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गुरुवार, 3 फ़रवरी 2022

अनिल मकारिया जी द्वारा मेरी एक लघुकथा की समीक्षा



स्वप्न को समर्पित । डॉ.चंद्रेशकुमार छतलानी 

लेखक उसके हर रूप पर मोहित था, इसलिये प्रतिदिन उसका पीछा कर उस पर एक पुस्तक लिख रहा था। आज वह पुस्तक पूरी करने जा रहा था, उसने पहला पन्ना खोला, जिस पर लिखा था, "आज मैनें उसे कछुए के रूप में देखा, वह अपने खोल में घुस कर सो रहा था"

फिर उसने अगला पन्ना खोला, उस पर लिखा था, "आज वह सियार के रूप में था, एक के पीछे एक सभी आँखें बंद कर चिल्ला रहे थे"

और तीसरे पन्ने पर लिखा था, "आज वह ईश्वर था और उसे नींद में लग रहा था कि उसने किसी अवतार का सृजन कर दिया"

अगले पन्ने पर लिखा था, "आज वह एक भेड़ था, उसे रास्ते का ज्ञान नहीं था, उसने आँखें बंद कर रखीं थीं और उसे हांका जा रहा था"

उसके बाद के पन्ने पर लिखा था, "आज वह मीठे पेय की बोतल था, और उसके रक्त को पीने वाला वही था, जिसे वह स्वयं का सृजित अवतार समझता था, उसे भविष्य के स्वप्न में डुबो रखा था।

लेखक से आगे के पन्ने नहीं पढ़े गये, उसके प्रेम ने उसे और पन्ने पलटने से रोक लिया। उसने पहले पन्ने पर सबसे नीचे लिखा - 'अकर्मण्य', दूसरे पर लिखा - 'राजनीतिक नारेबाजी', तीसरे पर - 'चुनावी जीत', चौथे पर - 'शतरंज की मोहरें' और पांचवे पन्ने पर लिखा - 'महंगाई'।

फिर उसने किताब बंद की और उसका शीर्षक लिखा - 'मनुष्य'

-चंद्रेश कुमार छतलानी


इस लघुकथा पर समीक्षा । अनिल मकारिया

यह लघुकथा बेहद रोचक है । यूँ समझिये एक ग्रंथ को लघुकथा में समाहित कर दिया है ।

कुछ प्रतीकों को मैं खोल पाया कुछ को शायद किसी और तरीके से ज्ञानीजन खोल पाएं ।

इस लघुकथा का शीर्षक 'स्वप्न को समर्पित' इस लघुकथा की मूल संकल्पना है आप इस शीर्षक को इस लघुकथा की चाबी कह सकते हैं ।

विष्णु पुराण के मुताबिक यह दुनिया शेषनाग पर सो रहे विष्णु का स्वप्न मात्र है ।

जब विष्णु क्षीरसागर में तैरते हुए शेषनाग पर सो रहे होते हैं तब वे किसी अवत्तार रूप में मृत्युलोक (धरती) पर विचरण कर रहे होते हैं और जब धरती पर अवत्तार रूप में सो रहे होते है तब वह विष्णु रूप में जागृत अवस्था में कायनात का राजकाज देख रहे होते हैं ।

// "आज वह ईश्वर था और उसे नींद में लग रहा था कि उसने किसी अवतार का सृजन कर दिया"//

तीसरे पन्ने पर लेखक (ईश्वर) द्वारा सृजित यह पंक्तियां इस लघुकथा के शीर्षक की संकल्पना को बल देती है ।

इस लघुकथा में ईश्वर को लेखक की संज्ञा दी गई है जो अपनी ही रचना मनुष्य पर मोहित है (प्रतीक: रची गई किताब का शीर्षक 'मनुष्य')

वह अपने बनाये आज के मनुष्य की विवेचना कर रहा है ।

उसे अपना बनाया मनुष्य विभिन्न जानवरों की तरह आचरण करते तो दिख रहा है लेकिन मनुष्यत्व उसमें नदारद है।

शायद इसीलिए अपनी प्रिय रचना मनुष्य से हताश लेखक (ईश्वर) ने अपनी ही किताब के लिखे बाकी के पन्ने पलटने से खुद को रोक दिया ।

//उसने पहले पन्ने पर सबसे नीचे लिखा - 'अकर्मण्य', दूसरे पर लिखा - 'राजनीतिक  नारेबाजी', तीसरे पर - 'चुनावी जीत', चौथे पर - 'शतरंज की मोहरें' और पांचवे पन्ने पर लिखा - 'महंगाई'।//

हर पन्ने को दिए गए शीर्षक आज के मनुष्य की कहानी पन्ना-दर-पन्ना बयान करते हैं ।

'अकर्मण्यता' की वजह से 'नारेबाजी' पर ज्यादा जोर देना जिसके फलस्वरूप 'चुनावी जीत' हासिल करना और दुर्बल वर्ग अथवा सता को शतरंज के मोहरों की तरह इस्तेमाल करके 'महंगाई' का कारण बनाना ।

इस लघुकथा के प्रतीकों को मैंने अपने नजरिये से समझा है हो सकता है लेखक का नजरिया इस लघुकथा को लिखते समय अलग रहा हो ।

मुझे यह लघुकथा निजी तौर पर बेहद पसंद आई । यह लघुकथा पाठक के लिए एक 'कैलिडोस्कोप' है जिसमें कांच के टुकड़े हर बार नई आकृति गढ़ते रहते हैं ।

- अनिल मकारिया

#Anil_Makariya

Jalgaon (Maharashtra)

2 टिप्‍पणियां:

  1. सुंदर लघुकथा की बेहतरीन समीक्षा । रचनाकार एवं समीक्षक दोनों को बधाई।

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