठ : १२०


भाग-1

एक 65 साला इंसानी जुर्रत है जो अपनी रचनाओं के बाबत लिखती हैं, "लघुकथारूपी रस्सियों से आसमान को बांधकर ज़मीन पर लाने का यह मेरा एक प्रयास मात्र है।"

मुझे आश्चर्य है की जब इनकी हमजातें सास-बहू के विवाद और अमलतास-हरसिंगार की प्रेम कहानियां लिख रही होंगी तब यह जुर्रत 'गांधी को किसने मारा?' 'मिट्टी' और 'इनसोर' रच रही थी।

शालीन और मौन जुर्रत की अगर कोई इंसानी पहचान होती तो शायद वह कनक हरलालका के नाम से जानी जाती।

इस पुस्तक का लेखकीय व्यक्तव्य पढ़ने से पहले भी मुझे जर्रा भर शुबहा नही था कि कनक जी की कलम पर पवन जैन सर के अदब की रहबरी है।

किसी भी लेखक/लेखिका की जनप्रियता इस बात पर भी निर्भर करती है कि वह खुद को किस तरह से प्रस्तुत करता है?

आजकल खुद को प्रस्तुत करने के मायने fb वॉल या इंस्टा की तस्वीरें हैं लेकिन यहां पर मेरा सवाल लेखन द्वारा प्रस्तुत करने से संबंधित है।

आप जब किताबों में जादू और तिलस्म पढ़ने की ख्वाहिश रखते हैं तो अनायास ही जे.के रोलिंग का नाम जादुई झाड़ू पर सवार आपके दिमाग के इर्द-गिर्द घूमने लगता है। उसी प्रकार चेतन भगत युवा वर्ग और नए दौर के लेखन का परिचायक बन चुके हैं क्योंकि इन्होंने इस तरह के ही लेखन द्वारा खुद को प्रस्तुत किया है।

अनकहा केवल कनक जी के लघुकथा लेखन का ही परिचायक नही है बल्कि उनके द्वारा सोशल साइट्स की हर बहस-मुबाहिसा में भी स्वंय को अनकहा ही रखना खुद के शालीन प्रस्तुतिकरण का स्थापन है।

इस लघुकथा संग्रह के बारे में मधुदीप सर की लिखी इन पंक्तियां से भी मैं इतेफाक रखता हूँ,

'इन लघुकथाओं को पढ़कर हम विधा(लघुकथा विधा) की ताकत को सहज ही समझ सकते हैं।'

'कितना-कुछ अनकहा' शीर्षक लेखिका की लघुकथाओं का ही नही वरन् लेखिका के व्यक्तित्व का भी प्रतिनिधित्व कर रहा है और शीर्षक के ऐन नीचे बना चित्र भी खुद का अनकहा ही व्यक्त कर रहा है।

 चित्र में पति-पत्नी-बच्चे के सामाजिक त्रिकोण के बीच में फंसी लाल बिंदी के बहते आंसू एवं गुबार उस त्रिकोण की सीमा रेखा को लांघते साफ दिख रहे हैं।

 पढ़ते-पढ़ते

दो दुश्मन देशों के राष्ट्राध्यक्ष शतरंज खेल रहे हैं (अनकहा) लेकिन लघुकथा में यह कहीं नही लिखा गया कि वे दोनों राष्ट्राध्यक्ष हैं या फिर दुश्मन देशों के हैं। यह काबिले रश्क अंदाजे बयाँ हैं कनक जी का।

इस लघुकथा के दो सबसे छोटे संवाद जब आप पढ़ते हो।

"हाँ, तो तुम क्या लोगे?"

"जो तुम ले रहे हो।"

लगता है कि बात तो हो रही है शराब की लेकिन मन में कहीं बजता है मानों दो देशों के बीच किसी विवादास्पद क्षेत्र या प्रदेश को हड़पने, कब्जा कर बैठने का तंज मारा जा रहा है। (अनकहा)

इन दोनों संवादों से पहले वाले संवाद भी अपरोक्ष रूप से हमेशा चलने वाली सैनिक झड़पों का ही इशारा दे रहे हैं।

एक बढ़िया कथ्य //बाजी फिर उलझ गई।//  पर लघुकथा खत्म करके लेखिका प्रस्तुत कर सकती थी लेकिन पता नही किस प्रभाव से अंत में जबरन अस्वाभाविकता जोड़ दी गई है।

//पर तभी अचानक... खड़े-खड़े देखते रह गए// इन पंक्तियों से लघुकथा में अप्रभावी कथ्य एवं अस्वाभाविकता का जन्म हो रहा है।

यह पंक्तियां पढ़कर मुझे लगा जैसे एक बेहतरीन शिल्प और कथ्य को बलपूर्वक खत्म कर दिया गया।

मुझे इस संग्रह की समीक्षा से अलग सिर्फ इस लघुकथा की समीक्षा करने के लिए इन्हीं बेज़ा अंतिम पंक्तियों ने मजबूर किया है।

इस लघुकथा का कथानक एवं शीर्षक चयन इतना मौजूं है कि आप इसे कनक जी के इस संग्रह की (कितना-कुछ अनकहा) प्रतिनिधि लघुकथा कह सकते हैं ।

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भाग-2

120 पन्नों के संग्रह में कुल 87 लघुकथाएं हैं अब मैं अगर संग्रह 29 लघुकथाओं को भागों में विभक्त करके पहले भाग की 29 लघुकथाओं में से चुनिंदा बेहतरीन एवं कमजोर लघुकथाओं की बात रखूंगा और मैं कोशिश करूँगा की मेरा यह प्रयास पाठकों के लिए नीरस साबित न हो। अगर आपने कनक जी को पहले पढ़ा है तो जानते होंगे की इन के लघुकथा रूपी कमरे में से एन वही वस्तु गायब कर दी जाती है जिसकी तलाश में पाठक उस कमरे में मौजूद होता है और उसी चीज को ढूंढने के लिए पाठक पुनः पुनः उस लघुकथा रूपी कमरे में अपनी हाजिरी दर्ज करवाता रहता है।

लेखिका के इसी हस्ताक्षर लेखन की बानगी है संग्रह की प्रथम लघुकथा 'प्यास'। मुझे यकीन है की पाठक इस बेहतरीन शिल्प से कसी लघुकथा पर नायिका की प्यास समझने के लिए कई बार दस्तक देंगे।

'घुटन' शीर्षक वाली लघुकथा के किरदार ऑटोरिक्शा चालक को मैं आज की आपाधापी से भरी स्वार्थी जिंदगी का अविष्कार मानता हूं। आज किसीके पास खुद के परिवार के लिए वक्त नही है और ऐसे दौर में एक ऑटो रिक्शा चालक यह उम्मीद रखता है कि कोई जिंदा इंसान उसके बेटे की मौत के बाबत उससे पूछे या उसका दर्द सुनें... मैं यकीन दिलाता हूं कि आप इस लघुकथा का अंत पढ़ते हुए खुद को कहीं न कहीं जरूर जोड़ लोगे, याद आने लगेगा कि कब आपने आईने, दीवार, पेड़ या किसी जानवर के सामने अपना ग़ुबार बाहर निकाला था ताकि अंदर की घुटन से मुक्ति मिल सके।

'भीड़' 'जंगली' और 'बंद ताले' लघुकथाएं अच्छी बन पड़ी हैं। बालमन केंद्रित लघुकथायें 'भूख' और 'सुख' ने मुझे विशेष आकर्षित किया है अगर आप संवेदनशील हैं तो इन दो लघुकथाओं को पढने से पहले अपने भीतर निर्दयता का मुलम्मा जरूर चढ़ाइए।

'राह' 'रंगीन मौसम' 'प्रतिदान' अपेक्षाकृत कमजोर लघुकथाएं हैं। 'राह' के कथानक एवं कथ्य की मांग भावनात्मक प्रस्तुतिकरण की थी जबकि यह लघुकथा किसी 'बालकथा' की मानिंद प्रस्तुत कर दी गई है। 'रंगीन मौसम' हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे के पुराने कथ्य पर लॉक डाउन वाले कथानक का तड़का लगाने का प्रयास है लेकिन प्रस्तुतिकरण प्रभावहीन है या फिर लेखन वह अहसास नही पैदा कर पाया जिसकी दरकार थी।

'प्रतिदान' रावण महिमामंडन एवं यशोधरा त्याग वाले सामाजिक बहस-मुबाहिसे के ट्रेंड वाले दौर की कृति है जिसे आप हिस्टोरिकल फिक्शन के तौर पर पढ़ सकते हैं लेकिन अब यशोधरा-बुद्ध वैचारिक अलगाव वाला कथ्य ऊब और खीज का ही निर्माण करता है।

'अनकही' सरल-सहज कथानक वाली संजीदा लघुकथा है लेकिन इसमें जिस तरह कथ्य को प्रस्तुत किया गया है वह काबिले-तारीफ है।

'कीचड़' कथा है इस दौर में भी भीतर तक पेवस्त असमानता एवं भेदभाव के कीचड़ की, संदेश एवं प्रस्तुतिकरण मुखर होने के बावजूद मुझे यह लघुकथा मंजिल तक पंहुचने से कुछ पहले ही दम तोड़ती महसूस हुई क्योंकि इसमें स्त्री विद्रोह वाले स्वर को हीन रखा गया है और मुखिया के किरदार को अधिक प्रबलता से प्रस्तुत किया गया है।

'कठपुतलियां' लघुकथा की विस्तृत समीक्षा मैं पिछली पोस्ट में कर चुका हूं।

'वापसी' लघुकथा में शहर का प्रतिनिधित्व करती सड़क और गांव को दर्शाती पगडंडी का वार्तालाप उतना ही दिलचस्प है जितना किसी महिला के लिए सास-बहू का विवाद। इस लघुकथा का शिल्प और शीर्षक रचनाकार के लेखन/साहित्य स्तर का अलिखित प्रमाणपत्र है।

'गरीब' लघुकथा के उम्दा अंदाजे-बयाँ एवं बढ़िया कथानक चयन के मुकाबले चौंक अथवा पंचलाइन प्रभावहीन महसूस हुई ।

'दरकन' लघुकथा घरेलू महिला की दरक रही हसरतों का रोजनामचा है। एक बेजोड़ रचनाकर्म जिसे नवोदित लघुकथाकारों को सिलेबस की तरह पढना चाहिए ।

'कामचोर' इस लघुकथा की गैरजरूरी अंतिम पंक्ति //कामचोर का काम...हो चुका था// हटा दी जानी चाहिए। यह लघुकथा आज के दौर में भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी कि भूख।

मैं 'बोन्साई' लघुकथा का विस्तृत विवेचन करना चाहूंगा। (नीचे दिए चित्र में लघुकथा पढ़ सकते हैं।)

लघुकथा में मुख्य किरदार के पति की तेरहवीं है और उसका 63 साल का गुज़श्ता दांपत्य जीवन उसकी आंखों के आगे कुछ इस तरह नमूदार है मानों किसी वृक्ष के विकास को शैशवकाल से ही उसकी जड़ों को बांधकर एवं शीर्ष पर दबाव डालकर अवरुद्ध कर दिया गया हो।

जिसे अपनी शाखाएं फैलाने की उतनी ही आजादी है जितनी वृक्ष को 'बोन्साई' बनाने वाला देना चाहता है।

इस लघुकथा का शीर्षक इसके कथ्य का मिनिएचर है।

इस लघुकथा में एक भी शब्द कम करने की गुंजाइश नही है जो भी विन्यास रचा गया है बेहद जरूरी है।

इस लघुकथा की पंचलाइन //बेटा, आप लोग जैसा...कैसे करना चाहते...!// बीते 63 साल का निचोड़ कहने में सक्षम है।

यह कनक जी की लिखी बेहतरीन रचनाओं में अपने उम्दा शिल्प के कारण ली जा सकती है। 

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भाग-3

कुछ लघुकथाएं होती है जिनकी विवेचना आप तत्काल करके फ़ारिग नही हो सकते क्योंकि ऐसी लघुकथाएं आपको विमर्श की राह पर बनाये रखती हैं और बार-बार पढ़ने के लिए उद्वेलित करती हैं। इस संग्रह की चुनींदा लघुकथाएं इसीप्रकार की विशेषता रखती हैं।

जैसे. कठपुतलियां, बोन्साई, असूर्यम्पश्या, प्राण-प्रतिष्ठा, समय सीमा, खबर, मिट्टी, कैरियर, गूंज और भेड़िया आया।

यदि आप इस संग्रह की शुरुआती तीस लघुकथाएं पढ़ने के बाद यह कहते हुए किताब रख देंगे कि 'भाई! हर संग्रह की शुरुआती चंद रचनाएँ ही बेहतर होती हैं।' तो यक़ीन मानिए आप लघुकथा विधा की खूबसूरती का बयान करती हुई कई शानदार लघुकथाओं को पढ़ने से वंचित रह जाओगे।

'बोन्साई' लघुकथा की मैं मुकम्मल समीक्षा पिछले भाग में कर ही चुका हूं।

कठोर कांक्रीट से बने शहर के फ्लैट में अपने गांव के घर-खेत की मिट्टी तलाशते बुजुर्ग और उनके पोते की व्यथाकथा है 'बालकनी'।

समझौतों की मौली बांधती हुई उम्दा संवादात्मक लघुकथा है 'सगाई की अंगूठी'।

'चलो पार्टी करें' 'चौकीदार' 'ख्वाहिशें' अगर लेखिका के लेखन स्तर के मुकाबले कमजोर लघुकथाएं है तो 'मौसम' और 'अलग-अलग जाड़ा' अपने प्रस्तुतिकरण की वजह से औसत लघुकथाएं मालूम पड़ती हैं।

उम्रभर घर-संसार में बंधी गृहणी को अपने जीवन के सांयकाल में विदेश जाने का निमंत्रण पत्र मिलता है, उसकी इसी दुविधा को दर्शाती हुई लघुकथा 'खुला आकाश' का कथ्य मुझे 'बोन्साई' का कैरिकेचर प्रतीत हुआ।

बढ़िया शीर्षक और संदेश वाली लघुकथा है 'ऑक्सीजन' । शिक्षा से बदलाव की हवा पैदा करती हुई नई पीढ़ी अब अपने अनपढ़ मां-बाप को भी साफ हवा और साफ खाने का महत्व समझाने लगी है।

'जरूरी सामान' लघुकथा बुजुर्गों की मसरूफियत की कथा है इसका प्रस्तुतिकरण एवं कथ्य तो बढ़िया है ही साथ ही शीर्षक चयन भी बेमिसाल है। 

'बदलते सुर' बेटे द्वारा अपनी जिंदगी के संतुलन को ठीक करने के लिए माँ पर आजमाई हुई एक तरकीब की कथा है, निःसंदेह! आम पाठक को यह लघुकथा जरूर पसंद आएगी। 

'असूर्यम्पश्या' में अगर प्रतीकात्मकता द्वारा लेखिका ने सफलतापूर्वक बंदिनी/महिला का दर्द प्रस्तुत किया है तो 'रफ कॉपी' के जरिये से महिला की शादीशुदा जिंदगी का विश्लेषण भी उसी निर्ममता से किया है।

'प्राण-प्रतिष्ठा' 'निशानदेही' और 'रोशनी' मुझे कमजोर लघुकथाएं लगी जिन्हें कसा जाना चाहिए अथवा उनके अंत पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए।

'शहादत' अगर एक बच्चे की युद्ध विभीषिका पर प्रकट जिज्ञासा का मौन जवाब है तो 'सड़क और पुल' चुनावी नारों का कानफाड़ू शोर । 'अनुदान' साहब के घरेलू नौकरों और बाहर के गरीबों का फर्क समझाती हुई शानदार लघुकथा है।

"तो अम्मा, युद्ध के कारण छह-सात दिनों से हमें खाना नहीं मिल रहा है, अगर हम भी भूख और प्यास से मर जाएंगे तो क्या हम भी शहीद ही कहलाएंगे?"

'शहादत' लघुकथा में बच्चे के मुंह से निकला हुआ यह प्रश्न अगर युद्ध से नफ़रत करने पर मजबूर न कर दे तो यकीनन अब हम इंसानों को शहादत के मायने बदलने पड़ेंगे।

'रोशनी' घिसे-पीटे कथ्य एवं कथानक वाली लघुकथा है जिसके प्रस्तुतिकरण में भी कोई नयापन नही है।

 इस भाग में मैं मुकम्मल विवेचना हेतु, कनक जी की वैचारिक रूप से कमजोर लघुकथा 'प्रतिफलन' लेने की जुर्रत करूँगा। (सलंग्न चित्र में यह लघुकथा पढ़ी जा सकती है)

हमारे देश में कई विचारों के साथ एक विचार यह भी प्रसिद्ध है कि कॉन्वेंट स्कूल धीरे-धीरे बच्चों को पश्चिमी सभ्यता एवं ईसाइयत की ओर अग्रसर करते हैं और इसी विचार को समर्थित करती लघुकथा है 'प्रतिफलन'।

इसतरह के किसी भी अतार्किक विचार का समर्थन करती रचना अपने आप में ही एक कमजोर रचना होकर रह जाती है बिल्कुल वैसे ही जैसे आप सैटेलाइट और रॉकेट के इस दौर में भी पृथ्वी के चपटी होने के विचार का समर्थन करती कोई रचना लिख दो।

आज भारत के करोड़ों बच्चे कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ते हैं, उसमें से कितने प्रतिशत ईसाई बन जाते हैं या चर्च में जाने लगते हैं और मारिया से शादी कर लेते हैं ?

अगर इतिहास और फैक्ट्स की बात की जाए तो भारत के अशिक्षा उन्मूलन कार्य में सबसे बड़ा योगदान इन्हीं कान्वेंट स्कूलों का रहा है बाकी बात रही बच्चों के पश्चिमी सभ्यता उन्मुख होने की तो सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले या फिर झोपड़पट्टी में रहने वाले अशिक्षित किशोर तक पश्चिमी सभ्यता की नकल करने लगे हैं तो इसे इस तरह तो कतई नही ले सकते कि कान्वेंट की वजह से पश्चिमी सभ्यता का प्रचार प्रसार हो रहा है।

भारत में कई युवा हैं जो चर्च, दरगाह, गुरुद्वारा और मंदिर जाना पसंद करते है और हर प्रकार के धार्मिक स्थल का इतिहास जानना चाहते हैं । विविधता में एकता विचार वाले इस देश में इस तरह के एकतरफा एवं एकधर्मी विचार पर लघुकथा लिखना कतई सराहनीय नही हो सकता।

अब क्योंकि मूल विचार ही कमजोर है तो मैं शीर्षक, शिल्प, कथ्य इत्यादि लघुकथा के बाकी अंगों के बारे में नही लिखूंगा।

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भाग-4 (अंतिम)

जिन पाठकों ने इस पुस्तक समीक्षा के पिछले तीनों भाग पढ़े हैं, वे इतना तो समझ ही चुके होंगे कि यह पुस्तक अपनी छपी कीमत के मुकाबले पाठक को बेहतर साहित्य मुहैया करवा रही है।

जनसेवा से शुरू हुई आजाद भारत की राजनीति आज निजी स्वार्थ को पूरा करने के लिए किन कुटिलताओं से गुजरती है! यह समझाती हुई लघुकथा 'गहरे पानी पैठ' अपने व्यंग्यात्मक संवादों की वजह से दिलचस्प तो है ही लेकिन उतनी ही प्रखर भी है और यह साबित करती है इस लघुकथा की समापन पंक्ति 'मंत्री जी के ख्याल गहरे पानी के स्वीमिंगपूल में तैर रहे थे।'

कुछ रचनाएँ समझाई नहीं जा सकती बल्कि वह मासूम प्रेम की तरह सिर्फ महसूस की जा सकती हैं और 'गीतांजलि' लघुकथा ऐसी ही रचनाओं में शामिल है। यह लघुकथा रवींद्रनाथ टैगौर को आदरांजलि देती प्रतीत होती है।

मैंने 'प्रतिफलन' लघुकथा की जिस मुखरता से आलोचना की थी आज उसी मुखरता से 'नक्शे कदम' लघुकथा की तारीफ करना चाहूंगा। एक मशहूर खेल को कथानक में लेकर जिस तरह भारत के अनेकता में एकता वाले विचार को कथ्य में निरूपित किया है उसके लिए लेखिका को मेरी ओर से एक सलाम!

'खो गई छाँव' मेरे जैसे प्रकृति प्रेमी के लिए एक डरावनी लघुकथा है लेकिन प्रकृति का विनाश रोकने के लिए साहित्य द्वारा यह डर प्रस्तुत करते रहना भी उतना ही जरूरी भी है।

 'क्लासिक' एक कमजोर संदेश देती हुई अलग-सी लघुकथा है। प्रस्तुतिकरण की शैली इसे अपनी तरह की दूसरी लघुकथाओं से अलग कर रही है।

 'गुणवत्ता' लघुकथा में 'नक्शे कदम' की भांति एक मशहूर खेल को कथानक में लेकर राजनीति की सत्तालोलुपता का कथ्य तरीके एवं सलीके से प्रस्तुत किया गया है।

'अंदर...बाहर...' लघुकथा बनावटी जिंदगी एवं दिखावटी प्रेम का दस्तावेज है जिसके अंत में प्रस्तुत निजता भी एक स्वार्थ अथवा छलावा है।

'दोषी कौन' और 'बरसती आंखे' मुझे सन्देशहीनता की वजह से विशेष प्रभावित नहीं कर पाई।

 'मिट्टी' आज के संवेदनहीन समाज का ब्लड टेस्ट करती एक मार्मिक लघुकथा है। साधारण कथ्य की अलहदा प्रस्तुति है लघुकथा 'कैरियर' ।

'कैक्टस के फूल' आधुनिक समस्याओं का भावनात्मक निवारण प्रस्तुत करती शानदार लघुकथा है।

'नया इंकलाब' लघुकथा का निर्वहन ठीक से नहीं हुआ है। / / उस शाम गड़रियों ने भेड़ों के माँस की शानदार दावत की। / / यह पंक्ति कुछ अजीब-सी लगी। मानवेत्तर अथवा प्रतीकात्मक लघुकथाओं की भी अपनी कुछ स्वभाविकताएँ एवं अस्वभाविकताएँ होती है।

'दुर्गा अष्टमी' और 'जीवन स्त्रोत' के कथ्य, कथानक पुराने होने के बावजूद लघुकथाओं की बुनावट अच्छी है।

मेरे नजरिये से 'बड़ा कौन' एक औसत लघुकथा है क्योंकि इसका कथ्य कहता है कि रचयिता ही अपनी रचना के साथ अन्यायपूर्ण रवैया अपनाता है। वह क्षमाशील नहीं है और वह निर्दोष, मासूमों या अहंकारियों में कोई फर्क न करते हुए दावानल की भांति अंधा न्याय करता है।

स्त्री व्यथा की बानगी 'चुटकीभर सिंदूर' अगर औसत लघुकथा है तो 'खबर' उतनी ही सशक्त एवं मार्मिक प्रस्तुति है।

 'आवरण' लघुकथा बरबस ही वरिष्ठ साहित्यकार कीर्तिशेष मधुदीप गुप्ता सर की याद दिला देती है।

'अधूरा सच' का निर्वहन एकतरफा है। हर आंदोलन के दो पहलू होते हैं अगर यह ध्यान में रखकर लिखा जाता तो लघुकथा बेहतरीन में शुमार होती।

'जनानी जात' लघुकथा पढ़कर मुझे गर्व की अनुभूति होती है कि मुझे कनक जी जैसी सशक्त लेखनी का सान्निध्य प्राप्त है। आप यह लघुकथा पढ़कर समझ सकते हो कि घिसे-पिटे कथ्य के प्रस्तुतिकरण में नवीनता क्या कमाल कर जाती है!

 'गूंज' लघुकथा वाकई अपने अंदर आदिवासी लड़की के थप्पड़ की गूंज लिए हुए है। 'परिवर्तन' लघुकथा में खरगोश की पीठ पर चढ़ा कछुआ सशक्त संदेश दे रहा है। 'उड़ान' लघुकथा आपको खुले आकाश और बाबू की हवेली की छत वाली आजादी का अंतर समझा देगी।

 'आँचल' लघुकथा आधुनिक जीवन शैली एवं नए प्रचलनों पर यक्षप्रश्न खड़ा करने में सक्षम साबित हुई है। यकीन मानिए 'ठंडी हवा का झोंका' आपके मन को भिगो देगा।

 'इनसोर' लघुकथा, व्यवस्था, समाज और उनके द्वारा बनाये इन्शुरन्स तक गरीब की पहुँच का असल चिट्ठा खोलती है। मैं अगर इस लघुकथा का किरदार 'मैनेजर साहब' होता तो एकबारगी कह उठता "स्साला! यह मजदूर सवाल बहुत पूछता है!" लेकिन सच यह है कि इस लघुकथा ने इन्शुरन्स क्लेम में गरीब की भागीदारी पर सवाल तो खड़ा कर ही दिया है।

अब अगर मुझसे पूछा जाए कि इस लघुकथा संग्रह के परिप्रेक्ष्य में आप लेखिका को किस नजरिये से देखते हो? ...तो मेरा जवाब बेहद साफ और स्पष्ट होगा कि आप यदि नवीन विषयों पर पढ़ना पसंद करते हो और आप को आधुनिक युग के जमीन से जुड़े हुए किरदार पढ़ने है तो जरूर 'कनक हरलालका जी' को पढ़िए।

मैं विस्तार में जाने से बच रहा हूँ फिर भी मुझे 'इनसोर' का सवाल पूछता हुआ मजदूर और 'घुटन' का फफक-फफककर रोता हुआ ऑटोरिक्शा ड्राइवर कहीं मेरे आसपास के ही किरदार लगते हैं।

एक अच्छी पुस्तक और उसके रचनाकार का जरूर सम्मान होना चाहिए और 'कितना-कुछ अनकहा' लघुकथा संग्रह एवं इसकी लेखिका 'कनक हरलालका जी' इस सम्मान की पूरी तरह हकदार हैं।

धन्यवाद,

- अनिल मकारिया

शनिवार, 19 फ़रवरी 2022

दि ग्राम टुडे के वृद्धजनों को समर्पित अंक में मेरी व श्री कृष्ण मनु जी की लघुकथा

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युवा प्रवर्तक में मेरी एक लघुकथा | अंतिम श्रृंगार | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


यूआरएल: https://yuvapravartak.com/?p=60590 

अंतिम श्रृंगार

उसकी दाढ़ी बनाई गयी, नहलाया गया और नये कपडे पहना कर बेड़ियों में जकड़ लिया गया। जेलर उसके पास आया और पूछा, "तुम्हारी फांसी का वक्त हो गया है, कोई आखिरी इच्छा हो तो बताओ।"
उसका चेहरा तमतमा उठा और वो बोला, "इच्छा तो एक ही है-आज़ादी। शर्म आती है तुम जैसे हिन्दुस्तानियों पर, जिनके दिलों में यह इच्छा नहीं जागी।"
वो क्षण भर को रुका फिर कहा, “मेरी यह इच्छा पूरी कर दे, मैं इशारा करूँ, तभी मुझे फाँसी देना और मरने के ठीक बाद मुझे इस मिट्टी में फैंक देना फिर फंदा खोलना।"
जेलर इस अजीब सी इच्छा को सुनकर बोला, "तू इशारा ही नहीं करेगा तो?"
वो हँसते हुए बोला, " आज़ादी के मतवाले की जुबान है, अंग्रेज की नहीं...."
जेलर ने कुछ सोचकर हाँ में सिर हिला दिया और उसे ले जाया गया।
उसके चेहरे पर काला कपड़ा बाँधा गया, उसने जोर से साँस अंदर तक भरी, फेंफड़े हवा से भर गए, कपड़े में छिपा उसका मुंह भी फूल गया। फिर उसने गर्दन हिला कर इशारा किया, और जेलर ने जल्लाद को इशारा किया, जल्लाद ने नीचे से तख्ता हटा दिया और वो तड़पने लगा।
वहां हवा तेज़ चलने लगी, प्रकृति भी व्याकुल हो उठी। मिट्टी उड़ने लगी, जैसे उसका सिर चूमना चाह रही हो, लेकिन काले कपड़े से ढके उसके चेहरे तक पहुँच न सकी।
उसकी साँसों की गति हवा की गति के साथ मंद होती गयी, और कुछ ही क्षणों में उसका शरीर शांत हो गया।
उसे उतार कर धरती पर फैंक दिया गया, वो जैसे करवट लेकर सो रहा था। फिर उसके फंदे को खोला गया, फंदा खोलते ही उसके फेंफडों में भरी हवा तेज़ी से मुंह से निकली और धरती से टकराई, मिट्टी उड़कर उसके चेहरे पर फ़ैल गयी।
आखिर देश की मिट्टी ने उसका श्रृंगार कर ही दिया।
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- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
यूआरएल: https://yuvapravartak.com/?p=60590 

शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2022

लघुकथा: सीता सी वामा | लक्ष्मण रामानुज लड़ीवाला

19-11-1945 को जयपुर में जन्मे लक्ष्मण रामानुज लड़ीवाला ने एम् कॉम, DCWA, कंपनी सचिव (inter) तक शिक्षा प्राप्त की है. वेअग्रगामी (मासिक) के सह-सम्पादक (1975 से 1978) व 1978 से 1990 तक निराला समाज (त्रैमासिक) में भी कार्य किया है. बाबूजी का भारत मित्र, नव्या, अखंड भारत(त्रैमासिक), साहित्य रागिनी, राजस्थान पत्रिका (दैनिक) आदि पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित हुई हैं. वे ओपन बुक्स ऑन लाइन, कविता लोक, आदि वेब मंचों द्वारा सम्मानित हुए हैं. साहित्य में वे दोहे, कुण्डलिया छंद, गीत, कविताएं, कहानियाँ और लघुकथाओं का लेखन करते हैं. आइए आज पढ़ते हैं उनकी एक लघुकथा
  

सीता सी वामा

"सैकड़ों लड़कियाँ देख चुके पर तुझे कोई लड़की पसन्द ही नहीं आती। लड़की देखकर जवाब नहीं देता और दो दिन बाद मना कर देता है। आखिर तुम्हारी पसन्द है क्या?" माँ ने पुत्र से पूछा।
  "लड़की देखने के बाद छानबीन करने पर लड़की में वह समर्पित भावना नजर नहीं आती, जो मैं चाहता हूँ माँ।"
  अब माँ ने आश्चर्यचकित हो पूछा "समर्पित भावना से तुम्हारा क्या आशय है?"
  "जैसे प्रभु राम के साथ माँ सीता सारे सुख त्यागकर वनवास गई थी, ऐसी समर्पित भावना।"
  माँ यह सुनकर मुस्कुरा दी और बोली, "वो तो ठीक है लेकिन क्या तुम्हारा खुदका आचरण भी श्रीराम जैसा मर्यादित है?"
  और यह सुनकर वह विचारों में खो गया।
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- लक्ष्मण रामानुज लड़ीवाला
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