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शुक्रवार, 7 जून 2019

परिंदों को मिलेगी मंज़िल यक़ीनन | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

समीक्षा: परिंदे पत्रिका "लघुकथा विशेषांक"


पत्रिका : परिंदे (लघुकथा केन्द्रित अंक) फरवरी-मार्च'19
अतिथि सम्पादक : कृष्ण मनु
संपादक : डॉ. शिवदान सिंह भदौरिया
79-ए, दिलशाद गार्डन, नियर पोस्ट ऑफिस,
दिल्ली- 110095,
पृष्ठ संख्या: 114
मल्य- 40/-

वैसे तो हर विधा को समय के साथ संवर्धन की आवश्यकता होती है, लेकिन लघुकथा एक ऐसी क्षमतावान विधा बन कर उभर सकती है जो स्वयं ही समाज की आवश्यकता बन जाये, इसलिए इसका विकास एक अतिरिक्त एकाग्रता मांगता है। हालांकि इस हेतु न केवल नए प्रयोग करना बल्कि इसकी बुनियादी पवित्रता का सरंक्षण भी ज़रूरी है। विधा के विकास के साथ-साथ बढ़ रहे गुटों की संख्या, आपसी खींचतान में साहित्य से इतर मर्यादा तोड़ते वार्तालाप आदि लघुकथा विधा के संवर्धन हेतु चल रहे यज्ञ की अग्नि में पानी डालने के समान हैं

कुछ ऐसी ही चिंता वरिष्ठ लघुकथाकार कृष्ण मनु जी व्यक्त करते हैं अपने आलेख "तभी नई सदी में दस्तक देगी लघुकथा" में जो उन्होने बतौर अतिथि संपादक लिखा है परिंदे पत्रिका के "लघुकथा विशेषांक" में। अपने ग्यारहवें वर्ष में प्रवेश करती हुई परिंदे पत्रिका ने साहित्य की सड़कों पर लगातार बढ़ रहे लघुकथाओं के छायादार वृक्षों द्वारा अन्याय-विसंगति आदि की तपाती हुई धूप में भी प्रज्ज्वलित चाँदनी का एहसास करा पाने की क्षमता को समझ कर इस विशेषांक का संकल्प लिया होगा और उसे मूर्त रूप भी दे दिया और यही संदेश मैंने पत्रिका के आवरण पृष्ठ से भी पाया है।

अपने आलेख में कृष्ण मनु जी ने कुछ बातें और भी ऐसी कही हैं, उदाहरणस्वरूप, "विषय का चयन न केवल सावधानी पूर्वक होना चाहिए बल्कि जो भी विषय चुना हो चाहे वह पुराना ही क्यों न हो उस पर ईमानदारी से प्रस्तुतीकरण में नयापन हो - कथ्य में ताज़गी हो।", "लघुकथा के मूल लाक्षणिक गुणों को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए।", आदि।

यहाँ मैं एक श्लोक उद्धृत करना चाहूँगा,
“स्वभावो नोपदेशेन शक्यते कर्तुमन्यथा।
सुतप्तमपि पानीयं पुनर्गच्छति शीतताम्॥
अर्थात किसी व्यक्ति को आप चाहे कितनी ही सलाह दे दो किन्तु उसका मूल स्वभाव नहीं बदलता ठीक उसी तरह जैसे ठन्डे पानी को उबालने पर तो वह गर्म हो जाता है लेकिन बाद में वह पुनः ठंडा हो जाता है।“

यही बात लघुकथा पर भी लागू होती है और इस पत्रिका के अतिथि संपादक के लेख के अनुसार भी लघुकथा के मूल गुणों को सदैव लघुकथा में होना चाहिए अर्थात प्रयोग तो हों लेकिन मूलभूत गुणों से छेड़खानी ना की जाये, पानी को उबालेंगे तो वह गरम होकर ठंडा होने की प्रकृति तो रखता ही है लेकिन यदि पानी में नमक मिला देंगे तो वह खारा ही होगा जिसे पुनः प्रकृति प्रदत्त पानी बनाने के लिए मशीनों का सहारा लेना होगा हालांकि उसके बाद भी प्राकृतिक बात तो नहीं रहती। शब्दों के मूल में जाने की कोशिश करें तो अपनी यह बात श्री मनु ने कहीं-कहीं लेखन की विफलता को देखते हुए ही कही है, जिसे लघुकथाकारों को संग्यान में लेना चाहिए।

1970 से 2015 के मध्य अपने लघुकथा लेखन को प्रारम्भ करने वाले 63 लघुकथाकारों की प्रथम लघुकथा और एक अन्य अद्यतन लघुकथा (2018 की) से सुसज्जित परिंदे पत्रिका के इस अंक में प्रमुख संपादक डॉ. शिवदान सिंह भदौरिया जी स्वच्छता पर अपने संपादकीय में न केवल देश में स्वच्छता की आवश्यकता पर बल दिया है बल्कि जागरूक करते हुए कुछ समाधान भी सुझाए हैं। हालांकि उन्होने लघुकथा पर बात नहीं की है लेकिन फिर भी स्वच्छता पर ही जो कुछ उन्होने लिखा है, उस पर लघुकथा सृजन हेतु विषय प्राप्त हो सकते हैं।

पत्रिका के प्रारम्भ में अनिल तिवारी जी द्वारा लिए गए दो साक्षात्कार हैं - पहला श्री बलराम का और दूसरा श्री राम अवतार बैरवा का। दोनों ही साक्षात्कार पठन योग्य हैं और चिंतन-मनन योग्य भी।

सभी लघुकथाओं से पूर्व लघुकथाकार का परिचय दिया गया है, जिसमें एक प्रश्न मुझे बहुत महत्वपूर्ण प्रतीत हुआ - "लघुकथा आपकी प्रिय विधा क्यों है?" यह प्रश्न लघुकथा पर शोध कर रहे शोधार्थियों के लिए निःसन्देह उपयोगी है और यह प्रश्न पत्रिका के इस अंक का महत्व भी बढ़ा रहा है।

इस पत्रिका में दो तरह की लघुकथाएं देने का उद्देश्य मेरे अनुसार यह जानना है कि लघुकथा विधा में एक ही साहित्यकार के लेखन में कितना परिवर्तन आया है? केवल नवोदित ही नहीं बल्कि वरिष्ठ लघुकथाकारों में से भी कुछ लेखक जो चार-पाँच पंक्तियों में लघुकथा कहते थे, समय के साथ वे न केवल शब्दों की संख्या बढ़ा कर भी कथाओं की लाघवता का अनुरक्षण कर पाये बल्कि अपने कहे को और भी स्पष्ट कर पाने में समर्थ हुए हालांकि इसके विपरीत कुछ रचनाकार ऐसे भी हैं जो लघुकथा के अनुसार अधिक शब्दों में लिखते हुए कम (अर्थाव लाघव) की तरफ उन्मुख हुए। कुल मिलाकर यह स्पष्ट है कि सामान्यतः परिपक्वता बढ़ी है और बढ़नी चाहिए भी।

एक और विशिष्ट बात जो मुझे प्रथम और अद्यतन लघुकथाओं को पढ़ते हुए प्रतीत हुई, वह यह कि समय के साथ लघुकथाकारों ने शीर्षक पर भी सोचना प्रारम्भ कर दिया है जो कि लघुकथा लेखन में हो रहे परिष्करण का परिचायक है।

पत्रिका की छ्पाई गुणवत्तापूर्ण है, लघुकथाओं में भाषाई त्रुटियाँ भी कम हैं जो कि सफल और गंभीर सम्पादन की निशानी है। कुल मिलाकर यह एक संग्रहणीय अंक है और मैं आश्वस्त हूँ कि साहित्य, संस्कृति एवं विचार के इस द्वेमासिक के परिंदों को मिलेगी मंज़िल यक़ीनन, ये फैले हुए उनके पर बोलते हैं

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

गुरुवार, 6 जून 2019

लघुकथा वीडियो:छोटे-बड़े सपने | लेखक - रामेश्वर काम्बोज हिमांशु | स्वर- शैफाली गुप्ता | समीक्षा - डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

"छोटे–बड़े सपने" वरिष्ठ लघुकथाकार रामेश्वर काम्बोज हिमांशु द्वारा रचित एक मार्मिक लघुकथा है। इस रचना में लेखक तीन बच्चों के माध्यम में समाज में फैली हुई आर्थिक असामानता को दर्शाने में पूर्णतः सफल हैं। एक विशिष्ट शैली में रचित इस रचना में तीनों बच्चे यूं तो अलग-अलग वर्गों से संबन्धित हैं और अपनी-अपनी बात रखते हैं। ये तीनों बच्चे एक साथ खेल रहे हैं। एक धनाढ्य सेठ, दूसरा बाबू का तो तीसरा एक रिक्शेवाले का बच्चा है।  हालांकि अपने से काफी कमतर वर्ग के बच्चों के साथ अपने बच्चे का खेलना माता-पिता पसंद नहीं करते। किसी धनाढ्य सेठ का बेटा एक भूखे बच्चे के साथ खेल रहा है - यह लेखक की कल्पना उस समाज को लेकर है जहां उंच-नीच ना हो और यह बात आज के समाज के अनुसार केवल बच्चों को लेकर ही दर्शाई जा सकती है।

हालांकि तीनों बच्चों के रहन-सहन में अंतर के साथ उनके विकसित होते मस्तिष्क को भी लघुकथाकार ने  दर्शाने का प्रयास किया है, जो कि लघुकथा सुनने के बाद चिंतन से अनुभव हो सकता है। बच्चों की सहज बातों से यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि वे बच्चे जब भी बड़े होंगे तो उनकी मानसिकता कैसी हो चुकी होगी और तब अमीरी-गरीबी की खाई पाटना उनके लिए बच्चों के खेल जितना आसान नहीं होगा।

लेखक ने पात्रों के नामकरण भी बहुत सोच-समझ कर किए हैं। सेठ गणेशी लाल, नारायण बाबू और जोखू रिक्शे वाला। तीनों के बच्चे अपने–अपने सपनों के बारे में बताते है। सेठ के बेटे का सपना है–दूर नदी-पहाड़ पार कर घूमने जाना, वहीं बाबू का बेटा सपना देखता है कि वह बहुत तेज स्कूटर चला रहा, अंत में रिक्शे वाले का बेटा नमक और प्याज के साथ भरपेट खाना खाने का स्वप्न देखता रहा है और वह अपने सपने को बेहतरीन बताता है क्योंकि वह खुद भूखा है। सेठ का बेटा घूमता ही रहता है उसका यह सपना पूरा होना कोई बड़ी बात नहीं, बाबू का बेटा तेज़ स्कूटर चला सकता है लेकिन कहीं प्रतिबंध है उसके लिए स्कूटर चलाना मनोरंजन है लेकिन रिक्शेवाले का बेटा भूखा है। लेखक ने एक भूखे के स्वप्न के समक्ष बाकी के दोनों सपने बेकार बताए हैं। इस पर एक कहावत याद आ रही है कि किसी भूखे से पूछो कि दो और दो क्या होते हैं तो वह उत्तर देगा "चार रोटी" लघुकथा का अंत न केवल मार्मिक है बल्कि पाठकों को कल्पनालोक से बाहर निकालते हुए यथार्थ की पथरीली ज़मीन पर बिछे काँटों की चुभन का अहसास भी करा देता है।

आइये सुनते हैं रामेश्वर काम्बोज हिमांशु जी की लघुकथा छोटे-बड़े सपने शैफाली गुप्ता के स्वर में:

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी




बुधवार, 5 जून 2019

पर्यावरण सरंक्षण पर लघुकथा: कटती हुई हवा | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

आज विश्व पर्यावरण दिवस पर संगिनी पत्रिका का जून 2019 अंक  (पर्यावरण विशेषांक) प्राप्त हुआ। इसमें मेरी एक लघुकथा "कटती हुई हवा" को भी स्थान प्राप्त हुआ है। वृक्षों की कटाई पर आधारित यह लघुकथा आप सभी के समक्ष पेश कर रहा हूँ।

लघुकथा: 

कटती हुई हवा


पिछले लगभग दस दिनों से उस क्षेत्र के वृक्षों में चीख पुकार मची हुई थी। उस दिन सबसे आगे खड़े वृक्ष को हवा के साथ लहराती पत्तियों की सरसराहट सुनाई दी। उसने ध्यान से सुना, वह सरसराहट उससे कुछ दूरी पर खड़े एक दूसरे वृक्ष से आ रही थी।

सरसराहट से आवाज़ आई, "सुनो! "
फिर वह आवाज़ कुछ कांपने सी लगी, "पेड़खोर इन्सान...  यहां तक पहुंच चुका है। पहले तो उसने... हम तक पहुंचने वाले पानी को रोका और अब हमें...आssह!"

और उसी समय वृक्ष पर कुल्हाड़ी के तेज प्रहार की आवाज़ आई। सबसे आगे खड़े उस वृक्ष की जड़ें तक कांप उठीं। उसके बाद सरसराहट से एक दर्दीला स्वर आया,
"उफ्फ! हम सब पेड़ों का यह परिवार… कितना खुश और हवादार था। कितने ही बिछड़ गए और अब ये मुझ पर... आह! आह!"

तेज़ गति से कुल्हाड़ियों के वार की आवाज़ ने सरसराहट की चीखों को दबा दिया। कुछ ही समय में कट कर गिरते हुए वृक्ष की चरचराहट के स्वर के साथ सरसराहट वाली आवाज़ फिर आई, इस बार यह आवाज़ बहुत कमजोर और बिखरी हुई थी, "सुनो! मैं जा रहा हूँ। मेरे बहुत सारे बीज धरती माँ पर बिखर गए हैं। उगने पर उन्हें हवा-पानी, रोशनी और गर्मी के महत्व को समझाना… मिट्टी से प्यार करना भी। प्रार्थना करना… कि अगली बार मैं किसी ऊंचे पहाड़ पर उगूं… जहां की हवा भी ये… पेड़खोर छू नहीं पाएं। उफ्फ...मेरी जड़ें भी उखड़..."

धम्म से वृक्ष के गिरने का स्वर गूँजा और फिर चारों तरफ शांति छा गयी। सबसे आगे खड़ा वृक्ष शिकायती लहज़े में सोच रहा था, "ईश्वर, तुमने हम पेड़ों को पीड़ा तो दी, पैर क्यों नहीं दिए?"

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

मंगलवार, 4 जून 2019

मेरी लघुकथा लेखन प्रक्रिया- चंद्रेश छतलानी | ओमप्रकाश क्षत्रिय 'प्रकाश'



कुछ वर्षों पूर्व की मेरी लघुकथा लेखन प्रक्रिया 

मार्च 2016 में ओम प्रकाश क्षत्रिय जी सर द्वारा लिया गया मेरा साक्षात्कार, वर्ष 2019 में साहित्यकुंज में पुनः प्रकाशित।

मुझे लगता है पूर्ण रूप से नए लघुकथा लेखकों के लिए यह पोस्ट कुछ लाभप्रद होनी चाहिए। मेरा यह भी मानना है कि प्रत्येक लेखक की रचना प्रक्रिया अलग होती है, किसी से तुलना करना उचित नहीं। केवल प्रारम्भ में एक स्टार्ट चाहिए होता है जो अन्य लेखकों की लेखन प्रक्रिया को जानने के बाद समझा जा सकता है। अपने अंतर में बैठे लेखक से पूछ कर अपनी लेखन प्रक्रिया स्वयं ही बनाई जाये तो उससे बेहतर कुछ भी नहीं। इसके अतिरिक्त लेखन प्रक्रिया भी समय के साथ बदलती रहती है, 2016 में जो मेरी रचना प्रक्रिया थी, आज उससे अलग है। हो सकता है बेहतर हो, हो सकता है बदतर भी हो, लेकिन समय के साथ जिस परिवर्तन की आवश्यकता होती है, मेरी लेखन प्रक्रिया में वह परिवर्तन स्वाभाविक रूप से हुआ है। इसके अलावा लेखन पर समय और परिस्थिति का भी बहुत अधिक प्रभाव पड़ा है। 


मेरी लघुकथा लेखन प्रक्रिया- चंद्रेश छतलानी

ओमप्रकाश क्षत्रिय 'प्रकाश'


आज हम आप का परिचय एक ऐसे साहित्यकार से करवा रहे है जो लघुकथा के क्षेत्र में अपनी अनोखी रचना प्रक्रिया के लिए जाने जाते हैं। आप की लघुकथाएँ अपने-आप में पूर्ण तथा सम्पूर्ण लघुकथा के मापदंड को पूरा करने की कोशिश करती हैं। हम ने आप से जानना चाहा कि आप अपनी लघुकथा की रचना किस तरह करते है? ताकि नए रचनाकार आप की रचना प्रक्रिया से अपनी रचना प्रक्रिया की तुलना कर के अपने लेखन में सुधार ला सकें।

लघुकथा के क्षेत्र में अपना पाँव अंगद की तरह ज़माने वाले रचनाकार का नाम है आदरणीय चंद्रेश कुमार छतलानी जी। आइए जाने आप की रचना प्रक्रिया-

-ओमप्रकाश क्षत्रिय

ओमप्रकाश क्षत्रिय
चंद्रेश जी! आप की रचना प्रक्रिया किस की देन है? या यूँ कहे कि आप किस का अनुसरण कर रहे हैं? 

चंद्रेश कुमार छतलानी
आदरणीय सर! हालाँकि मुझे नहीं पता कि मैं किस हद तक सही हूँ। लेकिन आदरणीय गुरूजी (योगराज जी प्रभाकर) से जो सीखने का यत्न किया है और उन के द्वारा कही गई बातों को आत्मसात कर के और उन की रचनाएँ पढ़ कर जो कुछ सीखा-समझा हूँ, उस का ही अनुसरण कर रहा हूँ।

ओमप्रकाश क्षत्रिय
लघुकथा लिखने के लिए आप सब से पहले क्या-क्या करते हैं?

चंद्रेश कुमार छतलानी
सब से पहले तो विषय का चयन करता हूँ। वो कोई चित्र अथवा दिया हुआ विषय भी हो सकता है। कभी-कभी विषय का चुनाव स्वयं के अनुभव द्वारा या फिर विचारप्रक्रिया द्वारा प्राप्त करने का प्रयास करता हूँ।

ओमप्रकाश क्षत्रिय
विषय प्राप्त करने के बाद आप किस प्रक्रिया का पालन करते हैं? 

चंद्रेश कुमार छतलानी
सब से पहले विषय पर विषय सामग्री का अध्ययन-मनन करता हूँ। कहीं से भी पढ़ता अवश्य हूँ। जहाँ भी कुछ मिल सके- किसी पुस्तक में, इन्टरनेट पर, समाचार पत्रों में, धार्मिक ग्रन्थों में या पहले से सृजित उस विषय की रचनाओं आदि को खोजता हूँ। इस में समय तो अधिक लगता है। लेकिन लाभ यह होता है कि विषय के साथ-साथ कोई न कोई संदेश मिल जाता है। 

इस में से जो अच्छा लगता है उसे अपनी रचना में देने का दिल करता है उसे मन में उतार लेता हूँ। यह जो कुछ अच्छा होता है उसे संदेश के रूप में अथवा विसंगति के रूप में जो कुछ मिलता है, जिस के बारे में लगता है कि उसे उभारा जाए तो उसे अपनी रचना में ढाल कर उभार लेता हूँ। 

ओमप्रकाश क्षत्रिय
मान लीजिए कि इतना करने के बाद भी लिखने को कुछ नहीं मिल पा रहा है तब आप क्या करते हैं?

चंद्रेश कुमार छतलानी
जब तक कुछ सूझता नहीं है, तब तक पढ़ता और मनन करता रहता हूँ। जब तक कि कुछ लिखने के लिए कुछ विसंगति या सन्देश नहीं मिल जाता। 

ओमप्रकाश क्षत्रिय
इस के बाद? 

चंद्रेश कुमार छतलानी
इस विसंगति या संदेश के निश्चय के बाद मेरे लिये लिखना अपेक्षाकृत आसान हो जाता है। तब कथानक पर सोचता हूँ। कथानक कैसे लिखा जाए? उस के लिए स्वयं का अनुभव, कोई प्रेरणा, अन्य रचनाकारों की रचनाएँ, नया-पुराना साहित्य, मुहावरे, लोकोक्तियाँ, आदि से कोई न कोई प्रेरणा प्राप्त करता हूँ। कई बार अंतरमन से भी कुछ सूझ जाता है। उस के आधार पर पंचलाइन बना कर कथानक पर कार्य करता हूँ।

ओमप्रकाश क्षत्रिय
इस प्रक्रिया में हर बार सफल हो जाते हैं?

चंद्रेश कुमार छतलानी
ऐसा नहीं होता है, कई बार इस प्रक्रिया का उल्टा भी हो जाता है। कोई कथानक अच्छा लगता है तो पहले कथानक लिख लेता हूँ और पंचलाइन बाद में सोचता हूँ। तब पंचलाइन कथानक के आधार पर होती है।

ओमप्रकाश क्षत्रिय
आप अपनी लघुकथा में पात्र के चयन के लिए क्या करते हैं? 

चंद्रेश कुमार छतलानी
पहले कथानक को देखता हूँ। उस के आधार पर पात्रों के नाम और संख्या का चयन करता हूँ। पात्र कम से कम हों अथवा न हों। इस बात का विशेष ध्यान रखता हूँ। 

ओमप्रकाश क्षत्रिय
लघुकथा के शब्द संख्या और कसावट के बारे में कुछ बताइए? 

चंद्रेश कुमार छतलानी
मैं यह प्रयास करता हूँ कि लघुकथा 300 शब्दों से कम की हो। हालाँकि प्रथम बार में जो कुछ भी कहना चाहता हूँ उसे उसी रूप में लिख लेता हूँ। वो अधिक बड़ा और कम कसावट वाला भाग होता है, लेकिन वही मेरी लघुकथा का आधार बन जाता है। कभी-कभी थोड़े से परिवर्तन के द्वारा ही वो कथानक लघुकथा के रूप में ठीक लगने लगता है। कभी-कभी उस में बहुत ज़्यादा बदलाव करना पड़ता है।

ओमप्रकाश क्षत्रिय
लघुकथा को लिखने का कोई तरीक़ा है जिस का आप अनुसरण करते हैं? 

चंद्रेश कुमार छतलानी
प्रारूप यदि देखें तो लघुकथा सीधी ही लिखता हूँ। हाँ, दो अनुच्छेदों के बीच में एक खाली पंक्ति अवश्य छोड़ देता हूँ, ताकि पाठकों को पढ़ने में आसानी हो। यह मेरा अपना तरीक़ा है। इस के अलावा जहाँ संवाद आते हैं वहाँ हर संवाद को उद्धरण चिन्हों के मध्य रखा देता हूँ। साथ ही प्रत्येक संवाद की समाप्ति के बाद एक खाली पंक्ति छोड़ देता हूँ। यह मेरा अपना तरीक़ा है।

ओमप्रकाश क्षत्रिय
इस के बाद आप लघुकथा पर क्या काम करते हैं ताकि वह कसावट प्राप्त कर सके?

चंद्रेश कुमार छतलानी
इस के बाद लघुकथा को अंत में दो-चार बार पढ़ कर उस में कसावट लाने का प्रयत्न करता हूँ। मेरा यह प्रयास रहता है कि लघुकथा 300 शब्दों में पूरी हो जाए। (हालाँकि हर बार सफलता नहीं मिलती)। इस के लिए कभी किसी शब्दों/वाक्यों को हटाना पड़ता है। कभी उन्हें बदल देता हूँ। दो-चार शब्दों/वाक्यों के स्थान पर एक ही शब्द/वाक्य लाने का प्रयास करता हूँ।

कथानक पूरा होने के बाद उसे बार-बार पढ़ कर उस में से लेखन/टाइपिंग/वर्तनी/व्याकरण की अशुद्धियाँ निकालने का प्रयत्न करता हूँ। उसी समय में शीर्षक भी सोचता रहता हूँ। कोशिश करता हूँ कि शीर्षक के शब्द पंचलाइन में न हों और जो लघुकथा कहने का प्रयास कर रहा हूँ, उसका मूल अर्थ दो-चार शब्दों में आ जाए। मुझे शीर्षक का चयन सबसे अधिक कठिन लगता है।

ओमप्रकाश क्षत्रिय
अंत में कुछ कहना चाहेंगे? 

चंद्रेश कुमार छतलानी
इस के पश्चात प्रयास यह करता हूँ कि कुछ दिनों तक रचना को रोज़ थोड़ा समय दूँ, कई बार समय की कमी से रचना के प्रकाशन करने में जल्दबाज़ी कर लेता हूँ, लेकिन अधिकतर 4 से 7 दिनों के बाद ही भेजता हूँ। इससे बहुत लाभ होता है।

यह मेरा अपना तरीक़ा है। मैं सभी लघुकथाकारों से यह कहना चाहता हूँ कि वे अपनी लघुकथा को पर्याप्त समय दें, उस पर चिंतन-मनन करें। उन्हें जब लगे कि यह अव पूरी तरह सही हो गई है तब इसे पोस्ट/प्रकाशित करें। 





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सोमवार, 3 जून 2019

लघुकथाकार परिचय: डॉ. सतीशराज पुष्करणा

5 अक्टूबर 1946 को लाहौर, पंजाब (अब पाकिस्तान में) जन्मे डॉ. सतीशराज पुष्करणा ने अपनी शिक्षा सहारनपुर और तत्पश्चात देहरादून से प्राप्त की। 1962 से साहित्य-साधना में रत डॉ. पुष्करणा लघुकथा के अतिरिक्त उपन्यास, कहानी, ग़ज़ल, कविता, हाइकु, निबंध, श्रद्धांजलि साहित्य, आलोचना, जीवनी लेखन सहित साहित्य की अन्य कई विधाओं में भी पारंगत हैं। अपने महती कार्यों के फलस्वरूप आप राष्ट्रीय स्तर की अनेक सरकारी, गैर सरकारी लब्ध-प्रतिष्ठ संस्थाओं द्वारा सम्मानित एवं पुरस्कृत हो चुके हैं और अनेक मानद उपाधियाँ भी प्राप्त कर चुके हैं। बहुमुखी प्रतिभा के धनी डॉ. पुष्करणा ने लघुकथा लेखक के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर कीर्ति अर्जित की है। एक समीक्षक के रूप में आपने लघुकथा के समीक्षा-मानदण्डों पर भी महत्वपूर्ण कार्य किये है। वर्ष 1988 से पटना में प्रति वर्ष अंतर्राज्यीय प्रगतिशील लघुकथा लेखक सम्मेलन का आयोजन भी आपके द्वारा किया जा रहा है।

एक कवि के रूप में डॉ. पुष्करणा अपनी संवेदनाओं की विविधता, भावबोध और यथार्थ को अपने बहुआयामी अनुभव के जरिये दर्शा पाने में भी पूर्ण सफल रहे हैं, एक कविता में वे कहते हैं,
चट्टानों को तोड़ो / शीतल पानी / तुम्हारी प्रतीक्षा में है।

और इस कविता की तरह उन्होंने भी लघुकथा की शिल्प सम्बन्धी बहुत सी भ्रान्तियों को तोड़ कर लघुकथा के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया और विधा को वहां तक पहुंचाने का पूरा प्रयास किया है जहाँ लघुकथा का प्राकृतिक अस्तित्व लघुकथाकारों की प्रतीक्षा कर रहा है। आपकी लघुकथाओं में मानव की मानसिकता, दायित्वबोध, संघर्ष, अहंकार, नैतिक मूल्य, लीडरशिप, वैचारिक टकराव आदि सहज ही परिलक्षित होते हैं। आपकी कुछ लघुकथाओं के बारे में विचार करें तो, आपकी एक लघुकथा है ‘पुरुष’ जिसमें बस में बैठा हुआ एक व्यक्ति अपनी पीछे की सीट पर बैठी महिलाओं की तरफ आकर्षित होता है, और उन्हें देखने के लिए परेशान होता रहता है। रचना के अंत में जब पीछे बैठी महिलाओं में से एक कहती है कि, "अंकल! प्लीज खिड़की बन्द कर दीजिए न!" तो उसके विचारों की सुनामी एकदम शांत झील में तब्दील हो जाती है और उसके मुँह से सहज ही निकल जाता है,"अच्छा बेटा!"। यह लघुकथा एक प्रौढ़ होते हुए व्यक्ति की मानसिकता को दर्शाने में पूर्ण सफल है।

इसके अतिरिक्त उनकी एक रचना मुझे बहुत अच्छी लगती है, वह है - 'सहानुभूति', अधिकारी से डांट खाता हुआ कर्मचारी स्वयं को अपमानित महसूस करता है और अधिकारी से कहता है कि "आप मुझे इस प्रकार डाँट नहीं सकते, आपको जो कहना या पूछना हो, लिखकर कहें या पूछें। मैं जवाब दे दूंगा।" जिसका उत्तर अधिकारी कुछ इस तरह देता है कि, "मैं लिखित कार्रवाई करके तुम्हारे बीवी-बच्चों के पेट पर लात नहीं मारूँगा। गलती तुम करते हो। डाँटकर प्रताड़ित भी तुम्हें ही करूँगा। तुम्हें जो करना हो… कर लेना। समझे?" यह बात उस कर्मचारी के हृदय को बेध जाती है और अंत में वह पात्र अपनी एक बात से पाठकों को भी झकझोर देता है, वह कहता है कि, "वह सिर्फ अपना अफसर ही नहीं, बाप भी है, जिसे मुझसे भी ज्यादा मेरे बच्चों की चिन्ता है।" नैतिक मूल्यों को उभारती हुई और कार्यालयों में हावी होती राजनीति की चट्टानों को तोड़ कर शीतल जल उभारती हुई अपनी ही कविता को इस लघुकथा में डॉ. पुष्करणा जी ने जीवित किया है।

रचनाओं के इसी क्रम में डॉ. पुष्करणा ने अपनी एक रचना 'वर्ग-भेद' में विषमबाहु त्रिभुज की तीन रेखाओं आधारभुजा, मध्यम और छोटी भुजा को लेकर प्रतीकों का बहुत ही सुंदर इस्तेमाल भी किया है। इसी प्रकार आपने 'पिघलती बर्फ' लघुकथा में नारी शक्ति को दर्शाया है। सहज ही अपने भीतर शक्ति का संचयन करते हुए एक नारी दहेज-प्रथा की धज्जियाँ उड़ाते हुए अपना पक्ष दृढ़ता से रखती है। हालांकि चार-पांच रचनाओं के द्वारा डॉ. पुष्करणा के लेखन को अधिक नहीं समझ सकते, यह केवल उदाहरण मात्र हैं।

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

रविवार, 2 जून 2019

लघुकथा वीडियो: "जेवर" | लेखक- सुरेश सौरभ | स्वर: शिव सिंह सागर | समीक्षा: डॉ० चंद्रेश कुमार छतलानी

सुरेश सौरभ जी द्वारा लिखी गयी और शिव सिंह सागर  जी द्वारा दिये गए स्वर में यह लघुकथा "जेवर" एक ऐसी मानसिकता को इंगित करती है जो महिलाओं ही नहीं बल्कि पुरुषों में भी अक्सर पाई जाती है। यह मानसिकता है - स्वयं को श्रेष्ठ साबित करनी की।

यह रचना एक विशेष शैली में कही गयी है, जब कभी भी समाज के विभिन्न वर्गों के विचार बताने होते हैं तो लघुकथा में वर्गों को संख्याओं में कहकर भी दर्शाया जा सकता है। इस रचना में भी वर्गों को जेवरों की संख्या के अनुसार विभक्त किया गया है। पहली महिला एक झुमके की, दूसरी झुमके से बड़े एक हार की, तीसरी अपने मंगलसूत्र की, चौथी पायल सहित तीन-चार जेवरों की बात करती है और उनके जेवरों की कीमत पहली महिला से प्रारम्भ होकर चौथी तक बढ़ती ही जाती है। पाँचवी स्वयं असली जेवर पहन कर नहीं आई थी लेकिन उसने भी अपने जेवरों की कीमत सबसे अधिक बताई और साथ में समझदारी की एक बात भी की कि वह उन्हें हर जगह नहीं पहनती है। एक झुमके से लेकर कई जेवरों से लदा होना महिलाओं के परिवार की आर्थिक दशा बता रहा है, जिससे वर्गों का सहज ही अनुमान हो जाता है। इसके अतिरिक्त यह लघुखा एक बात और बताने में सक्षम है कि यदि जेवर खरीदे हैं तो कब पहना जाये और कब नहीं इसका भी ज्ञान होना चाहिए। हालांकि पांचवी महिला के अनुसार केवल घर में ही नहीं बल्कि मेरा विचार है कि विशेष आयोजनों में भी जेवर पहने जा सकते हैं।  आखिर जेवर हैं तो पहनने के लिए ही। लेखक जो संदेश देना चाहते हैं वह भी स्पष्ट है कि जेवरों की सुरक्षा भी ज़रूरी है। कई महिलाएं ट्रेन आदि में भी असली जेवर पहन लेती हैं जो कि सुरक्षा की दृष्टि से उचित नहीं है।

आइये सुनते हैं सुरेश सौरभ जी की लघुकथा "जेवर", शिव सिंह सागर जी के स्वर में।

-  डॉ० चंद्रेश कुमार छतलानी


शनिवार, 1 जून 2019

विजेता लघुकथा : गूंगा कुछ तो करता है | स्टोरी मिरर में "लघुकथा के परिंदे" प्रतियोगिता के तहत | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

कुछ व्यक्तियों की तरह उसने मुस्कुराने के लिए अपना फेसबुक खोला। पहली पोस्ट देखी, उसमें एक कार्टून बना था कि एक राष्ट्रीय राजनीतिक दल का प्रमुख दूसरे दल के प्रमुख की हँसी उड़ा रहा था। यह देखकर उसका चेहरा बिगड़ने लगा।

फिर उसने उसी पोस्ट की टिप्पणियाँ पढ़ीं।

पहली टिप्पणी ‘अ’ की थी जिसमें लिखा था, "मूर्ख तो मूर्ख ही रहेगा।" और उसे महसूस हुआ कि वह स्वयं एक मूर्ख व्यक्ति है।

दूसरी टिप्पणी ‘ब’ ने की, "गधों को सब मूर्ख ही दिखाई देते हैं।" यह पढ़कर उसे स्वयं में एक गधा दिखाई देने लगा।

तीसरी टिप्पणी फिर ‘अ’ ने की, "जिसे गधा कह रहे हो उसने देश की लोकतांत्रिक परंपरा को बढ़ाने के लिए बहुत कार्यक्रम चला रखे हैं।"

चौथी टिप्पणी फिर ‘ब’ की थी, "तो तुम भी जिसे मूर्ख कह रहे हो उसने और उसके दल ने भी कई वर्षों देश की भलाई के लिए बहुत कार्यक्रम चलाए हैं।"

पाँचवी टिप्पणी ‘स’ ने की, "एक-दूसरे को कोसना छोड़िये, यह बताइये आप दोनों ने किन-किन कार्यक्रमों या परियोजनाओं में भाग लिया है ?"

छठी टिप्पणी ‘अ’ ने की, "लो आज गूंगे भी बोल रहे हैं, देशद्रोही ! तुमने क्या किया है देश के लिए ? "इस टिप्पणी को ‘ब’ ने पसंद किया हुआ था, लेकिन पढ़कर उसकी भवें तन गयीं।

सातवीं टिप्पणी दस मिनट बाद की थी, जो ‘स’ ने की थी, "मैनें फेसबुक पर अपना प्रचार नहीं किया लेकिन हर दल की सरकार के विकास के कार्यों में हर संभव भाग लिया है..."

उसने और टिप्पणियाँ नहीं पढ़ीं, उसकी आँखों में चमक आ गयी थी और उसने ‘स’ को मित्रता अनुरोध भेज दिया।

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी