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सोमवार, 10 फ़रवरी 2020

लेख : हिंदी लघुकथा-समीक्षा : दशा और दिशा | डॉ. सत्यवीर मानव

समकालीन लघुकथा की शुरुआत १९७० के आसपास से मानी जाये, तब भी एक विधा के रूप में यह जीवन का अर्धशतक पूरा कर चुकी है। इस दौरान इसने अपने रूप सौन्दर्य में काफी परिवर्तन- परिमार्जन किया है। संवेदना और शिल्प के स्तर पर नये-नये प्रयोग किये गये हैं और किये जा रहे हैं। हजारों रचनाएँ लिखी गई हैं, सैकड़ों संग्रह और संकलन प्रकाशित हुये हैं, अनेक पत्र-पत्रिकाओं ने लघुकथा-विशेषांक निकाले हैं; तो लघुकथा गोष्ठियों, प्रदर्शनियों आदि के माध्यम से भी इस पर खूब चर्चा-परिचर्चाएं हुईं हैं। बावजूद इसके हिंदी के आलोचकों-समालोचकों ने गंभीरता से लघुकथा पर लिखना उचित नहीं समझा है। अब आप इसे उनकी उदासीनता कह सकते हैं अथवा उपेक्षा; परन्तु वजह यही है कि हिंदी लघुकथा की आलोचनात्मक पुस्तकों का अभाव बना हुआ है।
ऐसा नहीं है कि इस क्षेत्र में बिल्कुल ही काम नहीं हुआ हो। नामवर विद्वानों के उपेक्षापूर्ण रवैए को देखते हुए स्वयं लघुकथाकार इस कार्य के लिए आगे आए हैं। लेकिन जो भी कार्य हुआ है, वह मजबूरी का ज्यादा प्रतीत होता है, क्योंकि अधिकांश आलोचनात्मक आलेख/ लेख पत्र-पत्रिकाओं के विशेषांकों, सांझा संकलनों अथवा संग्रहों की भूमिका या समीक्षा के लिए लिखे/ लिखवाये गए हैं। आलोचना के लिए आलोचना के रूप में बहुत कम कार्य हुआ है। यही कारण है कि आज तक भी तीन दर्जन से ज्यादा पुस्तकें ऐसी नहीं हैं, जिन्हें आलोचना के लिए लिखा गया हो और इनमें से भी अधिकतर ऐसी हैं, जिनमें विभिन्न अवसरों पर लिखे या लिखवाये गए लेखों को संकलित कर प्रकाशित किया गया है।
लघुकथा समीक्षा की दशा और दिशा पर विचार करते हैं, तो सबसे पहले रामेश्वरनाथ तिवारी की लघुकथा पुस्तक 'रेल की पटरियां' (१९५४) की आचार्य जगदीश पांडेय द्वारा लिखी गई भूमिका 'लघुकथा: स्वरूप निर्माता' पर दृष्टि जाती है। आचार्य पांडेय ने पहली बार इन लघुआकारीय रचनाओं को 'लघुकथा' नाम देकर उसे परिभाषित किया है और उसके कला- रूपों की चर्चा की है; जो शुद्ध रूप से लघुकथा-समीक्षा की शास्त्रीय आधार-भूमि मानी जा सकता है।
इस आलेख में आचार्य जी ने लघुकथा के विचारणीय पक्षों को सात उपशीर्षकों में बांटकर लघुकथा विधा की शास्त्रीय समीक्षा प्रस्तुत की है-(१) शीर्षक (२) पात्र और विधान की प्राख्योन्मुखता (३) कथनोपकथन (४) ज्वार- प्रतिज्वार की त्वरा (५) स्थापत्य की गहराई (६) नियताप्ति और उपराम में व्यंग्य की स्थिति और (७) शैली।[1]
उसके बाद आठवें दशक के पूर्वार्द्ध तक समीक्षा के क्षेत्र में कोई उल्लेखनीय पहल नहीं हुई। आठवें दशक में डा० शंकर पुणतांबेकर, कृष्ण कमलेश, जगदीश कश्यप, डॉ० स्वर्ण किरण, डॉ० रामनिवास मानव आदि ने समीक्षात्मक लेख लिखे। १९७७ में प्रकाशित लघुकथा संकलन 'समांतर लघुकथाएं' में बलराम का आलेख 'हिंदी लघुकथा का विकास', १९७८ में प्रकाशित 'छोटी-बडी़ बातें' में महावीर प्रसाद जैन और जगदीश कश्यप के आलेख और १९७९ में आये 'नवतारा' के लघुकथा-विशेषांक में अनिल जनविजय, जगदीश कश्यप, बालेंदु शेखर तिवारी, भूपाल उपाध्याय, राधेलाल बिजघावने और रामनारायण बेचैन के आलेख विशेष उल्लेखनीय हैं।
नौवां दशक हिंदी लघुकथा के लिए सबसे महत्वपूर्ण रहा। इसकी शुरुआत में ही १९८१ में ‘नवतारा’ का प्रतिक्रिया अंक आया। उसमें प्रकाशित आलेखों में मोहन राजेश का ‘हवा में तने मुक्के’ विशेष महत्वपूर्ण है। १९८१ में ही कृष्ण कमलेश के संपादन में ‘लघुकथा : दशा और दिशा’ आया। १९८२ में डॉ रामनिवास मानव और दर्शन दीप का सांझा लघुकथा संग्रह ‘ताकि सनद रहे’ प्रकाशित हुआ। इसमें डॉ. मानव के छः आलेख भी संग्रहित हैं। इन आलेखों में डॉ मानव ने लघुकथा की ऐतिहासिक परंपरा, उसके स्वरूप, सीमाओं तथा विकास की संभावनाओं पर महत्वपूर्ण विचार व्यक्त किए हैं। १९८२ में ही 'लघुकथा : सृजना और मूल्यांकन' आया। इसमें विक्रम सोनी, डॉ चंद्रेश्वर कर्ण, डॉ जगदीश्वर प्रसाद और डॉ बृजकिशोर पाठक के महत्वपूर्ण आलेखों द्वारा लघुकथा के विभिन्न पक्षों पर प्रकाश डाला गया है। १९८३ में डॉ सतीशराज पुष्करणा के संपादन में 'लघुकथा : बहस के चौराहे पर' डॉ स्वर्ण किरण, सतीशराज पुष्करणा, महावीर प्रसाद जैन, भगीरथ और जगदीश कश्यप के समीक्षात्मक आलेखों को लेकर आया। १९८६ मेंं 'तत्पश्चात्' ( सतीशराज पुष्करणा) और 'दिशा-४' ( सं० पुष्करणा) में निशांतर के महत्वपूर्ण आलेख प्रकाशित हुए। १९८७ में मुकेश शर्मा ने 'लघुकथा समीक्षा' लघु पुस्तिका के माध्यम से लघुकथा-समीक्षा का प्रयास किया। १९८८ में 'कथा- निकष-१' पूर्ण रूप से लघुकथा-समीक्षा को समर्पित पत्रिका निकली। इसके प्रवेशांक में ही डा० शंकर पुणतांबेकर, डॉ स्वर्ण किरण, भगीरथ, सतीशराज पुष्करणा और जगदीश कश्यप के महत्वपूर्ण आलेख हैं, जो लघुकथा की सृजन-प्रक्रिया, शिल्प-शैली और संरचना एवं मूल्यांकन पर प्रकाश डालते हैं। १९८८ में अमरनाथ चौधरी अब्ज की लघु-पुस्तिका 'लघुकथा: चिंतन और प्रक्रिया' आई, जिसमें मात्र एक आलेख ही समीक्षात्मक है। १९९० में डॉ सतीशराज पुष्करणा के संपादन में 'कथादेश' और 'लघुकथा: सर्जना एवं समीक्षा' आयीं। 'लघुकथा: सर्जना और समीक्षा' में बारह आलेखों के माध्यम से लघुकथा की परंपरा, समीक्षा की समस्याओं, विधागत शास्त्रीयता, रचना प्रक्रिया, शिल्प और शैली, समीक्षा के मानक तत्व आदि पर विचार किया गया है। इसे लघुकथा समीक्षा का पहला गंभीर प्रयास कहा जा सकता है।
१९९१ में 'लघुकथा : संरचना और शिल्प' ( सं० सुरेशचंद्र गुप्त) और मुकेश शर्मा की 'लघुकथा : रचना और समीक्षा', दो महत्वपूर्ण पुस्तकें आईं अमरनाथ चौधरी अब्ज की ‘बूंद-बूंद' १९९३ में ‘चमत्कारवाद’ की घोषणा के साथ आई। लेकिन इसके आलेख 'चमत्कारवाद' के सैद्धांतिक पक्ष को स्पष्ट नहीं कर पाये हैं। परंतु अंत के कुछ आलेख महत्वपूर्ण बन पड़े हैं। १९९४ में कमलेश भट्ट कमल की 'साक्षात्' आई, जिसमें डॉ कमल किशोर गोयनका से लघुकथा पर बातचीत प्रकाशित की गई है। १९९७ में कृष्णानंद कृष्ण की 'हिंदी लघुकथा : स्वरुप और दिशा' प्रकाशित हुई। इसमें लघुकथा के क्रियात्मक पक्ष के साथ-साथ सैद्धांतिक पक्ष पर भी महत्वपूर्ण आलेख हैं। २००२ में प्रकाशित 'हिन्दी-लघुकथा: उलझते-सुलझते प्रश्र' में डॉ रूप देवगुण ने लघुकथा विषयक कुछ प्रश्नों को उठाने का सार्थक प्रयास किया है। डॉ सतीशराज पुष्करणा, कृष्णानंद कृष्ण, नरेंद्र प्रसाद नवीन और डॉ मिथिलेश कुमारी मिश्र के संयुक्त संपादन में एक बहुत ही महत्वपूर्ण पुस्तक ‘लघुकथा का सौंदर्यशास्त्र’ २००३ में आई। इसमें १० आलेखों के माध्यम से लघुकथा के विभिन्न पक्षों पर गंभीरता से विचार किया गया है। इसे हिंदी लघुकथा की दूसरी महत्वपूर्ण संकलित समीक्षा पुस्तक कहा जा सकता है। २००३ में ही डॉक्टर सी० रा० प्रसाद का शोधप्रबंध 'हिन्दी लघुकथाओं का शैक्षिक विश्लेषण' प्रकाशित हुआ है, "जो न मात्र उपयोगी है, अपितु शोधार्थियों, शिक्षकों, विद्यार्थियों और नई पीढ़ी के लघुकथा- लेखकों एवं आलोचकों हेतु यह दिशा निर्देश भी करता है।"[2]
पाँच वर्षों के अंतराल के बाद २००८ में बलराम अग्रवाल की 'समकालीन लघुकथा और प्रेमचंद' तथा डॉ शकुंतला किरण की 'हिंदी लघुकथा' पुस्तकें आईं। 'हिंदी लघुकथा' किसी एक लेखक का पहला ऐसा शोधग्रंथ है, जो ‘लघुकथा के सही स्वरूप को जानने-समझने की जिज्ञासा रखने वालों को को संतुष्ट करने की विश्वस्नीय क्षमता रखता है।’[3] ‘यह कृति लघुकथा की विधागत अंतरकथाओं एवं आलोचना-दृष्टि के संदर्भ में रामायण- महाभारत के प्रसंगों की तरह कालातीत साबित होगी।’[4]
डॉ रामकुमार घोटड़ की दो महत्वपूर्ण पुस्तकें, २००८ में 'लघुकथा विमर्श' और २०१२ में 'भारत का लघुकथा-संसार' आईं। इनमें डॉ घोटड़ ने लघुकथा विषयक अनेक बिंदुओं को स्पष्ट करने और अनेक महत्वपूर्ण जानकारियां उपलब्ध कराने का सफल प्रयास किया है। २०१२ में ही डा० शकुंतला किरण की 'हिंदी लघुकथा' के बाद दूसरा महत्वपूर्ण शोधप्रबंध डॉ सत्यवीर मानव का 'हिंदी लघुकथा: संवेदना और शिल्प' आया है। इसमें डॉ मानव ने हिंदी लघुकथा की परिभाषा, स्वरूप, उद्भव और विकास, हिंदी लघुकथा में संवेदना, हिंदी लघुकथा के शिल्प आदि का विस्तार से विष्लेषण करने के साथ-साथ २२ मानक और विशिष्ट लघुकथाकारों के लेखन के विशेष संदर्भ में हिंदी लघुकथा में संवेदना और उसके शिल्प पर भी विचार किया है। २०१४ में अशोक भाटिया की 'समकालीन हिंदी लघुकथा' और २०१५ में मुकेश शर्मा की 'लघुकथा के आयाम', दो उल्लेखनीय पुस्तकें आईं हैं। २०१५ में ही डा० पुष्पा जमुआर का 'हिंदी लघुकथा: समीक्षात्मक अध्ययन' लघुकथा विषयक समीक्षात्मक लेखों का संग्रह आया है। २००२ में डॉ कमल किशोर गोयनका की पुस्तक 'लघुकथा का व्याकरण' आई थी,इसे २०१६ में पुनः 'लघुकथा का समय' के टाइटल से प्रकाशित किया गया है। इसमें डॉ गोयनका ने लघुकथा की प्रासंगिकता, आंदोलन, सृजन-प्रक्रिया आदि पर अपने लगभग तीन दशकों के विचारों को संकलित किया है। २०१७ में दो महत्वपूर्ण उपलब्धियां—डॉ बलराम अग्रवाल की 'हिंदी लघुकथा का मनोविज्ञान' और डॉ रूप देवगुण की 'आधुनिक हिंदी लघुकथा : आधार और विष्लेषण' का प्रकाशन रहीं। 'हिंदी लघुकथा का मनोविज्ञान'समकालीन हिंदी लघुकथा के विकास को रेखांकित करने, उसका मनोवैज्ञानिक एवं मनोविश्लेषणात्मक विवेचन प्रस्तुत करने की दृष्टि से निश्चित रूप से बहुत ही महत्वपूर्ण कृति है; तो 'आधुनिक हिंदी लघुकथा: आधार और विष्लेषण' में ६१ लघुकथाकारों के पत्र-साक्षात्कारों के आधार पर लघुकथा के परिदृश्य का विष्लेषण किया गया है। २०१८ में डॉ अशोक भाटिया की 'परिंदे पूछते हैं (लघुकथा विमर्श)' और भगीरथ परिहार की 'हिंदी लघुकथा के सिद्धांत' पुस्तकें आईं हैं। 'परिंदे पूछते हैं' में डॉ भाटिया ने लघुकथा विषयक करीब अस्सी ज़रूरी सवालों के जवाब विस्तारपूर्वक सहज- सरल भाषा में दिये हैं। लघुकथा की सैद्धांतिक और व्यावहारिक पक्ष को समझने के इसी क्रम में बलराम अग्रवाल की ‘परिंदों के दरमियां’ महत्वपूर्ण है तो 'हिंदी लघुकथा के सिद्धांत' में भगीरथ परिहार ने लघुकथा विधा के समक्ष समय-समय पर आई चुनौतियों को लक्ष्य कर पिछले चालीस वर्षों में लिखे गए उनके लेखों को संकलित किया है। २०१८ में ही एक और श्रेष्ठ कृति डॉ जितेन्द्र जीतू की ‘समकालीन लघुकथा का सौंदर्यशास्त्र और समाजशास्त्रीय सौंदर्यबोध’ प्रकाशित हुई है।
२०१९ लघुकथा-समीक्षा की दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण वर्ष रहा। इस वर्ष योगराज प्रभाकर द्वारा संपादित ‘लघुकथा : रचना-प्रक्रिया’ पुस्तक आई, जो लघुकथा की सृजन-प्रक्रिया से जुड़े योगराज प्रभाकर के विभिन्न प्रश्नों के लघुकथाकारों द्वारा दिये गये जवाबों का पुस्तक रूप है। अशोक भाटिया की ‘लघुकथा : आकार और प्रकार’, बलराम अग्रवाल की ‘लघुकथा का प्रबल-पक्ष’ एवं डॉ सत्यवीर मानव की ‘हिंदी लघुकथा : संवेदना और शिल्प’ का द्वितीय संस्करण भी आया है। रामेश्वर कांबोज हिमांशु की ‘लघुकथा का वर्तमान परिदृश्य’ तथा सुकेश साहनी की ‘लघुकथा : सृजन और रचना-कौशल’ लघुकथा के विविध पक्षों का विशिष्ट विवेचन प्रस्तुत करने का प्रयास करती हैं। इसी वर्ष लघुकथा केन्द्रित साक्षात्कारों की दो महत्वपूर्ण पुस्तकें भी आईं। इनमें एक है—कल्पना भट्ट द्वारा संपादित ‘लघुकथा संवाद’ तथा दूसरी है—डॉ॰ लता अग्रवाल द्वारा संपादित ‘अनुगूँज’। ये सभी पुस्तकें लघुकथा विधा को सांगोपांग समझने का सुअवसर प्रदान करती है ‌।
२०२० की शुरुआत भी अच्छी रही है। डॉ बलराम अग्रवाल की 'लघुकथा : चिंतन-अनुचिंतन' और डॉ सतीशराज पुस्करणा की ‘हिन्दी लघुकथा की प्रविधि’ प्रकाशित हो चुकी हैं।
उपर्युक्त पुस्तकों के अतिरिक्त ‘बीसवीं सदी की लघुकथाएँ’ ( सं० बलराम) और मधुदीप द्वारा प्रस्तुत 'पड़ाव और पड़ताल' जैसी पुस्तक-श्रृंखलाओं में भी महत्वपूर्ण समीक्षात्मक आलेख उपलब्ध हैं। डॉ रामनिवास मानव, डॉ सतीशराज पुष्करणा, डॉ रामकुमार घोटड़, सुकेश साहनी आदि के लघुकथा-साहित्य पर स्वतंत्र रूप से भी समीक्षात्मक पुस्तकें आ चुकी हैं। परंतु लघुकथा के विशाल साहित्य-भंडार को देखते हुए अभी बहुत अधिक कार्य किया जाना शेष है।

-  डॉ. सत्यवीर मानव
   मोबाइल : 9416238131

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१- हिंदी लघुकथा: स्वरूप और दिशा, कृष्णानंद कृष्ण, पृष्ठ-१२४
२- डॉ. सतीशराज पुष्करणा, हिंदी लघुकथाओं का शैक्षिक विश्लेषण के फ्लेप पर टिप्पणी.
३- डॉ. बलराम अग्रवाल, 'हिंदी लघुकथा' का अग्रलेख, पृष्ठ-२.
४- डॉ. सतीश दूबे, 'हिंदी लघुकथा' की भूमिका, पृष्ठ-२

मंगलवार, 21 जनवरी 2020

लेख: लघुकथा लेखन के लिए – माइक्रोस्कोपिक दृष्टि की आवश्यकता | योगराज प्रभाकर


लघुकथा शब्द का निर्माण लघु और कथा से मिलकर हुआ है। अर्थात लघुकथा गद्य की एक ऐसी विधा है जो आकार में लघु है और उसमे कथा तत्व विद्यमान है। अर्थात लघुता ही इसकी मुख्य पहचान है। जिस प्रकार उपन्यास खुली आंखों से देखी गयी घटनाओं का, परिस्थितियों का संग्रह होता है, उसी प्रकार कहानी दूरबीनी दृष्टि से देखी गयी किसी घटना या कई घटनाओं का वर्णन होती है।

इसके विपरीत लघुकथा के लिए माइक्रोस्कोपिक दृष्टि की आवश्यकता पड़ती है। इस क्रम में किसी घटना या किसी परिस्थिति के एक विशेष और महीन से विलक्षण पल को शिल्प तथा कथ्य के लेंसों से कई गुना बड़ा कर एक उभार दिया जाता है। किसी बहुत बड़े घटनाक्रम में से किसी विशेष क्षण को चुनकर उसे हाइलाइट करने का नाम ही लघुकथा है। इसे और आसानी से समझने के लिए शादी के एल्बम का उदाहरण लेना समीचीन होगा।

शादी के एल्बम में उपन्यास की तरह ही कई अध्याय होते है, तिलक का, मेहंदी का, हल्दी का, शगुन, बरात का, फेरे-विदाई एवं रिसेप्शन आदि का। ये सभी अध्याय स्वयं में अलग-अलग कहानियों की तरह स्वतंत्र इकाइयां होते हैं। लेकिन इसी एल्बम के किसी अध्याय में कई लघुकथाएं विद्यमान हो सकती हैं। कई क्षण ऐसे हो सकते हैं जो लघुकथा की मूल भावना के अनुसार होते हैं।

उदहारण के तौर पर खाना खाते हुए किसी व्यक्ति का हास्यास्पद चेहरा, किसी धीर-गंभीर समझे जाने वाले व्यक्ति के ठुमके, किसी नन्हें बच्चे की सुन्दर पोशाक, किसी की निश्छल हंसी, शराब के नशे से मस्त किसी का चेहरा, किसी की उदास भाव-भंगिमा या विदाई के समय दूल्हा पक्ष के किसी व्यक्ति के आंसू। यही वे क्षण हैं जो लघुकथा हैं। लघुकथा उड़ती हुई तितली के परों के रंग देख-गिन लेने की कला का नाम है। स्थूल में सूक्ष्म ढूंढ लेने की कला ही लघुकथा है। भीड़ के शोर-शराबे में भी किसी नन्हें बच्चे की खनखनाती हुई हंसी को साफ साफ सुन लेना लघुकथा है। भूसे के ढेर में से सुई ढूंढ लेने की कला का नाम लघुकथा है।

लघुकथा विसंगतियों की कोख से उत्पन्न होती है। हर घटना या हर समाचार लघुकथा का रूप धारण नहीं कर सकता। किसी विशेष परिस्थिति या घटना को जब लेखक अपनी रचनाशीलता और कल्पना का पुट देकर कलमबंद करता है तब एक लघुकथा का खाका तैयार होता है। लघुकथा एक बेहद नाजुक सी विधा है। एक भी अतिरिक्त वाक्य या शब्द इसकी सुंदरता पर कुठाराघात कर सकता है। उसी तरह ही किसी एक किन्तु अत्यंत महत्वपूर्ण शब्द की कमी इसे विकलांग भी बना सकती है। अत: लघुकथा में केवल वही कहा जाता है, जितने की आवश्यक होती है।

दरअसल लघुकथा किसी बहुत बड़े परिदृश्य में से एक विशेष क्षण को चुरा लेने का नाम है। लघुकथा को अक्सर एक आसान विधा मान लेने की गलती कर ली जाती है, जबकि वास्तविकता बिलकुल इसके विपरीत है। लघुकथा लिखना गद्य साहित्य की किसी भी विधा में लिखने से थोड़ा मुश्किल ही होता है, क्योंकि रचनाकार के पास बहुत ज्यादा शब्द खर्च करने की स्वतंत्रता बिलकुल नहीं होती। शब्द कम होते हैं, लेकिन बात भी पूरी कहनी होती है। और सन्देश भी शीशे की तरह साफ देना होता है। इसलिए एक लघुकथाकार को बेहद सावधान और सजग रहना पड़ता है।

लघुकथाकार अपने आस-पास घटित चीजों को एक माइक्रोस्कोपिक दृष्टि से देखता है और ऐसी चीज उभार कर सामने ले आता है जिसे नंगी आंखों से देखना असंभव होता है। दुर्भाग्य से आजकल लघुकथा के नाम पर समाचार, बतकही, किस्सागोई यहां तक कि चुटकुले भी परोसे जा रहे हैं।


Source:

लघुकथा लेखन के लिए – माइक्रोस्कोपिक दृष्टि की आवश्यकता

रविवार, 19 जनवरी 2020

लेख | लघुकथा : रचना और शिल्प | मधुदीप



लघुकथा कथा परिवार का ही महत्वपूर्ण हिस्सा है जैसे कि उपन्यास, कहानी या नाटक । परिवार में जिस तरह हर व्यक्ति के गुण धर्म अलग-अलग होते हैं उसी तरह लघुकथा के भी गुण धर्म अन्य विधाओं से अलग हैं । लघु में विराट को प्रस्तुत करना ही लघुकथाकार का कौशल है । हमारे समक्ष पूरी सृष्टि है, इस सृष्टि में पृथ्वी है, पृथ्वी पर मनुष्य, मनुष्य का पूरा जीवन और उस जीवन का एक पल । यह विस्तृत से अणु की ओर यात्रा है और उस अणु का सही, सटीक वर्णण करना ही लघुकथा का अभीष्ट है । वही लघुकथाकार सफल माना जाता है जो उस पल को सही तरीके से पकड़कर उसकी पूरी संवेदना के साथ उसे पाठक तक प्रेषित कर सके । सृष्टि का अपना विशद महत्त्व है लेकिन हम अणु के महत्त्व को भी कम करके नहीं आँक सकते । मानव के पूरे जीवन में कितने ही महत्वपूर्ण पल होते हैं जो कि उपन्यास या कहानी लिखते समय लेखक की दृष्टि से ओझल रह जाते हैं क्योंकि उस समय लेखक की दृष्टि समग्र जीवन पर होती है मगर एक लघुकथाकार की दृष्टि में वे ही पल महत्वपूर्ण होते हैं जो एक कहानीकार या उपन्यासकार से उपेक्षित रह जाते हैं । उन पलों की कथा ही लघुकथा होती है और यही गुण-धर्म इस विधा को विशिष्ट भी बनाता है और अन्य विधाओं से अलग भी करता है । 
मैं आपके सामने एक बहुत पुरानी बात दोहरा रहा हूँ । लघुकथा एक शब्द है, इसे एकसाथ लिखना ही चाहिए मगर इसके दो भाग हैं, लघु तथा कथा और लघुकथा लिखते समय हमें इन दोनों बातों को ध्यान में रखना चाहिए । शुरू में तथा कुछ आग्रही अभी भी इसके पहले भाग लघु को लेकर बहुत आग्रही हैं । वे भूल जाते हैं कि इसमें कथा भी जुड़ा हुआ है और यदि लघुकथा में कथा नहीं होगी तो इसके लघु का क्या अर्थ रह जाएगा ! साहित्य में कथारस की अनिवार्यता से हम कतई इनकार नहीं कर सकते । इसलिए मेरा अनुरोध है कि आप विधा को बहुत अधिक लघु की सीमा में न बाँधें । उसे कथ्य की अनिवार्यता के अनुसार थोडा फैलाव लेने की आजादी अवश्य दें । कुछ आग्रही 250 शब्दों की सीमा पार करते ही उसे लघुकथा से बाहर कर देते हैं लेकिन मेरा मानना है कि यदि विषय और कथ्य की मांग है तो शब्द सीमा को 500-600 शब्दों तक यानी डेढ़-पौने दो पृष्ठ तक जाने दें लेकिन साथ ही मेरा कहना है कि लघुकथाकार अतिरिक्त विस्तार के मोह से बचें । भाई सतीशराज पुष्करणा और अन्य वरिष्ठों की बहुत-सी ऐसी श्रेष्ठ लघुकथाएँ हैं जो मेरी इस शब्द सीमा को छूती हैं । हाँ, कहानी के सार-संक्षेप को लघुकथा कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता ।
लघुकथा का मूल स्वर---- अब मैं आपके समक्ष इस विषय में अपने विचार रखना चाहता हूँ । मेरे विचार से पूरा साहित्य तीन बिन्दुओं पर टिका हुआ है । यथार्थ, संवेदना और विडम्बना यानी विसंगति । जीवन के यथार्थ का कलात्मक चित्रण ही साहित्य है । यथार्थ के कलात्मक चित्रण का मूल आधार है संवेदना और विडम्बना । संवेदना लघुकथा के साथ ही पूरे साहित्य का मूल आधार है लेकिन विडम्बना लघुकथा का मूल स्वर है । हालाँकि व्यंग्य पर भी विडम्बना या विसंगति का प्रभाव देखने को मिलता है लेकिन उसमें अतिश्योक्ति का भी प्रभाव होता है जिससे कि लघुकथा में बचना होता है । विडम्बना लघुकथा की तीव्रता को बहुत तीखा बना देती है । कहानी या उपन्यास में विडम्बना उतनी तीव्रता या तीखेपन से नहीं आ पाती क्योंकि उनके विवरण उसमें बाधक बन जाते हैं और विडम्बना का तीखापन खो जाता है । लघुकथा का फोर्मेट यानी आकार लघु होता है इसलिए इसमें जीवन की किसी भी विडम्बना को पूरी शिद्दत और तीखेपन के साथ प्रस्तुत किया जा सकता है । इसलिए यह लघुकथा की मूल प्रवृत्ति के के रूप में सामने आता है । इसका यह अर्थ कदापि न लगाया जाए कि संवेदना का लघुकथा में महत्वपूर्ण स्थान नहीं है । मैं पहले ही साफ़ कर चुका हूँ कि संवेदना पूर्ण साहित्य का मूल आधार है । हाँ, जीवन के यथार्थ पलों का विडम्बनात्मक चित्रण प्रस्तुत करके मानव सम्वेदना को अधिक गहराई से प्रस्तुत किया जा सकता है । यही साहित्य का प्राप्य है और लघुकथा का मूल स्वर भी ।
मेरे कुछ लघुकथाकार साथी लघुकथा में कालदोष को लेकर बहुत चिन्तित रहते हैं । ऊपर मैंने भी कहा है कि लघुकथा पल का कलात्मक चित्रण होती है मगर वह पल कितना बड़ा हो सकता है इसमें आकर हम उलझ जाते हैं । बात कुछ पलों, घंटों की ही होती है मगर उसे सही तरीके से प्रस्तुत करने के लिए हमें कई बार फ्लैश बेक में उस घटना को भी प्रस्तुत करना होता है जिससे ये पल सम्बन्धित होते हैं । कई बार कोई बड़ी बात कहने के लिए हमें घटना का फलक कुछ बड़ा लेना होता है और उसे देखकर हम भ्रमित हो जाते हैं कि यह लघुकथा कालदोष का शिकार हो गई । मेरी अपनी एक लघुकथा ‘समय का पहिया घूम रहा है’, अशोक भाटिया की लघुकथा ‘नमस्ते की वापिसी’ तथा भाई श्याम सुन्दर अग्रवाल की लघुकथा ‘सन्तू’ को लेकर काफी पाठक और नवोदित लघुकथाकार भ्रमित हो चुके हैं लेकिन ये सभी बेहतरीन लघुकथाएँ हैं, सब इस बात को स्वीकार करते हैं । यदि हमें लघुकथा के माध्यम से किसी बड़े फलक की कोई महत्वपूर्ण बात कहनी है तो हमें इस विषय में थोडा लचीला रुख अपनाना होगा । फ्लैश बेक या अन्य तरीकों से और लघुकथाकार अपने कौशल से इसे बाखूबी साध सकता है । इसके कुछ उदाहरण हमें वरिष्ठों की बहुत-सी श्रेष्ठ लघुकथाओं में देखने को मिल सकता है । इस विषय में जितनी शंकाएँ हैं, उन्हें कुछ समय के लिए अलग रखकर हम लघुकथा में कुछ बड़ी बात कहें और अपने कौशल से उस रचना में कालदोष का निवारण करें । कहीं हमारी लघुकथा घर-परिवार के विषयों में ही उलझकर या सिमटकर न रह जाए । हमें आज के समय को पकड़ना है, आज की बड़ी-बड़ी समस्याओं को पूरी शिद्दत से लघुकथा में प्रस्तुत करना है तभी लघुकथा इस सदी की विधा बन सकेगी । कोई भी विधा तभी जीवित रहती है जब वह अतीत को याद करते हुए आज की मूलभूत समस्याओं से जुड़े । सिर्फ घर-परिवार, सास-बहु, बाप-बेटे के अच्छे-बुरे व्यवहार या दो विपरीत पक्षों का चित्रण करके लघुकथा बहुत आगे तक नहीं जा सकेगी । आज जीवन में बहुत तरह के उलझाव हैं और लघुकथा को उन्हें स्वर देना है ताकि वह आमजन के दिल में प्रवेश कर सके । हमें विधा को विस्तार देने के लिए आज के समय को अपनी लघुकथाओं का विषय बनाना ही होगा । कहानी यदि साहित्य की मूल धारा में रही है तो उसका यही कारण है कि उसने अपने समय की बहुत बारीकी से पहचान की है और उसे व्यक्त किया है । इस सदी की मूल विधा बनने के लिए लघुकथा को भी यही करना होगा ।
मेरी बात कुछ अधिक लम्बी होती जा रही है, इसलिए कुछ मुद्दों को मैं बहुत संक्षेप में आपके सामने रखूँगा । लघुकथा की भाषा जनभाषा के नजदीक होनी चाहिए अर्थात लघुकथा में जयशंकर प्रसाद की बजाय मुंशी प्रेमचन्द की भाषा अधिक स्वीकार्य होगी क्योंकि उसे हमारा आज का पाठक बेहतर तरीके से समझ सकता है । यह तो सर्वमान्य है कि हम जिसके लिए लिख रहे हैं उसे वह समझ तो आनी ही चाहिए । आज का समय विश्वविद्यालयों के शोध छात्रों या प्रोफेसरों के लिए लिखने का नहीं है ।
घटना और रचना के अन्तर को आप सब समझते हैं । मुझे यह कहने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए कि घटना रचना नहीं होती । घटना का विवरण प्रस्तुत करना पत्रकारिता होती है, साहित्य लेखन नहीं होता । इस बारे में कहने को बहुत समय चाहिए, इसलिए संकेत को समझें और नवोदित लघुकथाकार इस पर विशेष ध्यान दें ।
लघुकथा में पंच लाइन के बारे में बहुत संक्षेप में । सिर्फ पंच लाइन को ही लघुकथा का मूल समझने के भ्रम में न उलझें और न ही उसे समीक्षा का मूल आधार बनाएँ । लघुकथा को उसकी सम्पूर्णता में देखें, उसके लेखन में क्रमिक विकास का ध्यान रखें और कभी एक झटके से लघुकथा का अन्त न करें । यदि स्वाभाविक रूप से लघुकथा के अन्त में किसी विडम्बना के कारण कोई पंच आता है तो ही ठीक होगा अन्यथा वह लघुकथा में थोपा हुआ लगेगा । यह बात मैं जोर देकर इसलिए कह रहा हूँ कि मेरे बहुत से नवोदित साथी इस पंच लाइन शब्द की अवधारणा से भ्रमित हो रहे है जबकि 2012 से पहले ऐसा बिलकुल नहीं था ।
एक बात और, आजकल फेस बुक पर जो लघुकथाएँ आ रही हैं उनमें कथ्य तो पुराने हैं ही, उनके प्रस्तुतिकरण में भी कोई नवीनता नहीं है । हमें नए विषय तो तलाशने ही होंगे, साथ ही लघुकथा लिखते समय शिल्प, शैली और भाषा की तरफ भी धयान देना होगा । लघुकथा के शिल्प और शैली में नए प्रयोग विधा को आगे ले जाने में सहायक होंगे । हमारे वरिष्ठ साथियों को तो लघुकथा में बेहिचक कुछ नए प्रयोग करने ही चाहियें ताकि विधा में ठहराव के खतरे से बचा जा सके । नए लेखकों में भी नई ऊर्जा है, वे भी मेरी इस बात पर गौर करें । लघुकथा में बिम्बों का बहुत महत्वपूर्ण स्थान होता है, इसकी तरफ विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए ।
अन्त में एक आग्रह, लघुकथा को बहुत अधिक बन्धनों में न जकड़ें और कुछ समय तक इसका स्वाभाविक विकास होने दें । समय और स्वतन्त्र समीक्षक ही इसके सही स्वरूप की पहचान पहचान निर्धारित करेंगे ।
मेरा लघुकथाकारों से इतना ही आग्रह है --- लघुकथा में पल विशेष को मजबूती से पकड़िये, उसे आज से जोड़कर रखिये । लघुकथा साहित्य की मुख्य विधा के रूप में पाठक के सामने आ रही है, इसमें कतई कोई सन्देह नहीं होना चाहिए ।**

सम्पर्क : 138/16 त्रिनगर, दिल्ली-110 035 
मोबाइल : 93124 00709

सोमवार, 6 जनवरी 2020

एक व्यक्ति एक उक्ति | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


लघुकथा कलश जुलाई-दिसम्बर 2019 ‘रचना प्रक्रिया महाविशेषांक’ पर मेरी प्रतिक्रिया


लघुकथा कलश रचना प्रक्रिया महाविशेषांक’ जुलाई-दिसम्बर 2019 में सम्पादकीय से लेकर सभी रचना प्रक्रियाओं में लघुकथाकारों के लिए बहुत कुछ गुनने योग्य है। इस अंक के प्रत्येक रचनाकार की एकाधिक रचनाओं की रचना प्रक्रियाएं  इसमें मौजूद हैं। हर एक रचनाकार की जितनी भी रचनाओं की रचना प्रक्रिया लिखी गई हैं उन सभी में से मेरे अनुसार किसी एक विशेष बात को चुन कर प्रस्तुत लेख में देने का प्रयास किया है। हालांकि प्रत्येक की रचना प्रक्रियाओं में से एक-दो पंक्तियों को चुनना कु्छ इसी प्रकार है जैसे श्रीजी भगवान को 56 भोग लगे हों और उनमें से किसी एक व्यंजन को चुन कर निकालना हो। वैसे, केवल यही सत्य नहींएक सत्य यह भी है कि कुछ (जिनकी संख्या बहुत कम है) रचना प्रक्रियाओं में से एक अच्छी पंक्ति खोजना कुछ मुश्किल था, लेकिन अधिकतर रचना प्रक्रियाएं न केवल रोचक वरन अन्य कई गुणों से ओतप्रोत हैं। इस लेख के शीर्षक के अनुसार, एक उक्ति का अर्थ कोई एक विशेष बात हैजो कुछ स्थानों पर एक या अधिक पंक्तियों में कही गई है। कु्छ सुधिजनों ने अपनी बात इतनी ठोस कही है कि उन्हें एक वाक्य में बता पाना मेरे लिए संभव नहीं था। प्रवाह बनाने हेतु मैंने मेरे अनुसार कुछ वाक्यों को मिलाया भी है तो कुछ को बीच में से हटाया भी हैकुछ शब्दों को बदला भी है। एक व्यक्ति एक उक्ति निम्नानुसार हैं:

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संपादकीयः दिल दिआँ गल्लाँ / योगराज प्रभाकर
वस्तुतः रचना प्रक्रिया अभिव्यंजना से अभिव्यक्ति तक का एक लम्बा सफर है।

जसबीर चावला
बस में होंट्रेन में होंएक-न-एक किताब ज़रूर साथ रहती। लघुकथा और कवि्ता भी  दोनों साथ ही रहती हैं। रचना प्रक्रिया में दोनों जुड़वा हैं।

प्रताप सिंह सोढी
कई दिनों तक स्थितियों को सिलसिलेवार जोड़ कर चिन्तन-मनन करता रहा।

रूप देवगुण
लघुकथा में एक ही घटना होनी चहिये। इसमें विचारों के मंथन पर मैंने जोर दिया।

हरभजन खेमकरणी
रचना का कोई न कोई उद्देश्य एवं महत्व अवश्य ही होना चहिये। लेखक को रचनाकर्म हेतु कच्चा माल समाज से ही प्राप्त होता है।

अंजलि गुप्ता 'सिफ़र'
लघुकथा अपने विषय की कुछ ठोस जानकारियाँ माँगती थी। एक सहकर्मी से कुछ प्रश्न पूछे और कुछ गूगल बाबा की मदद ली।

अंजू निगम
लघुकथा में थोडे में बहुत कुछ कह देने की बाध्यता होती है और अन्तिम पंक्ति पर इसका दारोमदार टिका होता है।

अनघा जोगलेकर
लघुकथा छ्ठे ड्राफ्ट के बाद उत्तम लगी।

अनिता रश्मि
चार मुख्य मील के पत्थर - 1. कथानक चयन, 2. प्रथम रूपरेखा, 3. परिवर्तन, 4. शीर्षक।

अनूपा हरबोला
संस्मरण को कथा रूप दिया।

अन्नपूर्णा बाजपेई
एक कुरीति के मुद्दे को उठायाजो कुरीति आम बात थी।

अमरेन्द्र सुमन
नक्सली गतिविधियां पूरे भारतवर्ष के लिये बहुत बड़ी समस्या बन चुकी है और गहरे पैठ भी कर रही हैं। लघुकथा लिखने के क्रम में घटना का जिक्रपात्रों का चुनावघटनास्थलआम आदमी में भय के विरुद्ध प्रतिकार का साहससमानांतर सरकार चलाने वालों की निजी ज़िन्दगी और अन्तिम हश्र दिखलाना बहुत कठिन कार्य था।

अरुण धर्मावत
प्रथम ड्राफ्ट से ऐसा प्रतीत हुआ कि लघुकथा की बजाय कहानी बन गई हैउपदेशात्मक भी प्रतीत हुई। इस रचना को लघुकथा में ढालने के लिये श्रम किया।

अशोक भाटिया
द्वंद से गुजर कर ही कोई रचना सूत्र हाथ लगता हैजो कभी गुनने-बुनने की प्रक्रिया में ही ढलने लगता है तो कभी बीज रूप में ही महीनों दबा रहता है। क्रियाओं को पहले मन में फिर कागज़ पर एक क्रम दिया। रचना के मन में बनने की प्रक्रिया से लेकर उसे कागज़ तक उतारने का संघर्ष बड़ा रोचक होता है। जैसी रचना मन में होती हैवैसी बाह्य रूप में नहीं हो सकती। इस प्रक्रिया के दौरान बड़ी सजगता से रचना के उत्स के पी्छे की उर्जस्विता को बचाये रखना होता है।

अशोक वर्मा
अपनी लघुकथा में तीस वर्षों का कालख़ण्ड एक साथ कहने का प्रयास किया है। (इस लघुकथा का शिल्प पढ़ने और गुनने योग्य है।)

आभा खरे
पुराने विषय को नए रूप में शब्दबद्ध करने का प्रयास किया है। इस हेतु पात्र गढ़नेउनके नामकरण और कथानक पर कार्य किया।

आभा सिंह
मन की अबूझ गहराईयों को ध्यान में रखते हुए इस रचना का शीर्षक तय किया।

आर.बी.भंड़ारकर
छोटे-छोटे अनुभवस्मृतियांभावविचारसोचदृष्टिकोणलेखन के आधार बनते हैं।

आशा शर्मा
मुझे अपनी भावनाओं के ज्वार से बाहर निकलने का एकमात्र यही तरीका आता है - लेखन। मैं विज्ञान की छात्रा भी रही हूँतो जहां आवश्यक तथा उक्तिसंगत होसूर्य-पृथ्वी आदि की उपमाएं देती हूँ।

आशीष दलाल
बार-बार पढ़ने पर भी रचना उपदेशात्मक सी लग रही थीदिन भर मन और दिमाग में द्वंद चलता रहा और रात में इन्हीं विचारों के साथ नींद आ गई। सवेरे जब आँख खुली तो एक नए विचार के साथ दिमाग तैयार था और मन भी उसके साथ ही था।

ऊषा भदौरिया
तीन-चार दिनों बाद रचना को दोबारा पढ़ने पर उन भावों को उतना कनेक्ट नहीं कर पाईजिन भावों से सोचकर उसे लिखा थाउसमें एडिटिंग की ज़रूरत थी।

एकदेव अधिकारी
लघुकथा के प्राण उसमें प्रयुक्त कठिनसमझ से बाहर शब्दों में नहींबल्कि कथ्य की प्रभावकारिता में होते हैं।

ओमप्रकाश क्षत्रिय 'प्रकाश'
लेखकीय नज़रिये से सोचा तो कथानक पूरा बदल दियावाक्य छोटे कियेकसावट लाया और फिर विस्तार दिया।

कनक हरलालका
मुझे 'प्रतिदानशीर्षक सार्थक लगा क्योंकि प्रेम के प्रतिदान में आत्मसम्मान सही रखा जा सकता है और मोक्ष या ज्ञान नहीं केवल 'प्रेमही दिया जा सकता है।

कमल कपूर
मन-मस्तिष्क के कच्चे आवे की सोंधी-मीठी धीमी आंच पर कई दिनों तक पककर ही लघुकथा सुंदर और सुगढ आकार लेती है... किसी कलात्मक माटी-कलश की तरह। चाहे बूंद भर ही क्यों न होहर लघुकथा के तलछट में एक सच छुपा होता है।

कमल चोपड़ा
कटु सत्यों को लघुकथा में समेटने के प्रयत्न के लिए काफी सोचने के बाद मुझे इसे सहज शिल्प-शैली में लिखना उचित लगा।

कमलेश भारतीय
घटना समाचार पत्र में पढ़कर मन ही मन रोया। बरस-पे-बरस बीतते गयेयह घटना मन में दबी रही और आखिरकार एक दिन लघुकथा ने जन्म लिया।

कल्पना भट्ट
घटनाक्रम को अपने ही घर के घटनाक्रम से लेती गई और यह भी ध्यान रखा कि कथातत्व यथार्थ पर कायम रहेभटके नहीं।

कुँवर प्रेमिल
रचनाकार अपनी रचना से इतना मोहग्रस्त है कि किसी और की रचना को पढ्ना ही नहीं चाहतायह आदत उसे कूप-मन्डूक बना रही है।

कुमार संभव जोशी
आठ बिन्दु महत्वपूर्ण हैं - कथानकभूमिकाशिल्प व शैलीचरमबिन्दुशीर्षककालखण्डमन्थन और सन्देश।

कुसुम पारीक
कथा को दो-तीन बार पाठकीय दृष्टिकोण से पढ़ा और जब संतुष्टि आई तब शीर्षक पर विचार प्रारम्भ किया।
               
कुसुम शर्मा नीमच
चुंकि लघुकथा ग्रामीण परिवेश की हैअतः पात्रों का नामकरण भौगोलिक स्थितिगांव के प्रचलित नामों और गंवईं चरित्र के अनुसार किया।

कृष्णा वर्मा
कथानक सूझते ही मन उस क्षण विशेष की खोज में लग गया जो लघुकथा को प्रारम्भिक रूप दे सके। लघुकथा का उद्देश्य उसका आरम्भमध्यअंतकथ्य की पराकाष्ठा तथा शीर्षक को सोचकर उसकी रूपरेखा बनाई।

कृष्णालता यादव
साहित्य में रुचि रखने वाले (पाठक स्वरूप) अपने जीवनसाथी से रचना पर विचार-विमर्श किया और उनकी राय के अनुसार रचना में संशोधन किया।

खेमकरण सोमन
जब तक अगम्भीरता की स्थिति बनी रहीतब पचासों ऐसी रचनाएं लिख डालीं जो विधा को नुकसान पहुंचाती। मैं सोचने को बाध्य तब हुआजब घटना-वस्तु अति महत्वपूर्ण प्रतीत हुई। घटना-वस्तु को कथानक में बदलने के साथ-साथशीर्षक पर विचारपात्रों के अनुसार भाषा शैली और कथानक के अनुसार पात्रों का नामकरण आदि भी किया।

 चित्त रंजन गोप
जहां आशय स्पष्ट नहीं हो रहा थावहां कुछ शब्द जोड़े और जहां अतिरिक्त शब्द दिखाई दिएउन्हें हटा दिया। बांग्ला की बजाय हिंदी का प्रयोग किया। वर्तनी की अशुद्धियों को सुधारने हेतु शब्दकोश की मदद ली।

 जगदीश राय कुलरियाँ
लघुकथा मेरे लिए मेरे विचारों को व्यक्त करने का सशक्त माध्यम है। घटनाएं एवं वाक्य कई सालों तक मस्तिष्क में घूमेतब जाकर इस रचना का आधार बना।

ज्ञानप्रकाश पियूष
इस लघुकथा के प्रारूप में भी पूर्ण होने के बाद तक किसी भी परिवर्तन की आवश्यकता महसूस नहीं हुई। भावभाषाशिल्पसन्देश और उद्देश्य की दृष्टि से भी जिन्हें पढ़वाई उन सभी को उपयुक्त लगी।

तारिक़ असलम तसनीम
(कई) गाँवों में एक परंपरा है कि शाम को विवाहित स्त्रियां साज-श्रृंगार करती हैंताकि घर पर आते ही उनके पति मुस्कुरा उठें। लेकिन शहरी जीवन में यह संभव नहीं। तब कोई-कोई विवाहित पुरुष स्वयं के लिए स्पेस अन्य स्त्रियों में ढूंढने का प्रयास कर सकता है। गाँवों और शहरों के पात्र मेरे यथार्थ अनुभव का भाग हैं और इसी विषय पर रचना की है।

धर्मपाल साहिल
तीखा व्यंग्य लघुकथा की धार को तेज़ करता है। ऐसा अंत बनाने की प्रक्रिया कई दिन चली।

ध्रुव कुमार
वरिष्ठ लघुकथाकार सतीश राज पुष्करणा जी ने सुझाया कि फालतू शब्दों और वाक्यों को किस तरह हटाया जाता है और शीर्षक लघुकथा के कथानक के अनुरूप रखा।

नयना (आरती) कानिटकर
दूरदर्शन पर संविधान प्रक्रिया की चर्चा को देखते हुए मन में बात आई कि इस विषय पर लिखा जा सकता है।आत्मकथ्यात्मकविवरणात्मक और संवादात्मक शैली में लिखने के बाद इसका अन्तिम रूप मिश्रित शैली में लिखा।

नीना छिब्बर
इस बात का विशेष ध्यान रखा कि भाव सम्प्रेषणवाक्य-विन्यास और लघुकथा का मूल भाव लुप्त न हो जाए।

नीरज शर्मा सुधांशु
यह ध्यान रखा कि प्रयुक्त प्रतीक के गुणधर्म रचना के कथ्य पर सटीक बै्ठते हों और रचना नए मूल्य स्थापित करने में सक्षम हो।

नेहा शर्मा
रचना की कथा-वस्तु मेरे दिमाग में व्यर्थ जलती स्ट्रीट लाईट्स को देखकर आई।

पंकज शर्मा
यह रचना सत्य घटना पर आधारित है और हू-ब-हू उसी प्रकार लिखी गई है या बयान की गई है।

पदम गोधा
कथा में कथा-तत्वकालखण्ड दोष और व्यापक सन्देश पर ध्यान देने का प्रयास किया है।

पवित्रा अग्रवाल
जाति का नाम न देकर मैंने जाति सूचक नाम मिस्टर वाल्मिकि का प्रयोग किया।

पुरुषोत्तम दुबे
लघुकथा को जनतान्त्रिक परिवेश के माध्यम से उभारा गया है। वातावरण को जीवंत बनाने हेतु विरोधी नारों के हो-हल्लों को व्यक्त करने हेतु आक्रोश भरे शब्दों का चयन किया है।

पुष्पा जमुआर
हू-ब-हू स्थिति-परिस्थिति को आधार बना कर किया गया लघुकथा लेखन सिर्फ सच को उजागर करता सा या समाचार सरीखा प्रतीत होता है। अतः मैंने अपनी भावनात्मकता में कल्पनात्मक प्रस्तुति दी है।

पूजा अग्निहोत्री
मुख्य बिन्दु :- सहेली से कथानक सूझनापहली रूपरेखा तैयारवरिष्ठ लघुकथाकार से वार्ता कर परिवर्तनशीर्षक के लिये सुधिजनों का अनुमोदन।

पूनम डोगरा
इसे लिखने में बहुत कम वक्त लगालगभग एक सिटिंग में ही लिख ड़ालीशायद इसलिये भी क्योंकि यह कई दशकों से मेरे भीतर पक रही थी।
(यहां मैं संपादकीय वाली पंक्ति दोहराना चाहूँगा - "वस्तुतः रचना प्रक्रिया अभिव्यंजना से अभिव्यक्ति तक का एक लम्बा सफर है।")

पूरन मुद्गल
लघुकथा में मैंने एक तथ्यजिसे मैं मानता हूँ (आ्त्मा शरीर के साथ ही समाप्त हो जाती है) को अभिव्यक्त किया है।

प्रतिभा मिश्रा
सोशल मीडिया पर एक चित्र पर लेखन आयोजन के समय एक पुरानी घटना की याद ताज़ा हो गई। तब इस लघुकथा ने आकार लिया।

प्रबोध कुमार गोविल
वर्षों बाद मेरे जेहन में वो लघुकथा का एक पात्र बन गईं और मैंने अपनी लघुकथा 'माँउसी को जेहन में रखकर लिखी। अपनी उम्र से एकाएक बडे हो जाने के उसके अनुभव को मैंने 'घर-घरके बालसुलभ खेल में उसके स्वतः ही माँ की भूमिका चुन लेने के रूप में दर्शाया।

प्रेरणा गुप्ता
लघुकथा मेरी तरफ से लिख लेने के बाद भी कु्छ अभाव सा प्रतीत हो रहा था। एक मित्र के एक पंक्ति के सुझाव मात्र से यह पूर्ण हो गई।

बलराम अग्रवाल
मेरी अधिकतर लघुकथाओं की तरह इसका कथानक भी किसी घटना-विशेष से प्रेरित नहीं है। इस रचना की मुख्य पात्र जाति-समुदाय से प्राप्त संस्कारों को पीछे ठेलकर मानवीय 'अपनापनअपनाने को वरियता देती है। लघुकथाकार का अनिवार्यतः मन की परतों से तथा शब्दों व बिम्बों के स्फोट से परिचित रहना आवश्यक है। इस रचना के एक विशेष संवाद का विश्लेषण फ्रायड के एक सिद्धान्त के आधार पर किया जा सकता हैजो यह लघुकथा लिखते समय मेरे मस्तिष्क में रहा था।

बालकृष्ण गुप्ता गुरुजी
यह कथानक चयन करने का एकमात्र उद्देश्य समाज में जागरुकता लाने का प्रयास करना है।

भगवती प्रसाद द्विवेदी
इस लघुकथा में आत्मकथात्मक शैली में स्मृतिजीवीआत्मजीवी व्यक्ति के द्वन्द को दर्शाने का प्रयास किया है।

भगीरथ परिहार
रचना और रचना-प्रक्रिया दोनों ही लेखक के मन-मस्तिष्क में घटती है। यह रचना भी घटना होने के बाद कई महीनों तक अवचेतन मन में मंथन चलने के बाद कागज़ पर अंकित की। बाद में शीर्षक इस तरह का रखा जो कथ्य पर आधारित हो लेकिन उससे कथ्य प्रकट न हो।

भारती कुमारी
मुझे शीर्षक और पात्रों के नामों का चयन सबसे अधिक परेशान करता है। इस रचना में पात्रों को नाम नहीं दिया है। चूँकि रचना चित्र आधारित लेखन प्रतियोगिता के लिए लिखी थी इसलिए शीर्षक चित्र पर आधारित रखा।

भारती वर्मा बौड़ाई
इस रचना को लिखते समय दो घटनाएं आपस में गड्डमड्ड हो रहीं थीं। अतः इस पर कार्य करते समय तीसरे प्रारूप में यह रचना लघुकथा के रूप में आई।

मंजीत कौर 'मीत'
रचना सृजन के समय. व्यवस्थित वाक्यउचित शब्दों का प्रयोगप्रभावी संवाद और उद्देश्य पूर्ति को ध्यान में रखना आवश्यक है।

मंजू गुप्ता
आज की पीढ़ी हस्तकला का कार्य करना पसंद नहीं करतीरचना की मुख्य पात्र भी इसी का प्रतिनिधित्व कर रही है।

मधु जैन
पहले ड्राफ्ट में कालखंड दोष दिखाई दियाजिसे दूसरे ड्राफ्ट में पात्र को रात में सोने की बजाय जगाये रखते हुए दूर किया। तीसरे ड्राफ्ट में गन तथा AK - 47 हटा कर राइफल किया। चौथे ड्राफ्ट में आतंकी संगठनों से जुड़ा होना बताया क्योंकि राष्ट्रद्रोह का मुकदमा दिखाया था।

मधुदीप गुप्ता
जब हम किसी घटना से उत्पन्न विचार को अपने दिमाग में पकने देते हैं और उसके लिए उपयुक्त कथ्य की प्रतीक्षा करते हैंतभी सही रचना का जन्म होता है। इस रचना की मूल घटना ने मुझे बहुत व्यथित कर दिया था और मैं कई दिन बैचेन रहा। यह सब मेरे अवचेतन में चला गया और एक दिन स्वतः ही एक कथानक के रूप में मेरे मस्तिष्क में आ खड़ा हुआ। घटना पर तुरंत लिख देना पत्रकारिता की श्रेणी में आता है और वह सृजनात्मक लेखन नहीं होता।

मनन कुमार सिंह
अभिव्यक्ति पात्रों के माध्यम से होती है। बहुत सारे विकल्प खुले थे। अंत में प्रतीक के तौर पर लकीरों का प्रयोग किया और पात्र के तौर पर एक लेखक और एक टूटते तारे को।

मनु मनस्वी
मेरी कोशिश यह रहती है कि लघुकथा एक हाइकू की तरह हो। संक्षिप्ततम और पूर्ण।

महिमा भटनागर
मुझे विषयपात्र और उद्देश्य मिल गया था लेकिन जो रचना बनी वह एक कहानी थी। उसमें से लेखकीय प्रवेश हटाते हुए उसे क्षण-विशेष की घटना बनाते हुए संवादों में पिरोया जिससे उस रचना ने लघुकथा का रूप लिया।

महेंद्र कुमार
प्रमुख कठिनाई यह थी कि पाठकों को कैसे कम से कम शब्दों में पाइथोगोरस के दर्शन से परिचय करवाया जाए। अतः कुछ पंक्तियाँ पाइथोगोरस और उनके शिष्य के संवाद पर खर्च कीं।

माधव नागदा
पंद्रह वर्षों तक यह थीम अंतर्मन के किस कोने अंतरे में दुबकी हुई थीपता नहीं, और किस स्फुरण के कारण यह एक मुकम्मल लघुकथा के रूप में कागज़ पर अवतीर्ण हो गईलेकिन इसका शीर्षक अवचेतन की बजाय इसी के कथ्य से प्राप्त हुआ। सबसे निचले पायदान का आदमी अपने नालायक बेटे को अपने महीने भर की कमाई देकर मस्ती से जा रहा है। भला उससे 'रईस आदमीकौन हो सकता है?

मालती बसंत
पहले ड्राफ्ट के बाद समय अंतराल देना आवश्यक होता है ताकि सही लघुकथा का सृजन हो सके।

मिन्नी मिश्रा
इस लघुकथा के लिए मैंने कई शीर्षक सोचेलेकिन पाठक सीधे कथा के मर्म तक पहुँच सकेंऐसा शीर्षक चयनित किया।

मिर्ज़ा हाफिज़ बेग
लघुकथा का कैनवास इतना सीमित होता है कि अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति बहुत मुश्किल हो जाती हैलेकिन क्या इस एक शर्त को पूरा करने के लिए लघुकथा से उसका सौंदर्य छीन लेनाउसके लालित्य की परवाह नहीं करना लघुकथा के साथ अन्याय नहीं है?

मुकेश शर्मा
लघुकथाओं के घिसे-पिटे विषयों से मैं निराश हो चुका था। एक मित्र के अनुभवों को सुनते समय ऐसा प्रतीत हुआ कि प्रेम-कविता जैसी लघुकथा लिखूं।

मुरलीधर वैष्णव
इस लघुकथा में चित्रित तंत्र की भ्रष्टता को व्यंग्यात्मक शैली में लिखा। कथानक एवं विषय के अनुरूप ही पात्रों और संवादों का चयन किया।

मृणाल आशुतोष
चूँकि यह कथानक लम्बे से मन में जगह बनाये हुए थाइसलिए काफी समय समय तक इसे बेहतर करने के लिए विचार किया। किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा तो एक लघुकथाकार मित्र की सहायता ली।

मेघा राठी
चूँकि यह कथा किन्नर समुदाय की है अतः संवाद लिखते समय उनके हाव-भाव और आदतों के जिक्र के साथ उनकी भाषा में लिंखना बहुत आवश्यक था।

योगराज प्रभाकर
1985 में एक नज़्म लिखी थी 'सुन रे डरपोक सूरज', 1989 में अचानक इस नज़्म को लघुकथा में ढालने का विचार आया। मैंने झटपट ही संवाद शैली में यह लघुकथा लिख ड़ाली। मेरा मानना है कि जो सुनाई न जा सके वह कहानी नहीं और जो गाई न जा सके वह कविता नहीं। बोलते वक्त इस लघुकथा में वह बात नहीं आ पा रही थीजो पढ़ते वक्त आ रही थी। तब संक्षिप्त किन्तु आवश्यक विवरण देते हुए इस लघुकथा को दोबारा लिखा।

योगेन्द्रनाथ शुक्ल
"सरकार ने आदिवासियों पर करोडों रुपये खर्च किए लेकिन उनके पास दसवां हिस्सा भी नहीं पहुंच सका। फूलपत्ती आदि खाने को मजबूर लूट न करें तो क्या करें?" यह सुनने के बाद मन द्रवित हो गया और जब तक इसे लघुकथा में नहीं ढ़ाला चैन नहीं मिला।

रजनीश दीक्षित
मुझे एक ऐसे परिदृश्य की कल्पना करनी थी जिसमें रोजमर्रा में कहे जाने वाले शब्द चटनी के सॉस से होते हुए आज के कैचप तक की बात समाहित हो जाए। यह विचार कई माह तक मन ही में घूमता रहा।

रतन राठौड़
लघुकथा सी्धे रूप में न कहकर मित्रों के आपसी वार्तालाप से उपजी है। लेखकीय दृष्टि से मैंने बहुत अंतर्द्वंद झेला है कि नायक आत्महत्या करे अथवा दुनिया से वैराग्य ले।

रवि प्रभाकर
भालचन्द्र गोस्वामी के अनुसार शीर्षक कहानी भर से प्राप्त होने वा्ली घटना को एक-दो शब्दों में गुंफित कर कहानी की रूपरेखा उपस्थित कर देता है। कुछ शीर्षक बदलने और मन्थन के पश्चात इस रचना का शीर्षक 'कुकनुसरखाजो प्राचीन यूनानी ग्रन्थों में एक मिथक अमरपक्षी है। यह मरने के बाद अपनी ही राख से पुनः जीवन प्राप्त कर लेता है। इसका रोना शुभ माना जाता है और इसके आंसू से नासूर तक ठीक हो जाते हैं। 'प्यारसरीखी पवित्र भावना भी अमर है और इसमें भी किसी के ज़ख़्म ठीक करने की अद्भुत शक्ति होती है।

राजकमल सक्सेना
जब लिखने की बारी आई तो शुरुआत समस्या बन गई। अन्ततः मेरे और मेरी पुत्री के बीच हुआ वार्तालाप ही इसका आरम्भ बना।

राजेन्द्र मोहन बंधु त्रिवेदी
एक बार एक व्यक्ति झूठ बोलकर कि उसे जयपुर में पैर लगवाना हैमुझसे रुपये ऐंठ कर ले गया। तब यह विचार आया कि ऐसे धन्धेबाजों पर लिखना ज़रूरी है ताकि कोई अन्य इनके चक्कर में न पड़े।

 राजेन्द्र वामन काटदरे
पहला जो खाका बनावही कायम रहा व रीराइट करने की ज़रूरत महसूस नहीं हुई। एक कथाबीज रचना का रूप लेकर फला-फूला।

राधेश्याम भारतीय
लघुकथा एक सच्ची घटना पर आधारित है। सतनाम सिंह नाम का व्यक्ति किसी कारणवश उसे दिए जा रहे सम्मान को लेने नहीं आया। लेकिन दो महिनों बाद वही भाग-भाग कर रेलवे स्टेशन पर रुकी ट्रेन के यात्रियों की बोतलों में पानी भर कर सेवा कर रहा था।

रामकुमार आत्रेय
इस लघुकथा में 'इक्कीस जूतेखाने वाला ईमानदार व्यक्ति मैं ही हूँ। देश में परिवर्तन तो बहुत आया है लेकिन भ्रष्टाचार को लेकर स्थिति आज भी कमोबेश पहले की भांति बनी हुई है।

रामकुमार घोटड़
इस विषय पर लघुकथा लिखने का मन बनाया लेकिन किस भाषा व कैसी शैली में लिखूंयह निश्चित नहीं कर पाया। अन्ततः संवाद शैली में उस कथानक पर आधारित लघुकथा लिखी।

रामनिवास मानव
मैं अपने चिड़चिड़े स्वभाव के कारण छोटी-छोटी बातों पर ही अपनी पत्नी से नाराज़ हो जाता था। लेकिन मेरी पत्नी हमेशा सकारात्मक ही रहती और सकारात्मक ही कहती। इसी मिजाज़ ने मुझे यह लघुकथा लिखने को प्रेरित किया।

राममूरत राही
इसका शीर्षक मुझे कथानक के साथ ही सूझ गया थाजो मुझे बाद में भी सटीक लगातो वही रख दिया।

रामेश्वर काम्बोज
यह सम्भव है कि लघुकथा में आधारभूत घटना का कोई छोटा सा अंश ही परिमार्जित होकर आए। यह अंश उसमें उद्भुत होने पर भी उससे एकदम अलग नज़र आ सकता है। जैसे प्रस्तर खण्ड से बनी मूर्तिउस बैडोल पत्थर की सूरत से कहीं मेल नहीं खाती।

रूपल उपाध्याय
अखबार में छपे एक आलेख को पढ़ने के बाद सबसे पहले मैंने इस रचना की एक पृष्ठभूमि तैयार की। कथा रोचक रहे इसलिए दो पात्र रखेजिनकी लापरवाही से वे अपनी इकलौती संतान खो देते हैं। चूँकि उनकी वेदना दर्शायीइसलिये लघुकथा का शीर्षक 'वेदनाही रखा।

रेणु चन्द्रा माथुर
चाचा ससुर के बेटे-बहू ने एक कन्या को गोद लिया और उसका उत्सव मनाया। लघुकथा ने वहीं जन्म ले लिया। हालांकि लघुकथा इससे आगे नहीं बढ पा रही थी। पडौस में एक बेटी के जन्म पर उसका नाम 'खुशीरखा तो लघुकथा भी इसी नाम के साथ पूरी हुई।

लता अग्रवाल
आज लघुकथा ने अपना पाठक तैयार किया हैउसका कारण है इसका आम जन-जीवन से जुड़ा होना। चाहे वह अतीत हो या भविष्य की सम्भावना। हालांकि लघुकथा पाठकों के दिल में तभी उतरेगी जब उसमें कुछ नया होगा।

लवलेश दत्त
मेरे मन पर प्रत्येक घटित घटना का प्रभाव होता है और अवचेतन मन के अनुसार वह घटना रचना के रूप में आकार ले सकती है। सही मायनों में लालची लोगों पर अदृश्य व्यंग्य करती इस लघुकथा को तैयार होने में दो-ढ़ाई साल का समय लग गया।

लाजपतराय गर्ग
कई बार तो पूरी की पूरी रचना का खाका मन ही में तैयार हो जाता है। यहां तक कि पात्रों के संवादों तक की रूपरेखा बन जाती है। किसी भी बदलाव की ज़रूरत नहीं होती। कभी ऐसा भी होता है कि प्रथम पाठक या श्रोता के अनुसार (छोटा या बड़ा) बदलाव करना पड़े।

वन्दना गुप्ता
रचना के कच्चे ड्राफ्ट में मैंने फिज़िक्स के नियम नहीं जोड़े थेजब कुम्हार के घूमते चाक का प्रतीक लिखा तो अभिकेन्द्री और अपकेन्द्री बल का सन्तुलन दिखाने की भी सूझी।

विभा रश्मि
अपने वास्तविक जीवन के अनुभवों में कल्पना का मिश्रण कर मैं लघुकथाएं लिखती हूँलेकिन जहां तक हो सकता हैपात्रानुकूल भाषा में संवादवातावरण बुनने की कोशिश भी करती हूँ। यह लघुकथा भी एक यथार्थ घटनाक्रम की देन हैजो बीस बरसों के बाद लिखी गई।

 विभारानी श्रीवास्तव
लघुकथा-सृजन में मैंने इस बात का सदैव ध्यान रखा है कि वह सत्य-कथाअखबारी समाचाररिपोर्ट या संस्मरण आदि बन कर न रह जाए। सृजन के साथ-साथ इसके शास्त्रीय पक्ष पर भी गंभीरता से ध्यान देती हूँ। क्षिप्रता बरकरार रखने के लिए इस लघुकथा को कई-कई बार लिखा।

वीरेन्द्र भारद्वाज
पूरी रचना कल्पना से लिखी गई है। घटना तो समयस्थिति और वातावरण है। रचना को खूब मथागर्भस्थ कियाउसका शिल्प (पात्रसंवाददेशकालभाषा सभी) पहले ही तय किया।

वीरेन्द्र वीर मेहता
करीब एक वर्ष के बाद अपने घर ही के एक धर्मिक अनुष्ठान के दौरान पत्नी के कु्छ शब्दों ने उस घटना की याद को ताज़ा कर दिया और दोनों (पुरानी और नई) बातों ने मिलकर एक नवीन कथ्य को जन्म दिया।

शराफ़त अली खान
ऐसी ही और भी कई घटनाएं घटीलेकिन हर घटना पर मैंने नहीं लिखा। वैसे भी हर विभागीय घटना सार्वजनिक नहीं की जा सकती।

शावर भक्त भवानी
इस लघुकथा में निहित समस्या और प्रश्न न जाने कितनी माताओं और बच्चों का है। लेकिन आधुनिक भारत में भी बच्चे इस विषय पर खुलकर चर्चा करने से घबराते हैंजबकि इस विषय को शिक्षा प्रणाली में  शामिल कर जागरुकता लाने की आवश्यकता है।

शील कौशिक
मैंने इसे दो-तीन बार अलग-अलग शैलियों में लिखा और काट-छांट की। यथार्थ की भूमि पर आधारित इस रचना का उद्देश्य समाज को आइना दिखाना है।

शेख़ शहज़ाद उस्मानी
कथ्य यही था कि मुस्लिम दोस्त ने हिन्दू दोस्त का अन्तिम संस्कार हिन्दू रीति से किया। इसमें चाय की गुमटी पर विभिन्न धर्मावलम्बियों द्वारा टीका-टिप्पणी करवाने की कल्पना भी की। तात्कालिक बुद्धि के अनुसार संवाद जुड़ते चले गए। रचना के अंत में अनपढ़ चाय वाले का संवाद सूझाजो रचना की बेहतरी हेतु उपयुक्त प्रतीत हुआ।

श्यामसुंदर अग्रवाल
किसी घटना ने नहीं बल्कि एक विचार मात्र ने मुझसे इस लघुकथा का कथानक तैयार करवाया। लघुकथा में इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि रचना का कथ्य उसके अंत से पहले उजागर नहीं हो।

श्यामसुन्दर दीप्ति
इस घटना को लघुकथा में ढालने के कई वर्षों पश्चात यह स्पष्ट हुआ कि हर घटना पर लघुकथा बना देना उचित नहीं होता। घटना का चुनाव बहुत महत्वपूर्ण है।

संतोष सुपेकर
कई बार रचना में एक वाक्यएक शब्द को लेकर ही काफी उलझन रहती है। लेखक सही दिशा तय नहीं कर पाता। इस लघुकथा को लिखते समय मैं इतना खो गया कि वाक्य-विन्यास पर ही ध्यान नहीं दे सका। इस लघुकथा के पीछे मेरी ऐसी ही कई उलझनें छिपी हैं।

संदीप आनंद
मेरे दिमाग में यह आया कि लेखन के लिए क्यों न उन घटनाओं को आधार बनाऊंजो मेरे जीवन में सकारात्मक बदलाव लाईं।

सतीश राठी
यह सारा घटनाक्रम बहुत ही भावुक और प्रेरणास्पद है। इस सृजन से मुझे ही नहीं बल्कि कई वरिष्ठ लघुकथाकारों को भी सन्तु्ष्टि प्राप्त हुई है।

सतीशराज पुष्करणा
मैं कहीं भी रहूँप्रातः लघुकथा लिखने के बाद ही अपना कोई काम प्रारम्भ करता था। लेकिन यह लघुकथा सवेरे पूरी नहीं हो पा रही थी। उधर दुकान पर जाने का वक्त हो चुका था। बेटे के आग्रह पर मैं दुकान पर गया तो लेकिन लघुकथा को लेकर परेशान था। अनेक-अनेक ड्राफ्ट मेरे मन-मस्तिष्क में आते और बिखर जाते। खैरलंच का समय आते-आते लघुकथा ने दिमाग में ऐसा आकार लियाजिससे मुझे सन्तु्ष्टि हुई और घर जाकर लंच करने से पूर्व इसे लिपिबद्ध किया।

सत्या कीर्ति शर्मा
महीनों पहले की यह यह घटना मैं नहीं भूलीइसे मैं संस्मरण की रूप में लिखना चाहती थीकिन्तु 2017 में यह लघुकथा में ढली। प्ररम्भ में यह आत्मकथ्यात्मक शैली में थीजिसे बाद में बदला।

सविता इंद्र गुप्ता
सन्तोष न मिला क्योंकि लघुकथा में आकारगत लघुता भंग होती दिखाई दी। लघुकथा का मूल स्वर भी धूमिल होता लगाउद्देश्य भी तीव्रता से प्रेषित नहीं हो पा रहा था। कुल मिलाकर यह ड्राफ्ट सन्कुचित सा और केवल अपना अनुभव ही प्रतीत हो रहा था। इसे मैंने निर्दयता से डिलीट कर दिया।

सविता उपाध्याय
लघुकथा में दो पात्र हैंएक महिला शिक्षित तो दूसरी अशिक्षित है। ऐसी परिस्थिति में महिला - महिला ही से प्रताडित होती है। इस बुराई को हटाने हेतु यह सृजन किया गया।

सिद्धेश्वर
पहले ड्राफ्ट में रचना में स्वयं को पात्र के रूप में प्रस्तुत किया थाबाद में यह विचार आया कि एक गरीब मछुआरे को 'मैंकी जगह रखा जाए तो रचना सर्वव्यापी और प्रभावकारी बन जायेगी।

सीमा जैन
नियम व संवेदना दो अलग-अलग पहलू हैं पर बुरी तरह मिल गये हैं। यही सोच कर इस रचना के कथानक और पात्र का सृजन हुआ। एक धर्म - मानवता को केन्द्र में रखकर घास पर पैर रखते हुए भी संवेदना का आनाचींटी तक की जान बचाने की निगाह-नीयत तो होनी ही चहिए।

सीमा भाटिया
धारा 497 समाप्त होने के बाद सोशल मीडिया पर फैले भ्रामक विचारों को पढ़ने के बाद इस लघुकथा का विचार उत्पन्न हुआ। शादीशुदा महिला के उसकी रजामंदी से हुए सम्बन्ध पर बने विभिन्न चुटकुलों वगैरह ने मन को आहत किया और इस रचना के सृजन हेतु प्रेरित किया।

सुकेश साहनी
लघुकथा के समापन बिन्दु पर ही रचना अपने कलेवर के मूल स्वर को कैरी करती हुई पूर्णता को प्राप्त होती है। लघुकथा रचना करते समय लेखक को आकारगत लघुता और समापन बिन्दु को ध्यान में रखते हुए ही ताने-बाने बुनने होते हैं। कभी एक ही संवाद पात्र से कहलवा देने भर से ही उद्देश्य पूर्ण हो जाता है। तब यही एक संवाद समापन बिन्दु और आकारगत लघुता तक रचना को ले आता है। लेकिन इसके लिए गूढ विचार की ज़रूरत है। तत्काल प्रतिक्रिया स्वरूप लिखी गई रचना किसी मुकम्मल कृति का आनन्द नहीं देती। उनमें डेप्थ नहीं होती।

सुदर्शन रत्नाकर
यह विचारनादिशा देनामन की भट्टी में तपानासजाना ही रचना-प्रक्रिया है।

सुभाष नीरव
जो रचनाएं लौटती हैंउसका कारण है कि मैं उन पर पर्याप्त श्रम नहीं करता। मेरी रचना प्रक्रिया में जबरदस्त परिवर्तन मेरे कुछ अच्छे मित्रों के कारण आया। अब जब मुझे कोई विचारकोई घटनाकोई  भावकोई सन्देश, कोई दृश्य हॉण्ट करता है तो मैं उसे तुरन्त कागज़ पर उतारने की बजाय उसे अपने जेहन में सुरक्षित कर लेना बेहतर समझता हूँ और कुछ दिन उसे वहीं पड़ा रहने देता हूँ। अच्छी रचनाएं लेखक के धैर्य की परीक्षा भी लेती हैं और लेखक की रचना-प्रक्रिया को और अधिक मज़बूती प्रदान करती हैंजिनसे लेकर वे निकली होती हैं।

सुभाष सलूजा
कथा देखकर कुछ मित्रों ने कहा कि यह अव्यवहारिक हैजबकि यह मेरे द्वारा प्रत्यक्ष देखा गया सत्य था।

सुभाषचन्द्र लखेड़ा
नेता का नाम बहुत सोचकर रखाताकि जाने-अनजाने ऐसा नाम न हो जो उस वक्त के किसी जाने-माने बड़े नेता का नाम हो। कवि के नाम में भी यही सावधानी बरती।

सुरिन्दर केले
लघुकथा में वैश्वीकरण के नाम पर हो रहे भ्रष्टाचार को बताया है कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था कैसे केवल कुछ औद्योगिक घरानों को अमीर बना रही है और बाकियों के लिए नुकसानदेह है।

सूर्यकांत नागर
रचना प्रक्रिया नितांत निजी मामला हैइसे किसी नियमावली में नहीं बांधा जा सकता। रचना के मूल में कोई न कोई अनुभव होता है। कथाकार चिड़िया की चोंच की तरह परिवेश से अपने काम की चीज़ उठाकर अपने अंदर जज़्ब कर लेता है। यह रचना का पहला जन्म है। यह अनुभव लम्बे समय तक पकता रहता हैजब पूरी तरह पक जाता है तो एक आलार्म सा बजता है। यह रचना का दूसरा जन्म है। जब यह अनुभूति कागज़ पर उतरती है तो यह रचना का तीसरा जन्म है। जल्दबाजी रचनात्मकता की राह की बड़ी बाधा है और धैर्य महत्वपूर्ण निधि।

सोमा सुर
हम अपने ही बनाए नियमों में उलझे हैं। पीरियड्स की बात करना आज भी बदतमीज़ी माना जाता है। पंचलाईन में नायिका का यही दुख दिखलाया।

स्नेह गोस्वामी
कथा में बहुत कु्छ बिखरा हुआ थान तो सिमट पा रहा था न ही कुछ जुड़। जितनी महिलाएं उस समय दिमाग में थींउन सभी के एंगल से पढ़ा। इसे सोचते हुए ही सोने चली गई। सवेरे फिर पढ़ा और हर पैराग्राफ से पहले टाईम ड़ाल दिया। यकीन मानिएजो सुकून मिला वह अद्भुत था।

हरप्रीत राणा
मुझे डबलरोटी और अंडे लाने का निर्देश इस नसीहत के साथ मिला कि ये केवल हिन्दू की दुकान से खरीदूंमुस्लिम की नहीं। मैंने विरोध किया और कहा कि भाई मरदाना जी भी तो मुस्लिम थे। मौसी ने उत्तर दिया लेकिन वे नानक साहब के साथ रहते हुए पवित्र हो गए थे। मैं फिर भी जानबूझकर मुस्लिम की दुकान से सामान खरीदकर लाया क्योंकि मैंने पवित्र गुरबाणी के उस मूलमन्त्र अनुसरण किया - 'अव्वल अल्लाह नूर उपायाकुदरत दे सब बंदे'। यह घटना मेरी इस लघुकथा का आधार बनी।

हूँदराज बलवाणी
एक दिन इस कथा को पकड़ कर बैठ गया। तरह-तरह के परिवर्तन किएफिर भी संतोष नहीं हुआ। सोचते-सोचते सज्जन बुजुर्ग को नेतानुमा आदमी बना दियाजिसका काम होता है वक्त-बेवक्त लोगों के बीच जाकर भाषण देना। ऐसे लोग खुद ही समस्या पैदा करते हैं और खुद ही निवारण का दिखावा। बाद में जो उन्हें वाह-वाही मिलती है उससे उन्हें संतुष्टि मिलती है। यह दर्शाने पर मेरी यह लघुकथाबोधकथा बनने से बच गई।

खेमराज पोखरेल
यह रचना किसी पत्रिका में भेजने से पूर्व एक मित्र को भाषा-सम्पादन हेतु भेजी। समुचित सम्पादन के पश्चात ही लघुकथा को प्रकाशन हेतु भेजा।

टीकाराम रेगमी
सबसे पहले मैंने घटना की पृष्ठभूमि से सम्बद्ध घटनाओं को क्रमबद्ध किया। पहले और अन्तिम भाग को प्रभावशाली करने का प्रयास किया। इसमें शब्द बहुत सारे थेइसलिये कई बार इसकी एडिटिंग की।

नारायणप्रसाद निरौला
लघुकथा का विषय सूझने के बादपहले अपने द्वारा बनाये गये पात्र की हकीकत की रूपरेखा तैयार की और मस्तिष्क में ही ड्राफ्ट बना डाला। इससे लाभ यह होता है कि प्रायः एक ही बैठक में लघुकथा पूरी हो जाती है।

 राजन सिलवाल
लिखते समय इस बात का ख्याल ज़रूर रहता है कि कैसे लघुकथा को रोचक और जीवंत बनाना है। ज्यादातर संवाद का प्रयोग करना पसंद करता हूँ।

राजू छेत्री अपूरो
जीजा-साली के पवित्र रिश्ते पर एक लघुकथा लिखने के लिए कई दिनों तक सोचा और एक दिन उपयुक्त समय देखकर लिखा और उसे सोशल मीडिया के एक समूह में पोस्ट कर दिया। मेरे एक मित्र ने इसका अनुवाद किया और शीर्षक बदल दिया। मुझे भी नया शीर्षक उत्तम लगा और मूल लघुकथा का शीर्षक भी वही रख दिया।

रामकुमार पंडित छेत्री
अक्सर लोग उंगली उसी की ओर उठाते हैं जिसका पिछ्ला रिकॉर्ड दुष्ट प्रवृत्ति का होता है। लेकिन क्या कभी उल्टा भी हो सकता हैभगवान कृष्ण की पूजा करते समय कृष्ण और कंस के प्रतीकों के माध्यम से यह बात कही।

रामहरि पौडयाल
कुछ दिन लघुकथा को मेरे लैपटॉप में रखे रहने देने के बाद उसे एक पत्रिका में प्रकाशन हेतु भेजाजहां आवश्यक सम्पादन भी हुआ।

लक्ष्मण अर्याल
मैं सोचता था कि धर्म और भगवान की परम्परागत परिभाषाओं को बदलने की ज़रूरत है। बुद्ध इन्सान थेअहिंसा के पुजारी गांधी भी एक दिन भगवान कहला सकते हैं। मानवता-धर्म और विवेक-इन्सानों के देवत्व पर इस लघुकथा का सृजन किया। अन्य लघुकथाओं की तरह ही इस लघुकथा ने भी अपने जीवन के दो साल मेरी डायरी में ही गुजार दिए।
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उपरोक्त मेरे अनुसार पत्रिका में शामिल प्रत्येक रचनाकार की रचना प्रक्रियाओं में निहित कोई एक महत्वपूर्ण बिंदु है। मैं यह दावा नहीं करता कि इस लेख में बतलाई गईं सभी बातें उस रचनाकार की शामिल रचना प्रक्रियाओं की बेहतरीन बात है। मैंने मेरे अनुसार बेहतरीन के चयन का प्रयास अवश्य किया हैजिसमें कमी हो सकती है लेकिन यह विश्वास ज़रूर दिला सकता हूँ कि सर्वोत्तम तो नहीं लेकिन ये बातें अच्छी और महत्वपूर्ण अवश्य हैं। इस पत्रिका में मेरी दो रचनाओं और उनकी रचना प्रक्रिया को भी स्थान मिला है। उनके बारे में इस लेख में कुछ नहीं कहा है। उसे आप पर छोड़ा है।

-   डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
प 46प्रभात नगर
सेक्टर-5हिरण मगरी
उदयपुर - राजस्थान – 313 002
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