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मंगलवार, 28 दिसंबर 2021

समकालीन लघुकथा स्वर्ण जयन्ती सम्मान 2021

समकालीन लघुकथा स्वर्ण जयन्ती सम्मान 2021 का परिणाम अविराम साहित्यिकी की प्रधान सम्पादिका की अनुमति से सभी मित्रों के समक्ष रखा जा रहा है। इस योजना में 15 प्रतिभागियों को ‘स्वर्ण जयन्ती समकालीन लघुकथा प्रतियोगिता 2021’ के आधार पर नामांकित किया गया था। इन प्रतिभागियों से आमंत्रित सामग्री- लघुकथाएँ और समकालीन लघुकथा के विकास में उनके योगदान सम्बन्धी विवरण का मूल्यांकन समकालीन लघुकथा के दो वरिष्ठ विशेषज्ञों श्री भगीरथ परिहार एवं डॉ. बलराम अग्रवाल तथा अविराम साहित्यिकी के संपादक मण्डल के दो सदस्यों- डॉ. उमेश महादोषी एवं डॉ. सुरेश पाण्डेय सपन द्वारा किया गया। दोनों विशेषज्ञों को कुल 60 अंक (प्रत्येक को लघुकथाओं के लिए 22.5 अंक तथा अन्य योगदान के लिए 7.5 अंक) निर्धारित किए गये थे। तथा संपादकीय टीम को कुल 40 अंक (डॉ. उमेश महादोषी को लघुकथाओं के लिए 20 अंक तथा अन्य योगदान के लिए 10 अंक एवं डॉ. सुरेश पाण्डेय सपन को लघुकथाओं के लिए 10 अंक) निर्धारित किए गये थे। इस प्रकार कुल 100 अंको में से 75 अंक के आधार पर लघुकथाओं का और 25 अंको के आधार पर लघुकथा के विकास में योगदान (जिसमें लघुकथा संग्रहों का प्रकाशन, सम्पादकीय योगदान, लघुकथा विमर्श/समीक्षा-समालोचना यानी आलेख कार्य, प्राप्त सम्मान-पुरस्कार आदि, इण्टरनेट आदि विभिन्न माध्यमों से अन्य योगदान आदि कार्य शामिल थे) का मूल्यांकन किया गया। समग्र मूल्यांकन (लघुकथाओं एवं लघुकथा के विकास में योगदान) के समेकित अंकों (चारों मूल्यांकनकर्ताओं के कुल योग यानी 100 अंकों) के आधार पर प्राप्त अंक (कोष्ठक में उनका मेरिट अनुक्रम) इस प्रकार हैं-

1. डॉ. संध्या तिवारी- 84.3           (1)

2. सुश्री ज्योत्स्ना ‘कपिल’- 76.0    (4)

3. सुश्री सविता इन्द्र गुप्ता- 77.1   (3)

4. श्री विरेंदर ‘वीर’ मेहता- 73.9  (6)

5. डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी- 83.6 (2)

6. डॉ. कुमार सम्भव जोशी- 74.6  (5)

7. डा. उपमा शर्मा- 71.1          (9)

8. डॉ. शैल चन्द्रा- 61.0           (13)

9. श्री सदानंद कवीश्वर- 59.3   (14)

10. सुश्री अंकिता भार्गव (स्व.)- 55.3 (15)

11. सुश्री भारती कुमारी- 62.9 (12)

12. सुश्री मीनू खरे- 72.2          (7)

13. सुश्री दिव्या शर्मा- 72.2      (8)

14. डॉ. क्षमा सिसोदिया- 67.6  (10)

15. डॉ. संगीता गाँधी- 65.1       (11)

सभी प्रतिभागियों को व्यक्तिगत सूचना उनके ई मेल से दी जा रही है।


पाँचो विजेताओं के नाम इस प्रकार हैं- 

डॉ. संध्या तिवारी- प्रथम (सम्मान राशि रु. 8000/- एवं 3000/- कुल 11000/-), 

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी‘ द्वितीय (कुल सम्मान राशि रु. 5000/-), 

सुश्री सविता इन्द्र गुप्ता- तृतीय (कुल सम्मान राशि रु. 3000/-), 

सुश्री ज्योत्स्ना ‘कपिल’- चतुर्थ (कुल सम्मान राशि रु. 2500/-) एवं 

डॉ. कुमार सम्भव जोशी- पंचम (कुल सम्मान राशि रु. 2000/-)। 


सभी विजेताओं को हार्दिक बधाई।

अपरिहार्य कारणों से कोई सम्मान समारोह आयोजित करना संभव नहीं है, अतः सम्मान राशि एवं प्रमाण पत्र आगामी दो सप्ताह में पंजीकृत डाक से भेज दिये जायेंगे।

लघुकथाओं के मूल्यांकन में सभी नामांकितों के मध्य अच्छी प्रतियोगिता रही। अनेक अच्छी लघुकथाएँ सामने आयीं। सभी नामांकित/प्रतिभागी मित्रों को हार्दिक शुभकामनाएँ। सहयोग के लिए सभी प्रतिभागियों एवं आदरणीय श्री भगीरथ परिहार जी, डॉ. बलराम अग्रवाल जी एवं डॉ. सुरेश पाण्डेय ‘सपन’ का हार्दिक आभार! स्वर्ण जयन्ती समकालीन लघुकथा प्रतियोगिता 2021 के सभी प्रतिभागियों और मूल्यांकन में शामिल रहे सभी आदरणीय अग्रजों/मित्रों का एक बार पुनः आभार!

संयोजक : उमेश महादोषी 

Source:

https://www.facebook.com/groups/437781706843490/posts/937908666830789

लघुकथा समाचार: नए लेखकों के लिए सरल काव्यांजलि द्वारा लघुकथा कार्यशाला आयोजित

 लघुकथा पिरामिड की तरह शिखर बनाती है - प्रो. शर्मा

आजकल लिखा बहुत जा रहा है, पर वह कितना सार्थक और कालजयी रहेगा, यह एक बड़ी चुनौती है। उपन्यास लेखन में कई शिखर बन सकते हैं, लेकिन लघुकथा पिरामिड की तरह होती है।लघुकथा में तलवार का काम सुई से लेना होता है। ध्यान रहे कि आपके लेखन से   विशेष प्रकार के भाव और सन्देश पैदा हों। अपने  अनुभव को पकड़ें, मौलिकता का ध्यान रखते हुए द्वंदात्मकता उत्पन्न करें।यह आवश्यक नही कि द्वंद रचना के मध्य में आए, पर द्वंद को उभारें, तनाव को उभारें और उसका पर्यवसान इस बिंदु पर करें कि पाठक चकित रह जाए। एक लघुकथाकार से अपेक्षा होती है कि वह सभी प्रतिमानों पर खरा उतरे। ये उदगार ख्यात समीक्षक, सम्पादक, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के कुलानुशासक प्रो शैलेन्द्रकुमार शर्मा ने व्यक्त किये। वे सुदामा नगर में संस्था सरल काव्यांजलि  द्वारा शहर के नए लघुकथाकारों के लिए आयोजित महत्त्वपूर्ण लघुकथा कार्यशाला को सम्बोधित कर रहे थे। 

इस अवसर पर डॉक्टर शर्मा ने नए रचनाकारों को डॉ. कमल चोपडा, सतीशराज पुष्करणा, डॉ.बलराम अग्रवाल द्वारा हिन्दी मे अनूदित तेलुगु रचना, चित्रा मुद्गल, महेश दर्पण, सन्तोष सुपेकर आदि की लघुकथाओं के उदाहरण देकर लघुकथा के प्रतिमानों को स्पष्ट किया। 

वरिष्ठ लघुकथाकार श्री सन्तोष सुपेकर ने कहा कि लघुकथा महज संक्षिप्तता का संयोजन नही है, यह अथक परिश्रम से तैयार एक शिल्प और  उसमें  समाहित भावों की सशक्त अभिव्यक्ति है। उन्होंने नए लघुकथाकारों से लघुकथा में भाषा, शिल्प, बिम्ब , प्रतीक, संवाद के स्तर पर अत्यधिक श्रम करने का आह्वान किया। उनके अनुसार प्रभावी शीर्षक देकर और  विषयों में विविधता लाकर लघुकथा के भविष्य को स्वर्णिम बनाया जा सकता है।

यह जानकारी देते हुए संस्था के प्रचार सचिव श्री विजयसिंह गेहलोत 'साकित उज्जैनी' ने बताया कि इस अवसर पर नए रचनाकारों सर्वश्री हेमन्त भोपाले ने 'बेटे से पहचान', रूबी कुरैशी ने 'ढाल', प्रतिभा शर्मा ने 'सौदा' , इंदर सिंह चौधरी ने 'माफी', रामचन्द्र धर्मदासानी ने 'क्रिसमस गिफ्ट', और के.एन शर्मा 'अकेला' ने 'सहजता और असहजता' शीर्षक लघुकथाओं का पाठ किया। 

अपने अध्यक्षीय उदबोधन में वरिष्ठ लघुकथाकार डॉ प्रभाकर शर्मा ने रचनाकारों से खूब पढ़ने और फिर कुछ रचने का आव्हान किया। नए कलमकारों ने लघुकथा सम्बन्धी अपनी जिज्ञासाओं का समाधान भी वरिष्ठजनों से करवाया।  संस्था द्वारा नवोदितों को देश के  महत्वपूर्ण लघुकथा संकलन भी भेंट किये गए।

 इस अवसर पर  सभी उपस्थित जनों ने उज्जैन- झालावाड़ रेल लाईन को लेकर संस्था द्वारा चलाए जा रहे  'रेल मंत्री को पत्र लिखो' अभियान के तहत  रेल मंत्री को पोस्ट कार्ड लिखे। प्रारम्भ में अतिथियों का स्वागत संस्था सचिव डॉक्टर संजय नागर , सौरभ मेहता , मोहन तोमर ने किया और अंत में आभार संस्था महासचिव श्री  राजेन्द्र देवधरे 'दर्पण' ने माना। 

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Source:

https://www.bkknews.page/2021/12/blog-post_85.html

शनिवार, 25 दिसंबर 2021

आलेख: लघुकथा : प्रवाह और प्रभाव | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

साहित्य में आज लघुकथा अपना एक विशिष्ट स्थान बना चुकी है, क्रिकेट में टेस्ट क्रिकेट फिर वन डे और अब 20-20 की तरह ही साहित्य में भी समय की कमी के कारण पाठक अब छोटी कथाओं को पढने में अधिक रूचि लेते हैं हालाँकि लघुकथा का अर्थ छोटी-कहानी नहीं है, यह कहानी से अलग एक ऐसी विधा है कि जिसमें कोई एक बार डूब गया तो इसका नशा उसे लघुकथाओं से बाहर निकलने नहीं देता। इस लेख में लघुकथा क्या है इसकी कुछ जानकारी दी गयी है।

कल्पना कीजिये कि आप एक प्राकृतिक झरने के पास खड़े हैं, चूँकि यह प्राकृतिक है इसलिए इसका आकार सहज होगा, झरना छोटा भी हो सकता है या बड़ा भी। उस झरने से गिरती हुई पानी की बूँदें धरती को छूकर उछल रही हैं और फिर आपके चेहरे से टकरा रही हैं, आपको झरने के पानी तथा वातावरण के तापमान के अनुसार गर्म-ठंडा महसूस होगा।

एक झरना सागर की तरह विशाल नहीं होता, ना ही नदी जैसे अलग-अलग रास्तों पर चलता है, वह एक ही स्थान पर अपनी बूंदों से अपनी प्रकृति के अनुसार अहसास कराता है। वह गर्म पानी का झरना भी हो सकता है और ठन्डे पानी का भी, वह एक नदी का उद्गम भी हो सकता है और नहीं भी।

इसी प्रकार यदि हम एक लघुकथा की बात करें तो किसी झरने के समान ही लघुकथा ना तो किसी सागर सरीखे उपन्यास की तरह लम्बी होती है और ना ही नदी जैसी कहानी की तरह अलग-अलग पक्षों को समेटे हुए वह अपनी प्रकृति के अनुसार पाठक की चेतना पर कुछ ऐसा अहसास करा देती है, जिससे गंभीर पाठक चिन्तन की ओर उन्मुख हो जाता है। एक उपन्यास में कई घटनाएं होती हैं, कहानी में एक घटना के कई क्षण होते हैं और लघुकथा में एक विशेष क्षण की घटना केंद्र में होती है। एक झरने की तरह ही लघुकथा का आकार सहज होता है कृत्रिम नहीं, उसमें कुछ भी अधिक या कम हो जाये तो कृत्रिमता उत्पन्न हो जाती है। यहाँ हम यह मान सकते हैं कि कहानी के न्यूनतम शब्दों से लघुकथा के शब्द कम हों तो बेहतर।

आज की कम्प्यूटर सभ्यता में जब वार्तालाप में कम से कम शब्दों का प्रयोग हो रहा है, यह स्वाभाविक ही है कि लघुकथा पाठकों के आकर्षण का केंद्र बन रही है। सोशल मीडिया के कई स्त्रोतों द्वारा भी लघुकथाएं, लघु कहानियाँ, लघु बोधकथाएँ आदि बहुधा प्रसारित हो रही हैं। लघुकथा के संवर्धन में किये जा रहे महती कार्य “पड़ाव और पड़ताल” के मुख्य संपादक श्री मधुदीप गुप्ता के अनुसार वर्ष 2020 के बाद का साहित्य युग लघुकथा का युग होगा। इस भविष्यवाणी के पीछे उनका गूढ़ चिन्तन और समय को परखने की क्षमता छिपी हुई है।

लघुकथा का विस्तार और सीमायें

लघुकथा कोई शिक्षक नहीं है ना ही मार्गदर्शक है, वह तो रास्ते में पड़े पत्थरों, टूटी सड़कों और कंटीले झाड़ों को दिखा देती है, उससे बचना कैसे है यह बताना लघुकथा का काम नहीं है। इसका कारण यह माना गया है कि जब किसी समस्या का समाधान बताया जाता है तो लघुकथा में लेखकीय प्रवेश की सम्भावना रहती है। लघुकथा का कार्य है किसी समस्या की तरफ इशारा कर पाठकों के अंतर्मन की चेतना को जागृत करना यह एक बहुत शक्तिशाली हथियार है जो सीधे विचारों पर चोट करता है हालाँकि समकालीन लघुकथाएं बिना अनुशासन भंग किये कई छोटी समस्याओं के समाधान भी बता रही हैं  मैं समझता हूँ कि एक लघुकथाकार यदि किसी छोटी समस्या का समाधान बिना लेखकीय प्रवेश के निष्पक्ष होकर सर्ववर्ग हेतु कहता है तो इसका स्वागत होना चाहिये। हालाँकि इसके विपरीत कोई समस्या छोटी है अथवा बड़ी इसका निर्धारण एक लेखक नहीं कर सकता, यह पाठकों के अनुभवों पर निर्भर करता है। इसलिए यदि कोई समाधान सुझाया जा रहा है तो वह पाठकों के विचारों की विविधता को ध्यान में रखकर सुझाया जाये।

लघुकथा में वातावरण का निर्माण नहीं किया जाता, वरन लघुकथा पढ़ते-पढ़ते ही वातावरण समझ में आ जाता है। प्रेमचन्द की लघुकथा ‘राष्ट्र का सेवक’ में पात्र का नाम इंदिरा और उसके पिता राष्ट्र के सेवक से ही यह समझ में आ जाता है कि वह किनकी बात कर रहे हैं। रचना के अंत में इंदिरा एक नीची जाति के नौजवान से स्वयं के विवाह की बात करती है, जिसे राष्ट्र के सेवक ने भाषण देते समय गले लगाया था, तब राष्ट्र सेवक की आँखों में प्रलय आ जाती है और वह मुंह फेर लेता है। यहाँ प्रेमचन्द ने दो विसंगतियों की तरफ एक साथ इशारा कर दिया, पहला राजनीति में व्याप्त झूठ का और दूसरा जाति भेद का।

अन्य साहित्यकारों की तरह ही लघुकथाकार भी अपने वर्तमान समाज का कुशल चित्रकार होता है जिसके हाथ में कूची के स्थान पर कलम होती है हालाँकि साहित्यकार को न केवल वर्तमान वरन भविष्य के समाज का भी कुशल चित्रकार होना चाहिए। साहित्य के द्वारा समाज का निर्माण होता है, साहित्य समाज के दर्पण के साथ-साथ समाज के लिए दिशा सूचक भी हैअतः समाज में सकारात्मक उर्जा का संचार करना और कर्तव्यबोध कराते हुए  सही दिशा देना भी साहित्यकार का दायित्व है हालाँकि इसका अर्थ यह नहीं है कि केवल सकारात्मक शब्द और हैप्पी एंडिंग ही हो। सकारात्मक चेतना जगाने के लिए लघुकथाकार कई बार कडुवा सच दर्शाते हैं। श्री योगराज प्रभाकर की लघुकथा ‘अपनी अपनी भूख’ के अंत में नौकरानी बुदबुदाती है कि "मेरे बच्चों के सिर पर भी अपने बेटे का हाथ फिरवा दो बीबी जीI", क्योंकि बीबी जी के बेटे को भूख नहीं लगने की बीमारी है। इस रचना में दो माँओं की एक ही प्रकार की तड़प है दोनों अपने बच्चों को भूखा देखकर परेशान हैं, लेकिन परिस्थिति अलग-अलग। नौकरानी की आर्थिक दशा को परिभाषित करती अंतिम पंक्ति पाठकों की चेतना को झकझोरने में पूर्ण सक्षम है।

इसी प्रकार डॉ. अशोक भाटिया की तीसरा चित्र एक ऐसी रचना है जिसके अंत में जब पुत्र कहता है कि पिताजी, इस चित्र की बारी आई तो सब रंग खत्म हो चुके थे।तो पाठकों के हृदय में न केवल संवेदना के भाव आते हैं बल्कि तीन वर्गों के बच्चों में अंतर् करने के लिए चिंतन को मजबूर हो ही जाते हैं।

यदि आपको यह जानना है कि आपके अपने विचार कैसे हैं तो किसी भी विधा में लिखना प्रारंभ कर दीजिये, उस लिखे हुए का अवलोकन कर आप अपने बारे में बहुत अच्छे तरीके से जान सकते हैं।  लेखन में लेखक के निजी विचार उनके अनुभवों और भावनाओं के आधार पर होते ही हैं, लेकिन जब साहित्य में अन्य विचारों का भी लेखक स्वागत करता है तो वह विभिन्न श्रेणी के पाठकों के लिए भी स्वागतयोग्य हो जाता है। लघुकथा एक ऐसी स्त्री की भांति है जो सामने खड़े किसी बीमार और अशक्त बच्चे को अपने आँचल में माँ के समान स्नेह देती है लेकिन अपने जनक को केवल एक उपनाम की तरह अपने साथ रखती है। इसलिए लघुकथा में विशेष सावधानी की आवश्यकता है। ‘लेखकीय प्रवेश’ का अर्थ ‘मैं’ शब्द का लघुकथा में होने या न होने से नहीं है, लघुकथा के किसी अन्य पात्र के जरिये भी लेखकीय प्रवेश हो सकता है और ‘मैं’ शब्द का प्रयोग कर के नहीं भी। यहाँ मैं श्री मधुदीप गुप्ता की एक लघुकथा “तुम इतना चुप क्यों हो दोस्त” को उद्धृत करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ, इस रचना में मुख्य पात्र कॉफ़ी हाउस में बैठा है और दूसरी टेबल पर बैठे हुए व्यक्तियों की बातें सुन रहा है, अंत में एक व्यक्ति जब कुछ कहने की बजाय करने की बात करता है तो मुख्य पात्र की ठंडी हो रही कॉफ़ी में उबाल आ जाता है। बहुत खूबसूरती से इस रचना में एक पात्र “मैं” का सृजन किया गया है, जिसमें लेखकीय प्रवेश बिलकुल नहीं दिखाई देता।

कई बार मानव समाज स्वयं की बेहतरी के प्रश्न भी उत्पन्न करने की क्षमता नहीं रखता है, लघुकथा इसमें सहायक हो सकती है। यह राजा विक्रमादित्य और बेताल के उस किस्से की तरह माना जा सकता है, जिसमें राजा विक्रमादित्य बेताल को कंधे पर लेकर जाता है, बेताल उसे कोई लघु-कहानी सुनाता है और अंत में एक प्रश्न रख देता है, जिसका उत्तर राजा विक्रमादित्य अपने विवेक के अनुसार देता है।

 

पठन योग्य लघुकथा

साहित्य की कोई भी विधा हो बिना पाठकों के ना तो विधा का अस्तित्व है और ना ही लेखक का, लेकिन रचनाकार को पाठकों की रूचि और सोच की दिशा के अनुसार सृजन नहीं करना चाहिये हालाँकि यह लोकप्रियता का एक सस्ता-सुगम मार्ग है और साहित्य में चाटुकारिता भी सदियों से होती आई है, परन्तु सस्ती लोकप्रियता एक लेखक का उद्देश्य नहीं होना चाहिये, इसके आने वाले समय में कई दुष्परिणाम होते हैं।

लघुकथा पठन योग्य हो, इसके लिए लघुकथाकार के सृजन की पूरी प्रक्रिया में काफी परिश्रम करना होता है। लेखकीय दृष्टि लिए कोई भी व्यक्ति किसी भी घटनाक्रम को साधारण तरीके से नहीं देखता वरन उसमें अपने लेखन के लिए संभावनाएं तलाश करता है। लघुकथा पाठक के हृदय में कौंध उत्पन्न करती है, लेकिन उसके सृजन को प्रारंभ करने से पहले लेखक के मस्तिष्क में भी कौंध उत्पन्न होनी चाहिये। स्वयं लेखक को यह स्पष्ट होना चाहिये कि वह लघुकथा क्यों कह रहा/रही है। उद्देश्य स्वयं को स्पष्ट होगा तभी पाठकों को स्पष्ट करने की क्षमता होगी।

लघुकथा का उद्देश्य स्पष्ट होने के बाद लघुकथा का कथानक तैयार करना चाहिये, कथानक किसी यथार्थ घटना पर आधारित तो हो सकता है लेकिन यथार्थ घटना को ज्यों का त्यों लिखने से बचना चाहिये अन्यथा लघुकथा का एक साधारण समाचार बन कर रह जाने का खतरा रहता है। लेखक को अपनी कल्पना शक्ति से ऐसे कथानक का सृजन करना चाहिये, जिसका प्रवाह ऐसा हो जो किसी घटना को प्रारंभ से अंत तक क्रमशः वर्णन करने में सक्षम हो, जो रोचक हो, कम से कम पात्रों को लिए हुए हो और लघुकथा के उद्देश्य को स्पष्ट परिभाषित कर सके। लघुकथाकार लघुकथा की शैली पर भी इसी प्रकार कार्य करते हैं ताकि पढने वाले को उबाऊपन का अनुभव न हो और स्पष्टता बनी रहे। संवाद, वर्णनात्मक, मिश्रित आदि शैलियाँ पाठकों में प्रचलित हैं।

अधिकतर लघुकथाकार लघुकथा का अंत इस तरह से करते हैं कि जो विसंगति अथवा प्रश्न उन्हें पाठकों के समक्ष रखना है, वह अंत में प्रकट होकर पाठकों के हृदय में कौंध जाये और पाठक चिन्तन करने को विवश हो जाये।

लघुकथा का शीर्षक भी लघुकथा को परिभाषित कता हुआ इस तरह से हो कि पाठकों में शीर्षक देखते ही रचना पढने की उत्सुकता जाग जाये। श्री बलराम अग्रवाल की ‘कंधे पर बेताल’, ‘प्यासा पानी’, श्री भागीरथ की ‘धार्मिक होने की घोषणा’, श्री मधुदीप गुप्ता की ‘तुम इतना चुप क्यों हो दोस्त’,  ‘सन्नाटों का प्रकाशपर्व’, डॉ. अशोक भाटिया की क्या मथुरा, क्या द्वारका?’, श्री योगराज प्रभाकर की ‘अधूरी कथा के पात्र’ और ‘भारत भाग्य विधाता’, श्री युगल की ‘पेट का कछुआ’, श्री सतीश दुबे की ‘हमारे आगे हिंदुस्तान’ आदि कई रचनाओं के शीर्षक इस तरह कहे गए हैं कि शीर्षक पर नज़र जाते ही रचना को पढने की उत्सुकता बढ़ जाती है।

लघुकथा में कालखंड

कालखंड लघुकथा में कोई दोष है अथवा नहीं, इस पर विभिन्न विद्वानों के विभिन्न मत है। लघुकथा के कथ्य के क्षण से पहले अथवा बाद के काल में व्यक्ति अथवा घटना का जाना कालखंड बदल जाने की श्रेणी में आता है। कालखंड समस्या से निजात पाने के लिए मैं एक चित्र का उदाहरण दूंगा, यह चित्र आप सभी ने कभी न कभी देखा होगा, जिसमें मानव के विकास क्रम को बताया गया है, चौपाये से विकसित हो दो पैरों पर खड़ा पर थोड़ा झुका हुआ पशु, झुके हुए पशु से सीधा खड़ा हुआ पशु, फिर चेहरे का विकास और अंत में आज का मानव खड़ा हुआ है। लाखों वर्षों को एक ही चित्र में समेट दिया जाना इतना आसान नहीं था, लेकिन चित्रकार ने यह कार्य बखूबी कर दिखाया है इसी प्रकार एक लघुकथाकार भी किसी भी इकहरे पक्ष के कई वर्षों को एक ही लघुकथा में सिमटा सकने का सामर्थ्य रखता है। इसके लिए घटना को सिलसिलेवार बता देना, क्षण विशेष को केंद्र में रख कर एक से अधिक काल को बता देना, फ़्लैश बेक में जाना, किसी डायरी को पढ़ना, किसी केस की फाइल को पढना आदि के द्वारा कालखंड दोष से बचा जा सकता है। श्री भागीरथ की लघुकथा ‘शर्त’ में दो दृश्य हैं, एक सवेरे का और दूसरा शाम का, लेकिन लघुकथा के केंद्र में मज़दूर नेता के अडिग आदर्श हैं। यह रचना अलग-अलग कालखंडों को एक ही रचना में समेट लेने के बेहतरीन उदाहरणों में से एक है।

लघुकथा की भाषा

साहित्यशब्द ‘सहित’ शब्द से उत्पन्न हुआ है सहित अर्थात् हित के साथ, यह हित मानव का हो सकता है, अन्य जीवों का हो सकता है, प्रकृति आदि किसी का भी हो सकता है, लेकिन किसी के अहित से परे रह कर। इसी तरह किसी अन्य भाषा का अहित न कर साहित्य का कार्य मातृभाषा का हित भी है। साहित्य भाषा को ज़िन्दा रखता है, यदि साहित्य की भाषा ही सही नहीं हो तो उस भाषा का पतन निश्चित है। एक साहित्यकार अपने विचारों को भाषा के वस्त्राभूषण पहनाता है, जिससे उसकी कृति की सुंदरता और कुरूपता का आकलन भी किया जा सकता है। मेरा मानना है कि जितना संभव हो हिंदी-लघुकथा हिंदी में ही कही जाये, हालाँकि कई बार संवादों में अन्य देसी-विदेशी भाषाओं का प्रयोग किया जाना आवश्यक हो जाता है, जो कि वर्जित नहीं है। आंचलिक एवं अन्य भाषाओं के प्रयोग से कई बार रचना की सुन्दरता और भी बढ़ जाती है। लेकिन इतना अवश्य हो कि वह भाषा सरल हो और एक हिंदी भाषी को आसानी से समझ में आ जाये। जब भी लघुकथाकार विदेशी भाषा का प्रयोग करें तो मैथिलीशरण गुप्त के यह शब्द एक बार ज़रूर याद कर लें, “हिन्दी उन सभी गुणों से अलंकृत है जिनके बल पर वह विश्व की साहित्यिक भाषाओं की अगली श्रेणी में सभासीन हो सकती है।“

लघुकथा में भाषिक सौन्दर्य प्रतीकों, मुहावरों यहाँ तक कि संवादों को अधूरा छोड़ कर तीन डॉट लगा देने से भी बढ़ाया जा सकता है लघुकथाकार इस बात का विशेष ध्यान देते हैं कि भाषा में अलंकार लगाने पर लघुकथा ना तो शाब्दिक विस्तार पाए और ना ही अस्पष्ट हो जाये। कसावट के साथ रोचकता और सरलता भी रहे ताकि पाठकों को आसानी से ग्राह्य हो सके। लेकिन यह भी सत्य है कि कई अच्छी रचनाएँ सरसरी निगाह से पढने पर जल्दी समझ में नहीं आ सकती

उपसंहार

कैनेडा से प्रकाशित अंतरराष्ट्रीय पत्रिका हिंदी चेतना के अक्टूबर-दिसम्बर 2012 के लघुकथा विशेषांक में परिचर्चा के अंतर्गत श्री श्याम सुंदर अग्रवाल ने लघुकथा विधा के विकास में यह अवरोध बताया था कि “नये लेखक इस विधा में नहीं आ रहे हैं” यह प्रसन्नता का विषय है कि इस अंक को तीन वर्ष भी पूर्ण नहीं हुए थे और लघुकथा के स्थापित लेखकों के सद्प्रयासों से 100 से अधिक नवोदित लघुकथाकार इस विधा में गंभीरता से अपने पैर जमाने लगे।  आज यह संख्या और भी बढ़ गयी है। इसी परिचर्चा में वरिष्ठ लघुकथाकार श्री भागीरथ ने यह चिंता व्यक्त की थी कि लघुकथा के कंटेंट और फॉर्म टाइप्ड हो गए हैं और उनमें ताजगी का अभाव है, यह कहते हुए भी हर्ष का अनुभव हो रहा है कि लगभग सभी वरिष्ठ लघुकथाकार, साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादक और कुछ आलोचक न केवल नवोदित रचनाकारों का मार्गदर्शन कर रहे हैं और उनकी रचनाओं के प्रकाशन का मार्ग सुगम कर रहे हैं वरन कई तरह से प्रोत्साहित भी कर रहे हैं, जिससे नयी ताज़ी रचनाओं का अभाव भी अब नहीं रहा।

लघुकथा विधा में विधा के प्रति गंभीर रचनाकारों, गैर-व्यवसायिक साहित्य को समर्पित प्रकाशकों और गंभीर सम्पादकों का समावेश तो है ही, लेकिन आलोचकों/समीक्षकों और गंभीर पाठकों की कमी अभी भी है। लघु-रचनाओं के प्रति पाठकों का झुकाव होने पर भी लघुकथाओं के पाठकों की संख्या बहुत अधिक नहीं है। लघुकथा के नाम पर परोसी जाने वाली हर रचना के पाठकों को लघुकथा का पाठक कहना भी विधा के लिए उचित नहीं है। ई-पुस्तकों, ऑनलाइन ब्लॉग और पूर्व-प्रकाशित पुस्तकों के डिजिटल अंको को प्रचारित-प्रसारित कर पाठकों की संख्या में वृद्धि की जा सकती है। प्रकाशक भी आलोचकों और समीक्षकों को अपनी पुस्तकों से जोड़ें।

लघुकथा अब साहित्याकाश में किसी सितारे की तरह चमक रही है, इसकी रौशनी अब कितनी और फैलेगी इसका आकलन करना मुश्किल है। लेकिन इसकी किरणों की चमक आश्वस्त करती हैं कि इसमें वर्तमान और भविष्य के वे सभी रंग विद्यमान हैं, जिनसे मिलकर मानव विचार चिन्तन का इन्द्रधनुष बना सकें तथा समाज की दशा और अधिक उन्नत हो सके।

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

रविवार, 19 दिसंबर 2021

समीक्षा | लघुकथा:ऊँचाई लेखक: रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' | समीक्षक: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

आइए सबसे पहले लघुकथा पढ़ते हैं:

ऊँचाई /  रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

 

 

पिताजी के अचानक आ धमकने से पत्नी तमतमा उठी, "लगता है बूढ़े को पैसों की ज़रूरत आ पड़ी है, वर्ना यहाँ कौन आने वाला था। अपने पेट का गड्ढा भरता नहीं, घर वालों का कुआँ कहाँ से भरोगे?"

 

मैं नज़रें बचाकर दूसरी ओर देखने लगा। पिताजी नल पर हाथ-मुँह धोकर सफर की थकान दूर कर रहे थे। इस बार मेरा हाथ कुछ ज्यादा ही तंग हो गया। बड़े बेटे का जूता मुँह बा चुका है। वह स्कूल जाने के वक्त रोज़ भुनभुनाता है। पत्नी के इलाज़ के लिए पूरी दवाइयाँ नहीं खरीदी जा सकीं। बाबू जी को भी अभी आना था।

 

घर में बोझिल चुप्पी पसरी हुई थी। खाना खा चुकने पर पिताजी ने मुझे पास बैठने का इशारा किया। मैं शंकित था कि कोई आर्थिक समस्या लेकर आए होंगे। पिताजी कुर्सी पर उकड़ू बैठ गए। एकदम बेफिक्र, "सुनो" - कहकर उन्होंने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा। मैं साँस रोककर उनके मुँह की ओर देखने लगा। रोम-रोम कान बनकर अगला वाक्य सुनने के लिए चौकन्ना था।

 

 वे बोले, "खेती के काम में घड़ी भर की फ़ुर्सत नहीं मिलती है। इस बखत काम का जोर है। रात की गाड़ी से ही वापस जाऊँगा। तीन महीने से तुम्हारी कोई चिट्ठी तक नहीं मिली। जब तुम परेशान होते हो, तभी ऐसा करते हो।"

 

उन्होंने जेब से सौ-सौ के दस नोट निकालकर मेरी तरफ़ बढ़ा दिए- "रख लो। तुम्हारे काम आ जाएँगे। इस बार धान की फ़सल अच्छी हो गई है। घर में कोई दिक्कत नहीं है। तुम बहुत कमज़ोर लग रहे हो। ढंग से खाया-पिया करो। बहू का भी ध्यान रखो।"

 

मैं कुछ नहीं बोल पाया। शब्द जैसे मेरे हलक में फँसकर रह गए हों। मैं कुछ कहता इससे पूर्व ही पिताजी ने प्यार से डाँटा- "ले लो। बहुत बड़े हो गए हो क्या?"

 

"नहीं तो" - मैंने हाथ बढ़ाया। पिताजी ने नोट मेरी हथेली पर रख दिए। बरसों पहले पिताजी मुझे स्कूल भेजने के लिए इसी तरह हथेली पर इकन्नी टिका दिया करते थे, परन्तु तब मेरी नज़रें आज की तरह झुकी नहीं होती थीं।

 

 - रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

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समीक्षा

कुछ वर्षों पूर्व मैंने एक कविता लिखी थी, 'पुरुष'। उस कविता की एक पंक्ति है, “मैंने हस्तरेखा की छाया में, गीता का कर्मज्ञान पढ़ा।कविता की इस पंक्ति को लिखते समय मेरे मस्तिष्क में जिनकी छवि आ रही थी, वे मेरे पिता ही थे। अपने पिता से यों तो अधिकतर व्यक्ति प्रभावित होते ही हैं। आखिर उन्हीं का डीएनए हमारे रक्त में मौजूद है। मैंने भी अपने अंतिम समय तक कर्म करने का ज्ञान अपने पिता ही से प्राप्त किया है। वे अपने अंतिम समय तक अपने दायित्व का निर्वाह कर रहे थे और शायद दायित्वपूर्ण होने की संतुष्टि के कारण ही अंत समय में उनके होठों पर मुस्कान थी। चुंकि यह मेरा अपना अनुभव है, शायद इसीलिए, जैसे ही पिता सबंधी लघुकथाओं की चर्चा होती है, मुझे सबसे पहले रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' की लघुकथा 'ऊँचाई' ही याद आती है। इस रचना में भी पिता अपने पितृ-धर्म का पालन करते हैं, पुत्र चाहे विचलित क्यों न हो रहा हो। बुढ़ापा आने पर अपनी आर्थिक कमजोरियों के कारण कई बच्चे अपने माता-पिता का भरण-पोषण करने में समर्थ नहीं होते। लेकिन पिता एक ऐसा आदर्श भी हैं, जो उस असमर्थता को समझते हुए स्वयं को और अधिक सशक्त करने की आंतरिक शक्ति भी रखते हैं। पुत्र की आर्थिक कमजोरी को उसका भाग्य मानते हुए स्वयं कर्म को प्रवृत्त हो उस अशक्तता को कम करने का प्रयास करते हैं। "मैंने हस्तरेखा की छाया में, गीता का कर्मज्ञान पढ़ा" की तरह। यह एक ऐसा संदेश है जो न केवल पिता के प्रति सम्मान का भाव जागृत करता है बल्कि उच्च आदर्शों एवं नैतिक मूल्यों को स्थापित भी कर रहा है।

 

पिता के अतुल्य त्याग और सुसमर्पण की महती भावना को दर्शाती इस रचना से मैं लघुकथा लिखना प्रारम्भ करने से पूर्व से परिचित हूँ। रचना के प्रारम्भ में पत्नी तमतमा कहती है कि, "लगता है बूढ़े को पैसों की ज़रूरत आ पड़ी है, वर्ना यहाँ कौन आने वाला था। अपने पेट का गड्ढा भरता नहीं, घर वालों का कुआँ कहाँ से भरोगे?" यह संवाद ही इस लघुकथा के आधार को व्यक्त कर देता है। इस लघुकथा में इस संवाद के बाद किसी अतिरिक्त भूमिका की आवश्यकता है ही नहीं। पिता काफी समय के बाद अपने बेटे के घर पर आए हैं और बेटे की अर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है।

 

पिता का सम्मान हर सम्प्रदाय में आवश्यक रूप से कहा गया है, हिंदू नीति में लिखा है कि "जनकश्चोपनेता च यश्च विद्यां प्रयच्छति। अन्नदाता भयत्राता पश्चैते पितरः स्मृताः॥" अर्थात जन्मदाता, यज्ञोपवीत कराने वाला, विद्या देने वाले, भोजन प्रदान करने वाले और भय से रक्षा करने वाले व्यक्ति पिता हैं। वहीं इस्लाम में सूरतुल इस्रा : 23 के अनुसार “...माता-पिता के साथ अच्छा व्यवहार करना, उनके बुढ़ापे में उनसे कुछ भी बुरा न कहते हुए विनम्र रहना, सिर झुकाये रखना, और कहना कि ऐ रब दया कर उन दोनों पर जिस तरह उन दोनों ने मेरे बचपन में मुझे पाला है।" सिखों के दशम गुरु श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी के चार सुपुत्रों को सामूहिक रूप से संबोधित चार साहिबज़ादे किया जाता है, क्योंकि अपने पिता के लिए वे मिल कर एक ही शक्ति बने और इसाई धर्म में तो चर्च के पादरी को ही फादर जैसे महत्वपूर्ण शब्द से सम्बोधित किया जाता है।

 

इस लघुकथा में भी अंत में जब यह पंक्ति आती है कि //पिताजी ने प्यार से डाँटा- "ले लो। बहुत बड़े हो गए हो क्या?"// तब अंतर्मन में पिता के प्रति सम्मान स्वतः ही जागृत हो उठता है। क्योंकि उस समय वे अपने युवा पुत्र और उसके परिवार के लिए भी भोजन प्रदान करने वाले अन्नदाता बन जाते हैं। इसी प्रकार "रात की गाड़ी से ही वापस ... तभी ऐसा करते हो।" वाला अनुच्छेद पिता का भय से रक्षा करने वाला चरित्र उजागर कर रहा है।

 

इस रचना में पुत्र पहले तो यह सोचता है कि //बाबू जी को भी अभी आना था।// लेकिन जब पिताजी कुर्सी पर उकड़ू बैठ गए। एकदम बेफिक्र, "सुनो" - कहकर उन्होंने पुत्र का ध्यान अपनी ओर खींचा तब वह सोचता है कि "मैं साँस रोककर उनके मुँह की ओर देखने लगा।" हालांकि उसे यह उम्मीद थी कि पिता कुछ मांगेंगे, लेकिन फिर भी चुपचाप उनकी बात सुनने को आतुर होता है यहां पुत्र के चरित्र का वही आदर्श स्थापित हो रहा है जैसा कि सूरतुल इस्रा : 23 में कहा गया है उनके बुढ़ापे में उनसे कुछ भी बुरा न कहते हुए विनम्र रहना, सिर झुकाये रखना।

 

पिता-पुत्र के संबंधों के आदर्शों की व्याख्या करती यह रचना केवल आदर्शों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इस लघुकथा की ऊँचाई इससे अधिक है। बड़े बेटे का जूता, पत्नी की दवाइयाँ और स्वयं की कमज़ोरी का कारण केवल अपनी पत्नी और अपने बच्चों को ही अपना आश्रित मानना है। (माता-)पिता को ऐसे समय में भुला देने का एक अर्थ उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियों से पलायन करना भी है। //बाबू जी को भी अभी आना था।// वाला वाक्य यह दर्शाने में पूरी तरह समर्थ है। इसके अतिरिक्त अंतिम पंक्ति इस रचना के शीर्षक को सार्थक करते पुत्र को पितृ-धर्म की ऊँचाई भी समझा रही है, जो वह पहले नहीं समझ पाया तो शर्मिंदा सा हुआ।

 

लघुकथा का शीर्षक श्रेष्ठ है, भाषा सभी के समझ में आ जाए ऐसी है। कुल मिलाकर श्री काम्बोज की विवेकी, गूढ़ और प्रबुद्ध सोच का प्रतिफल यह लघुकथा एक उत्तम और सभी के लिए पठनीय साहित्यिक कृति है।

 

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


गुरुवार, 16 दिसंबर 2021

लघुकथा लेखन

ये कुछ नियम लघुकथा लेखन में उपयोगी हैं। हालांकि, अन्य विधा के लेखक भी इन्हें अपना सकते हैं। 

1. प्रतिदिन कुछ न कुछ ज़रूर लिखें, चाहे कम या ज़्यादा।

2. हम लोग लघुकथा को सबसे पहले अपने मस्तिष्क में तैयार करते हैं, साथियों, उसे मस्तिष्क से बाहर लिखना प्रारम्भ करने के लिए इतना इंतजार न करें कि वह आपके मस्तिष्क में ही बासी हो जाए। अर्थात सोचें ज़रूर लेकिन अत्यधिक सोचने में समय बर्बाद न करें।

3. पात्रों के निर्माण में पर्याप्त समय दें।

4. भाषा और शब्दावली को निरंतर बेहतर करते रहें।

5. व्याकरण के ऑनलाइन/ऑफलाइन टूल्स पर अधिक विश्वास न करें। 

6. अपने दृष्टिकोण और नए विषयों की समझ को व्यापक बनाने और लघुकथा की संरचना को समझने के लिए निरंतर पढ़ते रहें।

7. यह भी ध्यान रखें कि सबसे पहला ड्राफ्ट ही सबसे बड़ी चुनौती है।

8. कोई भी बेहतरीन किताब बिना मेहनत के कभी नहीं लिखी गई।

9. यह एक ऐसा नियम है जिस पर आपको सबसे अधिक विश्वास रखना चाहिए, वह यह है कि कोई भी नियम आपके रचनाकर्म से उपर नहीं है। नए प्रयोग होते हैं, असफलता की परवाह किए बिना करते रहिये.


बुधवार, 8 दिसंबर 2021

लेख: 'लघुकथा : एक रोचक विधा' | नेतराम भारती

हर काल अपने पूर्वकाल से भिन्न होता है l हर काल की अपनी कुछ विशेषताएं तो कुछ समस्याएं होती हैं l उन विशेषताओं और समस्याओं को स्वर देने का कार्य साहित्य करता है l साहित्य ही उन्हें दिशा देता है, हवा देता है l और साहित्यकारों की जनमानस तक पहचान का माध्यम भी वही बनता है l इसके लिए हमेशा से ही कलमकारों ने अपने दायित्वों का निर्वहण कभी बेबाकी से, तो कभी, अत्यंत सतर्कता से किया है l और इसके लिए उन्होंने साहित्य की किसी न किसी विधा को अपने लेखन का आधार बनाया, फिर चाहे वह छन्दोबद्ध काव्य हो या पाठकों को झकझोरता गूढ़ गद्य l

वर्तमान समय में साहित्य की जिस विधा ने साहित्यकारों को सर्वाधिक आकर्षित और पाठकों के निकट पहुँचाया है और पहुँचा रही है, वह है लघुकथा l आज यदि यह कहा जाए कि सर्वाधिक साहित्य किस विधा में लिखा - छपा और पढ़ा जा रहा है तो निस्संदेह निस्संकोच रूप से कहा जा सकता है कि वह लघुकथा है l कारण, आकार में लघु होने के साथ ही कम समय में सुपाच्य और शीघ्र भाव - सम्प्रेषण हो जाता है l परिणामस्वरूप पाठक अथवा श्रोता को सहज ही रसानुभूति और भावानुभूति होती है जो एक नाटक, उपन्यास या लंबी कहानी में होती है l आज संचार और दृश्य - श्रव्य के रूप में मनोरंजन के साधनों की इतनी भरमार है कि पाठक, श्रोता अथवा दर्शक बस चैनल ही बदलता रहता है l वह ज्यादा समय एक स्थान पर रुकना ही नहीं चाहता l वह तो, कम से कम समय में ज्यादा से ज्यादा रोचक और उद्देश्य परक मनोरंजन जहाँ मिलता है, वहाँ जाकर रुकता है l और आज लघुकथा ने लुप्त होते जा रहे पाठकों को साहित्य की ओर मोड़ा है, रोका है तो इसके लिए वह बधाई की पात्र है l कुछ ही मिनटों में यदि वह कोई सीख, कोई तंज, कोई रहस्योद्घाटन, कोई विद्रूप यथार्थ, सभ्यता - संस्कृति अंधविश्वास, अनीति और भारतीयता की पहचान को उद्घाटित कर देती है तो, पाठक तो आकर्षित होगा ही l हाँ, विशेष बात यह है कि लघुकथा पढ़ने के बाद पाठक के मन में विचारों का एक सोता फूटता है जो उसे चिंतन - मनन के छींटों से भिगोकर तरो-ताजा करता है, क्योंकि एक अच्छी और प्रभावी लघुकथा जहाँ ख़त्म होती है वहीं से उसका अगला भाग पाठक के मानस में आकार लेने लगता है l

अब प्रश्न उठता है कि आख़िर यह लघुकथा है क्या? क्या यह एक छोटी-सी कहानी है?, क्या यह दादा-दादी की कहानियाँ हैं? लघु उपन्यास है, बोध - जातक कथाएँ हैं अथवा कुछ और?.. क्या हैं?

तो मैं बताता चलूँ कि लघुकथा उपर्युक्त वर्णित कथा - विधाओं से इतर अपने आप में एक स्वतंत्र पूर्ण विधा है जो क्षण - विशेष की घटना या प्रभाव को अभिव्यक्त करती है l यह कुछ वाक्यों से लेकर एक - डेढ़ पृष्ठ तक की हो सकती है l जहाँ तक इसके शब्द सीमा की बात है तो अभी तक लघुकथा के विशेषज्ञ - समीक्षक भी इसकी अंतिम और अधिकतम शब्द सीमा को लेकर एकमत नहीं हैं l फिर भी सामान्यतः जो एक राय बनती दिख रही है वह इसकी अधिकतम सीमा 350 से 500 शब्द तक होना मानती है l पर जिस तरह हर नाटक में उसका अपना रंगमंच निहित रहता है उसी प्रकार हर लघुकथा के कथानक में उसकी शब्द सीमा निहित रहती है l मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि किसी विसंगति पूर्ण क्षण - विशेष के प्रसंग या घटना या प्रभाव को कम से कम शब्दों में प्रभावी ढंग से कहना लघुकथा है, जिसमें लेखक को लेखकीय प्रवेश की अनुमति नहीं है, जिसमें कालखंड बदलने की इजाज़त नहीं है, जिसमें उपदेश देने की छूट नहीं है l छूट है तो उस 'अनकहे' की, जो कहा नहीं गया लेकिन लघुकथा में प्रतिध्वनित है l छूट है तो शब्दों की मितव्ययिता की, छूट है तो समस्या के समाधान की अनिवार्यता की l संवेदनाओं को झंकृत करना, थोड़े में अधिक कहना, सांकेतिकता, ध्वन्यात्मकता, बिम्बात्मकता, प्रतीकात्मकता आदि लघुकथा के प्रमुख तत्व कहे जा सकते हैं l संक्षेप में कहा जा सकता है कि कथानक, शिल्प, शैली, मारक पंक्ति (पंच), विसंगतिपूर्ण क्षण - विशेष, इकहरापन, भूमिकाविहीन, कालखंड दोष से रहित प्रेरक और सामाजिक महत्व को प्रकट करना लघुकथा के तत्व कहे जा सकते हैं l

इतना समझने के बाद इतना तो समझ आ ही जाता है कि लघुकथा - लेखन आम सामान्य लेखन नहीं है l लेकिन ऐसा भी नहीं है कि इसे लिखा ही न जा सके l सतत अभ्यास और सतर्कता बरती जाए और सिद्ध लघुकथाकारों की लघुकथाओं के अध्ययन - मनन किया जाए तो लघुकथा-लेखन में सफलता प्राप्त की जा सकती है l आजकल इन्टरनेट पर देश भर के अनेक लघुकथा को समर्पित पटल - मंच हैं, जो न केवल समय - समय पर लघुकथा-लेखन को प्रोत्साहित ही कर रहे हैं बल्कि देशभर के लब्धप्रतिष्ठ वरिष्ठ और प्रबुद्ध लघुकथाकारों के साथ लघुकथा पर गोष्ठियाँ आयोजित कर, नवोदित लघुकथाकारों को उनकी लघुकथाओं के वाचन, और उनकी समीक्षा द्वारा मार्गदर्शन, और प्रोत्साहन देने का मह्त्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं l कुछेक नाम देखें जा सकते हैं - ' लघुकथा के परिंदे', 'क्षितिज', 'कथा - दर्पण साहित्य मंच', ' साहित्य सम्वेद', 'लघुकथालोक' आदि आदि I

और जहाँ तक लघुकथा के वर्तमान प्रमुख हस्ताक्षरों की बात है तो श्री रमेश बत्रा जी, श्री जगदीश कश्यप जी, स्व. श्री सतीशराज पुष्करणा जी, श्री कृष्ण कमलेश जी, श्री भगीरथ परिहार जी, श्री सतीश दूबे जी, श्री योगराज प्रभाकर जी, श्री बलराम अग्रवाल जी, श्रीमती कांता राय जी, श्री संतोष सुपेकर जी, श्री चन्द्रेश छतलानी जी, श्री सुकेश साहनी जी, श्री कमल चोपड़ा जी, श्री सतीश राठी जी, श्री संजीव वर्मा 'सलिल' जी, डॉ. श्री अशोक भाटिया जी, श्री ओम नीरव जी, श्रीमती सुनीता मिश्रा जी आदि के नाम आदर के साथ लिए जा सकते हैं l और इनके लघुकथा पर विचार, इनके लघुकथा संग्रहों को पढ़कर लघुकथा को समझना - लिखना आसान होगा l

आख़िर में, इतना जरूर कहना चाहूँगा कि इक्कीसवीं सदी और आने वाली सदियों में लघुकथा एक स्थापित साहित्यिक विधा के रूप में और प्रतिष्ठा पायेगी, और प्रतिष्ठित होगी जिसकी शुभ शुरूआत हो भी चुकी है l हाल ही में अखिल भारतीय और प्रादेशिक स्तर पर मध्यप्रदेश साहित्य परिषद ने अकादमी पुरस्कारों में पहली बार लघुकथा को साहित्य के प्रतिष्ठित अकादमी पुरस्कारों की श्रेणी में शामिल किया है जिसके अंतर्गत अखिल भारतीय लघुकथा पुरस्कार एक लाख रुपये राशि का और प्रादेशिक लघुकथा पुरस्कार इक्यावन हज़ार रुपये राशि का निश्चित कर भोपाल के श्री घनश्याम मैथिल 'अमृत' जी को उनके लघुकथा संग्रह "... एक लोहार की " पर पहला जैनेन्द्र कुमार जैन पुरस्कार देने की घोषणा की l आशा है देश की अन्य राज्यों की साहित्य परिषद भी प्रेरित हों अपने यहाँ भी लघुकथा को शीर्ष साहित्यिक पुरस्कारों की श्रेणी में शामिल करेंगी, क्योंकि अब लघुकथा की चमक को अनदेखा करना असंभव है l

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- नेतराम भारती

गाज़ियाबाद उत्तर प्रदेश


मंगलवार, 7 दिसंबर 2021

लघुकथा: खेत | भुवनेश्वर चौरसिया "भुनेश"

अपनी-अपनी चौहद्दी और सीमाओं से बंधे हुए खेत हरियाली समेटे फसलों से लहलहा रहे थे। 

छोटू अपने दादा के साथ खेत पर पहुंचा तो सरसों के पीले फूल देखकर हर्षित हो गया। 

दादा जी ये खेत किसका है? और ये जो पौधे लगे हैं ये क्या हैं? 

दादा जी बिना कुछ बोले आगे आगे चलते गए। 

अब उनके सामने गांव का आखिरी खेत और सामने दूसरे गांव की सीमा। 

पास ही में मेड़ के ऊपर कंटीले तारों का बार लगा हुआ था। 

दूसरी ओर गेंदे का फूल किसी दूसरे खेत में लहलहा रहा था। छोटू दादा जी देखो ना कितने अच्छे फूल खिले हैं। 

मन करता है ढ़ेर सारे फूल तोड़ लूं। दादा जी बच्चे को रोकते हुए ऐसा बिल्कुल नहीं करना नहीं तो दूसरे गांव के लोग हम लोगों का जीना हराम कर देंगे। 

बच्चा फूल तोड़ने के लिए हाथ बढ़ा रहा था लेकिन हाथ ठिठक गए।

बच्चा अगले ही क्षण ऐसा क्यों? बेटे ये खेत दूसरे गांव के लोगों की है। इस पर उनका मालिकाना हक है। मैं तुम्हें बाजार से इससे भी अच्छे अच्छे फूल लाकर दूंगा।

दादा जी बच्चे को बहलाने की कोशिश कर रहे थे। तभी फूल वाले खेत के पास किसी आदमी के आने की आहट सुनाई दी। 

बच्चे बूढ़े को एक साथ देखते हुए फूल वाले खेत के मालिक ने उन्हें नमस्ते किया। 

शायद वे उन्हें जानते थे। बहुत दिनों बाद दर्शन दिए मालिक अब तो खेत देखने भी नहीं आते।

दादा जी ने भी नमस्ते किया हां भई अब तो खेत बटाईदार के हाथों दे दिया है। 

कभी इन खेतों को अपने हाथों सींचते थे। अब बाल बच्चे नौकरी चाकरी वाले हो गए तो खेती किसानी छूट गई। 

दूसरे खेत वाले ये आपके साथ बच्चा कौन है? जी मेरा पोता है जिद करके मेरे साथ आ गया। 

अभी कुछ देर पहले ही फूल तोड़ने की जिद कर रहा था। मैंने साफ मना कर दिया। वो आदमी जो दूसरे खेत का मालिक था।

आ... हा हा । मालिक आप भी न कमाल करते हैं एकाध फूल तोड़ ही लेते तो क्या बिगड़ जाता।

 खेत भले बंट गए हैं। 

लेकिन हमलोग तो हैं अब भी एक दूसरे के पूरक ही। आपका खेत आपके पास नहीं है फिर भी खेत के मालिक तो हैं। 

दो चार फूल तोड़ भी लेते तो क्या बिगड़ जाता। एक साथ दस बारह फूल तोड़ कर बच्चे के हाथों में थमा दिया। 

लेउ बचबा जे फूल से जो कछु चाहो बनाय लियौ चाहे तो माला गूंथ लियौ या फिर खेल लियौ। 

तभी पहले खेत ने दूसरे खेत से चुटकी लेते हुए कहा देखो हमारे बीच 'मेड़़' रुपी दीवारें खींच दी गई है। लेकिन रहेंगे तो खेत ही!

हमारी एकता मनुष्यों से भिन्न है, लेकिन हमलोग फिर भी साथ रहते हैं। 

और मनुष्य क्या वे सिर्फ मिलकर रहने की वजह तलाशते हैं पर रहते अलग-अलग हैं।


- भुवनेश्वर चौरसिया "भुनेश"

Village:- bajhai,khodawand pur, post:-meghaul, district:- begusarai

Bihar:-848202

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Mobile:-9910348176/8340797800