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बुधवार, 23 फ़रवरी 2022

लघुकथा संग्रह समीक्षा | कितना-कुछ अनकहा | समीक्षक: अनिल मकारिया | लेखिका: कनक हरलालका

विचारक बन पाना आसान बात नहीं है और वो भी साहित्य में, जहां आपके समक्ष कई महारथी सितारे सदृश चमक रहे हों। ऐसे में अपने विचारों में ताज़गी और नयापन ही आपकी कलम को प्रकाशित कर सकते हैं। अनिल मकारिया से मेरी पहचान यों तो एक अच्छे लघुकथाकार के रूप में हुई थी लेकिन कुछ ही समय में उनकी समीक्षा करने की शैली में एक ऐसी ताज़गी का अनुभव हुआ जिससे मैं प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाया। कनक हरलालका के लघुकथा संग्रह 'कितना-कुछ अनकहा' की समीक्षा आपने चार भागों में की है और लगभग सभी रचनाओं पर अपनी बात रखी है। इस तरह की समीक्षा, मैं मानता हूँ कि, सभी के समक्ष आनी चाहिए। समीक्षा के चारों भाग यहाँ भी प्रस्तुत हैं:

लघुकथा संग्रह: कितना-कुछ अनकहा

समीक्षक: अनिल मकारिया

लेखिका: कनक हरलालका

प्रकाशन : दिशा प्रकाशन, दिल्ली

मूल्य : ₹३००

पृष्ठ : १२०


भाग-1

एक 65 साला इंसानी जुर्रत है जो अपनी रचनाओं के बाबत लिखती हैं, "लघुकथारूपी रस्सियों से आसमान को बांधकर ज़मीन पर लाने का यह मेरा एक प्रयास मात्र है।"

मुझे आश्चर्य है की जब इनकी हमजातें सास-बहू के विवाद और अमलतास-हरसिंगार की प्रेम कहानियां लिख रही होंगी तब यह जुर्रत 'गांधी को किसने मारा?' 'मिट्टी' और 'इनसोर' रच रही थी।

शालीन और मौन जुर्रत की अगर कोई इंसानी पहचान होती तो शायद वह कनक हरलालका के नाम से जानी जाती।

इस पुस्तक का लेखकीय व्यक्तव्य पढ़ने से पहले भी मुझे जर्रा भर शुबहा नही था कि कनक जी की कलम पर पवन जैन सर के अदब की रहबरी है।

किसी भी लेखक/लेखिका की जनप्रियता इस बात पर भी निर्भर करती है कि वह खुद को किस तरह से प्रस्तुत करता है?

आजकल खुद को प्रस्तुत करने के मायने fb वॉल या इंस्टा की तस्वीरें हैं लेकिन यहां पर मेरा सवाल लेखन द्वारा प्रस्तुत करने से संबंधित है।

आप जब किताबों में जादू और तिलस्म पढ़ने की ख्वाहिश रखते हैं तो अनायास ही जे.के रोलिंग का नाम जादुई झाड़ू पर सवार आपके दिमाग के इर्द-गिर्द घूमने लगता है। उसी प्रकार चेतन भगत युवा वर्ग और नए दौर के लेखन का परिचायक बन चुके हैं क्योंकि इन्होंने इस तरह के ही लेखन द्वारा खुद को प्रस्तुत किया है।

अनकहा केवल कनक जी के लघुकथा लेखन का ही परिचायक नही है बल्कि उनके द्वारा सोशल साइट्स की हर बहस-मुबाहिसा में भी स्वंय को अनकहा ही रखना खुद के शालीन प्रस्तुतिकरण का स्थापन है।

इस लघुकथा संग्रह के बारे में मधुदीप सर की लिखी इन पंक्तियां से भी मैं इतेफाक रखता हूँ,

'इन लघुकथाओं को पढ़कर हम विधा(लघुकथा विधा) की ताकत को सहज ही समझ सकते हैं।'

'कितना-कुछ अनकहा' शीर्षक लेखिका की लघुकथाओं का ही नही वरन् लेखिका के व्यक्तित्व का भी प्रतिनिधित्व कर रहा है और शीर्षक के ऐन नीचे बना चित्र भी खुद का अनकहा ही व्यक्त कर रहा है।

 चित्र में पति-पत्नी-बच्चे के सामाजिक त्रिकोण के बीच में फंसी लाल बिंदी के बहते आंसू एवं गुबार उस त्रिकोण की सीमा रेखा को लांघते साफ दिख रहे हैं।

 पढ़ते-पढ़ते

दो दुश्मन देशों के राष्ट्राध्यक्ष शतरंज खेल रहे हैं (अनकहा) लेकिन लघुकथा में यह कहीं नही लिखा गया कि वे दोनों राष्ट्राध्यक्ष हैं या फिर दुश्मन देशों के हैं। यह काबिले रश्क अंदाजे बयाँ हैं कनक जी का।

इस लघुकथा के दो सबसे छोटे संवाद जब आप पढ़ते हो।

"हाँ, तो तुम क्या लोगे?"

"जो तुम ले रहे हो।"

लगता है कि बात तो हो रही है शराब की लेकिन मन में कहीं बजता है मानों दो देशों के बीच किसी विवादास्पद क्षेत्र या प्रदेश को हड़पने, कब्जा कर बैठने का तंज मारा जा रहा है। (अनकहा)

इन दोनों संवादों से पहले वाले संवाद भी अपरोक्ष रूप से हमेशा चलने वाली सैनिक झड़पों का ही इशारा दे रहे हैं।

एक बढ़िया कथ्य //बाजी फिर उलझ गई।//  पर लघुकथा खत्म करके लेखिका प्रस्तुत कर सकती थी लेकिन पता नही किस प्रभाव से अंत में जबरन अस्वाभाविकता जोड़ दी गई है।

//पर तभी अचानक... खड़े-खड़े देखते रह गए// इन पंक्तियों से लघुकथा में अप्रभावी कथ्य एवं अस्वाभाविकता का जन्म हो रहा है।

यह पंक्तियां पढ़कर मुझे लगा जैसे एक बेहतरीन शिल्प और कथ्य को बलपूर्वक खत्म कर दिया गया।

मुझे इस संग्रह की समीक्षा से अलग सिर्फ इस लघुकथा की समीक्षा करने के लिए इन्हीं बेज़ा अंतिम पंक्तियों ने मजबूर किया है।

इस लघुकथा का कथानक एवं शीर्षक चयन इतना मौजूं है कि आप इसे कनक जी के इस संग्रह की (कितना-कुछ अनकहा) प्रतिनिधि लघुकथा कह सकते हैं ।

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भाग-2

120 पन्नों के संग्रह में कुल 87 लघुकथाएं हैं अब मैं अगर संग्रह 29 लघुकथाओं को भागों में विभक्त करके पहले भाग की 29 लघुकथाओं में से चुनिंदा बेहतरीन एवं कमजोर लघुकथाओं की बात रखूंगा और मैं कोशिश करूँगा की मेरा यह प्रयास पाठकों के लिए नीरस साबित न हो। अगर आपने कनक जी को पहले पढ़ा है तो जानते होंगे की इन के लघुकथा रूपी कमरे में से एन वही वस्तु गायब कर दी जाती है जिसकी तलाश में पाठक उस कमरे में मौजूद होता है और उसी चीज को ढूंढने के लिए पाठक पुनः पुनः उस लघुकथा रूपी कमरे में अपनी हाजिरी दर्ज करवाता रहता है।

लेखिका के इसी हस्ताक्षर लेखन की बानगी है संग्रह की प्रथम लघुकथा 'प्यास'। मुझे यकीन है की पाठक इस बेहतरीन शिल्प से कसी लघुकथा पर नायिका की प्यास समझने के लिए कई बार दस्तक देंगे।

'घुटन' शीर्षक वाली लघुकथा के किरदार ऑटोरिक्शा चालक को मैं आज की आपाधापी से भरी स्वार्थी जिंदगी का अविष्कार मानता हूं। आज किसीके पास खुद के परिवार के लिए वक्त नही है और ऐसे दौर में एक ऑटो रिक्शा चालक यह उम्मीद रखता है कि कोई जिंदा इंसान उसके बेटे की मौत के बाबत उससे पूछे या उसका दर्द सुनें... मैं यकीन दिलाता हूं कि आप इस लघुकथा का अंत पढ़ते हुए खुद को कहीं न कहीं जरूर जोड़ लोगे, याद आने लगेगा कि कब आपने आईने, दीवार, पेड़ या किसी जानवर के सामने अपना ग़ुबार बाहर निकाला था ताकि अंदर की घुटन से मुक्ति मिल सके।

'भीड़' 'जंगली' और 'बंद ताले' लघुकथाएं अच्छी बन पड़ी हैं। बालमन केंद्रित लघुकथायें 'भूख' और 'सुख' ने मुझे विशेष आकर्षित किया है अगर आप संवेदनशील हैं तो इन दो लघुकथाओं को पढने से पहले अपने भीतर निर्दयता का मुलम्मा जरूर चढ़ाइए।

'राह' 'रंगीन मौसम' 'प्रतिदान' अपेक्षाकृत कमजोर लघुकथाएं हैं। 'राह' के कथानक एवं कथ्य की मांग भावनात्मक प्रस्तुतिकरण की थी जबकि यह लघुकथा किसी 'बालकथा' की मानिंद प्रस्तुत कर दी गई है। 'रंगीन मौसम' हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे के पुराने कथ्य पर लॉक डाउन वाले कथानक का तड़का लगाने का प्रयास है लेकिन प्रस्तुतिकरण प्रभावहीन है या फिर लेखन वह अहसास नही पैदा कर पाया जिसकी दरकार थी।

'प्रतिदान' रावण महिमामंडन एवं यशोधरा त्याग वाले सामाजिक बहस-मुबाहिसे के ट्रेंड वाले दौर की कृति है जिसे आप हिस्टोरिकल फिक्शन के तौर पर पढ़ सकते हैं लेकिन अब यशोधरा-बुद्ध वैचारिक अलगाव वाला कथ्य ऊब और खीज का ही निर्माण करता है।

'अनकही' सरल-सहज कथानक वाली संजीदा लघुकथा है लेकिन इसमें जिस तरह कथ्य को प्रस्तुत किया गया है वह काबिले-तारीफ है।

'कीचड़' कथा है इस दौर में भी भीतर तक पेवस्त असमानता एवं भेदभाव के कीचड़ की, संदेश एवं प्रस्तुतिकरण मुखर होने के बावजूद मुझे यह लघुकथा मंजिल तक पंहुचने से कुछ पहले ही दम तोड़ती महसूस हुई क्योंकि इसमें स्त्री विद्रोह वाले स्वर को हीन रखा गया है और मुखिया के किरदार को अधिक प्रबलता से प्रस्तुत किया गया है।

'कठपुतलियां' लघुकथा की विस्तृत समीक्षा मैं पिछली पोस्ट में कर चुका हूं।

'वापसी' लघुकथा में शहर का प्रतिनिधित्व करती सड़क और गांव को दर्शाती पगडंडी का वार्तालाप उतना ही दिलचस्प है जितना किसी महिला के लिए सास-बहू का विवाद। इस लघुकथा का शिल्प और शीर्षक रचनाकार के लेखन/साहित्य स्तर का अलिखित प्रमाणपत्र है।

'गरीब' लघुकथा के उम्दा अंदाजे-बयाँ एवं बढ़िया कथानक चयन के मुकाबले चौंक अथवा पंचलाइन प्रभावहीन महसूस हुई ।

'दरकन' लघुकथा घरेलू महिला की दरक रही हसरतों का रोजनामचा है। एक बेजोड़ रचनाकर्म जिसे नवोदित लघुकथाकारों को सिलेबस की तरह पढना चाहिए ।

'कामचोर' इस लघुकथा की गैरजरूरी अंतिम पंक्ति //कामचोर का काम...हो चुका था// हटा दी जानी चाहिए। यह लघुकथा आज के दौर में भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी कि भूख।

मैं 'बोन्साई' लघुकथा का विस्तृत विवेचन करना चाहूंगा। (नीचे दिए चित्र में लघुकथा पढ़ सकते हैं।)

लघुकथा में मुख्य किरदार के पति की तेरहवीं है और उसका 63 साल का गुज़श्ता दांपत्य जीवन उसकी आंखों के आगे कुछ इस तरह नमूदार है मानों किसी वृक्ष के विकास को शैशवकाल से ही उसकी जड़ों को बांधकर एवं शीर्ष पर दबाव डालकर अवरुद्ध कर दिया गया हो।

जिसे अपनी शाखाएं फैलाने की उतनी ही आजादी है जितनी वृक्ष को 'बोन्साई' बनाने वाला देना चाहता है।

इस लघुकथा का शीर्षक इसके कथ्य का मिनिएचर है।

इस लघुकथा में एक भी शब्द कम करने की गुंजाइश नही है जो भी विन्यास रचा गया है बेहद जरूरी है।

इस लघुकथा की पंचलाइन //बेटा, आप लोग जैसा...कैसे करना चाहते...!// बीते 63 साल का निचोड़ कहने में सक्षम है।

यह कनक जी की लिखी बेहतरीन रचनाओं में अपने उम्दा शिल्प के कारण ली जा सकती है। 

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भाग-3

कुछ लघुकथाएं होती है जिनकी विवेचना आप तत्काल करके फ़ारिग नही हो सकते क्योंकि ऐसी लघुकथाएं आपको विमर्श की राह पर बनाये रखती हैं और बार-बार पढ़ने के लिए उद्वेलित करती हैं। इस संग्रह की चुनींदा लघुकथाएं इसीप्रकार की विशेषता रखती हैं।

जैसे. कठपुतलियां, बोन्साई, असूर्यम्पश्या, प्राण-प्रतिष्ठा, समय सीमा, खबर, मिट्टी, कैरियर, गूंज और भेड़िया आया।

यदि आप इस संग्रह की शुरुआती तीस लघुकथाएं पढ़ने के बाद यह कहते हुए किताब रख देंगे कि 'भाई! हर संग्रह की शुरुआती चंद रचनाएँ ही बेहतर होती हैं।' तो यक़ीन मानिए आप लघुकथा विधा की खूबसूरती का बयान करती हुई कई शानदार लघुकथाओं को पढ़ने से वंचित रह जाओगे।

'बोन्साई' लघुकथा की मैं मुकम्मल समीक्षा पिछले भाग में कर ही चुका हूं।

कठोर कांक्रीट से बने शहर के फ्लैट में अपने गांव के घर-खेत की मिट्टी तलाशते बुजुर्ग और उनके पोते की व्यथाकथा है 'बालकनी'।

समझौतों की मौली बांधती हुई उम्दा संवादात्मक लघुकथा है 'सगाई की अंगूठी'।

'चलो पार्टी करें' 'चौकीदार' 'ख्वाहिशें' अगर लेखिका के लेखन स्तर के मुकाबले कमजोर लघुकथाएं है तो 'मौसम' और 'अलग-अलग जाड़ा' अपने प्रस्तुतिकरण की वजह से औसत लघुकथाएं मालूम पड़ती हैं।

उम्रभर घर-संसार में बंधी गृहणी को अपने जीवन के सांयकाल में विदेश जाने का निमंत्रण पत्र मिलता है, उसकी इसी दुविधा को दर्शाती हुई लघुकथा 'खुला आकाश' का कथ्य मुझे 'बोन्साई' का कैरिकेचर प्रतीत हुआ।

बढ़िया शीर्षक और संदेश वाली लघुकथा है 'ऑक्सीजन' । शिक्षा से बदलाव की हवा पैदा करती हुई नई पीढ़ी अब अपने अनपढ़ मां-बाप को भी साफ हवा और साफ खाने का महत्व समझाने लगी है।

'जरूरी सामान' लघुकथा बुजुर्गों की मसरूफियत की कथा है इसका प्रस्तुतिकरण एवं कथ्य तो बढ़िया है ही साथ ही शीर्षक चयन भी बेमिसाल है। 

'बदलते सुर' बेटे द्वारा अपनी जिंदगी के संतुलन को ठीक करने के लिए माँ पर आजमाई हुई एक तरकीब की कथा है, निःसंदेह! आम पाठक को यह लघुकथा जरूर पसंद आएगी। 

'असूर्यम्पश्या' में अगर प्रतीकात्मकता द्वारा लेखिका ने सफलतापूर्वक बंदिनी/महिला का दर्द प्रस्तुत किया है तो 'रफ कॉपी' के जरिये से महिला की शादीशुदा जिंदगी का विश्लेषण भी उसी निर्ममता से किया है।

'प्राण-प्रतिष्ठा' 'निशानदेही' और 'रोशनी' मुझे कमजोर लघुकथाएं लगी जिन्हें कसा जाना चाहिए अथवा उनके अंत पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए।

'शहादत' अगर एक बच्चे की युद्ध विभीषिका पर प्रकट जिज्ञासा का मौन जवाब है तो 'सड़क और पुल' चुनावी नारों का कानफाड़ू शोर । 'अनुदान' साहब के घरेलू नौकरों और बाहर के गरीबों का फर्क समझाती हुई शानदार लघुकथा है।

"तो अम्मा, युद्ध के कारण छह-सात दिनों से हमें खाना नहीं मिल रहा है, अगर हम भी भूख और प्यास से मर जाएंगे तो क्या हम भी शहीद ही कहलाएंगे?"

'शहादत' लघुकथा में बच्चे के मुंह से निकला हुआ यह प्रश्न अगर युद्ध से नफ़रत करने पर मजबूर न कर दे तो यकीनन अब हम इंसानों को शहादत के मायने बदलने पड़ेंगे।

'रोशनी' घिसे-पीटे कथ्य एवं कथानक वाली लघुकथा है जिसके प्रस्तुतिकरण में भी कोई नयापन नही है।

 इस भाग में मैं मुकम्मल विवेचना हेतु, कनक जी की वैचारिक रूप से कमजोर लघुकथा 'प्रतिफलन' लेने की जुर्रत करूँगा। (सलंग्न चित्र में यह लघुकथा पढ़ी जा सकती है)

हमारे देश में कई विचारों के साथ एक विचार यह भी प्रसिद्ध है कि कॉन्वेंट स्कूल धीरे-धीरे बच्चों को पश्चिमी सभ्यता एवं ईसाइयत की ओर अग्रसर करते हैं और इसी विचार को समर्थित करती लघुकथा है 'प्रतिफलन'।

इसतरह के किसी भी अतार्किक विचार का समर्थन करती रचना अपने आप में ही एक कमजोर रचना होकर रह जाती है बिल्कुल वैसे ही जैसे आप सैटेलाइट और रॉकेट के इस दौर में भी पृथ्वी के चपटी होने के विचार का समर्थन करती कोई रचना लिख दो।

आज भारत के करोड़ों बच्चे कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ते हैं, उसमें से कितने प्रतिशत ईसाई बन जाते हैं या चर्च में जाने लगते हैं और मारिया से शादी कर लेते हैं ?

अगर इतिहास और फैक्ट्स की बात की जाए तो भारत के अशिक्षा उन्मूलन कार्य में सबसे बड़ा योगदान इन्हीं कान्वेंट स्कूलों का रहा है बाकी बात रही बच्चों के पश्चिमी सभ्यता उन्मुख होने की तो सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले या फिर झोपड़पट्टी में रहने वाले अशिक्षित किशोर तक पश्चिमी सभ्यता की नकल करने लगे हैं तो इसे इस तरह तो कतई नही ले सकते कि कान्वेंट की वजह से पश्चिमी सभ्यता का प्रचार प्रसार हो रहा है।

भारत में कई युवा हैं जो चर्च, दरगाह, गुरुद्वारा और मंदिर जाना पसंद करते है और हर प्रकार के धार्मिक स्थल का इतिहास जानना चाहते हैं । विविधता में एकता विचार वाले इस देश में इस तरह के एकतरफा एवं एकधर्मी विचार पर लघुकथा लिखना कतई सराहनीय नही हो सकता।

अब क्योंकि मूल विचार ही कमजोर है तो मैं शीर्षक, शिल्प, कथ्य इत्यादि लघुकथा के बाकी अंगों के बारे में नही लिखूंगा।

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भाग-4 (अंतिम)

जिन पाठकों ने इस पुस्तक समीक्षा के पिछले तीनों भाग पढ़े हैं, वे इतना तो समझ ही चुके होंगे कि यह पुस्तक अपनी छपी कीमत के मुकाबले पाठक को बेहतर साहित्य मुहैया करवा रही है।

जनसेवा से शुरू हुई आजाद भारत की राजनीति आज निजी स्वार्थ को पूरा करने के लिए किन कुटिलताओं से गुजरती है! यह समझाती हुई लघुकथा 'गहरे पानी पैठ' अपने व्यंग्यात्मक संवादों की वजह से दिलचस्प तो है ही लेकिन उतनी ही प्रखर भी है और यह साबित करती है इस लघुकथा की समापन पंक्ति 'मंत्री जी के ख्याल गहरे पानी के स्वीमिंगपूल में तैर रहे थे।'

कुछ रचनाएँ समझाई नहीं जा सकती बल्कि वह मासूम प्रेम की तरह सिर्फ महसूस की जा सकती हैं और 'गीतांजलि' लघुकथा ऐसी ही रचनाओं में शामिल है। यह लघुकथा रवींद्रनाथ टैगौर को आदरांजलि देती प्रतीत होती है।

मैंने 'प्रतिफलन' लघुकथा की जिस मुखरता से आलोचना की थी आज उसी मुखरता से 'नक्शे कदम' लघुकथा की तारीफ करना चाहूंगा। एक मशहूर खेल को कथानक में लेकर जिस तरह भारत के अनेकता में एकता वाले विचार को कथ्य में निरूपित किया है उसके लिए लेखिका को मेरी ओर से एक सलाम!

'खो गई छाँव' मेरे जैसे प्रकृति प्रेमी के लिए एक डरावनी लघुकथा है लेकिन प्रकृति का विनाश रोकने के लिए साहित्य द्वारा यह डर प्रस्तुत करते रहना भी उतना ही जरूरी भी है।

 'क्लासिक' एक कमजोर संदेश देती हुई अलग-सी लघुकथा है। प्रस्तुतिकरण की शैली इसे अपनी तरह की दूसरी लघुकथाओं से अलग कर रही है।

 'गुणवत्ता' लघुकथा में 'नक्शे कदम' की भांति एक मशहूर खेल को कथानक में लेकर राजनीति की सत्तालोलुपता का कथ्य तरीके एवं सलीके से प्रस्तुत किया गया है।

'अंदर...बाहर...' लघुकथा बनावटी जिंदगी एवं दिखावटी प्रेम का दस्तावेज है जिसके अंत में प्रस्तुत निजता भी एक स्वार्थ अथवा छलावा है।

'दोषी कौन' और 'बरसती आंखे' मुझे सन्देशहीनता की वजह से विशेष प्रभावित नहीं कर पाई।

 'मिट्टी' आज के संवेदनहीन समाज का ब्लड टेस्ट करती एक मार्मिक लघुकथा है। साधारण कथ्य की अलहदा प्रस्तुति है लघुकथा 'कैरियर' ।

'कैक्टस के फूल' आधुनिक समस्याओं का भावनात्मक निवारण प्रस्तुत करती शानदार लघुकथा है।

'नया इंकलाब' लघुकथा का निर्वहन ठीक से नहीं हुआ है। / / उस शाम गड़रियों ने भेड़ों के माँस की शानदार दावत की। / / यह पंक्ति कुछ अजीब-सी लगी। मानवेत्तर अथवा प्रतीकात्मक लघुकथाओं की भी अपनी कुछ स्वभाविकताएँ एवं अस्वभाविकताएँ होती है।

'दुर्गा अष्टमी' और 'जीवन स्त्रोत' के कथ्य, कथानक पुराने होने के बावजूद लघुकथाओं की बुनावट अच्छी है।

मेरे नजरिये से 'बड़ा कौन' एक औसत लघुकथा है क्योंकि इसका कथ्य कहता है कि रचयिता ही अपनी रचना के साथ अन्यायपूर्ण रवैया अपनाता है। वह क्षमाशील नहीं है और वह निर्दोष, मासूमों या अहंकारियों में कोई फर्क न करते हुए दावानल की भांति अंधा न्याय करता है।

स्त्री व्यथा की बानगी 'चुटकीभर सिंदूर' अगर औसत लघुकथा है तो 'खबर' उतनी ही सशक्त एवं मार्मिक प्रस्तुति है।

 'आवरण' लघुकथा बरबस ही वरिष्ठ साहित्यकार कीर्तिशेष मधुदीप गुप्ता सर की याद दिला देती है।

'अधूरा सच' का निर्वहन एकतरफा है। हर आंदोलन के दो पहलू होते हैं अगर यह ध्यान में रखकर लिखा जाता तो लघुकथा बेहतरीन में शुमार होती।

'जनानी जात' लघुकथा पढ़कर मुझे गर्व की अनुभूति होती है कि मुझे कनक जी जैसी सशक्त लेखनी का सान्निध्य प्राप्त है। आप यह लघुकथा पढ़कर समझ सकते हो कि घिसे-पिटे कथ्य के प्रस्तुतिकरण में नवीनता क्या कमाल कर जाती है!

 'गूंज' लघुकथा वाकई अपने अंदर आदिवासी लड़की के थप्पड़ की गूंज लिए हुए है। 'परिवर्तन' लघुकथा में खरगोश की पीठ पर चढ़ा कछुआ सशक्त संदेश दे रहा है। 'उड़ान' लघुकथा आपको खुले आकाश और बाबू की हवेली की छत वाली आजादी का अंतर समझा देगी।

 'आँचल' लघुकथा आधुनिक जीवन शैली एवं नए प्रचलनों पर यक्षप्रश्न खड़ा करने में सक्षम साबित हुई है। यकीन मानिए 'ठंडी हवा का झोंका' आपके मन को भिगो देगा।

 'इनसोर' लघुकथा, व्यवस्था, समाज और उनके द्वारा बनाये इन्शुरन्स तक गरीब की पहुँच का असल चिट्ठा खोलती है। मैं अगर इस लघुकथा का किरदार 'मैनेजर साहब' होता तो एकबारगी कह उठता "स्साला! यह मजदूर सवाल बहुत पूछता है!" लेकिन सच यह है कि इस लघुकथा ने इन्शुरन्स क्लेम में गरीब की भागीदारी पर सवाल तो खड़ा कर ही दिया है।

अब अगर मुझसे पूछा जाए कि इस लघुकथा संग्रह के परिप्रेक्ष्य में आप लेखिका को किस नजरिये से देखते हो? ...तो मेरा जवाब बेहद साफ और स्पष्ट होगा कि आप यदि नवीन विषयों पर पढ़ना पसंद करते हो और आप को आधुनिक युग के जमीन से जुड़े हुए किरदार पढ़ने है तो जरूर 'कनक हरलालका जी' को पढ़िए।

मैं विस्तार में जाने से बच रहा हूँ फिर भी मुझे 'इनसोर' का सवाल पूछता हुआ मजदूर और 'घुटन' का फफक-फफककर रोता हुआ ऑटोरिक्शा ड्राइवर कहीं मेरे आसपास के ही किरदार लगते हैं।

एक अच्छी पुस्तक और उसके रचनाकार का जरूर सम्मान होना चाहिए और 'कितना-कुछ अनकहा' लघुकथा संग्रह एवं इसकी लेखिका 'कनक हरलालका जी' इस सम्मान की पूरी तरह हकदार हैं।

धन्यवाद,

- अनिल मकारिया

बुधवार, 10 नवंबर 2021

वरिष्ठ लघुकथाकार श्री योगराज प्रभाकर द्वारा अशोक लव जी के लघुकथा संग्रह की समीक्षा

 तीन सौ साठ डिग्री विश्लेषण करती लघुकथाओं का संग्रह: 'एकांतवास में ज़िंदगी'


लघुकथा आज लोकप्रियता की बुलंदियों को छूने का प्रयास कर रही है। उसे इस स्थान तक पहुँचाने का श्रेय जिन मनीषियों को जाता है, अशोक लव का नाम भी उनमें शामिल है। आज की लघुकथाएँ काफ़ी सीमा तक आदमी के जीवन में का प्रतिनिधित्त्व कर रही हैं। यही कारण है कि लघुकथा जीवन से सीधे जुड़ी हुई है। इसमें जीवन के किसी एक तथ्य को अपनी संपूर्ण संप्रेषणता के साथ उभारा जाता है। जिसका जितना अधिक अनुभव होगा, जितनी अधिक व्यापक दृष्टि होगी, समझ जितनी अधिक विस्तृत होगी, चिंतन-मनन जितना अधिक स्पष्ट होगा तथा शब्दार्थ और वाक्य विधान का जो मितव्ययी एवं निपुण साधक होगा वह उतनी सटीक लघुकथा रच सकता है।

 आज पूरा विश्व एक भयानक महामारी की चपेट में हैं। यह महामारी प्राकृतिक है या मानव-निर्मित, इसका पता तो शायद ही कभी चल पाए। लेकिन इसके चलते उद्योग, व्यापार और रोज़गार की स्थिति बद-से-बदतर हुई। लगता है कि सब कुछ थम-सा गया है। भयंकर आर्थिक मंदी मुँह बाये खड़ी है, यह किस-किस देश की अर्थव्यवस्था को ध्वस्त करेगी, इसका उत्तर तो भविष्य के गर्भ में ही छुपा है। यह स्थिति हमारे देश की लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था की सेहत के लिए क़तई लाभकारी नहीं है।संभवत: द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद इस महामारी में सब से अधिक लोगों ने अपनी जान गँवाई है। विद्वानों के मतानुसार हर काल का साहित्य उस युग की सामाजिक-सांस्कृतिक, राजनैतिक वैधानिक और आर्थिक स्थितियों-परिस्थितियों से निर्लिप्त नहीं रहा है। साहित्य ने युग का प्रतिनिधित्त्व किया है या उसे प्रतिबिंबित, काल-संसर्ग सदैव अपेक्षित प्रभावी रहे हैं- किसी भी विधा के स्वरूप निर्धारण, अपितु यहाँ तक कि उसके अस्तित्त्वनिरूपण में भी युग की महती भूमिका रही है।

वस्तुत: किसी विषय विशेष पर एक पूरा एकल संग्रह तैयार करना जहाँ चुनौतीपूर्ण है वही एक जोखिमभरा कार्य भी है। क्योंकि विविधता का अभाव प्राय: एकरसता और ऊब पैदा कर देता है। किंतु 'एकांतवास में ज़िंदगी' के साथ बिल्कुल नहीं है। इसकी साठ लघुकथाएँ कम-से-कम पचास अलग-अलग विषयों पर आधारित हैं। विषय भी ऐसे जो घर में क़ैद आमजन की व्यथा से लेकर अंतरराष्ट्रीय चिंतन तक को अपने अंदर समोए हुए हैं। इस संग्रह की रचनाओं से गुज़रते हुए मैंने पाया कि अशोक लव सरीखा समर्थ व अनुभवी रचनाकार ही किसी समस्या का तीन सौ साथ डिग्री विश्लेषण करके ही किसी एकल विषय पर भी अद्वितीय प्रस्तुति दे सकता है।

 अशोक लव स्वयं एक प्रखर भाषाविद हैं जो हिंदी व्याकरण पर अनेक ग्रंथ रच चुके हैं। एक सामान्य पाठक लघुकथा के लघु आकार के कारण लघुकथा की ओर आकर्षित होता है, किंतु मेरा मानना है कि लघु अकार के अलावा जो बात पाठकों को अपनी ओर खींचती है, वह है- लघुकथा की आम-फहम भाषा। स्व० जगदीश कश्यप ने कहा था कि अच्छा लेखक वही है जिसे क्लिष्ट शब्दों से परिचय हो परंतु सरल शब्दों में अभिव्यक्ति दे। भाषा-प्रयोग के बारे में प्रेमचंद की लोकप्रियता सर्वविदित है जबकि जयशंकर प्रसाद इसी शुद्ध भाषा प्रयोग के कारण कहानी में उतने सफल नहीं हो सके जितने कि प्रेमचंद। प्रेमचंद ने आम आदमी की भाषा को प्रतिष्ठित किया। ठीक यही बात लघुकथा में लानी चाहिए। आप देखेंगे कि अशोक लव की भाषा एकदम सरल, आमफ़हम, आडम्बरहीन एवं बोलचाल की है, जो आम आदमी को स्वीकार्य हैं। सोद्देश्यता इनकी लघुकथाओं की विशेषता है, साथ ही इसमें शिल्पगत, कथ्यगत, विचारगत, शाब्दिक, भाषिक एवं संवेदनात्मक-गंभीरता, गहनता, तीक्ष्णता, शब्द मितव्ययिता, कलात्मकता कूट-कूटकर भरी हुई है। यही कारण है कि इनकी लघुकथाएँ अत्यंत कम शब्दों में ही अन्तःकरण को झकझोरकर उन्हें मानवीय तथ्यों के प्रति सोचने को बाध्य कर देती हैं। इनकी लघुकथाएँ लघुकथा के मानदंड का पालन करती हैं। इन लघुकथाओं में लघुकथा की प्रत्येक हर कसौटी लघुता, तीक्ष्णता, लाक्षणिकता, प्रतीकात्मकता, कलात्मकता, गहनता और व्यंजना आदि का भली-भाँति निर्वाह किया है, जिसका कथ्य अत्यंत आधुनिक एवं यथार्थपूर्ण है। भाव और शिल्प प्रभावोत्पादक है।

यूँ तो इस संग्रह में एक से बढ़कर एक लघुकथाएँ संग्रहीत हैं; किंतु यहाँ केवल उन लघुकथाओं का उल्लेख करना ही समीचीन होगा जिनका क़द बाकियों से बुलंद है। ‘बड़- बड़ दादी’ कोरोना के चलते लोगों के बदलते हुए स्वभाव की बहुत ही प्यारी-सी बानगी जिसमें हर समय बड-बड करने वाली बूढ़ी दादी अपना कठोर स्वभाव त्यागकर हनुमान चालीसा पढ़ने लगती है। ‘मेरे शहर के बच्चे’ एक अन्य उत्कृष्ट लघुकथा है। जो कोरोना के चलते उद्दंड बच्चों के स्वभाव बदलने और परिवार के एकजुट होने की कथा है। इसी प्रकार ‘आशाएँ’ में लॉकडाउन के चलते समाचारों में मौत की ख़बरें सुन-सुनकर रीतिका के पति सुधीर के ठहाके बंद हो जाते हैं। उपर्युक्त तीनों लघुकथाएँ यथार्थ का सटीक और अर्थगर्भित चित्रण हैं। ‘स्वप्नों पर ग्रहण’ एक भावपूर्ण और मार्मिक लघुकथा है जिसमें कोरोना भयग्रस्त दंपती एक की मृत्यु की सूरत में दूसरे को शादी करने की सलाह देते। ऐसी परिस्थिति किसी का भी दिल चीरने में सक्षम हैं। इसी तरह की एक और लघुकथा ‘स्व-आहुति’ कोरोना महासंकट ने किस तरह आम जनमानस की सोच को प्रभित किया कैसे उनमें असुरक्षा की भावना पैदा की, इसका साक्षात्कार इस रचना में होता है। इस रचना की नायिका रश्मि अपने पति को बाज़ार जाने से रोकती है, और स्वयं सब्ज़ी लेने चलती जाती है। दिमाग़ में यही चल रहा है कि ‘अगर उनको कुछ हो गया तो? यह मानवीय संबंधों की ऊँचाई की पराकाष्ठ नहीं तो और क्या है? कुछ ऐसा ही ‘उपचार’ में देखने को मिलता है जिसमें कोरोना पर इलाज के ख़र्चे की बात सुनकर पति-पत्नी अपनी पति को हिदायत देता है कि यदि वह कोरोनाग्रस्त हो जाए तो उसका इतना महँगा उपचार मत करवाना और वही पैसा भविष्य के लिए अपने लिए रख लेना। ‘और क्या जीना’ में वृद्धों की संवेदनशीलता के दर्शन होते हैं। इस लघुकथा में एक वृद्ध पत्नी एक युवा को संक्रमण से सुरक्षित रखने के लिए अपने पति को बाज़ार भेजने का निर्णय लेती है। इस संग्रह की एक सार्थक लघुकथा है ‘और अलमारी खुली’- लॉकडाउन के चलते अवसाद से बाहर निकालने में पुस्तकें किस प्रकार सहायक हो सकती है, इस लघुकथा में यह संदेश दिया गया है।

हर रचनाकार का कर्तव्य है कि वह अपने अपनी संस्कृति पर गर्व करें और अपने समाज के मूल्यों को अक्षुण रखने का प्रयास करें। अशोक लव को भी अपनी संस्कृति पर गर्व है। जिसकी बानगी उनकी बहुत-सी लघुकथाओं में देखने को मिलेगी। लेकिन यहाँ दो-तीन अति-महत्त्पूर्ण लघुकथाओं का उल्लेख करना ही समीचीन होगा। पहली लघुकथा है ‘संकटमोचन’ इसमें एक महिला की मौत पर उसके सगे संबंधियों ने भी आने समाना कर दिया। लेकिन पड़ोसियों ने पड़ोसी-धर्म क पालन करते हुए उसे सहारा दिया और उसके अंतिम संस्कार में मदद की। यह लघुकथा यथार्थ का सफल चित्रण है। इसके विपरीत ‘कूड़ा बन जाना’ एक तथाकथित विकसित देश की कहानी है जहाँ घरों के आगे ताबूत पड़े हैं, उनको लेने वाला कोई नहीं। परिवारजनों का अपने परिजनों की मृत देहों को लेने से इनकार करना और नगरपालिका द्वारा लावारिसों की तरह उनका अंतिम संस्कार करना दो सभ्यताओं का तुलनात्मक विश्लेषण है। इसी की अगली कड़ी है, ‘न लकड़ी न अग्नि’। यह लघुकथा एक तीर से कई-कई निशाने लगाने में सफल हुई है। इस लघुकथा में अंतिम संस्कार के भारी ख़र्चा के बारे में जानकर लोगों द्वारा अपने मृत परिवारजनों का अंतिम संस्कार नदी किनारे रेत में दबाकर करने की बात हुई है। हम यह भी पढ़ सुन चुके हैं कि सैकड़ों लोग अपने परिजनों की लाशें नदी में बहाने पर भी विवश हुए जोकि स्वाभाविक है कि बेहद दुखद है, किंतु ऐसी विपरीत परिस्थितियों के बावजूद भी विकसित पश्चिमी राष्ट्रों की तरह अपने परिजनों को लावारिस नहीं छोड़ा।

 भारतीय संस्कृति में दया और दान का बहुत महत्त्व है। ‘मात्र रूपा’ इसी विचारधारा का प्रतिनिधित्त्व करती है। जहाँ लॉकडाउन के चलते बंगाल से आए और नॉएडा में फँसे एक परिवार दयाभाव दिखाए हुए एक घर में आश्रय दे-दिया जाता है। इसका दूसरा उदाहरण है ‘भगवान् सुनते हैं’, यह सैकड़ों मील दूर पैदल अपने गाँव लौट रहे थके-हारे और भूखे-प्यासे प्रवासी श्रमिकों की गाथा है। लेकिन कुछ सिख लोग फ़रिश्ते बनकर वहाँ पहुँचते हैं और उन्हें खाना (लंगर) देते हैं। ‘श्रद्धा’ में लॉकडाउन के कारण भुखमरी की कगार तक पहुँचे एक कर्मकांडी पंडित को धनवंती अपने ससुर की बरसी के बहाने भोजन पहुँचाती है। दयाभाव के इससे बड़े उदाहरण और क्या हो सकते हैं?

 कोरोना विषय पर अनेक रचनाएँ मेरी दृष्टि से गुज़री हैं, किंतु वे डॉक्टरों की लापरवाही अथवा भ्रष्टाचार से आगे नहीं जा पाईं और कोई प्रभाव छोड़ने में असफल रहीं। किंतु अशोक लव ने इन कोरोना योद्धाओं का वह पक्ष उजागर किया है, किसे उजागर करना वांछित भी था और अनिवार्य भी। पहली लघुकथा है ‘पश्चाताप’, इसमें कोरोना योद्धा डॉक्टरों पर हुए हमले की कहानी है। जिसमें दिन-रात रोगियों का उपचार कर रहे लोगों की डॉक्टरों के प्रति असंवेदनशीलता को शब्दांकित किया गया है। कोरोना संक्रमितों की सहायता करने गए चिकित्सा दल पर कुछ सिरफिरे हमला कर देते है जिससे डॉ अवधेश घायल हो जाते हैं। हालाँकि हमला करने वाला युवक अंत में उस डॉक्टर से क्षमा भी माँग ल्रता है। ऐसी ही असंवेदनशीलता ‘निर्लज्ज’ में भी रेखांकित की गई है। इसमें रिहायशी सोसाइटी के लोग एक डॉक्टर दंपती पर ही सवाल उठा देते हैं कि क्योंकि वे हर समय कोरोना संक्रमितों के बीच रहते हैं इसलिए सोसाइटी को उनसे ख़तरा है। लेकिन इस लघुकथा का जुझारू डॉक्टर मल्होत्रा उनसे प्रतिप्रश्न करते हुए पूछता है कि हम डॉक्टर लोग तो दिन-रात लोगों की ज़िंदगियाँ बचने में लगे हुए हैं, पर हम पर उँगलियाँ उठाने वाले क्या कर रहे हैं? ‘जीवन स्पंदन’ भी एक बहुत ही भावपूर्ण लघुकथा है। इस में जीवन की आशा गँवा चुके रोगी में अचानक आए जीवन स्पंदन का बहुत ही सारगर्भित चित्रांकन किया गया है। इसमें न केवल रोगी के परिजन ही राहत की साँस लेते हैं बल्कि स्वयं डॉक्टर भी भी सतही भी वही होती है। यह रचना न केवल डॉक्टरों के बल्कि स्वयं लेखक के संवेदनशील व्यक्तित्त्व को भी उजागर करती है। ऐसा नहीं कि लेखक ने चिकित्सा क्षेत्र के नकारात्मक पक्ष पर क़लम न चलाई हो। ‘दो ईमानदार’ कोरोनाकाल में दवाइयों की ब्लैक मार्केटिंग करने वालों की ख़ूब ख़बर ली गई है। लेकिन यहाँ भी डॉक्टरों को भ्रष्टाचार में लिप्त न दिखाकर अशोक लव ने अपने नैतिक कर्तव्य का निर्वाह किया है।

मेरा मानना है कि अभिव्यंजना से अभिव्यक्ति तक का सफ़र जितना लंबा होगा, रचना उतनी ही परिपक्व व प्रभावोत्पादक होगी। क्योंकि किसी कृति को कलाकृति में परिवर्तित करने हेतु यह लंबा सफ़र अनिवार्य है। इसी अलोक में अब मैं बात करना चाहूँगा उन दो लघुकथाओं की जो अपनी बनावट बुनावट और कथानक के विलक्षण ट्रीटमेंट के कारण दीर्घजीवी सिद्ध होंगी। इन श्रेणी में सबसे पहले आती है ‘चलें गाँव’ यह लीक से हटकर एक बेहतरीन लघुकथा है। लॉकडाउन के करण बेकार हो चुके मज़दूर कुणाल के पास अपने गाँव लौट जाने के अलावा और कोई चारा नहीं। अब यहीं से उसके मन में द्वंद्व शुरू हो जाता है कि यदि तो वह कोरोना पीड़ित होकर शहर में ही मर गया तो उसकी लाश का क्या होगा। इससे बेहतर होगा कि वह अपने गाँव जाकर ही मरे। लेकिन फिर उसे अपने घर की ख़राब आर्थिक स्थिति का भी ध्यान आता है। वह जाने के लिए बस में बैठ जाता है। किंतु वह नहीं चाहता कि वह अपने घर वालों पर अतिरिक्त बोझ डाले क्योंकि शहर में कम-से-कम उसे एक समय का भोजन तो सरकार की ओर से उपलब्ध करवाया जा रहा है। किंतु इन सभी बातों के अलावा जो बात इस लघुकथा में अनकही है, वह है कुणाल का जुझारूपन और जीवत। अत: वह इस ऊहापोह को झटकर संघर्ष के इरादे से बस से उतर जाता है। क्योंकि वह घर वालों पर बोझ नहीं बनना चाहता है। वस्तुत: कुणाल ‘सलाम दिल्ली’ का नायक अशरफ़ ही है। केवल परिदृश्य बदला है, न तो परिस्थितियाँ ही बदली हैं और न ही कुणाल उर्फ़ अशरफ़ का संघर्ष और उनके अंदर का जुझारूपन। ऐसी लघुकथा को सौ-सौ सलाम!

 ‘असहाय न्यायालय’ को इस संग्रह का 'हासिल' कहना कोई अतिशयोक्ति न होगी। जिसकी हर पंक्ति सौ-सौ प्रश्नचिह्न खड़े करती है। इस लघुकथा की नायिका जो एक अधिवक्ता है, अपने भाई को अस्पताल में बेड न मिलने के कारण बहुत व्यथित है। उसे विश्वास था कि न्याय-व्यवस्था उसके भाई को बेड और ऑक्सीजन अवश्य उपलब्ध करवा देगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और दुर्भाग्य से उसके भाई की मृत्यु हो गई। वह निराशा में इसे अपनी पराजय मानती है। लेकिन माननीय न्यायाधीश कहते हैं कि- तुम नहीं हारी, हम हारें हैं, हमारा देश हारा है और व्यवस्थ हारी है। कोरोनाकाल में जो कुछ भी हुआ, यह पंक्ति सब कुछ बयान कर देती है। मुझे लगता है कि इस लघुकथा पर आधारित एक सफल टेलीफिल्म बन सकती है।

हिंदी-लघुकथा में सार्वभौमिकता का अभाव इस विधा की एक कमज़ोर कड़ी है। इसका एक कारण है लघुकथाकारों का अप-टू-डेट न होना और दूसरा अपने खोल से बाहर न निकलना। आचार्य जानकीवल्लभ शात्री ने कहा था कि आज के लघुकथाकारों क्या सभी साहित्यकारों को सबसे पहले अप-टू-डेट होना चाहिए। आज विश्व स्तर पर कितनी उथल-पथल मची हुई है। उस स्तर पर देखना चाहिए कि वहाँ के साहित्यकार कितने जागरूक या उत्तेजक, आग उगलते या बर्फ़ीले शब्दों में वाणी दे रहे हैं या उन बातों को लोगों के सामने प्रकट कर रहे हैं। यह देखना-पढ़ना चाहिए। दुनिया हर रोज़ बदल रही है। कल के मित्र राष्ट्र आज शत्रु बन रहे हैं और शत्रु राष्ट्र मित्र। और मज़े की बात यह है कि बाहर से शत्रु दिखने वाले राष्ट्र अपने-अपने स्वार्थ और लाभ के लिए ये आपस में हाथ मिलाने से भी गुरेज़ नहीं करते और अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्रों में भागीदार बनते हैं। केवल एक सचेत और अप-टू-डेट रचनाकार ही इन बातों की तह तक पहुँच सकता है। इस संदर्भ में 'चीनी फोबिया' एक अति-उत्तम लघुकथा है। यह रचना अमेरिका में रहने वाली अनुभूति और उसकी माँ के मध्य हुई फोन वार्ता पर आधारित है। यह रचना कोरोना फैलाने के चीनी षड्यंत्र से पर्दा उठाती है। अनुभूति की माँ को पूरा विश्वास है कि चीन अपने यहाँ हुई मौतों का सही आँकड़ा नहीं बता रहा। विश्व का निष्पक्ष मीडिया बता रहा है कि कोरोना वायरस चीन की वुहान प्रयोगशाला से निकला, यह बात भले ही अफ़वाह मान ली जाए लेकिन धुआँ कभी भी बे वजह नहीं उठता। वैसे इस चीनी षड्यंत्र को आज तक झुठलाया भी तो नहीं गया है। भारतवर्ष चीन के विरुद्ध कुछ भी करने में सक्षम नहीं, कम्युनिस्ट रूस भला चीन के विरुद्ध क्यों बोलेगा? अब ले देकर दुनिया को आशा है कि अमरीका इस मामले में कुछ-न-कुछ अवश्य करेगा। लेकिन पूरा विश्व जानता है कि वुहान लैब को अमरीकी फंडिंग थी। फिर भी अनुभूति की माँ को विश्वास है कि अमेरिका कुछ ज़रूर करेगा और यह बात उसको सुकून देती है। फोन पर अदिति का अपनी माँ को टोकते हुए कहना कि ऐसी बातें फोन पर नहीं किया करते, किस ओर इशारा कर रहा है? क्या अमेरिका को भी अपना पर्दाफ़ाश होने का डर सता रहा है? मुझे लगता है कि ऐसी सार्वभौमिक लघुकथाओं की आज बहुत आवश्यकता है।

 इस संग्रह की मेरी पसंदीदा एक अन्य सार्वभौमिक लघुकथा है, 'देश बचना चाहिए'। यह एक बिल्कुल ही नवीन विषय को लेकर रची गई लघुकथा है जिसमें कथानक की ट्रीटमेंट देखते ही बनती है। ऐसा कथानक शायद ही हिंदी-लघुकथा में इससे पहले कभी प्रयोग किया गया हो। इस लघुकथा के केंद्र में संभवत: संयुक्त राज्य अमेरिका के उपराष्ट्रप्ति व राष्ट्रपति हैं। दोनों के मध्य देशव्यापी लॉकडाउन हटाने के विषय में विचार-विमर्श चल रहा है। विमर्श किसी की लोकतांत्रिक व्यवस्था का अभिन्न अंग होता है। उपराष्ट्रप्ति लॉकडाउन हटाने के पक्ष में नहीं हैं क्योंकि इससे मौतों का आँकड़ा बढ़ने की आशंका है। जबकि राष्ट्रपति लॉकडाउन बढ़ाने के विरुद्ध हैं, उनका मत है कि इससे देश की अर्थव्यवस्था और भी चरमरा जाएगी। दोनों के तर्क अपने-अपने स्थान पर सही लगते हैं। लघुकथा अपनी स्वाभाविक गति से आगे बढ़ती है। उपराष्ट्रपति अपने राष्ट्राध्यक्ष के तर्क से सहमत हो जाते हैं और उन्हें सलाह देते हैं कि वे एक संदेश के माध्यम से लोगों को कोरोना से सुरक्षित रहने संबंधी दिशा-निर्देश दें। लोकतांत्रिक व्यवस्था की सुंदरता देखें कि राष्ट्रपति भी उपराष्ट्रपति के इस सुझाव से सहमत हो जाते हैं। अंत में राष्ट्रपति कहते हैं कि यह स्थिति किसी युद्ध से कम नहीं, यदि देश को बचने के लिए कुछ जानों का बलिदान करना भी पड़ा तो हम तैयार हैं क्योंकि हमें देश बचाना है। इस लघुकथा में भी उपराष्ट्रपति महोदय कोरोना वायरस के पीछे दुश्मन राष्ट्र के षड्यंत्र की ओर इशारा करते हैं। हमारे देश में जिस तरह बिना किसी पूर्वसूचना के लॉकडाउन लागू किया गया और बिना किसी तैयारी के हटाया गया, यह लघुकथा अप्रतयक्ष रूप से उस ओर भी इशारा करती है। कहते हैं कि एक लेखक भगवान की तरह होना चाहिए, जो अपनी रचना में मौजूद तो हो किंतु दिखाई नहीं दे। अशोक लव अपनी रचनाओं में कहते तो सब स्वयं हैं लेकिन बोलते उनके पात्र हैं। यह बात आज की पीढ़ी के लिए सीखने योग्य है। अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर अशोक लव का उच्च-स्तरीय ज्ञान और पैनी दृष्टि इस लघुकथा से परिलक्षित होती है। यदि इस स्तर की लघुकथाएँ हिंदी में लिखी जाने लगें तो हमारी लघुकथा भी विश्व की अन्य लघुकथाओं के साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर चलने में सक्षम हो जाएगी।

बलराम अग्रवाल के अनुसार लघुकथा किसी भी अर्थ में दनदनाती हुइ गोली नहीं है। यह इस प्रकार ‘सर्र’ से आपके सीने के निकट से कभी नहीं गुज़रेगी कि बदहवास से आप देखते ही रह जाएँ। पढ़ते-पढ़ते आप देखेंगे कि यह आपको झकझोर रही है। आपके ज़ेहन में कुछ बोल रही है - धीरे-धीरे आपको अहसास दिलाती है कि एक जंगल है आपके चारों ओर, और आप उसके बाहर निकल आने के लिए बेचैन हो उठते हैं। जंगल के बाहर निकल आने के समस्त निश्चयों-प्रयासों के दौरान लघुकथा आपको अपने सामने खड़ी दिखाई देती है- हर घड़ी-हर लम्हा। इस संग्रह की अधिकांश रचनाएँ उपर्युक्त कथन के निकष पर खरी उतरती हैं। इनकी लघुकथाएँ लघुकथा के मानदंड का पालन करती हैं। इन लघुकथाओं में लघुकथा की प्रत्येक हर कसौटी लघुता, तीक्ष्णता, लाक्षणिकता, प्रतीकात्मकता, कलात्मकता, गहनता और व्यंजना आदि का भली-भाँति निर्वाह किया है, जिसका कथ्य अत्यंत आधुनिक एवं यथार्थपूर्ण है। भाव और शिल्प प्रभावोत्पादक है।

 'सलाम दिल्ली' के प्रकाशन के तीन दशक पश्चात् प्रस्तुत लघुकथा संग्रह 'एकांतवास में ज़िंदगी' का प्रकाश में आना एक शुभ संकेत है। इसका कुछ श्रेय श्री अशोक लव ने हमारी पत्रिका 'लघुकथा कलश' को भी दिया है। बहरहाल, यह संग्रह हिंदी-लघुकथा को और समृद्ध करेगा, ऐसा मेरा विश्वास है। अत: ऐसी कृति का भरपूर स्वागत होना चाहिए।

- समीक्षक: योगराज प्रभाकर

सोमवार, 8 नवंबर 2021

समीक्षा: लघुकथा संग्रह: ज़िंदा मैं | लेखक: अशोक जैन | समीक्षक: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

लघुकथा की सहजता का ध्वजावाहक: ज़िंदा मैं

भगवान श्रीराम ने वनवास के कई वर्ष पंचवटी में व्यतीत किए थे। पंचवटी अर्थात पांच वृक्ष। ये पांच पेड़ थे - पीपल, बरगद, आँवला, बेल तथा अशोक। इन पर एक शोध के बाद वैज्ञानिकों ने पाया कि इन पाँचों के आस-पास रहने से बीमारियों की आशंका कम हो जाती है और शरीर की प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ती है। आज कोरोना और अन्य कई संक्रमणों के बीच में जीवित रह रहे हम सभी के लिए इन पांच वृक्षों में से एक के नाम वाले लेखक-कवि-सम्पादक श्री 'अशोक' जैन का लघुकथा संग्रह  "ज़िंदा मैं" का आवरण पृष्ठ मेरे अनुसार प्रकृति और जलवायु के सरंक्षण का प्रतिनिधित्व करता हुआ इसी बात को इंगित करता है कि उचित रहन-सहन हेतु वृक्षों द्वारा प्रदान की जा रही ऊर्जा का सही दिशा में उपयोग होना चाहिए। यह किताब खोलने से पहले ही मुझे इसके आवरण चित्र ने मुझे यों प्रभावित किया। वृक्षों की कटाई की आँधियों के बीच कोई 'बूढा बरगद' (इस संग्रह की एक रचना) अपनी हिलती जड़ों के बावजूद आज भी सरंक्षण देता है और कोई नन्ही कोंपल इस परम्परा की संवाहक बन जाती है। इस संग्रह की भूमिका उदीयमान व प्रभावोत्पादक रचनाओं  के लेखक श्री वीरेंदर 'वीर' मेहता ने लिखी है, जो संग्रह का सही-सही प्रतिनिधित्व कर रही है। एक उदीयमान रचनाकार से भूमिका लिखवाने का यह प्रयोग मुझ सहित कई नवोदितों को ऊर्जावान करने में सक्षम है।

भारतवर्ष के इतिहास में उदारता, प्रेम, भय, स्वाभाविकता, सहजता, गरिमा, उन्नति, लक्ष्मी, सरस्वती, स्वास्थ्य, विज्ञान आदि गुण श्रेष्ठतम स्तर पर हैं। ऐसा ही पुरातन साहित्य भी है। इतिहास और पुरातन साहित्य हमें हिम्मत प्रदान करता है, लेकिन जब हम अपने समय का हाल देखते हैं तो उपरोक्त गुणों को तलाशने में ही हाथ-पैर फूल जाते हैं। साहित्य का दायित्व तब बढ़ ही जाता है। महाकवि जयशंकर प्रसाद की कामायनी के मनु की तरह, “विस्मृति का अवसाद घेर ले, नीरवता बस चुप कर दे।” 41 लघुकथाओं के इस संग्रह "ज़िंदा मैं" में भी उपरोक्त गुणों को समय के साथ विस्मृत नहीं होने देने की रचनाएं निहित हैं। यह साहित्य का धर्म भी है ताकि साहित्य सनातन के साथ सतत बना रहे लेकिन सतही न हो। इस संग्रह की भी अधिकतर लघुकथाएं सहज हैं। शून्य को शून्य रहने तक भय नहीं रहता है लेकिन जब वह किसी संख्या के पीछे लग जाता है तो उसका मूल्य तो बढ़ता ही है, मूल्यवान के दिल में किसी भी शून्य के हटने का डर भी बैठ जाता है और वह स्वयं के प्रति भी सजग हो उठता है। संग्रह की पहली रचना 'डर' भी इसी प्रकार के एक भय का प्रतिनिधित्व कर रही है। 'मुक्ति-मार्ग' एक ऐसी रचना है जो सतही तौर पर पढी ही नहीं जा सकती, यदि कोई ऐसे पढ़ता भी है तो वह अच्छा पाठक नहीं हो सकता। 'गिरगिट' यों तो कथनी-करनी के अंतर जैसे विषय पर आधारित है, लेकिन यह भी सत्य है कि अतीत की इस कथा का वर्तमान से कई जगह गहरा सम्बन्ध है। कुछ लघुकथाओं में पात्रों के नाम समयानूकूल नहीं हैं जैसे, 'हरी बाबू', 'हरखू'। हालांकि ये लघुकथाएं समाज के विभिन्न वर्गों की परिस्थितियों का उचित वर्णन कर रही हैं।

कुछ लघुकथाओं में प्रतीकों का इस तरह प्रयोग किया गया है, जो विभिन्न पाठकों में भिन्न-भिन्न विचारों को उत्पन्न कर सकते हैं, उदाहरणस्वरूप, 'टूटने के बाद' व 'दाना पानी'। पुस्तक की शीर्षक रचना मैं-बड़ा के भाव, अहंकार, भोगवादी संस्कृति, पारिवारिक बिखराव के साथ-साथ स्वाभिमान जैसे गुणों-अवगुणों की नुमाइंदगी करती है। इसी प्रकार 'आरपार' में लालटेन को लेकर, 'खुसर-पुसर' में चित्र के द्वारा, 'बोध' में कदमताल व 'माहौल' में  बादलों के जरिए संवेदनाओं को दर्शाया गया है, जो इन रचनाओं को उच्च स्तर पर ले जाता है। 'जेबकतरा' इस संग्रह की श्रेष्ठतम रचनाओं में से एक है, एक गोल्ड मेडलिस्ट परिस्थितिवश जेबकतरा बन अपने ही शिक्षक की जेब काट लेता है, उसकी मानसिकता का अच्छा मनोवैज्ञानिक वर्णन किया गया है। 'पोस्टर' भी ऐसी रचना है जो एक से अधिक संवेदनाओं की ओर संकेत कर रही है। कुछ लघुकथाओं जैसे 'गिरगिट' में कहीं-कहीं लेखकीय प्रवेश भी दिखाई दिया। अधिकतर लघुकथाएँ सामयिक हैं जैसे 'मौकापरस्त'। ज़्यादातर रचनाओं की भाषा चुस्त है, लाघवता विद्यमान है, शिल्प और शैली भी अच्छी व सहज है। कथ्य का निर्वाह भी बेहतर तरीके से किया गया है और सबसे बड़ी बात अधिकतर रचनाएं पठनीय हैं। अशोक जैन जी की कलम कई मुद्दों पर बराबर स्याही बिखेरने की कूवत रखती है। अतः यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि लघुकथा संग्रह "ज़िंदा मैं" साहित्य के सन्मार्ग पर पंचवटी की तरह ऐसे वृक्षों का न केवल बीजारोपण कर रहा है, बल्कि उन वृक्षों के लिए खाद-पानी भी है, जिनसे लघुकथाएँ खुलकर श्वास ले सकती हैं।
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- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
928544749
chandresh.chhatlani@gmail.com
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लघुकथा संग्रह: ज़िंदा मैं
लेखक: अशोक जैन
प्रकाशक: अमोघ प्रकाशन,गुरूग्राम
मूल्य: ₹80/-

शनिवार, 6 नवंबर 2021

लघुकथा संग्रह: कितना-कुछ अनकहा | लेखिका: कनक हरलालका | समीक्षा: डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी




"जब व्यक्ति व समाज की विसंगतियों से भरी कोई समस्या हृदय पर आघात कर उसका समाधान खोजने के लिए विवश कर देती है तो कलम स्वतः ही अपने उद्गार प्रकट करने के लिए विवश हो उठती है।"

- कनक हरलालका (अपने लघुकथा संग्रह के लेखकीय वक्तव्य में)

कनक हरलालका जी न केवल एक समर्थ लघुकथाकारा हैं बल्कि एक अच्छी कवयित्री भी हैं। दो विधाओं में महारथ हासिल करने से पहले किसी भी व्यक्ति को  शब्दों का धनी होना होता ही है, जो प्रतिभा श्रीमती हरलालका में विद्यमान है।

लघुकथा विधा में यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि लघुकथा विसंगतियों की कोख से जन्म लेती हैं। अपने प्रथम लघुकथा संग्रह में हरलालका कहती हैं कि, "विसंगतियाँ मुझे हमेशा से व्यथित करती रही हैं, इसीलिए मैंने विभिन्न विषयों को अपनी लघुकथाओं का माध्यम बनाया है। धरती के प्राय: सभी रंगो को मैंने इन लघुकथाओं में उतारने की कोशिश की है।"

आज का साहित्यकार नैतिक, राजनैतिक दर्शन के मूल्यों को दर्शाने से पिंड छुड़ाता दिखाई नहीं देता वरन इन्हें दर्शा कर अपनी रचनाओं के सौन्दर्य में वृद्धि करता है। इस संग्रह में भी इसी तरह की सत्तासी लघुकथाएं संग्रहित हैं। पहली लघुकथा 'प्यास' से लेकर अंतिम लघुकथा 'भेड़िया आया' कुछ न कुछ प्रभाव ज़रूर छोड़ जाती है। किसी रचना की भाषा तो किसी का शिल्प, कथ्य, विषय, संवेदना और/या शीर्षक प्रभावोत्पादक हैं। लघुकथाओं में मानव सम्बन्धी मूल्यों की वृद्धि का भाव यदि विद्यमान हो तो न केवल रचना उत्तम बल्कि कालजयी बनने का सामर्थ्य भी रखती हैं। इस संग्रह की 'गांधी को किसने मारा' भी एक ऐसी रचना है जो गांधी जी के आदर्श और मूल्यों के ह्वास को दर्शा रही है। 'इनसोर' लघुकथा का शीर्षक कलात्मक और उत्सुकता पैदा करने वाला है। इसी प्रकार 'वयसन्धि', 'कठपुतलियाँ', 'दरकन', 'पुनर्जीवी', 'असूर्यम्पश्या', आदि लघुकथाओं के शीर्षक भी उत्तम हैं।

मज़दूरों के इन्श्योरेंस पर आधारित लघुकथा 'इनसोर' की यह पंक्ति झकझोर देती है कि //"साहब... भूख से मरने पर भी इनसोर का रुपिया मिलेगा क्या...?"// लघुकथा 'सगाई की अंगूठी' का अनकहा आकर्षित करता है। 'वयसन्धि' की भाषा और यह पंक्ति कि // गरीबों की लड़कियां  बचपन से सीधे बड़ी हो जाती हैं// प्रभावित करती है। जहाँ “भीड़” की पंचलाइन उद्वेलित करती है वहीं 'अनुदान' का विषय और उसका निर्वाह काफी बढ़िया है। 'दरकन' लघुकथा का सौन्दर्य इस बात में है कि हर पंक्ति में नायिका विद्यमान होकर भी कहीं नहीं है। पुराने विषय की होकर भी इस रचना का शिल्प महत्वपूर्ण है। 'जंगली', 'उन्होंने कहा था', 'भेड़िया आया' व 'एकलव्य' भी प्रभावित करती रचनाएं हैं। कहीं-कहीं उपदेशात्मकता ज़रूर प्रतीत हुई, जिसे कम किया जा सकता था।

नैतिक, सामजिक, राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक आदि मानवीय मूल्यों के संक्रमण को दर्शाती इस संग्रह की अधिकतर रचनाएं पैनी हैं, परिपक्व हैं और अपनी बात बिना किसी लाग-लपेट के कहने में समर्थ हैं। समग्रतः यह संग्रह न केवल पठनीय बल्कि संग्रहणीय भी है।

-०-


- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

chandresh.chhatlani@gmail.com

9928544749


लघुकथा संग्रह: कितना-कुछ अनकहा

लेखिका: कनक हरलालका

प्रकाशन : दिशा प्रकाशन, दिल्ली

मूल्य : ₹३००

पृष्ठ : १२०

सोमवार, 4 अक्तूबर 2021

मेरी नजर में | लघुकथा संग्रह ‘फिर वही पहली रात’ | संग्रह लेखक: कीर्तिशेष श्री विजय ‘विभोर’ | समीक्षक: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

"साहित्य का कर्तव्य केवल ज्ञान देना नहीं है, परंतु एक नया वातावरण प्रदान करना भी है।" अपने इन शब्दों द्वारा डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन क्या कहना चाह रहे हैं यह तो स्पष्ट है, साथ ही इस वाक्य पर थोड़े से मनन के पश्चात् समझ में आता है कि यह पंक्ति एक भाव यह भी रखती है कि साहित्य का कार्य छोटी से बड़ी किसी भी समस्या के ताले की चाबी बनना हो न हो वर्तमान युग के अनुसार एक ऐसा वातावरण तैयार करना है ही, जो हमारे मन-मस्तिष्क के द्वार खटखटाने में सक्षम हो। चूँकि लघुकथा सीमित शब्दों में अपने पाठकों को दीर्घ सन्देश देने में भी सक्षम है, अतः ऐसे वातावरण का निर्माण करने में लघुकथा का दायित्व अन्य गद्य विधाओं से अधिक स्वतः ही हो जाता है।

उपरोक्त कथन को मूर्तिमंत करते लघुकथा के कर्म, चरित्र और मूल वस्तु से परिचय कराता, सुरुचिपूर्ण, सकारात्मक, सार्थक और प्रेरणास्पद लेखन का एक उदाहरण है श्री विजय ‘विभोर’ का लघुकथा संग्रह 'फिर वही पहली रात'। मानवीय चेतना के शुद्ध रूप के दर्शन करने को प्रोत्साहित करती श्री विभोर की लघुकथाएं स्पष्ट सन्देश प्रदान करने में समर्थ हैं। मौजूदा समय का मूलभूत अनिवार्य मंथन भी इन रचनाओं में सहज भावों के माध्यम से परिलक्षित होता है। उदाहरणस्वरूप पति-पत्नी के सम्बन्ध विच्छेद की बढ़ती घटनाओं कम करने का प्रयास करती लघुकथा ‘आदत’, मानवीय प्रेम का सन्देश देती 'कनागत, ‘मजबूरी’, आदि रचनाओं में चेतना जागरण, नैतिक मूल्य, मानवता, नारी-स्वातंत्र्य, सामाजिक दशा, कर्तव्य परायणता और मानवीय उदात्तता जैसे बहुआयामी और समसामयिक विषयों पर लेखक ने बड़ी प्रवीणता-कुशलता से सृजन किया है।

लेखन ऐसा होना चाहिए जो न सिर्फ काल की वर्तमानता को दर्शाये बल्कि आने वाली शताब्दी तक की चुनौतियों पर खरा उतरने वाला हो। आदमीयत की गायब होती परिपूर्णता को शब्दों से उभार सके तथा सच व झूठ के टुकड़ों में बंटे हुए मनुष्य को आत्मिक चेतना तक का अनुभव करवा सके। अष्टछाप के प्रसिद्ध कवि कुम्भनदास को एक बार अकबर ने फतेहपुर सीकरी आमंत्रित किया था, कुम्भनदास ने उस आमंत्रण को अस्वीकार करते हुए कहा कि "सन्तन को कहा सीकरी सों काम।" सच्चे साहित्यकार संत की तरह होते हैं। ज़्यादातर इतिहासकारों ने शासकों की अयोग्यता को भी जय-जयकार में बदला है लेकिन अधिकतर साहित्यकारों ने नहीं। इस संग्रह की ‘जीवन जीर्णोद्धार’, ‘अन्नदाता’, ‘फैसले’, ‘बदलाव’ जैसी रचनाएँ साहित्यकार के इस धर्म का पालन करती हैं। लेखन सम्बन्धी विसंगतियां उठाती इस संग्रह की 'कुल्हड़ में हुल्लड़' भी एक विचारणीय रचना है।

पुरातन साहित्य में दर्शाया गया है कि वाराणसी के निवासी शौच करने भी 'उस पार' जाते थे। गंगा में नहाते समय अपने कपडे घाट पर निचोड़ते थे, नदी में नहीं। पौराणिक युगीन साहित्य में यह भी कहा गया कि “नमामी गंगे तव पाद पंकजं सुरासुरैर्वदित दिव्यरूपम्। भुक्ति चमुक्ति च ददासि नित्यं भावनसारेण सदानराणाय् ।।“ ऐसे विचार पढ़ने पर यह सोच स्वतः ही जन्म लेती है कि साहित्यकारों के कहे पर यदि देश चलता तो शायद गंगा कभी प्रदूषित होती ही नहीं और विस्तृत सोचें तो केवल जल प्रदूषण ही नहीं, कितनी ही और विडंबनाओं से बचा जा सकता था। प्रस्तुत संग्रह में भी 'बस ख्याल रखना', 'मेला', ‘निजात’, ‘प्रश्न’ जैसी रचनाएं साहित्यकारों की स्थिति दर्शा रही हैं, जो एक महत्वपूर्ण विषय है।

लघुकथा के बारे में एक मत है कि यह तुरत-फुरत पढ़ सकने वाली विधा है। लेकिन जिसका सृजन विपुल समय लेता है, उसे अल्प समय में पढ़ने के बाद पाठकगण हृदयंगम कर अपना महती समय चिंतन में खर्च न करें तो मेरे अनुसार हो सकता है कि वह रचना प्रभावी शिल्प की हो, लेकिन उद्देश्य पूर्णता की दृष्टि से अप्रभावी ही है। ‘फिर वही पहली रात’ की रचनाएं इस दृष्टि से निराश नहीं करतीं, वरन कुछ रचनाएँ ऐसी भी हैं जो नव-विचार उत्पन्न करती हैं। अधिकतर लघुकथाओं के कथानक समसामयिक हैं, सहज ग्राह्य एवं ओजस्वी भाषा शैली है। शीर्षक से लेकर अंतिम पंक्ति तक में लेखक का अटूट परिश्रम झलकता है।

समग्रतः, प्रभावशाली मानवीय संवेदनाओं, उन्नत चिन्तन, आवश्यक सारभूत विषयों को आत्मसात करती जीवंत लघुकथाओं से परिपूर्ण विजय 'विभोर' जी की विवेकी, गूढ़ और प्रबुद्ध सोच का प्रतिफल यह संग्रह पठनीय-संग्रहणीय सिद्ध होगा। बहुत-बहुत बधाइयां व मंगल कामनाएं।

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

रविवार, 3 मई 2020

समीक्षाः गुलाबी फूलों वाले कप (लघुकथा संग्रह ) | लघुकथाकार : डॉ.श्याम सुंदर दीप्ति | समीक्षाकारः डॉ.शील कौशिक


समीक्ष्य कृति:गुलाबी फूलों वाले कप (लघुकथा-संग्रह) 
लघुकथाकार : डॉ.श्याम सुंदर दीप्ति 
प्रकाशक: राही प्रकाशन, दिल्ली 

मूल्य: ₹395 पृष्ठ संख्या: 148
समीक्षाकारः डॉ.शील कौशिक

परिवेश व अनुभव की सान पर रचित श्रेष्ठ लघुकथाएं

डॉ. श्यामसुंदर दीप्ति पंजाबी व हिंदी लघुकथा के प्रमुख आधार स्तंभ रहे हैं। सन 1986 से अपना लघुकथा का सफर शुरू करने वाले डॉक्टर श्यामसुंदर दीप्ति स्वयं मानते हैं कि शुरुआत के तीन-चार दशकों के बाद लघुकथा में कई पड़ाव आए और उन्होंने खुद अपने लेखन में एक विकास होते महसूस किया। वर्तमान में विषय की नवीनता व प्रस्तुतीकरण में प्रयोग जहां एक ओर लघुकथा के विकास व समृद्धि के द्योतक हैं वहीं दूसरी ओर बड़ी संख्या में रातों-रात लघुकथा के नाम पर कुछ भी लिखकर लघुकथाकार बनने का लोभ संवरण नहीं करने वाले लघुकथा विधा के साथ खिलवाड़ करते नजर आते हैं। फिर भी वर्तमान समय को लघुकथा का स्वर्णिम युग कहा जा सकता है क्योंकि विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर लघुकथाओं का प्रकाशन एवं सोशल साइट्स पर रचनाकारों की सक्रियता देखकर लघुकथा की लोकप्रियता का अहसास होता है। उपन्यास और कहानियां नेपथ्य में जा रही हैं और लघुकथा प्रबलता और प्रभावशीलता के साथ सम्मुख आ रही है। लघुकथा में तीव्र गति से समाज में आए बदलाव को रेखांकित और प्रतिबिंबित करने की अद्भुत क्षमता है।
डॉ. श्याम सुंदर दीप्ति

डॉ श्याम सुंदर दीप्ति का सद्य:प्रकाशित लघुकथा संग्रह 'गुलाबी फूलों वाले कप' उनकी तीसरी लघुकथा की एकल कृति है। इससे पूर्व 'गैर हाजिर रिश्ता' उनकी चर्चित एवं प्रशंसित लघुकथा की पुस्तक है जिसे मैंने भी पढ़ा और सराहा है। मेडिकल प्रोफेशन व मनोविज्ञान की मास्टर डिग्री होने के कारण डॉ. साहब ने अनेक ज्ञान की पुस्तकें भी लिखी हैं। जहां तक लघुकथा का संबंध है डॉ दीप्ति देशभर में अग्रणीय व समर्पित हस्ताक्षर हैं। उन्होंने पंजाबी में लघुकथा को 'मिनी कहानी' के रूप में स्थापित कर 'मिन्नी त्रैमासिक' लघुकथा पत्रिका व 'जुगनूआं दे अंग-संग' के माध्यम से इसके विकास और संवर्द्धन में निरंतर अपना महती योगदान दिया है। उन्होंने रचनात्मक अवदान के साथ- साथ संपादन भी किया व अनेक कार्यशालाओं का आयोजन करके लघुकथा को समृद्ध किया है।
भूमंडलीकरण, आर्थिक भागदौड़ में मनुष्य अपनी आत्मा की आवाज सुनना भूल गया है। जीवन के शाश्वत मूल्यों को विस्मृत कर अर्थ उपार्जन में कौशल बढ़ाने में लगा है। वर्तमान परिवेश को डॉ. दीप्ति ने अपनी विभिन्न लघुकथाओं में व्यक्त किया है।

वृद्धावस्था में अकेलेपन से जूझते व उनकी लाचारी को 'दीवारें'और 'अधर में लटके' लघुकथाओं में देखा जा सकता है। संग्रह की प्रथम लघुकथा 'अधर में लटके' एक वृद्ध की कथा है जो परिस्थितियों के आगे समर्पण करने में ही अपनी भलाई समझता है। वह बेटे की स्थिति के साथ-साथ स्वयं की युवावस्था को व अपने त्याग का भी स्मरण करता है, जब उसने आगे पढ़ने की अपनी इच्छा को मार कर पिता के कहे अनुसार क्लर्क की नौकरी ज्वाइन कर ली थी। वह कहता है, " अपनी दो सांसों के बारे में क्या फिक्र करना । ठीक ही तो है मेरे बारे में सोचेंगे तो आप अधर में लटक जाएंगे।"
इन बुजुर्गों की आदत है बोलते रहने की, ऐसे रहने की, ऐसे करने की, जैसे वाक्य प्रत्येक घर में सुनने को मिल जाते हैं। जस्सी बेटे के दोस्त कश्मीरा को बुजुर्ग इस वाक्यांश से अपनी स्थिति स्पष्ट कर देता है लघुकथा 'दीवारें' में।
"हां बेटा! घर में पंखे-पुंखे सब हैं। पर कुदरत का कोई मुकाबला नहीं। एक बात और बेटा, आता- जाता व्यक्ति रुक जाता है। दो बातें सुन जाता है, दो सुना जाता है। अंदर तो बेटा दीवारों को ही झांकते रहते हैं।"
वंचित वर्ग चाहे वह किसान हो, मजदूर हो या फिर निम्न जाति का, डॉक्टर दीप्ति जी के लघुकथाओं के सदैव सरोकार रहे हैं। आज भी ग्रामीण परिवेश में जात-पात का भेदभाव देखा जा सकता है । लघुकथा 'हिम्मत' में बीरे को अपने सहपाठियों से मजबी जात का होने के कारण क्या कुछ नहीं सुनना पड़ता। ऐसे में हतोत्साहित बीरे को शिंदे कहता है कि मेरा बापू बस एक ही बात बोलता है- देख इसीलिए तो पढ़ाई करनी है कि जलालत के माहौल से बाहर निकल सकें। यही एक रास्ता है।" वास्तव में शिक्षा ही किसी भी क्रांति का मूल मंत्र है।
डॉ.शील कौशिक

यह विडंबना ही कहीं जाएगी कि कन्या जन्म को लेकर पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही स्त्रियों की सोच आज भी हटने का नाम ही नहीं ले रही है। 'उदासी का सफर' लघुकथा में राघवी के दूसरी संतान बेटी होने पर उसकी सास की मुस्कुराहट गायब हो जाती है। वह उसे सहर्ष ही रागिनी की बहन रिंपी जो कि नि:संतान है को देने के लिए तैयार हो जाती है। उधर राघवी नवजात कन्या को जब दादी की गोद में डालती है तो वह गुस्से में बोली, " अगर बच्चा गोद ही लेना था तो लड़की ही क्यों ?"
'कविता का चेहरा' व 'कहानी नहीं बनी' लघुकथाओं में डॉ दीप्ति द्वारा नया प्रयोग देखने को मिलता है। इस तरह के प्रयोग लघुकथा के विकास में संजीवनी का कार्य करते हैं। वर्षा ऋतु के मौसम का घूंट-घूंट रसपान करते हुए कवि के मन में कविता लिखने का वातावरण बनने, कविता के रूपवान होने, कविता पर निखार आने लगता है कि तभी सीवर के गंदे पानी के भभके के साथ-साथ प्रेमा की प्रताड़ना का अमानवीय दृश्य देखकर कविता रूठ कर वापस लौट जाती है। लघुकथा एक गहरा संदेश पीछे छोड़ जाती है कि मानवीय सरोकारों के बिना कुछ भी लिखना व्यर्थ है। लघुकथा में दृश्यात्मकता इस लघुकथा को ऊंचाई प्रदान करती है।
किसी को रोजी-रोटी कमाने के योग्य बनाना सबसे बड़ा पुण्य है। फटे पुराने कपड़ों व बेकार की कतरनों से बच्चों द्वारा वाल हैंगिंग, पायदान, कुशन आदि बनवा कर उनका भविष्य संवारने वाले रामकुमार के प्रति अनुभवी बच्चा आत्मविश्वास के साथ अपनी कृतज्ञता निरीक्षण करने वाले सीनियर सिटीजन के समक्ष इस प्रकार प्रकट करता है, " हम कतरनें ही तो थे, इन सर ने हमें सलीके से सिर ऊंचा करके चलना सिखाया और अपने पर गर्व करने योग्य बनाया है।"
वर्तमान समय की त्रासदी ही कही जाएगी की सभ्य कहे जाने वाले लोग एकाकीपन से इस कदर त्रस्त हैं कि रॉन्ग नंबर लग जाने पर दोनों तरफ से सुकून की अनुभूति होती है लघुकथा 'करवट' में । प्रत्युत्तर में वरिष्ठ नागरिक कहता है, 'चलो! चाहे रॉन्ग नंबर था... हां, अगर मन उदास हो तो किसी हमदर्द का समझ कर मिला सकते हो।" लघुकथा में लेखक की दूरदृष्टि व सजगता परिलक्षित होती है।
एक नितांत अछूते विषय पर लघुकथा है 'खोखा'। सभ्याचार और दिखावे की दुनिया से दूर खोखे पर मनोहर को जो आत्मीयता मिलती है, वह अपने बेटे के घर से भी न मिली। अंत में वह निर्णय कर संतुष्टि से सोया - 'जैसे उसे बाकी जिंदगी की खुशी के पल गुजारने का ठिकाना मिल गया हो।'
बाल मनोविज्ञान पर आधारित डॉ श्याम सुंदर दीप्ति का एक पूरा लघुकथा-संग्रह 'बालमन की लघुकथाएं' आ चुका है। प्रस्तुत संग्रह की 'बैड गर्ल' व' 'गुब्बारा' इनकी बाल मनोविज्ञान पर बहुत अच्छी लघुकथाएं हैं। बालमन कितना सरल और सहज होता है। 'गुब्बारा' में बेटी द्वारा रोज-रोज गुब्बारा मांगने पर पिता समझाते हैं कि गुब्बारा अच्छा नहीं होता, एक मिनट में ही फट जाता है। परंतु जैसे ही उसने गुब्बारे वाले की आवाज सुनी तो स्वयं के कदमों पर ब्रेक लगा कर पिता को देख कर बोली, "गुब्बारा अच्छा नहीं होता ना। भाई रोज ही आ जाता है। मैं उसे कह आऊं कि वह चला जाए।" परंतु मम्मी के पास रसोई में जाकर कहने लगी, " मम्मी जी, मुझे गुब्बारा ले दो ना।"
पुस्तक शीर्ष लघुकथा 'गुलाबी फूलों वाले कप' विवेचन योग्य एक प्यारी सी प्रौढ़ वय की यथार्थ के धरातल पर बुनी प्रेम कथा है। बढ़ती उम्र के साथ प्रेम और भी गहरा और प्रोढ़ हो जाता है। इसी तरह की एक और लघुकथा है 'दिनचर्या'। इसमें पति-पत्नी परस्पर छोटी से छोटी बात को बिना कहे समझ कर, छोटी-छोटी तकलीफों को छिटक कर, हंसकर जीवन बिताने में प्रयासरत हैं। संदेशपरक व वापस दिनचर्या में लौटने की सहज बिंबधर्मी लघुकथा है यह। लघुकथा में अनुभूति की तीव्रता देखते ही बनती है।
परिपक्व सोच दर्शाती एक बेहतरीन लघुकथा है 'नाइटी'। लघुकथा में मां प्रभा के मन की बात जानकर बेटी संकोच में पड़ी अपनी मां को अपनी पसंद को अपनाने का ग्रीन सिगनल नाइटी गिफ्ट करके देती है और अपनी मां को द्वंद से बाहर निकाल देती है। हमें पुरातन लीक से हटकर समय की चाल को समझ कर प्रगतिशील व आधुनिक विचारों को मानने से गुरेज नहीं करना चाहिए।
आर्थिक भागदौड़ में लगे अभिभावकों को सचेत करती लघुकथा है 'मिलन', जिसमें एकाकीपन और उपेक्षा के चलते बेटा नशे की गिरफ्त में आ जाता है। सामाजिक सरोकार की यह लघुकथा समाज को चिंतन बीज थमाती है।
'रिश्ता' डॉ. श्यामसुंदर दीप्ति की एक और बेहतरीन लघुकथा है, जिसमें निहाल सिंह ड्राइवर को अपने गांव के पास बस रोक देने के लिए जात का सहारा लेता है, फिर वीर बनके रोकने के लिए कहता है और अंत में जब वह कहता है कि आदमी ही आदमी के काम आता है, तब ड्राइवर बस रोक देता है। कंडक्टर के चिल्लाने पर ड्राइवर कहता है, " कोई नहीं, कोई नहीं, एक नया रिश्ता निकल आया था।" वास्तव में इंसानियत का रिश्ता ही सबसे अहम रिश्ता होता है।
'सफेद कमीज' लघुकथा में लघुकथाकार ने यह कहकर कि दाग रहित सफेद कमीज अफसर व नेता की पहचान होती है, सहज ही व्यंग्य का तीर चला दिया है।
डॉ श्याम सुंदर दीप्ति ने यथार्थ को गहरे में अनुभूत कर इस प्रकार लगभग सभी प्रचलित व विस्मृत विषयों पर अपनी कलम चलाई है। 'ताजा हवा' (किन्नरों पर), 'सहेली'( प्रकृति) वृद्धावस्था पर ' दीवारें' व 'अधर में लटके' आदि। सभी लघुकथाएं संवेदना की कसौटी पर खरी उतरती व मन को झिंझोड़ कर विचलन पैदा करने वाली हैं।
उन्होंने अपनी लघुकथाओं में संवादात्मक शैली के अतिरिक्त अन्य शैलियों का भी प्रयोग किया है जैसे आत्मकथात्मक शैली में 'प्रशंसा' डायरी शैली में 'खुशगवार मौसम'। कुछ लघुकथाओं में कथानक में समूचे परिवेश को लाने की जद में अनावश्यक विस्तार भी मालूम देता है जैसे 'धन्यवाद' लघुकथा में।
निष्कर्षत: डॉ. श्याम सुंदर दीप्ति की लघुकथाओं में एक भिन्न शिल्प विन्यास देखने को मिलता है। इनकी लघुकथाएं वर्तमान समय का प्रतिनिधित्व करती हैं। ये वैश्वीकरण युग की बदली हुई मानसिकता को यथार्थ के साथ अवगत करा कर सामाजिक ,आर्थिक व राजनीतिक विसंगतियों पर चोट करती हैं। अधिकतर लघुकथाओं में परिवेश व पंजाबी भाषा का समुचित प्रभाव है जो स्वाभाविकता का आग्रह है। डॉ श्याम सुंदर दीप्ति लघुकथा के रचना विधान व बारीकियों से न केवल भली-भांति परिचित हैं बल्कि नवागतों के लिए नई पगडंडी बनाते मालूम पड़ते हैं। अधिकतर लघुकथाओं के शीर्षक लघुकथा का ही हिस्सा मालूम पड़ते हैं और लघुकथा की अर्थवत्ता को बढ़ाते हैं। अंत में मैं उन्हें विविधता भरे 'गुलाबी फूलों वाले कप' लघुकथा-संग्रह के अस्तित्व में आने पर साधुवाद कहती हूं । मेरा ध्रुव विश्वास है यह संग्रह लघुकथा जगत में अवश्य चर्चित होगा।
शुभाकांक्षी
डॉ.शील कौशिक

गुरुवार, 2 जनवरी 2020

पुस्तक समीक्षा | असभ्य नगर एवं अन्य लघुकथाएँ | कल्पना भट्ट


पुस्तक का नाम : 
असभ्य नगर एवं अन्य लघुकथाएँ
लेखक
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
प्रकाशन: 
अयन प्रकाशन १/२०, महरौली, नई दिल्ली-११० ०३०
मूल्य: २०० रुपये



हिंदी-लघुकथा सन् १८७४ में हसन मुंशी अली की लघुकथाओं से विकास करना शुरू करती है, उसके पश्चात भारतेंदु हरिश्चन्द्र, जयशंकर ‘प्रसाद’, उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’, अवधनारायण मुद्गल , सतीश दुबे से होते हुए आज सन् २०१९ में नयी पीढ़ी तक आ पहुँची है| हसन मुंशी अली से लेकर नयी पीढ़ी तक आते-आते लघुकथा के रूप-स्वरूप और भाषा-शैली में अनेक प्रकार की भिन्नता दिखाई  पड़ती है, इन भिन्नताओं को लघुकथा-विकास के सोपानों  के रूप में देखा जा सकता है| इसके मथ्य नवें दशक जिसे लघुकथा का स्वर्णकाल भी कहा जा सकता है|  इस काल में जो कुछ लेखक अपनी विशिष्ट लघुकथाएँ लेकर सामने आये उनमें रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ का भी एक उल्लेखनीय हस्ताक्षर है| और इन्होंने अपने समकालीनों की तुलना में बहुत अधिक लघुकथाएँ तो नहीं लिखी किन्तु जो लिखी  वे लघुकथाएँ उनके अब तक की एक-मात्र लघुकथा संग्रह ‘असभ्य नगर एवं अन्य लघुकथाएँ’ में संगृहीत हैं| इन लघुकथाओं को पढ़ते समय इस बात का सहज ही एहसास होता है कि इन्होंने मात्र लघुकथाएँ लिखने के लिए लघुकथाएँ नहीं लिखीं, जब कभी इन्होंने अपने समाज में घटित होती समस्याओं और विडम्बनाओं को देखा और प्रतिक्रया  स्वरूप जब लघुकथा क रूप लेकर इन्हें बेचैन किया, तब इन्होंने  उन लघुकथाओं को लिपिबद्ध कर दिया| ऐसी स्थिति  में यह स्वाभाविक ही था कि ये लघुकथाएँ संवेदनशील होती |  और संवेदना किसी भी श्रेष्ठ लघुकथा का पहला गुण हैं|

यूँ तो इस संग्रह में प्रकाशित प्रत्येक लघुकथा भिन्न-भिन्न कारणों से अपना महत्त्व रखती है किन्तु उनमें भी ‘ऊँचाई’, ‘ चक्रव्यूह’, ‘क्रौंच-वध’, ‘अश्लीलता’, ‘प्रवेश-निषेध’, ‘पिघलती हुई बर्फ’, ‘राजनीति’,’स्क्रीन-टेस्ट’, ‘कटे हुए पंख’, ‘असभ्य नगर’, ‘नवजन्मा’ इत्यादि लघुकथाओं ने न सिर्फ संवेदित किया अपितु मेरे मन-मष्तिष्क को झिंझोड़ कर भी रख दिया| इस कारण मैं इनके चिंतन-मनन को विवश हो गयी|

सर्वप्रथम मैं ‘ऊँचाई’ लघुकथा की चर्चा करना चाहूँगी| यह लघुकथा हिमांशु जी की न मात्र प्रतिनिधि लघुकथा है अपितु यह उनके विशिष्ट लघुकथाकार के रूप में पहचान भी है| मुझे विश्वास है कि कभी-न-कभी यह लघुकथा प्रत्येक लघुकथाकार की नज़र से गुज़री होगी और असंख्य पाठकों ने इसे पढ़ा भी होगा| इस लघुकथा मे नायक अपने पिता के आगमन पर यह सोचता है कि उसके पिता आर्थिक सहयोग के दृष्टिकोण से उसके पास आये हैं किन्तु भोजन करने के बाद उसके पिता जाते समय अपने पुत्र को बुला कर कहते हैं, “खेती के काम से घड़ी भर की फुर्सत नहीं मिलती है| इस बखत काम का  ज़ोर है| रात की गाड़ी से ही वापस जाऊँगा|  तीन महीने से तुम्हारी कोई चिट्ठी तक नहीं  मिली| जब तुम परेशान होते हो, तभी ऐसा करते हो|” जो बेटा अपने पिता के आगमन से ही विचलित हो जाता है, उसके पिता ने उलट अपने बेटे के लिए चिंता जताई है| और इसी लघुकथा में नायक के पिता को ऊँचाई दी है, कि उनका बेटा शहर तो आ गया, पर उसकी सोच संकीर्ण हो गयी और वह इतना स्वार्थी हो गया कि उसने अपने पिता का स्वागत मन मार कर किया, ऐसे में भी पिता ने अपनी जेब से सौ-सौ के दस नोट निकालकर नायक की तरफ बढ़ा दिए और कहा, “रख लो! तुम्हारे काम आ जायेंगे| इस बार धान की फसल अच्छी हो गयी है| घर में कोई दिक्कत नहीं है| तुम बहुत कमजोर लग रहे हो| ढंग से खाया-पीया करो| बहु का भी ध्यान रखो|” बेटा परेशान है इसका एहसास पिता को है, वहीँ वह यह भी जानते हैं कि पैसा देने पर उनके बेटे को उसके माता-पिता की चिंता भी होगी, इसकी वजह से वह उसको चिंतामुक्त भी कर देते हैं और अपने को सहज भी कर ले इसका अवसर भी दे देते हैं| इन  अन्तिम वाक्यों  ने इस लघुकथा को सर्वश्रेष्ठ बना दिया है| और पिता और पुत्र के बीच के रिश्ते  के अपनत्व का भी उत्कृष्ट तरीके से चित्रण करने का सद्प्रयास किया है| इस लघुकथा का कथानक न सिर्फ श्रेष्ठ है अपितु इसके शीर्षक ने भी इस लघुकथा को उत्कृष्ट बनाया है| गाँव से पलायन कर शहर में रहने से कोई अमीर नहीं हो जाता समस्याएँ यहाँ भी पीछा नहीं छोड़ती, पर इंसान किस तरह स्वार्थी हो जाता है और विवश हो जाता है कि उसको अपने माता-पिता भी बोझ  लगने लगते हैं वह यह भी भूल जाते हैं कि किस तरह से उन्होंने भी परेशानियों का सामना किया होगा और वह भी निस्वार्थ भाव से| इस लघुकथा में पिता का यह कहना कि “इस बार फसल अच्छी हुई है...” से हिमांशु एक सन्देश भी देना चाहते हैं कि ‘समस्याओं से भागना कोई हल नहीं हैं अपितु उनका सामना करना ही हितकारी होता है’ और माता-पिता से बढ़कर इस दुनिया में कोई भी नहीं होता जो नि:स्वार्थ भावना रखता है| इसको पढ़ने के पश्चात् क्या ऐसा सबके साथ नही होता जो मेरे साथ हुआ है|

इसी प्रकार अन्य ऊपर उल्लेखित की गई लघुकथाओं में भी देखा जा सकता है| ‘चक्रव्यूह’ में नायक  मध्यमवर्गीय परिवार से है जो अपनी  जिजीविषा के लिए दिन-रात मेहनत तो करता है, पर महंगाई की मार उसकी कमर तोड़ देती है और वह खुद को चक्रव्यूह में फँसा हुआ अनुभव करता है, इस लघुकथा की अंतिम पंक्तियाँ  देखी जा सकती हैं  ‘ एक पीली रोशनी मेरी आँखों के आगे पसर रही है;जिसमें जर्जर पिताजी मचिया पर पड़े कराह रहे हैं और अस्थि-पंजर-सा मेरा मँझला बेटा सूखी खपच्ची टाँगों से गिरता-पड़ता कहीं दूर भागा जा रहा है| और मैं धरती पर पाँव टिकाने में भी खुद को असमर्थ पा रहा हूँ|” इस लघुकथा के माध्यम से हिमांशु जी ने मध्यमवर्गीय परिवार की परेशानियों को उभारने का सद्प्रयास किया है जिसमें वह सफल भी रहे हैं|

‘क्रौंच-वध’ पौराणिक मिथक पात्रों को लेकर लिखी गयी यह लघुकथा सांकेतिक ढंग से यह सन्देश देने में पूर्णतः सफल रही है कि पुरुष प्रधान समाज की सोच को अब बदलना होगा | जिस तरह से वाल्मीकि रामायण में  आदर्श स्थापित किया है वहीँ स्त्री जाति पर आरोप-प्रत्यारोप की झलक भी दिखाई पड़ती है| इस लघुकथा में हिमांशु जी पौराणिक मिथक पात्रो के माध्यम से आज को जोड़ा है कि समय बदल रहा है और स्त्री को भी पुरुष की तरह समान अधिकार मिलने चाहिए | हिंदी-लघुकथा में पौराणिक और मिथक पात्रों को लेकर ऐसी लघुकथा अभी तक कोई अन्य मेरे पढ़ने में नहीं आई है|

‘अश्लीलता’ इंसान की विकृत सोच को दर्शाती इस लघुकथा का अंत नकारत्मकता  लिए है परन्तु इसके बावजूद इस लघुकथा में इंसान की दोहरी सोच और उसके मनोविज्ञान को भली-भाँति समझा जा सकता है| इस लघुकथा की प्रथम पंक्ति को देखें: ‘रामलाल कि अगुआई में नग्न मूर्ति को तोड़ने के लिए जुड़ आई भीड़ पुलिस ने किसी तरह खदेड़ दी थी....|” और इसी लघुकथा की अन्तिम पंक्तियों को भी देखें: “ वह मूर्ति के पास आ चुका था| देवमणि के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा| रामलाल मूर्ति से पूरी तरह गूँथ चुका था और उसके हाथ मूर्ति के सुडौल अँगों पर के केचुए  की तरह रेंगने लगे थे|”

‘प्रवेश-निषेद’ यह लघुकथा वर्तमान की राजनीति पर करारा कटाक्ष लिए है| लघु आकार की होने के बावजूद इस लघुकथा के माध्यम से हिमांशु जी ने इस रचना में क्षिप्रता देकर उत्कृष्ट बनाने का सफलतम  सद्प्रयास किया है| इसका अंतिम वाक्य देखा जा सकता है, जब राजनीति एक वैश्या की चौखट पर आती है और दलाल उससे उसका परिचय पूछता है, दरवाज़े ओट में खड़ी वह कहती है, “ यहाँ तुम्हारी जरूरत नहीं है| हमें अपना धंधा चौपट नहीं कराना| तुमसे अगर किसी को छूत की बीमारी लग गयी तो मरने से भी उसका इलाज नहीं होगा|” और वह दरवाज़ा बंद कर देती है|

‘पिघलती हुई बर्फ’ पति-पत्नी का रिश्ता अनोखा होता है, प्रकृति ने मनुष्यों को जहाँ अलग-अलग चेहरे दिए हैं वैसे ही उनके  स्वाभाव में भी भिन्नता होती है, इसके बावजूद मनुष्य को एक सामाजिक  प्राणी का दर्जा प्राप्त है| पति-पत्नी भी अपवाद नहीं हैं, छोटी-मोटी बहस के बावजूद एक दूसरे के समर्पण भाव सहज देखने को मिल जाते  है| लेखक ने इस लघुकथा के माध्यम से इस रिश्ते की नींव को मज़बूत बनाने का सार्थक प्रयास किया है जिसमें वह पूर्णतः सफल रहे हैं|

‘राजनीति’ यह लघुकथा राजनीति की पृष्ठभूमि पर लिखी एक अच्छी लघुकथा है, इस लघुकथा के माध्यम से हिमांशु जी ने राजनीति में पनप रही कूटनीति और बढ़ते हुए अपराध को बड़े ही करीने से उजागर किया है|

‘स्क्रीन-टेस्ट’ फ़िल्मी दुनिया हमेशा आकर्षण का केंद्र रही है, नाम और शौहरत पाने की लालसा में और जल्द-से-जल्द अमीर बनाने की चाहत में युवा- वर्ग इस ओर आकर्षित हो जाती है, परन्तु इस चकाचौंध के पीछे के दलदल में फँस कर रह जाती है, जहाँ से वापिस आना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन- सा हो जाता है| इस लघुकथा के माध्यम से हिमांशु जी ने एक सकारात्मक   सन्देश भी दिया है, “ सफलता पाने के लिए कोई शॉर्टकट रास्ता  नहीं होता’|

‘कटे हुए पंख’ अर्ध मानवेत्तर शैली में लिखी गयी यह लघुकथा भी राजनीति और सामंतशाही  से प्रेरित है, किस तरह से ऊँचे  व्यक्ति पैसे और सत्ता के दम पर अपने से नीचे के लोगों को कुचल कर अपना साम्राज्य  स्थापित करना चाहते हैं और वे किसीकी भी परवाह किये बिना अपने स्वार्थ को सिद्ध करते है| इस लघुकथा के अंत से इस बात की पुष्टि होती है : ‘परन्तु तोता उड़ न सका| धीरे-धीरे-से  पिंजरे के पास बैठ गया था; क्योंकि उसके पंख मुक्त होने से पहले ही काट दिए गए थे|

‘असभ्य नगर’ आज के भौतिक और भूमंडलीकारण के चलते पशु-पक्षियों के जीवन को भी खतरा हो गया है| परन्तु यह भी सच है कि इस आपा-धापी में हम अपना सुख-चैन भी खो चुके हैं, एक तरफ जहाँ हम जंगलों को काटते जा रहे हैं और बड़ी-बड़ी गगनचुम्बी इमारतें  बनाते जा रहे हैं, हमारे भीतर की संवेदना खत्म  होती जा रही है| हिमांशु जी ने इस मानवेत्तर लघुकथा के माध्यम से एक सार्थक सन्देश देने का सद्प्रयास किया है| इस लघुकथा की अन्तिम पंक्ति में पूरी लघुकथा का सार मिल जाता है, ‘उल्लू ने कबूतर को पुचकारा- “मेरे भाई, जंगल हमेशा नगरों से अधिक सभ्य रहे हैं| तभी तो ऋषि-मुनि यहाँ आकर तपस्या करते थे|” इस लघुकथा के माध्यम से हिमांशु जी ने पर्यावरण के नष्ट होने पर अपनी चिंता जताई है और जिससे यह सिद्ध होता है, कि हिमांशु जी न सिर्फ सामाजिक परन्तु वह प्रकृति-प्रेमी भी दिखाई पड़ते हैं |

‘नवजन्मा’ लड़की बचाओ पर आधारित एक उत्कृष्ट लघुकथा है, जिलेसिंह जिसके घर में एक पुत्री-रत्न की प्राप्ति हुई है, उसके घर वाले निराश होकर उसको शिकायत करते है और लड़की होने के नुक्सान  गिनवाते हैं, वो कहते हैं  औरत ही औरत की दुश्मन होती है, इस लघुकथा में इसका चित्रण बहुत ही करीने से हुआ है, जिलेसिंह की दादी और बहन दोनों ही लड़की पैदा होने का शोक मनाते हैं, वहीँ दूसरी ओर जिलेसिंह पहले तो तनाव में आ जाता है परन्तु अपनी पत्नी और पुत्री का चेहरा देखकर उसका हृदय परिवर्तन हो जाता है और वह बाहर से ढोलियों को लेकर आता है और नाचने लगता है और ढोलियों को खूब तेज़ ढोल बजाने के लिए प्रेरित करता है| इस लघुकथा के माध्यम से हिमांशु जी ने लड़का और लड़की के भेद को मिटाने का सकारात्मक सन्देश दिया है|

इन लघुकथाओं के अतिरिक्त अन्य सभी लघुकथाएँ आलोचना की दृष्टि से मत-भिन्नता का शिकार हो सकती हैं, किन्तु पाठकीय दृष्टि से उनपर प्रश्नचिह्न लगाना कठिन है| यों भी आजतक कोई कृति ऐसी प्रकाश में नहीं आई है, जो एक मत से  निर्दोष सिद्ध हुई हो| तो इस कृति से ही हम ऐसी आशा क्यों करें कि यह निर्दोष है| इसकी विशेषताओं में  विषय की विविधता  और भाषा- शैली है |

लघुकथा संग्रहों में ऐसे संग्रह नगण्य ही हैं जिनके  दूसरा  संस्करण भी प्रकाशित हुए हों| इस संग्रह का दूसरा संस्करण प्रकाश में आया है, जो इस बात का द्योतक  है कि इस संग्रह को  पाठकों ने भरपूर स्नेह दिया है|

मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि अन्य अनेक चर्चित संग्रहों की तरह से नयी पीढ़ी के लिए यह भी  एक आदर्श संग्रह साबित होगा|

कल्पना भट्ट
श्री द्वारकाधीश मंदिर
चौक बाज़ार
भोपाल ४६२००१
मो ९४२४४७३३७७                         

सोमवार, 30 दिसंबर 2019

समीक्षा: सिलवटें (लघुकथा संकलन) | समीक्षक: वन्दना पुणतांबेकर


सिलवटें (इंदौर लेखिका संघ, इंदौर की प्रस्तुति)
प्रकाशक-रंग प्रकाशन, इंदौर
मूल्य-225 रुपए


विचारों का महकता गुलदस्ता / वन्दना पुणतांबेकर                     
सिलवटें जब मेरे हाथ में आई तो इतनी आकर्षक लगी कि शब्दों में कहना असम्भव है।इतनी सारी लेखिकाओं का लेखन सृजन देखकर मन की भवनाएं भावविभोर हो गई।कई रंगों के विचारों का एक महकता गुलदस्ता हाथों में थामे में महक उठी।यह संकलन इंदौर लेखिका संघ की लेखिकाओं की लघुकथाओं का सांझा संकलन है। इसमें 36 लेखिकाओं ने अपनी लेखनी से कमाल दिखाया है। संकलन की लगभग सभी  लघुकथाएं सारगर्भिता लिए हुए हैं। प्रत्येक लघुकथा अलग-अलग समाजिक परिवेश को दर्शाती है। समाज में व्याप्त विभिन्न विषयों पर लघुकथाओं के माध्यम से लेखिकाओं ने  बखूबी स्पष्ट दृष्टिकोण दर्शाया है। 

वन्दना पुणतांबेकर
यदि किसी विशेष घटना या लघुकथा का जिक्र करें तो  27 वें पेज पर डॉ. सुधा चौहान की  रावण दहल गया बहुत ही संदेशात्मक व प्रेणादायक लगी। इस लघुकथा में समाज के अलग-अलग रूपों की विकृतियों को, रावण के दसो रूपों को लेखिका ने अपनी भावनाओं के माध्यम से एक अलग ही भावना से व्यक्त किया है। समय की गति सचमुच बदल गई है।इस घोर कलयुग में रावण के दसों सिर समाज के गली-गली घर-घर मे इस प्रकार घुलमिल गए हैं कि उन्हें पहचानना मुश्किल है।यदि इस कलयुग में रावण एक बार फिर अवतरित हुआ तो इस समाज के रावणों को देखकर स्वयं ही लज्जित हो जाएगा। कथा में नवें सिर को देखते हुए मन की भावनाएं विचलित हो जाती हैं कि आतंकवाद कभी भी कहीं भी अपने तांडव से समाज, देश को नुकसान पहुंचाता रहता है। लेखिका की सोच और दृष्टिकोण इतना मार्मिक ओर ह्रदयस्पर्शी है कि उन्होंने आमजन के विचारों को छू कर अपने भावों को लघुकथा का रूप दिया। वहीं, अन्य कथाओं में जीवन की सच्चाई है, सोच है, भावनाएं हैं जो पढ़ने के बाद दिल-दिमाग में बहुत समय तक छाई रहती है। पुस्तक की छपाई, शीर्षक आकर्षक है। प्रूफ का गलतियां न के बराबर हैं जिससे लघुकथाएं पढ़ने में एकरसता बनी रहती है।

वन्दना पुणतांबेकर 

गुरुवार, 26 दिसंबर 2019

पुस्तक समीक्षा | महानगर की लघुकथाएँ | संपादक : सुकेश साहनी | समीक्षा: कल्पना भट्ट


महानगर की लघुकथाएँ
संपादक : सुकेश साहनी
प्रकाशक : अयन प्रकाशन १/२०, महरौली, नई दिल्ली-११००३०
प्रथम संस्करण : १९९३, द्वितीय संस्करण : २०१९
मूल्य : ३०० रुपये



हिंदी लघुकथा अपनी गति से क्रमशः प्रगति की राह पर चल रही है। लघुकथा आज के समय की माँग भी है और यह  भौतिक और मशीनीयुग की जरूरत भी बन चुकी है। लोगों के पास लम्बी-लम्बी कहानी और उपन्यास पढ़ने का समय नहीं है। अनेकानेक लेखकों ने हिंदी- लघुकथा के विकास में  एकल संग्रह, संकलन और पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से लघुकथा के विकास में अपना योगदान दिया है।

हिंदी लघुकथा में ऐसे लेखकों में सुकेश साहनी का नाम पांक्तेय है।  ‘ठंडी रजाई’ आपकी प्रतिनिधि लघुकथा है। उन्होंने हिंदी- लघुकथा की पहली वेबसाइट www.laghukatha.com  का वर्ष 2000 से सम्पादन किया है, वर्ष २००८  से रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ भी उनके साथ इस काम में जुड़ गये। सुकेश साहनी के  १२ संपादित  लघुकथा संकलनों में ‘महानगर की लघुकथाएँ’ विशेष स्थान रखता है।

जैसे की नाम से विदित होता है कि प्रस्तुत पुस्तक ‘महानगर’ विषय पर आधारित है, इस पुस्तक में महानगर के जीवन से परिचय तो होता ही है, साथ ही  महानगर को समझने के लिए एक सकारात्मक दृष्टिकोण भी बनता नज़र आता है। सुकेश साहनी ने अपने सम्पादकीय में अपने अनुभवों को साझा करते हुए महानगर से सम्बंधित कुछ समस्यायों पर अपने विचार प्रकट किये हैं जो विचारणीय है।

प्रस्तुत संकलन  को दो भागों  में बाँटा गया है, पहले भाग में कुल ९३ लेखकों की लघुकथाएँ प्रकाशित हैं  जिनमें   चर्चित लघुकथाकारों के साथ-साथ कुछ अचर्चित लेखकों की भी उत्कृष्ट लघुकथाएँ प्रकाशित हुई हैं। दूसरे भाग में   परिशिष्ट में प्रथम संस्करण में प्रकाशित रचनाकारों के अतिरिक्त  २१ नई लघुकथाओं को भी शामिल किया गया है। युवा पीढ़ी ऐसे संकलनो से न सिर्फ अपने वरिष्ठ रचनाकारों को पढ़कर सीख सकती हैं अपितु शोधार्थियों के लिए भी विषय आधारित संकलन  अध्ययन हेतु उपयोगी साबित होते हैं। सुकेश साहनी ने उपर्युक्त पुस्तक का दूसरा संस्करण प्रकाशित करवा कर हिंदी- लघुकथा- जगत् को एक अनमोल और ऐतिहासिक धरोहर प्रदान की है जिसके लिए सुकेश साहनी बधाई के पात्र हैं। जहां तक मेरा अध्ययन है महानगर को लेकर यह प्रथम संकलन है।

इस संकलन का अध्ययन करते समय संपादक की ये पंक्तियाँ अत्यधिक महत्त्वपूर्ण प्रतीत होती हैं, “महानगरों में रहने वाला आदमी  कितना प्रतिशत कंप्यूटर में बदल गया है और कहाँ कहाँ उसकी आत्मा का लोप हुआ है। किसी भी समाज को जिवीत रखने के लिए अनिवार्य संवेदना एवं सहानुभूति की भावना की महानगरों में कितनी कमी हुई है।” इसमें प्रकाशित प्रायः लघुकथाकारों ने महानगरों में उपज रही समस्यायों एवं विडम्बनाओं का चित्रण बहुत ही सुंदर ढंग से किया है। मानव मूल्यों हेतु संघर्ष करते लोगों का चित्रण, ‘रिश्ते’ (पृथ्वीराज अरोड़ा), ‘अर्थ’ (कुमार नरेन्द्र) की लघुकथाओं में स्पष्ट देखा जा सकता है जो जितना बड़ा महानगर है उसमे उतनी ही भ्रष्ट व्यवस्था है जिसे ‘सवारी’ (राजेंद्र मोहन त्रिवेदी ‘बंधु’) ,’सुरक्षा’ (श्रीकांत चौधरी), ‘हादसा’ (महेश दर्पण) इत्यादि लघुकथाओं में स्पष्ट है।

आज शिक्षा की जब सबसे ज्यादा आवश्यकता है तो ऐसे समय में शिक्षा संस्थानों में जो भ्रष्टाचार मचा हुआ है वो भी किसीसे छिपा नहीं है, महानगर की  इस समस्या पर यूँ तो कई लोगों ने लिखा है किन्तु ‘वज़न’ (सुरेश अवस्थी), ‘शुरुआत’ (शशिप्रभा शास्त्री) की लघुकथाएँ अपने उद्देश्य में अधिक सफल रही हैं। महानगर में नित्यप्रति हो रहे अवमूल्यन पर भी लघुकथाकारों ने अपने-अपने ढंग से सुंदर चित्रण किया है ‘आशीर्वाद’ (पल्लव), ‘कमीशन’( यशपाल वैद, ‘आग’ (भारत भूषण), ‘लंगड़ा’ (पवन शर्मा), ‘बीसवीं सदी का आदमी’ (भारत यायावर) इत्यादि लेखकों ने अपने कौशल से लोहा मनवाया है। अरविन्द ओझा की ‘खरीद’ लघुकथा महानगर में किस प्रकार लोगों का विदेशी वस्तुओं के प्रति  आकर्षण बढ़ता जा रहा है उसपर करारी चोट की है और महानगरों में जितनी तेज़ी से आबादी बढ़ रही है, उतनी ही तेज़ी से सभी क्षेत्रों में प्रदूषण भी बढ़ता जा रहा है, जिसे रमाकांत की लघुकथा ‘मृत आत्मा’ में देखा जा सकता है। इतना ही नहीं छोटे शहरों की अपेक्षा महानगरों में क्रूर मानसिकता का भी तेज़ी से विकास हो रहा है जिसे ज्ञानप्रकाश विवेक की लघुकथा ‘जेबकतरा’ में देखा जा सकता है।

अपवाद को छोड़ दें तो महानगरों में प्रायः लोग दोहरा जीवन जी रहे हैं। एक ही बात पर दूसरों के प्रति उनकी विचारधारा कुछ होती है और अपने बारे में उनकी विचारधारा ठीक इसके विपरीत होती है जिसे सतीशराज पुष्करणा की लघुकथा  ‘उच्छलन’ में देखा जा सकता है,अर्थाभाव के कारण कैसे व्यक्ति संवेदना शून्य हो जाता है इसे प्रायः महानगरों में देखा जा सकता है इस मानसिकता को महावीर प्रसाद जैन ने अपनी लघुकथा ‘हाथ वाले’ में प्रत्यक्ष किया है।

प्रायः व्यक्ति अच्छी बातों कि अपेक्षा बुरी बातों से जल्दी प्रभावित होता है, यही बात फिल्मों के सन्दर्भ में भी कही जा सकती है, फिल्मों द्वारा उपजी बुराइयों का प्रभाव किस प्रकार बढ़ता जा रहां  इसे रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की लघुकथा ‘स्क्रीन-टेस्ट’ में देखा जा सकता है। आज हमारी नज़र जितनी दूर भी जाती है हम देखते हैं कि पैसा बेचा जा रहा है और पैसा ही खरीदा जा रहा है आज हमारे जीवन  में पैसा ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बन गया है जिसके आगे रिश्तों के बीच का अपनापन लुप्त होता हुआ प्रतीत होता है इसे बहुत ही सटीक ढंग से दर्शाती है कमल चोपड़ा की लघुकथा ‘किराया’। ऐसी ही श्रेष्ठ लघुकथाएँ लिखने में सुकेश साहनी ने अपना लोहा मनवाया है यहाँ भी ‘काला घोड़ा’ लघुकथा में महानगरीय सभ्यता से अभिशप्त इंसान का चित्रण करके स्वयं को सिद्ध कर दिया है। महानगर में जहाँ अम्बानी जैसे धनाढ्य लोग हैं वहीँ दिहाड़ी पर काम करने वाले लाखों इंसान भी हैं। धनाढ्य लोगों के चक्रव्ह्यू में किस प्रकार आदमी फंसता-सिमटता जा रहा है यह बात गीता डोगरा ‘मीनू’ की लघुकथा ‘हमदर्द’ में भली-भाँति देखा जा सकता है। आज उपभोक्तावादी संस्कृति में महानगर के आदमी को  इस बुरी सभ्यता ने इस तरह से जकड़ लिया है कि उसकी प्राथमिकतायें ही बदलती जा रही है। इन्हें हम इस संकलन की प्रायः लघुकथाओं में देख सकते हैं। इसके अतिरिक्त विविध समस्याओं से परिपूर्ण जो लघुकथाएँ आकर्षित करती हैं उनमें डॉ. सतीश दुबे, शंकर पुणताम्बेकर, रमेश बत्रा, प्रबोध गोविल, चित्रा मुद्गल, मधुदीप, बलराम, सुदर्शन, विक्रम सोनी, कृष्ण कमलेश, असगर वजाहत, कृष्णानन्द कृष्ण, मंटो, हीरालाल नागर, सतीश राठी, सुभाष नीरव, पवन शर्मा, राजकुमार गौतम, मधुकांत, कमल कपूर, अशोक लव, भगवती प्रसाद द्विवेदी, बलराम अग्रवाल, रमेश गौतम, मार्टीन जॉन ‘अजनबी’, नीलिमा शर्मा निविया, अनीता ललित, डॉ.सुषमा गुप्ता, सविता मिश्रा, सत्या शर्मा ‘कीर्ति’ इत्यादि की लघुकथाओं की परख की जा सकती है। एक संकलन में इतनी अधिक एक ही विषय पर श्रेष्ठ लघुकथाओं का होना संपादक के सम्पादकीय कौशल को प्रत्यक्ष करता है।

इतना ही नहीं, नामी लघुकथाकारों की लघुकथाओं के साथ-साथ जहाँ उन्होंने नवोदित लघुकथाकारों को स्थान दिया है वहाँ अज्ञात नामों की लघुकथाओं को छापने में भी परहेज़ नहीं किया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि सम्पादक को नामों की अपेक्षा श्रेष्ठ लघुकथाओं से ही मतलब रहा है।


इस संकलन के लिए मैं बिना किसी संकोच के कहना चाहती हूँ कि सम्पादित लघुकथा संकलनों में यह संकलन अपनी विशिष्ट पहचान प्रत्यक्ष करता है। अंत में मैं संपादक को एक अति विनम्र सुझाव देना चाहती हूँ कि वे इसी प्रकार ‘ग्रामीण क्षेत्र की लघुकथाओं’ पर भी काम करें, क्योंकि इस विषय पर लघुकथा में अभी कोई काम हुआ हो ऐसा मेरी जानकारी में नहीं है।



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कल्पना भट्ट 
श्री द्वारकाधीश मंदिर, 
चौक बाज़ार, 
भोपाल-४६२००१. 
मो : ९४२४४७३३७७