यह ब्लॉग खोजें

लेख लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
लेख लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शनिवार, 18 मई 2019

लेख | पुरानी कथाएँ नए रूप में | रामवृक्ष बेनीपुरी

साहित्य में 'चोरी' और 'रचनाशीलता' पर आलेख फेसबुक समूह "लघुकथा साहित्य Laghukatha Sahitya" में डॉ. बलराम अग्रवाल जी की पोस्ट 


सुप्रसिद्ध साहित्यकार रामवृक्ष बेनीपुरी जी का लेख एक पुरानी पत्रिका में देखने को मिल गया था। लघुकथा में इन दिनों सीधी सेंधमारियाँ बहुत सुनाई दे रही हैं और उस सेंधमारी पर हाय-तौबा स्वाभाविक ही है; लेकिन रामवृक्ष बेनीपुरी जी बता रहे हैं कि साहित्य में कुछ नया रचने के लिए हर सेंधमारी 'चोरी' नहीं है; तथापि सेंधमारी पर अरण्य-रोदन करने वालों की भी कमी नहीं है। साहित्य में 'चोरी' और 'रचनाशीलता' को समझने के लिए इस लेख का अध्ययन आवश्यक है।





- डॉ० बलराम अग्रवाल

Source:
https://www.facebook.com/groups/LaghukathaSahitya/permalink/1288404924666984/

शुक्रवार, 15 मार्च 2019

लेख: लघुकथा क्षेत्र बुद्धि वंचित बौनों का कैसे बना अभयारण्‍य | श्‍याम बिहारी श्‍यामल

हिन्‍दी में लघुकथा की भी बुनियाद हमारे भाषा-साहित्‍य के जनक भारतेंदु बाबू हरिश्‍चंद्र के साहित्‍य में ही खोजी गई है। बाद के दौर में अनेक बड़े नामों के खाते में भी लघुकथाएं दर्ज हैं। इनमें प्रतिनिधि तौर पर अयोध्‍या प्रसाद गोयलीय, रामधारी सिंह 'दिनकर', जानकी वल्‍लभ शास्‍त्री, दिवाकर प्रसाद विद्यार्थी, भवभूति मिश्र, विष्‍णु प्रभाकर, कमलेश्‍वर, रावी, राजेंद्र यादव से लेकर संजीव और बलराम आदि जैसे कथाकार यहां तत्‍काल याद आ रहे हैं किंतु अस्‍सी के दशक में इसे विधा के रूप में उगाने और सींचने का श्रेय ' सारिका ' के तत्‍कालीन संपादक प्रख्‍यात कथाकार कमलेश्‍वर को जाता है।

अपने समय की सबसे महत्‍वपूर्ण कथा पत्रि‍का ( सारिका ) में तरजीह और कमलेश्‍वर जैसे रचनाकार व्‍यक्तित्‍व का संरक्षण पाकर लघुकथा बेशक खूब पनपी-फैली। नए-नए रचनाकार आए तो कई महत्‍वपूर्ण पुराने भी आकृष्‍ट हुए। 'सारिका' ने तब से लेकर बाद में अवध नारायण मुद्गल के संपादन-काल तक इस विधा के लिए खास तवज्‍जो जारी रखी। यहां लघुकथा फीलर के रूप में नहीं, बल्कि विधा के तौर पर अपने नियत फॉर्मेट में प्रतिष्ठित तरीके से छापी जाती रही। उसके कई 'लघुकथा विशेषांक' आए जिन्‍होंने इसे बतौर विधा बार-बार प्रस्‍तावित किया। इससे अनेक लघु  पत्रिकाओं की भी दृष्टि बदली और 'लघु आघात' ( संपादक : विक्रम सोनी ),  'पुन:' ( संपादक : कृणानंद कृष्‍ण ), ' साम्‍प्रत ' व 'लघुकथा टाइम्‍स' ( दोनों का संपादक इन्‍हीं पंक्तियों का लेखक ) और 'लघुकथा साहित्‍य' ( प्रधान संपादक : अशोक लव, संपादक : सुरेश अशोक लव जांगिड़ 'उदय' ) जैसी कुछ लघुकथा केंद्रित पत्रिकाएं भी निकलीं। शंकर पुणतांबेकर, रमेश बत्‍तरा, कमल चोपड़ा, भगवती प्रसाद द्विवेदी, जगदीश कश्‍यप, सतीश  दूबे, अशोक लव, बलराम अग्रवाल, कमलेश भारतीय, सतीश राठी, अशोक मिश्र, विक्रम सोनी, कमलेश भारतीय, सत्‍यनारायण नाटे और सुरेंद्र मंथन आदि जैसे कथाकारों की पहचान कायम हुई तो डा. व्रजकिशोर पाठक और चंद्रेश्‍वर कर्ण जैसे आलोचक सामने आए।  महत्‍वपूर्ण लेखन का माहौल अभी बन ही रहा था कि इसी बीच एक अजीब स्थिति पैदा हो गई।

अचानक देखते ही देखते संजीदा लेखकों ने 'लघुकथा' से किनाराकशी शुरू कर दी। उन्‍होंने इस ओर से ऐसा मुंह मोड़ा कि फिर किसी ने मुड़कर व्रज किशोर पाठक पीछे ताकना तक मुनासि‍ब नहीं समझा।  क्‍यों ? कारण हैं इस क्षेत्र में पैठे कुछ अगंभीर तत्‍वों की बेजा हरकतें। 'लघुकथा' को कुछ अर्द्धार्द्ध लेखक-धंधेबाजों की नजर लग गई। एक तो उन्‍होंने इसे आसान विधा मानकर -लघुकथा के नाम पर ताबड़तोड़ उल्‍टी-उबकाई शुरू कर दी, दूसरे अपने छापने-बेचने के मंदे धंधे को गति पकड़ाने के लिए औने-पौने लेखकों से रुपये ऐंठ-ऐंठकर उनकी जैसी-तैसी रचनाएं छापने और अपना  धंधा चलाने में जुट गए। इस क्रम में वे कचरे का पहाड़ खड़ा करने लगे। जाहिरन उनकी ऐसी तिजारती और शरारती गतिविधियां सृजनधर्मिता के सामान्‍य मानक-मूल्‍यों तक की धज्जियां उड़ाने वाली थीं। साथ-साथ यह व्‍यक्‍त करने वाली भी कि ऐसे तत्‍व वस्‍तुत: कलम-कागज प्रदेश के बुद्धि-जीवी नागरिक नहीं, बल्‍िक हेराफरी और उलटफेर वाले इलाकों के शातिर 'बुद्धि-वंचित बौने' थे। ऐसे तत्‍व जिनका लक्ष्‍य ही था लेखन-प्रकाशन के नाम पर भोंडा आत्‍मरंजन और सहयोगी आधार पर प्रकाशन करने व हर साल उल्‍टे-सीधे दावों के साथ अंट-शंट सम्‍मेलन के बहाने उन्‍मुक्‍त उगाही और मुद्रामोचन। उनकी तिजारत कैसी चली या पटना-मेरठ में छापने-बेचने का उनका लड़खड़ाता धंधा किस गति को प्राप्‍त हुआ यह तो नहीं पता चला किंतु दशकों बाद हिन्‍दी के कथा-साहित्‍य में किसी सर्जनात्‍मक आंदोलन के रूप में उगने वाली अपार सृजन-संभावनाओं वाली 'लघुकथा' उनकी हरकतों से कौड़ी का तीन होकर रह गई।

तभी से वे अपने नकार-डकार में तल्‍लीन हैं। तीन तिलंगे जुटकर कभी पटना में कोई 'राष्‍ट्रीय सम्‍मेलन' ठोंक देते हैं तो कभी चार चौकड़ी एकत्र हो अन्‍यत्र कोई 'अन्‍तर्राज्‍यीय सम्‍मेलन'। ऐसी हरकतों से जो हश्र स्‍वाभाविक है, वही सामने है। लघुकथा क्षेत्र अंतत: हिन्‍दी साहित्‍य का एक ऐसा इलाका होकर रह गया है जिसे अब 'बुद्धि वंचित बौनों का अभयारण्‍य' माना जाने लगा है। यहां आम तौर पर न कोई प्रयोगधर्मी लेखन दिख रहा है,  न सतत् रचनारत कोई संजीदा नाम। दो दशकों से यह विधा संदिग्‍ध होने का संताप झेल रही है। इस बीच हास्‍यास्‍पद ढंग से बार-बार 'सम्‍मेलन' की कोई न कोई निष्‍प्रभ सूचना अक्‍सर कहीं झलक जाती है, जो वैधव्‍य-सिसकन जैसा आभास देती है। ले-देकर एक अकेला शख्‍स सुकेश साहनी है जिसके कुछ प्रयास उम्‍मीद की लौ को जिलाए हुए हैं। पुस्‍तक प्रकाशन और वेबदुनिया में 'लघुकथा डॉट कॉम' साइट के रूप में वह सतत् अलख जलाए हुए है, किंतु वह भी करें तो क्‍या ! लघुकथा में ऐसा कोई लेखन प्रयास ही संभव नहीं हो पा रहा जो एक चमक-कौंध के साथ पूरे हिन्‍दी साहित्‍य का ध्‍यान अपनी ओर खींच और इस विधा को विश्‍वसनीय आधार प्रदान कर सके।

Source:
http://shyambiharishyamal.blogspot.com/2012/10/blog-post.html

सोमवार, 11 मार्च 2019

लेख: हिमाचल का लघुकथा संसार : रतन चंद 'रत्नेश'

लघुकथा आज हाशिये से निकलकर साहित्य की एक सशक्त विधा के रूप में दर्ज होने के बावजूद विसंगति यह देखने में आ रही है कि इसे अंतरंगता में समझने में अभी भी कई त्रुटियाँ हो रही हैं। अंग्रेजी में जहां हिन्दी की कहानी विधा को ‘शार्ट स्टोरी’ कहा जाता है वहीं कई लोग लघुकथा को ही ‘शार्ट स्टोरी’ की संज्ञा दे देते हैं। बीसवीं सदी की शुरूआत में जब हिन्दी साहित्य में कहानी अपनी जड़ें जमा रही थीं तब कुछ लेखकों ने आकार में कई छोटी कहानियां लिखीं पर उस दौरान अलग से लघुकथा एक अलग विधा के रूप में अस्तित्व में नहीं आई थी। देश-विदेश की अन्य कई भाषाओं में भी समय- समय पर कथ्य के फलक के अनुसार छोटी कहानियां लिखी गई हैं जिसमें भरपूर कथारस है। अपितु आठवें दशक के बाद लघुकथा ने धीरे-धीरे अपनी अलग पहचान बनानी शुरू की और अनगिनत लघुकथाकार उभर कर सामने आये।

अन्य भाषाओं में भी लघुकथा को नयी पहचान मिली। पंजाबी में इसे मिनी कहानियां कहा गया तो बांग्ला में अनुगल्प। कथा सम्राट मुंशी प्रेम चन्द और रवीन्द्र नाथ टैगोर जैसे स्वनामधन्य लेखकों की भी कई ऐसी लघुकथाएं हैं, हालांकि उनमें से कई लघुकथा के विद्वानों के अनुसार उस दायरे में नहीं आती। बहरहाल यह एक अलग मुद्दा है, पर यह कहना गलत नहीं होगा कि आज लघुकथा का अपना अलग रंग-रूप है, अपनी प्रासंगिकताहै। इसकी अनेक सृजनात्मक विशिष्टताएं, विधागत सामर्थ्य और रचनात्मक स्वरूप है। जिस प्रकार एक वृक्ष, एक पौधे और तृण का अपना अस्तित्व है, इसी तरह लघुकथा का उपन्यास , कहानी के बावजूद अपना एक धर्म है। अपने इसी धर्म के कारण यह बेजोड़ प्रभाव छोड़ती है।

उदाहरण के रूप मेंसआदत हसन मंटो की कई लघुकथाओं को लिया जा सकता है जो उनकी कहानियों से उन्नीस नहीं ठहरतीं। यह कहना गलत होगा कि इस विधा ने कई लेखकों को स्थापित किया और पहचान दिलायी। लघुकथा के सिंद्धात और भाषा पक्ष पर गंभीरतापूर्वक कार्य करने वाले नागेन्द्र सिंह के अनुसार लघुकथा लघुकथात्मक प्रस्तुति है। इसमें एक मितव्ययी बुद्धिमान की तरह कम से कम वक्यों में कथा को प्रभावी, सार्थक और सोद्देश्यपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करना होता है। स्व० रमेश बतरा लघुकथा की शक्ति और सीमा को पहचानने पर जोर दिया करते थे। उनका मानना था कि इन दो तत्वों की जानकारी होने पर लघुकथाकार तय कर सकता है कि लघुकथा के ढांचे में चीजों को कहाँ तक और किस तरह ते जाया जाय। उनके अनुसार लघुकथा किखना कहानी लिखने से भी अधिक कठिन है। एक अच्छी लघुकथा लेखन के लिए विधा को बारीकी से जानने और उसे सलीके से बुनने की आवश्यकता है। ...लघुकथा में छोटे फलक पर जटिल अनुभवों के तनावों की अभिव्यक्ति व्यंजना की तीक्ष्ण धार से की जा सकती है. लघुकथा घटना नहीं, बल्कि उसी घटना घटनात्मकता में से प्रस्फुटित विचार है। लघुकथाकार और समीक्षक डॉ. बालेंदु शेखर तिवारी की मानें तो लघुकथा छोटे आकार की वह कथा-केंद्रित विधा है जिसमें समझ और अनुभव की संभवत: सर्वाधिक संश्लिष्ट और सूक्ष्म अभिव्यक्ति संभव है। हिमाचल प्रदेश में ऐसे कई लेखक हैं जिन्होंने अन्य विधाओं में लेखन के साथ-साथ लघुकथाओं में भी हाथ आजमाया। कई कवि, कथाकार, व्यंग्यकार और उपन्यासकार ऐसे हैं जिन्होंने शुरूआती दौर में लघुकथाएं लिखीं, पर आगे चलकर इससे पूर्णत: किनारा कर लिया और यह सिलसिला ‘उसने कहा था’ कहानी से चर्चित हुए पं. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी के समय से चला आ रहा है। वैसे यह कहना गलत नहीं होगा कि बीती सदी के उत्तरार्द्ध में लघुकथा विधा पर जितनी गंभीरता से लिखा गया, उसका प्रभाव हिमाचल के लेखकों में भी बहुत पड़ा और कई अच्छे लघुकथाकार उभर कर सामने आये। आज उनमें से कई लघुकथाएं क्यों नहीं लिख रहे या फिर नाममात्र का ही लिख रहे यह अलग से शोध का विषय हो सकता है। जो लघुकथाकार समर्पित भाव से लघुकथा लेखन में सक्रिय थे, उन्होंने भी या तो लघुकथा लेखन नाममात्र का कर दिया अथवा लेखन से विरक्त हो गये। अगर आज भी हिमाचल में पच्चीस से अधिक लघुकथाएं लिखने वाले लघुकथाकारों की सूची बनायी जाये तो वे पन्द्रह से अधिक नहीं ठहरेंगे। यही कारण है कि मेरे यानी कि रतन चन्द ‘रत्नेश’ द्वारा सम्पादित और 1998 मे प्रकाशित ‘हिमाचल की श्रेष्ठ लघुकथाएं’ के बाद कोई भी ऐसा लघुकथा-संग्रह प्रकाश में नहीं आया जिसमें हिमाचल के लघुकथाकारों को प्रतिनिधित्व मिला हो। हालांकि बलराम ने देश के विभिन्न राज्यों की लघुकथाओं के कई कोष प्रकाशित किए पर उनमें भी उन लघुकथाकारों को स्थान नहीं मिल पाया जिन्होंने वास्तव में लघुकथा के साहित्यिक दायरे में अच्छी और चर्चित लघुकथाएं लिखीं। उनसे किसी कारणवश कई ऐसे लघुकथाकार छूट गये जिनकी लघुकथाओं को राष्ट्रीय स्तर की पत्र-पत्रिकाओं में स्थान मिला और कई का अन्य प्रादेशिक भाषाओं में अनुवाद भी हुआ। पंजाब से निकलने वाली तथा श्याम सुन्दर अग्रवाल, श्याम सुन्दर दीप्ति और विक्रमजीत सिंह नूर द्वारा सम्पादित ‘मिन्नी’ के प्रयास से समय- समय पर विभिन्न विशेषांकों में हिमाचल प्रदेश की लघुकथाओं को पंजाबी अनुवाद के सौजन्य से स्थान मिलता रहा है। यहां तक कि लघुकथा के शोधपूर्ण लेखों में भी पंजाब के विद्वानों ने हिमाचल के लघुकथाकारों को शिद्दत से याद किया है। अन्य कई लघुकथा संग्रहों और पत्रिकाओं-विशेषांकों में भी हिमाचल के कुछ लघुकथाकारों को समय-समय पर प्रतिनिधित्व मिला है। हिमाचल में लघुकथा लेखन में आज जो सबसे अधिक सक्रिय हैं, उनमें सुदर्शन भाटिया का नाम सर्वोपरि है। यहां तक कि यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगर कि देश भर में यही एक ऐसे लघुकथाकार हैं जिनकी पच्चीस से भी अधिक लघुकथा संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। उन पुस्तकों के नाम हैं----- ‘तूफान’, ‘खंडहर’, ‘सिसकियाँ’, ‘काली लड़की’, ‘घरौंदे में घोंसला’, ‘पश्चाताप की आग’, ‘कुंवारी विधवा’, ‘शिलालेख’, ‘धत्त तेरे की’, ‘मिटटी का माधो’, ‘यू आर गुड’, ‘सॉरी सर’, ‘गुस्ताखी माफ’, ‘काटो तो खून नहीं’, ‘उत्तराधिकारी’, ‘लौटा दो पालकी’, ‘रथ का पहिया’, ‘संकल्प में शक्ति’, ‘कलियुग की लघुकथाएं’, ‘सुविधा शुल्क’, ‘अपना हाथ जगन्नाथ’, ‘मजदूरों के मसीहा’, ‘तो ये बात है’, ‘दूध का दूध- पानी का पानी’, ‘विश्व गुरु भारत’, ‘आत्मिक शांति’, तथा हाल में प्रकाशित ‘आधुनिक समाज की लघुकथाएं’, ‘इन्द्रधनुषी लघुकथाएं’ और ‘पौराणिक-एतिहासिक लघुकथाएं’।. यहाँ यह कहना भी प्रासंगिक होगा कि सुदर्शन भाटिया भी वही गलती करते आ रहे हैं और हर छोटी रचना, चाहे वह पौराणिक कथा ही क्यों न हो, उसे लघुकथा मान लेते हैं।

भगवान देव चैतन्य की भी लघुकथाएं अकसर पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ने को मिलती रहती हैं। इस विधा के मिजाज से वे अच्छी तरह वाकिफ हैं। शायद इसीलिए इनकी लघुकथाएं घाव करे गंभीर की उक्ति को चरितार्थ करने में सक्षम हैं। कहानी-संग्रह और उपन्यास के अलावा उनके तीन लघुकथा-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं----- ‘शब्द-शब्द सोच’, ‘मुर्दे की लकड़ी’ और हाल ही में प्रकाशित ‘कोख का दर्द’। चैतन्य की हिमाचल की मंडियाली बोली में भी एक लघुकथ-संग्रह आया है----- ‘उच्ची धारा रा धुप । जाने-माने लघुकथाकारों में कृष्ण चन्द्र महादेविया का एक लघुकथा संग्रह सन् 1992 में प्रकाशित हुआ था। ‘उग्रवादी’ नामक इस लघुकथा संग्रह में कुल 41 लघुकथाएं हैं। इनके अलावा रोशन विक्षिप्त और अनिल कटोच के भी लघुकथा संग्रह उन्हीं दिनों प्रकाशित हुए थे और लघुकथाकार के रूप में स्थापित भी हुए। इन दोनों ने लघुकथा को ही अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया पर आज ये दोनों नििष्क्रय हैं और एक तरह से कहा जाये तो इन्होंने लेखन कार्य ही छोड़ रखा है। बेकारी के दिनों में इन्होंने खूब लघुकथाएं लिखीं पर नौकरी मिलते ही उसी में खप गये। रत्न चन्द निर्झर की लघुकथाएं भी मारक हैं। कभी खूब लिखते थे, अब सिर्फ़ पढ़ने का शौक रखा है। कभी-कभी उनके अन्तरमन से कविताएं फूट पड़ती हैं। लघुकथाओं का प्लाट लेकर घूमते रहते हैं, यार-दोस्तों को सुना भी देते हैं पर लिखने में सुस्ती दिखा जाते हैं ।

देश के विभिन्न प्रांतों से प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओ और पुस्तकों में जिन लेखकों की लघुकथाओं को समय-समय पर स्थान मिला, उनमें स्व. डा०मनोहर लाल, सुदर्शन वशिष्ठ, आशा शैली, उषा मेहता दीपा, रतन चन्द ‘रत्नेश’, रत्न चन्द निर्झर, श्रीनिवास जोशी, भगवान देव चैतन्य, कृष्ण चन्द्र महादेविया आदि नाम उल्लेखनीय हैं। सही मायने में देखा जाये तो जिनकी लघुकथाओं ने कभी ध्यान बरबस खींचा है और जिन्होंने इस विधा को गंभीरता से लिया वे हैं रजनीकांत, भगवान देव चैतन्य, अनिल कटोच, आशा शैली, उषा मेहता दीपा, रोशन विक्षिप्त, कृष्ण चन्द्र महादेविया, रत्न चंद ’निर्झर’, हिमेन्द्र बाली हिम, मनोहर लाल अवस्थी इत्यादि। इनके अलावा श्रीनिवास जोशी, साधू राम दर्शक, मदन गुप्ता सपाटू, गिरिधर योगेश्वर, प्रभात कुमार, सुरेश कुमार प्रेम, नरेश कुमार उदास, प्रकाश चंद्र धीमान, मोहन साहिल, ओमप्रकाश भारद्वाज, राजकुमार कमल, कमलेश ठाकुर चम्बावाला, डॉ. प्रत्युष गुलेरी, मंजीत सहगल, विधि चंद्र विद्यार्थी, डॉ. लेख राम शर्मा, संतोष जसवाल, कुल राजीव पन्त, अमिन शेख चिस्ती, मधु गुप्ता, डॉ. राकेश गुप्ता, अरुण जीत ठाकुर, ने भी अन्य विधाओं के साथ यदा-कद लघुकथा–लेखन कार्य किया है।

इधर कुछेक वर्षो से जो लेखक संजीदगी से लघुकथा लिख रहे हैं, वे हैं विजय उपाध्याय, शबनम शर्मा, विजय रानी बंसल, विनोद ध्रब्याल राही, अनंत आलोक  और रामकृष्ण कांगड़िया। इनके अलावा सत्येन्द्र, अवतार सिंह वाजवा, विनय कौशल, प्रताप अरनोट, अरुण गौतम, स्वर्ण दीपक रैणा, हीरा सिंह कौशल, राजीव त्रिगर्ति,  अशोक दर्द, कुलदीप चन्देल आदि भी ध्यान खींचने वाली लघुकथाएं लिख रहे हैं। यहां यह कहना भी उचित होगा कि कई लेखक लघुकथा के गुण- धर्म को जाने बिना लघुकथाएं लिखे जा रहे हैं। बोधकथा, प्रेरक प्रसंग, पौराणिक एवं धार्मिक कथाएं लघु रूप में लघुकथाएं नहीं होतीं। दुर्भाग्य यह है कि पत्र-पत्रिकाओं के कई सम्पादक भी लघुकथा के मर्म से अनभिज्ञ हैं। फलस्वरूप इस विधा को नुकसान पहुंचाने में उनका भी हाथ रहा है।
 - रतन चंद 'रत्नेश'

Source:
http://ratanchandratnesh.blogspot.com/2010/04/blog-post_31.html

रविवार, 10 मार्च 2019

लेख: लघुकथा की जीवनी | देवी नागरानी

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में 16,17  फरवरी 2008 ,  दो दिन का एक सुनहरा ऐतिहासिक स्मरणीय कुंभ रहा जहाँ पर विश्व के हर देश से साहित्यकार भाग लेकर लघुकथा की विषय-वस्तु, उसके शिल्प, कला-कौशल, आकार-प्रकार, वर्तमान और भविष्य की बारीकी को जानते और परखते रहे। ।श्री केसरीनाथ त्रिपाठी के हाथों दीप प्रज्ज्वलन के साथ हुआ साथ में मंच की शोभा बढ़ाते रहे थे जाने-माने आलोचक व लघुकथा के प्रथम व्याकरणाचार्य श्री कमल किशोर गोयनका, विशिष्ट अतिथि थे फ़िराक़ गोरखपुरी के नाती, वरिष्ठ कवि व छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिर्देशक श्री विश्वरंजन, श्री विश्वनाथ सचदेव, संपादक नवनीत- मुंबई से, श्री मोहनदास नैमिशराय-मेरठ से, सुश्री पूर्णिमा वर्मन-शारजाह से, श्री कुमुद अधिकारी नेपाल से, श्री रोहित कुमार हैपी न्यूजीलैंड से, मै, देवी नागरानी न्यू जर्सी से, और सृजन-सम्मान के अध्यक्ष व पूर्व शिक्षामंत्री श्री सत्यनारायण शर्मा। मुख्यअतिथि श्री केसरीनाथ त्रिपाठी ने दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए कहा कि "पहले कभी साहित्य का गढ़ इलाहाबाद और दिल्ली हुआ करता था । सृजन-सम्मान ने विगत 6 आयोजनों और अपनी सतत् क्रियाशीलता से छत्तीसगढ़ और रायपुर को साहित्य का गढ़ बना दिया है."

यह शीर्षक "लघुकथा" सिर्फ़ शीर्षक नहीं एक सूत्र भी है ' ब्राह्म वाक़्य भी है. रायपुर में 16-17 फरवरी 2008 में, इन दो जुड़वा दिनों में विस्तार से लघुकथा पर केंद्रित जो चर्चा हुई, वह तो सागर की गागर में एक प्रविष्ट थी; जिसका डेफ़ीनेशन बीज वक्तव्य देते हुए श्री जय प्रकाश मानस जी के शब्दों में  "लघु और कथा एक दूसरे के पूरक है लघुता ही उसकी पूर्णता है, लघुता ही उसकी प्रभुता है. लघुकथा जीवन का साक्षात्कार है, गध्य और शिल्प निजी व्यवहार है और लेखक का परिचय भी.”

यह सच है कि इस विषय पर पूर्ण रूप से जानना और उसकी शैली को प्रस्तुत करने का सफ़र मुश्किल है पर नामुमकिन नहीं. इस सुनहरे ऐतिहासिक स्मरणीय कुंभ में जहाँ पर विश्व की कई दिशाओं से साहित्यकार भाग लेकर लघुकथा की विषय-वस्तु, कला- कौशल, आकर-प्रकार,वर्तमान और भविष्य की बारीकियों को जानते रहे एवम वाद विवाद से परखते भी रहे, जिससे कई बातें स्पष्ट होती रहीं. इस पर गौरव पूर्ण रूप से रोशनी डालते अपने भाव व्यक्त करते हुए श्री कमल किशोर गोयनका जी ने कहा "इतना बड़ा सम्मेलन पहली बार इतने बड़े पैमाने पर आयोजित करने की कल्पना का साकार स्वरूप एक महान उपलब्द्धि है. हमारे समाज की गरिमा बनाये रखने का यहा एक अंतराष्ट्रीय स्तर पर सफल प्रयास है.”

"छत्तीसगढ़ अब साहित्य का भी गढ़ है"  यह केसरीनाथ त्रिपाठी जी का मानना है , इसमें कोई अतिशययोक्ति नहीं. अलग-अलग ढंग से प्रमुख लघुकथाकारों ने अपने अपने दृष्टिकोण से विस्तुत वर्णन किया. श्री केसरीनाथ जी के शब्दो में "कविता, लेख, लघुकताएँ, आलोचनाएँ सब हिन्दी भाषा की धाराए है." लघुकता का वर्तमान, इस विधा की कलात्मक सुज़नता के साथ आने वाले कल की नींव रख रहा है. इस विषय के जाने माने माहिर लघुकथाकार कर्नाल के श्री अशोक भाटिया जी का कहना है "रचना वही है जो हमारे साथ-साथ यात्रा करे. रचनाकार में अगर संवेदना नहीं है तो उसकी रचना में जान नहीं आ सकती”  श्री सुकेश साहनी जी के शब्दों में "रचनाकार का एक चिंतन होता है, जो अपने आप को व्यक्त करता है,  साहित्य तो बहता हुआ पानी है जो अपना रास्ता खुद तय करता है. "

राजस्थान के अजमेर जिले की निवासी डा॰ शकुन्तला किरण द्वारा जयपुर विश्वविद्यालय से आठवें दशक की  'हिन्दी लघुकथा' पर केन्द्रित शोध-कार्य के अवसर पर हिन्दी लघुकथा की रचनात्मक-पड़ताल के लिये उनकी दृष्टि-पटल पर देश ही नहीं, विदेश की परम्परा भी बीज-रूप में विद्यमान रही है। साहित्य-जगत में अपना विधागत मुकाम हासिल करने में लघुकथा भले ही अब कामयाब हो सकी हो, किन्तु डा0 शकुन्तला किरण आठवें दशक में उपलब्ध साहित्य के साक्ष्य में एक पारखी शोधार्थी के नाते ऐसी स्थापना को बहुत पहले शब्द दे चुकी थीं---"आठवें दशक में उदित आधुनिक हिन्दी लघुकथा ने अपनी विशिष्टताओं, क्षमताओं एवं उपयोगिताओं के कारण अभिव्यक्ति के एक नये व प्रभावशाली माध्यम के रूप में अपनी स्वतन्त्र पहचान दी…।"
लघुकथा की रचना क्यों होनी चाहिए?

लघुकथा-लघु का अर्थ दर्शाते हुए अपना अर्थ विस्तार अनंत की ओर ले जाती है. कथा यानी कहानी -छोटी सी कथा जिसका स्ट्रक्चर (stucture) और टेक्सचर (texture) उसकी निजी मान्यता है. है लघु सी ये कथा, विस्तार जिसका है बड़ा गद्य औ' फिर शिल्प उसकी कह रहा है लघुकथा. लघुकथा की लघुता पर विस्तार पूर्वक विशेषण शब्दो से सजाए हुए अनेक परिभाषाएँ सामने आने लगते है, जिससे यही लगता है- जीवन के छोटे छोटे जिये जाने वाले पल ही लघुकथा है. शायद यहीं हम लघुकथा का निर्माण करते है, जिसकी व्याख्यान की सीमा असीमित है. हद और सरहद के बीच का फासला तय करना ही इसकी लघुता है. सच तो यह है कि लघुकथा का लघुपन ही उसका कथा तत्व है. जब लघुकथा का निर्माण होता है तो मानव जीवन इसका विस्तार हो जाता है और परिधि भी. यह एक नया पाठकीय अस्वाद है, एक अनूठी अद्धभूत विध्या है, लेखक विहीन विध्या जिसमें लेखक अद्रश्य रहता है. हाँ लघुकथा की कला में वह उपस्थित रहता है. कथा अपनी लघुता में प्रवेश करके संवाद करती है. यह छोटे सी कथा अपने आकर और रूप द्वारा लघुकथा का प्रभाव प्रस्तुत करती है. महत्व प्रभाव का है, कलाकार की कलाकृति से उसकी माहिरता झाँकती है. उसके आँचल में सामयिकता, सार्वजनीनता, वैचारिक उत्कँण्ठा, बौधिक प्रहार, तथा मानसिक उद्वेलन समाया हुआ होता है. एक आम आदमी की जिंदगी में पेश आए हुए रोज़मर्रा की जिंदगी की अनुभूतियाँ इसमें शामिल रहती हैं, जिनमें प्रेरकता तथा प्रेरणात्मकता के अनेक गुण और दोष उभरकर सामने आते है-जिनके द्वारा वो जिए गये तजुर्बात एक तस्वीर बनकर स्पष्ट रूप धारण करते है. विडंबनाओं तथा विविश्ताओं को शब्दाँकन करने के साथ-साथ रचना को सकारात्मक मोड़ पर ला खड़ा करना भी लघुकथा की एक विशेषता है.

लघुकथा हर साहित्य के क्षेत्र में कई पड़ावों से गुजर कर अपना अधिकृत स्थान पाने में सफल हो रही है. विषय भी अनंत है और मानव-जीवन इसकी विराटता. दीर्घता इसकी दुश्मन, लघुता इसकी दोस्त. लघुकथा तब ही जीवित होकर साँसे लेती है जब वह पाठकों तक पहुंचती है, उनके हृदय को टटोल कर उनके मनोभावों को झंझोर कर रख देती है, फिर चाहे उसमें चुटकीलापन ही क्यों न हो, चुलबुलापन हो या आत्मीयता, जीवन की हर शैली को अपनी लघुता में प्रदर्शित करने-कराने की क्षमता रखती हो- जहाँ पर लघुकथाकार दृश्य न रहकर पात्रों के रूप में अपनी बात कर पाने में समर्थ हो. लघुकथा जीवन के दृष्टांतों को लेकर मानव समाज को सही राह चुनने का अवसर देती है. जब तक कोई लेखक समाज से रू-ब-रू नहीं होगा, संवाद का कोई भी माध्यम उसकी संवेदना को जगाए नहीं रख सकता। साहित्य अगर समाज का दर्पण है तो सिर्फ इसलिए कि उसका रचयिता समाज के अन्तर्विरोधों को उसके बीच अपनी उपस्थिति बनाकर झेलता है, महसूस करता है. जितनी गहराई से वह महसूस करेगा, उतनी ही गहराई से वह प्रस्तुतीकरण भी कर पायेगा.  भीतर के जगत से जुड़े बिना बाहर की हर यात्रा व्यर्थ और निरर्थक है।

लघुकथा में एक साधारण सी गुफ़्तगू का स्वरूप देखें कितना असरदार है, एक परिपुर्ण तस्वीर अंकित करने में- वह अपनी अनबोली भाषा में खुद को व्यक्त करती है.
एक: क्या करते हो
दूसरा: ख़ुद को ढूँढता हूँ
एक: कहाँ पर
दूसरा: किसी साफ आईने में

मन की हल- चल, अस्थिरता, संक्षिप्त गुफ्तगू में स्पष्ट होती है. एक कहानीकार, लघुकथाकार बन जाता है. अपनी विराटता को लघुकथा में समेट कर एक बिंदु पर ला खड़ा करना या उसमें परिवर्तित करते हुए कथनी और करनी को लयात्मक स्वरूप देना इस लोकप्रिय विधा की विशेषता भी है और पहचान भी. लघुकथा के बारे में एक प्रचलित सत्य ये भी है की लघुकथा की साइज़ जितना छोटा उतना अच्छा, मगर उसके विषय और कथ्य में समझौता नहीं होना चाहिए. यही लघुकथा का प्रभावशाली गुण है जो साहित्य में उसे इतनी मान्यता मिल रही है. लघुकथा का महत्व उसकी लघुता में है जो वह कथा को प्रदान करती है। लघुकथा सिर्फ़ बोध की बात नहीं करती, आपकी सारी चेतना को भी झिंझोड़ कर रखती है। छोटी बात से बड़े अर्थ पाए जायें यह उसकी एक ख़ासियत है और अपनी बात पैग़ाम स्वरूप कम से कम शब्दों में मानवता तक पहुचाई जाए यही लघुकथा की सफ़लता . लघु और कथा एक दूसरे के पूरक है, फिर भी लघुकता ही इसकी प्राथमिकता है. शिल्प की दृष्टि से लघुकथा किसी गद्य-गीत जैसी सुगठित होनी चाहिए। शाब्दिक गद्य और शिल्प की शिलापर टिकी उसकी लघुता में कल्पना की गुंजाइश नहीं. उसकी हस्ती अद्रुश्यता में उपस्थित होती है. शायद लघुकता की पेशगी के सलीके में शामिल होती है उसकी अपनी शैली, बुनावट, कसावट, कथ्य, शिल्प और शैली जो प्रस्तुतीकरण के दौरान कितने दिलों के मनोभावों को अपने साथ जोड़ती है, झंझोड़ती है और जागृता उत्पन करती है.

प्रत्येक कहानी में एक 'सत्व' होता है और हम इसे 'कहानी की आत्मा' कहते हैं। 'लघुकथा' 'कहानी की आत्मा' है, उसका 'सत्व' है, अत: हम कह सकते हैं कि 'लघुकथा' केवल आकारगत, शिल्पगत, शैलीगत और प्रभावगत ही नहीं, शब्दगत और सम्प्रेषणगत समस्त गुणों की कथा-रचना है। कहानी और लघुकथा के बीच अन्तर को इन स्पष्ट तत्वों के माप के द्वारा स्पष्ट रूप से जाना जा सकता है। बहुत कुछ कहने के बाद बहुत कुछ सोचने के लिए पाठक के मनोभावों को उकेरना इसकी आवश्यकता है. लघुकथा और कहानी को एक दूजे से अलग कर पाना मुश्किल है "कथा किसी एक व्यक्ति के द्वारा कही गयी कोई घटना है या उसकी आत्मकथा है, पर उस विषय में कथा होनी चाहिए. जिसमें कथा न हो, वो लघुकथा कैसी?

लघुकथा एक स्वाभाविक आकर की रेखांकित की गई विधा है,. एक दृष्टिकोण है जिसका अंकुर मानव मन से अंकुरित हो कर भाषा का आधार पाकर अपने आपको प्रत्यक्ष कर पाता है. जीवन का प्रत्यक्षीकरण है लघुकथा , जहाँ हर घटना घट जाने के बाद भी अपने स्वरूप में साकार रहती है, साँस लेती है. हाँ इस बात से नकारा नहीं जा सकता की रचनाकार में अगर संवेदना नहीं है तो उसकी रचना में जान नहीं आ सकती. सहजता उसकी नीव है. कथ हृदय-स्पर्षी होने के साथ-साथ हक़ीक़तों से ताल-मेल खाती हुई रोज़मर्रा जीवन की शैली में व्यक्त की हुई हो तो ज़्यादा मन को छू पाती है. कभी कभी कल्पना से खींचा हुआ चित्र भी यतार्थ सा लगता है. एक मुकाम बनाने की चेष्टा में अपना स्रजन  आप करती है लघुकथा.  जैसे कोई मधुबन का माली फूलों की क्यारियों को जल से सींचता है, खाद्ध डालता है और आस-पास के सूखे पत्तों को उनसे अलग करके उनकी ताज़गी को बरकरार रखने के कोशिश करता है, ठीक उसी तरह एक रचनाकार लघुकथा लिखते वक़्त लक्ष्य को मधे-नज़र रखते हुए अपनी रचना को सोच से सींच कर शब्दों के शिल्प से तराश कर एक आकृति तैयार करता है जो अपने आप को खुद कम शब्दों में व्यक्त करती है. कम शब्दों में बहुत कुछ कहने की कला है लघुकथा, जिसका स्रजन लघुकथाकार का मन कर सकता है, जिसके मन में संवेदना है, जो अहसासों को अभिव्यक्त करने की कला से परिचित है.

यह तो आधुनिक विधा है, संक्षिप्त होते हुए भी परिपूर्णता से लदी हुई, पौराणिक साहित्य सम्रद्धि प्रदान करती हुई, जिसका संबंध रचना की आँतरिक प्रक्रुति, अंत वस्तु, रूप, बिंब, और रचनाकार की मानसिकता आदि से रूबरू कराती है. एक साहित्सिक आवश्यकता इस युग की, जिसकी शैली और लघुता जीवन की विभिन्नता को एकता का स्वरूप प्रदान करती है. इसके अनेक संकेतो में इसकी परिभाषा छुपी हुई होती है. किसी ने खूब कहा है-"लघुकथा जिंदगी का एक चित्र है, आम नागरिक के जीवन का प्रतीक है" आज कथा मनोरंजन के लिये नहीं आपितु यथार्थ - दर्शन के लिये लिखी जाती है. यही कारण है कि लघुकथा आज मानव-जीवन के किसी क्षण-विशेष का ही नहीं, उसके किसी पक्ष-विशेष का भी चित्रण करने में पूर्ण सक्षम है।

'लघुकथा' में संवादों की स्थिति क्या हो? उन्हें होना चाहिए या नहीं? होना चाहिए तो किस अनुशासन के साथ और नहीं तो क्यों? ये सवाल वैसे ही अनर्गल हैं जैसे कि इसके आकार या इसकी शब्द-संख्या के निर्धारण को लेकर अक्सर सामने आते रहते हैं। वस्तुत: लघुकथा 'लिखी' या 'कही जाती' प्रतीत न होकर 'घटित होती' प्रतीत होनी चाहिए। लघुकथा की रचना-प्रक्रिया का यह प्रमुख सूत्र है।   

लघुकथा वही साकार होती है जो मानसिक पक्षों को उजगार करे. मानव मन से जुड़े भाव-दर्द, करुणा, या विरोधाभास को उजगार करे और जीवन की जटिलताओं को आप-बीती से जग- बीती के स्तर पर प्रस्तुत करने की कला का प्रयोग करे, तब कहीं जाकर लघुकथा जीवन से जुडेय हुए अनुभव रेखांकित कर पाती है, फिर मार्मिकता के कारण जीवन के निकट आती है और स्वीकारी जाती है. लघुकथा अपने समय की सच्चाइयों का जीवंत दस्तावेज़ होने के साथ ही अपनी स्वतंत्र शैली भी विकसित करती है. हक़ीक़त में आज के इस मशीनी दौर में जहाँ आम आदमी कुछ पल सुकून के ट्रेन में खड़ा होकर, कभी बस की लाइन में खड़े-खड़े अपने आपको लघुक्था के इस मध्यम से साहित्य से जोड़ पाता है, तो कहीं न कहीं इस विधा की सफलता का आभास होता है. संक्षिप्त यात्रा के बीच लघुकथा पूरे विश्व में पढ़ी जाने वाली पसंदीदा साहित्य है, जिसकी भाषा, सरल शैली से गंभीर चिंतन देती है, हर बंधन से मुक्त,  पर फिर भी दाइरे में रहकर शब्द की कसावट और बुनावट द्वारा लघुकथा अपना महत्वपूर्ण कला पक्ष दर्शाती है.                           

यहाँ मैं डा॰ राजेंद्र सोनी और श्री जयप्रकाश मानस द्वारा संपादित "लघुकथा का गढ़ छत्तीसगढ़" को मधे नज़र रखते हुए यही कहूँगी कि इस सत्य के स्तंभ में इनका योगदान महत्वपूर्ण है. कुछ पंक्तिया अपनी जोड़ते हुए:

उसकी शैली, उसकी लघुता, उसकी परिभाषा बनी
अब स्वाभाविक प्रकट है आकर बनकर लघुकथा.
है लघु सी ये कथा, विस्तार जिसका है बड़ा
अंकुरित भाषा सी उपजै, आधार बनकर लघुकथा.

जयहिंद

- देवी नागरानी