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गुरुवार, 18 अप्रैल 2019

वेबदुनिया पर डॉ. सतीश दुबे का साक्षात्कार



लघुकथा विराट प्रभाव की अभिव्यक्ति है।
साहित्यकार डॉ. सतीश दुबे से लघुकथा पर विशेष चर्चा

* सन् 1971 के बाद वे कौन सी समस्याएँ थीं जिन्हें लघुकथाओं ने छुआ?
राजनैतिक अस्थिरता, आम आदमी के प्रति प्रशासनिक जिम्मेदार व्यवहार, सामाजिक-आर्थिक विषमता, पारिवारिक ढाँचे में आए बदलाव के कारण रिश्तों के नए समीकरण।

* हमारे समाज में आज की लघुकथा कितनी गहरी जुड़ी हुई है? 
संक्षिप्त कथा-बोध समाज के आकर्षण का केंद्र नैतिक, दृष्टांत, धार्मिक या लोककथाओं के रूप में गहरे से जुड़ा हुआ है। कथा-विधा की संक्षिप्त अभिव्यक्ति के रूप में लघुकथाओं-लेखन के पश्चात साहित्य जगत में जहाँ लेखन-प्रकाशन का माहौल बना है, वहीं दूसरी ओर पठन-पाठन में इसके प्रति आकर्षण समाज के सूक्ष्म पथ की संक्षिप्त-प्रस्तुति कुछ कहने की मुद्रा में होने के कारण बढ़ा है।

* लघुकथाएँ खूब लिखी जा रही हैं? क्या ये किसी प्रकार की चेतना को जाग्रत करने का प्रयास कर रही हैं?
साहित्य का उद्‍देश्य ही चेतना जाग्रत करना है। लघुकथा लेखन भी इसी पृष्ठभूमि से जुड़ा है? पाठक वर्ग का यदि किसी विधा के प्रति मोह है तो जाहिर है वह उससे वह प्राप्त करना चाहता है जो अछूता है। चेतना एक छोटी सी चिंगारी का विचार बिंदु है यह पाठक पर निर्भर करता है कि वह उसमें निहित ऊर्जा को कितना और किस रूप में प्राप्त करता है।

* लघुकथा की परिभाषा व्यक्त करना चाहें तो किन शब्दों में करेंगे?
- लघुकथा क्षण-विशेष में उपजे भाव, घटना या विचार के कथ्‍य-बीज की संक्षिप्त फलक पर शब्दों की कूँची और शिल्प से तराशी गई प्रभावी अभिव्यक्ति है।'कथा विधा के अंतर्गत संपूर्ण जीवन की, कहानी जीवन के एक खंड की और लघुकथा खंड के किसी विशेष क्षण की तात्विक अभिव्यक्ति है।'

* हिन्दी की पहली लघुकथा किसे मानते हैं?
- इस प्रश्न पर लघुकथा-जगत की मजलिस में कहानी की तरह ही बहस जारी हैं।

* लघुकथा लिखने की आवश्यकता क्यों महसूस हुई?
-क्षण में छिपे जीवन के विराट प्रभाव की अभिव्यक्ति के लिए।

* लघुकथा के मूल तत्व कौन से हो सकते हैं?
- कथ्य, पात्र, चरित्र-चित्रण, संवाद, उद्देश्य।

* अभिव्यक्ति के मामले में लघुकथा कितनी सफल है?
- कथा-विधा में इसका ग्रॉफ सबसे ऊपर है।

* आज की साहित्यिक दौड़ में लघुकथा कहाँ ठहरती है?
- दौड़ के अंतिम निर्णायक छोर पर।

* अन्य विधाओं में लिखने वाले रचनाकारों में से कुछ रचनाकारों के लिए लघुकथा 'पार्ट ऑफ टाइम जॉब 'है? क्या उनकी यह नीति भविष्‍य के लिए नकारात्मक तो नहीं?
- 'जॉब' की बजाय समर्पण भाव से जो लघुकथाएँ लिखते हैं उनके लिए इस लेखन से सुकून और ऊर्जा मिलती है। 'लघुकथा लिखना मेरे लिए कठिन काम है' वक्तव्य देने वाले राजेंद्र यादव अनेक लघुकथाएँ लिखकर तकरीबन ऐसा ही महसूस करते रहे हैं।

* लघुकथा के तेवरों में कौन से तत्वों को रखा जा सकता है, व्यंग्य, संवेदना या कुछ और।
- यह रचनाकार के कथ्य की सम्प्रेष्य-सोच पर निर्भर है।

* सन् 1971 के पश्चात आपकी लघुकथाओं के प्रमुख विषय क्या थे? इस दौर में किन घटनाओं से वे प्रेरित रहीं?
- राजनैतिक, प्रशासनिक, सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक तथा धार्मिक व समसा‍मयिक समस्त घटनाचक्र जो कि एक संवेदनशील रचनाकार को लिखने के लिए उद्वेलित करता है।

* सन् 1971 के बाद लिखी गई आपकी लघुकथाओं का कोई संग्रह?
1. सिसकता उजास (1974)
2. भीड़ में खोया आदमी (1990)
3. राजा भी लाचार है (1994)
4. प्रेक्षागृह (1998)

प्रस्तुतकर्ता : जितेन्द्र 'जीतू'

Source:
https://hindi.webdunia.com/article/hindi-poet-interview/%E0%A4%B2%E0%A4%98%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A4%A5%E0%A4%BE-%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%9F-%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B5-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%85%E0%A4%AD%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF-%E0%A4%B9%E0%A5%88-109052800071_1.htm

शुक्रवार, 12 अप्रैल 2019

साक्षात्कार: सतीश राज पुष्करणा: लघुकथा के लब्धप्रतिष्ठित रचनाकार



स्वत्व समाचार डॉट कॉम के लिए अभिलाष दत्त जी द्वारा August 20, 2018 को लिया गया डॉ. सतीश राज पुष्करणा जी का महत्वपूर्ण साक्षात्कार


लाहौर से पटना आकर बसे सतीश राज पुष्करणा पिछले 45 साल से लघुकथा लिख रहे हैं। हिंदी साहित्य सम्मेलन की ओर से लघुकथा सम्मान से सम्मानित पुष्करणा लघुकथा विधा की पहली समीक्षात्मक किताब “लघुकथा: बहस के चौराहे पर” लिख चुके हैं। स्वत्व समाचार डॉट कॉम के लिए अभिलाष दत्त ने उनसे बातचीत की।




1. आपका जन्म लाहौर (पाकिस्तान) में हुआ, वर्तमान में आप पटना में रह रहे हैं। इस सफ़र के बारे में बताइए।

उत्तर:- मेरे दादा परदादा लाहौर में मॉडर्न टाउन में 51 नंबर की कोठी में रहते थे। मेरे दादा जमींदार थे। उस समय भारत पाकिस्तान एक ही था। पिताजी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में रेलवे इंजीनियर थे। उसके बाद सन 47 में देश आजाद होते ही देश का बंटवारा हो गया। हमारा पूरा परिवार बग्घी पर बैठ कर मामा के साथ अमृतसर चले आए। उसके बाद हम लोग पिताजी के पास सहारनपुर चले गए। वहीं से मैंने मैट्रिक किया। इलाहाबाद के के.पी.इंटर कॉलेज से इंटर पास किया। आगे बी.एस.सी के पढ़ाई के लिए देहरादून के डी.बी.एस कॉलेज में दाखिला लिया। 1964 के जनवरी मेंशादी हो गयी। उसी साल नवंबर में पिता बनने का सुख प्राप्त हुआ।

श्रीमती जी के कहने पर नौकरी की तलाश शुरू की। मामा ने कहा उनके बिज़नेस में हाथ बताऊं। मेरा मन रिश्तेदारी में काम करने का बिल्कुल भी नहीं था। नौकरी की तलाश में पटना चला आया। पटना में यूनाइटेड स्पोर्ट्स वर्क में काम मिला 125 रुपये वेतन पर। छः महीने के बाद वह काम छूट गया। उसके बाद मखनिया में पटना जूनियर स्कूल में गया काम मांगने के लिए , वहाँ से उन्होंने मुझे सेंट्रल इंग्लिश स्कूल भेज दिया। इस स्कूल में केवल महिला शिक्षक को ही नौकरी पर रखा जाता था। मेरी श्रीमती जी को वहाँ नौकरी मिल गयी। स्कूल के बच्चे हमारे यहाँ ट्यूशन पढ़ने आने लगे। मैं खुद गणित और अंग्रेजी पढ़ाया करता था। उसके बाद अपना स्कूल खोला विवेकानंद बाल बालिका विद्यालय। 76 में अपना खुद का प्रेस , ‘बिहार सेवक प्रेस’ शुरू किया। 2001 में आधुनिकरण के अभाव के कारण प्रेस बन्द हो गया। प्रेस बन्द होने के बाद भी काम चलता रहा।


2. हिंदी साहित्य में रुचि कैसे जगी?

उत्तर:- विज्ञान का विद्यार्थी था और भाषा मेरी पंजाबी थी। इलाहाबाद के एक मित्र थे राजेन्द्र मोहन त्रिवेदी बंधु। उन्होंने मुझे हिंदी भाषा का ज्ञान दिया। मेरा लगाव हिंदी के तरफ होने लगा। उसके बाद मैंने लिखना शुरू कर दिया। मेरी पहली कहानी कॉलेज की पत्रिका में छपी। उसके बाद आगरा से प्रकाशित होने वाली पत्रिका निहारिका में मेरी तीन कहानियों को लगतार प्रकाशित किया।
वर्तमान में हर पत्रिका में मेरी रचना छप चुकी है। दिल्ली से प्रकाशित होने वाली पत्रिका आज-कल में 1990 में सम्पादक भी बना।

3. हिंदी साहित्य के लघुकथा विधा में आपको भीष्म पितामह कहा जाता है। इस विधा में कैसे आना हुआ?

उत्तर:- सन 1977 में हरिमोहन झा (मैथिली साहित्यकार) मेरे अभिभावक के तौर पर मुझे हमेशा स्नेह किया करते थे। एक बार उन्होंने मुझसे पूछा , तुम हो क्या?

मैं उनकी बातों को समझ नहीं सका। उसके बाद उन्होंने कहा तुम्हारे काम से तुमको संतुष्टि मिल सकती है , लेकिन इससे साहित्य का भला नहीं हो सकता है। उन्होंने कहा अगर 100 कहानीकार का नाम लिखूं तो उसमें मेरा नाम नहीं आएगा।

उसके बाद वह चले गए। दूसरी बार आए तो उन्होंने दुबारा पूछा, कुछ सोचा? मैंने कोई जवाब नहीं दिया। उन्होंने सुझाव दिया कि छोटी छोटी कथा लघुकथा लिखा करो।

एक हफ़्ते के बाद मैंने पाँच लघुकथा उनको लिखा कर दिखाया। वह पांचों लघुकथा देख कर वह बहुत खुश हुए। बस लघुकथा लिखने का सिलसिला वहाँ से चल पड़ा।

4. हिंदी साहित्य में लघुकथा क्या है?

उत्तर:- आज के व्यस्त जीवन में लोग छोटी-छोटी कथाएं पढ़ना अधिक पसंद करते हैं। कम शब्दों में सारी बातें लघुकथा में कही जाती है। अधिक से अधिक दो पेज तक की लघुकथा होनी चाहिए।

आपातकाल के समय पेपर की भारी किल्लत हुई। साहित्य वाला पेज घट कर एक – दो कॉलम तक सीमित हो गयी। इस कमी के कारण कम शब्दों की कथा चाहिए थी। इसी कारण लघुकथा प्रसिद्ध हो गयी। आज के समय लघुकथा पर अनेक प्रकार के शोध हो रहे हैं। बिहार में पिछ्ले 29 सालों से लघुकथा सम्मेलन आयोजित हो रही है।

आजकल फेसबुक पर अनगिनत नए लेख़क सब लघुकथा लिख रहे हैं। लेकिन फेसबुक पर लिखी जा रही लघुकथा उच्चस्तरीय नहीं होती है। उसका मुख्य कारण होता है वहाँ कोई संपादक नहीं होता है।
प्रायः हर दशक में लघुकथा में बदलाव देखने को मिली है। सामाज का रूप प्रस्तुत करने के कारण इसमें बदलाव आते रहते हैं।

5. नए लेखकों को क्या संदेश देना चाहेंगे?

उत्तर:- आपकी रचनाओं में दम है तो लोग आपको एक दिन जरूर पहचानने लगेंगे। सवाल यह है आप कैसा लिख रहे हैं। पाठक जिसको अच्छा कहें वही अच्छा माना जाएगा। साहित्य के लिए लिखिए। आत्ममुग्धा से बचिए।
सूरज कभी किसी को नहीं कहने जाता है कि मुझे प्रणाम करो। हम सुबह उठते है और खुद ही उसे प्रणाम करते हैं।
यह बात हमेशा याद रखिए लेखक से बड़ा पाठक होता है।


Source:
https://swatvasamachar.com/sanskriti/satish-raj-pushkarna-laghukatha/