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गुरुवार, 23 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: गरीब सोच | लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी






अपेक्षानुसार परदादा की अलमारी से भी कुछ नहीं मिला तो अलादीन ने निराश होकर जोर से उसका दरवाज़ा बंद किया, अंदर से मिट्टी सना एक चिराग बाहर गिरा। चिराग बेच कर कुछ रुपयों की उम्मीद से वह उस पर लगी मिट्टी साफ़ करने लगा ही था कि उसमें से धुँआ निकला और देखते-ही-देखते धुँआ एक जिन्न में बदल गया। जिन्न ने मुस्कुराते हुए कहा, "मैं इस चिराग का जिन्न हूँ, मेरे आका, जो चाहे मांग लो।" अलादीन ने पूछा, "क्या तुम मेरी गरीबी हटा सकते हो?" “क्यों नहीं!” जिन्न के कहते ही अगले ही क्षण रूपये-हीरे-जवाहरात आ गए, अलादीन ने ख़ुशी से पूछा, “यह लाते कहाँ से हो?” “ये सब देश के एक बड़े उद्योगपति के हैं।” “क्या..? टैक्स चोरी, एक रूपये की चीज़ सौ रूपये में बेच कर कमाए हुए रूपये मैं नहीं लूँगा” अलादीन ने इनकार कर दिया। जिन्न उन्हें गायब कर रुपयों का एक बक्सा ले आया। अलादीन को पहले ही संदेह हो चुका था, उसने पूछा, “यह कहाँ से आया?” “एक नेता ने घर में छिपा रखा था।” “नहीं, यह काली कमाई भी मैं नहीं लूँगा।” जिन्न उसे हटा कर, एक संदूक भर रुपया ले आया, और बताया, “यह अनाज, सब्जी और फल बेचकर कमाया गया है, जो इसके मालिक ने किसानों से खरीदा था।” “और किसान भूखे मर रहे हैं..., यह मैं हरगिज़ नहीं लूँगा।” अब जिन्न बहुत सारे रूपये लाया और बताया, “ये रूपये एक साधू के हैं, जो हस्पताल और समाजसेवी संस्थायें चलाते हैं” “ये तो सबसे बड़े चोर हैं, समाजसेवा की आड़ में नकली दवाएं और गलत धंधे चलाते हैं, ये मैं नहीं ले सकता, मुझे केवल शराफत से कमाए रूपये चाहिए” जिन्न सोचते हुए कुछ क्षण खड़ा रहा, और अलादीन को एक पर्ची थमा कर गायब हो गया। अलादीन ने पर्ची खोली, उसमें लिखा था, “रूपये पेड़ों पर नहीं उगते हैं।” -0- चित्रः साभार गूगल

बुधवार, 22 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: तीन संकल्प । लेखन व वाचन: डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी




वह दौड़ते हुए पहुँचता उससे पहले ही उसके परिवार के एक सदस्य के सामने उसकी वह ही तलवार आ गयी, जिसे हाथ में लेते ही उसने पहला संकल्प तोड़ा था कि 'वह कभी किसी की भी बुराई नहीं सुनेगा'। वह पीछे से चिल्लाया, "रुक जाओ तुम्हें तो दूसरे धर्मों के लोगों को मारना है।" लेकिन तलवार के कान कहाँ होते हैं, उसने उसके परिवार के उस सदस्य की गर्दन काट दी।

वह फिर दूसरी तरफ दौड़ा, वहाँ भी उससे पहले उसी की एक बन्दूक पहुँच गयी थी, जिसे हाथ में लेकर उसने दूसरा संकल्प तोड़ा था कि 'वह कभी भी बुराई की तरफ नहीं देखेगा'। बन्दूक के सामने आकर उसने कहा, "मेरी बात मानो, देखो मैं तुम्हारा मालिक हूँ..." लेकिन बन्दूक को कुछ कहाँ दिखाई देता है, और उसने उसके परिवार के दूसरे सदस्य के ऊपर गोलियां दाग दीं।

वह फिर तीसरी दिशा में दौड़ा, लेकिन उसी का आग उगलने वाला वही हथियार पहले से पहुँच चुका था, जिसके आने पर उसने अपना तीसरा संकल्प तोड़ा था कि 'वह कभी किसी को बुरा नहीं कहेगा'। वह कुछ कहता उससे पहले ही हथियार चला और उसने उसके परिवार के तीसरे सदस्य को जला दिया।

और वह स्वयं चौथी दिशा में गिर पड़ा। उसने गिरे हुए ही देखा कि एक बूढ़ा आदमी दूर से धीरे-धीरे लाठी के सहारे चलता हुआ आ रहा था, गोल चश्मा पहने, बिना बालों का वह कृशकाय बूढ़ा उसका वही गुरु था जिसने उसे मुक्ति दिला कर ये तीनों संकल्प दिलाये थे।

उस गुरु के साथ तीन वानर थे, जिन्हें देखते ही सारे हथियार लुप्त हो गये।

और उसने देखा कि उसके गुरु उसे आशा भरी नज़रों से देख रहे हैं और उनकी लाठी में उसी का चेहरा झाँक रहा है, उसके मुंह से बरबस निकल गया 'हे राम!'।

कहते ही वह नींद से जाग गया।
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चित्र: साभार गूगल

मंगलवार, 21 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: अपवित्र कर्म | लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी



पौ फटने में एक घंटा बचा हुआ था। उसने फांसी के तख्ते पर खड़े अंग्रेजों के मुजरिम के मुंह को काले कनटोप से ढक दिया, और कहा, "मुझे माफ कर दिया जाए। हिंदू भाईयों को राम-राम, मुसलमान भाईयों को सलाम, हम क्या कर सकते है हम तो हुकुम के गुलाम हैं।"

कनटोप के अंदर से लगभग चीखती सी आवाज़ आई, "हुकुम के गुलाम, मैं न तो हिन्दू हूँ न मुसलमान! देश की मिट्टी का एक भक्त अपनी माँ के लिये जान दे रहा है, उसे 'भारत माता की जय' बोल कर विदा कर..."

उसने जेल अधीक्षक की तरफ देखा, अधीक्षक ने ना की मुद्रा में गर्दन हिला दी । वह चुपचाप अपने स्थान पर गया और अधीक्षक की तरफ देखने लगा, अधीक्षक ने एक हाथ में बंधी घड़ी देखते हुए दूसरे हाथ से रुमाल हिला इशारा किया, तुरंत ही उसने लीवर खींच लिया। अंग्रेजों के मुजरिम के पैरों के नीचे से तख्ता हट गया, कुछ मिनट शरीर तड़पा और फिर शांत पड़ गया। वह देखता रहा, चिकित्सक द्वारा मृत शरीर की जाँच की गयी और फिर  सब कक्ष से बाहर निकलने लगे।

वह भी थके क़दमों से नीचे उतरा, लेकिन अधिक चल नहीं पाया। तख्ते के सामने रखी कुर्सी और मेज का सहारा लेकर खड़ा हो गया।

कुछ क्षणों बाद उसने आँखें घुमा कर कमरे के चारों तरफ देखना शुरू किया, कमरा भी फांसी के फंदे की तरह खाली हो चुका था। उसने फंदे की तरफ देखा और फफकते हुए अपने पेट पर हाथ मारकर चिल्लाया,

"भारत माता की जय... माता की जय... मर जा तू जल्लाद!"

लेकिन उस की आवाज़ फंदे तक पहुँच कर दम तोड़ रही थी।
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सोमवार, 20 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: मेरी याद । लेखन व वाचन: डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी



रोज़ की तरह ही वह बूढा व्यक्ति किताबों की दुकान पर आया, आज के सारे समाचार पत्र खरीदे और वहीँ बाहर बैठ कर उन्हें एक-एक कर पढने लगा, हर समाचार पत्र को पांच-छः मिनट देखता फिर निराशा से रख देता।

आज दुकानदार के बेटे से रहा नहीं गया, उसने जिज्ञासावश उनसे पूछ लिया, "आप ये रोज़ क्या देखते हैं?"

"दो साल हो गए... अख़बार में मेरी फोटो ढूंढ रहा हूँ...." बूढ़े व्यक्ति ने निराशा भरे स्वर में उत्तर दिया।

यह सुनकर दुकानदार के बेटे को हंसी आ गयी, उसने किसी तरह अपनी हंसी को रोका और व्यंग्यात्मक स्वर में पूछा, "आपकी फोटो अख़बार में कहाँ छपेगी?"

"गुमशुदा की तलाश में..." कहते हुए उस बूढ़े ने अगला समाचार-पत्र उठा लिया। 
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चित्र: साभार गूगल

रविवार, 19 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: असगर वजाहत की लघुकथाएं | वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी



असग़र वजाहत जी का जन्म 5 जुलाई 1946 को फतेहपुर, उत्तर प्रदेश में हुआ था। उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम॰ए॰ की और फिर वहीं से पी-एच॰डी॰ की उपाधि भी अर्जित की। पोस्ट डॉक्टोरल रिसर्च JNU, दिल्ली से किया।

असग़र वजाहत साहब हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण कहानीकार एवं सिद्धहस्त नाटककार के रूप में मान्य हैं। आपने कहानी, लघुकथा, नाटक, उपन्यास, यात्रा-वृत्तांत, फिल्म तथा चित्रकला आदि विभिन्न क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण रचनात्मक योगदान किया है। असग़र साहब दिल्ली स्थित जामिया मिलिया इस्लामिया में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके हैं।

खाल बदलने पर असग़र वजाहत की दो लघुकथाएं।

1)

बंदर / असग़र वजाहत


एक दिन एक बंदर ने एक आदमी से कहा– “भाई, करोड़ों साल पहले तुम भी बंदर थे। क्यों न आज एक दिन के लिए तुम फिर बंदर बनकर देखो।”

यह सुनकर पहले तो आदमी चकराया, फिर बोला– “चलो ठीक है। एक दिन के लिए मैं बंदर बन जाता हूँ।”

बंदर बोला– “तो तुम अपनी खाल मुझे दे दो। मैं एक दिन के लिए आदमी बन जाता हूँ।” इस पर आदमी तैयार हो गया।

आदमी पेड़ पर चढ़ गया और बंदर ऑफिस चला गया। शाम को बंदर आया और बोला– “भाई, मेरी खाल मुझे लौटा दो। मैं भर पाया।”

आदमी ने कहा– “हज़ारों-लाखों साल मैं आदमी रहा। कुछ सौ साल तो तुम भी रहकर देखो।”

बंदर रोने लगा– “भाई, इतना अत्याचार न करो।” पर आदमी तैयार नहीं हुआ। वह पेड़ की एक डाल से दूसरी, फिर दूसरी से तीसरी, फिर चौथी पर जा पहुँचा और नज़रों से ओझल हो गया। विवश होकर बंदर लौट आया।

और तब से हक़ीक़त में आदमी बंदर है और बंदर आदमी।
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2)

राजा / असग़र वजाहत

उन दिनों शेर और लोमड़ी दोनों का धंधा मंदा पड़ गया था। लोमड़ी किसी से चिकनी-चुपड़ी बातें करती तो लोग समझ जाते कि दाल में कुछ काला है। शेर दहाड़कर किसी जानवर को बुलाता तो वह जल्दी से अपने घर में घुस जाता। ऐसे हालात से तंग आकर एक दिन लोमड़ी और शेर ने सोचा कि आपस में खालें बदल लें। शेर ने लोमड़ी की खाल पहन ली और लोमड़ी ने शेर की खाल।

अब शेर को लोग लोमड़ी समझते और लोमड़ी को शेर। शेर के पास छोटे-मोटे जानवर अपने आप चले आते और शेर उन्हें गड़प जाता।

लोमड़ी को देखकर लोग भागते तो वह चिल्लाती ‘अरे सुनो भाई. . .अरे इधर आना लालाजी. . .बात तो सुनो पंडितजी!’ शेर का यह रंग-ढंग देखकर लोग समझे कि शेर ने कंठी ले ली है। वे शेर, यानी लोमड़ी के पास आ जाते। शेर उनसे मीठी-मीठी बातें करता और बड़े प्यार से गुड़ और घी मांगता। लोग दे देते। खुश होते कि चलो सस्ते छूटे।

एक दिन शेर लोमड़ी के पास आया और बोला, ‘मुझे अपना दरबार करना है। तुम मेरी खाल मुझे वापस कर दो। मैं लोमड़ी की खाल में दरबार कैसे कर सकता हूं?’ लोमड़ी ने उससे कहा, ‘ठीक है, तुम परसों आना।’ शेर चला गया।

लोमड़ी बड़ी चालाक थी। वह अगले ही दिन दरबार में चली गई। सिंहासन पर बैठ गई। राजा बन गई।

दोस्तो, यह कहानी बहुत पुरानी है। आज जो जंगल के राजा हैं वे दरअसल उसी लोमड़ी की संतानें हैं, जो शेर की खाल पहनकर राजा बन गई थी।
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चित्रः साभार गूगल

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: राष्ट्र का सेवक | लेखन:मुंशी प्रेमचन्द | वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


राष्ट्र के सेवक ने कहा- देश की मुक्ति का एक ही उपाय है और वह है नीचों के साथ भाईचारे का सलूक, पतितों के साथ बराबरी का बर्ताव। दुनिया में सभी भाई हैं, कोई नीच नहीं, कोई ऊँच नहीं।
दुनिया ने जय-जयकार की - कितनी विशाल दृष्टि है, कितना भावुक हदय!
उसकी सुन्दर लड़की इन्दिरा ने सुना और चिन्ता के सागर में डूब गई।
राष्ट्र के सेवक ने नीची जाति के नौजवान को गले लगाया।
दुनिया ने कहा- यह फरिश्ता है, पैगम्बर है, राष्ट्र की नैया का खेवैया है।
इन्दिरा ने देखा और उसका चेहरा चमकने लगा।
राष्ट्र का सेवक नीची जाति के नौजवान को मन्दिर में ले गया, देवता के दर्शन कराए और कहा - हमारा देवता गरीबी में है, ज़िल्लत में है, पस्ती में है।
दुनिया ने कहा- कैसे शुद्ध अन्त:करण का आदमी है! कैसा ज्ञानी!
इन्दिरा ने देखा और मुस्कराई।
इन्दिरा राष्ट्र के सेवक के पास जाकर बोली- श्रद्धेय पिताजी, मैं मोहन से ब्याह करना चाहती हूँ।
राष्ट्र के सेवक ने प्यार की नज़रों से देखकर पूछ- मोहन कौन है?
इन्दिरा ने उत्साह भरे स्वर में कहा- मोहन वही नौजवान है, जिसे आपने गले लगाया, जिसे आप मन्दिर में ले गए, जो सच्चा, बहादुर और नेक है।
राष्ट्र के सेवक ने प्रलय की आंखों से उसकी ओर देखा और मुँह फेर लिया।
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चित्र: साभार गूगल।



मंगलवार, 14 अप्रैल 2020

लघुकथा: मानव-मूल्य | लेखन व वाचनः डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी


वह चित्रकार अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति को निहार रहा था। चित्र में गांधीजी के तीनों बंदरों  को विकासवाद के सिद्दांत के अनुसार बढ़ते क्रम में मानव बनाकर दिखाया गया था।

उसके एक मित्र ने कक्ष में प्रवेश किया और चित्रकार को उस चित्र को निहारते देख उत्सुकता से पूछा, "यह क्या बनाया है?"

चित्रकार ने मित्र का मुस्कुरा कर स्वागत किया फिर ठंडे, गर्वमिश्रित और दार्शनिक स्वर में उत्तर दिया, "इस तस्वीर में ये तीनों प्रकृति के साथ विकास करते हुए बंदर से इंसान बन गये हैं, अब इनमें इंसानों जैसी बुद्धि आ गयी है। ‘कहाँ’ चुप रहना है, ‘क्या’ नहीं सुनना है और ‘क्या’ नहीं देखना है, यह समझ आ गयी है। अच्छाई और बुराई की परख - पूर्वज बंदरों को ‘इस अदरक’ का स्वाद कहाँ मालूम था?"

आँखें बंद कर कहते हुए चित्रकार की आवाज़ में बात के अंत तक दार्शनिकता और बढ़ गयी थी।

"ओह! लेकिन तस्वीर में इन इंसानों की जेब कहाँ है?" मित्र की आवाज़ में आत्मविश्वास था।

चित्रकार हौले से चौंका, थोड़ी सी गर्दन घुमा कर अपने मित्र की तरफ देखा और पूछा, "क्यों...? जेब किसलिए?"

मित्र ने उत्तर दिया,
"ये केवल तभी बुरा नहीं देखेंगे, बुरा नहीं कहेंगे और बुरा नहीं सुनेगे जब इनकी जेबें भरी रहेंगी। इंसान हैं बंदर नहीं..."
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- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
   9928544749
   chandresh.chhatlani@gmail.com
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चित्र: साभार गूगल

सोमवार, 13 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: गुलाम अधिनायक । लेखन व वाचन: डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी




उसके हाथ में एक किताब थी, जिसका शीर्षक ‘संविधान’ था और उसके पहले पन्ने पर लिखा था कि वह इस राज्य का राजा है। यह पढने के बावजूद भी वह सालों से चुपचाप चल रहा था। उस पूरे राज्य में बहुत सारे स्वयं को राजा मानने वाले व्यक्ति भी चुपचाप चल रहे थे। किसी पुराने वीर राजा की तरह उन सभी की पीठ पर एक-एक बेताल लदा हुआ था। उस बेताल को उस राज्य के सिंहासन पर बैठने वाले सेवकों ने लादा था। ‘आश्वासन’ नाम के उस बेताल के कारण ही वे सभी चुप रहते।  वह बेताल वक्त-बेवक्त सभी से कहता था कि, “तुम लोगों को किसी बात की कमी नहीं ‘होगी’, तुम धनवान ‘बनोगे’। तुम्हें जिसने आज़ाद करवाया है वह कहता था – कभी बुरा मत कहो। इसी बात को याद रखो। यदि तुम कुछ बुरा कहोगे तो मैं, तुम्हारा स्वर्णिम भविष्य, उड़ कर चला जाऊँगा।” बेतालों के इस शोर के बीच जिज्ञासावश उसने पहली बार हाथ में पकड़ी किताब का दूसरा पन्ना पढ़ा। उसमें लिखा था – ‘तुम्हें कहने का अधिकार है’। यह पढ़ते ही उसने आँखें तरेर कर पीछे लटके बेताल को देखा। उसकी आँखों को देखते ही आश्वासन का वह बेताल उड़ गया। उसी समय पता नहीं कहाँ से एक खाकी वर्दीधारी बाज आया और चोंच चबाते हुए उससे बोला, “साधारण व्यक्ति, तुम क्या समझते हो कि इस युग में कोई बेताल तुम्हारे बोलने का इंतज़ार करेगा?” और बाज उसके मुंह में घुस कर उसके कंठ को काट कर खा गया। फिर एक डकार ले राष्ट्रसेवकों के राजसिंहासन की तरफ उड़ गया। -०- चित्र: साभार गूगल

रविवार, 12 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: नीरव प्रतिध्वनि । लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी



हॉल तालियों से गूँज उठा, सर्कस में निशानेबाज की बन्दूक से निकली पहली ही गोली ने सामने टंगे खिलौनों में से एक खिलौना बतख को उड़ा दिया था। अब उसने दूसरे निशाने की तरफ इशारा कर उसकी तरफ बन्दूक उठाई। तभी एक जोकर उसके और निशानों के बीच सीना तान कर खड़ा हो गया।   निशानेबाज उसे देख कर तिरस्कारपूर्वक बोला, "हट जा।" जोकर ने नहीं की मुद्रा में सिर हिला दिया। निशानेबाज ने क्रोध दर्शाते हुए बन्दूक उठाई और जोकर की टोपी उड़ा दी। लेकिन जोकर बिना डरे अपनी जेब में से एक सेव निकाल कर अपने सिर पर रख कर बोला “मेरा सिर खाली नहीं रहेगा।” निशानेबाज ने अगली गोली से वह सेव भी उड़ा दिया और पूछा, "सामने से हट क्यों नहीं रहा है?" जोकर ने उत्तर दिया, "क्योंकि... मैं तुझसे बड़ा निशानेबाज हूँ।" "कैसे?" निशानेबाज ने चौंक कर पूछा तो हॉल में दर्शक भी उत्सुकतावश चुप हो गए। “इसकी वजह से...” कहकर जोकर ने अपनी कमीज़ के अंदर हाथ डाला और एक छोटी सी थाली निकाल कर दिखाई। यह देख निशानेबाज जोर-जोर से हँसने लगा। लेकिन जोकर उस थाली को दर्शकों को दिखा कर बोला, “मेरा निशाना देखना चाहते हो... देखो...”  कहकर उसने उस थाली को ऊपर हवा में फैंक दिया और बहुत फुर्ती से अपनी जेब से एक रिवाल्वर निकाल कर उड़ती थाली पर निशाना लगाया। गोली सीधी थाली से जा टकराई जिससे पूरे हॉल में तेज़ आवाज़ हुई – ‘टन्न्न्नन्न.....’ गोली नकली थी इसलिए थाली सही-सलामत नीचे गिरी। निशानेबाज को हैरत में देख जोकर थाली उठाकर एक छोटा-ठहाका लगाते हुए बोला, “मेरा निशाना चूक नहीं सकता... क्योंकि ये खाली थाली मेरे बच्चों की है...” हॉल में फिर तालियाँ बज उठीं, लेकिन बहुत सारे दर्शक चुप भी थे उनके कानों में “टन्न्न्नन्न” की आवाज़ अभी तक गूँज रही थी। -०- चित्र: साभार गूगल

शनिवार, 11 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: भटकना बेहतर । लेखन व वचन: डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी



कितने ही सालों से भटकती उस रूह ने देखा कि लगभग नौ-दस साल की बच्ची की एक रूह पेड़ के पीछे छिपकर सिसक रही है। उस छोटी सी रूह को यूं रोते देख वह चौंकी और उसके पास जाकर पूछा, "क्यूँ रो रही हो?"
वह छोटी रूह सुबकते हुए बोली, "कोई मेरी बात नहीं सुन पा रहा है… मुझे देख भी नहीं पा रहा। कल से ममा-पापा दोनों बहुत रो रहे हैं… मैं उन्हें चुप भी नहीं करवा पा रही।"
वह रूह समझ गयी कि इस बच्ची की मृत्यु हाल ही में हुई है। उसने उस छोटी रूह से प्यार से कहा, "वे अब तुम्हारी आवाज़ नहीं सुन पाएंगे ना ही देख पाएंगे। तुम्हारा शरीर अब खत्म हो गया है।"
"मतलब मैं मर गयी हूँ!" छोटी रूह आश्चर्य से बोली।
"हाँ। अब तुम्हारा दूसरा जन्म होगा।"
"कब होगा?" छोटी रूह ने उत्सुकता से पूछा।
"पता नहीं...जब ईश्वर चाहेगा तब।"
"आपका…  दूसरा जन्म कब..." तब तक छोटी रूह समझ गयी थी कि वह जिससे बात कर रही है वो भी एक रूह ही है।
"नहीं!! मैं नहीं होने दूंगी अपना कोई जन्म।" सुनते ही रूह उसकी बात काटते हुए तीव्र स्वर में बोली।
"क्यूँ?" छोटी रूह ने डर और आश्चर्यमिश्रित स्वर में पूछा।
"मुझे दहेज के दानवों ने जला दिया था। अब कोई जन्म नहीं लूंगी, रूह ही रहूंगी क्यूंकि रूहों को कोई जला नहीं सकता।" वह रूह अपनी मौत के बारे में कहते हुए सिहर गयी थी।
"फिर मैं भी कभी जन्म नहीं लूँगी।"
"क्यूँ?"
छोटी रूह ने भी सिहरते हुए कहा,
"क्यूंकि रूहों के साथ कोई बलात्कार भी नहीं कर सकता।"
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चित्र: साभार गूगल

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: पश्चाताप । लेखन व वाचन: डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी



उसका दर्द बहुत कम हो गया, इतनी शांति उसने पूरे जीवन में कभी अनुभव नहीं की थी। रक्त का प्रवाह थम गया था। मस्तिष्क से निकलती जीवन की सारी स्मृति एक-एक कर उसके सामने दृश्यमान हो रही थी और क्षण भर में अदृश्य हो रही थी। वह समझ गया कि मृत्यु निकट ही है।

वह जीना चाह कर भी आँखें नहीं खोल पा रहा था। असहनीय दर्द से उसे छुटकारा जो मिल रहा था।

अचानक एक स्मृति उसकी आँखों के समक्ष आ गयी, और वो हटने का नाम नहीं ले रही थी। मृत्यु एकदम से दूर हो गयी, वो विचलित हो उठा। उसकी आँखों में स्पंदन होने लगा, एक क्षण को लगा कि आँसूं आयेंगे, लेकिन आँसू बचे कहाँ थे? मुंह से गहरी साँसें भरते हुए उसने उस विचार से दूर जाने के लिये धीरे-धीरे आँखें खोल दीं।

उसके सामने अब उसका बेटा और बहू खड़े थे। डॉक्टर ने बेटे को उसकी स्थिति के बारे में बता दिया था। उसकी आँखें खुलते ही बेटे के चेहरे पर संतोष के भाव आये, और उसके हाथ को अपने हाथ में लेकर कहा, "पापा, आपकी बहू माँ बनने वाली है।"

"मेरा... समय.. आ... गया है...!" उसने लड़खड़ाती धीमी आवाज़ में कहा।

"पापा आप वादा करो कि आप फिर हमारे पास आओगे...हमारे बेटे बनकर..." बेटे की आँखों से आँसू झरने लगे।

वह बहू की कोख देख कर मुस्कुराया, फिर बेटे को इशारे से बुला कर कहा, "तू भी... वादा कर ... मैं बेटे की जगह... बेटी बनकर आया... तो मुझे मार मत देना...!"

कहते ही उसके सीने से बोझ उतर गया। उसने फिर आँखें बंद कर लीं, अब उसे पत्नी की रक्तरंजित कोख दिखाई नहीं दे रही थी।
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- डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी, 9928544749, chandresh.chhatlani@gmail.com

चित्र: साभार गूगल

गुरुवार, 9 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: दायित्व-बोध । लेखन व वाचन: डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी



दायित्व-बोध

पिता की मृत्यु के बारह दिन गुज़र गये थे, नाते-रिश्तेदार सभी लौट गये आखिरी रिश्तेदार को रेलवे स्टेशन तक छोड़कर आने के बाद, उसने घर का मुख्य द्वार खोला ही था कि उसके कानों में उसके पिता की कड़क आवाज़ गूंजी, "सड़क पार करते समय ध्यान क्यों नहीं देता है, गाड़ियाँ देखी हैं बाहर"

उसकी साँस गहरी हो गयी, लेकिन गहरी सांस दो-तीन बार उखड़ भी गयी पिता तो रहे नहीं, उसके कान ही बज रहे थे और केवल कान ही नहीं उसकी आँखों ने भी देखा कि मुख्य द्वार के बाहर वह स्वयं खड़ा था, जब वह बच्चा था जो डर के मारे कांप रहा था

वह थोड़ा और आगे बढ़ा, उसे फिर अपने पिता का तीक्ष्ण स्वर सुनाई दिया, "दरवाज़ा बंद क्या तेरे फ़रिश्ते करेंगे?"

उसने मुड़ कर देखा, वहां भी वह स्वयं ही खड़ा था, वह थोड़ा बड़ा हो चुका था, और मुंह बिगाड़ कर दरवाज़ा बंद कर रहा था

दो क्षणों बाद वह मुड़ा और चल पड़ा, कुछ कदम चलने के बाद फिर उसके कान पिता की तीखी आवाज़ से फिर गूंजे, "दिखाई नहीं देता नीचे पत्थर रखा है, गिर जाओगे"

अब उसने स्वयं को युवावस्था में देखा, जो तेज़ चलते-चलते आवाज़ सुनकर एकदम रुक गया था

अब वह घर के अंदर घुसा, वहां उसका पोता अकेला खेल रहा था, देखते ही जीवन में पहली बार उसकी आँखें क्रोध से भर गयीं और पहली ही बार वह तीक्ष्ण स्वर में बोला, "कहाँ गये सब लोग? कोई बच्चे का ध्यान नहीं रखता, छह महीने का बच्चा अकेला बैठा है"

और उसे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे उसके पैरों में उसके पिता के जूते हैं


- डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी

बुधवार, 8 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: खजाना । लेखन व वाचन: डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी


पिता के अंतिम संस्कार के बाद शाम को दोनों बेटे घर के बाहर आंगन में अपने रिश्तेदारों और पड़ौसियों के साथ बैठे हुए थे। इतने में बड़े बेटे की पत्नी आई और उसने अपने पति के कान में कुछ कहा। बड़े बेटे ने अपने छोटे भाई की तरफ अर्थपूर्ण नजरों से देखकर अंदर आने का इशारा किया और खड़े होकर वहां बैठे लोगों से हाथ जोड़कर कहा, “अभी पांच मिनट में आते हैं”।

फिर दोनों भाई अंदर चले गये। अंदर जाते ही बड़े भाई ने फुसफुसा कर छोटे से कहा, "बक्से में देख लेते हैं, नहीं तो कोई हक़ जताने आ जाएगा।" छोटे ने भी सहमती में गर्दन हिलाई ।

पिता के कमरे में जाकर बड़े भाई की पत्नी ने अपने पति से कहा, "बक्सा निकाल लीजिये, मैं दरवाज़ा बंद कर देती हूँ।" और वह दरवाज़े की तरफ बढ़ गयी।

दोनों भाई पलंग के नीचे झुके और वहां रखे हुए बक्से को खींच कर बाहर निकाला। बड़े भाई की पत्नी ने अपने पल्लू में खौंसी हुई चाबी निकाली और अपने पति को दी।

बक्सा खुलते ही तीनों ने बड़ी उत्सुकता से बक्से में झाँका, अंदर चालीस-पचास किताबें रखी थीं। तीनों को सहसा विश्वास नहीं हुआ। बड़े भाई की पत्नी निराशा भरे स्वर में  बोली, "मुझे तो पूरा विश्वास था कि बाबूजी ने कभी अपनी दवाई तक के रुपये नहीं लिये, तो उनकी बचत के रुपये और गहने इसी बक्से में रखे होंगे, लेकिन इसमें तो....."

इतने में छोटे भाई ने देखा कि बक्से के कोने में किताबों के पास में एक कपड़े की थैली रखी हुई है, उसने उस थैली को बाहर निकाला। उसमें कुछ रुपये थे और साथ में एक कागज़। रुपये देखते ही उन तीनों के चेहरे पर जिज्ञासा आ गयी। छोटे भाई ने रुपये गिने और उसके बाद कागज़ को पढ़ा, उसमें लिखा था,

"मेरे अंतिम संस्कार का खर्च"
-०-

सभी चित्र: साभार गूगल।

मंगलवार, 7 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: स्वाद । लेखक: सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा । वाचन: डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी



लघुकथा: स्वाद / सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा वो जहां भी जाता , इंसानों के किसी भी समूह में बैठता या अपने कमरे में चुप बैठकर अपने आप से बातें करता तो उसे लोग आपस में लड़ते हुए दिखाई देते। फरेब, ईर्ष्या, द्वेष, बीमारियां,षड्यंत्रों और दंगों के बीच सुविधाओं की भूख और आपसी मारामारी के बीच, कई बार तो अपने आप से ही आगे निकलने की होड़। वह खीझ उठता कि हर कोई अपनी जिंदगी को खूबसूरत देखना चाहता है पर ख़ूबसूरती है कि रेगिस्तान में मायावी पानी की तरह दूर भागती फिरती है। यहां तक कि सरकारी खर्चे पर पल रहे पार्क या पहाड़ों की हरी-भरी घाटियों की प्राकृतिक छटा को भी आदमी ने बंदूकों की बारूद से निकली दुर्गंध या फिर अपनी ही गंदगी से भर दिया है। वो खीझ की हद तक खुद को उलझन में पाता कि ये ईश्वर भी क्या चीज है जो अपनी ही बनाई हुई दुनिया को शांति से नहीं रख पा रहा । क्या वो अपनी इस उद्दंड सृष्टि को देखकर संतुष्ट रह पाता होगा? और ऐसे हालात में भी अगर वो संतुष्ट रहता है तो निश्चय ही उसे किसी अच्छे रचनाकार का दर्जा नहीं दिया जाना चाहिए। न जाने क्यों लोग उसे पालनहार कह कर उसकी महिमा का बखान करते हैं। अपने आप में गुम हुई उसकी तंद्रा को अचानक दरवाजे पर पड़ी हल्की सी थाप ने भंग कर दिया। उसने उस थाप को अनसुना कर दिया और अपनी बनाई गुमशुदगी में फिर से खो गया। जिंदगी का बेमानीपन उसे जिंदगी का सच लगने लगा। उसके दिल की धड़कनो ने पाया कि हवा में घुली बारूद उसकी वाहिकाओं में उतरने को आतुर है। इसी बीच दरवाजे पर पड़ी पहले वाली हलकी थाप दुगुने आवेग से दरवाजे पर फिर से आ पड़ी। इस बार की थाप में किसी बच्चे का तोतलापन भी घुला था, " दलवाजा तोलो, नहीं तो हम भीद जायेंगें। हमाली मम्मा को बुखाल है, वो मल जाएगी।" इस तुतलाहट को वह नजरअंदाज नहीं कर पाया और उसने दरवाजा खोल दिया। सामने का दृश्य उसकी तंद्रा के लिए दर्द से अधिक डरावना था। अधूरी पौशाक से ढकी उस औरत के वक्ष से लिपटा दो-तीन साल का बच्चा भी बारिश की बूंदा-बांदी में भीग चुका था। उन दोनों की दयनीय आँखें बिना कुछ कहे कह रही थीं कि वो दोनों अनचाही बरसात से भीगे ही नहीं हैं, वे दोनों बिन बुलाई भूख से बिलबिला भी रहे हैं। अगर उन दोनों को, उनकी इन दोनों मुसीबतों से तुरंत निजात न मिली तो आज रात वे दोनों एक साथ दम तोड़ देंगें। अगले कुछ छणो में वे उसके कमरे के अंदर आ चुके थे और वह खुद, कुछ देर पहले की अपनी दुनिया से बाहर निकलने को मजबूर हो गया था। उसने उस माँ और उसके बच्चे के लिए पहले एक चारपाई, फिर एक बिछावन और फिर घर में रखे कपड़ों का इंतजाम किया। जब माँ-बेटे का दयनीय क्रंदन समाप्त हो गया और वे दोनों कुछ सामान्य हो गए तो उसने उन दोनों के लिए गर्म चाय और खाने का इंतजाम भी कर दिया। थोड़ी देर में, उसके दिए लिहाफ में सिमटकर वे दोनों लावारिस सो भी गए। फिर वो अकेला अपनी उसी कुर्सी पर जा कर बैठा जिस पर वह उन दोनों के आने से पहले बैठकर, जिंदगी के अनमनेपन से जूझ रहा था। उसे लगा, "जिंदगी में हर जगह वीरानी और रेगिस्तान का उजाड़ होता तो फिर इन दोनों के पास आज जिंदगी वापस कैसे आती? उसके पास अभी करने को, बहुत कुछ है, जो उसे करना चाहिए।" उसने अपने लिए एक कप चाय बनाई और उसे पीते हुए उसे, चीनी का भरपूर स्वाद आया। - सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा डी - श्याम पार्क एक्सटेंशन , साहिबाबाद - ( उत्तर प्रदेश ) 20 /03 /2020

शनिवार, 4 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: सआदत हसन मंटो की 6 लघुकथाएं | वाचनः डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी



11 मई 1912 को इस दुनिया में अवतरित हुए सआदत हसन मंटो उर्दू लेखक थे, मंटो की रचनाओं की जितनी चर्चा बीते दशक में हुई है उतनी शायद ही किसी उर्दू और हिंदी दुनिया के रचनाकार की हुई हो. (साभार wikipedia)

राजेंद्र यादव कहते हैं चेख़व के बाद मंटो ही थे जिन्होंने अपनी कहानियों के दम पर अपनी जगह बना ली यानी उन्होंने कोई उपन्यास नहीं लिखा.

कमलेश्वर उन्हें दुनिया का सर्वश्रेष्ठ कहानीकार बताते हैं.

अपनी रचनाओं में विभाजन, दंगों और सांप्रदायिकता पर जितने तीखे कटाक्ष मंटो ने किए उसे देखकर एक ओर तो आश्चर्य होता है कि कोई रचनाकार इतना साहसी और सच को सामने लाने के लिए इतना निर्मम भी हो सकता है लेकिन दूसरी ओर यह तथ्य भी चकित करता है कि अपनी इस कोशिश में मानवीय संवेदनाओं का सूत्र लेखक के हाथों से एक क्षण के लिए भी नहीं छूटता. (साभार BBC हिंदी)

18 जनवरी 1955 को मंटो ने इस दुनिया से विदा ली. अपने छोटे से जीवनकाल में उन्होंने बाइस लघु कथा संग्रह, एक उपन्यास, रेडियो नाटक के पांच संग्रह, रचनाओं के तीन संग्रह और व्यक्तिगत रेखाचित्र के दो संग्रह प्रकाशित किए।

लघुकथा दुनिया के यूट्यूब चैनल में प्रस्तुत है उनकी 6 लघुकथाएं -

1
बेख़बरी का फ़ायदा

लबलबी दबी – पिस्तौल से झुँझलाकर गोली बाहर निकली.
खिड़की में से बाहर झाँकनेवाला आदमी उसी जगह दोहरा हो गया.
लबलबी थोड़ी देर बाद फ़िर दबी – दूसरी गोली भिनभिनाती हुई बाहर निकली.
सड़क पर माशकी की मश्क फटी, वह औंधे मुँह गिरा और उसका लहू मश्क के पानी में हल होकर बहने लगा.
लबलबी तीसरी बार दबी – निशाना चूक गया, गोली एक गीली दीवार में जज़्ब हो गई.
चौथी गोली एक बूढ़ी औरत की पीठ में लगी, वह चीख़ भी न सकी और वहीं ढेर हो गई.
पाँचवी और छठी गोली बेकार गई, कोई हलाक हुआ और न ज़ख़्मी.
गोलियाँ चलाने वाला भिन्ना गया.
दफ़्तन सड़क पर एक छोटा-सा बच्चा दौड़ता हुआ दिखाई दिया.
गोलियाँ चलानेवाले ने पिस्तौल का मुहँ उसकी तरफ़ मोड़ा.
उसके साथी ने कहा : “यह क्या करते हो?”
गोलियां चलानेवाले ने पूछा : “क्यों?”
“गोलियां तो ख़त्म हो चुकी हैं!”
“तुम ख़ामोश रहो....इतने-से बच्चे को क्या मालूम?”

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2
करामात

लूटा हुआ माल बरामद करने के लिए पुलिस ने छापे मारने शुरु किए.
लोग डर के मारे लूटा हुआ माल रात के अंधेरे में बाहर फेंकने लगे,
कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने अपना माल भी मौक़ा पाकर अपने से अलहदा कर दिया, ताकि क़ानूनी गिरफ़्त से बचे रहें.
एक आदमी को बहुत दिक़्कत पेश आई. उसके पास शक्कर की दो बोरियाँ थी जो उसने पंसारी की दूकान से लूटी थीं. एक तो वह जूँ-तूँ रात के अंधेरे में पास वाले कुएँ में फेंक आया, लेकिन जब दूसरी उसमें डालने लगा ख़ुद भी साथ चला गया.
शोर सुनकर लोग इकट्ठे हो गये. कुएँ में रस्सियाँ डाली गईं.
जवान नीचे उतरे और उस आदमी को बाहर निकाल लिया गया.
लेकिन वह चंद घंटो के बाद मर गया.
दूसरे दिन जब लोगों ने इस्तेमाल के लिए उस कुएँ में से पानी निकाला तो वह मीठा था.
उसी रात उस आदमी की क़ब्र पर दीए जल रहे थे.

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3

ख़बरदार

बलवाई मालिक मकान को बड़ी मुश्किलों से घसीटकर बाहर लाए.

कपड़े झाड़कर वह उठ खड़ा हुआ और बलवाइयों से कहने लगा :
“तुम मुझे मार डालो, लेकिन ख़बरदार, जो मेरे रुपए-पैसे को हाथ लगाया.........!”

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4
हलाल और झटका

“मैंने उसकी शहरग पर छुरी रखी, हौले-हौले फेरी और उसको हलाल कर दिया.”
“यह तुमने क्या किया?”
“क्यों?”
“इसको हलाल क्यों किया?”
"मज़ा आता है इस तरह."
“मज़ा आता है के बच्चे.....तुझे झटका करना चाहिए था....इस तरह. ”
और हलाल करनेवाले की गर्दन का झटका हो गया.

(शहरग - शरीर की सबसे बड़ी शिरा जो हृदय में मिलती है)

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5
घाटे का सौदा

दो दोस्तों ने मिलकर दस-बीस लड़कियों में से एक चुनी और बयालीस रुपये देकर उसे ख़रीद लिया.
रात गुज़ारकर एक दोस्त ने उस लड़की से पूछा : “तुम्हारा नाम क्या है? ”
लड़की ने अपना नाम बताया तो वह भिन्ना गया : “हमसे तो कहा गया था कि तुम दूसरे मज़हब की हो....!”
लड़की ने जवाब दिया : “उसने झूठ बोला था!”
यह सुनकर वह दौड़ा-दौड़ा अपने दोस्त के पास गया और कहने लगा : “उस हरामज़ादे ने हमारे साथ धोखा किया है.....हमारे ही मज़हब की लड़की थमा दी......चलो, वापस कर आएँ.....!”


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6
आराम की ज़रूरत

“मरा नहीं... देखो अभी जान बाक़ी है।”
“रहने दो यार... मैं थक गया हूँ।”

शुक्रवार, 3 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: ह्यूमन हाइबरनेशन । लेखन व वाचन: डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी




उस रोबोटमेन का नाम मिस्की था। यह नाम उसे इसलिए दिया गया था क्योंकि उसकी नेनोचिप में मिस्र की प्राचीन सभ्यता से लेकर आज वर्ष 2255 तक की हर विषय के बारे में न केवल पूरी जानकारी संग्रहित थी बल्कि किसी भी एक या अधिक विषयों के विशेषज्ञ रोबोट का कार्य कर पाने में अकेला ही सक्षम था। अपने ज्ञान के बलबूते पर उसने पैदा होने के छह महीने में ही आर्टिफिशियल इंटेलिजेन्स को रियल इंटेलिजेन्स में बदल दिया था।

आज वह अपने जनक मानव से मिलने आया था और उसे बता रहा था कि, "मकड़ी के जालों में प्राकृतिक एंटीसेप्टिक होता है जो घाव साफ़ रख सकता है। इसलिए उनका आवरण आपके घर पर बना दिया है।"

जनक मानव चुपचाप सुन रहा था। वह रोबोटमेन आगे बोला, “मैंने अब अल्ट्रा वॉयलेट किरणों को अपना भोजन बना लिया है। ज्यूपिटर से हजारों की संख्या में हीरे लाया हूँ, उनसे अपनी और अपनी आने वालीं नस्लों के पुर्जे तैयार करूंगा, जो सैंकड़ों सालों तक सुस्त नहीं पड़ेंगे।"

खिड़की से गुजरती बिजली को देखकर रोबोटमेन मुस्कुराया और कहा, "अब धरती को इन बिजलियों की ज़रूरत नहीं रहेगी। अपनी नयी नस्लों को मैं खुद ही तैयार कर रहा हूँ, पहले ही सेकंड मेरे बच्चे मुझसे दोगुने बड़े होंगे और उनकी चिप में मैं सनातन प्लास्टिक से बनी चिप-न्यूक्लिक-एसिड स्थायी रूप से फिक्स कर रहा हूँ ताकि वो नस्लें मेरे नाम 'मिस्की' से जानी जाएँ।“

“ये रोबोटमेन… ‘मेन’ अच्छा नहीं लगता।“  वह इंसानों की तरह मुंह बिगाड़ने की कोशिश करते हुए आगे बोला, “खैर, मेरी तरह ही तेज गति के दिमाग और बेहतर संतुलन के लिए अपने बच्चों की अंगुलियां भी छह-छह रख रहा हूँ।  अरे हाँ! आपके लिए यह 20 साल पुराना शहद लाया हूँ और कुछ तो धरती पर ऐसा कुछ बचा नहीं कि आप खा सकें।“

“अपनी शारीरिक कमजोरियों के कारण इंसानी नस्ल अब ख़त्म होने की कगार पर है। पेड़, पानी, साफ हवा के बिना आप लोग जी नहीं सकते। आने वाला समय हम रोबोट्स का है। धरती से लेकर सूरज तक सम्भालना है।“ कहते-कहते उसकी मुस्कराहट गहराती जा रही थी।

“अब चलता हूँ, बहुत काम बचा हुआ है। एक बात पूछनी थी, जब आप लोगों को पता था कि पेड़ों की कटाई, धुंआ, गैस आदि ग्लोबल वॉर्मिंग के द्वारा आपकी नस्ल खत्म कर देंगी, तो आप लोगों ने इन बातों को बढ़ावा दिया ही क्यों?”

और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किये वह मुड़ा और चला गया। उत्तर पहले ही से उसकी चिप में दर्ज था।

जनक मानव तब भी चुपचाप देख रहा था। वह इस प्रश्न के पूछने का कारण जानता था।
- डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी

मंगलवार, 31 मार्च 2020

लघुकथा वीडियो: अदृश्य जीत | लेखन व वाचन डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी





लघुकथा: अदृश्य जीत | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

जंगल के अंदर उस खुले स्थान पर जानवरों की भारी भीड़ जमा थी। जंगल के राजा शेर ने कई वर्षों बाद आज फिर खरगोश और कछुए की दौड़ का आयोजन किया था।




पिछली बार से कुछ अलग यह दौड़, जानवरों के झुण्ड के बीच में सौ मीटर की पगडंडी में ही संपन्न होनी थी। दोनों प्रतिभागी पगडंडी के एक सिरे पर खड़े हुए थे। दौड़ प्रारंभ होने से पहले कछुए ने खरगोश की तरफ देखा, खरगोश उसे देख कर ऐसे मुस्कुरा दिया, मानों कह रहा हो, "सौ मीटर की दौड़ में मैं सो जाऊँगा क्या?"


और कुछ ही क्षणों में दौड़ प्रारंभ हो गयी।

खरगोश एक ही फर्लांग में बहुत आगे निकल गया और कछुआ अपनी धीमी चाल के कारण उससे बहुत पीछे रह गया।

लगभग पचास मीटर दौड़ने के बाद खरगोश रुक गया, और चुपचाप खड़ा हो गया।

कछुआ धीरे-धीरे चलता हुआ, खरगोश तक पहुंचा। खरगोश ने कोई हरकत नहीं की। कछुआ उससे आगे निकल कर सौ मीटर की पगडंडी को भी पार कर गया, लेकिन खरगोश वहीँ खड़ा रहा।

कछुए के जीतते ही चारों तरफ शोर मच गया, जंगल के जानवरों ने यह तो नहीं सोचा कि खरगोश क्यों खड़ा रह गया और वे सभी चिल्ला-चिल्ला कर कछुए को बधाई देने लगे।

कछुए ने पीछे मुड़ कर खरगोश की तरफ देखा, जो अभी भी पगडंडी के मध्य में ही खड़ा हुआ था। उसे देख खरगोश फिर मुस्कुरा दिया, वह सोच रहा था,
"यह कोई जीवन की दौड़ नहीं है, जिसमें जीतना ज़रूरी हो। खरगोश की वास्तविक गति कछुए के सामने बताई नहीं जाती।"

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
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