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शुक्रवार, 31 मई 2019

लघुकथा: दहन किसका | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी



"जानते हो रावण की भूमिका करने वाला असली जिंदगी में भी रावण ही है, ऐसा कोई अवगुण नहीं जो इसमें नहीं हो।" रामलीला के अंतिम दिन रावण-वध मंचन के समय पांडाल में एक दर्शक अपने साथ बैठे व्यक्ति से फुसफुसा कर कहने लगा।

दूसरे दर्शक ने चेहरे पर ऐसी मुद्रा बनाई जैसे यह बात वह पहले से जानता था, वह बिना सिर घुमाये केवल आँखें तिरछी करते हुए बोला, "इसका बाप तो बहुत सीधा था, लेकिन पहली पत्नी की मृत्यु के बाद दूसरी शादी की भूल कर बैठा, दूसरी ने  दोनों बाप-बेटे को घर से निकाल दिया...”

“इसकी हरकतें ही ऐसी होंगी, शराबी-जुआरी के साथ किसकी निभेगी?"

"श्श्श! सामने देखो।" पास से किसी की आवाज़ सुनकर दोनों चुप हो गये और मंच की तरफ देखने लगे।

मंच पर विभीषण ने राम के कान में कुछ कहा, और राम ने तीर चला दिया, जो कि सीधा रावण की नाभि से टकराया और अगले ही क्षण रावण वहीँ गिर कर तड़पने लगा, पूरा पांडाल दर्शकों की तालियों से गूँजायमान हो उठा।

तालियों की तेज़ आवाज़ सुनकर वहां खड़ा लक्ष्मण की भूमिका निभा रहा कलाकार भावावेश में आ गया और रावण के पास पहुंच कर हँसते हुआ बोला, "देख रावण... माँ सीता और पितातुल्य भ्राता राम को व्याकुल करने पर तेरी दुर्दशा... इस धरती पर अब प्रत्येक वर्ष दुष्कर्म रूपी तेरा पुतला जलाया जायेगा..."

नाटक से अलग यह संवाद सुनकर रावण विचलित हो उठा, वह लेटे-लेटे ही तड़पते हुआ बोला, "सिर्फ मेरा पुतला! मेरे साथ  उसका क्यों नहीं जिस कुमाता के कारण तेरे पिता मर गये और तुम तीनों को...."

उसकी बात पूरी होने से पहले ही पर्दा सहमते हुए नीचे गिर गया।


- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी 

गुरुवार, 30 मई 2019

लघुकथा: दुरुपयोग | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


एक बूढ़ा आदमी जिसने सिर्फ धोती पहनी हुई थी, धीरे-धीरे चलता हुआ, महात्मा गांधी की प्रतिमा के पास पहुंचा। वहां उसने अपनी धोती में बंधा हुआ एक सिक्का निकाला, और जिस तरफ ‘सत्यमेव जयते’ लिखा था, उसे ऊपर कर, सिक्के को महात्मा गांधी के पैरों में रख दिया।

अब उसने मूर्ति के चेहरे को देखा, उसकी आँखों में धूप चुभने लगी, लेकिन उसने नज़र हटाये बिना दर्द भरे स्वर में कहा,
"गांधीजी, तुम तो जीत कर चले गये, लेकिन अब यहाँ दो समुदाय बन गये हैं, एक तुम्हारे नाम की जय-जयकार करता है तो दूसरा तुम्हें दुष्ट मानता है... तुम वास्तव में कौन हो, यह पीढ़ी भूल ही गयी।" कहते-कहते उसकी गर्दन नीचे झुकती जा रही थी।

उसी समय उसके हृदय में जाना-पहचाना स्वर सुनाई दिया, "मैं जीता कब था?अंग्रेजों के जाने के बाद आज तक मेरे भाई-बहन पराधीन ही हैं, मुट्ठी भर लोग उन्हें बरगला कर अपनी विचारधारा के पराधीन कर रहे हैं... और सत्य की हालत..."

"क्या है सत्य की हालत?" वह बूढ़ा आदमी अपने अंदर ही खोया हुआ था।

उसके हृदय में स्वर फिर गूंजा, "सत्य तो यह है कि दोनों एक ही काम कर रहे हैं – मेरे नाम को बेच रहे हैं..."

और उसी समय हवा के तेज़ झोंके से मूर्ति पर रखा हुआ सिक्का नीचे गिर गया, शायद उसका आधार कमज़ोर था।

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

बुधवार, 29 मई 2019

लघुकथा: मैं पानी हूँ | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

"क्या... समझ रखा है... मुझे? मर्द हूँ... इसलिए नीट पीता हूँ... मरद हूँ... मुरद...आ"
ऐसे ही बड़बड़ाते हुए वह सो गया। रोज़ की तरह ही घरवालों के समझाने के बावजूद भी वह बिना पानी मिलाये बहुत शराब पी गया था।

कुछ देर तक यूं ही पड़ा रहने के बाद वह उठा। नशे के बावजूद वह स्वयं को बहुत हल्का महसूस कर रहा था, लेकिन कमरे का दृश्य देखते ही अचरज से उसकी आँखें फ़ैल गयीं, उसके पलंग पर एक क्षीणकाय व्यक्ति लेटा हुआ तड़प रहा था।

उसने  उस व्यक्ति को गौर से देखा, उस व्यक्ति का चेहरा उसी के चेहरे जैसा था। वह घबरा गया और उसने पूछा, "कौन हो तुम?"

उस व्यक्ति ने तड़पते हुए कहा, "...पानी..."

और यह कहते ही उस व्यक्ति का शरीर निढाल हो गया। वह व्यक्ति पानी था, लेकिन अब मिट्टी में बदल चुका था।

उसी समय कमरे में उसकी पत्नी, माँ और बच्चों ने प्रवेश किया और उस व्यक्ति को देख कर रोने लगे। वह चिल्लाया, "क्यों रो रहे हो?"

लेकिन उसकी आवाज़ उन तक नहीं पहुंच रही थी।

वह और घबरा गया, तभी पीछे से किसी ने उसे धक्का दिया, वह उस मृत शरीर के ऊपर गिर कर उसके अंदर चला गया। वहां अँधेरा था, उसे अपना सिर भारी लगने लगा और वह तेज़ प्यास से व्याकुल हो उठा। वह चिल्लाया "पानी", लेकिन बाहर उसकी आवाज़ नहीं जा पा रही थी।

उससे रहा नहीं गया और वह अपनी पूरी शक्ति के साथ चिल्लाया, "पा...आआ...नी"

चीखते ही वह जाग गया, उसने स्वप्न देखा था, लेकिन उसका हलक सूख रहा था। उसने अपने चेहरे को थपथपाया और पास रखी पानी की बोतल को उठा कर एक ही सांस में सारा पानी पी लिया।

और उसके पीछे रखी शराब की बोतल नीचे गिर गयी थी, जिसमें से शराब बह रही थी... बिना पानी की।

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

मंगलवार, 28 मई 2019

पुस्तक समीक्षा | परिंदे पूछते हैं | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

"परिंदे पूछते हैं" - जिज्ञासु लघुकथाकारों के प्रश्नों के उत्तर
- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी 

"परिंदे पूछते हैं" लघुकथा विधा पर सार्थक विमर्श का एक ऐसा आउटपुट है, जो ना केवल नवोदित रचनाकारों के लिए बल्कि उनसे कुछेक कदम आगे बढ़े लघुकथाकारों के लिए भी उपयोगी विषय-वस्तु समेटे है। इस पुस्तक में लघुकथा सम्बन्धी लगभग सभी विषयों पर डॉ. अशोक भाटिया जी द्वारा चर्चा कर जिज्ञासु लघुकथाकारों के प्रश्नों के उत्तर दिए गए हैं। अपनी पारखी दृष्टि से आपने ऐसी लघुकथाओं को उदाहरणस्वरूप भी प्रस्तुत किया है, जिन्हें प्रश्न के साथ जोड़कर लघुकथाकार खुद-ब-खुद उत्तर को अधिक आसानी से समझ सकें। मेरे लिए एक बहुत बड़ी बात यह रही कि यह पुस्तक स्वयं डॉ. अशोक भाटिया जी ने मुझे आशीर्वाद स्वरूप प्रदान की। तब से इसे तीन-चार बार पढ़ चुका हूँ और अपने कुछ मित्रों को पढ़ा भी चुका हूँ।

इस पुस्तक के कुछ कथन ऐसे हैं, जिनकी गंभीरता पर ध्यान देना मैं ज़रूरी समझता हूँ जैसे,

1. लघुकथा की शब्द संख्या को लेकर गद्य और पद्य के अंतर को दर्शाते हुए अशोक भाटिया जी सर ने बताया कि छंदबद्ध दोहों, कविताओं आदि में मात्राओं, गणों और क्रम का महत्व होता है, लेकिन गद्य में ऐसा नहीं है, हाँ! उपन्यास से छोटी कहानी और कहानी से छोटी लघुकथा होनी चाहिए, क्यूंकि लघुकथा एक आयामी होती है।

2. लघुकथा और कहानी में अंतर को स्पष्ट करते हुए डॉ. भाटिया ने यह बताया कि कहानी चाहे बड़ी हो छोटी वह "कहानी" ही कहलाएगी। किसी भी रचनाकार को यह सोचने से पहले कि उनकी लिखी रचना लघुकथा है या कहानी, यह सोचना चाहिए कि रचना अपने सभी पहलुओं यथा कथानक, उद्देश्य, संवाद, भाषा आदि की पूर्णता की ओर जाकर कुछ न कुछ सन्देश अवश्य दे और पाठक के लिए आकर्षक (रुचिकर) होकर उसकी चेतना पर प्रहार करने का सामर्थ्य रखे।

3. लेखक के मन में समाज का एक सुंदर स्वप्न होता है, इसलिए विसंगतियों के प्रति आक्रोश का भाव उत्पन्न हो ही जाता है, लेकिन इसके बावजूद भी अपनी रचनाओं को विसंगतियों की सीमाओं में बाँध कर रखना ठीक नहीं। समाज का सही चित्रण हो यह आवश्यक है।

4. लघुकथा सहित कोई भी रचना काल्पनिक भी हो सकती है, पूर्ण यथार्थपरक भी और दोनों का मिश्रण भी। लेकिन कल्पना हवाई नहीं होनी चाहिए। इसके उदाहरण में आपने बताया कि "स्वाति नक्षत्र से गिरी हुई बूँद मोती बन गयी", यह एक कल्पना है। उसी तरह ब्रह्मा के तीन मुख, माँ दुर्गा के आठ हाथ कल्पना है। लेकिन ये सारी कल्पनाएं इसी दुनिया से आई हैं। सीप से मोती एक प्रक्रिया के तहत बनता ही है, हाथ-पैर-सिर होते ही हैं। ये कल्पनाएं कहीं न कहीं यथार्थ से जुडी हुई हैं।

5.रचना में जिस क्षेत्र के लिए कहा जा रहा है, पात्रों के नाम उसी अनुसार हों। कोशिश यह हो कि पात्रों के नाम अनावश्यक जाती सूचक ना हों और केवल ग्लैमर के लिए ना हों।

6. लघुकथा में सन्देश सीधे-सीधे दिया जाये, यह कोई आवश्यक नहीं। सतही सन्देश देना कई बार रचना को कमजोर करता है। समकालीन हिंदी लघुकथाएं यथार्थ पर टिकी हैं और बोधकथा वाली शैली पीछे छूट गयी है। सीधे सन्देश देने की बजाय कलात्मक तरीके से सन्देश देने पर पाठक पर अधिक प्रभाव पड़ेगा।

7. लघुकथा के शीर्षक पर खुले मन से विचार करें। शीर्षक रोचक भी हो सकता है, जिज्ञासा उत्पन्न करने वाला भी, व्यंग्यात्मक भी और प्रतीकात्मक भी। कई बार शीर्षक पूरी लघुकथा को ही एक नया आयाम प्रदान कर देता है।

8. विचारहीन, भावहीन, रचनात्मकताहीन, दिशाहीन लघुकथाओं के गोदाम गलतफहमियां पैदा कर रहे हैं।

9. गद्य विधा में मानकों की सूची नहीं होती, केवल विधागत मर्यादाएं होती हैं।

10. प्रतीक रचना में गहरा अर्थ भरते हैं। इनके प्रयोग से कई बार रचना को नयी ऊंचाई भी प्राप्त हो सकती है।

मेरे अनुसार वैसे तो सभी लघुकथाकारों को अपना रास्ता खुद ही चुन कर आगे बढ़ना है, लेकिन "परिंदे पूछते हैं" सरीखी उपयोगी पुस्तकें पढ़नी ही चाहिए। ऐसी पुस्तकें, आलेख आदि रचनाकर्म का मार्ग प्रशस्त करने में महती भूमिका का निर्वाह करते हैं।

-0-

पुस्तक : परिंदे पूछते हैं
लेखक : डॉ. अशोक भाटिया 
प्रकाशक : लघुकथा शोध केन्द्र, भोपाल 
पृष्ठ संख्या: 144
मूल्य : रु.100/-
समीक्षाकार: - डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी 

सोमवार, 27 मई 2019

कविता में लघुकथा | वो एक क्षण | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


मृत्यु, किसी लघुकथा की तरह, तू भी
एक ही क्षण को समेटे है अपने भीतर।

हाँ! एक फर्क ज़रूर है...
लघुकथा का क्षण कितने ही और क्षणों को कर देता है ज़िंदा
और तेरा क्षण किसी कहानी का कर देता है अंत।
लाखों-करोड़ों घंटे खत्म हो जाते… अगले ही पल।

एक दिन - एक क्षण
हम सब लिखेंगे यह लघुकथा।
रह जायेगी एक गूंगी किताब
कुछ हाथों में - किन्हीं कन्धों पे।

शायद कुछ दिलों में भी...


-- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

रविवार, 26 मई 2019

पुस्तक: 101 लघुकथाएँ | विजय अग्रवाल

पुस्तक के कुछ अंश


प्रतिष्ठित लेखक डॉ. विजय अग्रवाल की ये लघुकथाएँ स्वयं पर लगाए जानेवाले इस आरोप को झुठलाती हैं कि लघुकथाएँ लघु तो होती हैं, लेकिन उनमें कथा नहीं होती। इस संग्रह की लघुकथाओं में कथा तो है ही, साथ ही उन्हें कहने के ढंग में भी ‘कहन’ की शैली है। इसलिए ये छोटी-छोटी रचनाएँ पाठक के अंतर्मन में घुसकर वहाँ बैठ जाने का सामर्थ्य रखती हैं।

ये लघुकथाएं मानव के मन और मस्तिष्क के द्वंद्वों तथा उनके विरोधाभासों को जिंदगी की रोजमर्रा की घटनाओं और व्यवहारों के माध्यम से हमारे सामने लाती हैं। इनमें जहाँ भावुक मन की तिलमिलाती हुई तरंगें मिलेंगी, वहीं कहीं-कहीं तल में मौजूद विचारों के मोती भी। पाठक इसमें मन और विचारों के एक ऐसे मेले की सैर कर सकता है, जहाँ बहुत सी चीजें हैं—और तरीके एवं सलीके से भी हैं।
इस संग्रह की विशेषता है—सपाटबयानी की बजाय किस्सागोई। निश्चय ही ये लघुकथाएँ सुधी पाठकों को कुरेदेंगी और सोचने पर विवश करेंगी।
दिल्ली की गलियों-सड़कों और मुल्लों-बाजारों को, जिन्होंने मुझसे ये लिखवाईं।

क्यों और कैसे

लगता है कि सूखी घास-फूस की कई अलग-अलग ढेरियाँ दिलो-दिमाग पर धरी रहती हैं कि अचानक जिंदगी का कोई छोटा-बड़ा वाकया आग की एक फुनगी की तरह आकर उन कई ढेरियों में से किसी एक पर गिरता है और देखते-ही-देखते वह ढेरी लपलपा उठती है। ऐसा हुआ नहीं कि लघुकथा बनी नहीं।

कभी-कभी ऐसा भी होता है कि ऐसा होने पर वह ढेरी लपलपाने की बजाय सुलगने लगती है। वह सुलगती जाती है और कुछ समय बाद सुलगते-सुलगते सुस्त एवं पस्त पड़कर अंततः सुलगना ही बंद कर देती है। यह लपलपा नहीं पाती। नतीजन यह लघुकथा नहीं बन पाती। मैंने पाया कि इसमें दोष आग की फुनगी का तनिक भी नहीं रहता। दोष रहता है कि दिलो-दिमाग में मौजूद घास-फूस की उन ढेरियों का कि वे इतनी सूखी नहीं थीं कि फुनगी के उस आँच को लपककर लपटों में तब्दील कर सकें।

इसलिए कम-से-कम मेरे मामले में अब तक ऐसा ही हुआ है कि जितनी लघुकथाएँ रची गई हैं, उनसे कई गुना अधिक अनरची रह गयी हैं। घटनाएँ कौंधती हैं, प्रभावित भी करती हैं। वे सभी संभावनाओं से सराबोर भी रहती हैं। उनमें इतनी ताकत भी होती है कि वे मुझे बेचैन करके टेबुल-कुरसी तक खींच लाती हैं। लेकिन मैं उनके मन-मुताबिक उन्हें शक्ल नहीं दे पाता। उनका शिल्प सध न पाने के कारण ये लघुकथाएँ नहीं बन पातीं। इसे मैं अपनी कमजोरी मानता हूँ।

इसलिए कभी-कभी मुझे यह मानने को मजबूर होना पड़ता है कि लघुकथाएँ शायद सायास नहीं होतीं। ये आयास होती हैं। ये लिखी नहीं जातीं बल्कि लिख जाती हैं। इसलिए यदि संवेदनात्मक अनुभूति के क्षण ही उसे अंजाम देने से चूक गए तो फिर आप उसे चूका ही समझो, क्योंकि अपनी सीमा में लघु होने के कारण इसकी विषय वस्तु में जो एक जबरदस्त अंतर्द्वन्द्व और परस्पर खिंचाव होना चाहिए, पर यह अनुभूतियों के कुछ ऐसे ही गहरे एवं सघन क्षणों में संभव हो पाता है। यही उसकी शैली को ताप प्रदान करता है। यही उसे मात्र वर्ण, ठंडा वक्तव्य या चुटकुलेनुमा स्वरूप से बचाता है।
ये सब महज मेरी अपनी बातें हैं। मुझे नहीं मालूम कि मैं अपनी इन सैद्धांतिक बातों को अपनी रचनात्मकता में कितना ढाल सकता हूँ। हाँ, यह जरूर है कि मेरी कोशिश सोलहों आने रही है और यही वह था, जो मैं कर सकता था—और मैंने किया।

अब एक कोशिश मेरे प्रिय पाठक के रूप में आपको अपनी करनी है। मेरी रचनात्मक सफलता एकमात्र इसी बात में है कि मैं इन्हें कितना आपका बना सका हूँ।
अभी तो बस इतना ही। बाकी कभी कहीं मुलाकात होने पर।

-विजय अग्रवाल

अनंत खोज


‘‘यह तुमने कैसा वेश बना रखा है ?’’
‘‘तुम भी तो वैसी ही दिख रही हो !’’
‘‘हाँ मैंने अब अपने आपको समाज को सौंप दिया है। उन्हीं के लिए रात-दिन सोचता-करता रहता हूँ।’’
‘‘कुछ ऐसी ही स्थित मेरी भी है। एम.डी. करने के बाद अब मैं आदिवासी इलाकों में मुफ्त इलाज करती हूँ। बदले में वे ही लोग मेरी देखभाल करते हैं। खैर, लेकिन तुम तो आई.ए.एस. बनने की बात करते थे ?’’
‘‘हाँ, करता था। बन भी जाता शायद, बशर्ते कि तुम्हें पाने की आशा रही होती। जब तुम नहीं मिलीं तो आई.ए.एस. का विचार भी छोड़ दिया !’’

‘‘अच्छा !’’ उसके चेहरे पर अनायास ही दुःख की हलकी लकीरें उभर आईं। उसने धीमी आवाज में कहा, ‘‘कहाँ तो आई.ए.एस. के ठाट-बाट और कहाँ गली-गली की खाक छानने वाला ये धंधा ! इनमें तो कोई तालमेल दिखाई नहीं देता।’’
‘‘क्या करता ? यदि तुमने एक बार अपने मन की बात बता दी होती तो आज जिंदगी ही कुछ और होती।’’
‘‘लेकिन तुमने भी तो अपने मन की बात नहीं कही।’’
थोड़ी देर के लिए वातावरण में घुप्प चुप्पी छा गई। दोनों की आँखें एक साथ उठीं, मिलीं और फिर दोनों एक साथ बोल उठे, ‘‘इसके बाद से शायद हम दोनों ही एक-दूसरे को औरों में खोजने में लगे हुए हैं। शायद इसीलिए किसी ने भी अपने मन की बात नहीं कही।’’

मिलन


‘‘उस दिन तुम आए नहीं। मैं प्रतीक्षा करती रही तुम्हारी।’’ प्रेमिका ने उलाहने के अंदाज में कहा।
‘‘मैं आया तो था, लेकिन तुम्हारा दरवाजा बंद था, इसलिए वापस चला गया।’’ प्रेमी ने सफाई दी।
‘‘अरे, भला यह भी कोई बात हुई !’’ प्रेमिका बोली।
‘‘क्यों, क्या तुम्हें अपना दरवाजा खुला नहीं रखना चाहिए था ?’’ प्रेमी थोड़े गुस्से में बोला।
‘‘यदि दरवाजा बंद ही था तो तुम दस्तक तो दे सकते थे। मैं तुम्हारी दस्तक सुनने के लिए दरवाजे से कान लगाए हुए थी।’’ प्रेमिका ने रूठते हुए कहा।

‘‘क्यों, क्या मेरे आगमन की सूचना के लिए मेरे कदमों की आहट पर्याप्त नहीं थी ?’’ प्रेमी थोड़ी ऊँची आवाज में बोला।
इसके बाद वे कभी मिल नहीं सके, क्योंकि न तो प्रेमिका ने अपना दरवाजा खुला रखा और न ही प्रेमी ने उस बंद दरवाजे पर दस्तक दी।


सच्चा प्रेम



‘‘मैं तुमसे बहुत प्रेम करती हूँ।’’
‘‘लेकिन मैं तो तुमसे नहीं करता।’’
‘‘इससे क्या, लेकिन मैं तो तुमसे करती हूँ।’’
‘‘तुम नहीं जानती मुझे। सच तो यह है कि मैं तुमसे घृणा करता हूँ।’’
‘‘शायद इसीलिए मैं तुमसे प्रेम करती हूँ, क्योंकि बाकी सभी मुझसे प्रेम करते हैं। एक तुम ही अलग हो, जो मुझसे घृणा करते हो।’’
कहते हैं कि दोनों ने अपने इस रिश्ते को ताउम्र निभाया।

शनिवार, 25 मई 2019

पुस्तक: चर्चित व्यंग्य लघुकथाएँ | योगेन्द्र मौदगिल


इसमें समाज में परिलक्षित,विद्रूपताओं तथा राजनीतिक व सामाजिक आडंबरों को निशाना बनाया गया है....



पुस्तक के कुछ अंश

साहित्य सृजन के आरंभ से ही लघुकथाएँ लिखी जा रही हैं। अनेक लघुकथाकारों ने अपनी श्रेष्ठ रचनाओं के माध्यम से साहित्य जगत को समृद्ध किया है। चर्चित लघुव्यंग्य कथाओं के इस संग्रह में योगेन्द्र मौदगिल ने देश भर प्रसिद्ध लघुकाथाकारों की रचनाओं में संकलित किया है; जिनमें अशोक भटिया, अशोक विश्नोई, भगवत दुबे, आभा पूर्वें, इकबाल सिंह, कमल चोपड़ा, कमलकांत सक्सेना, कालीचरण प्रेमी, किशोर श्रीवास्तव, चंद्रशेखर दुबे, जगदीशचन्द्र ठाकुर, दर्शन मितवा, निरंजन बोहा, पुष्कर द्विवेदी, मीरा जैन, राजा चौरसिया, राजेन्द्र वर्मा, सरला अग्रवाल, सिद्धेश्वर सूर्यकांत नागर, शंकर पुबातांबेकर आदि प्रमुख हैं।

इन व्यंग्य लघुकथाओं में समाज में परिलक्षित विषमताओं, विद्रूपताओं तथा राजनीतिक व सामाजिक आडंबरों को निशाना बनाया गया है। कम शब्दों में अपनी बात कह देने के गुण के कारण ये लघुकथाएँ अत्यंत पठनीय बन पड़ती हैं। इनमें दिए गए संदेश हमारे मानस को संवेदित ही नहीं करते, संस्कारित भी करते हैं।

संपादकीय


सुधी आलोचकों के अनुसार साहित्य-सृजन की शुरुआत से ही लघुकथाएँ लिखी जा रही हैं। समय-दर-समय शिल्पगत कसाव और विधागत संप्रेषणीयता से लघुकथा का महत्त्व उभरकर सामने आया है। संभवतः यही कारण था कि अपने-अपने समय के प्रबुद्ध रचनाकारों ने लघुकथा पर कलम चलाई। यह बात अलग है कि वे कितने समय और कितनी गंभीरता से इस विद्या से जुड़े, परंतु जुड़े अवश्य।

इधर पिछले दशकों में लघुकथा की लोकप्रियता चरम पर थी। कमोबेश प्रत्येक उभरता रचनाकार लघुकथा लिखकर लघुकथाकार कहलाना चाहता था। उसी भीड़ में लघुकथा के नाम पर कचरे के ढेर भी सामने आए। फिर भी अनेक लघुकथाकारों ने अपनी श्रेष्ठ लघुकथाओं के माध्यम से लघुकथा जगत् को समृद्ध किया।
इस कड़ी में समकालीन लघुकथाकारों की लघुकथाओं के साथ यह संकलन आप सुधी पाठकों की सेवा में प्रस्तुत है। देश भर के लघुकथाकार इन दिनों लघुकथाओं के माध्यम से क्या संदेश आप तक पहुँचाना चाह रहे हैं, इसे आप भी महसूसें और अपनी महत्त्वपूर्ण राय से हमें अवगत कराएँ।

-योगेंद्र मौदगिल

अशोक भाटिया
सच्चा प्यार


जब दोस्तों ने उसे संगीता के साथ मिलते-घुलते देखा तो उससे इसका कारण पूछा। उसने बताया कि उसे संगीता से प्यार हो गया है।

कुछ हफ्तों बाद दोस्तों ने देखा—वह संगीता को छोड़कर अब गीता के साथ घूमने लगा है। वजह पूछने पर उसने बताया कि संगीता में सिर्फ भावना थी, इसलिए वह प्रेम फ्लॉप हो गया। दोस्तों ने सोचा, चलो, अब तो ठीक हो गया।
कुछ हफ्तों बाद वह एक तीसरी लड़की के साथ घूमने-फिरने लगा। दोस्तों ने सोचा कि इससे गीता के बारे में पूछेंगे तो कहेगा कि गीता में सिर्फ देह थी, इसलिए मामला फ्लॉप हो गया।

दोस्तों ने समझाया, ‘‘यार, ऐसे मत बदलो। तुम किसी से सच्चा प्यार करो और उसे आखिर तक निभाओ।’’
वह तपाक सो बोला, ‘‘सच्चा प्यार ! वह भी एक लड़की से चल रहा है।

व्यथा-कथा


नगर निगम का स्कूल रोज की तरह चल रहा था। एक दिन एक इंस्पेक्टर ने आकर कक्षाओं का मुआयना किया।
चौथी कक्षा में आकर उसने पूछा, ‘‘सर्दियों में हमें कौन से कपड़े पहनने चाहिए ?’’
इसपर कुछ हाथ खड़े हुए, कुछ बुझ रही आँखें चमकीं। इंस्पेक्टर ने एक खड़े हुए हाथ को इशारा किया।
‘‘गरम कपड़े जी !’’
जवाब सुनकर बाकी के हाथ नीचे हो गए।
‘‘मैं बताऊँ जी ?’’ एक हाथ अभी भी उठा हुआ था।
‘‘हाँ, बताओ।’’
‘‘जी, सर्दियों में फटे हुए कपड़े पहनते हैं।’’
‘‘ऐसा तुम्हें किसने बताया ?’’
‘‘बताया नहीं जी, मेरी माँ ऐसा करती हैं। यह देखिए।’’ उसने गिनाना शुरू किया, ‘‘ये एक, ये दो, ये तीन फटी कमीजें और इन सबके ऊपर ये सूटर। माँ कहती हैं कि सर्दियों में फटे हुए कपड़े सूटर के नीचे छिप जाते हैं।

बैताल की एक नई कहानी


राजा विक्रम फिर बैताल को बाँधकर ले चला।
तभी बैताल ने कहा, ‘‘हे राजा, आज मैं तुम्हें एक नया किस्सा सुनाता हूँ। भारत देश के किसी शहर की एक कॉलोनी में एक कुमार बाबू रहता था। एक बार ऐसी स्थिति बनी कि तीन अलग-अलग किराएदार उसके घर के नजदीक आ बसे।
‘‘तीनों उसकी नजरों में अलग कैसे थे, सो सुन—सबसे पहले रामानुजम् आकर बस गए। कॉलोनी के लोगों के साथ उसने अच्छे संबंध बना लिये। पर कुमार बाबू सोचते रहे, यह रामानुजम् अच्छे स्वभाव का है, मेहनती भी है; पर हमारे इलाके का नहीं है।

‘‘कुछ ही दिनों बाद रामपाल भी वहीं आ बसा। वह पड़ोसियों से घुल मिल गया। पर कुमार बाबू उससे भी दूरी रखता था। सोचता, यह अपनी जाति का नहीं, शायद छोटी जाति का है, ताकतवर है; पर उठने-बैठने का ढंग नहीं आता।
‘‘इन दोनों के साथ तो कुमार बाबू की बातचीत फिर भी होती रहती थी, पर कुमार के बिलकुल सामनेवाले मकान में जहूरबख्श के आ बसने से वह परेशान हो गया। नाक-भौं सिकोड़ता हुआ सोचता—दूसरे धरम का है; ठीक है, साफ-सुथरा रहता है, पर जनम से भी नीच है, करम से भी।’ उसकी नफरत की बू तीनों किराएदारों तक भी पहुँच गई थी।

‘‘हे राजा, आगे ध्यान से सुन—
‘‘एक दिन अचानक कुमार बाबू के घर आ लग गई। घबराया हुआ वह कहता रहा, ‘बचाओ, लुट गया।’ दूसरे पड़ोसियों के साथ मिलकर इन किराएदारों ने उसका मकान जलने से बचा लिया। कुमार बाबू की आँखें झुक गईं।’’
इतनी कथा कहकर बैताल ने पूछा, ‘‘हे राजा ! यह बता कि आदमी की आँखें घर में आग लगने के बाद ही क्यों झुकती हैं ?’’
राजा विक्रम इसका उत्तर न दे सका। तब से वह बेताल को पीठ पर ढो रहा है।

राज


म्यूनिसिपल कमेटी के चुनावों में किशन लाल चार बरस से खड़े हो रहे थे। हर बार हारते, क्योंकि मुट्ठी भर लोगों पर ही उनका असर था। लेकिन पैसा लगानेवाले उनके पीछे थे, इसलिए वह पाँचवीं बार लड़े और जीत गए।
उनकी जीत की कहानी इस तरह है। इलाके के बाहर एक दलित बस्ती बस चुकी थी। दलितों को पड़ोस में न बसने देने की लोगों ने बड़ी कोशिश की। समझाने-धमकाने के बाद पुलिस भी भेजी, लेकिन सब बेकार।

लोगों के मन को भाँप कर किशन लाल ने कदम बढ़ाया, ‘‘जीतने के बाद इस बस्ती को यहाँ से उठा दूँगा।’’ बस इसी घोषणा से वे भारी बहुमत से जीत गए।
फिर हुई किशनलाल और दलित बस्ती में कशमकश। लाठी चार्ज व धरनों को देखकर लोग खुश होते, अपने शेर को शाबाशी देते। उधर इलाके की सड़कें टूटने लगीं, नालियां गंदगी से भर गईं, लेकिन लोग असली लड़ाई पहले जीतना चाहते थे।

इसी कशमकश में नए चुनाव आ गए। अब किशन लाल सभाओं में सीधी काररवाई करने की बात करने लगे। भीड़ फिर उनके साथ होने लगी।
एक युवा उम्मीदवार शांतिप्रसाद ने अपनी सभा में कहा, ‘‘दलित बस्ती में पाँच सौ घर हैं, उनका बाकायदा सरपंच है। वह बस्ती पहले ही शहर से बाहर की तरफ बनी है। इसलिए उसे कहीं नहीं ले जाया जा सकता।’’
यह सुनकर लोगों के चेहरों पर क्रोध और असंतोष छा गया था।
शांतिप्रसाद आगे बोले, ‘‘वैसे किशन लाल जी भी नहीं चाहते कि बस्ती यहाँ से चली जाए।’’
‘‘यह झूठ है !’’ कुछ लोग चिल्लाए।
शांतिप्रसाद उन्हें शांत करते हुए बोले, ‘‘यह सच है क्योंकि यह बस्ती अगर यहाँ से उजड़ गई तो किशन लालजी लोगों में नफरत किसके खिलाफ पैदा करेंगे।’’
लोग हैरानी से एक-दूसरे का चेहरा देखने लगे थे।

अशोक विश्नोई

स्वार्थ की हद


‘‘अरी हो बहू ! लो, यह जेवरों का डिब्बा अपने पास रख लो। जब तक दीपक में तेल है तभी तक जल रहा है। आज उजाला है, पता नहीं कब अँधेरा हो जाए। जीवन का क्या भरोसा !’’ ये शब्द कमरे में लेटे-लेटे ससुर ने कहे।
अगली सुबह ससुर ने बहू को आवाज दी, ‘‘बहू, अरी बहू ! सुबह के दस बज गए हैं और चाय अभी तक नहीं बनी। क्या बात है ?’’
लेकिन बहू बिना कुछ कहे तीन-चार चक्कर सुसर के सामने से लगाकर चली गई। उत्तर कुछ नहीं दिया।

वृद्ध ससुर ने एक लंबी साँस ली, फिर दीवार की ओर देखा, जहाँ घड़ी टिक्-टिक् करती आगे बढ़ रही थी।

कथनी-करनी


नेताजी सभा को संबोधित करते हुए कह रहे थे, ‘‘हमें बहुत कुछ करना है। अब समय आ गया है कि हम सब एक जुट होकर देश की सेवा में लगें और राष्ट्रीय अखंडता को सदैव बनाए रख हमें गरीबी हटानी है, गरीब नहीं।’’
भाषण समाप्त होते ही जीप तेजी से एक गली के मोड़ पर आ बैठे दो गरीबों को रौंदती हुई आगे बढ़ गई। उधर वातावरण में अब भी किसी के बोलने की आवाज गूँज रही थी—‘‘हमें गरीबी हटानी है, भाइयों ! देश को आगे बढ़ाना है। गरीबों को उनका हक दिलाना है।

अपनों की गुलामी


सड़क के दोनों ओर खड़े गरीब लोगों के ठेले लाठियाँ मार-मारकर हटाए जा रहे थे। किसी को बंद किया जा रहा था। कारण ज्ञात हुआ, बात बस इतनी सी थी कि अगले दिन 15 अगस्त है—अर्थात् स्वतन्त्रता दिवस।

आभा पूर्वे
लड़की


दोपहर का सन्नाटा था। वह अपनी माँ के साथ इस अजनबी शहर में आई थी। माँ को इसी शहर में नौकरी मिल गई थी। पिता दिल्ली से नहीं आ सके थे, क्योंकि वह वहाँ छोटी सी दुकान के मालिक थे।

लड़की दोपहर के सन्नाटे में माँ को स्कूल से लाने चली जा रही थी, तभी बीस, लड़कों ने उसे सड़क से खींचकर एक कमरे में बंद कर दिया था। लड़की बीसों नवयुवकों की हवस का शिकार होती रही। शाम को लड़की बेहोशी की हालत में खून से लथपथ मिली। बात को समझते ही शहर में तनाव फैल गया। दंगे की हालत बन गई। शहर में तनावपूर्ण स्थिति को शांत करने के लिए सांप्रदायिक सौहार्द के जत्थे निकल आए। पुलिस चौकस हो गई, कहीं कोई दुर्घटना न घट जाए। शहर शांत है। जत्थेवालों के चेहरे पर खुशी है।
और लड़की को होश में लाने की क्रिया जारी है, सलाइन चढ़ाई जा रही है। लड़की होश में नहीं आती। शायद लड़की अब होश में नहीं आएगी।

सभ्य लोग


नगर का वह मुख्य मार्ग था। बड़े-बड़े मकान सड़क के दोनों ओर खड़े थे, पर सड़क के किनारे की नाली को छोड़कर किसी सवारी या खतरे से बचने के लिए थोड़ी सी भी जगह कहीं नहीं थी। मकान से फेंका गया कूड़ा सड़क के किनारे जमा था। आम की गुठलियाँ और छिलके सड़क के किनारे रखे कूड़ेदान से सड़क पर फैल गए थे। पॉलीथिन में रखकर फेंका गया कूड़ा पूरी सड़क को गंदा कर रहा था। कुत्ते ने कुछ अन्न की आशा से उसे नोच-चोथकर इधर-उधर बिखेर दिया था और बगल के मकान में ही शादी की रस्म पूरी हुई थी, भोग की जूठी पत्तलें नाली के ऊपर इधर-उधर फैल गई थीं।

गाँव का गणेशी और शनिचरा उसी सड़क से आ रहे थे। कुछ दूर आए तो शनिचरा ने कहा, ‘‘अपना गाँव तो बरसात में भी इतना गंदा नहीं रहता। वे कौन है, जो इतनी सुंदर सड़क को इतना गंदा किए रहते हैं ?’’
साल भर से शहर में ही नौकरी कर रहे गणेशी ने कहा, ‘‘चुप रहो, ये लोग कोई नहीं, शहर के सभ्य लोग हैं। सुनेंगे तो खाल उतार देंगे।

सपूत


शांति बाबू सरकारी विभाग में बड़े बाबू थे। उनके दो लड़के थे। किसी ने आज तक उनकी खबर नहीं ली। बेकार और बेखबर। जब शांति बाबू क्षय रोग से ग्रसित हुए और डॉक्टर साहब ने किसी भी तरह उनके न बचने की घोषणा कर दी, तो बेटा शांति बाबू की ओर उन्मुख हुआ। दवा नहीं कर रहा था, सिर्फ सेवा करता था। दिन-दिन, रात-रात जाग रहा था। मन में एक आस्था लिये कि पिता की मृत्यु होते ही उसे सरकारी नौकरी मिल जाएगी और यह सोचते ही वह ईश्वर की तरफ अपने दोनों हाथों को जोड़कर सिर झुका लेता। शांति बाबू समझते, उनका बेटा सपूत हो गया है।

अंतर


चारों तरफ घुप अँधेरा था। अंधकार को चीरता हुआ एक रिक्शा चला आ रहा था कि अचानक एक डंडे की आवाज सुनकर उसे रिक्शा रोकना पड़ा। पुलिस वाले ने रिक्शेवाले को आदेश दिया, ‘‘क्यों, बत्ती नहीं जलाई है ? साले, मारकर ठिकाने लगा दूँगा। अँधेरे में गाड़ी चलाता है।’’ यह कहते हुए उसे दनादन अपने डंडे से पीटने लगा।
जब तक वह रोशनी जलाता तब तक बगल से एक अंबेसडर कार बिना बत्ती के तेजी से सरसराती हुई निकल गई।
पुलिस के डंडे से बुरी तरह घायल रिक्शेवाले ने कार की ओर देखा तो पुलिसवाले ने एक डंडा और जमाते हुए कहा, ‘‘साले, कार की तरफ क्या देखता है, कारवाले की बराबरी करेगा !’’

इकबाल सिंह माँ की सीख


उसने माथे पर बिंदिया, नाक में कोका और जूड़े में क्लिप लगाकर शीशे की टुकड़ी में अपना मुँह देखा।

ये सारी चीजें उसने कई दिनों से सँभाल-सँभालकर रखी थीं। माँ कभी भी उसे बिंदिया, कोका व क्लिप जैसी चीजें बरतने नहीं देती थीं। आज उसे माँ का डर नहीं था। उसे अपनी मन-मरजी करने से रोकने वाला कोई नहीं था।
शीशे में मुँह देखते हुए उसे अपने आप पर गर्व सा हो गया। ‘माँ तो पगली थी। सारा दिन मिट्टी के साथ मिट्टी हुई रहती थी। गोबर में हाथ गंदे करके रखती। न खुद कभी अच्छा कपड़ा पहना और न किसी को पहनने दिया। सारे गाँव का गोबर और कूड़ा-करकट सिर पर ढोने का जैसे उसने परमिट ले रखा हो।’ उसे माँ पर रह-रहकर गुस्सा आता।

‘‘हम गरीबों को अपनी सुंदरता छिपाकर रखनी चाहिए।’ माँ उसे चेतावनी देती रहती। माँ की मौत के बाद आज पहले दिन वह अकेली सरदारों का गोबर उठाने आई थी। गोबर में हाथ डालने से पहले वह अपनी इस सुंदरता की परख करना चाहती थी, जिसको माँ छिपा-छिपाकर रखती थी। बिंदिया, कोका, क्लिप और शीशे का टुकड़ा उसे सरदारों की हवेली में कबाड़ में मिल गए थे। पशुओंवाले छप्पर में ही शीशे के टुकड़े में अपना मुँह देखते हुए उसने गोबर की टोकरी भरी। गोबर की टोकरी भरकर उठाने ही वाली थी कि सरदारों का लड़का पशुओं की खुरली में हाथ फेरता हुआ अजीब सी हरकतें करता नजर आया। उसने दोनों हाथों से जोर से गोबर की टोकरी उठा तो ली, परंतु माँ के बिना धरती काँपने लगी। चक्कर-सा आ गया और वह गिरती-गिरती मुश्किल से सँभली थी।

खतरा


पास के शहर में सांप्रदायिक दंगे भड़क गए थे। इसलिए इस शहर का माहौल भी बिगड़ गया था। यहाँ पर भी दंगा भड़कने का खतरा था। कुछ शहरवासियों ने मौका सँभालते हुए नारे लगाने शुरू कर दिए—
‘‘हिंदू-सिख भाई-भाई।’
‘मजहब नहीं सिखाता आपस में वैर रखना।’
नारे सुनकर लोग घरों से बाहर निकलकर इकट्ठे होने लगे। धीरे-धीरे भीड़ बढ़ गई और जुलूस में बदल गई।
अब यह सद्भावना जुलूस शहर के मुख्य बाजारों से गुजरता हुआ गुरुद्वारे तथा मंदिर की तरफ जा रहा था। हिंदू-सिखों में कोई मतभेद नहीं था। सद्भावना संबंधी नारे माहौल को हलका कर रहे थे। अचानक मंदिर व गुरुद्वारे से लाउडस्पीकर के माध्यम से एक साथ आवाज आई—

‘धर्म खतरे में (विच) है।’ एक ही समय बोलने से दोनों पुजारियों की आवाज घुल-मुल गई थी।
‘धर्म खतरे में (विच) है।’ थोड़ी-थोड़ी देर बाद कभी मंदिर व कभी गुरुद्वारे से आवाज आजी, परंतु किसी ने ध्यान न दिया। सद्भावना जुलूस मंदिर व गुरुद्वारे की तरफ जा रहा था।
‘मंदिर में गऊ माता का मांस...गुरुद्वारे में बीड़ियों के बंडल...।’ थोड़ी देर बाद लाउडस्पीकर द्वारा दोनों पुजारियों ने फिर घोषणा की। दोनों की आवाज फिर घुल-मिल गई थी। उन्होंने अभी अपनी घोषणा पूरी नहीं की थी कि जुलूस में हलचल होने लगी। हिंदू मंदिर में इकट्ठे होने लगे और सिख गुरुद्वारे में। माहौल फिर बिगड़ गया। अब फिर दंगा भड़कने का खतरा था।

अमीरी


जिस कच्चे घर में वे रहते थे, उसके साथ ही पक्की कोठी बन गई थी—नई—नकोर और अति सुंदर।
‘‘क्यों न हम नई कोठी में चलें। वहाँ गेहूँ की बोरियाँ भरी होंगी। दोनों समय पेट भरकर खाएँगे। यहाँ पर तो चार-चार रोज भूखे रहना पड़ता है, तब कहीं जाकर एक समय का खाना नसीब होता है।’’
आपसी सलाह-मशविरा कर वे नई कोठी में चले गए। मगर वहाँ तो घर बनाने के लिए कहीं भी कच्ची जगह ही नहीं थी। अनाज को लोहे के ड्रमों में सँभालकर रखा हुआ था, जिन्हें वे दाँतों से काट नहीं सकते थे।
‘‘भगवान् ! यहाँ तो हम भूखे मर जाएँगे।’’ कहते हुए चूहे की आँखों में आँसू भर आए। और वे फिर अपने पहले वाले कच्चे मकान में ही आ गए।

आदमी


सड़क पर आदमी की लाश पड़ी है। आज तीसरा दिन है, परंतु पहचान नहीं हो सकी। लाश किसकी है और मृतक किस धर्म का है ? अंतिम क्रिया करने की समस्या है। इसको जलाया जाए या दफनाया जाए ? लंबी-लंबी दाढ़ी है, पर सिर से कोई पहचान नहीं।

‘‘गलत ढंग से अंतिम क्रिया करके हमें आदमी की तौहीन नहीं करनी चाहिए।’’ कमेटी का चौकीदार लाश ध्यान से देखता हुआ कहता और फिर टाँग पकड़कर जोहड़ की तरफ ले जाता है।
भीड़ में से ‘ठीक है, ठीक है’ की आवाजें उभरती हैं। धीरे-धीरे भीड़ बिखरने लगती है।


Source:
https://pustak.org/index.php/books/bookdetails/2587/Charchit%20Vyangya%20Laghukathayein