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गुरुवार, 3 फ़रवरी 2022

अनिल मकारिया जी द्वारा मेरी एक लघुकथा की समीक्षा



स्वप्न को समर्पित । डॉ.चंद्रेशकुमार छतलानी 

लेखक उसके हर रूप पर मोहित था, इसलिये प्रतिदिन उसका पीछा कर उस पर एक पुस्तक लिख रहा था। आज वह पुस्तक पूरी करने जा रहा था, उसने पहला पन्ना खोला, जिस पर लिखा था, "आज मैनें उसे कछुए के रूप में देखा, वह अपने खोल में घुस कर सो रहा था"

फिर उसने अगला पन्ना खोला, उस पर लिखा था, "आज वह सियार के रूप में था, एक के पीछे एक सभी आँखें बंद कर चिल्ला रहे थे"

और तीसरे पन्ने पर लिखा था, "आज वह ईश्वर था और उसे नींद में लग रहा था कि उसने किसी अवतार का सृजन कर दिया"

अगले पन्ने पर लिखा था, "आज वह एक भेड़ था, उसे रास्ते का ज्ञान नहीं था, उसने आँखें बंद कर रखीं थीं और उसे हांका जा रहा था"

उसके बाद के पन्ने पर लिखा था, "आज वह मीठे पेय की बोतल था, और उसके रक्त को पीने वाला वही था, जिसे वह स्वयं का सृजित अवतार समझता था, उसे भविष्य के स्वप्न में डुबो रखा था।

लेखक से आगे के पन्ने नहीं पढ़े गये, उसके प्रेम ने उसे और पन्ने पलटने से रोक लिया। उसने पहले पन्ने पर सबसे नीचे लिखा - 'अकर्मण्य', दूसरे पर लिखा - 'राजनीतिक नारेबाजी', तीसरे पर - 'चुनावी जीत', चौथे पर - 'शतरंज की मोहरें' और पांचवे पन्ने पर लिखा - 'महंगाई'।

फिर उसने किताब बंद की और उसका शीर्षक लिखा - 'मनुष्य'

-चंद्रेश कुमार छतलानी


इस लघुकथा पर समीक्षा । अनिल मकारिया

यह लघुकथा बेहद रोचक है । यूँ समझिये एक ग्रंथ को लघुकथा में समाहित कर दिया है ।

कुछ प्रतीकों को मैं खोल पाया कुछ को शायद किसी और तरीके से ज्ञानीजन खोल पाएं ।

इस लघुकथा का शीर्षक 'स्वप्न को समर्पित' इस लघुकथा की मूल संकल्पना है आप इस शीर्षक को इस लघुकथा की चाबी कह सकते हैं ।

विष्णु पुराण के मुताबिक यह दुनिया शेषनाग पर सो रहे विष्णु का स्वप्न मात्र है ।

जब विष्णु क्षीरसागर में तैरते हुए शेषनाग पर सो रहे होते हैं तब वे किसी अवत्तार रूप में मृत्युलोक (धरती) पर विचरण कर रहे होते हैं और जब धरती पर अवत्तार रूप में सो रहे होते है तब वह विष्णु रूप में जागृत अवस्था में कायनात का राजकाज देख रहे होते हैं ।

// "आज वह ईश्वर था और उसे नींद में लग रहा था कि उसने किसी अवतार का सृजन कर दिया"//

तीसरे पन्ने पर लेखक (ईश्वर) द्वारा सृजित यह पंक्तियां इस लघुकथा के शीर्षक की संकल्पना को बल देती है ।

इस लघुकथा में ईश्वर को लेखक की संज्ञा दी गई है जो अपनी ही रचना मनुष्य पर मोहित है (प्रतीक: रची गई किताब का शीर्षक 'मनुष्य')

वह अपने बनाये आज के मनुष्य की विवेचना कर रहा है ।

उसे अपना बनाया मनुष्य विभिन्न जानवरों की तरह आचरण करते तो दिख रहा है लेकिन मनुष्यत्व उसमें नदारद है।

शायद इसीलिए अपनी प्रिय रचना मनुष्य से हताश लेखक (ईश्वर) ने अपनी ही किताब के लिखे बाकी के पन्ने पलटने से खुद को रोक दिया ।

//उसने पहले पन्ने पर सबसे नीचे लिखा - 'अकर्मण्य', दूसरे पर लिखा - 'राजनीतिक  नारेबाजी', तीसरे पर - 'चुनावी जीत', चौथे पर - 'शतरंज की मोहरें' और पांचवे पन्ने पर लिखा - 'महंगाई'।//

हर पन्ने को दिए गए शीर्षक आज के मनुष्य की कहानी पन्ना-दर-पन्ना बयान करते हैं ।

'अकर्मण्यता' की वजह से 'नारेबाजी' पर ज्यादा जोर देना जिसके फलस्वरूप 'चुनावी जीत' हासिल करना और दुर्बल वर्ग अथवा सता को शतरंज के मोहरों की तरह इस्तेमाल करके 'महंगाई' का कारण बनाना ।

इस लघुकथा के प्रतीकों को मैंने अपने नजरिये से समझा है हो सकता है लेखक का नजरिया इस लघुकथा को लिखते समय अलग रहा हो ।

मुझे यह लघुकथा निजी तौर पर बेहद पसंद आई । यह लघुकथा पाठक के लिए एक 'कैलिडोस्कोप' है जिसमें कांच के टुकड़े हर बार नई आकृति गढ़ते रहते हैं ।

- अनिल मकारिया

#Anil_Makariya

Jalgaon (Maharashtra)

रविवार, 19 दिसंबर 2021

समीक्षा | लघुकथा:ऊँचाई लेखक: रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' | समीक्षक: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

आइए सबसे पहले लघुकथा पढ़ते हैं:

ऊँचाई /  रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

 

 

पिताजी के अचानक आ धमकने से पत्नी तमतमा उठी, "लगता है बूढ़े को पैसों की ज़रूरत आ पड़ी है, वर्ना यहाँ कौन आने वाला था। अपने पेट का गड्ढा भरता नहीं, घर वालों का कुआँ कहाँ से भरोगे?"

 

मैं नज़रें बचाकर दूसरी ओर देखने लगा। पिताजी नल पर हाथ-मुँह धोकर सफर की थकान दूर कर रहे थे। इस बार मेरा हाथ कुछ ज्यादा ही तंग हो गया। बड़े बेटे का जूता मुँह बा चुका है। वह स्कूल जाने के वक्त रोज़ भुनभुनाता है। पत्नी के इलाज़ के लिए पूरी दवाइयाँ नहीं खरीदी जा सकीं। बाबू जी को भी अभी आना था।

 

घर में बोझिल चुप्पी पसरी हुई थी। खाना खा चुकने पर पिताजी ने मुझे पास बैठने का इशारा किया। मैं शंकित था कि कोई आर्थिक समस्या लेकर आए होंगे। पिताजी कुर्सी पर उकड़ू बैठ गए। एकदम बेफिक्र, "सुनो" - कहकर उन्होंने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा। मैं साँस रोककर उनके मुँह की ओर देखने लगा। रोम-रोम कान बनकर अगला वाक्य सुनने के लिए चौकन्ना था।

 

 वे बोले, "खेती के काम में घड़ी भर की फ़ुर्सत नहीं मिलती है। इस बखत काम का जोर है। रात की गाड़ी से ही वापस जाऊँगा। तीन महीने से तुम्हारी कोई चिट्ठी तक नहीं मिली। जब तुम परेशान होते हो, तभी ऐसा करते हो।"

 

उन्होंने जेब से सौ-सौ के दस नोट निकालकर मेरी तरफ़ बढ़ा दिए- "रख लो। तुम्हारे काम आ जाएँगे। इस बार धान की फ़सल अच्छी हो गई है। घर में कोई दिक्कत नहीं है। तुम बहुत कमज़ोर लग रहे हो। ढंग से खाया-पिया करो। बहू का भी ध्यान रखो।"

 

मैं कुछ नहीं बोल पाया। शब्द जैसे मेरे हलक में फँसकर रह गए हों। मैं कुछ कहता इससे पूर्व ही पिताजी ने प्यार से डाँटा- "ले लो। बहुत बड़े हो गए हो क्या?"

 

"नहीं तो" - मैंने हाथ बढ़ाया। पिताजी ने नोट मेरी हथेली पर रख दिए। बरसों पहले पिताजी मुझे स्कूल भेजने के लिए इसी तरह हथेली पर इकन्नी टिका दिया करते थे, परन्तु तब मेरी नज़रें आज की तरह झुकी नहीं होती थीं।

 

 - रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

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समीक्षा

कुछ वर्षों पूर्व मैंने एक कविता लिखी थी, 'पुरुष'। उस कविता की एक पंक्ति है, “मैंने हस्तरेखा की छाया में, गीता का कर्मज्ञान पढ़ा।कविता की इस पंक्ति को लिखते समय मेरे मस्तिष्क में जिनकी छवि आ रही थी, वे मेरे पिता ही थे। अपने पिता से यों तो अधिकतर व्यक्ति प्रभावित होते ही हैं। आखिर उन्हीं का डीएनए हमारे रक्त में मौजूद है। मैंने भी अपने अंतिम समय तक कर्म करने का ज्ञान अपने पिता ही से प्राप्त किया है। वे अपने अंतिम समय तक अपने दायित्व का निर्वाह कर रहे थे और शायद दायित्वपूर्ण होने की संतुष्टि के कारण ही अंत समय में उनके होठों पर मुस्कान थी। चुंकि यह मेरा अपना अनुभव है, शायद इसीलिए, जैसे ही पिता सबंधी लघुकथाओं की चर्चा होती है, मुझे सबसे पहले रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' की लघुकथा 'ऊँचाई' ही याद आती है। इस रचना में भी पिता अपने पितृ-धर्म का पालन करते हैं, पुत्र चाहे विचलित क्यों न हो रहा हो। बुढ़ापा आने पर अपनी आर्थिक कमजोरियों के कारण कई बच्चे अपने माता-पिता का भरण-पोषण करने में समर्थ नहीं होते। लेकिन पिता एक ऐसा आदर्श भी हैं, जो उस असमर्थता को समझते हुए स्वयं को और अधिक सशक्त करने की आंतरिक शक्ति भी रखते हैं। पुत्र की आर्थिक कमजोरी को उसका भाग्य मानते हुए स्वयं कर्म को प्रवृत्त हो उस अशक्तता को कम करने का प्रयास करते हैं। "मैंने हस्तरेखा की छाया में, गीता का कर्मज्ञान पढ़ा" की तरह। यह एक ऐसा संदेश है जो न केवल पिता के प्रति सम्मान का भाव जागृत करता है बल्कि उच्च आदर्शों एवं नैतिक मूल्यों को स्थापित भी कर रहा है।

 

पिता के अतुल्य त्याग और सुसमर्पण की महती भावना को दर्शाती इस रचना से मैं लघुकथा लिखना प्रारम्भ करने से पूर्व से परिचित हूँ। रचना के प्रारम्भ में पत्नी तमतमा कहती है कि, "लगता है बूढ़े को पैसों की ज़रूरत आ पड़ी है, वर्ना यहाँ कौन आने वाला था। अपने पेट का गड्ढा भरता नहीं, घर वालों का कुआँ कहाँ से भरोगे?" यह संवाद ही इस लघुकथा के आधार को व्यक्त कर देता है। इस लघुकथा में इस संवाद के बाद किसी अतिरिक्त भूमिका की आवश्यकता है ही नहीं। पिता काफी समय के बाद अपने बेटे के घर पर आए हैं और बेटे की अर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है।

 

पिता का सम्मान हर सम्प्रदाय में आवश्यक रूप से कहा गया है, हिंदू नीति में लिखा है कि "जनकश्चोपनेता च यश्च विद्यां प्रयच्छति। अन्नदाता भयत्राता पश्चैते पितरः स्मृताः॥" अर्थात जन्मदाता, यज्ञोपवीत कराने वाला, विद्या देने वाले, भोजन प्रदान करने वाले और भय से रक्षा करने वाले व्यक्ति पिता हैं। वहीं इस्लाम में सूरतुल इस्रा : 23 के अनुसार “...माता-पिता के साथ अच्छा व्यवहार करना, उनके बुढ़ापे में उनसे कुछ भी बुरा न कहते हुए विनम्र रहना, सिर झुकाये रखना, और कहना कि ऐ रब दया कर उन दोनों पर जिस तरह उन दोनों ने मेरे बचपन में मुझे पाला है।" सिखों के दशम गुरु श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी के चार सुपुत्रों को सामूहिक रूप से संबोधित चार साहिबज़ादे किया जाता है, क्योंकि अपने पिता के लिए वे मिल कर एक ही शक्ति बने और इसाई धर्म में तो चर्च के पादरी को ही फादर जैसे महत्वपूर्ण शब्द से सम्बोधित किया जाता है।

 

इस लघुकथा में भी अंत में जब यह पंक्ति आती है कि //पिताजी ने प्यार से डाँटा- "ले लो। बहुत बड़े हो गए हो क्या?"// तब अंतर्मन में पिता के प्रति सम्मान स्वतः ही जागृत हो उठता है। क्योंकि उस समय वे अपने युवा पुत्र और उसके परिवार के लिए भी भोजन प्रदान करने वाले अन्नदाता बन जाते हैं। इसी प्रकार "रात की गाड़ी से ही वापस ... तभी ऐसा करते हो।" वाला अनुच्छेद पिता का भय से रक्षा करने वाला चरित्र उजागर कर रहा है।

 

इस रचना में पुत्र पहले तो यह सोचता है कि //बाबू जी को भी अभी आना था।// लेकिन जब पिताजी कुर्सी पर उकड़ू बैठ गए। एकदम बेफिक्र, "सुनो" - कहकर उन्होंने पुत्र का ध्यान अपनी ओर खींचा तब वह सोचता है कि "मैं साँस रोककर उनके मुँह की ओर देखने लगा।" हालांकि उसे यह उम्मीद थी कि पिता कुछ मांगेंगे, लेकिन फिर भी चुपचाप उनकी बात सुनने को आतुर होता है यहां पुत्र के चरित्र का वही आदर्श स्थापित हो रहा है जैसा कि सूरतुल इस्रा : 23 में कहा गया है उनके बुढ़ापे में उनसे कुछ भी बुरा न कहते हुए विनम्र रहना, सिर झुकाये रखना।

 

पिता-पुत्र के संबंधों के आदर्शों की व्याख्या करती यह रचना केवल आदर्शों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इस लघुकथा की ऊँचाई इससे अधिक है। बड़े बेटे का जूता, पत्नी की दवाइयाँ और स्वयं की कमज़ोरी का कारण केवल अपनी पत्नी और अपने बच्चों को ही अपना आश्रित मानना है। (माता-)पिता को ऐसे समय में भुला देने का एक अर्थ उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियों से पलायन करना भी है। //बाबू जी को भी अभी आना था।// वाला वाक्य यह दर्शाने में पूरी तरह समर्थ है। इसके अतिरिक्त अंतिम पंक्ति इस रचना के शीर्षक को सार्थक करते पुत्र को पितृ-धर्म की ऊँचाई भी समझा रही है, जो वह पहले नहीं समझ पाया तो शर्मिंदा सा हुआ।

 

लघुकथा का शीर्षक श्रेष्ठ है, भाषा सभी के समझ में आ जाए ऐसी है। कुल मिलाकर श्री काम्बोज की विवेकी, गूढ़ और प्रबुद्ध सोच का प्रतिफल यह लघुकथा एक उत्तम और सभी के लिए पठनीय साहित्यिक कृति है।

 

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


शुक्रवार, 8 नवंबर 2019

लघुकथा : सद्भाव | लेखक: डॉ. सतीश राज पुष्करणा | समीक्षा : कल्पना भट्ट

रचनाकाल- 1975 - 1980 के आसपास
लघुकथा: सद्भाव  / डॉ. सतीश राज पुष्करणा 

आधुनिक विचारों की मीता की शादी हुई तो उसने न तो सिन्दूर लगाया और न ही साड़ी, सलवार-कमीज आदि पहनना स्वीकार किया| वह कुँवारेपन की तरह जीन्स एवं टी-शर्ट ही पहनती|
ससुराल में सभी उसे अजीब नजरों से देखते| मोहल्ले टोले में उसका सिन्दूर न लगाना और उसका जीन्स एवं टी-शर्ट पहनना, चर्चा का विषय बन गया| मीता सुनती किन्तु उसे कभी किसी की भी परवाह नहीं थी| वह कुँवारेपन की तरह ही समय परोफ्फिस जाती और समय पर घर लौट आती|
एक दिन वह आई और सीधे पलंग पर लेट गयी | सास ने बहुत वात्सल्य भाव से पुछा,"क्या बात है बेटे? क्या तबियत खराब है?"
"हाँ ! कुछ बुखार-सा लग रहा है...सिर आदि में भी बहुत दर्द है|"
सास अभी उसकी तबियत के बारे में समझ ही रही थी कि उसके ससुर डॉक्टर ले आये|"
डॉक्टर ने ठीक से देखा और दावा लिख कर चले गए|
ऑफिस से लौटकर सत्यम अभी घर में प्रवेश कर ही रहा थे कि डॉक्टर को घर से निकलते देख सत्यम परेशान हो गया| उसने साथ चल रहे पिता से पूछा, "क्या हुआ? किसकी तबियत खराब है?"
"मीता की... चिंता की कोई बात नहीं|"
इतना सुनते ही सत्यम लपककर मीता के पास पहुँचा, “क्या हुआ मीते?” चिंता की रेखाएँ सत्यम के चेहरे पर स्पष्ट थीं, जिन्हें मीता ने पढ़ लिया|
सत्यम तुरंत पिटा की ओर बढ़ा, “ पापा! प्रेसक्रिप्शन कहाँ है? दीजिये मैं दवाएँ ले आता हूँ|”
“बेटा! मैं जब जा ही रहा हूँ तो तू क्यों परेशान होता है?”
“नहीं पापा! आप लोग मीता को देखें... ,मैं दवा लेकर आता हूँ|” यह कहकर वह बाईक पर स्वर हुआ और बाज़ार की ओर बढ़ गया|”
मीता सोचने लगी! अरे यह कैसा परिवार है ज़रा-सा बुखार होने पर सबने जमीन-आस्मां एक कर दिया| इतना प्यार मुझसे... ख़ुशी से उसकी आँखें छलछला आयीं|
आँखों में पानी देखकर सास ने कहा, “बेटे! तू चिंता न कर, तू जल्दी ठीक हो जायेगी| ले ! तब तक तू चाय पी ले...सत्यम दवा लेकर आता ही होगा|”
“माँ-जी ! मुझे हुआ ही क्या है? ... बुखार एकाध दिन में उतर जायेगा|”
“हिल नहीं बेटा! चुपचाप आराम से पड़ी रहो|”
मीता कुछ नहीं बोली| सत्यम दवाएँ ले आया... जिन्हें खाकर वह सो गयी| दो-तीन दिन बाद जब वह तैयार होकर ऑफिस जाने लगी तो सबके आश्चर्य की सीमा न रही| आज उसकी माँग में सिन्दूर भी था और बदन साड़ी और ब्लाउज से भी ढका था| सास-ससुर के चरण-स्पर्श करके बहु ऑफिस जाने हेतु अपनी गाड़ी की ओर बढ़ गयी|
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समीक्षा / 
कल्पना भट्ट
जनरेशन गैप की बात हो चाहे आधुनिकता की, पश्च्यात संस्कृति हावी होती दिखाई पड़ती है, आधुनिकता को लेकर लोगों की अपनी अपनी समझ है, जिसपर वह अमल करते है, समय बदलता है, काल बदलता है, तभी प्रगति संभव होती है, प्रगतिशील होना यह एक स्वाभाविक गुण है, आधुनिकता को लेकर हर इन्सान की अपनी सोच और अपना विवेक होता है| आधुनिक होना बुरा नहीं, पर आधुनिकता के लिए जिद करना कहाँ तक उचित होता है, इसी विषय को लेकर डॉ सतीशराज पुष्करणा जी इस विषय को लेकर अपनी कुशल कलम का परिचय एक बार और दिया है| आप बहुत ही सहजता से गूढ़ बात को कह देते हैं, यह सिर्फ एक वरिष्ठ और तजुर्बेकार व्यक्ति ही कर सकता है|
‘सद्भाव’ एक ऐसी ही आधुनिक लड़की पर आधारित लघुकथा है : ‘ आधुनिक विचारों की मीता की शादी हुई तो उसने न तो सिन्दूर लगाया और न ही साड़ी, सलवार- कमीज़ आदि पहनना स्वीकार नहीं किया वह कुंवारेपन की तरह जीन्स एवं टी-शर्ट ही पहनती|
इससे साफ़ झलक रहा है कि मीता से ससुराल वालों ने साड़ी पहनने को कहा गया होगा, पर उसने उनकी बातों को नज़रंदाज़ कर दिया, मीता ऑफिस जाती है, परिवार में किसीको कोई परेशानी नहीं हो रही उसकी नौकरी करने के निर्णय से, परिवार की सोच आधुनिक प्रतीत हो रही है, विकासशील सोच है|
‘एक दिन वह आयी और सीधे पलंग पर लेट गयी| सास ने बहुत वात्सल्य भाव से पूछा, “ क्या बात है? क्या तबियत ख़राब है?”
मीता अपने ससुराल वालों की बातों को नहीं मानती पर उसकी सास का वात्सल्य भाव उनकी उदारता दर्शा रहा है, सास और बहु का रिश्ता ज्यादातर नकारत्मक दृष्टि से देखा जाता है पर इस लघुकथा के माध्यम से रचनाकार ने इस रिश्ते को सकारत्मक दिखा कर एक समाज में आ रहे बदलाव को दिखाया है और आपसी रिश्तों में बढ़ रही दूरियों को करीब लाने का प्रयास किया है, लघुकथा के लिए यह कहा गया है कि यह विधा या तो मनो-उत्थान के लिए लिखी जाती है या समाज-उत्थान के लिए, इस लघुकथा में सास की उदारता दोनों की मकसद को पूरा करने में सफल हो रही है, एक तरफ से मीता को अपने बर्ताव और सोच पर पुनः विचार करने पर प्रेरित कर रहा है, वहीँ समाज में सास-बहु के रिश्ते को नकारत्मक सोच को एक सकारात्मक दिशा प्रदान कर रही है|
“हाँ, बुखार सा लग रहा है... सिर आदि में भी बहुत दर्द है|” मीता को बुखार आ रहा है सुनकर उसकी सास उसको आराम करने की सलाह देती है और अपने पति से डॉक्टर को बुलाने को कहती हैं, मीता के ससुरजी पहले ही डॉक्टर को लेने चले जाते है, डॉक्टर मीता की जांच करते है और दवाई लिख कर देते है, ससुरजी बाज़ार जाकर दवाई लाने के घर से बाहर जाने के लिए खड़े होते है, यहाँ एक और परंपरा टूटती नज़र आती है, समाज में एक प्रचलन है, बहु और बेटी में फर्क किया जाता रहा है, इससे विपरीत यहाँ मीता ( नायिका) के सास-ससुर अपनी बहु की सेवा में लगे हुए हैं| इस बीच सत्यम, मीता का पति ऑफिस से घर आ जाता है और अपने पिता से कहता है, “ आप दोनों मीता के पास रहे और प्रिस्क्रिप्शन मुझे दे दीजिये , दवाई मैं लेकर आता हूँ| “ और वह अपनी बाईक पर बैठकर बाज़ार चला जाता है|
पति सत्यम को अपने माता-पिता के प्रति आदर और अपनी पत्नी के प्रति प्रेम, उसके कर्त्तव्य को निभाने में वह कहीं भी चूकता नहीं है| दवाई खाकर मीता सो जाती है, इस बीच पलंग पर लेटे हुए उसको अपनी गलती का एहसास होता है, जब वह अपने सास- ससुर को अपने लिए खड़े पाँव देखती है, और उनके बड़प्पन पर वह नतमस्तक हो जाती है, सिर्फ बुखार ही तो है, पर इस दौरान भी यह मेरी कितनी सेवा कर रहें हैं| दो-तीन दिन के बाद जब वह ठीक हो जाती है, वह साडी में आती है, और माथे पर सिन्दूर लगा लेती है, यह देख उसके घरवालों को ख़ुशी होती है और कहते हैं न सुबह का भूला ‘गर शाम को घर लौट आये तो उसको भूला नहीं कहते| बिकुल ऐसा ही तो मीता के साथ हुआ, आधुनिकता के लिए जो उसकी जो गलत सोच थी उसपर से काला पर्दा हट जाता है और वह अपने कर्तव्यों को और परम्पराओं के बीच बैलेंस करना सीख जाती है|
‘सद्भावना’ शीर्षक इस लघुकथा के लिए सार्थक सिद्ध हो रहा है, इस लघुकथा में संवाद, रचना को सहज और सजीव बना रहे हैं, कथानक और भाषा शैली दोनों ही बहुत सुंदर और सक्षम सिद्ध हो रहे हैं, इस लघुकथा में कुछ दिनों में घटित घटनाक्रम है जो कालखंड के होने का संशय पैदा कर रही है, पर कथा की मांग के चलते इसको गर नज़रंदाज़ कर दिया जाए तो यह लघुकथा एक सार्थक और सकारत्मक सन्देश देने में सफल रही है | समाज में बुराई और अच्छाई दोनों ही देखने को मिलती है, बस देखने का दृष्टिकोण बदलने से घर परिवार में सुख-शांति लायी जा सकती है| इस सुंदर और सार्थक रचना के लिए डॉ सतीशराज पुष्करणा जी को हार्दिक बधाई|

रविवार, 30 जून 2019

मेरी लघुकथा "ईलाज" पर रजनीश दीक्षित जी की समीक्षा


लघुकथा: ईलाज

स्टीव को चर्च के घण्टे की आवाज़ से नफरत थी। प्रार्थना शुरू होने से कुछ वक्त पहले बजते घण्टे की आवाज़ सुनकर वह कितनी ही बार अशांत हो कह उठता कि, "पवित्र ढोंगियों को प्रार्थना का टाइम भी याद दिलाना पड़ता है।" लेकिन उसकी मजबूरी थी कि वह चर्च में ही प्रार्थना कक्ष की सफाई का काम करता था। वह स्वभाव से दिलफेंक तो नहीं था, लेकिन शाम को छिपता-छिपाता चर्च से कुछ दूर स्थित एक वेश्यालय के बाहर जाकर खड़ा हो जाता। वहां जाने के लिए उसने एक विशेष वक्त चुना था जब लगभग सारी लड़कियां बाहर बॉलकनी में खड़ी मिलती थीं। दूसरी मंजिल पर खड़ी रहती एक सुंदर लड़की उसे बहुत पसंद थी।

एक दिन नीचे खड़े दरबान ने पूछने पर बताया था कि उस लड़की के लिए उसे 55 डॉलर देने होंगे। स्टीव की जेब में कुल जमा दस-पन्द्रह डॉलर से ज़्यादा रहते ही नहीं थे। उसके बाद उसने कभी किसी से कुछ नहीं पूछा, सिर्फ वहां जाता और बाहर खड़ा होकर जब तक वह लड़की बॉलकनी में रहती, उसे देखता रहता।

एक दिन चर्च में सफाई करते हुए उसे एक बटुआ मिला, उसने खोल कर देखा, उसमें लगभग 400 डॉलर रखे हुए थे। वह खुशी से नाच उठा, यीशू की मूर्ति को नमन कर वह भागता हुआ वेश्यालय पहुंच गया।

वहां कीमत चुकाकर वह उस लड़की के कमरे में गया। जैसे ही उस लड़की ने कमरे का दरवाज़ा बन्द किया, वह उस लड़की से लिपट गया। लड़की दिलकश अंदाज़ में मुस्कुराते हुए शहद जैसी आवाज़ में बोली, "बहुत बेसब्र हो। सालों से लिखी जा रही किताब को एक ही बार में पढ़ना चाहते हो।"

स्टीव उसके चेहरे पर नजर टिकाते हुए बोला, "हाँ! महीनों से किताब को सिर्फ देख रहा हूँ।"

"अच्छा!", वह हैरत से बोली, "हाँ! बहुत बार तुम्हें बाहर खड़े देखा है। क्या नाम है तुम्हारा?"

"स्टीव और तुम्हारा?"

"मैरी"

जाना-पहचाना नाम सुनते ही स्टीव के जेहन में चर्च के घण्टे बजने लगे। इतने तेज़ कि उसका सिर फटने लगा। वह कसमसाकर उस लड़की से अलग हुआ और सिर पकड़ कर पलँग पर बैठ गया।

लड़की ने सहज मुस्कुराहट के साथ पूछा, "क्या हुआ?"

वहीँ बैठे-बैठे स्टीव ने अपनी जेब में हाथ डाला और बचे हुए सारे डॉलर निकाल कर उस लड़की के हाथ में थमा दिए। वह लड़की चौंकी और लगभग डरे हुए स्वर में बोली, "इतने डॉलर! इनके बदले में मुझे क्या करना होगा?"

स्टीव ने धीमे लेकिन दृढ़ स्वर में उत्तर दिया, "बदले में अपना नाम बदल देना।"

कहकर स्टीव उठा और दरवाज़ा खोलकर बाहर निकल गया। अब उसे घण्टों की आवाज़ से नफरत नहीं रही थी।
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रजनीश दीक्षित जी की समीक्षा 

'मेरी समझ' की आज की कड़ी में आज के लेखक हैं आदरणीय चंद्रेश छतलानी जी। आज उनकी लघुकथा "इलाज" पर अपनी समझ रख रहा हूँ, कुछ इस प्रकार:

#लेखक - चंद्रेश छतलानी जी
#लघुकथा - इलाज
#शब्द_संख्या - 430

अगर सही अर्थों में देखा जाए तो कोई भी व्यक्ति नास्तिक नहीं होता है। कम से कम यह बात हमारे भारत में तो लागू होती ही है। हमारे देश में ज्यादातर तथाकथित नास्तिक मानते हैं कि उसी धर्म के होकर, उसी धर्म और उनके ईश्वर की बुराई करना और दूसरे धर्म के बारे में अच्छा बोलना ही नास्तिकता है। दरअसल वे राजनीति से प्रेरित जो होते हैं। हमारे देश में धर्म, राजनीति में घुस गया है और विचारधाराएं इसे अपने नफा-नुकसान की तरह प्रयोग करती हैं। यह मुझे तबतक पता न चलता जबतक मैं एक ऐसे देश में नहीं गया जहाँ के अधिकतर लोग नास्तिक हैं और वह भी वास्तविक वाले नास्तिक। हालांकि, उस देश में आस्तिक भी हैं जो बौद्ध धर्म के मानने वाले हैं लेकिन 20-25 प्रतिशत से ज्यादा नहीं। मैंने इसकी तह में जाना चाहा तो पता चला कि बाकी के 75-80 प्रतिशत वास्तव में असली वाले नास्तिक हैं। मैंने जब उन नास्तिकों से उनकी धार्मिक मान्यताओं के बारे में जानना चाहा तो उनके हावभाव ऐसे थे जैसे कि मैंने कोई फालतू सा सवाल पूछा हो। वे बिल्कुल ही धार्मिक जैसे शब्द से अनभिज्ञ लगे। उन्हें कुछ भी नहीं पता। यहाँ तक कि यह भी नहीं कि उनके देश में पूजा पाठ की कोई परंपरा भी है। इनके व्यवहार में कोई कटुता, विद्वेष या विकार मुझे नजर ही नहीं आया। बड़े मिलनसार, सह्रदय और बिल्कुल उस परिभाषा से भिन्न जो हमें भारत के तथाकथित नास्तिकों में दिखाई देती है। निश्चित रूप से हमारे देश के अनेक नास्तिक मनोरोगी हैं जिन्हें बड़े 'इलाज' की जरूरत है। यहाँ यह कहने का यह अर्थ कतई नहीं है कि हर देश के तथाकथित आस्तिकों को किसी इलाज की आवश्यकता नहीं है। अर्थात, उन्हें भी है।

...यह तो सर्वविदित है कि किसी भी स्थान पर चल रहे कार्यकलापों का वहाँ के वातावरण में, वहाँ की फिजा में उसका अपना प्रभाव रहता है। यह प्रभाव वहां पर उपस्थित या उससे संबंधित सभी मनुष्यों, जीव-जंतुओं, पेड़-पौधों पर समान रूप से अपना असर करता है लेकिन यह निर्भर करता है कि किसमें कितनी ग्राह्य क्षमता है। किसकी कैसी भावना है और किसका क्या उद्देश्य है? हमारे देवालयों में बहुत लोग जाते हैं जिसमें कोई भगवान को धन्यवाद कहने जाता है, कोई माफी मांगने जाता है, कोई आशीर्वाद, कृपा के लिए जाता है, कोई जेब काटने के लिए और कोई जूते-चप्पल की फिराक में।

रामचरित मानस में गोस्वामी तुसलीदास जी कहते हैं:
"जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।

....तो वहाँ के वातावरण का असर लोगों की अपनी सोच और मानसिक स्थिति पर निर्भर करता है कि उन्हें वहाँ से क्या हांसिल हुआ, होता है या होगा?

प्रस्तुत लघुकथा में भी गिरजाघर में सफाई के काम में कार्यरत स्टीव का भी ऐसा ही कुछ हाल था। उसे ईश्वर पर कितना विश्वास था यह अलग बात है लेकिन उसे उस रूढ़ि से नफरत थी कि लोगों को घंटी बजाकर प्रार्थना की याद दिलानी पड़ती है। संभवतः यह उसकी अपनी सोच थी लेकिन मंदिर, मस्जिद या गिरजाघर के संचालन के अपने नियम होते हैं और सार्वजनिक स्थलों पर ऐसे कायदे होते हैं जिन्हें वहाँ की व्यवस्था सुचारू रूप से चलाने के लिए यह सब करना पड़ता है। खैर....अक्सर जिन्हें नियम, कायदे कानूनों से खासी परेशानी होती है उनके अपने कुछ अलग ही चरित्र होते हैं। स्टीव का भी यही हाल था। लेखक ने भले ही उसे दिलफेंक न कहा हो लेकिन जब-तब प्राकृतिक/अप्राकृतिक, अभिलाषायें/कुंठाएं सतह पर आ ही जाती हैं। इन्हीं कुंठाओं को शांत करने के लिए वह चला जाता था उस वैश्यालय में जहाँ नियत समय पर सारी लड़कियां बालकनी में खड़ी होती होंगी। शायद ग्राहकों को आमंत्रित करने का समय होता होगा। अब जब स्टीव एक नियत समय पर पहुंचता था तो घटना तो आगे के चरण पर जाना ही चाहेगी। उसे उस समूह की सबसे सुंदर लड़की बहुत पसंद थी और उसके साथ समय बिताने की कीमत थी 55 डॉलर। उसकी अंटी में 10-15 डॉलर से ज्यादा काब्यहि हुए ही नहीं। इतनी रकम उस सफाई कर्मचारी के पास शायद बड़ी थी। तो क्या करे? फिलहाल तो बस उसके दर्शन मात्र से ही सुख पा रहा था। कहते हैं कि आकर्षण के नियम (लॉ ऑफ अट्रैक्शन) का एक सिद्धान्त है कि जो आप चेतन मन से अधिक सोचते हैं वह धीरे-धीरे आपके अचेतन मन में प्रवेश कर जाता है और फिर अचेतन मन उसे आपके लिए उपलब्ध कराने में जुट जाता है। ध्यान रहे, अचेतन मन को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपकी सोच अच्छी है ये बुरी। उसे तो हुक्म की तामील करनी होती है।

जब व्यक्ति का अंतर्मन अनुचित विचारों में लगा रहता है तो फिर किसी बाह्य देवालय के वश की बात नहीं होती है कि आपका आचरण बदल पाए। क्योंकि कि हर व्यक्ति का पहला देवालय उसके अंदर होता है और दूसरा बाहर। जब अंतर्मन ही आपने शुद्ध नहीं किया तो फिर बाहर के मंदिर से जुड़ना असंभव होता है।

स्टीव के अचेतन मन के प्रयासों से उसके विकारों को साकार करने के लिए उसे एक दिन सफाई करते हुए उसी गिरजाघर में किसी का बटुआ मिल गया जिसमें 400 डॉलर की बड़ी रकम थी। स्टीव को तो जैसे इन्हीं की दरकार थी। उसने यह परवाह भी नहीं की कि इस तरह से किसी के बटुए को हड़प लेना कितना बड़ा पाप है। हालांकि उसने चोरी नहीं की थी मगर यह किसी चोरी से कम भी नहीं थी। और जैसे उसकी मुराद पूरी हो गई थी। और फिर वह रकम लेकर वैश्यालय की ओर दौड़ गया, उसी सुन्दर लड़की के पास जिसे उसने बहुत समय से केवल देखकर संतोष किया था। हालांकि उसे पता था कि वह क्या करने जा रहा था, लेकिन किसी का बटुआ हड़पने और वैश्यालय की ओर कदम बढ़ाने से पहले वह प्रभु यीशु को मथ्था टेकना नहीं भूला। अब वह बिना देर किए, उस लड़की को पाना चाहता था और वासना से लथपथ सारी हदें पार करना चाहता था।

....एकतरफा ही सही, उसकी अपनी स्वप्न सुंदरी से मुलाकात और वार्तालाप शुरू हुआ। इससे पहले कि 'मिलन' की बहुप्रतीक्षित घड़ी आती, स्टीव को पता चला कि उसका नाम "मैरी" है। शायद बुराइयों से लदे उस व्यक्ति में गिरजाघर में सफाई के दौरान कहीं न कहीं दुआओं, प्रार्थनाओं, उद्घोषों से छन-छन कर आने वाला पवित्र नाम "मैरी" आज ऊपरी सतह पर आ गया था। आज गिरजाघर में सुने उस "मैरी" शब्द की आवृत्ति (frequency) संभवतः इस वैश्यालय में सुने शब्द से मेल खा गई थी। मन के किसी कौने से आवाज आई और हृदय परिवर्तन हो गया उसका। आखिर रोज-रोज की प्रार्थनाओं, घंटियाँ और वैश्यालय की ओर चलने से पहले प्रभु की चरण वंदना का कुछ तो असर होना ही था। इससे पहले कि वह उस खाई में गिरता, उसने अपने पास उपलब्ध सारे पैसे उस हसीन लड़की को दे दिए। स्टीव के मन में चल रहे झंझावतों से अनभिज्ञ वह सुंदरी तो जैसे घबरा ही गई थी कि इतने ज्यादा पैसे देकर अब उसे और न जाने क्या अनैतिक करना पड़ेगा? पूछने पर स्टीव इतना ही कह सका, "अपना नाम बदल लेना"...और फिर वह वैश्यालय, उस लड़की से दूर आ गया।

आज उसके अंतर्मन ने अनजाने ही सही, उसका 'इलाज' कर दिया था। अब उसके मन में मैरी और गिरजाघर से दूर भी वहाँ की पवित्र घंटियाँ सुनाई दे रही थीं। अब उसे उन आवाजों से कोई नफरत नहीं हो रही थी। मन से काले बादल छँट गए थे।

मैं छतलानी साहब को अच्छी लघुकथा के लिए बहुत शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ।

#रजनीश_दीक्षित

गुरुवार, 27 जून 2019

आलेख: लघुकथा समीक्षा भाग-2 | समीक्षक के गुण | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


इस आलेख के भाग 1 (https://laghukathaduniya.blogspot.com/2019/06/blog-post_8.html) में हमने यह चर्चा की थी कि समीक्षा और आलोचना में भी ईमानदारी की कमी है। बहुत सारी साहित्यिक समीक्षाएं केवल उस पुस्तक की अनुक्रमणिका को देख कर लिखी जा रही है। एक पत्रिका की समीक्षा लिखने से पूर्व उस पत्रिका को पूरा पढ़ना फिर समझना और आत्मसात करना आवश्यक है लेकिन कई बार समीक्षाएं पढ़ कर ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ भी ईमानदारी की कमी है।

इस भाग में इसी बात को आगे बढ़ाते हुए एक समीक्षक या आलोचक में क्या गुण होने चाहिए उस पर चर्चा करते हैं।

समीक्षक या आलोचक के गुण 

सभी अन्य कार्यों की तरह समीक्षक समीक्षा के प्रति ईमानदार तो हो ही, अध्ययनशीलता अथवा समय की कमी के कारण पूरी पुस्तक नहीं पढे बिना समीक्षा ना करें।

हालांकि सबसे
महत्वपूर्ण है आपका समीक्षात्मक विवेक जिसके जरिये आपको लेखक की आत्मा में प्रवेश करना है, उसके भाव और कला को उसकी अभिव्यक्ति के जरिये पहचानना है। उस लेखक की अन्य रचनाएँ आपने पढ़ी हों तो बेहतर और लेखक के व्यक्तित्व के बारे में आप जानते हों तो आप समीक्षा के लिए बेहतरीन व्यक्ति हैं। रचनाकार की समान अनुभूति से सहृदय होकर जुड़ना समीक्षक का मूलभूत गुण है।

समीक्षक निष्पक्ष होकर या यों कहें कि तटस्थ रहकर अर्थात अपने स्वयं के आग्रहों से मुक्त होकर समीक्षा करे। इन दिनों लघुकथा में समीक्षा के तौर पर वाह-वाही का दौर प्रारम्भ हो गया है, जो कि भविष्य में लघुकथा के लिए घातक सिद्ध होगा। व्यक्तिगत दिलचस्पी की ज़मीन पर किसी लघुकथा के गुणों अथवा अवगुणों की विवेचना करने से समीक्षा रूपी पौधा नहीं उग सकता है। 

समीक्षक में सत्य कहने और लिखने का साहस भी होना चाहिए, हालांकि मैं यह मानता हूँ कि समीक्षक एक अच्छा मार्गदर्शक भी होता है और कितनी ही बार लेखक का mentor भी हो जाता है। इसलिए समीक्षक के पास, जिस तरह की रचना की वह समीक्षा कर रहे हैं, का उचित ज्ञान, हृदय में संवेदनशीलता और चिंतन करने की क्षमता भी होनी चाहिए।

समीक्षक को अपनी बातों को तर्कसंगत और तथ्यपरक ढंग से रखना भी आना चाहिएसमीक्षा में देशी-विदेशी रचनाओं/पुस्तकों आदि के अध्ययन कर उनके संदर्भ भी देने चाहिए

समीक्षक को विदेशी साहित्य (रचनाएँ और पुस्तकें आदि) पढ़ना तो चाहिए लेकिन समीक्षा में उनकी नक़ल नहीं करनी है, बल्कि अपने साहित्य को समझ कर उसकी उपयोगिता पर मनन करना चाहिए।

समीक्षक को किसी भी तथ्य तक पहुँचने में उतावला नहीं होना चाहिए

अपनी पहली समीक्षा प्रारम्भ करने से पहले निम्न शब्दों के अर्थों को लघुकथा के संदर्भ में अवश्य समझिए:
आधुनिकता (समसामयिकता), प्रयोगशीलता, अनुभूति, क्षण,  सत्य, यथार्थ, मानव-मूल्य, विसंगति, घटित होना, विडंबना, उपदेशात्मक, मनोरंजन, गंभीरता, संचेतना, व्यापकता, उपयोगिता, साहित्येतर, सामाजिक सरोकार, शिल्प, भाषा, पाठक की बोध-वृति, बिम्ब, प्रगतिशीलताप्रतिबद्धताप्रतिमान और सपाटबयानी।

इसी प्रकार साहित्य की दृष्टि से इन शब्दों पर भी विचार कीजिये:
साहित्य की जड़ता, कृत्रिमता, अप्रासंगिक लेखन, स्वच्छंदता, परम्परागत लेखन, वैयक्तिक रुचि, साहित्यिक दृष्टि, विचारों की प्रौढ़ता, रचनात्मक विचार, युगीन हलचल, वैचारिक द्वंद्, सामाजिक-आर्थिक सहसंबंध, राजनीतिक चिंतन, धार्मिक चिंतन, राष्ट्रीय चिंतन और वैश्विक चिंतन।


क्रमशः:

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

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