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मंगलवार, 14 अप्रैल 2020

लघुकथा: मानव-मूल्य | लेखन व वाचनः डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी


वह चित्रकार अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति को निहार रहा था। चित्र में गांधीजी के तीनों बंदरों  को विकासवाद के सिद्दांत के अनुसार बढ़ते क्रम में मानव बनाकर दिखाया गया था।

उसके एक मित्र ने कक्ष में प्रवेश किया और चित्रकार को उस चित्र को निहारते देख उत्सुकता से पूछा, "यह क्या बनाया है?"

चित्रकार ने मित्र का मुस्कुरा कर स्वागत किया फिर ठंडे, गर्वमिश्रित और दार्शनिक स्वर में उत्तर दिया, "इस तस्वीर में ये तीनों प्रकृति के साथ विकास करते हुए बंदर से इंसान बन गये हैं, अब इनमें इंसानों जैसी बुद्धि आ गयी है। ‘कहाँ’ चुप रहना है, ‘क्या’ नहीं सुनना है और ‘क्या’ नहीं देखना है, यह समझ आ गयी है। अच्छाई और बुराई की परख - पूर्वज बंदरों को ‘इस अदरक’ का स्वाद कहाँ मालूम था?"

आँखें बंद कर कहते हुए चित्रकार की आवाज़ में बात के अंत तक दार्शनिकता और बढ़ गयी थी।

"ओह! लेकिन तस्वीर में इन इंसानों की जेब कहाँ है?" मित्र की आवाज़ में आत्मविश्वास था।

चित्रकार हौले से चौंका, थोड़ी सी गर्दन घुमा कर अपने मित्र की तरफ देखा और पूछा, "क्यों...? जेब किसलिए?"

मित्र ने उत्तर दिया,
"ये केवल तभी बुरा नहीं देखेंगे, बुरा नहीं कहेंगे और बुरा नहीं सुनेगे जब इनकी जेबें भरी रहेंगी। इंसान हैं बंदर नहीं..."
-०-

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
   9928544749
   chandresh.chhatlani@gmail.com
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चित्र: साभार गूगल

सोमवार, 13 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: गुलाम अधिनायक । लेखन व वाचन: डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी




उसके हाथ में एक किताब थी, जिसका शीर्षक ‘संविधान’ था और उसके पहले पन्ने पर लिखा था कि वह इस राज्य का राजा है। यह पढने के बावजूद भी वह सालों से चुपचाप चल रहा था। उस पूरे राज्य में बहुत सारे स्वयं को राजा मानने वाले व्यक्ति भी चुपचाप चल रहे थे। किसी पुराने वीर राजा की तरह उन सभी की पीठ पर एक-एक बेताल लदा हुआ था। उस बेताल को उस राज्य के सिंहासन पर बैठने वाले सेवकों ने लादा था। ‘आश्वासन’ नाम के उस बेताल के कारण ही वे सभी चुप रहते।  वह बेताल वक्त-बेवक्त सभी से कहता था कि, “तुम लोगों को किसी बात की कमी नहीं ‘होगी’, तुम धनवान ‘बनोगे’। तुम्हें जिसने आज़ाद करवाया है वह कहता था – कभी बुरा मत कहो। इसी बात को याद रखो। यदि तुम कुछ बुरा कहोगे तो मैं, तुम्हारा स्वर्णिम भविष्य, उड़ कर चला जाऊँगा।” बेतालों के इस शोर के बीच जिज्ञासावश उसने पहली बार हाथ में पकड़ी किताब का दूसरा पन्ना पढ़ा। उसमें लिखा था – ‘तुम्हें कहने का अधिकार है’। यह पढ़ते ही उसने आँखें तरेर कर पीछे लटके बेताल को देखा। उसकी आँखों को देखते ही आश्वासन का वह बेताल उड़ गया। उसी समय पता नहीं कहाँ से एक खाकी वर्दीधारी बाज आया और चोंच चबाते हुए उससे बोला, “साधारण व्यक्ति, तुम क्या समझते हो कि इस युग में कोई बेताल तुम्हारे बोलने का इंतज़ार करेगा?” और बाज उसके मुंह में घुस कर उसके कंठ को काट कर खा गया। फिर एक डकार ले राष्ट्रसेवकों के राजसिंहासन की तरफ उड़ गया। -०- चित्र: साभार गूगल

रविवार, 12 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: नीरव प्रतिध्वनि । लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी



हॉल तालियों से गूँज उठा, सर्कस में निशानेबाज की बन्दूक से निकली पहली ही गोली ने सामने टंगे खिलौनों में से एक खिलौना बतख को उड़ा दिया था। अब उसने दूसरे निशाने की तरफ इशारा कर उसकी तरफ बन्दूक उठाई। तभी एक जोकर उसके और निशानों के बीच सीना तान कर खड़ा हो गया।   निशानेबाज उसे देख कर तिरस्कारपूर्वक बोला, "हट जा।" जोकर ने नहीं की मुद्रा में सिर हिला दिया। निशानेबाज ने क्रोध दर्शाते हुए बन्दूक उठाई और जोकर की टोपी उड़ा दी। लेकिन जोकर बिना डरे अपनी जेब में से एक सेव निकाल कर अपने सिर पर रख कर बोला “मेरा सिर खाली नहीं रहेगा।” निशानेबाज ने अगली गोली से वह सेव भी उड़ा दिया और पूछा, "सामने से हट क्यों नहीं रहा है?" जोकर ने उत्तर दिया, "क्योंकि... मैं तुझसे बड़ा निशानेबाज हूँ।" "कैसे?" निशानेबाज ने चौंक कर पूछा तो हॉल में दर्शक भी उत्सुकतावश चुप हो गए। “इसकी वजह से...” कहकर जोकर ने अपनी कमीज़ के अंदर हाथ डाला और एक छोटी सी थाली निकाल कर दिखाई। यह देख निशानेबाज जोर-जोर से हँसने लगा। लेकिन जोकर उस थाली को दर्शकों को दिखा कर बोला, “मेरा निशाना देखना चाहते हो... देखो...”  कहकर उसने उस थाली को ऊपर हवा में फैंक दिया और बहुत फुर्ती से अपनी जेब से एक रिवाल्वर निकाल कर उड़ती थाली पर निशाना लगाया। गोली सीधी थाली से जा टकराई जिससे पूरे हॉल में तेज़ आवाज़ हुई – ‘टन्न्न्नन्न.....’ गोली नकली थी इसलिए थाली सही-सलामत नीचे गिरी। निशानेबाज को हैरत में देख जोकर थाली उठाकर एक छोटा-ठहाका लगाते हुए बोला, “मेरा निशाना चूक नहीं सकता... क्योंकि ये खाली थाली मेरे बच्चों की है...” हॉल में फिर तालियाँ बज उठीं, लेकिन बहुत सारे दर्शक चुप भी थे उनके कानों में “टन्न्न्नन्न” की आवाज़ अभी तक गूँज रही थी। -०- चित्र: साभार गूगल

शनिवार, 11 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: भटकना बेहतर । लेखन व वचन: डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी



कितने ही सालों से भटकती उस रूह ने देखा कि लगभग नौ-दस साल की बच्ची की एक रूह पेड़ के पीछे छिपकर सिसक रही है। उस छोटी सी रूह को यूं रोते देख वह चौंकी और उसके पास जाकर पूछा, "क्यूँ रो रही हो?"
वह छोटी रूह सुबकते हुए बोली, "कोई मेरी बात नहीं सुन पा रहा है… मुझे देख भी नहीं पा रहा। कल से ममा-पापा दोनों बहुत रो रहे हैं… मैं उन्हें चुप भी नहीं करवा पा रही।"
वह रूह समझ गयी कि इस बच्ची की मृत्यु हाल ही में हुई है। उसने उस छोटी रूह से प्यार से कहा, "वे अब तुम्हारी आवाज़ नहीं सुन पाएंगे ना ही देख पाएंगे। तुम्हारा शरीर अब खत्म हो गया है।"
"मतलब मैं मर गयी हूँ!" छोटी रूह आश्चर्य से बोली।
"हाँ। अब तुम्हारा दूसरा जन्म होगा।"
"कब होगा?" छोटी रूह ने उत्सुकता से पूछा।
"पता नहीं...जब ईश्वर चाहेगा तब।"
"आपका…  दूसरा जन्म कब..." तब तक छोटी रूह समझ गयी थी कि वह जिससे बात कर रही है वो भी एक रूह ही है।
"नहीं!! मैं नहीं होने दूंगी अपना कोई जन्म।" सुनते ही रूह उसकी बात काटते हुए तीव्र स्वर में बोली।
"क्यूँ?" छोटी रूह ने डर और आश्चर्यमिश्रित स्वर में पूछा।
"मुझे दहेज के दानवों ने जला दिया था। अब कोई जन्म नहीं लूंगी, रूह ही रहूंगी क्यूंकि रूहों को कोई जला नहीं सकता।" वह रूह अपनी मौत के बारे में कहते हुए सिहर गयी थी।
"फिर मैं भी कभी जन्म नहीं लूँगी।"
"क्यूँ?"
छोटी रूह ने भी सिहरते हुए कहा,
"क्यूंकि रूहों के साथ कोई बलात्कार भी नहीं कर सकता।"
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चित्र: साभार गूगल

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: पश्चाताप । लेखन व वाचन: डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी



उसका दर्द बहुत कम हो गया, इतनी शांति उसने पूरे जीवन में कभी अनुभव नहीं की थी। रक्त का प्रवाह थम गया था। मस्तिष्क से निकलती जीवन की सारी स्मृति एक-एक कर उसके सामने दृश्यमान हो रही थी और क्षण भर में अदृश्य हो रही थी। वह समझ गया कि मृत्यु निकट ही है।

वह जीना चाह कर भी आँखें नहीं खोल पा रहा था। असहनीय दर्द से उसे छुटकारा जो मिल रहा था।

अचानक एक स्मृति उसकी आँखों के समक्ष आ गयी, और वो हटने का नाम नहीं ले रही थी। मृत्यु एकदम से दूर हो गयी, वो विचलित हो उठा। उसकी आँखों में स्पंदन होने लगा, एक क्षण को लगा कि आँसूं आयेंगे, लेकिन आँसू बचे कहाँ थे? मुंह से गहरी साँसें भरते हुए उसने उस विचार से दूर जाने के लिये धीरे-धीरे आँखें खोल दीं।

उसके सामने अब उसका बेटा और बहू खड़े थे। डॉक्टर ने बेटे को उसकी स्थिति के बारे में बता दिया था। उसकी आँखें खुलते ही बेटे के चेहरे पर संतोष के भाव आये, और उसके हाथ को अपने हाथ में लेकर कहा, "पापा, आपकी बहू माँ बनने वाली है।"

"मेरा... समय.. आ... गया है...!" उसने लड़खड़ाती धीमी आवाज़ में कहा।

"पापा आप वादा करो कि आप फिर हमारे पास आओगे...हमारे बेटे बनकर..." बेटे की आँखों से आँसू झरने लगे।

वह बहू की कोख देख कर मुस्कुराया, फिर बेटे को इशारे से बुला कर कहा, "तू भी... वादा कर ... मैं बेटे की जगह... बेटी बनकर आया... तो मुझे मार मत देना...!"

कहते ही उसके सीने से बोझ उतर गया। उसने फिर आँखें बंद कर लीं, अब उसे पत्नी की रक्तरंजित कोख दिखाई नहीं दे रही थी।
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- डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी, 9928544749, chandresh.chhatlani@gmail.com

चित्र: साभार गूगल

गुरुवार, 9 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: दायित्व-बोध । लेखन व वाचन: डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी



दायित्व-बोध

पिता की मृत्यु के बारह दिन गुज़र गये थे, नाते-रिश्तेदार सभी लौट गये आखिरी रिश्तेदार को रेलवे स्टेशन तक छोड़कर आने के बाद, उसने घर का मुख्य द्वार खोला ही था कि उसके कानों में उसके पिता की कड़क आवाज़ गूंजी, "सड़क पार करते समय ध्यान क्यों नहीं देता है, गाड़ियाँ देखी हैं बाहर"

उसकी साँस गहरी हो गयी, लेकिन गहरी सांस दो-तीन बार उखड़ भी गयी पिता तो रहे नहीं, उसके कान ही बज रहे थे और केवल कान ही नहीं उसकी आँखों ने भी देखा कि मुख्य द्वार के बाहर वह स्वयं खड़ा था, जब वह बच्चा था जो डर के मारे कांप रहा था

वह थोड़ा और आगे बढ़ा, उसे फिर अपने पिता का तीक्ष्ण स्वर सुनाई दिया, "दरवाज़ा बंद क्या तेरे फ़रिश्ते करेंगे?"

उसने मुड़ कर देखा, वहां भी वह स्वयं ही खड़ा था, वह थोड़ा बड़ा हो चुका था, और मुंह बिगाड़ कर दरवाज़ा बंद कर रहा था

दो क्षणों बाद वह मुड़ा और चल पड़ा, कुछ कदम चलने के बाद फिर उसके कान पिता की तीखी आवाज़ से फिर गूंजे, "दिखाई नहीं देता नीचे पत्थर रखा है, गिर जाओगे"

अब उसने स्वयं को युवावस्था में देखा, जो तेज़ चलते-चलते आवाज़ सुनकर एकदम रुक गया था

अब वह घर के अंदर घुसा, वहां उसका पोता अकेला खेल रहा था, देखते ही जीवन में पहली बार उसकी आँखें क्रोध से भर गयीं और पहली ही बार वह तीक्ष्ण स्वर में बोला, "कहाँ गये सब लोग? कोई बच्चे का ध्यान नहीं रखता, छह महीने का बच्चा अकेला बैठा है"

और उसे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे उसके पैरों में उसके पिता के जूते हैं


- डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी

बुधवार, 8 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: खजाना । लेखन व वाचन: डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी


पिता के अंतिम संस्कार के बाद शाम को दोनों बेटे घर के बाहर आंगन में अपने रिश्तेदारों और पड़ौसियों के साथ बैठे हुए थे। इतने में बड़े बेटे की पत्नी आई और उसने अपने पति के कान में कुछ कहा। बड़े बेटे ने अपने छोटे भाई की तरफ अर्थपूर्ण नजरों से देखकर अंदर आने का इशारा किया और खड़े होकर वहां बैठे लोगों से हाथ जोड़कर कहा, “अभी पांच मिनट में आते हैं”।

फिर दोनों भाई अंदर चले गये। अंदर जाते ही बड़े भाई ने फुसफुसा कर छोटे से कहा, "बक्से में देख लेते हैं, नहीं तो कोई हक़ जताने आ जाएगा।" छोटे ने भी सहमती में गर्दन हिलाई ।

पिता के कमरे में जाकर बड़े भाई की पत्नी ने अपने पति से कहा, "बक्सा निकाल लीजिये, मैं दरवाज़ा बंद कर देती हूँ।" और वह दरवाज़े की तरफ बढ़ गयी।

दोनों भाई पलंग के नीचे झुके और वहां रखे हुए बक्से को खींच कर बाहर निकाला। बड़े भाई की पत्नी ने अपने पल्लू में खौंसी हुई चाबी निकाली और अपने पति को दी।

बक्सा खुलते ही तीनों ने बड़ी उत्सुकता से बक्से में झाँका, अंदर चालीस-पचास किताबें रखी थीं। तीनों को सहसा विश्वास नहीं हुआ। बड़े भाई की पत्नी निराशा भरे स्वर में  बोली, "मुझे तो पूरा विश्वास था कि बाबूजी ने कभी अपनी दवाई तक के रुपये नहीं लिये, तो उनकी बचत के रुपये और गहने इसी बक्से में रखे होंगे, लेकिन इसमें तो....."

इतने में छोटे भाई ने देखा कि बक्से के कोने में किताबों के पास में एक कपड़े की थैली रखी हुई है, उसने उस थैली को बाहर निकाला। उसमें कुछ रुपये थे और साथ में एक कागज़। रुपये देखते ही उन तीनों के चेहरे पर जिज्ञासा आ गयी। छोटे भाई ने रुपये गिने और उसके बाद कागज़ को पढ़ा, उसमें लिखा था,

"मेरे अंतिम संस्कार का खर्च"
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सभी चित्र: साभार गूगल।